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महाकवि आ० ज्ञान सागर
बृहद्
संस्कृत-हिन्दी शब्द कोष
उदयचन्द जैन
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महाकवि आ० ज्ञान सागर
बृहद् संस्कृत-हिन्दी शब्द कोष
भाग-२ (त से म)
प्रो० उदयचन्द्र जैन
न्यू भारतीय बुक कॉर्पोरेशन
दिल्ली
(भारत)
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इस पुस्तक का कोई भी भाग किसी भी रूप में या किसी भी अर्थ में प्रकाशक की अनुमति के बिना प्रकाशित नहीं किया जा सकता। सर्वाधिकार प्रकाशक के अधीन हैं।
प्रकाशक : न्यू भारतीय बुक कॉर्पोरेशन ५८२४, (समीप शिव मंदिर) न्यू चन्द्रावल, जवाहर नगर, दिल्ली-११०००७ फोन : २३८५१२९४, २३८५०४३७ ५५१९५८०९ E-mail : newbbe@indiatimes.com.
प्रथम संस्करण : २००६
आई.एस.बी.एन. : ८१-८३१५-०४८-९ (set)
मुद्रक : जैन अमर प्रिंटिंग प्रेस दिल्ली-७
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विषय सूची
आत्म कथ्य
(v)
संक्षेपिका
वर्ण असे ह तक
१-१२५०
पारिभाषिक शब्द
१२५१-१२५८
भौगोलिक शब्द
१२५९-१२६३
नामवाचक शब्द
१२६४-१२८३
विशिष्ट शब्द
१२८४-१२९६
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आत्म कथ्य
पंचविधमाचारं चारंति चारयन्तीत्याचार्याः चतुर्दशविद्यास्थानपारगाः एकादशाङ्गधरा।
पांच प्रकार के आचार का जो आचरण करते हैं, उनके अनुसार चलते हैं, वे आचार्य हैं। वे चौदह विद्या स्थानों में पारगामी एवं ग्यारह अंगों के धारी होते हैं। वे ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य से परिपूर्ण बौद्धिक एवं आध्यात्मिक विचारधारा से युक्त सूत्र का व्याख्यान करते हैं। स्वयं स्वाध्याय में लीन दूसरों को भी स्वाध्याय की ओर लगाते हैं। उनके श्रुत से प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग के विषय प्रकाश में आते हैं, जो श्रुत कहलाते हैं। वे श्रुत जिन वचन हैं, जिन्हें आगम, जिनवाणी, सरस्वती, आप्त वचन, आज्ञा, प्रज्ञापना, प्रवचन, समय, सिद्धांत आदि कहा जाता
श्रुत के धारण करने वाले श्रुतधराचार्य कहलाते हैं। वे प्रबुद्ध होने से प्रबुद्धाचार्य, उत्तम अर्थ के ज्ञाता होने से सारस्वताचार्य आदि कहलाते हैं। उनकी रचनायें तीर्थ बन जाती हैं। क्योंकि वे तीर्थंकर की वाणी हैं जिन्हें आचार्य गुणधर, आचार्य धरसेन, आचार्य पुष्प दन्त, आचार्य भूतवलि, आचार्य मंछ, आचार्य नागहस्ती, आचार्य वज्रयस, आचार्य कुन्दकुन्द, आचार्य वट्टकेर, शिवार्य, स्वामी कार्तिकेय आदि प्राकृत मनीषियों के साथ-साथ संस्कृत के सूत्रकार, काव्यकार, कथाकार, पुराण काव्य प्रणेता आदि ने सारस्वत मूल्यों की स्थापना की।
तावार्थसूत्र के सूत्रकर्ता उमास्वामी ने दस अध्यायों में वीतराग वाणी के समग्र पक्ष को प्रस्तुत कर दिया। आचार्य समन्तभद्र की भद्रता के आचार विचार आदि के साथ-साथ दार्शनिक मूल्यों की स्थापना के लिए आप्तमीमांसा जैसे ग्रंथ को लिखकर संस्कृत दार्शनिक साहित्य को पुष्ट किया। उन्होंने स्वयंभूस्त्रोत, स्तुतिविद्या, युक्त्यानुशासन, रत्नकरण्ड श्रावकाचार जैसे सारगर्भित ग्रन्थों की रचना की। वे कवि हृदय सारस्वताचार्य हैं जिन्होंने ई० सन द्वितीय शताब्दी में जीवसिद्धि, प्रमाणसिद्धि, तावविचार, कर्म आदि पर पर्याप्त प्रकाश डाला। आचार्य सिद्धासेन ने अनेकान्तसिद्धि के लिए सन्मतिसूत्र ग्रंथ की रचना की और उन्हीं ने कल्याण मंदिर स्त्रोत काव्य की रचना की। वे नय और प्रमाण की व्यापक दृष्टि को लिए हुए उक्त ग्रंथों को मूल्यवान् बनाते हैं।
__ आचार्य पूज्यपाद को आचार्य देवनंदी भी कहा गया वे एक कुशल व्याकरणकार हैं। उन्होंने जैनेन्द्र व्याकरण की सूत्रबद्ध रचना की। उनकी तावार्थ सूत्र पर लिखी गई वृत्ति सर्वार्थसिद्धि के नाम से प्रसिद्ध है वे योग, समाधि, आदि के विषय को आधार बनाकर समाधितन्त्र एवं इष्टोपदेश की रचना करते हैं। पात्र केशरी का पात्र केशरी स्त्रोत भावपूर्ण है। आचार्य जोइन्दु प्राकृत, संस्कृत और अपभ्रंश के काव्यकार हैं, उनका परमात्म प्रकाश (अपभ्रंश) योगसार, श्रावकाचार आध्यात्मसंदोह, सुहासिततंत्र जैसे संस्कृत रचनाएं भी प्रसिद्ध हैं। आचार्य मानतुंग का भक्तामर स्त्रोत जन-जन में प्रिय है। आचार्य विमल सूरि का प्राकृत का काव्य पउमचरियं रामायण के विकास में योगदान प्रदान करता है। आचार्य रविसेन ने भी राम से संबंधित पद्म चरित्र नामक ग्रंथ की रचना की, जो संस्कृत में सर्वबद्ध है। आचार्य जहानदीना वरांगचरित्र भी चरित्रकाव्य की परंपरा का सन्दरतम् अलंकत ग्रन्थ हैं।
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(vi)
आचार्य अकलंकदेव न्यायशास्त्र के विशेषज्ञ माने जाते हैं। जिन्होंने जैन न्याय की यथार्थता को संस्कृत में प्रस्तुत किया। उनके प्रसिद्ध ग्रंथ इस बात के प्रमाण हैं। लघीयस्त्रय (स्वोपज्ञवृत्तिसहित) न्यायविनिश्चय (स्वोपज्ञवृत्तियुक्त) सिद्धिविनिश्चयसवृत्ति, प्रमाण संग्रहसवृत्ति, तत्त्वार्थवार्तिक सभाष्य, अष्टशती (देवागम-विवृत्ति) आचार्य वीरसेन की ध वला टीका, जय धवला टीका, सभी दृष्टियों से महत्वपूर्ण है। आचार्य जिनसेन ने भगवान ऋषभदेव से संबंधित जो रचना की है वह आदि पुराण के नाम से प्रसिद्ध है। उन्होंने संस्कृत में पार्वाभ्युदय नामक महाकाव्य की रचना की है यह नवीं शताब्दी का महत्वपूर्ण ग्रन्थ है।
आचार्य विद्यानंद परीक्षा प्रधानी आचार्य माने जाते हैं जिन्होंने दर्शन के क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य किया। आप्तपरीक्षा, प्रमाण परीक्षा, पत्र परीक्षा, सत्यशासनपरीक्षा विद्यानंद महोदय, पार्श्वनाथ स्त्रोत. तावार्थ श्लोक वार्तिक अष्टसहस्त्री युक्त्यनुशासनालंकार आदि जैसे दार्शनिक ग्रंथों का महत्वपूर्ण स्थान है। आचार्य देवसेन का दर्शनसार भावसंग्रह, आराधनासार, तावसार, लघुनयचक, आलापपद्धति आदि ग्रंथ संस्कृत साहित्य के विकास में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं। जैन संस्कृत काव्य परम्परा
संस्कृत काव्य परम्परा राष्ट्रीय मानवीय और सांस्कृतिक मूल्यों से जुड़ी हुई परम्परा है। जिसमें वैदिक परंपरा और श्रवण परंपरा इन दोनों ही परंपराओं का महत्वपूर्ण स्थान है। वेद उपनिषद् आदि के उपरान्त, रामायण, महाभारत आदि महाप्रबंधों की रचना हुई, जिन्होंने विषय, भाषा, भाव, छन्द, रस, अलंकार आदि के साथ-साथ मूल कथा को गतिशील बनाया। रामायण, महाभारत आदि के महाप्रबंध को जो काव्य शैली प्रदान की उसे कवि भाष अश्वघोष, कालिदास, भारती, माघ, राजशेखर आदि ने काव्य-शैली को गति प्रदान की। उनके प्रबंध महाप्रबंध बने। संस्कृत काव्य परंपरा का संक्षिप्त विभाजन
१. आदिकाल-ई० पू० से ५ ई० प्रथम शती तक। २. विकासकाल-ई० सन् की द्वितीय शती से सातवीं शती तक। ३. हासोन्मुखकाल-ई० सन् की आठवीं शती से बारहवीं शती तक।
संस्कृत काव्य परंपरा के विविध चरणों में माघ, हर्षवर्धन, वाणभट्ट, मल्लिनाथ, आदि कवियों के काव्यों ने प्रकृति का सर्वस्व प्रदान किया। उनके कवियों ने अनेक महाप्रबंध लिखे, तथा महाकाव्य भी अनेक लिखे हैं। इसी तरह चरित काव्य, खण्ड काव्य, कथा-काव्य, चम्पूकाव्य आदि ने काव्य गुणों को जीवन्त बनाया। जैन संस्कृत काव्य परम्परा
__महावीर के पश्चात् सर्वप्रथम जैन मनीषियों ने आगम ग्रंथों की रचना की जो प्राकृत में है। प्राकृत के साथ जैनाचार्यों ने संस्कृत में भी अनेक रचनायें की हैं। जो कवि प्राकृत में रचना करते थे वे संस्कृत के भी जानकार थे परंतु उन्होंने संस्कृत में रचनायें प्राय: नहीं की, परंतु जो संस्कृत कवि थे उन्होंने प्रायः संस्कृत में ही रचनायें की, और कुछेएक रचनायें प्राकृत में की, प्रारंभिक में बारह अंग, उपांग, चौदह पूर्व, जैसी रचनाएं प्रसिद्ध हुई इसके अनंतर संस्कृत के प्रथम सूत्रकार आचार्य उमा स्वामी ने संस्कृत की सूत्र परंपरा को गति प्रदान की जो काव्य जगत् में कवियों के मुखारबिन्द की अनुपम शोभा बनो। आचार्य समन्तभद्र जैसे सारस्वताचार्य ने संस्कृत में न्याय, स्तुति और श्रावकों के आचार योग्य काव्यों की रचना की। इसके अनन्तर संस्कृत में ही आचार्य पूज्यपाद, आचार्य योगेन्द्र, आचार्य मानतुंग, आचार्य जिनसेन, आचार्य विद्यानन्द, आचार्य देवसेन, आचार्य अमितगति, आचार्य अमरचन्द्र, आचार्य नरेन्द्रसेन आदि ने जो धारा प्रवाहित की वह
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(vii)
काव्य परम्परा को गतिशील बनाने में सहायक हुई। पुराणकाव्य और महाकाव्य दोनों ही जहां विकास को प्राप्त हुये वहीं अनेक चरित काव्य भी काव्य की रमणीयता से युक्त पौराणिक और ऐतिहासिक क्वेिचन को करने में समर्थ हुये।
डॉ० नेमीचन्द्र शास्त्री ने काव्य-विकास यात्रा के तीन चरण प्रतिपादित किये हैं। (क) चरितनामांत महाकाव्य (ख) चरितनामांत एकान्त काव्य (ग) चरितनामांत लघु काव्य
चरित्रनामांत नाम से युक्त अनेक काव्य रचनायें हुई, जटासिंह नन्दी का वरांगचरित, रविसेण का पद्मचरित, वीरनंदी का चन्द्रप्रभुचरित, असग कवि का शान्तिनाथ चरित, वर्धमान चरित, महाकवि वादिराज का पार्श्वनाथ चरित, महाकवि महासेन का प्रद्युम्नचरित, आचार्य हेमचन्द्र का कुमारपाल चरित, गुणभद्र का धन्यकुमार चरित, उत्तर जिनदत्त चरित, नेमिसेन का धन्यकुमार चरित, धर्मकुमार का शाभद्रचरित, जिनपाल उपाध्याय का सनत कुमार चरित, मलधारी देवप्रभ का पांडवचरित, मृगावतीचरित, माणक चन्दसूरि का पार्श्वनाथ चरित, शान्तिनाथ चरित, सर्वानंद का चंद्रप्रभुचरित, पार्श्वनाथ चरित, विनयचंद्र का अजितनाथ चरित, पार्श्वचरित, मुनिसुव्रतचरित आदि कई ऐसे महाकाव्य हैं जो चरित प्रधान
विक्रम की चौदहवीं शताब्दी में मलधारी हेमचंद्र ने अनेक चरित ग्रंथों की रचना की। जिनमें नेमिनाथ चरित प्रमुख है। इसी तरह भट्टारक वर्धमान का वरांगचरित, कमलपभ का पंडरीकचरित, भावदेवसरि का पार्श्वनाथचरित, मुनिभद्र का शांतिपथचरित एवं चन्द्र तिलक का अभयकमार चरित, शास्त्रीय महाकाव्य के लक्षणों से यक्त हैं जो से परिपूर्ण प्रबंध की काव्यगत विशेषताओं को लिये हुए है।
संस्कृत काव्य की परंपरा में अकलंक, गुणभद्र, समन्तभद्र, मिमरचंद, काव्य महाभारत के कवि का काव्यत्व अनुपम है। इसके अतिरिक्त भी अनेक काव्य महाकाव्य लिखे गये। महाकवि हरिश्चंद्र का धर्मशर्माभ्युदय वैदिक परंपरा के संस्कृत काव्य रघुवंश, कुमारसंभव एवं किरात् आदि उस समय का प्रतिनिधित्व करते हैं। कवि हरिचंद्र का जीवंधर चंपू महाकवि असग का वर्धमान चरित भी महत्त्वपूर्ण है। वादीभसिंहसूरि की क्षत्रचूणामणि सूक्ति शैली का काव्य हैं। जिनसेन का आदिपुराण, हरिवंश पुराण आदि भी महत्वपूर्ण है। शिशुपालवध की शैली पर आधारित जयंतविजय का भी महत्वपूर्ण स्थान है। वस्तुपाल ने स्तुति काव्यों की विशेष रूप से रचना की आदिनाथ स्त्रोत, अंबिका स्त्रोत, नेमिनाथ स्त्रोत, आराधना गाथा आदि भक्ति प्रधान रचनायें हैं। इसमें कवि भारती के निरात आजुनेय की काव्य शैली भी है। ___संधान ऐतिहासिक और स्तुति अभिलेख आदि काव्य भी लेन परम्परा में लिखे। द्विसंधान में कवि धनंजर ने कथा और काव्य दोनों का समावेश किया जो महाकाव्य की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। सप्तसंधान के रचनाकार मेघ विलयमणि है उनकी अन्य रचनाएं भी है, जिनमें देवनन्द महाकाव्य, शांतिनाथ चरित, दिग्विजय महाकाव्य, हस्तसंजीवन के साथ-संस्कृत युक्ति प्रबोध नाटक मिलते हैं। नेमिदूत समस्यापूर्ति काव्य है। जैन मेघदूत कवि मेरुगुप्त की प्रसिद्ध रचना है। इसी तरह शीलदूत चरित्रगणि की रचना है। प्रबंध दूत के रचनाकार वादिसूरी हैं। ___जैन काव्य परम्परा में द्वितीय, तृतीय शताब्दी से लेकर अब तक अनेक रचनाएं लिखी जा रही है। बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में जैन जगत् के प्रसिद्ध महाकवि ज्ञानसागर ने अनेक प्रकार की रचनाएं की। उनमें जयोदय, वीरोदय, सुदर्शनोदय, भद्रोदय जैसे महाकाव्य दयोदयचम्पू, सम्यक्त्वसारशतक, मुनि मनोरंजनाशीति, भक्तिसंग्रह, हितसम्पादक आदि कई काव्य हैं।
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( viii)
महाकवि ज्ञानसागर सिद्धांतवेदता के साथ-साथ प्रबंध काव्य में निपुण एवं सुलझे हुए महाकवि हैं उनके काव्यों की संस्कृत साहित्य के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका मानी जाती है क्योंकि उनमें संस्कृत काव्य कला के पक्ष आदि विद्यमान हैं। उनकी ज्ञान-साधना में सिद्धांत एवं प्रबंध का महत्वपूर्ण स्थान है।
संस्कृत काव्य के आलोक में संस्कृत नाटकों का भी महत्वपूर्ण योगदान है। जैन जगत में विक्रांत कौरव जैसा नाटक प्रसिद्ध है। उसी संस्कृत में भास, कालिदास का शाकुन्तलम्, चन्द्रोदय, अविमारक, उत्तररामचरित, प्रतिमानाटकम् आदि अनेक नाटक संस्कृत और प्राकृत का प्रतिनिधित्व करते हैं। काव्य की रमणीयता में उनके शब्द क्या है उनका अर्थ क्या है एवं उनके क्या महत्व है यह तो ज्ञान-संस्कृत हिन्दी कोष से ही ज्ञात हो सकेगा। इस ज्ञान-संस्कृत शब्द-कोष में जैन संस्कृत काव्यों एवं वैदिक संस्कृत काव्यों के कुछ एक उद्धरण भी दिये गये हैं।
यह महाकवि आ० ज्ञान सागर संस्कृत हिन्दी शब्द-कोष सभी दृष्टियों से महत्वपूर्ण बनाया गया है। इसमें अधिक से अधिक ज्ञान के आधारभूत शब्दों को सम्मलित किया गया है। यह वैदिक एवं जैन दोनों ही विद्याओं के शब्दों से संबंधित कोश ग्रंथ है। इसे साहित्य के अनेक विषयों के साथ जोड़ने का प्रयास किया गया परन्तु यह सीमित शब्दों का शब्द कोश केवल शब्द कोष नहीं है अपितु विविध शब्दार्थ का शब्द-कोष भी है। कुछ स्थानों पर शब्द चयन के साथ-साथ व्युत्पत्ति, परिभाषा, शब्द विश्लेषण, अर्थ गाम्भीर्य आदि को भी उचित स्थान दिया गया, जिससे इसकी उपादेयता अवश्य ही शब्द के अर्थ में सहायक बनेगी। इस कोश में सामान्य शब्द के अर्थ के साथ-साथ विशिष्ट अर्थ बोधक शब्दों को भी महत्व दिया गया। शब्द संकलन
संस्कृत के स्वर और व्यंजन दोनों ही को क्रमबद्ध रखकर उन्हें उपयोगी बनाया गया है। इसमें सीमित शब्दों के उपरांत भी शब्द योजना को विशिष्टत अर्थों के साथ उद्धरण शब्द, पर्यायवाची शब्द आदि भी संख्याकम के अनुसार दिये गये है। यद्यपि संस्कृत में कई कोश ग्रंथ प्रकाशित हुए हैं। उनका अपना महत्वपूर्ण स्थान है। उनके कम युक्त शब्द में आचार्य के वों काव्य के शब्द संस्कृत हिन्दी शब्द कोश में समाहित हो गये हैं। इसे आवश्यक एवं अधिक उपयोगी बनाने के लिए वैदिक और जैन दोनों ही संस्कृतियों के शब्दों को स्थान दिया गया है। यहां यह ध्यान देने योग्य विचार है कि इसमें विस्तार की अपेक्षा संक्षिप्त में ही विषय विवरण को दिया गया है। इसके शब्द संग्रह में प्रायः प्रचलित शब्दों को स्थान दिया गया।
कोश का शब्द प्रवष्टियां एवं भाषागत विशेषताएं भी कुछेक संकेत के साथ ही दिये गये हैं। संज्ञा, सर्वनाम, किया, कृदन्त, विशेषण, तद्धित आदि कितने ही प्रयोग कोश को महत्वपूर्ण बनाते हैं। इसलिए आवश्यकतानुसार कुछ ही स्थानों पर शब्द और अर्थ के चयन में उनकी सहायता दी गई है।
ज्ञान संस्कृत-हिन्दी शब्द कोश में आचार्य ज्ञानसागर के परम शिष्य आचार्य विद्यासागर और आचार्य विद्यासागर के ही प्रबुद्ध विचारक मुनि पुंगव सुधासागर जी, क्षुल्लक गंभीर सागर, क्षुल्लक धैर्यसागर एवं अन्य प्रबुद्ध विचारकों के परम आशीष से इस शब्द कोष को गति दी गई। यह कहते हए मुझे अत्यंत गौरव का अनुभव हो रहा है कि जिन शब्द कोशकारों के शब्द और अर्थ के चयन करने में सहयोग मिला वह अत्यंत ही उपकारी है। जैनेन्द्र सिद्धांत कोश, जैन लक्षणावली, संस्कृत-हिन्दी शब्द कोश, राजपाल हिन्दी शब्दकोश, प्राकृत हिन्दी शब्द कोश आदि के संपादकों का मैं अत्यंत आभारी हूं। इसके तैयार करने में मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय उदयपुर के दर्शन विभाग के प्रोफेसर के० सी० सोगानी, जैन विद्या एवं प्राकृत विभाग में प्रोफेसर प्रेम सुमन जैन, सह आचार्य हुकुमचन्द्र जैन एवं अन्य विभागीय
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(ix)
सहयोग से इसे इस रूप में प्रस्तुत किया गया। जिन्होंने प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप में इसे गतिशील बनाया उनका मैं हृदय से आभारी हूं।
संस्कृत जगत् के वे सभी काव्यकार पूज्य हैं जिनकी विविध कृतियों को देखने का अवसर प्राप्त हुआ। मैं उनके शब्द सागर में प्रवेश नहीं कर पाया। परंतु यदा कदा जो कुछ भी उनसे ग्रहण किया या उन ग्रंथ कर्ताओं या उन संपादकों के पाठों को स्थान दिया। इसलिए मैं इस सहायता के लिए हृदय से आभार व्यक्त करता हूं। ___आभारी हूं हितैषियों का, सहयोगियों का और अत्यंत आशीष को प्राप्त हुआ मैं आचार्य विद्यानंद के चरणों में बारंबार नमोस्तु करता हूं और यही भावना व्यक्त करता हूं कि उनका आशीष तथा मनि पंगव सधासागर की सुधामयी इस महाकवि आ० ज्ञान सागर संस्कृत हिन्दी शब्द कोश की ज्ञान गंगा को गतिशील बनाये रखेगी। विशेष आभार है उन व्यक्तियों का जिन्होंने मुझे बहुत सम्मान दिया और उत्तम सुझाव भी दिये। इस शब्द में गागर से सागर तक की यात्रा गृह आंगन में ही हुई जिसमें सहयोगी बने घर के सदस्य ही। श्रीमती डॉ० माया जैन ने गृहणी के उत्तरदायित्व के साथ-साथ इसे उपयोगी बनाने में भी सहयोग किया। पुत्री पिऊ जैन एम- एस. सी०, बी० एड०, एवं प्राची जैन के अक्षर विन्यास ने भी गति प्रदान की। मैं इस शब्द-कोश के प्रकाशक श्री सुभाष जैन, न्यू भारतीय बुक कारपोरेशन, दिल्ली का भी आभार व्यक्त करता हूं। जिन्होंने इसे छापकर जनोपयोगी बनाया। मैं, साहित्य मनीषियों से निवेदन करता हूं कि वे अपने सुझावों से इसे उपयोगी बनाने का प्रयत्न करेंगे ताकि आगे आने वाले संस्करण में यदि उनको समावेश किया गया तो अत्यंत प्रसन्नता का अनुभव करूंगा।
२ अप्रैल, २००५
-डॉ० उदयचंद्र जैन
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संक्षेपिका
अमर० जयो० जयो० म० तत्त्वा० त०वा० त०वा० श्लोक दयो० धव.पु० न्या० प्रमे० भ० सं मू० मूला० मुनिमू०/मूला० वि० लोचन वीरो० सुद० समु० सम्य० स०सि० हि०सं०
अमरकोष जयोदय महाकाव्यम् जयोदय महाकाव्यम् तत्त्वार्थसूत्र तत्त्वार्थ राजवार्तिक तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक दयोध्यम् धवला पुस्तक १ से १६ न्यायदीपिका प्रमेयरत्नमाला भक्तिसंग्रह भगवती आराधना मुनिरञ्जनासीति मूलाचार विश्वलोचन कोष वीरोदयम् सुदर्शनोदय समुद्रदत्त चरित्र सम्यक्त्वशतकम् सर्वार्थसिद्धि हितसंपादक
मूल शब्द
पुलिंग
पु० नपुं० स्त्री० क्रि०वि०
नपंसुकलिंग स्त्रीलिङ्ग क्रिया विशेषण
वि०
विशेषण
अव्य० अक०
अव्यय अकर्मक सकर्मक
सक०
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४२७
तडित्वः
तः (पुं०) तवर्ग का प्रथम वर्ण, इसका उच्चारण स्थान दन्त
है। १. 'तस्य पालकस्य 'त' विश्व का पालक। (जयो०
७/२५) तकः (पुं०) माण्डपिक, वधू पक्ष के लोग। 'तैरेव तकैः
माण्डपिकैः कन्यापक्षिलोकैर्धनैर्बुहुभिर्मधैः परा' (जयो० वृ० १२/१३३) प्रयत्नशील (जयो० १३/५८) २. शत्रु स्त्रियां-विपरीत लोग। व्यशेषयन् वा ०द्रतमीर्षमार्य तकाञ्छतत्वेन किलारिनार्यः। (जयो० १/२६) ३. दुःखी-'विरहाक्तानाम्' (जयो० १५/९) ० लोग, जन, मनुष्य (दयो० ५४) 'नहि तकैर्जितकैतवएव स' (जयो० ९/५४) 'दारकं समुपादाय प्रसन्नमनसा सकम्'
(दयो० ५४) तक्र (नपुं०) [तक्। रक्] छांछ, मट्ठा, दधिविकार।
(जयो० १६/९, जयो० २/१५३) तक्रतुल्यं (नपुं०) छांछ सदृश्य, छांछ का संयोग। दुग्धस्य
धारेव किलाल्पमूल्यस्तत्रनुयोगो मम तक्रतुल्य। (जयो०
२०/८४) तक्रनिकरः (पुं०) छांछ समूह। तक्रसंयोगः (पुं०) छांछ का संयोग। (जयो० २०/८४) तक्रविन्दुः (स्त्री०) तक्रनिकट, छांछ की बूंद। (जयो० २१/५५) तक्ष् (सक०) १. धीरना, काटना, छीलना, छिन्न-भिन्न करना,
खण्ड करना। २. बनाना, रचना करना, निर्माण करना। ३.
आविष्कार करना। तक्षकः (पुं०) [तक्ष्+ण्वुल्] १. बढ़ाई, सुनार, विश्वकर्मा,
छेदक। (जयो० ६/१०४) २. सूत्रधार, वास्तुकार। तक्षणं (नपुं०) [तक्ष्+ल्युट्] छीलना, काटना, बनाना। तक्षन् (पुं०) [तक्ष् कनिन्] बढ़ई, सुनार, विश्वकर्मा। तगरः (पुं०) सुगन्धि लता। तङ्क (सक०) सहना, हंसना। तङ्कः (पुं०) [तक+घञ्] कष्टमय जीवन, भय, डर।। तङ्कन (नपुं०) [त +ल्युट] कष्टमय जीवन। तङ्ग (अक०) जाना, पहुंचना, फिरना, भ्रमण करना। तज्जन्मदात्री (वि०) जन्म देने वाली (जयो० ११/५४) तञ्च् (सक०) सिकोड़ना, संकुचित करना। तच्चेत् (अव्य०) तभी (सुद० ५/८) तटः (पुं०) [तट्+अच्] किनारा, कगार, प्रान्तवर्ती, कूल,
उतार, ढलान, स्थल। (सुद० २/५)
तटं (नपुं०) किनारा, कगार, मूल, प्रान्त। तटगत (वि०) किनारे को प्राप्त, स्थल को प्राप्त। तटगामिन् (वि०) किनारों की ओर गया। तटवर्तिन् (वि०) समीप रहने वाली। (जयो० २६/२४) तटसंस्थित (वि०) किनारे पर स्थित हुआ। (समु० २/१९) तटसान्द्रः (पुं०) वनप्रान्त, अरण्यभाग, वनस्थल। बहुपत्ररथं
ययौ मुदा तटसान्द्रं भटसन्मणेस्तदा। (जयो० १३/७४) तटस्थ (वि०) १. तटवर्ती, किनारे को प्राप्त, कुलगत, स्थल
गत। २. अलग स्थित, पृथक्गत। ३. उदासीन, पराया, निष्क्रिय। (जयो०२/२६) ४. एक-दूसरे के प्रति एक सा भाव। मध्यस्थ-'दिनानि अत्येति तटस्थ एव' (सुद० १११) ५. स्वेच्छानुकूल काष्ठं यदादाय सदा क्षिणोति हलं तटस्थो
रथकृत् करोति। (जयो० २८/९०) तटस्थित (वि०) तट पर गया, किनारे को प्राप्त हुआ, उदासीन
हुआ। 'तटस्थितानां वारि योषिताम्' (जयो० १४/५६)
'तटस्थितान् उदासीनान्'तटाकः (पुं०) [तट+आकन्] तडाग। (दयो० ४३) तटाकं (नपुं०) तालाब, सरोवर। (जयो० २१/८८) (जयो०
१२/१४०) तटान्त (पुं०) [तटमस्त्यस्या इनि ङीष्] १. नदी, सरिता,
(जयो० २१/८८) २. विभक्त, विभाजित, छटी हुई। तटिनीद्वयतो महीभृति, परिणामेन महीयसी सती' (समु०
२/५)
तटिनीतट (नपुं०) नदी तट, सरिता कुल। (जयो० २१/८८) तटी (स्त्री०) तलहैटी, प्रान्तवर्ती स्थल। 'समेखलाभ्युन्नतिमन्नितम्बा
__ तटी' 'असौ महाभोगनियोगिनी गिरेस्तटी' (जयो० २४/३५) तड् (सक०) पीटना, ताड़न करना, मारना, आघात पहुंचाना,
छिन्न-भिन्न करना, प्रहार करना। तडागः (पुं०) [तड+आग] तालाब, जलाशय, सरोवर, गहरा
जोहड़। तडाघातः (पुं०) उच्च आघात, तीव्र प्रहार। तडित् (स्त्री०) [ताडयति अभ्रम्-तड+इति] १. विद्युत, बिजली,
चपला। (जयो० १२/५६) (सुद० १/४३) २. चञ्चल,
चपल। (जयो० ४/६२) तडित्व (वि०) [तडित्+मतुप, वत्वम्] बिजली वाला। तडित्वत् (वि०) विद्युत युक्त। तडित्वः (पुं०) जलधर, मेघ, बादल-अथैतदागोहतिनीति
सत्त्वाच्छृणत्यशेषं तमसौ तडित्वान्। (वीरो० ४/१२)
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तडिन्मय
४२८
ततः प्रभृति
तडिन्मय (वि.) [तडित्+मयट्] विद्युत् युक्त। तडिल्लता (स्त्री०) बिजली की रेखा। 'तडिल्लतालङ्करणायेव
सा' (जयो० २२/४०) तण्ड् (सक०) प्रहार करना, घायल करना। तण्डकः (पुं०) [तण्ड्+ण्वुल] खञ्जन पक्षी। तण्डुलः (पुं०) [तण्ड्+उलच्] चांवल, धान्य, शस्य, धान्य।
(सुद० वृ० ७०) कूटने के पश्चात् प्राप्त होने वाला
धान्य। तण्डुलमण्डेन (नपुं०) चांवल से अलंकृत। (जयो० २५) । तत् (सर्वनाम्) वह। तस्य (जयो० १/१३) सः (पुं०) स |
साधुसंसर्ग (सुद० १/२३) स जटालवालवान् (सुद० ३/१४) तं (नपुं०) सा (स्त्री०) लताभूयमालिलिङ्ग सा तु (सुद० ३/२) (जयो० २३/९९) जगदुद्योतनाय सति दीपे सा भाषा भाति समीपे। (जयो० २२/४१) ताः सकलाः (स्त्री०) प्र० बहुवचन। (सुद० १/२८) 'ता' (स्त्री०द्वि०ए०) सुद० ३/१२ (सुद० वृ० ९४) तां युवति (सुद० २/४९) (जयो० वृ० १/१७) (सुद० ३/११) (प्र०बहु जयो०१/२०) 'समाधिगम्य समदृशा जयं सं' (जयो० २२/४३) तेन-(वृ० ए० जयो० १/१५) (सुद० २/२०) तस्मै ४/१ (सुद० १/६७) तेभ्यः (पं० बहु० १/२४) तया २/१ (सुद० ३/१५) तास्यः (पं० बहु १/१९) ताभिः (वृ० बहु०) सुद० ३/२३, तयो० ६/२, सुद० ४/१७। तस्याः (स्त्री०) षष्ठी एक (सुद० २/४३) तौ प्र०वी० सुद० २/४०, जान् पुं०द्वि०बहु सुद० ११८। ते (स्त्री०) प्रथमा द्विवचन। (सुद० ३/२५) तासाम (६/३ स्त्री० जयो० ३/६३) तेषां (६/३, पुं० सुद० ११७) बहुलास्तु तासाम्। तासु ७/३ स्त्री०, सुद० ७५।
तस्मिन् (७/१, पुं० जयो० ३/५०) तत् (अव्य०) अविद्यमान वस्तु का उल्लेख। जं तं तव, तो भी.
तथा, वैसे ही। तत्कलिला (स्त्री०) कृमि, कीट। (सुद० १०२) तत्कालः (पुं०) वर्तमान समय, विद्यमान क्षण। (दयो० वृ०
तत्क्षण एव (अव्य०) उसी समय ही, तुरन्त ही, शीघ्र ही।
(२०/१२) तत्गत (वि०) उसी ओर गया हुआ। तत्ज (वि०) तत्काल। तज्ञ (वि०) जानने वाला। तत्तृतीय (वि०) उसी क्रम में तीसरी बार। वत्धन (वि०) कृपण, कंजूस। तत्पर (वि०) परायण, तैयार, उद्यत। (जयो० ११/१३, सुद०
३/४४) तत्परायण (वि०) पूर्णतः संलग्न। तत्पुरुषः (पुं०) १. प्रधान व्यक्ति, २. एक समास जिसमें
प्रथम पद प्रधान होता है या जिसका उत्तरपद पूर्वपद द्वारा
परिभाषित होता है। 'उत्तरपदप्रधानः तत्पुरुषः' तत्पूर्व (वि०) प्रथमतः घटित, पूर्व का, पहला। तत्प्रथम (वि०) प्रथम बार करने वाला। तत्बल: (पुं०) एक शक्ति या बाण विशेष। तत्मानं (अव्य०) एक मात्र, अकेला। तत्याज (वि०) उज्झितवन्ती। (जयो० १६/३६) तत्वाचक (वि०) सत्य वाचक, सत्य कहने वाला। तत्वात् (वि०) तात्त्विक, तत्त्व सम्बन्धी। (सुद० १२४) सम्पदि
तु मृदुलतां गत्वा पत्रतामेत्यहो तत्वात्। (सुद० १२४) तत्विध (वि०) उसी प्रकार का। तत (भू०क०कृ०) [तन्+क्त] फैला हुआ, विस्तारित। तत (वि०) प्रसृत, तल्लीन। (जयो० २६/६५) ततः (पुं०) तत वाद्य विशेष, एक ध्वनि। 'स ततेन ततः कृतो
ध्वनिः' (जयो० १०/१६) ततेन वाद्येन ततः' परिव्याप्त
ध्वनि कृतः' (जयो० वृ० १०/१६) । ततस् (अव्य०) [तद्-तसिल्] उस स्थान, उसी प्रकार, वहां
से, उस रूप में, इसलिए, फलतः, तो भी, फिर भी ततः-तदनन्तर-'मुमुदे जातुजसत्तमस्ततः' (सुद० वृ० १२१) (सुद० ३/४) ततः इसलिए-प्रतिवेद च देवता ततः' (वीरो०७/२६) विश्वदाक्षी रहितस्य तत्त्वतः (वीरो० ७/२६) उसी प्रकार-'शिखेव दीपस्य ततस्त एतां' (समु०
१/१४) अतएव-'तत कुर्यान्महाभाग' (सुद० १२६) ततत्यजा (स्त्री०) अस्पष्ट वाणी। (जयो० १६/५०) ततस्ततः (अव्य०) जहां कही भी। ततःकिम् (अव्य०) तो भी क्या? ततः प्रभृति (अव्य०) तब से अब तक।
३२)
तत्कालं (अव्य०) अविलम्ब, तुरन्त, शीघ्र, उसी समय।
(जयो० २/१३८) तत्क्षणः (पुं०) उसी समय, विद्यमान, वर्तमान समय। तत्क्षणं (अव्य०) तुरन्त, शीघ्र।
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ततांशुः
४२९
तत्त्वार्थराजवर्तिकः
ततांशुः (पुं०) विस्तृत किरण। ०प्रकाशवान किरण। तता तत्त्वभृत् (वि०) यथार्थ युक्त। 'तत्त्व विभर्ति इति तत्त्वभृद्
विस्तृता अंशवो यस्य स (जयो० १५) प्रसृत किरण। यथार्था' (जयो० २/५) ततश्च (अव्य०) तो भी। (सुद० ४/२८)
तत्त्वबुद्धिः (स्त्री०) तत्त्व ज्ञान युक्त धी होयोपादेयज्ञान, ततोऽत्र (अव्य०) फिर भी यहां (जयो० १/६७)
'तत्त्वबुद्धिस्तद्दधी: कुतः स्याद्यदि चित्तशुद्धिः शुद्धेश्च किं तति (स्त्री०) [तन्+क्तिन्] पंक्ति, सन्तति, परम्परा, श्रेणी, जिनवाक्यप्रयोगः। (वीरो० ५/३१)
रेखा। 'सतां ततिः स्याच्छरदुक्तरीतिः' (सुद० १/८) | तत्त्ववर्त्मन् (पुं०) तत्त्वमार्ग, सन्मार्ग, यथार्थ पथ, वास्तविक 'गुणयुक्ता वचस्ततिः' (सुद०८८)
पथ, धर्मज्ञानमार्ग। (जयो० २/१२) 'तत्त्वस्य वर्त्म तस्मात् तत्तत्सम्बन्धिन् (वि०) उसी से सम्बंधित। (सुद० ४/११)
सन्मार्गः तत्त्ववर्त्मनिरता यतः सुचित्प्रशस्तरेषु' (जयो० २/१२) तत्त्वं (नपुं०) [तत्त्व ] १. वास्तविक स्थिति, यथार्थ दशा, | तत्त्ववेणी (वि०) तत्त्वज्ञानी। (वीरो० १६/८)
समीचीन अवस्था। 'तदुदन्त्वेनाहं नेदं तत्त्वेन' (जयो० तत्त्वविद् (वि०) तत्त्वज्ञाता, आत्मज्ञाता, ब्रह्मवेत्ता। १६/७२)
तत्त्वस्थितिः (स्त्री०) तत्त्व का वर्णन। (जयो० २८/४०) ० उचित, उपयुक्त-'इदं ते तत्त्वमुचितं नास्ति' (जयो० तत्त्वानां जीवादीनां स्थिति।
५/३७) वेत्सि देवि पद मर्हसि तत्त्वं मौलमत्र नहि ते | तत्त्वातिगत (वि०) तत्त्व से रहित, आत्मज्ञान से विमुख। खलु तत्त्वम्। (जयो० ५/३७)
(समु० ९/१४) ० स्वभाव, प्रकृति-'किसलयस्य तत्त्वं स्वभावम्' (जयो० तत्त्वाधिगम् (वि०) तत्त्व की जानकारी। वृ०५/४२)
तत्त्वाधिगमार्थ (वि०) वस्तु परिज्ञानार्थ। (जयो० २६/७२) वास्तव- (सुद० १०२)
तत्त्वानुशीलन (नपुं०) तत्त्व चिन्तन। तात्त्विक दृटि- जीवो कृति न हि कदाप्युपयाति तत्त्वानुसूक्ष्मः (पुं०) तत्त्व के अनुरूप। तत्त्वात्। (सुद० १२९)
तत्त्वाभिनिवेश: (पुं०) तत्त्वज्ञान, यथार्थबोध। ० तत् तत् स्वभाव वाला।
तत्त्वार्थः (पुं०) यथार्थ, सत्यार्थ, वास्तविक। (सम्य० ७२) ० सदसदात्मक
पश्यन्नपि न भूभागे तत्त्वार्थं प्रतिपद्यते। (सुद० १२८) ० प्रमाणसिद्ध स्वभाव रूप
० जो पदार्थ जिस रूप में अवस्थित हो, उसी रूप का ० स्व-पर-उपकारी
निश्चय। 'तत्त्वेनार्यत इति तत्त्वार्थ:। अर्यते गम्यते बहुनयविधायी
ज्ञायते इत्यर्थः। तत्त्वेनार्थ: तत्त्वार्थः। (स०वा० १/२) द्रव्य-पर्यायात्मक
स्वरूप बोध। उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य युक्त वस्तु रूप तदिति विधिः, ० स्वभावगत ज्ञान। तस्य भावस्तत्त्वम्' तत्त्वं श्रुतज्ञान।
० जीवादि पदार्थ का यथास्वरूप का प्रतिबोध। याथात्म्य रूप
० प्रमाणगत अवबोध। ० हेयोपादेयज्ञान
० नय जन्य ज्ञान। ० वस्तु स्वरूप। तत्त्वानि जैनाऽऽगमवाद्विभर्ति क्षेत्राणि | तत्त्वार्थनामः (पुं०) तत्त्वार्थसूत्र नाम। (सुद० वृ० ८३) सप्तायमिहाग्रवर्ती। (वीरो० २/५)
तत्त्वार्थप्रतीतिः (स्त्री०) तत्त्वज्ञान के अर्थ की जानकारी, तत्त्वत: (अव्य०) वस्तुतः, ठीक ठाक।
तत्त्वार्थ बोध। तत्त्वअर्थः (पुं०) पदार्थ विवेचन। (सम्य० ८२)
तत्त्वार्थबोधः (पुं०) तत्त्वार्थ का ज्ञान। तत्त्वज्ञ (वि०) वस्तुतत्त्ववेदी, वस्तु तत्त्व का जानने वाला। तत्त्वार्थ भावः (पुं०) तत्त्वज्ञान का स्वभाव। तत्त्वज्ञानं (नपुं०) तत्त्व अभिनिवेश, जीवादि तत्त्वों की प्रतीति तत्त्वार्थमतिः (स्त्री०) तत्त्व के अर्थ प्रति बुद्धि। याथात्म बोध।
तत्त्वार्थभाष्यः (पुं०) ग्रन्थ नाम। देवागमस्तोत्र, (जयो० ३/६९) तत्त्वचिन्ता (स्त्री०) यथार्थ स्वरूप का चिन्तन। (वीरो० १६/७७) | तत्त्वार्थराजवर्तिकः (पुं०) अकलंक देव द्वारा रचित तत्त्वार्थमूत्र तत्त्वनिर्णिनीषु (वि०) तत्त्व की प्रतिस्थापना करने वाला।
पर महावृत्ति।
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तत्त्वार्थसूत्रं
४३०
तद्धितः
तत्त्वार्थसूत्रं (नपुं०) आचार्य उमास्वामी की सूत्रगत एक तथात्वं (नपुं०) [तथा+त्व] ऐसी अवस्था, ऐसा होना। प्रसिद्ध रचना, जिसमें दश-अध्याय हैं।
तथा तथा (अव्य०) उस, उस रीति से। (सुद० १०१) तत्त्वार्थसारः (पुं०) ग्रन्थ नाम।
तथापि (अव्य०) तो भी, तब भी, फिर भी, उसी प्रकार भी। तत्त्वार्थ-सार्थानुभव: (पुं०) तत्त्वार्थ के समुदाय का ज्ञान, (समु० ३/७) (सुद० ११८)
तत्त्वार्थ का वर्णन। तत्त्वानां जीवादीनां सार्थः समुदायस्तस्या तथापुनः (अव्य०) फिर भी (जयो० १/२६) तात्पर्य अर्थ में। तत्त्वार्थाधिगमः (पुं०) यथावस्थित पदार्थ का ज्ञान। तत्त्वं तथारूप: (पुं०) तद रूप, उसी रूप।
अविपरीतोऽर्थः सुख-दुःख हेतुः, अधिगम्यते अनेनास्मिन्निति तथामतः (पुं०) उसी प्रकार का सिद्धान्त, यथार्थ सिद्धान्त। तत्त्वार्थाभिगमः'।
तथाविध (अव्य०) इस प्रकार, इस रीति से। (दयो० ९७) तत्त्वार्थाभिमुखः (पुं०) तत्त्व ज्ञान के प्रति तत्पर, ज्ञानी, | तथैव (अव्य०) तो भी, उसी प्रकार से भी, वैसी भी। (जयो०
सम्यकदृष्टि-'तत्त्वार्थस्याभिमुखो ज्ञानी सम्यग्दृष्टिराहतो २४/१०, समु० २/३३) (तो भी जयो० १/५, १/४) महाशयः' (जयो० वृ० १०८३)
तथ्य (वि०) [तथा यत्] यथार्थ, वास्तविक, सत्यार्थ। तत्त्वावबोधः (पुं०) पदार्थ के स्वरूप का परिज्ञान।
तथ्यं (नपुं०) सत्य, यथार्थ। तत्त्वावलोचिक (वि०) यथार्थ ज्ञान कराने वाला, यथार्थ तथाप्येनं (अव्य०) वैसा ही (वीरो० १०/५) संवेदनकारिणी। (जयो० ११/६६)
तथाभिराम (वि०) वैसा ही, तादृशीम् (जयो० २२/७२) तत्त्वोक्त (वि.) तत्त्व का कथन करने वाला। (जयो० ३/१७) तथोत्तर (वि०) अधिकाधिक। (जयो० तत्र (अव्य०) [तत्+त्रल] वहां, उस स्थान पर, सामने उस तद् (सर्व०) वह।
ओर (सुद० २४४५, सुद०४/२१) 'सत्यं यतस्तत्र समस्तु तद्गुणः (पुं०) तदाकार गुण, उसी प्रकार के गुण। (जयो० वस्तुः ' (वीरो० ५/३२)
वृ० १४/११) तत्रत्य (वि०) [तत्र+त्यप्] उस स्थान पर उत्पन्न हुआ। तद्-गुणालङ्कारः (पुं०) तद्गुण रूप अलंकार-'कन्या सुन्दरी तत्रतत्र (अव्य०) बहुत से स्थानों पर। (जयो० १/८९)
सती विलासादियुक्ता अधुनाऽतीव श्लाघनीयेत्यर्थः' (जयो० तत्रभवत् (वि०) आप जैसे महाशय, महानुभाव।
वृ० ३/५८) तत्रस्थ (वि०) उस स्थान से बद्ध।
तद्गुणोनामालंकारः (पुं०) तद्प अलंकार। (जयो० वृ० तत्रापि (अव्य०) तो भी, फिर भी, उस तरह से भी, वैसे भी, १४/११)
वहां से भी। असा हसेन तत्रापि साहसेन तदाऽवदत्। तदग्रतः (वि०) उसके सामने, उसके आगे। 'छद्मना निजगादेदं (सुद०८५) वस्तुत्वेन ततोऽनुरागकरणं तत्रापि शर्माज्झितिः। वचनं च तदग्रत।' (मुनि० १७)
तदनन्तरं (अव्य०) इसके बाद (जयो०१/२) (सुद० ७७) तत्रैव (अव्य०) वहां से ही, उसी प्रकार से ही (दयो० ७३) तदन्तः (पुं०) उपायान्तर, उसके बाद, उसके पश्चात्। तथा (अव्य०) १. वैसे, उस रीति से, वैसी थी। (सुद० १०१, तदन्तरं क्रियारूपं, यद्यन्योन्यसमाश्रयः।
जयो० १/४१) उस प्रकार। २. ओर, या अथवा (जयो० तदन्तरेण त द्वित्तेस्तद्वितेश्च तदन्तरात्।। (हित०सं०१५) वृ० १/५) तो फिर (जयो० १/३) ३. सच, ठीक, उचित। तदूपः (पुं०) तदाकार, जिसकी अपेक्षा की जाती है वह अंशी (सुद० २/४९)
तद्रूप है। (जयो० २६/८८) तथा च (अव्य०) और भी। (जयो० वृ० १/१७)
तदर्थ (वि०) उसी प्रयोजन के लिए, (जयो० १/१४) इसका तथाकार: (पुं०) यथार्थ रूप।
अर्थ उसी अभिप्राय के लिए (दयो०६०) तदर्थमेवेयमिहास्ति तथागतः (पुं०) बुद्ध। (दयो० ४, जयो० १४/२)
दीक्षा न काचिदन्या प्रतिभाति भिक्षा। (वीरो०५/४) तथागत-समीरणा (स्त्री०) बुद्ध शिक्षा, बुद्ध प्रेरणा, बहुवचन। | तद्वत् (वि०) उसी प्रकार (सुद० ८९) उससे युक्त, जैसा कि (जयो० १४/२)
उसको रखने वाला। तथागुणः (पुं०) गुण युक्त।
तद्ध्वा (स्त्री०) मुक्ति मार्ग। (सम्य० ५) तथातु (अव्य०) जो कि। (सुद० १०१)
तद्धितः (पुं०) तद्धित प्रकरण, धातु के आगे गुण और वृद्धि
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तद्भवमरणं
४३१
तनिमन्
संज्ञाओं की विधि करने वाला। (जयो० वृ० १/९५) | तदीया (वि०) तदनुसार, उसके अनुसार। 'यथा तदीया परिवा
धातुतः संज्ञाकरणार्थं प्रत्ययं भजन् (जयो० १५/९५) रिताऽऽज्ञा' (सुद० ९९) तद्भवमरणं (नपुं०) जिस भव का ग्रहण हो, उससे पूर्व का । तदुपरि (अव्य०) उससे ऊपर। (दयो० ८९)
विनाश। 'भवान्तर प्राप्तिरन्तरोपसृष्टपूर्वभवविगमनम्' तदभयं (नपं०) दोनों का सम्बंध. दोनों संसर्ग. दोनों की एक (भ०आ०टी० २५)
रूपता। 'तदुभय-संसर्गे सति शोधनात्तदुभयम्' (त०वा० तद्भावः (पुं०) वही भाव, यह वही है, इस प्रकार के ९/२२)
प्रत्यभिज्ञान का कारण। (सम्य० ४) 'भवनं भावः तस्य तदुभय-कल्पिक (वि०) सूत्र और अर्थ दोनों से युक्त। भावः तद्भावः' (स०सि० ५/३१)
तदुभय प्रत्ययिक (वि०) दोनों ही प्रकार से उत्पन्न। तद्व्यतिरिक्तः (पुं०) उससे पृथक्।
तदुभय वक्तव्यता (वि०) दोनों की स्थापना स्व समय और तदा (अव्य०) [तस्मिन् काले तद्+दा] तब, उस समय, फिर, | पर समय की प्ररूपणा।
तो। 'तदा तदातिथ्यविधानदीक्षम्' (जयो० १/८०) 'तदा तदुभयाचारः (पुं०) शब्द और अर्थ शुद्धि का विचार। तत्सुकरावलम्बात्' (वीरो० ५/३७)
तदुभयाह (वि०) दोनों की योग्यता। ० फिर भी-'साहसेन तदाऽवदत्। (सुद० ८५)
तदेक (वि०) उसका एक अन्त। (सुद० १/१३) ० जो कि-'वापी तदा पीनपुनीत जानुः' (सुद० १०१) । तदेकदा (अव्य०) एक बार, एक समय। (समु० १/३३) ० तब-'तदा विलक्षभावेन' (सुद० १०३)
तदेकदेशः (पुं०) एक भाग, उसका एक प्रान्त। तदा च (अव्य०) और फिर।
तदेकभागः (पुं०) उसका एक हिस्सा। उसका एक प्रान्त। तदा तु (अव्य०) तब तो (सुद० सुद० १३४) उस समय तो। (सुद० १/१५) 'तदेक भागो भरताभिधानः' (सुद० १/१३)
हे तान्त्रिक तदा तु त्वं कृतवान् भूपमात्मसात्' (सुद० १३४) तदेव (अव्य०) वही, वैसा भी, उसी प्रकार का ही, उसी तरह तदानीं (अव्य०) [तद्+दानीम्] तब, उस समय, तावदेव 'तदेव नश्चेच्छितपूर्तिधाम' (सुद० २/२३) 'ध्यानं
(वीरो० १/३६) (जयो०८/३१) (सुद० ३/१३) __ तदेवानुवदन्ति सन्तः' (सुद०८/३४) तदानीन्तन (वि०) [तदानीम् ट्युल] उस समय से सम्बन्ध | तदैव (अव्य०) तभी, तत्काल ही, उसी समय ही। 'तदैव रखने वाला।
पीत्वाऽमुकसंघ के तु। (सुद० ४/३४) 'सा समुच्चचालापि तदापि (अव्य०) तो भी, फिर भी। (जयो० वृ० २३/३२) तदैव तस्मात्' (वीरो० ५/२५) तदात्मशक्तिः (स्त्री०) तादात्म्य सम्बन्ध, गुण और गुणी में | तन् (सक०) १. फैलाना, विस्तार करना, तानना। (जयो०
प्रदेश भेद न होने से एक रूपता है, मात्र संज्ञा, संख्या १/४) २. उत्पन्न करना, प्रदान करना। ३. अनुष्ठान तथा लक्षण आदि की अपेक्षा भेद है। गुण गुणी रूप है करना। ४. रचना करना, बनाना। तन्यते (जयो० २/११९)
और गुणी-गुण रूप है, उसका उसी के साथ तादाम्य है। ५. फैलाना, झुकाना। तनुते-(जयो० १३/४३), ततान जिस प्रकार दीपक और दीप्ति का तादात्म्य सम्बन्ध है (जयो० ६/४४) ६. प्रचार करना।
उसी तरह सत् और सत्ता का तादाम्य सम्बन्ध है। तनयः (पुं०) [तनोति विस्तारयति कुलं तन्कयन्] शिशु, तदाश्रित्य (वि०) उसके आश्रित।
पुत्र, बालक, सन्तान, लड़का। (सुद० ११५) 'तनयवत् तदिह (अव्य०) इसी समय। (वीरो० ४/६३)
महीभुजा' (जयो० २/११९) तदा वा (अव्य०) और भी, तो भी। 'समेत्य सद्भिः सह तैस्तदा वा' तनयरत्न: (वि०) पुत्ररत्न, सत्पुत्र। 'संसूयते तनयरत्नमपश्चिमातः' तदाहृतादानं (नपुं०) चोर द्वारा गया धन का ग्रहण। चोरानीत (जयो० १८४३) ग्रहण।
तनया (स्त्री०) पुत्री, लड़की, कुमारी, बाला, बालिका (समु० तदितर (वि०) उससे पृथक् (जयो० २/२७) (समु० ३/१७) २/१३, जयो० वृ० ३/३७) तनयां विनयाश्रयां ममाथनुनतदीय (वि०) [तद्+छ] उससे सम्बन्ध रखने वाला, उसका, याख्यानकरीति रीतिगाथा। (जयो० १२/५०)
उसकी, उसके। 'स तदीयं समुदीक्ष्य सुन्दरम्' (समु० | तनिमन् (पुं०) [तनु+इमनिच] सुकुमार, कृश, दुबला, पतला, २/१९)
क्षीण-काय।
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तनीयसी
४३२
तन्त्र
तनीयसी (वि०) स्वल्पतरा, लघुतरा, छोटी सी। (जयो० १३/४१) तनु (वि०) [तन्+3] १. पतला, कृश, क्षीण। (जयो० १६/८३)
२. मृदु, सुकुमार, कोमल। ३. छोटा, लघु, तुच्छ, हीन,
कम। तनु (स्त्री०) शरीर, देह, (जयो० वृ० १/४०) अस्या भवान्नातरमेव ___कुर्यात्तनु शुभेयं तव रूपधुर्याम्।। (सुद० १२०) शरदीव
तनौ तेऽयं सन्तापः कथमागतः' (सुद० ७८) तनुकूपः (पुं०) रोमकूप, तनुक्लेशः (पुं०) शारीरिक बाधा। तनुचिकित्सा (स्त्री०) ज्वर आदि का शमन। तनुक्षदः (पुं०) कवच। तनुच्छाया (स्त्री०) शरीर का प्रतिबिम्ब। (जयो० १/२३) तनुजः (पुं०) पुत्र, शिशु, लड़का, बालक। (सुद० ९१) तनुजा (स्त्री०) पुत्री, लड़की, बालिका। (समु०२/१७) बेटी,
बाई। तनुत्यज (वि०) १. शरीर के प्रति उदासीन, २. शरीर छोड़ने
वाले। तनुत्याग (वि०) १. दरिद्री, कृशशरीर, २. थोड़ा व्यय करने
वाला। तनुत्रं (नपुं०) कवच। तनुत्राणं (नपुं०) कवच। तनुधारिन् (वि०) शरीरधारी। (मुनि० १८, समु० ४/३०) तनुभवः (पुं०) पुत्र, लड़का। तनुमध्य (पुं०) शरीर युक्त। (सुद० तनुरुह् (पुं०) शरीर बल। तनुरुहं (नपुं०) शरीर बल। (वीरो० २१/११) देह रूपी पंख। | तनुलता (स्त्री०) शरीर भाग। तनुवार (नपुं०) कवच। तनुव्रणः (पुं०) फुसी। तनुसञ्चारिणी (स्त्री०) छोटी बालिका। तनुसरः (पुं०) पसीना, खेद। तनुसौरभः (पुं०) शरीर गन्ध। तनू (स्त्री०) शरीर, देह, वपु। तनूजः (पुं०) पुत्र। तनूजा (स्त्री०) पुत्री। तनूदरी (स्त्री०) कृशोदरी, क्षीण कमर वाली। (जयो० १६/८३,
सुद० ३/३) तनूहः (पुं०) पुत्र।
तन्तिः (स्त्री०) [तन्+क्तिच्] १. रस्सी, रज्जू, डोर, सूत्र,
धागा। २. पंक्ति, श्रेणी। तन्तिपालः (पुं०) गोरक्षक। तन्तुः (स्त्री०) [तन्+तुन्] सूत्र, धागा, (सुद० १०२) रस्सी,
रज्जू, डोर। २. जाला, ३. रेशा, ४. सन्तान, सन्तति। ५.
सद्भाव। (जयो० १/१७) तन्तुकः (पुं०) [तन्तु+कन्] सरसों के दाने। तन्तुकाष्ठं (नपुं०) जुलाहे का कपड़ा, बुनने का काष्ठ,
हथुआ, तूकी। तन्तुकीरः (पुं०) १. रेशम का कीट। २. मकड़ी। तन्तुचारणा (स्त्री) एक ऋद्धि विशेष। तन्तुजालः (पुं०) नसों का समूह। तन्तुनागः (पुं०) मगर। तन्तुनाभ (पुं०) मकड़ी। तन्तुनिर्यासः (पुं०) ताड़ वृक्षा तन्तुपर्वः (पुं०) रक्षाबन्धन, श्रावण शुक्ल की पूर्णिमा का
दिन। तन्तुभः (पुं०) १. सरसों, २. वत्स, बछड़ा। तन्तुमत् (पुं०) अग्नि, आग, बह्नि। तन्तुरः (पुं०) मृणाल, मुरार, कमलनाल। तन्तुरचना (स्त्री०) बुनावट, ताना-बाना। तुन्तुलः (पुं०) मृणाल, कमलनाला तन्तुला (स्त्री०) मृणाल, कमलनाल। तन्तुवानं (नपुं०) बुनना, बनाना, कपड़ा बुनना। तन्तुवादकः (पुं०) तंत्री, बीन वादक। तन्तुवापः (पु.) १. तोत, २. जुलाहा। तन्तुवायः (पुं०) १. जुलाहा, २. करधा, ३. बुनाई, ४. तांती,
मकड़ी कुविन्द। (जयो० वृ० ३/१७) तन्तुविग्रहः (पुं०) कदलीपादप, केले का वृक्ष। तन्तुसन्तत (वि०) बुना हुआ, सिला हुआ। तन्तुसारः (पुं०) पूगनाकतरु, सुपारी का वृक्षा तन्त्र (सक०) १. नियन्त्रण करना, प्रशासन करना, पालन
करना, संचालन करना। २. पालन-पोषण करना, रक्षा
करना। तन्त्रं (नपुं०) १. तन्त्रशास्त्र, संस्कार शास्त्र, (जयो० २/६१)
सिद्धान्तशास्त्र, नियामक शास्त्र, २. कर्मकाण्ड, रूपरेखा, ३. जादू-टोना। गण्ड, ताबीज, ४. औषधि। घर, सम्पत्ति, उद्देश्य, श्रेणी। १. तांत, तंतु, २. धागा, सूत्र, डोरी।
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तन्त्रक:
४३३
तप:परिणामश्चक्रबन्धः
तन्त्रकः (पुं०) नूतन वस्त्र, कोरा कपड़ा। तन्त्रकारः (पुं०) वाद्य वादक। तन्त्रणं (नपुं०) प्रबन्ध, प्रशासन, राज्यसत्ता की व्यवस्था। तन्त्रता (वि०) उद्देश्य सिद्ध करने वाला, प्रशासन करने वाला। तन्त्रधारक (वि०) तन्त्र/कर्मकाण्ड को धारण करने वाला। तन्त्रपाण्डित्य (वि०) जादू-टोना में प्रवीण, कर्मकाण्ड में
प्रवीणता प्राप्त। तन्त्रयुक्तिः (स्त्री०) प्रशासनिक विचार। तन्त्रवापः (पुं०) १. जुलाहा, पटकार, २. मकड़ी। ३. तांत। तन्त्रवायः (पुं०) १. जुलाहा, पटकार। २. मकड़ी। ३. तांत। तन्त्रसंस्था (स्त्री०) राज्य प्रशासन की संस्था, राज्य-तंत्रालय,
प्रबन्धालय। तन्त्रसंस्थितिः (स्त्री०) राज्य शासन प्रणाली। तन्त्रस्कंदः (पुं०) गणित शास्त्र। तन्त्रहोमः (पुं०) तन्त्रयुक्त होम, हवनविधि। तन्त्रा (स्त्री०) तन्द्रा। तन्त्रायितत्वर (वि.) १. तन्त्रपाण्डित्य (सुद० १०८) २.
संलग्न। (वीरो० १२/९५) तन्त्रि (स्त्री०) [तन्त्र+इ] १. सूत्र, धागा, रस्सी, धनुष डोरी।
२. तांत, स्नायु। सितार का तार। तन्त्रिका (स्त्री०) अमृता औषधि (जयो० २१/३४) तन्त्रिमुखः (पुं०) अंगूठी, हाथ की मुद्रा। तन्द्रा (स्त्री०) १. प्रमीला, आलस्य, अर्धनिन्द्रित, (सुद० ३/२६,
जयो० ८/६८), २. श्रांत, थका हुआ, क्लांत, ३. निद्रालु,
आलसी। तन्दुलः (पुं०) चावल, धान्य, शस्य। (सुद० ७१, ७२) तन्दुलदलः (नपुं०) धान्य समूह, अक्षत समूह। (सुद०७१) तन्द्रिः (स्त्री०) [तन्द्र+क्रिन्] ऊघ, उबासी, आलस्य, अर्धनिन्द्रा। तन्द्रालु (वि०) आलसी, निद्रालु। तन्नत (अव्य०) एक सा (जयो० १/५) तन्मध्यस्थ (वि०) उससे मध्य। तन्मय (वि०) तल्लीन, आसक्त, लगा हुआ। तन्मयता (वि०) एकाग्रता, लिप्तता। तन्मा (वि०) जन्मदात्री। (जयो० ११/५४) तन्मात्र: (पुं०) सांख्य के तत्त्व-पंचभूत तत्त्व। तन्मात्रा (पुं०) पंचभूत। तम्या (स्त्री०) गाय, गौ, धेनु। तम्बा (स्त्री०) गाय, गौ, धेनु।
तम्बिका (स्त्री०) गाय, गौ, धेनु। तम्बीरः (पुं०) ज्योतिषीय फल/योग। तम्बूलः (पुं०) पान। तन्मात्रिक (वि०) तन्मात्र सम्बंधी। तन्वंगी (वि०) दुबली-पतली। तन्वि (वि०) कोमलाङ्गी, कोमल, सूक्ष्माङ्गि शरीर धारिणी,
(जयो० १२/१२७, जयो० ६/६३, जयो० ११/८३) २.
नदी नाम। तप् (अक०) तपना, चमकना, उष्ण होना, गर्मी फैलना। तप (सक०) गर्म करना, तपाना, उष्ण करना। तप (वि०) जलाने वाला, उष्ण करने वाला, पीढ़ाकर, कष्टकर। तपः (पुं०) १.गर्मी, आग, उष्णता, २. रविकिरण, ३. ग्रीष्मऋतु।
(क) तप, एक तपस्या विशेष। ० कर्मक्षयार्थ किया जाने वाली क्रिया। ० अष्ठविध कर्म का शासन। ० अनशनादि का क्रिया। ० कर्मनिर्दहन। ० शक्ति विशेष ० कठिन अविग्रह। ० तयोऽनुभावं (सुद० ११८) ० विविध कायक्लेश। ० इन्द्रिय एवं मन निग्रह की क्रिया। ० रागादिभाव का उपशमन। ० विषय कषायों का निग्रह। ० आत्मचिन्तन की प्रक्रिया ० तप्पते त्ति तपः। ० कष्टकारक बातों का मुकाबिला करना। ० इच्छाओं को न होने देना। • जिसके द्वारा आत्मा तप जावे। ० निर्जरा का साधन।
० अनादि कालीन कर्म मल से पृथक् होना। तपत्तुत्तरः (वि०) अत्यधिक तप से युक्त (जयो० ) तपनातपः (पुं०) सूर्यधर्म-तपनस्य आतपः (जयो० ६/८६) तपनः (पुं०) रवि, सूर्य, तेज। (जयो० ६/८६) तपने लपनेऽपि
निष्ठिते मुखतः सम्मुखतः शिखावृते। (जयो० १६/६८) तपमदः (पुं०) तप का अहंकार। (वीरो० १७/४३) तपनीयं (नपुं०) [तप्+अनीयर] सोना, स्वर्ण। तपःपरिणामश्चक्रबन्धः (पुं०) एक छन्द जिसमें तप का
परिणाम होता है।
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तपनोष्मः
तपनोष्मः (पुं०) सूर्य की उष्णता । (वीरो० ९/३१ ) तप प्रायश्चित्त (नपुं०) बाह्य तप की क्रिया ।
तर्प (सक०) संतुष्ट करना (जयो० २/९४) तर्पयेत् प्रसादयेत् (जयो० २/९६)
तपर्तु तप (स्त्री०) तमऋतु, ग्रीष्म ऋतु, गर्मी का समय (जयो०
६/८६)
तर्पणं (नपुं०) संतुष्ट। (जयो० २/८२)
तपविनय (नपुं० ) निर्मल परिणाम विशुद्ध भावना, निराकुलतापूर्वक विनत होना।
तपस् (नपुं०) १. ताप, गर्मी, उष्णता । २. पीड़ा, कष्ट । ३. नैतिक गुण, इन्द्रिय दमन की प्रवृत्ति।
तपः पर (वि०) तप में संलग्न (वीरो० २२/९)
तपस: (पुं० ) [ तप्+असच्] १. सूर्य, रवि । २. चन्द्र, ३. पक्षी । तपसोचित (वि०) द्वादश तप की प्रधानता वाला। (जयो० १/९७) तपस्यः (पुं० ) [ तपस्+ यत्] फाल्गुन मास । तपस्या (स्त्री०) साधना, तपश्चरण (दयो० ३१) चतस्तस्य ततु सम्भवत्ताम्' (सुद० ११३)
तपस्विन् (वि०) तप करने वाला, भक्तिनिष्ठ, महोपवासानुष्ठायी,
ज्ञान-ध्यान तप रत, तप-संयम युक्त । ( मुनि० ३३) साधनारत 'तपोऽनुष्ठानं विद्यते यस्य स तपस्वी' सम्यक्त्वेन निरीहतार्चिषि तपत्येवं तपस्वी भवेत्' (मुनि० ३३) जो सम्यग्दर्शन के साथ निःस्पृहता रूपी अग्नि में तप करते हैं, वे तपस्वी हैं।
तपांसि (वि०) तपस्वी । (सम्य० ८४)
तपाचार: (पुं०) तपचश्रण का भाव। तपाराधना (स्त्री०) द्वादश तप का आचरण । तपाश्रयः (पुं०) तपाधीन ।
तपोधन: (पुं०) १. सूर्य, २. धर्माधिकारी (जयो० २८/३) तपोधनं (नपुं०) अनशनादि का मूल्य । (समु० ७/२४) (जयो०
१/७८)
तपोप्रवीणः (पुं०) तप में कुशल | तपोभाव: (पुं०) तपश्चरण का भाव।
तपोबल: (पुं०) तप की शक्ति ।
४३४
तपोमानं (नपुं०) तपश्चरण का अहंकार । तपोविद्या (स्त्री०) षष्ठ-अष्ठम उपवासादि की विद्याएं । तपोविनयः (पुं०) उत्तरगुणों के पालन में विनय । तप्त (भू०क०कृ० ) [ तप्क्त] १. तपाया गया, गरम, उष्णता युक्त, २. संतप्त, कष्ट युक्त, दुःखी, पीड़ित ।
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तमसावृत
तप्तकाञ्चनं (नपुं०) तप्प सोना, अग्नि में तपाया गया स्वर्ण तप्तकृच्छ (नपुं०) कठोर साधना ।
तप्तदेहं (नपुं०) संतप्त शरीर । तप्ततप: (पुं०) एक ऋद्धि विशेष । तप्तपादपः (पुं०) ग्लान पौधा, मुरझाया पौधा तप्तरूपकं (नपुं०) तपाई गई चांदी
।
तप्तशरीरः (पुं०) तपाया गया शरीर, क्लान्त देह |
तम् (अक० ) १. दम घुटना, श्वास करना। २. परिश्रांत होना, थक जाना। ३. दुःखी होना, पीड़ित होना ।
तमः (पुं०) दृष्टि प्रतिबन्ध कारक, प्रकाश विरोधी, अन्धकार | (सुद० २/३३) तमयति खेदयति जनलोचनानीति तमः ' 'तम्यतेऽनेन तमनमात्रं वा तमः' (त०वा० ५ / २४) तमो दृष्टिप्रतिबन्धकारणं केषांचित्। (त०वा० ५/२४) १. राहु
२. तमालतरु ।
तमं (नपुं०) १. अन्धकार, २. पैर की नोक। ध्वान्त संतमसं
तमम इति धनञ्जय (जयो० १८ / १९ )
तमस् ( नपुं० ) [ तम्+असुन्] (जयो० ११/९३) अन्धेरा, अन्धकार, प्रकाशाभाव। ध्वान्तं संतमसं तमम्' (जयो० १५/८२) १. दृष्टिप्रतिबन्धक २. राहु रोष (जयो० ४/२५) तमकाण्ड : (पुं०) गहन अन्धकार | तमकाण्डं (नपुं०) सघन अन्धकार ।
तमध्नः (पुं०) दिनकर, भानु । १. चन्द्र, २. अग्नि । ३. प्रकाश । तमज्योतिस् (पुं०) जुगनू ।
तमततिः (स्त्री०) गहन अन्धकार |
तमनुद् (पुं०) कान्तियुक्त शरीर । १. सूर्य, २. चन्द्र, ३. प्रकाश । तमनुदः (पुं०) सूर्य, भानु, प्रकाश । तममणिः (स्त्री०) जुगनू ।
तमः प्रभा ( स्त्री० ) छठे नरक का नाम । तमविकार: (पुं०) रोग, अक्षिरोग। तमस्चमूकः (पुं०) उलूक, पूक। (जयो० १८/२८) तमसः (पुं० ) [ तम् + ऊसच्] अन्धकार | तम संहारकृत् (पुं०) सूर्य (वीरो० १० / २७) तम-समारंभ: (पुं०) अन्धकार समूह (जयो० १५/ तमस्विनी (स्त्री०) [तमस्+किनि ङीप्] रजनी, रात तमिस्रा, रात्रि (जयो० १५ / ६१ )
तमसगात्री (स्त्री०) रजनी, रात्रि। (सुद० ९७)
तमसावृत (स्त्री०) १. राहु ग्रसित (जयो० ७/७३) १. कोप से युक्त
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तमांसि
४३५
तरलयति
तमांसि (वि०) अन्धकार रूपी धूम। तमोऽमी धूमा। (जयो० । तरङ्गः (पुं०) [तृ+अङ्गच्] १. लहर, तरल, वीचि, (जयो० २५/२५)
९/८५) कल्लोल (जयो० १३/५८) २. घोड़ा, अश्व। तमाखू (स्त्री०) तम्बाखू। (सुद० १३०) (जयो० २/१२९) (जयो०५/१७) ३. कूद, छलांग, सरपट भागना, चौकड़ी तमालः (पुं०) [तम्+कालन्] तमालवृक्षा (सुद० १३६) (जयो० भरना। ४. वस्त्र। ५. विचार। (जयो० ११/९) २३/२)
तरङ्गधारिणी (वि०) १. विभङ्गदेशिनी, २. तरङ्गयुक्ता नदी। तमालचिह्न (नपुं०) तमालपत्र का चिह्न। चंदन तिलक प्रतीक। (जयो० वृ० ३/१०) तमालपत्रं (नपुं०) चन्दन तिलक, तमाल पर्ण। (सुद० १३६) तरङ्गभङ्गी (वि०) १. विचारों की छटा। तरङ्गाणां विचाराणां (जयो० १६/७५)
भङ्गोच्छटा। (जयो० वृ० ११/९) २. तरल तरङ्ग-'तरला तमिः (स्त्री०) [तम्+इनि] रात्रि, रजनी। १. अन्धकार पूर्ण मनोहरा सा तरङ्गभङ्गी। (जयो० वृ० ११/९) (जयो० २६/७६)
तरडवासिनी (वि०) १. कल्लोल स्थान। तरङ्गाणां कल्लोलानां तमिस्र (वि०) १. अन्धकारपूर्ण काला, अन्धकार।
वासिनी निलयभूता (जयो० १३/५८) २. परिशोधकारिणीतमिस्रं (नपुं०) अन्धकार।
तरङ्गाणां मनोविचाराणां वासिनी परिशोधकारिणी। तमिम्रपक्षं (नपुं०) कृष्णपक्ष।
तरायित (वि०) कल्लोलित (वी० १३/२०) (जयो० वृ० तमिस्रा (स्त्री०) [तमिस्र+टाप्] तमस्विनी, रात्रि। (जयो०
३/५८) १५/६१)
तरङ्गिणी (स्त्री०) [तरङ्ग इनि+ङीप्] नदी, सरिता। (जयो० तमोधर (वि०) अन्धकार धारक। (समु० ३/११) ९/६७) तरङ्गवती-नदी समुन्नशालिनी लहरी युक्ता (जयो०
रवेर्विनाऽऽकाशततिर्यथास्यात्तमोधरा त्वद्रहित व्युदास्या। ६/६५) (समुद० ३/११)
तरङ्गित (वि०) [तरङ्ग इतच्] छलकता हुआ, थरथराता हुआ, तमोधुन (वि०) अन्धकार नष्ट करने वाला, सूर्य। (सुद० | कापता हुआ, लहराता हुआ। १/१०)
तरण: (पुं०) नौका, नाव, बेड़ा। (सुद० १/२) तमोपहत (वि०) अन्धकार नाशक। (जयो० २८/१५) तरणं (नपुं०) पार करना, जीतना, पराजित करना। (समु० १/२) तमोपहारी (वि०) अन्धकार नाशक, तिमिरापहारि। (जयो० | तरणिः (पुं०) [त+अनि] १. सूर्य, २. ज्योत्स्ना, किरण,प्रकाश१८/२४)
मण्डल, आभामण्डल। (जयो० १/२६, ५/२८) (दयो० तमोनुद् (पुं०) सूर्य, रवि, भानु। (जयो० वृ० २७/२)
४२) तमोमयः (पुं०) [तमस्+मयट्] राहु।
तरणिर्नवप्रभावत्व (वि०) सूर्य की नूतन प्रभा (जयो० २२/७८) तमोमयी (वि०) अन्धकार रूपिणी। (जयो० १५/) तरणी (स्त्री०) जहाज, नौका, बेड़ा, नाव। (जयो० वृ० १५/३) तमो शुक (वि०) तिमिर (जयो० १५/४८) (जयो० १५/६१) तरण्डी (स्त्री०) [तरण्ड ङीष्] नौका, जहाज, नाव, बेड़ा, तमोवगुण्ठातिगत (वि०) अन्धकार के आच्छादन सहित। घड़मई। (जयो० १५/५०)
तरन्तः (पुं०) [तृ+क्षच्] १. समुद, २. मेंढक, ३. राक्षस। तमो विधात्री (वि०) अन्धकार करने वाली। (भक्ति० २५) तरल (वि०) [तृ+अलच्] १. चंचल, चलायमान, चपल, तमोहति (वि०) अन्धकार नाशनी (सम्य० ४९)
लहराता हुआ। अस्थिर, चमकदार। तरलश्चञ्चले खड्गे तय् (सक०) १. जाना, परिभ्रमण करना, २. रक्षा करना, इति विश्वलोचनः। (जयो० १६/७६) २. कामुक, बचाना।
स्वेच्छाचारी। तरः (पुं०) [तृ+अप] पार करना, पार जाना, १. भाड़ा, तरल: (पुं०) १. हार, २. समतल सतह, ३. हीरा, ४. लोहा, किराया।
अयस्का तरक्षः (पुं०) [तरं बलं वा मार्ग क्षिणोति-तर+क्षि+डु] विज्जू, तरलतर (वि०) चञ्चलता युक्त नेत्र वाली स्त्री। (दयो०१९) लकड़बग्घा।
तरलतावश (वि०) चंचला के कारण। (जयो० ) तरक्षु (स्त्री०) लकड़बग्घा।
तरलयति-लहराना, हिलना।
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तरला
४३६
तर्कशास्त्र
तरला (स्त्री०) हिलती-डुलती (जयो० ११/३९) तरलायते-लहराना, हिलना। तरलायितः (पुं०) [तरल-क्यच्+क्त] कल्लोल, लहर। तरलित (वि०) चल, चपल, चञ्चल होता हुआ। (जयो०
२/१५५) तरलवारिका (स्त्री०) तलवार, असि। (जयो० १६/७६) तरलितदृक् (स्त्री०) चपलदृष्टि। (जयो० १७/१३०) तरवारिः (पुं०) तलवार, असि। तरस् (नपुं०) [तृ-असुन्] १. चाल, वेग, २. वीर्य, शक्ति,
बल। ३. तट, कूल, किनारा। ४. बेड़ा। तरसं (तृ+असच्) मांस, आमिष। तरसा (स्त्री०) दुतकार। (जयो० ३/११३) तरसानः (पुं०) [तृ+आनच्+सुट्] नौका, नाव। तरस्विन् (वि०) तेज, फुर्तीला, गतिवान्, शक्तिशाली। तरा (वि०) सर्वस्व, प्रधान, प्रमुख। निजपतिरस्तु तरां सति!
रम्यः कुलबालानां किन्नु परेण। तरामि-सिद्ध करना पार
करना। (सुद० ९२) (सुद०८७) तरिः (स्त्री०) [तरति अनया-त+इ, तरि+डी] ०तरंणी:,
नौका, नाव तरिरथः (पुं०) चम्पू, डाड। तरिकः (पुं०) मल्लाह, नाविक, खेवनहार, माझी। तरिकिन् (पुं०) [तरिक+इनि] मल्लाह, नाविक, माझी। तरिष्णु (वि०) पाट करने वाला। (जयो० २७/४०) तरिस्था (स्त्री०) नौका, नाव। तरीषः (पं०) [त ईषण] नौका, नाव। १. जलयान, २. समुद्र,
३. सक्षम, व्यक्ति, विशिष्ट व्यक्ति। वीर्यासिशय (जयो० ६/६६) तरुः (पु०) [तृ+उन्] पादप, पेड़, वृक्षा (सुद० ८२)
'सहकारतरोः सहसा गन्धः' तरु (वि०) उन्नत। (सुद० १/१८) १. कुरुह। (जयो० वृ०
१३/६०) तरुकोटरः (पुं०) वृक्ष खोह, पादप, कोटर, वृक्ष घोषला।
(जयो० १३/५०) 'तिष्ठन्ति सन्तस्तरुकोटरेषु' (भक्ति०
१६) तरुखण्डः (पुं०) वृक्ष समूह, पादप आली। तरुखण्ड (नपुं०) वृक्ष निकर। तरुजीवनं (नपुं०) वृक्षाधार. पेड़ की जड़। तरुण (वि०) [तृ उनन्] १. युवक, जवान, युवावस्थागत।
(सुद० ८७, जयो० ४/१५), २. सुकुमार, कोमल, नवोदित।
तरुणचेष्टित (वि०) युवक युक्त। (जयो० १२/११८) तरुणा (वि०) नवयुवक। तरुणा वृक्षेण उपात्तां संजनितां तरुणेन
युवकेन उपात्तां प्राप्तां अस्ति सुदर्शन-तरुणाऽभ्यूढेयं
सुखलताऽयमथ च पुन:। (सुद० ८४) तरुणाकान्तः (पुं०) तरुणता से पीड़ित। (जयो० १४/४७) तरुणायते-तरुणाई धारण कर रहा है। (सुद० ८७) लतिका
तरुणायते (सुद० ७९) तरुणिमा (स्त्री०) यौवनाभाव, यौवन की स्थिति, यौवन की
लालिमा। तरुणी (स्त्री०) [तरूं नयतीति तरुणी] युवती, यौवना। तरुणोज्झित (वि०) विकलता को प्राप्त। तरुणोपात्त (वि०) युवक पने को प्राप्त। तरुणेन युवकेनोपात्तः
(जयो० १४/३) तरुणेड़ित (वि०) तरुण चेष्टिन. युवकोचित चेष्टायुक्त। (जयो०
१२/११८) तरुतरि (वि०) चलाने वाली। (दयो० २८) तरुमूलः (पुं०) वृक्षतल, पादपतल। (भक्ति० १४) तरुरुचा (स्त्री०) वल्कल वस्त्र। (जयो० २५/१३) तरुश (वि०) [तरु+श] वृक्षों से भरा हुआ। तरुशाखा (स्त्री०) विटपशाखा। तर्क (अक०) तर्क करना. शंका करना. विश्वास करना,
सोचना, चिन्तन करना, विचार करना, मान लेना। निश्चय
करना, कल्पना करना। (दयो० ५०) तर्कः (पु०) [त+अच्] १. कल्पना, चर्चा, विचार, २.
न्याय, सन्देह। ० हेतु ज्ञापन। ० साध्य-साधन के अर्थ का निश्चय ० चिन्ता तर्क ० व्याप्तिज्ञान तर्क है।
० कामना, इच्छा करना। तर्ककः (पुं०) [त+ण्वुल] वादी, प्रतिवादी, प्रार्थी। तर्कगत (वि०) न्याय संगत। तर्कणा (स्त्रो०) विचारणा। (वीरो० १८/५६) तर्कनीतिः (स्त्री०) चर्चा। तर्कयन्ती (स्त्री०) तर्क करती हुई। (जयो० ६/२५) तर्कविद्या (स्त्री०) तर्क/विचार-विमर्श की विद्या, न्याय शास्त्र। तकरेखा (स्त्री०) विचारसीमा। (जयो०७/६२) तर्कशास्त्रं (नपुं०) न्याय शास्त्र, हेतूवाद/ (वीरो० २/३९)
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तर्कसंगत
४३७
तवस्विराट
तर्कसंगत (वि०) विचारपूर्ण, युक्ति युक्त, प्रमाणिक। तलप्रहारः (पुं०) थप्पड़। तर्काभासः (पुं०) तर्क की प्रतीति, व्याप्ति रूप सम्बन्ध के न | तलभागः (पुं०) स्थल प्रान्त।
रहने पर भी उसका ज्ञान होना। 'असम्बद्धे व्याप्तिग्रहणं' तलभूमिः (स्त्री०) निम्न स्थान।
असम्बद्धे तज्ज्ञानं तर्काभासम्' (परीक्षा मुख ६/११०) तलसारकं (नपुं०) अधोबन्धन, तङ्ग, घोड़े की पलान को तर्कित (वि०) विचारित। (जयो० १४/६५)
कसने का तङ्ग। तर्कः (पुं०/स्त्री०) तकली।
तलस्पर्शः (पुं०) गहरा, गम्भीर। (जयो० वृ० ६/५८) तर्भुः (स्त्री०) विज्जू, लकड़बग्घा।
तलस्पर्शता (वि०) अधिक गंभीरता। (दयो० ९) तयः (पुं०) [तृक्ष्+ ष्यत्] यक्षवार।
तलस्पर्शिन् (वि०) अगाध। (सुद० २/१६) तर्जु (सक०) धमकाना, डराना, झिड़कना, निन्दा करना। तलाची (स्त्री०) [तल्+अच्+क्विप्+ङीष्] चढ़ाई, आसन। तर्जनम् (नपुं०) डराना, निन्दा करना, धमकाना, प्रताड़ना। तलिका (स्त्री०) तंग, अधोबन्धन। तर्जना (स्त्री०) प्रताड़ना, निन्दा करना।
तलित (वि०) तला हुआ। तर्जनी (स्त्री०) [तर्जन ङीष्] अंगूठे के पास की अंगुली। तलिम (नपुं०) जटित भू-भाग। (जयो० १०/६८) (जयो० ६/४१)
तलुनः (पुं०) [तत+उनन्] १. पवन, वायु। २. युवा। (जयो० तर्जर (वि०) भोजन का संकेत।
२७/४९) अनल्पतल्पे तलुनस्त्रियाममङ्गीकरोतीव तु तर्जित (वि०) शायित, रंगित।
कान्तयाऽमा। (जयो० २७/४९) तर्णः (पुं०) [तृण+अच्] वत्स, बछड़ा। १. ऊहापोह (जयो० | तलुनी (स्त्री०) युवती, तरुणी। तलुनीव लुनीते या विभ्रमैः ९/४)
श्रममङ्गिनाम्। (जयो० ३/८२) यत्र ध्वजाली पताकाततिः तर्णकः (पुं०) [तृर्ण+कन्] वत्स, बछड़ा।
सा तलुनी युवतिरिव भवति। (जयो० वृ० ३/८२) तर्णिः (पु०) १. सूर्य, २. बेड़ा।
तल्कं (नपुं०) [तल्+कन्] अरण्य, वन। तत् (अक०) क्षति पहुंचाना, मार डालना, काट डालना। तल्पः (पुं०) शय्या (सुद० ४/४३), (वीरो० ४/२३) पल्यङ्क, तर्पणं (नपुं०) [तृप्+ल्युट्] प्रसन्न करना, आनन्दित करना, पलंग (जयो० २७/४९) विस्तार, सुखासन। तृप्त करना।
तल्पकः (वि०) [तल्प+कन्] विस्तार लगाने वाला। तर्मन् (नपुं०) [तृ+मनिन्] यज्ञ स्तम्भ का ऊर्ध्व भाग। तल्पतीरः (पुं०) गद्दे का किनारा, गद्दे से संयुक्त। शय्या तर्षः (पुं०) [वृष+घञ्] १. प्यास, २. कामना, इच्छा, ३. | अनल्पतूलोदित-तल्पतीरे क्षीरोपूरदरचुम्बिचीरे। (सुद०
समुद्र, ४. नावा (सम्य० ९९) वासना (जयो० २/७१) २/११) वाञ्छा (जयो० २७/२१), रवि।
तल्लजः (पुं०) [तत्+लज्+अच्] प्रसन्नता. श्रेष्ठता। तर्षणं (नपुं०) [तृष्+ल्युट] प्यास, पिपासा।
तल्लिका (स्त्री०) [तस्मिन् लीयते तत्+ली+ड कन्] ताली, तर्षित (वि०) [तर्ष+इतच्] प्यासा, इच्छुक, चाह करने वाला। कुंजी, १. प्रशस्त तरुणी (जयो० ३/७७) तर्हि (अव्य०) [तद्+हिल्] उस समय, तब, उस विषय में। तल्ली (स्त्री०) [तत् लसति-तत्+लस्-डाङीष्] तरुणी, युवती। तलः (पुं०) [तरु+अच्] १. भूतल, सतह, नीचे का भाग, तल्लीतलं (नपुं०) युवती प्रान्त, तरुणी स्थान। (जयो० ११/९८) तलहैटी. २. हथेली, पैर का तला, थप्पड़।
तल्लीन (वि०) तत्पर, संलग्न। (वीरो० २१/१६) तलं (नपु०) [तल्-ल्युट्] सतह, भू-भाग, नीचे का स्थान। तष्ट (वि०) [तक्ष्क्त ] खण्डित, विनष्ट किया गया, विदारित। तलकं (नपुं०) [तल-कन] सरोवर, बृहद् तालाब।
तवर्गः (पुं०) स, थ्, द, थ, न वर्ग। (जयो० वृ० ३/२०) तलघात: (पुं०) थप्पड़।
तवोचित (वि०) उससे उचित (जयो० १/७७) तलतः (अव्य०) पेंदी से।
तवसिस्थित (वि०) उस रूप में स्थित। (हि० ४९) तलतालः (पुं०) एक वाद्य यन्त्र।
तव-तुम्हारी। (सुद०७३) तलत्रं (नपुं०) दास्तान, हाथ में पहनने वाले।
तवक-(तुम्हारी) (जयो० १२/१२७) तलत्राणं (नपुं०) दास्तान।
तवस्विराट् (पुं०) ऋषिवर। (जयो० १/७७)
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तस्करः
४३८
तापत्
तात्त्विकस्थितिः (स्त्री०) वास्तविक स्थिति। (जयो० वृ०२८/४०) तात्पर्य (पुं०) आशय, अभिप्राय, निष्कर्ष, अर्थ, सुद्देश्य, अभिप्रेत। तात्त्विक (वि०) [तत्त्व+ठक्] वास्तविक, यथार्थ, परमाश्यक
चिन्तनीय, विचारणीय, तत्त्व सम्बंधी। (सम्य०६१) तात्त्विकवृत्तिः (स्त्री०) तत्व सम्बंधी व्याख्या। तात्त्विकी (स्त्री०) तत्त्व सम्बंधी। (जयो० ११/४१) तादात्म्य (नपुं०) [तदात्मन्+ज्यञ्] एक रूपता, समानता,
सम्बन्ध विशेष, एकीकृत, गुण-गुणी का सम्बन्ध, अवयव-अवयवी का सम्बन्ध। एकीभावगत। (जयो०
१/१०३) तादात्विकः (वि०) अपव्यय करने वाला, व्यय की चिन्ता नहीं
करने वाला। तादृक् (वि०) वैसा, उसी प्रकार का, उसी तरह का। (सम्य०
४२)
तस्करः (पुं०) चोर, लुटेरा। तुच्छवस्तु का ग्रहण (जयो० २८/५७) तस्करता (वि०) चोरी भाव, (समु०८/५) तस्करयुतिः (स्त्री०) चौर संयुति। (जयो० २८/५७) तस्करप्रयोगः (पुं०) चोरी की प्रेरणा। 'तस्कराश्च चौरास्तेषां
प्रयोगो' तस्थु (वि०) स्थिर, अचल। ताक्षण्यः (पुं०) [तक्षन्+ण्य] बढ़ई का पुत्र। तार्थ्यकेतुः (स्त्री०) गरुड ध्वजा। (वीरो० ११/१९) ताच्छीलिकः (पुं०) विशेष प्रवृत्ति। ताटङ्कः (पुं०) कर्णाभूषण, कर्णफूल। ताटस्थ्य (वि०) सामीप्य, समीपता, १. उदासीनता, २.
माध्यस्थता। ताडः (पुं०) [तड्+घञ्] प्रहार, चूंसा, थप्पड़। १. देखना, २. |
पूला, गट्ठर। (जयो० ८/१०) ३. पर्वत। ताडका (स्त्री०) [तड-णिच्+ण्वुल+टाप्] राक्षसी। ताडकेयः (पुं०) ताडका पुत्र, मरीची राक्षस। ताडनं (नपुं०) [तड+णिच्+ल्युट्] मारना-पीटना (समु०८/२८) |
(जयो० १५/५२) ताडपः (पुं०) ताडपत्र। ताडपत्रं (नपुं०) ताड का पत्र। ताडवृक्षः (पुं०) ताडतरु। (जयो० १४/१) ताडिः (स्त्री०) एक आभूषण। ताडित (वि०) आहत, प्रहारित। (जयो० वृ० २/१४१) ताड्यमान (वि०) [तड+णिच्+शानच्] प्रहार किया जाता
हुआ, पीटा जाता, पीडित किया। (जयो० वृ० १५/५१) ताडयन्-ताडे, बजाए। ताण्डवः (पुं०) नृत्य, नाच, उदात्त नृत्य। ताण्डुल (पुं०) नृत्य, नाच, अभिनय। तातः (पुं०) [तनोति विस्तारयति गोत्रादिकम्] जनक, पिता। |
(समु० ३/८) पितृस्थान (जयो० १/६) पूज्य-जयो०
४/२) तातख्यातः (पुं०) महोदय। (जयो० १८/४४) तातनः (पुं०) [तात+नृत्+ड] खंजन पक्षी। तातलः (पुं०) एक रोग। १. पकाना, तपाना। २. ऊष्मा, तेज,
गर्मी। तातिः (स्त्री०) उत्तराधिकारी। १. पंक्ति। (जयो० ११/८०) तात्कालिक (वि०) [तत्काल+ठञ्] उसी समय होने वाला।
भव्य रहित।
तादृक्मुखं (नपुं०) वैसा ही आनन। 'तादृक्मुखं सम्यक् सुष्टु
यथा स्यात्तथा परिचुम्बति। (जयो० १५/४९) तादृक्ष (वि०) वैसा ही, उसी रूप में। तादृष्ट (वि०) उसी तरह का। तादृश (वि०) उसी रूप में, वैसा ही। तादुगनुबन्धः (पुं०) वैसा ही अनुबन्धा (वीरो० २१/२२) तानः (पुं०) [तन+घञ्] रेशा, धागा, संगीत का स्वर, तांत।
(जयो० ७/१९) तानं (नपुं०) विस्तार, प्रसार। तानवं (नपुं०) [तनु+अण] पतलापन, छोटापन। १. शरीर
सम्बंधी, आयुर्वेदशास्त्र। (जयो० २/५६) तानवोपमः (पुं०) मनुष्योचित उपमा। तनोरियं तानवी या
उपमितिः (जयो० २/१६७) तानूरः (पुं०) [तन्+ऊरण] भंवर, जलावर्त। तान्त (वि०) [तम+क्त] क्लांत, थका हुआ, परेशान। १.
व्याप्त। (जयो० १२१७९, जयो० ११/८८) तान्तवं (नपुं०) [तन्तु+अण] तांत, कातना, बुनना, जाला। तान्त्रिक (वि०) तन्त्र विद्या प्रवीण। (सुद० १३४) तापः (पुं०) [तप्+घञ्] उष्ण, गर्मी, तेज, धूप-ततस्तापेऽ
नुयायात्तदा (मुनि० १२) प्रताप, संताप, वेदना, पीड़ा, कष्ट खेद, दु:ख। देह पीड़ा। १. पश्चाताप। २.
कलुषान्तकरण। ३. निन्दाकरण। तापत् (पुं०) धूप, गर्मी, तेज, उष्णता। छायायां यदि तापतोऽथ
च ततस्तापेऽनुयायात्तदा। (मुनि० १२)
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तापत्
४३९
ताम्रवृक्षः
तापत् (पुं०) सूर्य, दिवाकर, उष्णता। 'निवारिता तापतया | तामसिक (वि०) तम से सम्बन्ध रखने वाला। तमोमय, घनाघना' (जयो०२४/१९)
तमोगुण सहित। तापत्रयं (नपुं०) संताप त्रय, जन्य, जरा और मृत्यु ये तीनों | तामिस्रः (पुं०) [तमिस्रा+अण्] नरक का एक भाग।
तापत्रय हैं। 'समाप तापत्रयभिच्छवेर्भवे' जिनेन्द्रचन्द्रस्य मुदं तामेष (अव्य०) वैसा ही, उसी प्रकार का ही। (जयो० वृ० सुदर्शने' (जयो० २४/७०) जन्म जरा-मृत्यु रूप- १/१५) सन्तापत्रितयोच्छेदकस्य (जयो० वृ० २४/७९)
ताम्बूलं (नपुं०) [तम् उलच्] पान-सुपारी। (जयो० १२/१३७) तापनः (पुं०) [तप्+णिच्+ल्युट्] सूर्य, रवि, ग्रीष्म ऋतु, ओठों राग उत्पन्न करने वाला। (जयो० १२/१३७) सूर्यकान्तमणि, कामदेव का एक बाण।
ताम्बूल-करण्डः (पुं०) पानदान। तापस (वि०) साधक, तपस्वी, तपशीला व्यक्ति, साधनारत। ताम्बूलपेटिका (स्त्री०) पानदान। तापसः (पुं०) १. भक्त, सन्यासी। २. जटाधारी। जे जडिला से ताम्बूलभावः (पुं०) नाग वल्लीपत्र। योग्यप्रमाणोवेता नागदलं उ तावसा।
नागवल्लीपत्रं तस्योदारं क्षणमाप्त्वा ताम्बूलभावेन सत्पुरुषाणां तापसतरुः (पुं०) हिंगोल वृक्ष, इंगुदीतरु।
मुखमण्डनाय भवत्येव। (जयो० वृ० २२/५४) तापस्यं (नपुं०) [तापस+ष्यञ्] तपस्या।
ताम्बूलरागः (पुं०) पान की लाली। दन्तावलीमधरशोणिमसंभदकां तापान्वित (वि०) ताप से युक्त, अग्नि से संयुक्त। 'तापेन ताम्बूलराग-परिणाम-धियाप्यपङ्काम्। (जयो० १८/१०२) धर्मेणान्वितं यद्वा वह्नि संतप्त। (जयो० १५/१७)
ताम्बूलरागस्य नागवल्लीदलजन्य-लौहित्यस्य परिणामः। तापिच्छः (पुं०) [तापिनं छादयति तापिन्+छ+उ] तमाल (जयो० वृ० १८/१०२) वृक्षा
ताम्बूल वाहकः (पुं०) पान देने वाला। तापित (वि०) तपाया गया। (जयो० वृ० २।८१)
ताम्बूलवल्ली (स्त्री०) पानलता, पान की बेल। तापी (स्त्री०) ताप्ती नदी, जो सूरत के निकट।
ताम्बूलावशिष्ठ (वि०) पान की पीठ। (जयो० ६/८२) तापोज्जयी (वि०) संताप को जीतने वाला। 'संसार- ताम्बूलिक (वि०) [ताम्बूल+ठन्] तम्बोली, पान लगाकर तप्पोज्जयिसामतोया' (भक्ति० ४)
__ बेचने वाला, पनवारी। तामः (पुं०) [तम्+घञ्] १. भय, २. दोष, चिन्ता, दु:ख, ताम्बूली (स्त्री०) पान लता। इच्छा।
ताम्र (वि०) [तम्+रक्] तांवा, लाल रंग। तामपत्रायिता (वि०) ताम्रपत्र पर अंकित। (जयो० २०/७५) तानं (नपुं०) रक्तवर्ण। तामरं (नपुं०) [ताम+ए+क] १. पानी, २. घृता
ताम्रकारः (पुं०) कसेरा, ठठेरा, तांवे का कार्य करने वाला। तामरसं (नपुं०) [तामरे जले स्नहित-सस्+उ] रक्त कमल, ताम्रकृमिः (स्त्री०) इन्द्रवधूटी, रक्तवर्ण का कोट। पद्म। (जयो० १/७) सुवर्ण। ३. ताँबा।
ताम्रचूडः (पुं०) मुर्गा, सानुमति, कुक्कुट। (सुद० १/४, जयो० तामस (वि०) १. तामसिक प्रवृत्ति। सन्धीयते तामस एषशिष्टा ५/७०, दयो० ५१)
(समु०८/४४) दुर्व्यसनता, अज्ञानता, तमोगुण। (जयो० | ताम्रचूलः (पुं०) १. सानुमति, मुर्गा, कुक्कुट। शब्दत्यनेन
११/५४) २. काला, अन्धकारग्रस्त, अन्धेरा। ३. अज्ञानी। रणकर्मणि ताम्रचूलः। (जयो० १८७३) २. कलगी तामसः (पुं०) दुर्जन, दुष्ट।
युक्त-कुक्कुट। तामसं (नपुं०) अन्धकार, अंधेरा।
ताम्रपत्र (नपुं०) तांबे का फलक। तामसगुणः (पुं०) तमोगुण, हानिकारक गुण, उत्तेजक कारण, ताम्रपत्रायिता (वि०) सुवर्णक्षरा, स्वर्ण अक्षरों सहित। (जयो० दुव्यसनात्मक प्रवृत्ति।
वृ०२०/७५) तामसत्यागः (पुं०) तमोगुण का त्याग। (समु० ८/४५) ताम्रपर्णी (स्त्री०) एक नदी, जो मलयगिरि से निकलती है। तामसप्रवृत्तिः (स्त्री०) तमोगुण को उत्पन्न करने वाली वृत्ति, ताम्रपल्लवः (पुं०) अशोकवृक्षा
(सुद० १/४४) यतः समुद्रोद्धारकारकस्तामस-वृत्ति- ताम्रलिप्तः (पुं०) एक देश। कयाऽभिसारकः' (सुद० १/४४)
ताम्रवृक्षः (पुं०) चन्द्रन वृक्ष का प्रकार।
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ताम्रवृक्षः
४४०
तालगर्भः
ताम्राक्षः (पुं०) १. कौवा, २. कोयल।
ताराततिः (स्त्री०) ताराओं की पंक्ति। (वीरो० ९/४२) ताम्रिक (वि०) [ताम्र ठक्] ताम्रमय, तांबे का बना हुआ। तारापतिः (स्त्री०) चन्द्रमा, शशि। (जयो० १८/४०) ताम्रोष्ठः (पुं०) रक्त होंठ।
तारापदेशः (पुं०) ताराओं के वहाने, ताराणामपदेशाच्छलात् ताय् (सक०) फैलाना, विस्तार करना।
(जयो० १५/५०) तार (वि०) [तृ+णिच्+अच्] उच्च, उन्नत, उज्ज्वल, श्रेष्ठ, ताराप्रमाणं (नपुं०) तारालोक, राशिचक्र। स्पष्ट, कर्कश, अच्छा, मनोज्ञ।
तारामृगा (पुं०) मृगशिरा नक्षत्र। तारः (पुं०) १. मुक्ता। 'तारो मुक्तादि-संशुद्धौ तरुणे तारावतारः (पुं०) नक्षत्रत्रस्फुरण, तारों की चमक। (वीरो०
शुद्धमौक्तिके' इति विश्वलोचन। (जयो० १३/९०) २. २/३६) नदी तट, ३. प्रभा, चमक, आभा।
तारिकं (नपुं०) [तार+ठन्] भाड़ा, किराया। तारं (नपुं०) १. तारा, ग्रह, नक्षत्र। २. कपूर, ३. रजत। ४. तारुण्यं (नपुं०) [तरुण+ष्यञ्] युवावस्था, यौवनकाल, वयस्थ, आंख की पुतली।
युवक अवस्था युक्त। (जयो० १/६) (दयो० ५६, जयो० तारक (वि०) [तृ+णिच्+ण्वुल] पार ले जाने वाला, रक्षा २३/५८) यौवने कारुण्य करुणा बुद्धिं विधेहि, यौवनं व्यर्थं करने वाला, पार करने वाला।
मा कुरु रुचिं निधेहि।। (जयो० २४/१३२) तारकः (पुं०) जहाज, जलपोत, बेड़ा।
तारुण्यतेजः (पुं०) युवावस्था का कान्ति, यौवन शक्ति। (दयो० तारकं (नपुं०) १. अक्षि, आंख, २. आंख की पुतली। ३. तारा। ४२) तारकनायकः (पुं०) चन्द्र, शशि। (जयो० वृ० १/१०५) तारुण्यपूर्णः (पुं०) तरुणता से परिपूर्ण, यौवनावस्था से युक्त। तारकजित् (पुं०) कार्तिकेय।
(सुद० ११९) 'तारुण्यपूर्णामिह भाग्यपूर्णाः' (वीरो० ९/३१) ताकरवृत्तः (पुं०) तारक नामक मणि, प्रभा युक्त मणि, तारुण्यमूर्तिः (स्त्री०) वयः सन्धि, तरुणाई की मूर्ति। (जयो० चमकीली मणि। (जयो० ५/५२)
१६/२) तारका (स्त्री०) [तारक+टाप्] तारा। (जयो० १८/२२) १. | तारुण्यारम्भः (पुं०) यौवनारम्भ, वयावस्था का प्रारम्भ। (जयो० उल्का, धूमकेतु, अक्षिपुत्तलिका।
वृ० २/५७) तारकाचयः (पुं०) तारों का टूटना। (वीरो० ७/११)
तारेयः (पुं०) [तारा+ ठक्] बुधग्रह। तारकिणी (वि०) [तारक+इनि ङीष्] तारों से युक्त रात्रि, तार्किक (वि०) [तर्क+ठक्] दार्शनिक, विचारशील, न्याय कृष्णपक्ष की रात्रि।
परम्परा में सिद्धहस्त, तर्कशैली वाला। तारकित (वि०) [तारक इतच] तारों से युक्त।
तार्थ्यः (पुं०) [तृक्ष अण+तार्क्ष+ष्यब] गरुड़। (वीरी० २०/१) तारकोक्तिमत्व (वि०) नक्षत्ररूपत्व, तारों के स्वरूप वाला। तार्थ्यरूपः (पुं०) गरुड़ स्वरूप। (वीरो० २०/५) (जयो० १२/७१)
तीर्तीय (वि०) [तृतीय+अण] तीसरा, तृतीय। तारण (पुं०) [तृ+णिच्+ल्युट्] नौका, नाव।
तार्तीयीक (वि.) [तृतीय+ईकक] तृतीय, तीन संख्या युक्त। तारणं (नपुं०) पार, उतारना, बचाना, छुड़ाना।
तालः (पुं०) [तल+अण] १. ताडवृक्षा (जयो० १४/१) २. तारणिः (स्त्री०) [तृ+णिच्+अनि] बेड़ा, घडनई।
कंसिका, वाद्य विशेष। ३. लय-लयमूर्च्छादि-संगीत तारतम्यत् (वि०) तारतम्यता से, एक दूसरे के योग से, साक्षेप शात्रोक्तस्तैरन्वितो युक्तो' (जयो० १४/१) तालस्तु महत्त्व। (जयो० २६/९२)
कसिकादिशब्द विशेष। ४. ताली, हाथों से बजने वाली। ५. तारतम्यं (नपुं०) क्रमांकन, साक्षेप दृष्टि, तुलनात्मक दृष्टिकोण। टेक, गीत को पुनरावृत्ति की लय, गति, नियत मात्राओं अन्तर भेद।
पर ताल, लय देना। तारयितु-पार कराने के लिए (सुद० २/३१)
ताल (नपुं०) हरताला तारलः (पुं०) [तरल+अण्] विषयी, कामुकी।
तालकेतुः (पुं०) भीम। तारा (स्त्री०) [तार+टाप्] १. तारा, ग्रह। (जयो० वृ० १५/२९) तालक्षीरकं (नपुं०) ताड़ी, ताड का क्षीर/दुग्ध।
२. अक्षिपुत्तलिका, दृष्टि (सुद० ८२), ३. मुक्ता। तालगर्भः (पुं०) ताड़ी।
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तालध्वजः
तालध्वज: (पुं०) बलराम ।
तालपत्रं (पुं०) ताडपत्र, जिस पर ग्रन्थ लिखे गए। तालभृत् (पु०) बलराम ।
तालबद्ध (वि०) झांझ, करताल, मंजीरा ।
तालयन्त्रं (नपुं०) जर्राह का एक उपकरण । तालयुक्त (वि०) लय सहित (जयो० १४/१) तालरेचनकः (पुं०) नर्तक, अभिनेता।
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ताललक्षकः (पुं०) बलराम ।
तालवनं (नपुं०) वृक्ष समूह, ताडवृक्षों का वन । तालवृक्षरसं (नपुं०) ताड़ी, आलीयक। (जयो० वृ० १६ / २६ ) तालवृन्तं (नपुं०) बिजना, विजन, पंखा । (जयो० १२ / १२२) तालवृन्तभ्रमणं (नपुं०) तालवृक्ष के डण्ठल के आश्रय (चीरो० १२/१५)
तालवृन्तबंध: (पुं०) एक छन्द की प्रक्रिया (वीरो० २२/४०) तालव्य (वि० ) [ तालु+ यत्)] तालु स्थानीय तालु से सम्बन्ध रखने वाला।
तालव्यवर्णः (पुं०) तालु स्थानीय अक्षर-इ, ई, च, छ्, झ्, ञ्, और श्' य् तालव्यस्वरः (पुं०) तातु स्थानीय स्वर ई ई । तालिकः (पुं०) (तल ठक्] ताली बजाना, खुली हथेली। तालितं (तलु णिच् + क्त) रंगा हुआ वस्त्र १. रज्जू, रस्सी ताली (स्त्री० ) [ तल्+ णिच्+अच् + ङीष् ] १. ताडवृक्ष, पर्वतीय ताडतरु। २. सुगन्ध युक्त मृतिका
+
तालीवनं (नपुं०) ताडवृक्ष समूह | तालु (नपुं० ) [ तरन्त्यनेन वर्णाः तृ+उण् रस्य लः] उपरिदंत और कौवे के मध्य का गर्त ।
तालुजिह्वः (पुं०) मगरमच्छ । तालुर: (पुं०) भंवर, जलावर्त । तालुस्थ (वि०) तालु स्थान । तालुस्थानं (नपुं०) तालुभाग । तालूषकं (नपुं० ) [ तल्+ णिच्+ऊषक् ] तालु।
तावक ( वि० ) [ युस्मद् + अण्-तवक आदेशः, तवक+खञ्] तावकीन त्वदीय (जयो० १७ / १२८) तेरा, तेरी । तावकीन (वि०) उतने ही (जयो० ० १८/३५) तावत् (वि० ) [ तत्+डावतु] उतना, इतना, इतने। (सुद० ९५, तत्कालमेघ (जयो० २ / १३३) इस समय अवधारण अर्थ में (जयो०] १४/३१) यावत्तावच्च साकल्येऽवधौ मानावधारणे तावद देखो ऊपर।
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४४१
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तावता (अव्य०) तत्काल ही। (जयो० ४/३)
तावत्तु (अव्य० ) तत्पश्चात भी। (वीरो० ४ / २९) एकोन्यत: सम्मिलतीति यावद्धौभाविकी शक्तिरुदेति तावत् ।
तिग्मांशु
तावतैव (अव्य० ) इतने ही। (दयो० २०) (सम्य० २३) तावतैकत्र (वि०) उतने ही। (दयो० १७) मात्र । तावत्कृत्यः (अव्य०) इतनी बार
तावत्मात्रं ( नपुं० ) इतना मात्र । तावत्वर्ष (पुं०) इतने वर्ष पुराना । तावतिक (वि०) इतनी कीमत का
तावतैव (अव्य०) तो भी (जयो० २/१०५) तावदन्यत्र ( वि० ) इसके अतिरिक्त । (सम्य० ७१) नात्माऽस्य दृष्टी भवतीति तावदन्यत्र चैतस्यु किलात्मभावः । (सम्य० ७१ )
तावदकिञ्चन (वि०) और कुछ भी (जयो० तावदलीकः (पुं०) उतना मिथ्या । तावदलीकबोध: (पुं०) उतना मिथ्याबोध तदुत्तरं तावदलीकबोधः प्रणाशमायाति न किन्त्वबोधः।
तावदित (वि०) एतदर्थ (जयो० ८/२४) (सम्य० १३६) इतने से ही यहां (वीरो० १७/२६)
तावदिति (अव्य०) वाक्य की शोभा के लिए (जयो० २/११०) तावदेव (वि० ) इतने में भी (दयो० ७) तावदीय (वि०) उतने ही (जयो० वृ० १२/८५)
तिक्त (वि०) [तिज+क्त] तीखा, कड़वा, चरपरा (जयो० २५ / २९) तीखापन, सुगन्ध।
तिक्तनाम (वि०) तीखे से युक्त नामकर्म । तिक्तफलं (नपुं०) कटुकफल।
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तिक्तफल: (पुं०) कतक पादप । तिक्तमरिच (पुं०) कवक वृक्षा तिक्तसार : ( पुं०) खदिर तरु। तिक्तायते जलाता है (सुद० १११)
तिग्मः (वि० ) [ तिज् + कम्+ जस्य काः] १. गहन, अधिक, प्रगाढ़, प्रचण्ड, २. दाहक, गरम, उष्ण। तिग्मकर: (पुं०) सूर्य, रवि । तिग्मकरोदय (पुं०) सूर्योदय (जयो० २०/८९) तिग्मदीधिति: (पुं०) दिवेस, दिनकर, रवि सूर्य। तिग्मरश्मि: (पुं०) सूर्य, दिनकर, रवि तिग्मांशु ( पुं०) सूर्य । तिग्मांशु कृपयोऽस्य तावदुदिता सम्वर्तते साधुता (मुनि० १)
।
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तिङन्तः
तिर्यक्
तिङन्तः (पुं०) ति आदि प्रत्यय। (जयो० १/३१)
तिमिरक्षणा (स्त्री०) सन्ध्या। तिज् (सक०) सहना, निर्वाह करना, भुगतना।
तिमिरघातक (वि०) अन्धकार नाशक चन्द्र या सूर्य। तितउः (पुं०) [तन्+डउ, द्वित्वम् इत्वम्] चलनी।
तिमिरनुद् (पुं०) सूर्य। तितउं (नपुं०) छतरी, छाता।
तिमिरमुतान्धकारः (पुं०) एक दैत्य विशेष, अन्धकार नामक तितिक्षा (स्त्री०) [तिज्+सन् ऊ+टाप्] त्याग, सहिष्णुता, ___ असुर। (जयो० वृ० १८/३०) सहनशक्ति, क्षमा।
तिमिररिषुः (पुं०) सूर्य। तितिक्षु (वि०) [तिज्+सन्+उ] सहिष्णु, क्षमाशील।
तिमिराख्यः (पुं०) तिमिरनामक रोग, रतौंधी (जयो० १८/१८) तितिभः (पुं०) [तितीतिशब्देन भणति तिति+भण्ड] जुगनू।
___तिमिराख्यं दोषमधुः' इन्द्रबधूटी, वीरबहोटी।
तिमिरारिः (पुं०) सूर्य, दिनकर, रवि। तितिरः (पुं०) [तिति इति शब्दं राति ददाति रा+क] तीतर, चकोर।
तिमिरुः (पुं०) १. अन्धकार, २. समुद्र। 'तिमि लातीति तं तित्तिरिः (पुं०) [तितीति शब्द रौति] तीतर।
समुद्र' (जयो० १५/९) तिथ [तिज्+थक्] (पुं०) १. अग्नि, २. प्रेम, ३. वर्षा ऋतु।
तिमिलक्षणा (स्त्री०) अन्धकार को अवकाश/स्थान देने वाली
सन्ध्या। अन्तस्थया च तिमिलक्षणयोव्रजन्ती वृत्त्यात्तया तिथिः (पुं०/स्त्री०) [अत्+इथिन्] चान्द्र दिवस, एक नियत दिवसा (जयो०)
तिरयितुं समभूत् स्रवन्ती। (जयो० २०/४८) तिथिक्षयः (पुं०) अमावस्या।
तिरः (पुं०) तिरछा, तिर्यक् (जयो० वृ० ६/६२)
तिरश्ची (स्त्री०) [तिर्यक् जाति: स्त्रियां ङीष्] पशु, पक्षी, तिथिपत्री (स्त्री०) पञ्चाङ्ग
चौपाया जानवर। तिथिप्रणी: (स्त्री०) चन्द्रमा।
तिरश्चीन (वि०) [तिर्यक् ख] टेढ़ा, पार्श्वस्थ, तिरछा। तिथिवृद्धिः (स्त्री०) तिथि की वृद्धि, जिसमें तिथि दो सूर्यों के
तिरसामान्यः (पुं०) विभिन्न पुरुषों में जो समान पुरुषत्व रहता भीतर पूर्ण होती है।
हैं, (वीरो० १९/१९) तिथिसत्कृतीद्धा (वि०) तिथियों को प्रकट करती हुई।
तिरस् (अव्य०) [तरति दृष्टिपथं तृ+असुन्] तिनिशः (पुं०) इमली वृक्ष।
तिरस्कारः (पुं०) अवहेलना। (जयो० ५/५३) तिन्तिडः (स्त्री०) इमली वृक्षा
तिरस्करणी (स्त्री०) परदा, चूंघट। तिन्तिडिका (स्त्री०) इमली वृक्षा
तिरस्कारिणी (स्त्री०) परदा, बूंघट, जवनिका। तिन्दुः (पुं०) तेन्दु का वृक्षा
तिरस्की (वि०) तिरस्कार करने वाला। (जयो० ३/४२) तिम् (सक०) आर्द्र करना, गीला करना, तर करना।
तिरस्क्रिया (स्त्री०) छिपाना, अन्तर्धान, तिरोहित, आच्छादन, तिमिः (पुं०) [तिम्+इन्] १. समुद्र, २. एक मछली विशेष।
निवारण, विघ्नहरण। (जयो० १२/२७) __ (जयो० १५/९)
तिरस्कृत् (वि०) तिरस्कार, किया गया, अवहेलित, निवारित। तिमिकोषः (पुं०) समुद्र।
(सुद०४/४७) तिमिङ्गिलः (पुं०) एक मत्स्य विशेष।
तिरस्क्लुप्तवती (वि०) प्राणेशदिशि। (जयो० वृ० १७/२६) तिमित (वि०) [तिम+क्त] गतिहीन, निश्चल। १. आर्द्र, तिरश्चक्रतु -तिरस्कार किया गया। (सुद० ४/४९) गीला, तट।
तिरस्तः (पुं०) तिर्यग्भाग, तिरछा हिस्सा। (जयो० १४/९१) तिमिध्वज् (पुं०) एक राक्षस विशेष।
तिरस्थानं (नपुं०) अन्तर्धान होना, दूर हटना। तिमिर (वि०) [तिम्+किरच्] अन्धकारपूर्ण।
तिरस्पसरित (वि०) तिर्यक् स्थापित। (जयो० वृ० १/५२) तिमिरं (नपुं०) १. तिमियुक्त, अन्धकार, श्यामवर्ण। 'नदीपरूपे तिरस्भावः (पुं०) अन्तर्धान होना, छिपना, ओझल होना।
तिमिरे बुडन्ति' (जयो० १५/२१) तिमिर रोग, शार्वर तिरहित (वि०) ओझल, अन्तर्धान। रतौन्धी (जयो० वृ० १८/१८)
तिरयते-छिपाता, गुप्त करता है। (जयो० ५/२३) तिमिरक्षति (स्त्री०) अन्धकार का नाश। 'तया वृषभदासस्या- | तिर्यक् (अव्य०) [तिरस्+ अञ्च+विवप्] टेढ़ेपन से, तिरछेपन भून्सोहतिमिरक्षतिः' (सुद० ४/१३)
से, वक्रता युक्त।
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तिरोभावः
४४३
तिलरसः
तिरोभावः (पुं०) दिगन्तर लीन। (जयो० १८/९५)
तिलः (पुं०) [तिल+क्] १. तिल पादप। तिल का पौधा। तिरोभवति-तिर्यक् होना- तिरोभवस्येन भुवोऽवरे च वरे। (वीरो० (जयो० वृ० १७/५४) २. मस्सा, धब्बा। ९/३०)
तिलकः (पुं०) [तिल-कन्] तिरोभावः (पुं०) स्वाभाविक विनाश।
तिलक (नपुं०) १. तिलक नामक वृक्ष। २. स्वभाविक चिह्न। तिरोहिताञ्जनं (नपुं०) विलुप्ताञ्जन, कुञ्जल का अभाव (जयो० २. चित्रक, मस्तक पर लगाया गया तिलक जो चन्दन, १४/९२)
रोली, हल्दी राख आदि का होता है। तिलकं तस्य रुचिं तिर्यपातिन् (वि०) तिरछे पड़ने वाले। (जयो० १६/२३) शोभा व्रजति। (जयो० वृ० ६/३०) आराध धाम धनतो तिर्यक् प्रचयः (पुं०) प्रदेशों का समुदाय। 'प्रदेशप्रचयो हि धरणीं समस्तां लोकत्रयी-तिलकतां प्रति यात्यतस्ताम्' (सुद० तिर्यक्प्रचयः' (प्रवचनसार वृ० २/४९)
१/३६) १. शोभा, प्रसिद्धि (जयो० २/४६) शिरोमणि तिर्यक्सामान्यं (नपुं०) सादृश्यज्ञान का विषयभूत परिणाम। (जयो० १/९७)
सामान्यं सादृश्यापरिणाम-लक्षणं तिर्यक् सामान्यम्- तिलकता (वि०) तिलक पना, शिर से बनाया गया चिह्न सादृशपरिणाम रूप।
विशेष। प्रसिद्धि को प्राप्त हुए। भूतले तिलकतामुताञ्चतां तिर्यसूरि (वि०) सूर्य की समीपता पूर्वक गमन। 'तिरियसूरी श्रीमतां चरितमर्चतः सताम्। (जयो० २/४६) 'तिलकस्य
य तिर्यगवस्थितं दिनकरं कृत्वा गमनम्।' (भ०आ०टी० भावस्तां श्रेष्ठतामञ्चतां प्राप्तवताम्' (जयो० वृ० २/४६) २२२)
तिलकत्व (वि०) तिलकपना। तिर्यग्गति (स्त्री०) तिर्यंच अवस्था। (समु०८/३५)
तिलकत्वमाल (वि०) तिलकपने को धारण करने वाला। तिर्यग्गतिनामः (पुं०) तिर्यंच गति नामकर्म।
अस्मिन् भुवो भाल इयद्विशाले समादधच्छ्रीतिलकत्वभाले। तिर्यग्दिग्वतः (पुं०) तिरछी दिशाओं का परिमाण।
(वीरो० २/२१) तिर्यग्योनिः (स्त्री०) तिरोभावगत अवस्था, तिर्यंच अवस्था। | तिलकल्कः (पुं०) खल, खली। तिल की पीठी। (जयो० वृ० तिर्यग्लोकः (पुं०) सूचि अंगुल का बाह्यरूप जगप्रतर एक | १७/५४) __ लाख योजन के सातवें भाग मात्र।
तिलकाकितः (पुं०) तिलक वृक्ष की पंक्ति (वीरो०७/२५) तिर्यग्वणिज्य (पुं०) तिर्यंच सम्बंधी वाणिज्य/व्यापार का देशक। तिलकालकः (पुं०) मस्सा, काला तिल। तिर्यग्व्यतिक्रमः (पुं०) दिशा परिमाण का उल्लंघन। तिलकायित (वि०) तिलक धारण करने वाला। (जयो०१०/९०) तिर्यगतिक्रमः (पुं०) भूमि सीमा का उल्लंघन।
ललाटे च तिलकायितं तिलकवदाचरति 'तिलकमिवाचरतीति तिर्यगायु (स्त्री०) तिर्यंच पर्याय का अवस्थान।
तिलकायितः' (जयो० वृ० १२/२३) तिर्यगुरु (वि०) तिरः प्रसारित, वक्र कथन वाला। (जयो० तिलकिल्टं (नपुं०) खली, खला १/५२)
तिलकोपमेय (वि०) तिलक की तरह उपमा वाला। (सुद० तिर्यंच् (वि०) तिर्यग्गति वाला जीव। तिरस्तिर्यगञ्चति गच्छन्ति। १/१४) तिर्यञ्च देखें ऊपर।
तिलखलि (स्त्री०) खली। ० जो वक्रगमन करते हैं।
तिलचूर्णं (नपुं०) तिल की खली। ० अन्तर्हित होकर गमन करते हैं।
तिलतण्डुकं (नपुं०) आलिंगन। ० तिर्यग्गति नामकर्म को प्राप्त होते हैं।
तिलतैलं (नपुं०) तिल का तैल। तिर्यंचकर्म (वि०) तिर्यक् कर्म वाला।
तिलन्तुदः (पुं०) [तिल+तुद+खश्] तेली। तिर्यंच्जातिः (स्त्री०) पशु-पक्षी की योनि।
तिलपर्णः (पुं०) तारपीन। तिर्यंच्प्रमाणं (नपुं०) चौड़ाई।
तिलपुष्पं (नपुं०) तिल पादप का फूल। (जयो० ५/८३) तिर्यंच प्रेक्षणं (नपुं०) तिरछी आंख से अवलोकन। तिलपर्णी (स्त्री०) चन्दन तरु। तिर्यंचयोनिः (स्त्री०) पश-पक्षी की पर्याय।
तिलकवत् (वि०) तिलक की तरह। (जयो० १२/१०७) तिर्यंचस्त्रोतस (पुं०) पशु उत्पत्ति, पशु जन्म।
तिलरसः (पुं०) तिल का तेल।
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तिलशः
तीर्थं
तिलशः (अव्य०) [तिल+शस्] तिल तिल करके, खण्ड-खण्ड तीक्ष्णपुष्पा (स्त्री०) लवंग पादप। करके, अल्प टुकड़े करके।
तीक्ष्णबुद्धि (वि०) तीव्रमति, उत्तम धी, तेजबुद्धि, कुशाग्रबुद्धि तिलत्सः (पुं०) एक सर्प विशेष।
तीक्ष्णरश्मिः (पुं०) रवि, सूर्य। तिलाञ्जली (स्त्री०) छोड़ना, उपेक्षा करना। (सुद० ७१) तीक्ष्णरसः (पुं०) १. जवाखर, २. जविष।
वसनेभ्यश्च तिलाञ्जलिमुक्त्वाऽऽह्वयति तु दैगम्बर्यन्तत्। तीक्ष्णलौहं (नपुं०) इस्पात। (सुद० ८१)
तीक्ष्णशूकः (पुं०) जौ। तिलाङ्कः (पुं०) तिल का चिह्नः तिलस्याङ्कश्चिह्नः' (जयो० तीक्ष्णांशुः (पुं०) १. सूर्य , २. अग्नि। ६/२१)
तीक्ष्णातपः (पुं०) १. सूर्य, २. अग्नि। तिलोत्तमा (स्त्री०) रम्भा (जयो० ११/७७) अप्सरा (दयो० तीक्ष्णातपना (स्त्री०) कठोर तप की साधना।
१/११) १. देवीयं ते महाभाग समा समतिलोत्तमा (सुद० । तीक्ष्णाराधना (स्त्री०) उत्कृष्ट भक्ति भाव। ११/३८) २. अच्छे लक्षणों वाली नारी- तिलोत्तमापि तीक्ष्णायसं (नपुं०) इस्पात। रम्भा अप्सरसः सम्प्रति। (जयो० वृ० ११/७७)
तीक्ष्णोपायः (पुं०) प्रबल उपचार। तिलोकदं (नपुं०) तिल और जल।
तीतारामः (नपुं०) प्रान्तोद्यान। समीपवर्ती आरामगृह बगीचा। तिलोदनं (नपुं०) तिल और दूध मिश्रित चावल।
(जयो० १४/१) तिलोयपण्णत्तिः (स्त्री०) यतिवषभ कत एक प्राचीन रचना. तीम् (अक०) गीला होना, तर होना।
जिसमें भूगोल, गणित एवं ज्योतिष का आदि विषय तीरं (नपुं०) ० किनारा, तट, कूल, समाहित है।
० प्रान्तभाग, समीपस्थल, • उपान्त, कगार, कोर। (दयो० तिल्वः (पुं०) [तिल्+वन्] लोध तरु।
४७, जयो० २१/७५) अलल्पतूलोदित तल्पतीरे। (सुद० तिष्ठदृगु (अव्य०) [तिष्ठन्यो गावो यस्मिन् काले, तिष्ठन्+गो] २/११) गो दोहन का समय, सन्ध्या समय, गोधूली बेला।
० बाण, धनुष पर चढ़कर छोड़ा जाने वाला। तीरो बाणो तिष्यः (पुं०) [तुष्+क्यप्] नक्षत्र विशेष।
यस्य स राजा गुणी। (जयो० वृ० ६/५८) बेला भाग। तिसाय (वि०) त्रि सन्ध्या (जयो० २/३६)
(जयो०६/५८) तीक् (अक०) पहुंचना, हिलना।
० गुणयुक्त तीर, भेदक तीर। तीक्ष्ण (वि०) [तिज+स्न, दीर्घः] १. पैना, कष्टप्रद, उत्तेजक, ० पार्श्वभाग, समीपवर्ती प्रान्त। (जयो० वृ० ६/५८)
उष्ण, कठोर, प्रबल, कटु, अहितकर, अशुभ, खर (जयो० तीरः (पुं०) १. बाज पक्षी, २. सीसा, टीन। ३. एक शब्द ८/६९) २. चतुर, बुद्धिमान।
विशेष, जो कौवों को उड़ाने के लिए प्रयुक्त किया जाता तीक्ष्णं (नपुं०) अयस्क, लोहा, विष, मृत्यु, शस्त्र।
है। व्येति काककलितां किलापदं तीरमित्यरमितीरयन्। (जयो० तीक्ष्णः (पुं०) चरपरा, कटुक, मिर्च, कालीमिर्च, राई।। २/३७) तीरमिति पदमरं शीघ्रमीरयन्-'तीर-तीर' ऐसा तीक्ष्णोऽसहनो वा।
कथन विशेष। (जयो० वृ० २/३७) तीक्ष्णकन्दः (पुं०) प्याज,
तीरित (वि०) [तीर+क्त] निर्णीत, साक्ष्य प्राप्त हुआ, सुलझाया तीक्ष्णकर्मन् (वि०) साहसी, उद्यमी, प्रयत्नशील, अत्यधिक गया। पार गया। दृष्टकर्मी।
तीर्ण (वि०) [तृ+क्त] १. पार किया हुआ, पार पहुंचा हुआ। तीक्ष्णकोणवर (वि०) अन्तस्थल भेदकर। (जयो० ६/१)
२. प्रसारित, फैला हुआ। तीक्ष्ण-कटाक्ष (वि०) तीव्र कटाक्ष, तिरछी चितवन्। (जयो० | तीर्थं (नपुं०) १. पथ, मार्ग, स्थान, साधन, माध्यम। २. ६/१)
श्रेष्ठमार्ग, उत्तम पथ। तीक्ष्णदष्ट्रः (पुं०) व्याघ्र।
• ज्ञान-दर्शन और चरित्र का समूह। तीक्ष्णधारः (पुं०) असि, तलवार।
० सुदीर्घ संसार सागर से पार होने का मार्ग। तीक्ष्णपुष्पं (नपुं०) लवंग, लौंग।
० जिसमें पार हुआ जाता है तीर्यतेऽनेनेति तीर्थम्'
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तीर्थकर
४४५
तीर्थेश्वरः
० श्रमण-श्रमणी, श्रावक श्राविका का समूह।
तीर्थपदः (पुं०) तीर्थंकर पद। ० पवित्र स्थान, जिस स्थान से अर्हत् जिन मुक्ति को तीर्थपति (पुं०) तीर्थ नायक। (भक्ति० २५) प्राप्त हुए या तपश्चरण का पवित्र स्थान।
तीर्थ-बिंद (वि०) तीर्थ समूह। ० धर्मक्षेत्र-तीर्थाय-धर्मक्षेत्राय (जयो० २/११०) तीर्थभानु (पुं०) तीर्थ तेज। (वीरो० ११/३०) ० धर्म तीर्थ-'स्वशक्तितोऽसौकृततीर्थसेव:' (सुद०११०) तीर्थभावः (पुं०) तीर्थंकर का परिणाम। • जलावगाहप्रदेश-निशीथतीर्थो कृतमज्जनेन जयाय | तीर्थभूमिका (स्त्री०) तीर्थंकर प्रकृति की प्रारम्भिकी (जयो० निर्यातमथ स्मरणे। (जयो० १६/१)।
२४/१६) ० इष्ट प्राप्ति-मुमुक्षुभिस्तीर्थतया किलेष्टा।
तीर्थभृत् (व०) तीर्थ रूपता। (जयो० २३/८०) तीर्थकर (पुं०) अर्हत् प्रभु, अर्हन्त भगवन्। तीर्थ मार्ग के तीर्थमय (स्त्री०) तीर्थरूप। जिसे तीर्थमय अपना करके भव्य
प्रणेता। (वीरो० ९/१८) तीर्थकर:-तरन्ति संसारं येन | जीव भव पार करे। (भक्ति०६) भव्यास्तत्तीर्थम्। तीर्यते संसार-समुद्राऽनेनेति तीर्थम्, तीर्थयात्रा (स्त्री०) अकार्य से निवृत्त होना, धर्मयात्रा तीर्थस्थान तत्करणशीलास्तीर्थकरा:।।
में जाकर भक्तिभाव पूर्वक विचरण। तीर्थकरत्व (वि०) तीर्थकर पना, सोलह भावना का स्थान। तीर्थराजः (पुं०) प्रयाग, गङ्गा-यमुना का संगम स्थल, जिस (वीरो० ७/२०) (वीरो० ७/३०)
स्थान पर हो। ऐसा पवित्र स्थान तीर्थराज कहा जाता है। तीर्थकरनामः (पुं०) अरहन्त अवस्था की प्राप्ति का कारण। (जयो० वृ० ६/१०७)
'यस्य कर्मण-उदयेन परमार्हन्त्यं त्रैकोक्य-पूजाहेतुर्भवति । तीर्थरूपः (पुं०) तीर्थस्वरूप (वीरो० ४/३७) वाणी प्रोक्तां तत्परमोत्कृष्टं तीर्थकर नाम-जस्स कम्मस्स उदएण जीवस्स प्रथितसुपृथुप्रोथया तीर्थरूपाम्। (वीरो० ४/३७)
तिलोयपूजा होदि तं तित्थयरं णाम' (धव० ६/६८) तीर्थसम्भव-पथः (पुं०) तीर्थभवतार मार्ग, वृद्धपरम्परा मार्ग। तीर्थकरसिद्ध (वि०) तीर्थंकर होकर सिद्ध होने वाले जीव। (जयो० ३/१०) जैनवागिव सरित्सुवेशिनी तीर्थसम्भव तीर्थकृत् (वि०) भगवत् अवतार, तीर्थंकर।
पथानुवेशिनी। 'तीर्थसम्भवेन पथा वृद्ध परस्पराया तेन अन्तःपुरे तीर्थकृतोऽवतार। (वीरो० ५/५)
मार्गेण यद्वा उपायसञ्जातेन वर्त्मनाऽनुवेशिनी प्रवेशवती, निर्दोष रूपाय गुणाश्रयाय तस्मै च भव्याम्बुज भास्कराय। वाण्या आप्तोपज्ञेन, वर्त्मनाऽनुवेशिनी' (जयो० वृ० ३/१०) समस्त-सत्त्वप्रप्तिबोधकाय, नमोऽर्हते तीर्थकते जिनाय।। | तीर्थसंकथा (स्त्री०) तीर्थं चरित्र की उत्तम कथा। (तीर्थ भक्ति० भ०७०२)
तीर्थसिद्ध (वि०) संसार समुद्र से पार होने वाले। तीर्थकृत्व (वि०) तीर्थकर्ता (जयो० ४० ७२/७३)
तीर्थसेवः (पुं०) धर्मतीर्थ का आचरण। (सुद० १११) दिनानि तीर्थकर्तृ (वि०) तीर्थ को करने वाला तीर्थकर्तुः स्वकीयस्य अत्येति तटस्थ एव स्वशक्तितोऽसौ कृततीर्थसेवः। संस्कारस्य त्वनर्थता (हि० सं० २९)
(सुद० १११) तीर्थंकर (वि०) तीर्थमार्ग को स्थापित करने वाले तीर्थंकर। | तीर्थस्नातः (वि०) १. तीर्थ में नहाया हुआ। (दयो० १४) २. तीर्थंकरभक्तिः (स्त्री०) चतुर्विंशति तीर्थंकरो की स्तुति। ऋतुकाल में नहाई हुई। तीर्थस्नाताङ्गनाजकवरीभारमिव (भक्ति० १८)
मुक्तबन्धनम्। (दयो० वृ० ५३) तीर्थघाट (नपुं०) तीर्थस्थान, तीर्थस्थल।
तीर्थाङ्कपदं (नपुं०) विशिष्ट अंगों का उद्घाटन स्थान। 'तीर्थाङ्कानां तीर्थज्योतिः (स्त्री०) तीर्थदीप।
शासनप्रकाशकरणां पदस्थानं-(जयो० वृ० १६/४७) तीर्थतटः (पुं०) तीर्थ प्रान्त।
तीर्थेशः (पुं०) तीर्थकर प्रभु। तीर्थता (वि०) तीर्थरूपता। मुमुक्षुभिस्तीर्थतया किलेष्टा | तीर्थेशजन्माभिषः (पुं०) तीर्थंकर ऋषभादि का जन्माभिषेक।
स्याद्वादमुद्राङ्कितचक्रचेष्टा। सुकौशला या नयसत्त रङ्गा (जयो० १९/२) 'तीर्थशान्तं वृषभादीनां जन्माभिषव' (जयो० पुनातु सा मामपि वाक्सुगङ्गा।। (भक्ति० ५)
१९/२) तीर्थनाथः (वि०) तीर्थंकर प्रभु। (समु० १/३)
तीर्थेश्वरः (पुं०) तीर्थंकर प्रभु, तीर्थाधिपति, तीर्थनायक। तीर्थनायकः (पुं०) तीर्थपति, तीर्थंकर प्रभु। (भक्ति० २५) (भक्ति० १८) 'जाता यत्सुतमात्र एव सुखदस्तीर्थेश्वरे (वीरो० ४/६१)
किम्पुनः' (वीरो० ४/६२)
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तीर्थोदक
४४६
तुच्छ
।
तीर्थोदकं (नपुं०) तीर्थस्थान का जल, पवित्र स्थान का जल।
(जयो० वृ० १८/२६) तीन (वि.) [तीव्र रक्] कठोर, प्रचण्ड, तेज, उग्र, तीखा,
पैना। तीव्रगतिः (स्त्री०) तेजगति। तीव्रगति (वि०) शीघ्रगामी, फुर्तीला, अत्यधिक गतिमान। तीव्रतर (वि०) कठोर से कठोर। तीव्रपरिणामः (पुं०) उत्कृष्ट भाव, कठोर भाव। तीव्र पौरुषं (नपुं०) अत्यधिक साहस, विशेष शौर्य, शूरवीरता। तीव्रभावः (पुं०) उत्कृष्ट परिणाम, गतिमान भाव। 'उत्कटो
भवति यः परिणामः स तीव्र इत्युच्यते' (जैन०ल० ४९६) तीव्रमन्दभावः (पुं०) प्रकर्षता एवं अपकर्षता का परिणाम,
पगरिसापगरिसत्तं तिव्वमन्दभावो णाम। (धव० ५/१८७) तीवसंवेगः (वि०) दृढ़ आवेग युक्त, अत्युग्र, अत्यन्त तेज। तु (अव्य०) [तुद्-डु] विरोधवाचक अव्यय, प्रथम शब्द
प्रयोग के बाद प्रयोग। परन्तु, किन्तु, तो, तथा, तो भी। ० दु:खाम्बुनिधौ तु सेतुः। (सुद० १/२) ० कि, जो कि-तदेक भागो भरताभिधान: समीक्षणाद्यस्य तु विद्विधानः। (सुद० १/१३) • तु पादपूरणे (जयो० २/१३५, सुद० १/२) 'प्राणादपीष्टं जगतां तु वित्तम्' (जयो० २/१३५) • जबकि-सुषुवे शुभलक्षणं सतं रविमैन्द्रीव हरित्सती तु सम्। (सुद० ३/१) ० तु तुकार इहेवार्थक (जयो० २३/७५) ० निश्चये-प्रशंसायां वा-तरङ्ग-भङ्गीतरलाभि- नेतुर्जगाम जन्माथ च मानसे तु। (जयो० ९१/९) • जैसे-किं पतिता व्रततो धृतापि तु लङ्कापतिना तेन। (सुद० ८८) ० ही-श्रुतमश्रुतपूर्वमिदं तु कुतः। ० और तथा (सम्य० १/११) ० मानो कि-'करौ पलाशप्रकरौ तु' (सुद० २/२७) ० श्रेष्ठता, भेद, आदि के अर्थ में भी 'तु' प्रत्यय का प्रयोग
होता है। तुक् (पुं०) पुत्र, सुत, बालक। 'राज्ञस्तुक् सुतो जयकुमारः'
(जयो० १/७५) सुद० २/४७, जयो० २३/५१, दयो० ३७) तुक् जा (वि०) पुत्र उत्पन्न करने वाली। तुक संग्रह (वि०) शिशुकुल, शिशु समूह। 'तुक् लोकं
चालाजा प्रजा' इति धनंजयः। (जयो० १४/७)
तुकार (अव्य०) तु, तो, तुकाराभाव (वि०) तु का अभाव, तु का लोप। (जयो०
११/५२) तुक्खारः (पुं०) विन्ध्याचल की एक जाति। तुङ् (पुं०) तुक्, पुत्र, सुत, तनया न तुङ् ममायं कुविधामनुष्या
देकेति बुद्ध्या सुतमत्र पुष्यात्। (सम्य० ६८) तुङ्ग (वि०) [तुञ्ज+घञ्, कुत्वम्] १. उन्नत, ऊँचा, उत्तुंग।
(जयो० ९/९५) २. प्रमुख, प्रधान, श्रेष्ठ, मुख्य। ३. तीव्र,
उग्र, जोशी। तुङ्गः (पुं०) उन्नत, ऊँचा, पर्वत, चोटी, शिखर, कूल १.
बुधग्रह, २. गेंडा नारिकेल तरु। तुड़कथा (स्त्री०) प्रमुख कथा, श्रेष्ठ कथा। तुङ्गकूट (पुं०) उन्नत शिखर। तुङ्गगति (वि०) उग्र गति। तुङ्गगृहं (वि) उन्नत घर, उच्च गृह। तुङ्गचाप (वि०) उत्तम चाप। तुङ्गजाति (वि०) उत्तम जाति, प्रमुख जाति। तुङ्गज्योति (वि०) प्रखर ज्वाला, तीव्र प्रकाश। तुङ तोरण (वि०) उच्च तोरण, ऊँचा तोरण, श्रेष्ठ तोरण। तुङद्वार (वि०) प्रमुख द्वार, मुख्य दरवाजा, अभीष्ट प्रवेश द्वार। तुङ्गधाम (वि०) उत्तम धाम, श्रेष्ठ स्थान। तुङ्गबीजः (पुं०) पारा, एक धातु विशेष। तुङ्गभद्रः (पुं०) हस्ति, श्रेष्ठ ज्ञान, उन्मत्त करि। तुङ्गभद्रा (स्त्री०) एक नदी। तुङ्गनाद (वि०) उच्च नाद। तुङयोग (वि०) प्रबल योग, उत्तम योग। तुङ्गरवि (वि०) प्रचण्ड सूर्य, तेज दिवाकर। तुङ्गवेणा (स्त्री०) एक नदी। तुङ्गशिखरः (वि०) उच्च शिखर। तुङ्गशेखः (पुं०) पर्वत विशेष। तुङ्गस्थानं (नपुं०) प्रमुख स्थान। तुङ्गी (स्त्री०) [तुङ्ग ङीष्] १. रजनी, २. हरिद्रा, हल्दी। तुनिवसन्निवशः (पुं०) स्थान नाम। (वीरो० १४/११) तुकीशः (पुं०) १. चन्द्र, २. सूर्य। तुङ्गीपतिः (पुं०) चन्द्र। तुच्छ (वि०) [तुद्+क्विप्-तुद्+ छोक] शून्य, मन्द, अल्प,
हीन, असार, नगण्य, परित्यक्त, तिरस्करणीय। (जयो० १/११) तुच्छास्त्वसारा मुद्गफली प्रभृतय इति
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तुच्छं
४४७
तुरङ्गशाला
तुच्छं (नपुं०) तुष, भूसी।
तुन्दचरिमृज् (वि०) श्रमहीन, सुस्त, आलसी। तुच्छता (वि०) अल्पता, हीनता।
तुन्दमृज् (वि०) आलसी, सुस्त। गुणो न कस्य स्वविधौ प्रतीतः सूच्याः न कार्यं स तु कर्तरीतः। । तुन्दवत् (वि०) [तुन्द-मतुप] तोंदवाला, उभरे हुए पेट वाला, मोटा। ततोऽन्यथा व्यर्थमशेषमेतद्वस्तूत नस्तुच्छ तया सुचेतः। तुन्दिक (वि०) तोंद वाला, मोटे पेट वाला।
(वीरो० १७/३) तुन्दिकासमीप (वि०) नाभिदेश। (जयो० १८/९४) तुच्छद्गुः (पुं०) एरण्ड तरु।
तुन्दिन् (वि०) तोंद वाला। तुच्छधान्यः (पुं०) भूसी, चूर, तुष।
तुन्दिभ (वि०) तोंद वाला, भरा हुआ। तुच्छधान्यकः (पुं०) भूसी, चूर, तुष।
तुन्दिल (वि०) तोंद वाला। तुञ् (अक०) उन्नत होना, उत्तुंग होना।
तुन्न (वि०) [तुद+क्त] आहत, घायल, चोट ग्रस्त। तुञ्जः (पुं०) [तुञ्+अच्] इन्द्र का वज्र।
तुन्नवायः (पुं०) दर्जी। तुटुमः (पुं०) [तुट् उम] मूषक, चूहा।
तुभ् (सक०) प्रहार करना, पीड़ा देना, घायल करना। तुण (सक०) टेढ़ा करना, मोड़ना, झुकाना, ठगना, कपट करना। तुमुल (वि०) [तु+मुलक्] शोरगुल, उद्विग्न, हंगामा, होहल्ला, तुण्डं (नपुं०) [तुण्ड+अच्] मुंह, मुख। (जयो० २१/१०) १. | आक्रोश स्थान, उत्तेजना। __ चेहरा, २. चोंच, ३. हस्ति सूंड।
तुम्बः (पुं०) [तुम्ब्+अच्] लौकी, तूंबी। तुण्डिः (नपुं०) [तुण्ड्+इनि] मुख।
तुम्बरः (पुं०) गन्धर्व। तुण्डिका (स्त्री०) नाभि (जयो०५/७८)
तुम्बा (स्त्री०) [तुम्ब टाप्] लम्बी लौकी, बड़ी तूंबी। तुण्डिन् (पुं०) शिव। (जयो० ५/७८)
तुम्बी (स्त्री०) तूंबी, कडुवी लौकी। जो सुराई के समान, नीचे तुण्डिकेरी (स्त्री०) कुनरु लता, बिम्ब लता। (जयो०)
मोटी और ऊपर पतली होती है। कमण्डल (जयो० कर्मकरीति नाम्नास्यास्तुण्डकेरी महौजस। (जयो०)
२७/२८) समाख्याता फलं लब्धं बिम्वन्तु दरवाससः।। (जयो०) तुम्बीफलः (नपुं०) अलाबुफल, आल, लौंकी। (जयो० तुण्डिकाकुहरः (पुं०) नाभिप्रदेश। (जयो० ११/९९)
१४/६५) तुण्डिभ (वि०) तुन्दी, तोंद।
तुम्बुरुः (पुं०) गन्धर्व। तुण्डिल (स्त्री०) [तुण्ड्+भ] १. वाचाल, मुखरी, अधिक बात | तुरगः (पुं०) घोड़ा, अश्व, हय।
करने वाला, गप्पी। २. उभरी हुई नाभि वाला, तोंद वाला। तुरगाक्रान्त (वि०) तुरग से आक्रान्त। नहि वेत्ति निजं तुण्डी (स्त्री०) नाभि, तोंद, सुण्डी। (जयो०७० ३/४७)
स्मरादरस्तुरगाक्रान्तमपीत इत्यसौ। (जयो० १३/४०) तुण्डीमण्डलं (नपुं०) नाभिचक्र। (जयो० २१/२०)
तुरङ्गः (पुं०) [तुरेण वेगेन गच्छति-तुर+गम्+ड] घोटक, तुत्थः (पुं०) [तुद्+थक्] १. आग, २. प्रस्तर, पत्थर, ३. अश्व, हय। (दयो० ४०, जयो० ४/१६)
कज्जल विशेष, नीला थोथा, तूतिया जो सुर्मे की भांति तुरङ्गं (नपुं०) मन, विचार। आंख में डाला जाता है।
तुरङ्गगतिः (स्त्री०) घोड़े की चाल। तुत्थ-कथा (स्त्री०) कज्जल कथा। (जयो० ९/३९) तुरङ्गद्विषणी (स्त्री०) भैंस। तुत्था (स्त्री०) १. छोटी इलायची, २. नील का पौधा। तुरङ्गप्रियः (पुं०) जौ। तुत्थाञ्जनं (नपुं०) कज्जल, अक्षि औषधि।
तुरङ्गमः (पुं०) [तुर+गम्+खच्] अश्व, घोड़ा, अश्वकार तुद् (सक०) प्रहार करना, घायलकरना, कष्ट देना, खरोंचना, (जयो० सताना, चोट पहुंचाना।
तुरङ्गमेघः (पुं०) अश्वमेध यज्ञ। तुन्दं (नपुं०) [तुन्द्द न्] तोंद, पेट।
तुरङ्गयायिन् (पुं०) किन्नर। तुन्दकूपिका (स्त्री०) नाभि, नाभिगत।
तुरङ्गवक्त्राः (पुं०) किन्नर। तुन्दकूपी (स्त्री०)
तुरङ्गवदनः (पुं०) किन्नर। तुन्दपरिमार्ज (वि०) आलसी, उदासीन, श्रमहीन।
तुरङ्गशाला (स्त्री०) अस्तबल।
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तुरङ्गस्थानं
४४८
तुल्ययोगिता
तुरङ्गस्थानं (नपुं०) अस्तबल, अश्वशाला।
११/१५) 'हैमं तुलाकोटियुगं च मे तत्। (जयो०वृ० १५/७५) तुरङ्गस्कन्धः (पुं०) घोड़ों का समूह।
'हैमं तुलाकोट्योर्नूपुरयोर्युगः (जयो०पृ० १५/७५) तुरङ्गस्कन्धावारः (पुं०) अस्तबल।
तुलाकोशः (पुं०) तोल की परीक्षा। तुरङहेषित (वि०) घोड़ों की हिन-हिनाहट। पुनरत्रं तुरङ्गहेषितं तुलादानं (नपुं०) शरीर के समतुल्य तौलकर दान देना। स्वतितार सुतरामराजत। (जयो० १३/३५)
तुलाधरः (पुं०) १. व्यापारी, व्यवसायी, सौदागर। २. सादृश्यकर तुरायणं (नपुं०) अनासक्ति।
(जयो० १८/५७) तुरासाहः (पुं०) [ तुर+सह णिच्+क्विप] इन्द्र।
तलाधिरोपित (वि०) तराजू पर चढ़ाया हुआ। (जयो० २४/६६) तुरी (स्त्री०) [तुर् + इन्+ङीप्] नली, जुलाहे की नाल। ____ तुलाधिरोपितो यावदमानाश्रयोऽपि सन्। (जयो० ७/१२९) तुरीय (वि०) [चतुर्+छ, आद्यलोप:] चौथा, चतुर्थ। तुलान्तवत् (वि०) तराजू के दोनों प्रान्त की तरह। 'तुलाया तुरीव-वर्णः (पुं०) चतुर्थ वर्ण, शूद्र।
अन्तौ प्रान्तौ द्वौ तुलाप्रतिबद्धौ रत्' (जयो०व० २६/७७) तुरीयोपनिषद् (नपुं०) नौ उपनिषद में एक उपनिषद्। (दयो० तुलापुरुषः (पुं०) सोना, जवाहरात। २५)
तुलाप्रग्रहः (पुं०) तराजू की डोरी। तुरुष्कः (पुं०) यवन, मुसलमान, तुर्क लोग। (जयो० २८/२९, तुलाप्रतिबद्ध (वि०) तुलाप्रान्त। वीरो० १९/१०)
तुलामानं (नपुं०) तुला के समान भाग। तुर्य (वि०) चौथा, चतुर्थ। (जयो० १/६) तुर्यप्रकारत्व चतुर्दशत्व तुलायष्टिः (स्त्री०) तराजू की डंडी। (दयो० १/६)
तुलासूत्रं (नपुं०) तराजू की डोरी। तुल् (सक०) १. तोलना, मापना, २. उठाना, सोचना, तुलना | तुलित (वि०) १. तौला गया, २. सदृश, समान, एक सा
करना, परस्पर मिलान करना। ३. अल्प करना, छोटा (जयो०वृ० ५/१०) उपमित, वरावर। हेमतुलायास्तां किन्तु करना, हल्का करना। रूप-यौवन-गणादिकमन्यैः स्वजनोऽथ रत्नाञ्चितम्। (जयो० १५/८१) तुलयन्निह धन्यैः। (जयो० ५/१३)
तुल्य (वि०) [तुलया संमितं यत्] समान, सदृश, एकसा, एक तुलनं (नपुं०) १. तोलना, मापना, उठाना। २. तुलना करना। प्रकार का, सन्निभ (जयो०६/१८) सम, समान (जयो० तुलना (स्त्री०) तोलना, मापना।
४/५९, सुद० ४/४७) अनुरूप-भवन्निजापत्तिषु वज्रतुल्य: तुलनाकरणं (नपुं०) स्पर्धा करना, समानता करना। 'बाहुदण्डस्य (सम्य०७७) 'स्त्रैणं तृणं तुल्यमुपाश्रयन्तः' (सुद०११८) स्पर्धने तुलनाकरणे' (वीरो० ३.२६)
'स्निह्येत वत्सं प्रति धेनुतुल्य:' (सम्य० ३६) तुलनीय (वि०) मूल्यशालिनी। (जयो० १२/२२)
तुल्यकुलः (पुं०) समान वंश। (जयो०७० २३/२५) तुलसी (स्त्री०) [तुलां सादृश्यं स्यति नाशयति-तुला+सो+क+ तुल्यगुणः (पुं०) समान गुण। (जयो०वृ० १/२)
डोष] तुलसी का पौधा, औषधि पादप। ० नाम विशेष। तुल्यचर (वि०) सादृश्य गमनशील। तुलसीपत्रं (नपुं०) तुलसी का पत्र।
तुल्यजातिः (स्त्री०) समान जाति। तुलसीमाला (स्त्री०) तुलसी की माला।
तुल्यता (स्त्री०) समता (जयो० ४/५९) समानता, सादृश्यता, तुला (स्त्री०) [तोल्यतेऽनया-तुल्+अङ्+टाप्] १. तराजू, २. एक रूप वाला। (वीरो० २२।८)
तवर्ग युक्ता (जयो० ११/७८) ३. समानता. एकसा- तुल्यदर्शन (वि०) समदर्शी, सापेक्षदर्शी, समत्वदर्शी। काव्यस्य तुलां समानतमुपैति (वीरो०७० २/२६) पलशतं तुल्यदृष्टि (वि०) समदृष्टि। तुला (त०वा० ३/३८)
तुल्यधनं (नपुं०) समरूप में धन। तुलाकूटः (पुं०) कम तोलना।
तुल्यपानं (नपुं०) सहपान, सहभोग। तुलाकोटिः (स्त्री०) १. तराजू के अग्रभाग। (जयो० २/१४६) तुल्यप्रीति (स्त्री०) समान प्रीति, समान वात्सल्यता। २. नूपुर (जयो० १५/७५)
तुल्यभावः (पुं०) समान भाव। (जयो०७० ३/९७) तुलाकोटियुग (वि०) १. मञ्जरी युगला तुलाकोटयोर्युगं मञ्जरीयुगलं तुल्ययोगिता (वि०) एक अलंकार, एक ही विशेषण रखने
(जयो० ११/१५) २. पायजेव की जोड़ी (जयो०व० वाले कई पदार्थों का एक एकत्र संयोग।
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तुल्यरूप
तुहिनाचलः
११/२)
तुल्यरूप (वि०) अनुरूप, सादृश्य।
तुषारपातः (पुं०) हिमपात, ओस पड़ना, पाला गिरना। (दयो० तुल्यार्थवृत्तिः (स्त्री०) समान अर्थ की वृत्ति। (वीरो० ४/२०) २/५) पक्वेषु धान्येषु तुषारपात: करोमि किम्भो तनयस्य
तुल्यार्थवृत्तिः प्रथितो धराड़े खद्योतनाम्ना चरतीति शङ्के। तात। (दयो० २/५) (वीरो० ४/२०)
तुषारभासः (पुं०) चन्द्र, रात्रिपति, शशि। स्वच्छप्रभस्य चन्द्रस्य तुल्यावस्था (स्त्री०) एक समान अवस्था।
चन्द्र, रात्रिपतिः। (जयो० १५/६०) तुल्यावस्था न सर्वेषां किन्तु सर्वेऽपि भागिनः।
तुषाररः (पुं०) कपूर। सन्ति तस्या अवस्थायाः सेवामो यां वयं भुवि।। (वीरो० तुषाररुक् (पुं०) चन्द्र, हिमकर, रात्रिपति, रजनीकर। (जयो०
१७/४१) तुल्यौषधिः (स्त्री०) योग्य औषधि, अनुकूल औषधि। तुषारवारः (पुं०) हिम, वर्फ, शिशिरकाल, शीतकाल, प्रालेयकाला तुवर (वि०) [तु+ष्वरच्] कषैला, कटुक।
(जयो० ६/५३) तुष (अक०) प्रसन्न होना, सन्तोषी होना, परितृप्त होना। | तुषार संहारकृत (वि०) हिमनाशक, शीत नाश करने वाला।
तुष्यति द्वेष्टि चाभ्यन्तो निमित्तं प्राप्य दर्पणम्। (सुद० ।। (वीरो० ९/४०) १२५) तोषवान् (सुद० १०८)
तुषारसारः (पुं०) हिम, शीत, ठण्डा। तुषारस्य हिमस्य सार एव • पुरस्कृत करना।
गात्रं शरीरं यस्य सोऽत्यन्तधवलतनुरपि (जयो० १५/५८) एवमत्र पुनरादिसुतोऽपि
तुषारादि (पुं०) हिमगिरि, हिमालय। तोषमेष्यति दुराग्रहलोपी।
तुषित (वि०) संतुष्ट, प्रसन्न हुआ, विषयपराङ्गमुख। दापयामि भवते परितोषं
तुषोदकं (नपुं०) चावल की कांजी। सज्जनाक्षयमितः कुरु कोषम्।। (जयो० ४/४६) तुष्ट (भू०क०कृ०) [तुष्+क्त] संतुष्ट, प्रसन्न, परितृप्त। तुषः [तुष्+क०] भूसी, कण। (सम्य० १३८)
तुष्टिः (स्त्री०) [तुष्+क्त] संतुष्ट, प्रसन्न, परितृप्त। तुषकण्डनं (नपुं०) भूसी दूरीकरण। (जयो० २५/५४) तुष्टिः (स्त्री०) [तुष्+क्तिन्] उत्कृष्ट हर्ष, परम संतुष्टि, तुषग्रहः (पुं०) अग्नि, अनल, आग।
(जयो० ६/२३) अधिक प्रसन्नता, खुशी, परितोष। 'तुष्टि तुषग्राही (वि०) कण ग्रहण करने वाला।
दत्ते दीयमाने च प्रहर्षेः। तुषमास (वि०) किंचित्मात्र भी। तुषमाषवदङ्गविदो शिवघोषमुनिः | तुष्टिकर (वि०) सन्तोष प्रदान करने वाला। सभिदो। (जयो० २३/३८)
तुष्टिगत (वि०) प्रसन्न हुआ, परितोष को प्राप्त। तुषरादिः (पुं०) हिमवान् पर्वत। (जयो० १३/५५)
तुष्टिधर (वि०) संतोषी।। तुषातिग (वि०) तुष रहित, भूसी रहित। दूरस्थ सम्पश्य पुनः | तुष्टिमत् (वि०) संतोषी। 'तुष्टिरस्ति येषां तं तेषां सन्तोषिणां सुहक्ततुषातिगं तण्डुलमत्ररक्तम्। (सम्य १३८)
सज्जनानां। (जयो० ९/८०) तुषानलः (पुं०) भूसी की अग्नि।
तुष्टिवल्लरी (वि०) संतोष रूपी लता। (जयो० २६/११) तुषाग्निः (स्त्री०) भूसी की आग।
तुष्टुः (वि०) संतोषी। तुषाम्बुः (नपुं०) चावल की कॉजी।
तुहिन (वि०) [तुह+इनन्] शीतल, ठण्डा। तुषार (वि०) [तुष+आरक्] बर्फ, हिम, शीतल, ठण्डा, ओस, तुहिनं (नपुं०) हिम, बर्फ, ओस।
पाला। तुषारत: सन्दधनी सितं शिरस्तुते भ्रमोत्पत्तिकरीत्यहो तुहिनकरः (पुं०) चन्द्र, शशि। चिरम्। (वीरो० ९/२१)
तुहिनकिरणः (पुं०) चन्द्र। तुषारगिरिः (पु०) हिमगिरि, हिमालय।
तुहिन-द्युतिः (स्त्री०) चन्द्रमा। तुषारकणः (पुं०) हिमकण, ओस बिन्दु।
तुहिनगिरिः (पुं०) हिमगिरि। तुषारकालः (पुं०) शीतकाल।
तुहिन-पातः (पुं०) हिमपात। तुषारकिरणः (पुं०) चन्द्र, शशि।
तुहिनांशुः (नपुं०) चन्द्र। तुषारगौर (वि०) हिम सदृश श्वेत।
तुहिनाचल: (पुं०) हिमगिरि, हिमालय।
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तूण
४५०
तृणचरः
तूण (सक०) सिकोड़ना, संकुचित करना।
तूलकुथः (पुं०) रजाई, पल्ली। तूणः (पुं०) तरकस।
उपर्यथो तूलकुथोऽनयायिनः। (वीरो० ९/२४) तूणधारः (पुं०) धनुर्धर।
तूलतल्पस्थ (वि०) रुई की शय्या वाला। रुई की शय्या के तूणी (स्त्री०) [तूण+ ङीष्] तरकस (जयो० ११/६१) निषङ्ग ऊपर स्थित। (जयो० २/१४९)
(जयो० ५/८३) दृग्वेशवाक् सम्प्रति यापि नासा तूणीव तूलफलता (वि०) निष्फल जीवन, फल युक्त जीवन। मान्या तिलपुष्पभासा। (जयो० ५/८३)
तूलफलता-व्यर्थजीवनता। तूणीरः (पुं०) तरकस।
तूलस्येव फलानि यस्य तत्ता' (जयो० ७/६९) तूर् (सक०) शीघ्र जाना, जल्दी पहुंचना।
तूलयुक्तवस्त्रं (नपुं०) रुई से निर्मित वस्त्र। (वीरो० ९/४४) तूपक्लूप्तिः (स्त्री०) प्रस्तर प्रभा (वीरो० २०/११)
तूलिः (स्त्री०) [तूल्+इन्] कूची, चित्रकार की तूलिका। तूरम् (नपुं०) [तूर+घञ्] वाद्ययन्त्र, बिगुल।
तूलिका (स्त्री०) [तूलि+कन्+टाप्] कूची, चित्रकार की कूची। तूर्ण (वि०) [त्वर्+क्त] शीघ्रगामी, द्रुतगामी, अतिशीघ्र। (सुद० तूलोक्त-तल्पं (नपुं०) रुई की शय्या, रुई के गद्दे। (सुद०
१/३२) बृहद्गुणाङ्गेन बभूव तूर्णमावर्जितं प्रोञ्छनकेन पूर्णम्। १०८) (जयो० १९/१०)
तूष्णीक (वि०) [तूष्णीम्+क] मौनी, अल्पभाषी, परिमित तूर्णं (अव्य०) शीघ्रता से, तीव्रता से, जल्दी से।
भाषी, चुप रहने वाला। तूर्यः (पुं०) [तूर्यते ताड्यते-तूर्+यत्] एक वाद्ययन्त्र। तूष्णी (अव्य०) अवाक्, चुप, शान्त, खामोश, स्वल्पभाषी। तूर्यं (नपुं०) तूरही, विगुल, भेरी (जयो० २१/९१)
(जयोवृ० ६/७८, १८/१०१) इत्युक्त्वा तूष्णीमस्थाद्राज्ञी तूर्य (वि०) चतुर्थ, चार प्रकार का, चौथा। (सम्य० १२८) तवादिहागतम्। (समु० ३/४०) तूर्यघोषः (पुं०) भेरी उद्घोष।
तूस्तं (नपुं०) [तूस्+तन्] १. जटा, २. पाप। ३. कण। तूर्यनादः (पुं०) भेरी नाद, भेरी का शब्द।
तृड् (स्त्री०) प्यास, वाञ्छा (जयो० १२१८६) तूर्यगुणस्थ (वि०) चतुर्थ गुणस्थान वाला। स्यूतेः समं तूर्यगुणस्थेऽतो | तृड्हा (वि०) पिपासाहर, वाञ्छापूर्तिकर। (जयो० ६/८१) भवेत् प्रपूर्तिर्भवसिन्धुः सेतुः। (सम्य० १२५)
तृडपसंहृत (वि०) पिपासा निवृत्तक। (जयो० ९/४५) तूर्यरवः (पुं०) भेरी नाद। (जयो० २१/९१)
तृडुपायन (वि०) पिपासा शान्त करने वाला। (जयो० १२/८६) तूर्यविध (वि०) चार प्रकार का। (सम्य० २८/१७(
तृषि पिपालायामुपायन उपहार स्वरूपस्तृडपहारको अपि तूर्यस्थलं (नपुं०) चतुर्थ गुणस्थान। कुवृत्तभावोऽपसरेदवृत्तभावो सन (जयो० १२१८६) न तूर्यस्थल एवं हृत्तः। (सम्य० १३७)
तूंह (सक०) मारना, घायल करना, चोट पहुंचाना। तूर्याच्छ्रद्धानं (नपुं०) चतुर्थ गुणस्थान। आसप्तमान्तं प्रथमन्तु | तृण (नपुं०) [तृह्+क्न्] घास, तिनका। (जयो० ८/९२) स्त्रैणं तूर्याच्छुद्धान माहुर्जिनवाचिधूर्या। (सम्य० १२८)
तृणं तुल्यमुपाश्रयन्त:' (सुद० ११८) तूलः (पुं०) [तूल्+क] १. रुई। (वीरो० ९/२४) २. आकाश, गावस्तृणामिवारण्येऽभिसरिन्त नवं नवम्। (जयो० २/१४७) वायु, पर्यावरण।
१. तुच्छ, हीन तूलं (नपुं०) महत्त्व देना। (वीरो० ९७/३१)
तृणकाण्डः (पुं०) घास समूह, घास का ढेर। ० विस्तर, आसन, शयन-'सदा मखमलोत्तूलशय- तृणकुटी (स्त्री०) घास की कुटिया। नाद्यनुकुर्वता। (वीरो० ८/३३)
तृणकुटीरं (नपुं०) घास की कुटिया। ० तूल देना, बढ़ाकर कहना-घृणास्पदं केवलमस्य तूलम्। तृणकूटः (पुं०) १. घास का ढेर, २. घास की कुटिया। (दयो०
(सुद० १०२) तूल-कलापः (पुं०) कार्पास समूह, रुई का ढेर। तूलस्य तृणकेतु (पुं०) ताडवृक्षा
कार्पासत्वचः कलापे समूहे भवति (जयो० ५/३) तृणगोधा (स्त्री०) गोह, गिरगिट। तूल-कल्पनं (नपुं०) रुई की पल्ली, रजाई। पितुस्तस्य कल्पना। तृणग्राहिन् (वि०) नीलम, नीलकान्त मणि। (जयो० २४/२८)
तृणचरः (पुं०) १. गोमेद, एक रत्न। २. घास चरने वाला।
तूंह (सक हिन्] घास, Ti
(सुद०
२२)
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तृणजलायुक्ता
तृष्
तृणजलायुक्ता (स्त्री०) तिवली का लार्वा। तृणजलूका देखें ऊपर। तृणता (वि०) १. कामुकता। तृणता कामुकेऽपि च इति
विश्वलोचनः (जयो० ८/४७) २. तृणपनातृणत्व (वि०) तृण पना, तुच्छता। (वीरो० १८/३५) तृणद्रुमः (पुं०) ताडवृक्ष, खजूर तरु, नारियल का पेड़, सुपारी |
का पेड़। तृणधान्यं (नपुं०) जंगली धान्य। तृणपीडं (नपुं०) तुच्छ पीड़ा। तृणपूली (स्त्री०) चढ़ाई, सरकण्डी का बना मूढा। तृणप्राय (वि०) उद्यमहीन, कार्य करने को अक्षम। तृणमणिः (स्त्री०) एक रत्न विशेष। तृणमत्कुणः (पुं०) जमानत। तृणराजः (पुं०) नारिकेल तरु। बांस, ईख। तृणवणाली (स्त्री०) तिनके का ढेर, तृण समूह। (दयो० ३८) तृणसंस्तरः (पुं०) तृण का बिछौना। तृणसारा (स्त्री०) कदली, केला का पादप। तृणसिंहः (पुं०) कुल्हाड़ा। तृणस्पर्शपरीषहजयः (पुं०) तृण स्पर्श के परीषह का सहन। तृणहर्म्यः (पुं०) घास की कुटिया, घास-फूस का घर। तृणाग्निः (स्त्री०) तिनके की आग। तृणाज्जनः (पुं०) गिरगिट। तृणाटवी (स्त्री०) घास वाला जंगल। तृणायित (वि०) अंकुरभावजन्य। (जयो० ६/४५) तृणावर्तः (पुं०) हवा का वेग, भभूल। तृणासृज् (नपुं०) सुगन्धित द्रव्य। तृणोत्कर (वि०) भूसा। (जयो० २/३) तृणोकस् (नपुं०) घास की झोपड़ी। तृण्या (स्त्री०) [तृण+य+टाप्] घास का ढेर। तृतीय (वि.) [त्रि+तीय] तीसरा। तृतीयं (नपुं०) तीसरा भाग। (जयो० ) तृतीयक (वि०) [तृतीय कन्] तीसरे दिन होने वाला। तृतीयकाण्डं (नपुं०) तीसरा अध्याय। तृतीयकूटः (पुं०) तीसरा शिखर। तृतीयखण्डः (पुं०) तीसरा खण्ड। तृतीयग्रहं (नपुं०) तीसरा प्रवेश भाग, तीसरा स्थान। तृतीय-पदं (नपुं०) तीसरा चरण, तृतीय भाग, तीसरा हिस्सा। तृतीयपादः (पुं०) तीसरा चरण।
तृतीयपुरुषार्थः (पुं०) तीसरा पुरुषार्थ काम। (जयो० १/८) तृतीय प्रतिमा (स्त्री०) तीसरी प्रतिमा, सामायिक प्रतिमा,
जिसमें प्रमादरहित होकर दोनों कालों के पूर्व दो प्रतिमाओं के अनुष्ठानपूर्वक तीन मास तक सामायिक का प्रतिपालन
करना। तृतीयभागः (पुं०) तीसरा हिस्सा। तृतीयमूलगुणः (पुं०) अचौर्य मूलगुण, किंचित् भी वस्तु का
ग्रहण न करना। तृतीयसर्गः (पुं०) तीसरा सर्ग/अध्याय। (जयो०वृ० १९०) तृतीय सम्पौरुषः (०) तृतीय का पुरुषार्थ। तृतीयस्य सम्पौरुषस्य
कामपुरुषार्थस्य (जयो० १७/५३) तृतीया (स्त्री०) [तृतीय+टाप्] १. चन्द्र पक्ष का तृतीय दिवस,
तीसरा दिन। २. करण कारक-विभक्ति चिह्न। तृतीयाकृत (वि०) तीन बार जीता गया। तृतीया-तत्पुरुषः (पुं०) करण कारक समास। तृतीयाप्रकृतिः (स्त्री०) हीजड़ा। तृतीयिन् (वि०) [तृतीय इनि] तीसरे अंश का अधिकारी। तृद् (सक०) फाड़ना, खण्ड-खण्ड करना, विदीर्ण करना,
चीरना, नष्ट करना, संहार करना। तर्दति, तृणत्ति। तृप ( अक०) तृप्त होना, संतुष्ट होना, प्रसन्न होना, सुख होना। तृपा (वि०) [तृप्+क्त] संतुष्ट, प्रसन्न, परिसंतोष युक्त। तृप्तिः (स्त्री०) [तृप्क्तिन्] संतोष, परितोष, आत्म संतुष्टि,
परितुष्टि। (हित सं०६) कुरु तृप्ति प्रक्लृप्ति हर स्वामिन्
तव देवाधिसेवां सदा यामि। (सुद०७३) तृप्तिकर (वि०) संतोष करने वाला, प्रसन्न होने वाला।
किमपि तृप्तिकरं भगवन्नतः। तृप्तिकारणं (नपुं०) संतुष्टि कारक। (जयो० २४/४२, समु०
___७/३०) तृप्तिजन्य (वि०) संतुष्ट हुआ। तप्तिधर (वि०) परितोष धारक। तुप्तिभावः (वि०) संतोष भाव। तुप्तिभृत (वि०) संतुष्ट। तृप्तिसार्थ (वि०) सन्तर्पणकारक। ॐ सत्यजाताय
स्वाहा-इत्यादिमयः स तृप्तिसार्थः सन्तर्पणकारकः (जाये०
१२/७२) तृष (अक०) प्यासा होना, इच्छा करना, लालयित होना,
कामना करना, संतुष्ट होना, उत्कण्ठित होना, संयुक्त होना, अभिलषित होना।
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तृष्
४५२
तेवन्
तृष (स्त्री०) वाञ्छा, तृष्णा, तृषा प्यास लालसा, उत्सुकता, तेजकाय (नपुं०) अग्निकाय जीव, स्थावर जीवों का एक भेद
अभिलाषा। (जयो० २२/५) तृषः अभिष्वङ्गलक्षणा याः जो चैतन्यभाव से युक्त अनेक है और पृथक्-पृथक् भी है। सन्निपीय बहुपीनमनास्संस्तावतैव तृष आप्य च नाशम्। तेजकायिकः (पुं०) अग्निकाय जीव। तेज उष्णलक्षणं प्रतीतम्, (समु०५/२९)
तदेव कायः शरीरं येषां ते तेजः काया। तृषहारिणी (वि०) पिपासापहारका समस्तप्रकाराभिला षापरिपूरक। तेजजीवः (पुं०) अग्नि शरीर का धारक। (जयो० २२/६०)
तेजन (नपुं०) [तिज्+ल्युट] तपन, जाना, चमकना, प्रदीप्त तृषा (स्त्री०) प्यास, वाञ्छा, लालसा, तृष्णा। पिपासा च तृषा, करना, सरकंडा, नरकुल, बाण की नोक, शस्त्र की धार।
प्यास की बाधा होना। असातावेदनीय-तीव्र-तीव्रतर-मन्द- तेज पुञ्जमय (वि०) आत्मबल युक्त। (जयो० १/१३) मन्दतर-पीडया समुपजाता तृषा। (निय००६)
तेजयितुं (तेजय्+तुमुन्) संवर्धन करने के लिए (जयो० तृषाकारी (वि०) पिपासाकारक, अभिलाषी (जयो० १२/१२८) ११/६२) तृषातुरः (पुं०) प्यास से व्याकुल। (समु० ७/१०)
तेजस् (नपुं०) प्रभा, (समु० ५/१०) 'येन तस्य तृषापहारी (वि०) पिपासापहारक, तृष्णा शान्त करने वाला, हृदयाब्जविकाशस्तेजसेव समभूद्रविभास:। (समु०५/१०) ___प्यास बुझाने वाला। (जयोवृ० २२/६०)
१. प्रताप-दृष्टिरभ्युदयभाजि जनानां तेजसाञ्च निलये तृषापरीसहजयः (पुं०) प्यास की बाधा का सहन करना।
भुवनानाम्' (जयो०५/२८) तृषाहम् (नपुं०) जल, वारि, पानी।
० प्रभाव-तनुतेऽनुतेजसा स्वां कलिङ्गराजाभिधां सुलभाम्। तृषि (स्त्री०) पिपासा, प्यास। (जयो० १२/२)
(जयो० ६/२३) (वीरो०६/२३) तृषित (भू०क०कृ०) [तृष्+क्त] प्यासा, अभिलाषा युक्त, | तेजस्तर (वि०) तेज लक्षण वाला। इच्छा करने वाला, इच्छुक।
तेजस्वत् (वि०) [तेजस्। अतुप] चमकीला, प्रभावान, तृष्णज् (वि०) [तृष्+नजिङ्] पिपासु, लालची, लोभी, कान्तियुक्त, तेज, तीखा, पैना। आसक्तिजन्य।
तेजस्विन् (वि०) [तेजस्+विनि] १. उज्ज्वल, प्रभायुक्त, तृष्णा (स्त्री०) [तृष्+न+टाप्] प्यास, तृषा, पिपासा, इच्छा, चमकदार, बलवान्, शौर्ययुक्त, प्रसिद्ध, विख्यात, २.
वाञ्छा, अभिलाषा। (जयो० ६/२१) वाञ्छति वसनं स च तपन, तेज, सूर्य (जयो०वृ० ३/१३, ३/१०२) ३. पुनरशनं कस्य न धनतृष्णा वा। (सुद० ७४)
विधिसम्पन्न, प्रचण्ड, प्रखर। तृष्णाक्षयः (पुं०) तृषा का नाश, संतोष, शान्ति।
तेजित (वि०) [तिज्+णिच्+क्त] उत्तेजित, उद्दीप्त, प्रदीप्त, तृष्णाजन्य (वि०) तृषा युक्त।
प्रभावान्। तृष्णातुरः (पुं०) पिपासा से पीड़ित। (वीरो० ४/४८) तेजोजीवः (पुं०) अग्नि शरीर का धारक जीव। तृष्णालु (वि०) [तृष्णा+आलु] अधिक प्यास, प्यास से व्याकुल। तेजोजराशिः (स्त्री०) एक गणतीय प्रमाण। जिस राशि में चार तृष्णाभिवृद्धिः (वि०) धनाभिलाषा, प्यास। (वीरो० १२/४) का भाग देने पर तीन शेष रहे वह तेजोजराशि है। तृष्णावान् (वि०) पिपासासहित, अभिलाषावान्। (जयो० २२/७) | तेजोमय (वि०) [तेजस्+मयट्] उज्ज्वल, कान्तिमय, प्रभावान्। तृष्णावती (वि०) पिपासा जनक, तृषा जन्य। (जयो० १६/१३) तेजोलेश्या (स्त्री०) सर्वधर्म समदर्शित्व भाव। तृह (सक०) मारना, घायल करना, क्षति पहुंचाना, विनाश करना। 'दृढमित्रता-सानुक्रोशत्व सत्यवाद-दान-शीलात्मीयतु (सक०) पार करना, तैरना, बहना।
कार्य-समपादनपटु-विज्ञान योग-सर्वधर्म-समदर्शनादि तेइन्द्रियः (नपुं०) तीन इन्द्रिय जीव। (वीरो० १९/३६)
तेजोलेश्यालक्षणम्। (त०वा० ४/२२) कान्तियुक्त लेश्या। तेजः (पुं०) उष्णप्रभा, अग्नि ज्वाला। मूलोष्णवती प्रभा तेजः। | तेमः (पुं०) [तिम्+घञ्] आई, गीला, तर।
इतस्ततो विक्षिप्तं जलादिसिक्त। वा प्रचुरभस्मप्राप्तं वा | तेमनं (नपुं०) [तिम्ल्यु ट्] १. गीला करना, तर करना, तेल मनाक् तेजोमात्रं तेजः कथ्यते।
युक्त आहार। २. शाक विशेष। (जयो० १२/१६) तैक्षण्यकरणवृत्तिः (स्त्री०) उत्तेजना, उदबेलना। (जयो०१० | तेवनं (नपुं०) [तेव्+ ल्युट्] मनोरंजन, आमोद-प्रमोद, क्रीड़ा, १५/५२)
अनुरंजन।
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तैजसतेवनं
४५३
तोरणोत्थिः
तीर्थकः
तिला पदार्थ, तिन
तैजसतेवनं (वि०) उज्ज्वल, स्वच्छ, कान्तिमय, प्रकाशमान, | तोमरः (पुं०) [तुम्पति हिनस्ति-तुम्प+अट्र] लोहे की छड़।
चमकदार, ओजस्वी, बलिष्ट, गुण युक्त, पद्मरागमणि लोह-दण्ड। सदृशा
तोयं (नपुं०) उदक, जल, पानी। (भक्ति० ४) (जयो० २/१५२) 'तेयप्पहगुणजुत्तमिदि तेजइयं' (ष०ख० १४/३२७) तोयकर्मन् (नपं०) देह प्रमार्जन, शरीर प्रमार्जन, जलतर्पण।
शंख-धवल-प्रभालक्षणं तैजसम् (त०वा० २/४९) तोयकृच्छः (पुं०) जल से जीवन चलाना। तैजसशरीरं (नपुं०) अग्नि प्रभा सदृश शरीर, जिस कर्म के तोयक्रीडा (स्त्री०) जलक्रीड़ा, जलविहार।
उदय से तैजस वर्गणा के स्कन्ध नि:सरण। अग्नि सरणरूप तोयगर्भः (पुं०) नारिकेल, नारियल। और प्रशस्त-अप्रशस्त परिणत हों।
तोयचरः (पुं०) एक जन्तु, जल में विचरण करने वाला प्राणी। तैतिक्ष (वि०) सहिष्णु, सहन शील।
तोयडिम्बः (पुं०) ओला, बर्फ कण। तैतिरः (पुं०) तीतर।
तोयडिम्भः (पुं०) बर्फ कण, हिमकण, ओला। तैतिलः (पुं०) गैंडा।
तोयक्षः (पुं०) मेघ, बादल। तैत्तिरीयोपनिषदः (पुं०) एक उपनिषद का नाम।
तोयधरः (पुं०) मेघ, बादल। तैमिरः (पुं०) अक्षि रोग।
तोयधिः (पुं०) समुद्र, उदधि। तैर्थिकः (वि०) तीर्थवासी, पावन, पवित्र।
तोयनिधिः (पुं०) समुद्र, उदधि। तैर्थिकः (पुं०) एक सन्यासी।
तोयनीवी (स्त्री०) भू, धरा, पृथ्वी। तैलं (नपुं०) [तिलस्य तत्सदृशस्य वा विकारः अण] तेल, | तोयपानं (नपुं०) जल पीना।
चिक्कण पनयुक्त पदार्थ, तिल से निकाला गया, मूंगफली, तोयप्रसादनं (नपुं०) कतकफल, निर्मली, फिटकरी।
सरसों, सोयाबिन, विनौला आदि का तैल। (सम्य० १०८) तोयमलं (नपुं०) समुद्रफेन। तैलफुले: (पुं०) तेल का फोहा।
तोयमुच् (पुं०) समुद्र। तैलङ्गः (पुं०) तेलगुप्रान्त, तमिल भाषा का प्रदेश।
तोययन्त्रं (नपुं०) जलघड़ी। तैलिकाः (पुं०) [तैल+ठन्] तेली, तेल पेरते वाला। (जयो० तोयराजन्ः (पुं०) समुद्रा २५/५५)
तोयराजिः (पुं०) जल पंक्ति । १. समुद्र। तैलिन् (पुं०) तेली।
तोयराशिः (पुं०) समुद्र। तैलिनी (स्त्री०) [तैलिन्+ङीप] दीपक की वत्ती।
तोयवेला (स्त्री०) समुद्र का किनारा, समुद्रतट। तैलीनं (नपुं०) [तिलानां भवनं क्षेत्रम्] तिलक्षेत्र, तिल को तोयव्यतिकरः (पुं०) नदी का मिलन स्थान, संगम स्थल, खेत।
जल का एक स्थान से दूसरे स्थान पर मिलना। तैषः (पं०) [तिष्य+अण+डीप] तिष्येण नक्षत्रेण युक्ता पौर्णमासी तोयशुक्तिका (स्त्री०) सीपी। पौषमाह।
तोयसर्पिका (पुं०) मेंढक। तोकं (नपुं०) शिशु, बालक, बच्चा।
तोयसूचकः (पुं०) मेंढक। तोककः (पुं०) चातक पक्षी।
तोरण: (पुं०) द्वारमुख, प्रवेशद्वार। तोटकः (पुं०) तोटक छन्द। चार सगण और सोलह मात्रा पर | तोरणं (नपुं०) बहिर। (समु० २/२०) 'मणिपूर्णसुतोरणोत्थितैः' विराम। ॥।। SIS II5=१२ वर्ण।
(जयो० १०/११) १. तोरण नामक वृक्ष 'उपात्तः तोडनं (नपुं०) [तुड्ल्यु ट्] खण्ड-खण्ड करना, टुकड़े करना, स्वीकृतस्तोरणे नाम वृक्षः' (जयो० २४/५०) फाड़ना, विनाश करना, विदीर्ण करना।
तोरणप्रांतः (पुं०) मुख्यद्वार का भाग। तोत्रं (नपुं०) [तुद्+ष्टुन्] अंकुश, अरई, चाबुक।
तोरणश्री (स्त्री०) मुख्यद्वार की शोभा। (जयो० २२/४४) तोदः (पुं०) [तुद्+घञ्] दुःख, पीड़ा, वेदना, संताप। तोरणोत्तम (वि०) उत्तम द्वार युक्त। 'दशधाशत-तोरणोत्तमम् तोदनं (नपुं०) [तुद्+ल्युट्] १. कष्ट, पीड़ा, वेदना, अंकुश, (समु० २/२०) २. मुख।
तोरणोत्थिः (वि०) तोरणों से युक्त (जयो० १०/११) तोरणों
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तोल:
४५४
त्रपिष्ट
से उत्पन्न। 'तोरणानि तेभ्य उत्थितैराविर्भूतैः' (जयो०वृ० (सुद० ४/८) बालोऽत्र नाहं भवतीं त्यजामि तत्याज-(समु० १०/११)
३/१४) छोड़ दिया (जयो० ३/१३, ११/६१) त्यक्त्वा । तोल: (पुं०) [तुल्+घञ्] तोल, भार, तुला पर तोला गया। (सं०३०) 'गुरुपादयोर्मदयोगं त्यक्त्वा ' (सुद० ३६) तोलं (नपुं०) तोलं, भार, तुला पर तोला गया।
त्याज्यता (वि०) परित्यक्तता। (भक्ति० ४१) तोषः (पुं०) [तुष्+घञ्] संतोष, प्रसन्नता, खुशी। त्यागः (पुं०) [त्यज्+घञ्] परित्याग, छोड़ना, तिलाञ्जलि देना तोषकारिणी (वि०) संतोष प्रदायक। (जयो०१२/२०)
(सुद० १२६) तोषण (नपु०) [तुष्+ ल्युट] संतोष, प्रसन्नता, खुशी तृप्ति। ० विरागता (जयो० २७/७) त्यागोऽपि मनसा श्रेयान्न तोषततिः (स्त्री०) संतोषभाव। (समु०१/२४) प्रसन्नता की शरीरेण केवलम्' (वीरो० १३/३७) राजि।
० दान-त्यागो दानं, तच्छक्तिो यथाविधि प्रयुज्यमानं त्यागः। तोषयन् (वि०) [तोष+ल-ड] मूसल।
० धर्मविशेष-(जयो० २८/३९) तोषवान् (वि०) संतोषी। (सुद० १०३)
० परिग्रहनिवृत्तिस्त्यागः। तौक्षिकः (पुं०) तुला राशि।
० परित्यजन। तौतिकः (पुं०) सीप का मोती।
० आहारादि दान। तौर्य (नपुं०) [त! अण्] विगुल शब्द, तूर्यरव, तुरही की ० संयतस्य योग्यज्ञानादिदानम्। आवाज।
विशिष्ट संप्रदान। तौर्यत्रिकं (नपुं०) नृत्य, गान, ध्वनि, स्वरसंगति, स्वरलहरी। ० भावदोष परित्याग। तौल (नपुं०) [तुला+अण] तराजू।।
० वैयावृत्यकरण, सेवा करना। तौलिकः (पुं०) [तुलि+ठक्] चित्रकार।
० संविभागकरण। त्यक्त (भू०क०कृ०) [त्यज्+क्त] विहीन, रहित, छोड़ गया, त्यागधर्मः (पुं०) त्याग धर्म, बाह्य और आभ्यन्तर क्रियाओं का
परित्यक्त, टाला गया, विमुख। 'ततः क्तप्रत्ययवान् भवामि' परित्याग। दशधर्मों में आठवां धर्म। (जयो०वृ० १/१०३) 'क्त प्रत्ययस्य धातूनामुक्तत्त्वात्' त्यागभावः (पुं०) निवृत्ति भाव, निग्रहभाव। (जयो०वृ० १/१०३)
त्यागादिग (वि०) त्याग रहित। (सम्य०७०) त्यक्तकषाय (वि०) कषाय रहित।
त्यागिता (वि०) निस्वार्थता-दानशीलता (जयो० २/७४) त्यक्त-कोप (वि०) कोप मुक्त, क्रोध रहित।
'त्यागिताऽनुभाविता कृतज्ञता' त्यक्त-खेद (वि०) क्षोभ रहित।
त्यागिन् (वि०) छोड़ने वाला, परित्यजनशील, दाता, प्रदाता, त्यक्त-क्षोभ (वि०) राग-द्वेष से रहित।
भोगों से विमुख होना, स्वेच्छप्रवृत्ति का परित्यजन करने त्यक्तगेह (वि०) घर से पराङ्मुख, घर को छोड़ने वाला। वाला। त्यक्तचेतन (वि०) चैतन्य से रहित।
त्रप (अक०) शर्माना, लज्जा करना। त्यक्तजीवित (वि०) प्राण मुक्त।
त्रपमाणक (वि०) लज्जित (जयो० ३/११) त्यक्तज्ञान (वि०) ज्ञान परिहीन।
त्रपा (स्त्री०) [त्रप्+अङ्टाप्] १. शर्म, लज्जा, लाज। (जयो० त्यक्त-तप (वि०) तप से विमुक्त।
६/४८) २. कामुक स्त्री, ३. प्रसिद्धि ख्याति। त्यक्त-दान (वि०) दान रहित।
त्रपालु (वि०) लज्जजालु (जयो० १/२५) त्यक्त-दोष (वि०) दोष परिहीन।
त्रपापगा (वि०) लज्जासरि (जयो० १७/७९) त्यक्तधर्म (वि०) धर्म विमुख।
त्रपाभर (वि०) लज्जायुक्त (मुनि० २८) त्यक्तप्राण (वि०) प्राणशून्य।
त्रपाला (वि०) लज्जाकारक (जयो० १६/५१) त्यज् (सक०) छोड़ना, त्यागना, उत्सर्ग करना, सेवा मुक्त त्रपाहीनः (वि०) निर्लज्ज, लज्जा रहित।
करना, टालना, उपेक्षा करना, अवहेलना करना। त्यजाति त्रपारण्डा (स्त्री०) वेश्या। (दयो० १२३) (सम्य० ५१) 'लाति त्यजति चाङ्ककम्' | त्रपिष्ठ (वि०) अत्यन्त संतोष को प्राप्त, प्रसन्न चित्त।
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त्रपीयस्
४५५
त्रायस्त्रिंशः
पीयस् (वि०) अधिक संतुष्ठ।
त्रसानां तनुर्मासनाम्ना प्रसिद्धा युदुक्तिश्च विज्ञेषु नित्यं त्रपु (नपुं०) टीन, रांगा।
निषिद्धा। त्रपुलम् (नपुं०) टीन, रांगा।
सुशाकेषु सत्स्वप्यहो तं जिघांसुर्धिगेनं मनुष्यं परासृक् त्रप्स्यं (नपुं०) मट्ठा, छांछ, विलोडित दहि।
पिपासुम्।। (जयो० २/१२८) त्रसानां चरजीवानाम्। त्रय (वि०) [त्रि+अयच्] तेहरा, तिगुना, तीन प्रकार का।
(जयो०१० २/१२८) (सम्य० ११६) त्रये (सम्य० १३१)
वसनामः (पुं०) जिससे दो इन्द्रियादि का जन्म हो। 'यद्याद् त्रयकर (वि०) तीन करण।
द्वीन्द्रियादिषु जन्म तत् त्रसनाम' (त०वा०८/११) 'जस्स त्रकर्मन् (वि०) त्रिविध कर्म।
कम्मस्सुदएण जीवाणं तसत्तं होदि तस्स कम्मस्स तसत्ति त्रयखण्ड (वि०) तीन खण्ड वाला।
सण्णा' या-जस्स कम्मस्सुदएणं जीवाणं संचरणासंचरणभावो त्रयचर (वि०) तिर्यक् चर, तिरछा चलने वाला।
होदि तं कम्मं तसणाम' (धव० १३/३६५) त्रयदोष (वि०) तीन दोष वाला।
वसनाली (स्त्री०) क्षेत्र प्रमाण, वृक्ष के मध्यगत सार के समान त्रयधर्म (वि०) त्रिविध धर्म रत्नत्रयधर्म, सम्यग्दर्शन, सम्यज्ञान
लोक के बहुमध्य भाग में स्थित एक राजु लम्बे-चौड़े और सम्यक्चारित्र धर्म।
और कुछ कम तेरह राजु ऊँचे क्षेत्र को प्रसनाली कहते त्रयपाद (वि०) तीन चरण। त्रयभव (वि०) तीन भव। (मुनि० ७)
वसरः (पुं०) ढरकी, जुलाहे का एक उपकरण जिसमें धागों त्रयमार्ग (वि०) तीन मार्ग, त्रिपथ्, तिराहा।
की नली रखकर बुनते हैं। त्रयमेककालमत (वि०) त्रिरूपता। (वीरो० १९/१२) .
त्रसरेणु (पुं०) अति सूक्ष्म रजांश, आठ परमाणु युक्त (वीरो० जयरत्न (वि०) तीन रत्न।
२०/१०) त्रययोग (वि०) तीन योग।
वसुर (वि०) [त्रस्+उरच्] भीरु, कांपने वाला। त्रयस् (पुं०) तेइसवां। जयविंशति (वि०) तैंतीस।
त्रस्त (भूक कृ०) [त्रस्। क्त] भयभीत, बाधायुक्त, भीरु, जयषष्ठि (स्त्री०) तिरेसठ।
डरा हुआ, त्रास (जयो० ८/६) 'मुनेरथावस्तविजन्तुमात्रम्' वयसप्ततिः (स्त्री०) तिहत्तर।
(जयो० २७/४४) त्रयात्मक (वि०) उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य रूप त्रिविध युक्त
त्रस्तहृदय (वि०) भयभीत हृदय वाला। (जयो० २८/३३) (वीरो० १९/३) तीन प्रकार।
त्रस्ति (वि०) वेपथ, कुमार्ग (वीरो० १८/५५) (जयो० २/१५७) त्रयी (स्त्री०) [त्रय्+ङीप्] तीनों का समावेश। १. देवत्रयी।
त्रस्तिमित (वि०) त्रास युक्त, डरा हुआ। (वीरो० १८/५५) (जयो० ११/२६) जन्म, अरण्य और मरण त्रयी। दर्शन,
त्राण (भू०क०कृ०) [त्रै+क्त तस्य नत्वम्] रक्षा किया गया, ज्ञान और चारित्र त्रयी। मोह राग और द्वेषत्रयो। वीरोदय, बचाया गया, आरक्षित, सुरक्षित। जयोदय और दयोदय त्रयी।
त्राणं (नपुं०) रक्षा, प्रतिरक्षा, बचाना, सुरक्षित करना, शरण, • त्रिविध विद्या। (वीरो०पृ० ३/१४)
सहारा, आश्रय। (सुद० ७९) त्रयीधर्म (वि०) तीन प्रकार का धर्म।
० अनर्थप्रतिहनन्, विघात हनन। त्रयीधर (वि०) त्रयी विद्याधारक, श्रेष्ठबुद्धिधारक। (जयो० | त्राता (वि०) [त्रै+क्त] रक्षक। (दयो० ८६) रक्षित, बचाया
१२/२९) 'गुणिनो गुणिने त्रयीधराय' (जयो० १२/२९) गया, सुरक्षित। ___ 'गुणिनो गुणिने त्रयीधराय' (जयो० १२/२९)
त्रात्री (वि०) बचाने वाला। (सुद० ९७) त्रयोदशसर्गः (पुं०) तेरहवां सर्ग।
त्रापुष (वि०) रागे से निर्मित। वस् (अक०) कांपना, हिलना, भयभीत होना, डरना, विचलित त्रायते-बचाता है, ग्रहण करता है, शरण देता है। (दयो० होना, त्रस्त होना। त्रसति, त्रस्यति, त्रस्त।
२७/४४) त्रस (वि०) [त्रस्क ] चर, जंगमा त्रय जीव, दो इन्द्रिय से । त्रायस्त्रिंशः (पुं०) एक देव जाति समूह, तैतीस संख्या वाले लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीव।
देव, इन्द्रमंत्री या पुरोहित सदृश देव। 'त्रायस्त्रिंशा
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त्रास
४५६
त्रिपञ्च
मंत्रि-पुरोहितस्थानीयाः' (त०वा० ४/४४) मंत्रि- | त्रिगुणीकृत (वि०) तिगुनाकार, तीन गुना करने वाला। (जयो० पुरोहितस्थानीयास्त्रायस्त्रिंशा:' (तन्वा०४/४) त्रयस्त्रिंशति १२/४७) जाता त्रायस्त्रिंशा।
त्रिगुप्तिः (स्त्री०) तीन गुप्ति, मन, वचन और काय। त्रास (वि०) [त्रस्+घञ्] चर, गमनशील, भयभीत। त्रिचक्षुस् (पुं०) शिव। त्रासः (पुं०) डरा, भीरु, भयाक्रान्त।
त्रिचतुर (वि०) तीन और चार युक्त। त्रासवशः (पुं०) भय के वशीभूत। (जयो० १/३३)
त्रिचत्वारिंशत (स्त्री०) तैंतालीस (४३) एक संख्या। त्रासन (वि०) डरावना, भयानक।
त्रिजगत् (नपुं०) तीन लोक, त्रिभुवन। (समु० २/४) त्रासनी (स्त्री०) एक प्रकार की मुद्रा।
त्रिजगती (स्त्री०) तीन लोक। त्रासित (वि०) [त्रस्+णिच्+क्त] आतंकित, भयभीत। त्रिजटः (पुं०) शिव। त्राहि (वि०) बाधाएं-त्राहि मां त्राहि। (दयो० १२)
त्रिजटा (स्त्री०) एक राक्षसी। त्रि (पुं०नपुं०स्त्री०) तीन, त्रयः (पुं०) (मुनि० २८) त्रिजीका (स्त्री०) त्रिज्या, अर्धव्यास। त्रीणि (नपुं०) तिस्रः (स्त्री०)।
त्रिज्या (स्त्री०) अर्धव्यासा त्रिकं (नपुं०) तीन ओर से मार्ग, तीराहा। 'त्रिकोणं स्थानं त्रिकं त्रिणव (वि०) तिगुना। यत्र रथ्यात्रय मिलति'
त्रितक्षं (नपुं०) तीन बढ़ई का समूह। त्रिककुदः (पुं०) त्रिकूट वाला पर्वत/पहाड़।
त्रितक्षी (वि०) तीन बढ़ईयों का समूह। त्रिकर्मन् (नपुं०) तीन कर्म।
त्रितय (वि०) लोकत्रय, तीन लोक सम्बंधी। (जयो० १०/७२, त्रिकायः (पुं०) बुद्ध, तथागत।
१८/५) १. तीन वार (वीरो०१/१, सम्य० ५९) त्रिकालं (नपुं०) सर्वदा, सदैव, भूत, भविष्यत् और वर्तमानकाल।
तीन-तीन आवर्त- (हित० ५७) (वीरो० १/१२)
त्रितय-प्रयोगः (पुं०) अस्ति, नास्ति और अवक्तव्य प्रयोग त्रिकालयोगः (पुं०) तीनों कालों का संयोग। (सुद० ११८) (वीरो० १९/६) वर्षा, शीत एवं उष्ण समय में योग प्रतिमा।
त्रिदण्डं (नपुं०) मन, वचन और काय योग। (भक्ति० १४) त्रिक्रमणं (नपुं०) तीन प्रदक्षिणा। 'पुनरेत्य च कुण्डिनं पुराधिपुरं वसन्ति सानो शिखरे प्रचण्डांशु सन्मुखाः संयमितत्रिदण्डाः। त्रिक्रमणेन ते सुराः' (वीरो० ७/१२)
(भक्ति० १४) त्रिकूटः (पुं०) तीन शिखर, तीन पर्वत चोटी।
त्रिदण्डिन् (पुं०) तीन योग को निग्रह करने वाला संयती। त्रिकूर्चक (नपुं०) तीन फलक का चाकू।
त्रिदश (पुं०) देव, अमर। १. तेरह, २. तैंतीस। त्रिकोण (वि०) त्रिभुजाकार।
त्रिदशा (पुं०) तीस। त्रिखट्वं (नपुं०) तीन खाटों का समूह।
त्रिदशेश्वरः (पुं०) इन्द्र। जानीहि योगं त्रिदशेश्वरादि पदप्रदं तं त्रिखट्वी (स्त्री०) तीन खण्ड।
जिन इत्यवदीत। (समु०८/२७) त्रिखण्डाधिपः (पुं०) तीन खण्ड का राजा। (वीरो० ११/१९) त्रिदिनं (नपुं०) तीन दिन। त्रिखण्डेश्वरः (वि०) जरासन्धा (वीरो० १८/४)
त्रिदिवं (नपुं०) सुरालय, इन्द्रधाम। (वीरो० २/१०) त्रिगजद्विजेता (वि०) कामदेव, (वीरो० १२/१६) तीनों जगत् त्रिदोषः (पुं०) वात, पित्त एवं कफ दोष। (दयो० ११६) का विजेता।
त्रिधा (वि०) तीन प्रकार, त्रिविधा (जयो० २४/६९) त्रिगणः (पुं०) तीन गण, तीन का समह धर्म, अर्थ और काम। त्रिधारा (स्त्री०) गंगा। त्रिगन (वि०) तिगुना।
त्रिनयनः (पुं०) शिव। त्रिगर्ता (वि.) कामासक्त स्त्री. स्वैरिणी. स्वेच्छाचारिणी। त्रिमयः (पुं०) तीन नय, तीन प्रकार के नय। त्रिगुण (वि०) तीन गुण, तीन बार आवर्तक।
त्रिनवत (वि०) तिरानवें। विगुणित (वि०) तीन से गुणा होने वाला, अधो, मध्य और विनवति (स्त्री०) तिरानवें।
उर्ध्व भेद के रूप में विभक्त। (जयो० २०/४१) त्रिपञ्च (वि०) पन्द्रह।
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त्रिपञ्चाश
४५७
त्रिलोकीनाथ:
त्रिपञ्चाश (वि०) तिरेपनवां।
त्रिभुवनजयिन् (वि०) तीनों लोकों को जीतने वाला। (दयो० त्रिपञ्चाशत् (स्त्री०) तिरेपन।
११६) त्रिपत्रकं (नपुं०) ढाका
त्रिभुवनपतिः (पुं०) तीन भुवन के स्वामी। (जयो० ६/११५) त्रिपथ (नपुं०) गंगा। (दयो० ९३/
त्रिभूमः (पुं०) तीन मंजिल, तीन माला वाला भवन। त्रिपदं (नपुं०) तीन पैर।
त्रिमार्ग (पुं०) त्रिपथ, तिराहा, १. रत्नत्रय। दर्शन, ज्ञान और त्रिपदिका (वि०) तीन पैर वाला।
चारित्र की एकरूपता। त्रिपदी (स्त्री०) १. हस्ति तंग। २. तीन पद वाली। त्रिमार्गा (स्त्री०) गंगा नदी। विपरीत्य (वि०) तीन प्रदक्षिणा युक्त। (दयो० )
त्रिमार्गानुगामिन् (वि०) १. त्रिमार्गपथिक, २. रत्नत्रयात्मक। त्रिपर्णः (पुं०) ढाक तरु।
(जयो० ३/११४) त्रिपाद (वि०) तीन पैरों वाला।
त्रिमुकुटः (पुं०) तीन शिखर का पर्वत। त्रिपुट (वि०) त्रिभुजाकार।
त्रिमुखः (पुं०) बुद्ध का विशेषण। त्रिपुटः (पुं०) १. बाण, २. हथेली, ३. एक हस्त प्रमाण। तट, त्रिमदः (पुं०) तीन मद। किनारा।
त्रिमूर्तिः (स्त्री०) तीन मूर्ति। त्रिपुटकः (पुं०) त्रिकोण, त्रिभुज।
त्रिमेखला (स्त्री०) तीन लड़ी, की करधनी, तीन कटनी की त्रिपुण्डू (नपुं०) चन्दन।
मेखला। (वीरो० १३/३) त्रिपुरं (नपुं०) तीन नगर, तीन स्थान। (जयो० १९/४१) त्रियष्टिः (स्त्री०) तीन लड़ी, हार की तीन लड़ी, तीन लड़ी त्रिपुरारि (पुं०) शिव। त्रिपुरारि-रुद्र-उमा च तस्या श्री पार्वती वाला हार। (जयो० १९/४१)
त्रियामा (स्त्री०) तीन रात का समय। त्रिपुरादिराट् (पुं०) नाभेय, आदीश्वर, आदिनाथ, प्रथम जिन | त्रियोगः (पुं०) मन, वचन और काम योग।
तीर्थंकर ऋषभदेव (जयो० २६/६३) 'त्रिपुराणां जन्म- त्रियोनिः (स्त्री०) तीन योनियां। जरामरणाख्यानामरिराजो नाभेयस्य' (जयो० २६/६८) त्रिरजनी (स्त्री०) तीन रात। ० शिव, शंकर।
त्रिरात्रं (नपुं०) तीन रात। त्रिपुरु (पुं०) प्रपितामह, पितृमह। (जयो० १२/१४५) विरत्नं (नपुं०) तीन रत्न-दर्शन, ज्ञान और चारित्र ये तीन त्रिपूरुषी (स्त्री०) गोत्रशाखोच्चारण, गोत्रोच्चारण।
अध्यात्म रत्न हैं, इन्हें सर्वोत्कृष्ट रत्न कहा गया है। त्रिपौरुष (वि०) तीन पीढ़ियों से सम्बंधित।
त्रिरेखः (पुं०) शंख। त्रिप्रस्तुतः (पुं०) मदास्राव वाला हस्ति।
विलिंग (वि०) तीनों लिंगों में प्रयुक्त होने वाला। त्रिपृष्टः (पुं०) पोदनपुरी राजा प्रजापति की द्वितीय रानी त्रिलोकं (नपुं०) तीन लोक, त्रिभुवन। मृगावती का पुत्र। (वीरो० ११/१७)
त्रिलोकनाथः (पुं०) तीनों लोकों के स्वामी। (वीरो० १३/१०) विशाखभूतिर्नभसोऽत्र जातः प्रजापतेः श्रीविजयो जयातः। | त्रिवोकपतिः (पुं०) तीनों लोकों के अधिपति। मृगावतीतस्तनयस्त्रिपृष्ठ नाम्नाऽप्यहं पोदपर्युथातः। (वीरो० त्रिलोकप्रज्ञप्तिः (स्त्री०) तीन लोकों के विषय को प्रतिपादित ११/१७)
__ करने वाली एक रचना त्रिलोकप्रज्ञप्ति, यतिवृषभाचार्य त्रिफला (स्त्री०) तीन फलों का संघात, हर्ड, बहेड़ा और कृत गणित, ज्योतिष सम्बन्धी रचना। (हि० २६) आंवला समूह का चूर्ण।
त्रिलोकसारः (पुं०) नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती द्वारा रचित त्रिबली (स्त्री०) तीन रेखाएं, नाभि के ऊपर होने वाली रेखा। रचना, जिसमें भूगोल, गणित एवं ज्योतिषादि के विषय त्रिविघ्न (वि०) तीन बाधाएं।
को व्यक्त किया गया है। त्रिभद्रं (नपुं०) मैथुन, संभोग।
त्रिलोकी (वि०) तीनों लोकों वाले। (सुद० २/१५) 'त्रिलोकानां त्रिभुजं (नपुं०) त्रिकोण।
समाहारिस्त्रलोकी' (जयो० ५/८३) त्रिभुवनं (नपुं०) तीन लोक।
त्रिलोकीनाथः (पुं०) तीनों लोकों के अधिपति। (वीरो० १३/१०)
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त्रिलोचनं
४५८
त्रुटित
मा
त्रिलोचनं (नपुं०) त्रिनेत्र।
त्रिवेदी (वि०) पु, नपुं और स्त्रीलिंग का जानने वाला। तीन त्रिवर्णकं (नपुं०) तीन वर्गों का समाहार। क्षत्रिय, बाह्मण और वेद जानने वाला। त्रयो वेदा अस्यसन्तीति त्रिवेदि, त्रिवेदि वैश्य।
विकल्पनमेव आयुर्जीवनं यस्य स। (जयो० १/७६) त्रिवर्गः (पुं०) तीन वर्ग-धर्म, अर्थ और काम। (दयो०पृ० त्रिशङ्क (वि०) बीच में लटका हुआ। ३३)
त्रिशङ्कः (पुं०) राजा, हरिश्चन्द्र का पिता। त्रिवर्गनिष्यन्न (वि०) तीन वर्गों से युक्त। (जयो० १/२८) त्रिशला (स्त्री०) महावीर की माता का नाम। कुण्ड ग्राम के त्रिवर्गपरिणायक (वि०) १. त्रिवर्गमार्ग से गमन करने वाले। २.
राजा सिद्धार्थ की रानी त्रिशला। (वीरो० ६/४३) कु, चु, टु वर्ण से मंडित होने वाले। "त्रिवर्णाणां त्रिशलाखनी (स्त्री०) त्रिशलादेवी की कुंख। (वीरो० ६/४३) धर्मार्थ-कामानां यद्वा त्रिवर्णाणां कु चु टुनामेव
विशिखं (नपुं०) त्रिशूल। परिणायकेऽधिकारिणि जयकुमारे तिष्ठति। अमात्यादीनां
त्रिशिरस् (पुं०) त्रिशूल। वर्गः समूहस्तेन मण्डिते सेविते। (जयो० ३/२०)
त्रिशुद्धि (स्त्री०) मन, वचन और काम की शुद्धि। (सम्य० त्रिवर्ग-परिणाम-संग्रही (वि०) तीनों वर्गों का संग्राहक
७८, वीरो० १७/८) 'त्रिवर्गस्य परिणाम।
त्रिशूलिन् (पुं०) शिव। संग्रहातीति त्रिवर्गपरिणामसंग्रहीधर्मादित्रिवर्ग-संग्राहको
त्रिषष्टिः (स्त्री०) तिरेसठ। भवतीत्याशयः'। (जयो० २/२१)
त्रिषष्टि-पुरुाचरितं (नपुं०) प्रथमानुयोग लक्षण। तिरेसठ महा त्रिवर्गमार्गः (पुं०) त्रिपथ, तीन वर्ग का पथ त्रिवर्गगुणित,
शलाका पुरुषों का चरित्र। (जयो० १६१) (हि०वा० ७) त्रिवर्गमागणो नाभिन्नदनस्य' (हि०सं० ३६)
त्रिशृङ्कः (पुं०) त्रिकूट पर्वत।
त्रिसंयोगी (वि.) तीन संयोग वाला। (वीरो० १९/६) त्रिवर्गभावः (पुं०) धर्म, अर्थ और काम भाव। (वीरो० ३/९) त्रिवर्गसंसाधनं (नपुं०) तीन वर्गों की साधना-धर्म, अर्थ और
त्रिसन्ध्यं (नपुं०) तीन सन्ध्या।
त्रिसन्ध्यी (स्त्री०) तीन सन्ध्या। काम पुरुषार्थ की साधना। (दयो० ३३)
त्रिसप्तत (वि०) तिहत्तरवा। त्रिवर्गसम्पत्तिः (स्त्री०) तीन वर्ग का सम्पादन-'त्रिवर्गस्य
त्रिसप्तन (वि०) तीन बार सात। धर्मार्थकामत्रिवर्गस्य तस्य सम्पत्तिसपादनम्' (जयो०७०
त्रिसाम्य (वि०) तीनों की समानता। १/३९) 'कु-चु-टु' इति त्रयाणां वर्गाणां समाहारस्त्रिवर्ग
त्रिसूत्रिन् (वि०) रेखात्रय युक्त। (जयो० ५/५०) तस्य सम्पत्तिः' (जयो०वृ० १/३९)
त्रिस्थली (स्त्री०) तीन पवित्र स्थान। त्रिवर्गसम्पादनं (नपं०) धर्म, कर्म और शर्म का सम्पादन या
त्रिस्रोतस् (स्त्री०) तीन स्रोता धर्म, अर्थ औ सुख का सम्पादन। (जयो० १२/४८)
त्रिसीत्थ (वि०) तीन बार जीता हुआ। त्रिवलि (स्त्री०) तीन रेखाएँ। (जयो० १६/८१,
त्रिहायण (वि०) तीन वर्ष का। त्रिवलित (वि०) कटि, हृदय और ग्रीवा को झुकाने वाला।
त्रिंश (वि०) तीसवां। मस्तिष्क पर तीन रेखाएँ उत्पन्न करने वाला।
त्रिंशक (वि०) तीस से युक्त। त्रिवार (अव्य०) तीन वार, तीन प्रकार से।
त्रिंशत् (स्त्री०) तीस। त्रिविक्रमः (पुं०) विष्णु।
त्रीणि (नपुं०) तिस्त्रः (स्त्री०) त्रिविध (वि०) तीन प्रकार का।
त्रुट् (सक०) तोड़ना, फाड़ना, चीरना, टुकड़े करना। त्रुट्यन् त्रिविष्टपं (नपुं०) स्वर्गलोक, इन्द्रलोक। (वीरो० १/२३) (जयो० ७/१०७) त्रोटयित्वा (जयो० २३/३७)
समुल्लसत्कल्पलतैकतन्तु त्रिविष्टपं काव्यमुपैम्यहन्तु' | त्रुटि: (स्त्री०) [त्रुट्+इन्] अपघात, भूल, कमी (जयो० (वीरो० १/२३)
१२/१३६) 'भो महाशयाः, वो अस्माकमातिथ्येऽतिथिसत्कारे त्रिवेणी (स्त्री०) तीन नदियों के मिलन का स्थान, गंगा यमुना नस्त्रुटिरेव' (जयो० १२/१३६) १. काटना, तोड़ना, फाड़ना, __ और सरस्वती का संगम स्थला
२. सन्देह, अनिश्चिता, ३. हानि, नाश। ४. छोटी इलायची। त्रिविशुद्धिः (स्त्री०) मनोवाक्काय शुद्धि। (जयो० १२/२९) | त्रुटित (वि०) भ्रंश, नष्ट।
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त्रुटित:
त्रुटितः (पुं०) एक प्रमाण विशेष, चौरासी लाख त्रुटितांगों का एक त्रुटित |
त्रुटितसूत्र ( नपुं० ) टूटा हुआ धाणा । (जयो०वृ० १७/४७) त्रुटिस्मरणं (नपुं०) गलत स्मरण (जयो०वृ० १७ / ४७ ) त्रुटिस्मृत्य ( वि०) गलत स्मरण करने वाला। (जयो० २० / ८६ ) त्रुटिताङ्गः (पुं०) एक प्रमाण विशेष । चौरासी लाख महाकुमुद । त्रुटिरेणु (स्त्री०) एक प्रमाण विशेष । आठ संज्ञासंज्ञों का एक त्रुटिरेणु |
त्रेता (स्त्री० ) [ त्रीन् भदान् एति प्राप्नोति] तिकड़ी, तीन का समाहार। त्रेतायुग, तीसरा काल । एवं पुरुर्मानवधर्ममाह यत्रापि तैः संकलितोऽवगाहः । त्रेतेतिरूपेण विनिर्जगाम कालः पुनर्द्वापर आजगामा। (वीरो० १८ / ४३ ) त्रेता बभूव risन्तु कालो मनागून गुणैकतन्तु । यस्मिन् शलाका: पुरुष: प्रभूया बभुश्चदुर्मार्गकृताभ्यसूयाः ।। (वीरो० १८/४४) त्रेता पुन: काल उपाजगाम यस्मिन् मनः संकुचितं वदामः । निवासिनामाप शनैस्ततस्तु सङ्कोचमुर्वीतनयाख्यवस्तु ।। (वीरो० १८ / १०) द्वितीय युग की समाप्ति वाद त्रेतायुग/तीसरा काल का प्रारम्भ हुआ, जिसमें यहां के रहने वाले लोगों का मन धीरे-धीरे संकुचित होने लगा। इसके फलस्वरूप पुत्री के पुत्र कल्पवृक्षों ने भी फल देने में संकोच करना प्रारम्भ कर दिया।
त्रेतायुग: (पुं०) तीसरा युग (वीरो० १८ / १० )
तो : (पुं०) एक प्रमाण विशेष। जिस राशि में चार का भाग
देने पर तीन शेष रहे वह त्रेता या त्रेतोज कहलाता है। त्रेधा (अव्य० ) (त्रि + एधाच्] तीन प्रकार से तीन तरह से । त्रै ( सक०) बचाना, रक्षा करना, सुरक्षा प्रदान करना, शरण देना।
४५९
त्रैकालिक (वि० ) [ त्रिकाल ठञ्] सदा, हमेशा, तीनों काल संबंधी। (वीरो० १३/२२) त्रैकालिकायाब्धितुजे सुसजं सतां जरामृत्युजनुर्विपत्रम् । (वीरो० १३ / २२ ) • त्रिकालवर्ती (वीरो० २०/७)
त्रैकाल्यं (नपुं० ) [ त्रिकाल + ठक् ] तीनकाल- भूत, भविष्यत् और वर्तमान काल ।
वैगुणिक ( वि० ) [ त्रिगुण+ ठक् ] तिगुना, तिहरा । त्रैगुण्यं (नपुं० ) [ त्रिगुण+ ष्यञ् ] तिगुनापन, तीन गुणों का समाहारा । सत्त्व, रज और तमस् का संयोग । त्रैपुर : (पुं० ) [ त्रिपुर+अण्] एक देश विशेष |
त्वक्पानकः (पुं०) त्वचा जल । त्वक्स्पर्श (पुं०) चर्म स्पर्श ।
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त्रैमातुरः (पुं० ) [ त्रिमातृ+अण्] लक्ष्मण । त्रैमासिक (वि०) [त्रिमास्+ठञ्] तीन माह पुराना, तिमाही । त्रैराशिक (नपुं०) तीन राशियों की रीति । त्रैलोक्यं (नपुं० ) [ त्रिलोकी+ ष्यञ् ] तीन लोक सम्बंधी, तीनों लोकों का संयोग (दयो० १/३)
त्रैलोक्यगुरु ( पुं०) तीनों लोकों के गुरु । त्रैलोक्यवासिसत्त्वेभ्यों
गुणन्ति शास्त्रार्थमिति त्रैलोक्यगुरवः ।
त्रैलोक्यधी (स्त्री०) तीन लोग सम्बंधी बुद्धि) (वीरो० १४ / २६ ) त्रैलोक्यनाथ: (पुं०) तीन लोकों के अधिपति । त्रैलोक्यपतिः (पुं०) तीन लोकों के नायक । त्रैलोक्यसार : ( पुं०) त्रिलोकसार, नेमिचंद्र सिद्धान्तचक्रवर्ती द्वारा रचित तीन लोक के विवेचन सम्बंधी शास्त्र (जयो० १९ / ३१)
त्रैवर्गिक (वि०) त्रिवर्ग सम्बंधी धर्म, अर्थ और काम सम्बंधी ।
त्रैवर्गिक कार्यक्रम, संकोच्यैकान्तसुस्थले। (हित सं० ५७ ) त्रैवर्णिक (वि० ) [ त्रिवर्ग+ठञ्] तीन वर्ण से सम्बन्धित ।
विक्रम (वि० ) [ त्रिविक्रम+अण्] विष्णु ।
त्रैविद्यं (नपुं० ) [ त्रिविद्या+अण्] तीन शास्त्र, तीन वेद । त्रैविद्य: (पुं०) तीनवेद में निपुण ।
त्रैविप (पुं०) देव, सुर ।
त्रोटकं (नपुं० [ त्रुट् + णिच् + ण्वुल्] १. एक छन्द विशेष, २. नाटक का एक भेद ।
त्रोटि : (स्त्री० ) [ त्रुट् +इ] चोंच, चंचु ।
त्रोटिमत् (पुं०) १. कटफल, कायफल। २. क्षुद्रमछलियां । त्रोटि : स्वीचचुमीन्कटफले इति विश्वलोचनः । (जयो० २१ / २६)
त्रोत्रं (नपुं० ) [ त्रै+ उत्र] पतली छड़ी, वेंत, जिससे पशुओं को हांका जाता है।
त्वच्कण्डुरः
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त्वक्ष् ( सक०) कतरना, उतारना, छीलना। वगाद-त्वच् से (पंचमी एक सुद० २ / ४६ ) त्वङ्कारः (पुं० ) [ त्वम् +कृ+अण्] निरादर सूचक 'तू' शब्द बोध |
त्वच (स्त्री० ) [ त्वच् + क्विप्] १. चमड़ी, खाल, चर्म (समु०
१/१७) २. छाल, वल्कल। त्वच्कण्डुरः (पुं०) फुंसी, फोड़ा।
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त्वच्गन्धः
४६०
थः (पुं०) तवर्ग का द्वितीय वर्ण, इसका उच्चारण स्थान दन्त्य
है।
थं (पुं०) १. क्षण, २. मंगल, ३. भय। थः (पुं०) १. पर्वत, गिरि, २. भक्षण ३. रोग विशेष, ४, त्रास,
भय।
त्वच्गन्धः (पुं०) सन्तरा। त्वच-छेदः (पुं०) चर्मछिद्र, घाव, फोड़ा। त्वजं (नपुं०) रुधिर, रक्त। त्वचतरङ्गकः (पुं०) झुर्रा, शरीर के चर्म में सिकुड़न। त्व त्रं (नपुं०) कोढ़, चर्मरोग। त्वच्पारुष्यं (पुं०) चर्म खुश्की, चमड़े में रुखापन। त्वचपुष्पः (पुं०) रोमाञ्च, हर्ष। त्वच्सारः (पुं०) बांस। त्वचांकुरः (पुं०) रोमांच, हर्ष। त्वचेन्द्रियः (पुं०) स्पर्शेन्द्रिय। त्वद्-आप। मध्यम पुरुष के लिए इसका प्रयोग होता है।
पयोनिधिस्त्वद्हदि वाप्यवारपारोऽतलस्पर्शितयाऽत्युदारः।
(सुद० २/१६) त्वत्ता (वि०) आपके समान, त्वद्रूपता। त्वत्ता च मत्ता पुनरत्र
ताभ्यामागत्य हे देव: सुदेवताभ्याम्। (जयो० २३/७४) त्वदीय (वि०) [युष्मद् छ त्वद् आदेश:] तेरा, तुम्हारा,
आपका। (सुद० २/३४) त्वद्विध (वि०) तेरी तरह, आपके समान। त्वर (अक०) शीघ्रता करना, जल्दी करना, स्फूर्ति रखना। त्वरा (स्त्री०) [त्वर्+अ+टाप्] शीघ्रता, क्षिप्रता, वेग। त्वरिः (स्त्री०) वेग, शीघ्रता, स्फूर्ति युक्त। त्वरित (वि०) [त्वर्+क्त] गतिवान्, वेगयुक्त, शीघ्रगामी,
स्फूर्तिमान। त्वरितं (अव्य०) शीघ्र, तुरन्त, वेग से, स्फूर्ति से। (जयो०वृ०
१३/११)'आवजताऽऽव्रजत त्वरितमितः' (सुद० १०४)
त्वरितं स्म चरन्ति (जयो०वृ० ३/११) त्वरितमेव (अव्य०) शीघ्रता से ही। (जयो० १२/६६) त्वष्ट्र (पुं०) [त्वक्ष्+तृच्] बढ़ई, कारीगर, निर्माता। त्वादृश् (वि०) आपके समान। त्विट् (स्त्री०) कान्ति, तेज, यश, प्रभा। (दयो० १/१०)
'कन्दुत्वमिन्दुत्विडनन्यचारैः' (जयो०१/१०) त्विड् (स्त्री०) प्रकाश, तेज, यश, प्रभा। त्विष् (अक०) चमकना, आभावान् होना, दमकना, स्फुरित
होना। विष (स्त्री०) १. प्रभा, यश, कीर्ति, कान्ति, दीप्ति। २. इच्छा,
अभिलाषा। त्विषिः (स्त्री०) प्रकाश किरण। त्वरू: (पुं०) रेंगने वाला जन्तु।
थुड् (सक०) ढकना, पर्दा डालना, आच्छादित करना, छिपाना,
गुप्त रखना। थुकृत् (वि०) वमथु, फूत्कार, थूक दिया। (जयो० १५/१/४)
सूंड की फूत्कार से निकले जलकण। (जयो० ६/५३)
कालेन तद्बीजभुजा तु भानि भवन्तु अस्थीन्यथ थूत्कृतानि। थुडनं (नपुं०) [थुड्। ल्युट्] आच्छादन करना, ढकना, लपेटना। थुत्कारः (पुं०) [थुत्+कृ+अण्] फूत्कार ध्वनि, थूकने का
स्वर। थूक (दे) धुंक। (हि० ४३) थूत्कः (पुं०) थूक। (वीरो०६/४) थूकधारः (पुं०) लार, लाल। (जयो०३० २७/३५) थूकर (वि०) यूंकने वाला। थूकानुयोगः (पुं०) यूंक का संयोग। थूत्कानुयोगेन यतोऽत्र
जन्तूत्पत्ति सुधीनां धिषणा श्रयन्तु। (सुद० १३०) थूत्कारः (पुं०) वमथु, फूत्कार, हाथी की सूंड से निकले
शब्द। थूत्कृत् (वि०) फूत्कार करने वाला। थूत्करोति थूकता है। (वीरो० ४/१४) थूत्कार-ब्याजः (पुं०) फूत्कार के छल से। (जयो०वृ० १३/१००) थू (सक०) चोट पहुंचाना, नष्ट देना। थैयै (अव्य०) अनुकरणात्मक ध्वनि।
दः (पुं०) तवर्ग का तृतीय वर्ण, इसका उच्चारण स्थान दन्त्य
है। दकार, दकारमेव, 'द' वर्ण वर्णनीय (जयोवृ० १/२९) द (वि०) देने वाला, नाश करने वाला। दंशस्पृङ् (वि०) मर्म स्पर्शकर (जयो० १६/१७) दः (पुं०) उपहार, दान, प्राभृत। पर्वत। २. दः शुद्धि भावो वर्वते
(जयो० १२/४८) शुद्धि-'दस्य शुद्धताया व:
कुम्भोऽर्थान्निधिदेवो बभूव। (जयो०वृ० १/३७) दः-हितैषी (जयो० १/२९)
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४६१
दग्धोदरार्थ
दं (नपुं०) पत्नी। द, द, दकार। द: शुद्धौ वः कुम्भे वरुहो
विश्व। (जयो०१/१५) दंश् (सक०) डसना, खाना, ग्रसना, निगलना, काटना, डंक
मारना। दंशः (पुं०) [दंश्+घञ्] काटना, डासना, ग्रसना, मारना।
भक्षण करना (जयो० १५/३२) दोषेऽपि खण्डने दशो इति विश्वः १. दांत, २. तीखापन, ३. त्रुटि, दोष, कमी।
४. कवच, ५. जोड़, अंग। दंशनं (नपुं०) [दंश्+ल्युट्] काटना, डंक मारना। दंशमशकः (पुं०) डांश मच्छर। (दयो० ६५) दंशस्पृङ (वि०) मर्म स्पर्शकर (जयो० १६/१७) दंशित् (वि०) [दंश्+क्त] डसा हुआ, काटा हुआ। दंशिन् (पुं०) काटना, डसना। दंशी (स्त्री०) [दंश ङीष्] डांस मच्छर। दंष्ट्रा (स्त्री०) [दंश+ष्ट्रन्+टाप] दांत, दाड, विषैला दांत,
हाथी का बड़ा दांत। (दयो० ८१) दंष्ट्राल (वि०) [दष्ट्रा+ल] बड़े-बड़े दांतों वाला। दंष्ट्रिन् (पुं०) [दंष्ट्रा इनि] १. जंगली शूकर। २. सर्प, ३.
लकड़वग्घा। दक्ष (वि०) [दक्ष+अच्] चङ्ग, चतुर, सक्षम, योग्य। 'चङ्गो
दक्षेऽथ शोभने इति विश्वलोचने। (जयो० २७/५७) ० विचार-(जयो० २७/५७) 'मनुष्यो व्यवहारदक्षः। (जयो० २७/५०) 'दक्षः सुचतुरो मनुष्यः' । ० समर्थ-'दक्षः समस्तु परिचिन्तनमात्रतः'। (सुद० १३४) • दक्षिणदिशा-सुनमि-सुविनमिप्रभृतीन् दक्षेतरखेचरात्मज्ञांस्तु सती'। (जयो० ६/१६) उचित, समुचित,
उपयुक्त, उद्यत, तैयार। दक्षः (पुं०) प्रजापति नाम, एक राजा। दक्षकन्या (स्त्री०) चतुर कन्या, योग्यकन्या । 'रजस्वला:
सम्प्रति दक्षकन्या'। (जयो०८/१०) दक्षजा (स्त्री०) दुर्गा का विशेषण। दक्षतनया (स्त्री०) दुर्गा का विशेषण। दक्षपदं (नपुं०) राजा दक्ष का स्थान। (जयो० २८/४७) ___ 'दक्षस्य नाम नृपतेः पदं स्थान माश्रित:'। (जयो० २८/४७) दक्षत्व (वि०) आवश्यक क्रियाओं को ठीक से करने वाला-दक्षत्वं
__ आशुकारित्वम्। दक्षा (स्त्री०) प्रवीणा, योग्य। (जयो० १२/९२) दक्षाप्यः (पुं०) [दक्ष्+आप्य] १. गिद्ध. २. गरुण्ड।
दक्षिण (वि०) [दक्ष-इनन्] निपुण, (समु० १/३०) चतुर,
प्रवीण, योग्य, चङ्ग, विचारवान्, सक्षम, समर्थ, निष्पक्ष, शिष्ट, आज्ञानुकारी। उदारमना, दानशील। (जयो० १२/९५) 'मम सम्प्रति किं न दक्षिणोऽसि' (जयो० १२/९४) ० दक्षिण भाग, दक्षिण दिशा (जयो० १२/९२) ० गौरव (जयो० ६/३)
० दाहिना, दायां। दक्षिणत्व (वि०) सरलता। दक्षिणत्व सरलता। दक्षिणदिक्पालः (पुं०) दण्डधर यम। (जयो० २२/६६) दक्षिणो
दिग्धवो दिक्पालो यम इवासि। (जयो० दक्षिणदिग्धवः (पुं०) यम। (जयो० २२/९४) दक्षिणदिग्भागः (पुं०) १. दक्षिण दिशा भाग। २. वामभाग,
वायां हिस्सा। (जयो०७० १९/२३) अवाची (वीरो० २/२९) दक्षिणा (अव्य०) दाईं ओर, दक्षिण दिशा की ओर। दक्षिणा (स्त्री०) १. भेंट, उपहार, दान, पारश्रमिक, शुल्क। २.
रीति-क्षणात्कनकमेव सतामपि दक्षिणा। (दयो० ४९) दक्षिणाग्निः (स्त्री०) दक्षिण की ओर स्थापित अग्नि। दक्षिणान (वि०) दक्षिण की ओर अग्रसर। दक्षिणाचलः (पुं०) मलयगिरि। दक्षिणाभिमुख (वि०) दक्षिण की ओर उन्मुख। दक्षिणार्ह (वि०) उपहार प्राप्त करने योग्य अधिकारी। दक्षिणायनं (नपुं०) भूमध्य रेखा, सूर्य की गति उत्तरायण से
दक्षिणायन। (वीरो० २१/३१) दक्षिणावर्त (वि०) दक्षिण की ओर मुड़ा हुआ। दक्षिणाशा (स्त्री०) दक्षिण दिशा। दक्षिणीकृत (वि.) दक्षिण की ओर किया गया। (जयो०
१२/८५) दक्षिणेतर (वि०) वाम, बाया हिस्सा। दक्षिणाहि (अव्य०) [दक्षिण+आहि] दूर दक्षिण की ओर। दक्षिणेन (अव्य०) [दक्षिण+एनप्] दाईं ओर। दग्ध (भू०क०कृ०) [दह्+क्त) जला हुआ, भस्मीभूत, विदग्ध,
संतप्त, क्लान्त, अभिशप्त, दुर्वृत्त। (जयो० ११/६७) ईदृशे युवगणेऽथ विदग्धे का क्षती रतिपतावपि दाधे।
(जयो०५/२५) 'दग्धे-भस्मीभूते' (जाये०वृ० ५/२५) दग्ध्वात्मान् (वि०) जलाया हुआ। स्वयं च नरकं प्राप,
दग्ध्वात्मानपीत्यसौ' (समु० २/३२) । दग्धिका (स्त्री०) [दग्ध+कन+टाप्] मुर्मुरे, जले हुए। दग्धोदरार्थ (वि०) संहारार्थ, मारने के लिए उद्यत। समस्ति शौकरपि
यस्य पूर्तिीधोदरार्थ कथनस्तु जूर्तिः। (दयो०पृ० ३८)
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दन
४६२
दण्डाधिपः
दन (वि०) ऊँचाई।
दण्डपातः (पुं०) डंडे का गिरना। दण्ड् (सक०) सजा देना, जुर्माना करना, दण्ड देना। दण्डपातनं (नपुं०) दण्ड देना, धनोपहरण। दण्डः (पुं०) डंडा, छड़ी, गदा, यष्टि, मुद्गर, सोंटा, १. जंग। । दण्डपारुष्यं (नपुं०) संप्रहार, प्रतिघात, कठोर दण्डदान।
पंके पतित्त्वापि च लोहदण्डः (सम्य० ६१) २. एक अपराधी को क्लेश पहुंचाना, अपराधी को दण्ड देना, प्रमाण विशेष। दण्ड, धनुष, युग, नालिका, अक्ष और धनापहरण करना। 'वधः परिक्लेशोऽर्थहरणं वा क्रमेण मूसल ये एकार्थवाची शब्द है।
दण्डपारुष्यम्'। वे रिक्कूहि दंडो-दो रिक्कुओं का एक दण्ड होता है। | दण्डपालकः (पुं०) दण्डाधिकारी, द्वारपाल, ड्येढ़ीवान। ० शत्रुवध-वधः परिक्लेशोऽर्थहरणं दण्डः
दण्डपोण: (पुं०) मूठदार चलनी। ० दण्ड्यते-ज्ञानाद्यैश्वर्यापहारतोऽसारीक्रियते आत्माऽनेनेति दण्डप्रणामः (पुं०) दण्डवत नमन, सर्वांग नम्रीभूत, नमन, दण्डः ।'
साष्टांग नमन। ० दण्ड:-शरीर-धनयोरपहार।
दण्डबालधिः (पुं०) हस्ति, गज, हाथी। ० कष्ट देना। (सुद० ९०)
दण्डभङ्गः (पुं०) आज्ञा विरोध, अनुशासन के प्रति विरोध, ० सम्पत्ति का हरण
आज्ञा का उल्लंघन। ० परिक्लेश।
दण्डभृत् (पुं०) कुम्भकार, कुम्हार। दण्डकः (पुं०) [दण्ड-कन्] डंडा, छड़ी। २. पंक्ति, कतार। दण्डमाणवः (पुं०) दण्डधारी। २. छन्द विशेष।
दण्डमार्गः (पुं०) राजमार्ग, प्रमुखपथ, राजपथ। दण्ड-कर्मन् (नपुं०) दण्ड देना, कष्ट देना, ताडना, मारना। दण्डमुद्रा (स्त्री०) ध्यान की एक अवस्था, जिसमें दाहिने हाथ दण्डकाकः (पुं०) पर्वतीय/पहाड़ी कौवा।
की मुट्ठी बांधकर तर्जनी को फैलाना। दण्डकाष्ठं (नपुं०) लकड़ी का सोंटा।
दण्डयात्रा (स्त्री०) वरयात्रा, बरात का वंदोली। दण्डग्रहणं (नपुं०) तीर्थयात्री का दण्ड देना।
दण्डयामः (पुं०) यम की एक विशेषता। दण्डछदनं (नपुं०) भाण्डागार।
दण्डवत् (वि०) विनम्रता युक्त। (जयो० २४/६७) दण्डढक्का (स्त्री०) एक उद्घोषक ढोल।
दण्डवादिन् (पुं०) द्वारपाल, पहरेदार, सन्तरी। दण्डदासः (पुं०) सेवक, वधुआ बंधक मजदूर चाकर। दण्डवाहिन् (पुं०) रक्षाकर्मी, सुरक्षा प्रहरी, पुलिस अधिकारी। दण्ड-देवकुलं (नपुं०) न्यायालय।
दण्डविधिः (स्त्री०) दण्डनियम। दण्डधर (वि०) डंडाधारी, दक्षिण दिक्पाला (जयो० २२/६६) दण्डव्यूहः (पुं०) सैनिक की रचना, सैन्य व्यवस्था का एक दण्डनं (नपुं०) [दण्ड्+ल्युट्] ताड़ना, मारना, कष्ट देना। दण्डनायकः (पुं०) न्यायाधीश।
दण्डशास्त्रं (नपुं०) दण्डविधान, न्याय निर्णय ग्रन्थ। दण्डनीतिः (स्त्री०) न्यायपद्धति, न्याय करण, न्यायप्रक्रिया। दण्डसमुद्घातः (पुं०) आत्मप्रदेश की आकृति, जिसमें अन्तर्मुहूर्त
(जयो० २/१२०) (वीरो० ३/१४) अपराध के अनुसार मात्र आयु के शेष रहने पर सयोग केवली जो लोकपूरण दण्डव्यवस्था। 'यथादोष: दण्डप्रणयनं दण्डनीतिः।
समुद्घात करते हैं। अर्थात् जिस शरीर विस्तार से चौदह दण्डनीतिपरायणः (पुं०) दण्डविद्या में कुशल। (जयो० २२/६६) राजू प्रमाण लम्बे दण्ड के आकार निकलते हैं। दण्डनियंत्रित (वि०) डंडे से चोट पहुंचाई, 'दण्डेन पापाचारेण दण्डस्थूणाकृतिः (स्त्री०) दण्ड का लघु आकार (जयो०
लगुडेन वा नियन्त्रित, प्रपीडितो, जगतीत्थं भ्रमति। (जयो०१० १/२५) २५/४४)
दण्डाजिनं (नपुं०) मृगछाल। दण्डनेतृ (पुं०) अधिपति, राजा, नृप।
दण्डादण्डि (अव्य०) [दण्डैश्च दण्डैश्च प्रहत्य प्रवृत्तं युद्ध दण्डपः (पुं०) राजा, नृप।
इच्, द्वित्वं पूर्वपददीर्घः] आपस में दण्डों से लड़ना, दण्डपद्धतिः (स्त्री०) राजतंत्र, शासनविधि।
परस्पर में दण्ड प्रहार पूर्वक भिड़ना। दण्डपाणि (पुं०) यमराज।
दण्डाधिपः (पुं०) दण्डाधिकारी प्रमुख।
रूप।
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दण्डायतशयनं
दन्तकूटः
दाता
दण्डायतशयनं (नपुं०) सर्कंग शयन, दण्ड के समान लम्बायत
शयन। 'दण्डवदायतं शरीरं कृत्वा शयनम्' (भ० आ०टी० २२५) दण्डवदायतं शरीरं कृत्वा शेते इत्येवं व्रतं यस्य स दण्डायतशायी साधु:तत्साहचर्यात्तच्छयनमपि तथोक्तं
दण्डायतशयनम्। (भ०आन्टी० २२५) दण्डारः (पुं०) चाक, १. बेड़ा, नाव, २. हाथी, ३. गाड़ी। दण्डाह (वि०) दण्ड दिए जाने के योग्य, दण्ड का पात्र। दण्डालसिका (स्त्री०) हैजा। दण्डासनं (नपुं०) दण्डवत् आसन। एक आसन विशेष, जिसमें
बैठ करके दोनों पैरों की अंगुलियों, गुल्फों और जंघाओं
को संसृष्ट करते हुए उनको फैलाना। दण्डिकः (पु०) दण्डधारी, छड़ीधारक। दण्डिका (स्त्री०) १. लकड़ी, २. पंक्ति, आलि, श्रेणी, लड़ी,
रस्सी। दण्डिन् (पुं०) [दण्ड+इनि] १. द्वारपाल, पहरेदार, संतरी। २.
दण्डधारी, एक जैन संत। दत् (पुं०) दांत। दत्त (भू०क००) [दा। क्त] प्रदत्त, दिया हुआ, वितरित,
समर्पित, रखा गया, फैलाया गया। दत्तः (पुं०) मेतार्य गणधार के पिता श्री। मेतार्यवाक __ तुङ्गिकसन्निवेशवासी पिता दत्त इयान् द्विजेशः। (वीरो०
सं० १४/११) दत्तं (नपुं०) दान, उपहार, भेंट। दत्तकः (पुं०) [दत्त कन्] गोद लिया गया पुत्र। दत्तकपुत्रः (पुं०) गोद लिया गया पुत्र। दत्तकपुत्री (स्त्री०) गोद ली गई पुत्री। दत्तचित्त (वि०) कुशल, प्रवण, प्रणतिप्रवण। (जयो० १६/६१) दत्तदानं (नपुं०) दिया गया उपहार। दत्तदृष्टिः (स्त्री०) समर्पित दृष्टि। (जयो०वृ० ५/१९) दत्तपात्रं (नपं०) प्रदेय भाण्ड, दिया गया भाजन। दत्त-पुस्तकं (नपुं०) प्रदत्त पुस्तक। दत्त-मानं (नपुं०) प्राप्त हुआ सम्मान। दत्तमोदः (वि०) आनंद प्राप्त हुआ। दत्तयानं (नपुं०) यान को प्राप्त। दत्तवती (वि०) देने वाली (जयो०वृ० ५/१९) दत्तशुष्कः (पुं०) प्रदत्त दान। दत्तशुल्का (स्त्री०) दहेज। दत्ति (स्त्री०) प्रत्याख्यान भेद, हस्तथाल से पतित भिक्षा।
दत्तिकृत् (वि०) पात्रदानकर्ता। (जयो० २३/४४) दत्तिग्रास-परिणामः (पुं०) दान क्रिया का प्रमाण। दद् (सक०) देना, प्रदान करना। दद (वि०) देने वाला। ददनं (नपुं०) [दद्+ ल्युट] दान, उपहार। ददेदेहि (स्त्री०) अस्पष्टवाणी। (जयो० १०/५०) दध् (सक०) पकड़ना, ग्रहण करना, आदधना (जयो० ११/७०)
दधाम (सुद० ७०) लेना, धारण करना। दधनी (सुद०
१२३) दधाना (वि०) धारयित्री। (जयो० १५/९१) दधि (नपुं०) दहि, जमा हुआ दूध। (सुद० १३०) दधिकूचिका (स्त्री०) दूध का मिश्रण। दधिचारः (पुं०) रई। दधिजं (नपुं०) मक्खन। दधित्थः (पुं०) कपित्थ, कैंथ, कवीट, दहिफल, कपित्थ।
(जयो० २५/११) दधिफलः (पुं०) दही का जामन। दधिप्रयुक्तिः (स्त्री०) दधि प्रयोग (वीरो० १९/३) दधिमन्थनं (नपुं०) दहि मथना। दधिवाहनः (पुं०) चम्पानगरी का एक राजा। दधिविलोडन (नपुं०) दहि मथना। (जयो०वृ० २१/५६) दधिशोण: (पुं०) बन्दर। दधिसक्तु (पुं०) दधि मिश्रित सत्तू। दधिसारः (पुं०) मक्खन। दधिस्नेहः (पुं०) मक्खन। दधिस्वेदः (पुं०) अधरिड़ का दही। (जयो० २०/८४) दधिभाजनं (नपुं०) दहिपान। (जयो० २१/५८) दधीचः (पुं०) दधीचि नामक ऋषि, अस्थिदान कर्ता महर्षि। दनुः (स्त्री०) दक्ष की कन्या। दनुजा (स्त्री०) दक्ष की पुत्री। दनुसंभवः (पुं०) एक राक्षस। दन्तः (पुं०) दांत, रद, रदन। रदेषु दन्तेषु (जयो०वृ० ५/८८) दन्तकर्मन् (नपुं०) दांत पर कार्य। दन्तकर्षणः (पुं०) नींबू का वृक्ष। दन्तकारः (पुं०) दांत बनाने वाला, हाथी दांत का काम करने
वाला। दन्तकाष्ठं (नपुं०) दातौन। दन्तकूटः (न०) लड़ाई।
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दन्तग्राहिन्
४६४
दमन
दन्तग्राहिन् (वि०) दांतों की छवि बिगाड़ने वाला, दन्तघर्षः (पुं०) दांत पीसना, दांत से दांत रगड़ना। दन्तचालः (पुं०) दांतों का ढीलापन। दन्तछदः (पुं०) होंठ, ओष्ठ। (वीरो० २/४८) दन्तच्छदलौहित्य (वि०) अधर शोणि, होंठों की लाली। दन्तच्छदारुणिमा (स्त्री०) अधर राग। (जयो० १०/९०) दन्तजात (वि०) दांत जिसके निकल रहे हों। दन्तजाहं (नपुं०) दांत की जड़। दन्तधावनं (नपुं०) दन्तमञ्जनं, दन्तप्रक्षालन, दांत धोना, दशन __ स्वच्छता। (जयो०१० २७/४८) दन्तपत्रं (नपुं०) कर्णाभूषण, कर्णफूल। दन्तपत्रकं (नपुं०) कर्णाभूषण, कर्णाभरण। दन्तपत्रिका (स्त्री०) कर्णाभूषण, कर्णालंकार। दन्तपावनं (नपुं०) दातौन, दांत साफ करना। दन्तपातः (पुं०) दांत गिरना। दन्तपाली (स्त्री०) दांत के अग्रभाग। दन्तपुष्पं (नपुं०) कुन्द पुष्प, कतक पुष्प, निर्मली। दन्तप्रघर्षः (पुं०) दन्तप्रक्षालन। (मुनि० ) दन्तमञ्जन। दन्तप्रक्षालनं (नपुं०) दांत साफ करना। दन्तप्रमार्जनं देखें ऊपर। दन्तभागः (पुं०) दांत का अग्र भाग। दन्तमञ्जनं (नपुं०) दन्त प्रक्षालन, दांत की सफाई करना,
दन्तप्रमार्जन। (जयो०१० २७/४८) दन्तमण्डलं (नपुं०) रदचक्र, दांत समूह। (जयो० १३/३६) दन्तमलं (नपुं०) दांततैल। दन्तमार्जनं (नपुं०) दन्त प्रक्षालन, दन्तमृष्ट, दन्त प्रघर्ष,
दन्तधावन, दन्तमञ्जन। दन्तमूलं (नपुं०) दांत का मूल-भाग, दांत की जड़, मसूड़ा।
(जयो० १३/१०) दन्तमूलीया (वि०) दन्त्यवर्ग। त, तु, थ, द, धु, न, ल, स्। दन्तमृष्टं (नपुं०) दन्तमञ्जन, दन्तमार्जन। (जयो०वृ० २७/१६) दन्तरुचिः (स्त्री०) दशनकान्ति, रदप्रभा। (जयो०१० ३/२२) दन्तरोगः (पुं०) दन्त पीड़ा। दन्तवासः (पुं०) अधरोष्ठ। (जयोवृ० १८/३३) दन्तवाणिज्यं (नपुं०) दांतों का व्यापार। दन्तवीणा (स्त्री०) सारंगी। दन्तव्यसनं (नपुं०) दन्त क्षय, दांत टूटना। दन्तशठ (वि०) खट्टा, चरपरा।
दन्तशठः (पुं०) नींबू पादप। दन्तशर्करा (स्त्री०) दांतों की पपड़ी। दन्तशाणः (पुं०) दन्तमञ्जन, दन्तशोधन, दन्तमार्जन, मिस्सी। दन्तशूलं (नपुं०) दांत की पीड़ा। दन्तशोधनिः (स्त्री०) दांत कुरेलनी। दन्तशोधन चूर्णः (पुं०) मंजन। (जयो० २७/४७) दन्तशोफः (पुं०) मसूड़ों की सूजन। दन्तसंघर्षः (पुं०) दांतों का रगड़ना, मिसमिसाना। दन्तसंस्कारः (पुं०) दांत रंजन, दांतों को रंगना। 'दन्तमलापकर्षणं
तद्रंजनं वा दन्त संस्कार:' दन्ताग्रं (नपुं०) दांतों का अग्रभाग। दन्तादन्ति (अव्य०) दांतों का रगड़ना। दन्तान्तरं (नपुं०) दशन के मध्य का स्थान। दन्तावलः (पुं०) [अतिशयितौ दन्तौ यस्य, दन्त+बलच] हस्ति,
करि, हाथी। दन्तावलि (स्त्री०) रदनराजि, दांत समूह, दशन पंक्ति। (जयो०
१५/२४) 'दन्तावली दाडिमबीजभुक्तिः ' (जयो० ११/६०)
दन्तावलीमधरशोणिमसं भृदङ्का। (जयो० १८/१०२) दन्तावली (स्त्री०) दशन पंक्ति, दन्त समूह। दन्तिम (पुं०) हस्ति, गज। (जयो० ८/१७) दन्तिवो हस्तिनश्च।
(जयो०वृ० १/३८) दन्तुर (वि०) [दन्त+उरच्] दांतेदार, विषम, उन्नतावनत। दन्तुरः (पुं०) दन्ती, हस्ति, गज, हाथी। 'रदाभ्यामपि दन्तुरोऽन्यः'
(जयो०८/१८) दन्तुरित (वि०) [दन्तुर+अरच्] निकले हुए दांत वाला, दांतेदार। दन्त्य (वि०) [दन्त+यत्] दांतों से सम्बन्धित। दन्दशः (पुं०) दांत। दन्दशूक (वि०) [दंश्+य ऊक्] काटने वाला, विषैला। दन्दशूकः (पुं०) १. सर्प, २. काल, यमराज। (दयो० ४०) दभ्/दम्भ (सक०) क्षति पहुंचाना, नष्ट करना, ठगना, उकसाना,
धकेलना। दभ्र (वि०) [दम्भ+रक्] स्वल्प, थोड़ा। दम् (अक०) शान्त होना। दम् (सक०) जीतना, दमन करना, रोकना, वश में करना। दमः (पुं०) [दम्+घञ्] दमन, शान्त, शमन, नियन्त्रण। संयम
मनोज्ञ-अम!ज्ञ इन्द्रिय विषय का रोकना। दमथः (पुं०) [दम्+अथच्] उग्र वृत्तियों को रोकना। दमन (वि०) १. वश में करने वाला, जीतने वाला, दबाने वाला
शमनकारी। २. आत्मसंयम।
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दमनः
४६५
दरवारिधारा
दमनः (पुं०) १. सुभट, वीरयोद्धा। २. पुष्प सहित।
पुष्पे वीरेऽपि दमन: 'सर्वत्र विश्वलोचनः' (जयो०७० २१/३८) दमनैर्नमपुष्पैस्तथा वीरैः समन्वितं समुद्धरत्।
(जयो०वृ० २१/३८) दमनी (स्त्री०) एक औषधी विशेष। सर्वदमन औषधि। दमयन्ती (स्त्री०) [दमयति नाशयति अमङ्गलादिकम्-दम्+णिच्+
शतृ ङीष्] विदर्भ के राजा भीम की पुत्री। दमयित (वि०) [दम्+णिच्+तृच] दमन करने वाला, शमन
करने वाला, निग्रह करने वाला, संयमित। दमित (वि०) [दम्+क्त] शान्त, विजित, जीत युक्त, वशीभूत। दम्पतिः (स्त्री०) [जाया च पतिश्श्च] पति और पत्नी।
(सुद० ११६) दम्पत्योरुभयोर्व्यतीतिमुद्गाद्। (सुद० ११६) दम्भः (पुं०) प्रतारण, (जयो०१/२९) बहाना, ब्याज (वीरो०
२/२) 'दुन्दुभि-निनाद-दम्भाज्जहास हासस्वरं त्वरजः' (जयो० ६/१२७) 'दम्भाद् व्याजात् सत्वरं जहास' २. धोखा, छल, पाखण्ड, जालसाजी, अहंकार, घमण्ड।
'दम्भनं दम्भो वेष-वचनाद्यनुमेयः' दम्भनं (नपुं०) [दम्भ ल्युट्] छल, कपट, धोखा, धूर्तता,
ठगना अहंकार, अभिमान। दम्भवन्त (वि०) छलकरी। (जयो० १४८२) दम्भातीत (वि०) छलरहित। (जयो० २३/९०) दम्भिन् (पुं०) [दम्भ+णिनि] पाखण्डी, छल-कपटी, धूर्त। दम्भोलिः (पुं०) [दम्भ+असुन-दम्भस् तस्मिन् प्रेरणे अलति
पर्याप्नोति] इन्द्र वज्र, एक आयुध।। दम्य (वि०) [दृम्+यत्] धारण करने योग्य, साधने योग्य। दम्यः (पुं०) तत्कालिक उत्पन्न बछड़ा। दय (अक०) १. करुणा होना, सहानुभूति होना, दया आना,
सहृदय होना, सरस होना। २. अच्छा होना, रुचिकर होना। दय (सक०) स्वीकार करना, ग्रहण करना, वितरण करना,
बांटना, देना। दया (स्त्री०) प्राणियों पर अनुकम्पा, करुणा, सहानुभूति, दुःख
का अनुभव करना, सुकुमारता। 'अहो किमु नास्ति दया
तव शस्य' (सुद० ९४) दयाङ्करं (नपुं०) करणा परिणाम, दयाभाव। (जयो०वृ० २२/४७) दयाकूटः (पुं०) योग्यमति, श्रेष्ठबुद्धि। दयाकूर्चः (पु०) योग्यबुद्धि। दयादत्ति (स्त्री०) अभयदान। दयाधनः (वि.) करुणाभाव वाला। (सद० ११४) 'प्रसाध्य
पूजां स्तवनं दयाधन:'(सुद० ११४)
दयाधारिन् (वि०) अभ्युदितानुकम्प, दयाधारक। (जयो००
२०/८४) दयाधीन (वि०) सदय, अनुकम्पा युक्त, करुणा धारक, दया
से परिपूर्ण। (जयो० १२/१०२) दयापर (वि०) अहिंसा धर्म में रत। (जयो० २४/१४) दयाभावः (पुं०) करुणाभाव, अनुकम्पा की भावना। दयाव्रतं (नपुं०) अहिंसाव्रत। दयाशील (वि०) दयालु। दयित (भू०क०कृ०) [दय्+क्त] प्रिय, यथेष्ट, इच्छित, चाहा
गया, वाञ्छित। दयितः (पुं०) पति, स्वामी। 'अहह पार्श्वमिते दयिते द्रुतम्'
(जयो० २/१५६) 'हृद्गतमस्या दयितं न तु प्रयातुं शशाक
सहसाऽक्षि। (जयो० ५/११८) दयिता (स्त्री०) प्रिया। दयोदय (वि०) दयालु। (सुद० १२४) दयोदयं (नपुं०) दयोदय नामक चम्पू, भूरामल कवि द्वारा
रचित अपर नाम आचार्य ज्ञानसागर प्रणीत चम्पूकाव्य। दर (वि०) [दृ+अप्] फाड़ने वाला, १. चीरने वाला, २.
समूह। (जयो०वृ० ५/८९) दरः (पुं०) १. गुफा, दर्रा, कन्दरा, छिद्र। २. भय, डर, त्रास,
३. पत्र (जयो० ११/९५) ४. द्वार-दरवाजा (जयो० ११/९५) दरं (अव्य०) थोड़ा, अल्प, कम, हीन। (जयो० ६/३४) ईषत्
किंचित्। दरणं (नपुं०) [दृल्युट्] तोड़ना, टुकड़े करना, खण्ड-खण्ड
करना। दरणिः (पुं०/स्त्री०) [दु+अनि, दरणि+ङीष्] १. भंवर, आवर्त,
चक्कर धारा, हिलोर। दरद् (स्त्री०) [दृ+अदि] १. हृदय, २. त्रास, भय। (जयो०
१/९४) (जयो० २०/२६) ३. पर्वत, ४. चट्टान, किनारा,
टीला, ढेर। दरदाः (पुं०) एक क्षेत्र। दरिः (स्त्री०) १. गुफा, कन्दरा, घाटी, दरीगृह। (जयो०
२२/१२) गुहा- (वीरो० १२/२०) २. भय (जयो०१/२९) दरदूरग (वि०) भयवर्जित, भय रहित। (जयो० १९/८७) दरमतिः (स्त्री०) भय युक्त बुद्धि। (जयो० ९/४४) दरवलिताङ्ग (वि०) ईषत् वक्रताङ्ग, कुछ वक्र अंग वाला।
(जयो० ६/३४) दरवारिधारा (स्त्री०) १. जरा सी जल धारा, छोटा जल प्रवाह।
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दररूपोच्चकुच
४६६
दर्शन
(वीरो० ९/३४) २. पं० दरवारीलाल की विचारधारा, दर्पभृत् (वि०) उत्साह सहित। (जयो० ३/१४) २०वीं शती के उत्तरार्ध में न्याय दर्शन के क्षेत्र में विख्यात। दर्पलोपी (वि०) मदमर्दनकर, अहंकार नष्ट करने वाला। (वीरो० ९/३४)
(जयो० १०/३८) दररूपोच्चकुच (वि०) किंचित् उठे हुए स्तन, उभरे हुए कुच। दर्पवत् (वि०) अहंकार के समान, अहं युक्त। (सुद० १०५) (जयो० १२/११४)
दर्पापकृति (वि०) निर्मद। दर्पस्य मदस्यावृत्तिरभावा। (जयो० दरिद (वि०) [दरिद्रा+क] निर्धन, गरीब। (दयो० ९) अभावग्रस्त वृ० १८/२२) (सम्य० ७७)
दर्पिका (स्त्री०) बिना कारण वस्तु का सेवन। दरिद्रता (वि०) १. गरीबी, निर्धनता। २. व्यर्थता (जयो०७० दर्पित (वि०) [दृप्+क्त] अभिमानी, अहंकारी, घमण्डी।
२/५९) ३. स्वल्पपरिमाणता (वीरो० २/४०) 'दरिद्रता दर्पिन् (वि०) [दृप्+क्त] अभिमानी, अहंकारी। स्त्रीजनमध्यदेशे।
दम्पतिन (नपुं०) मिथुन। (जयो० १६/३७) दरिद्रा (अक०) निर्धन होना, गरीब होना, कष्टग्रस्त होना, दर्भः (पुं०) [दृ+भ] एक प्रकार की घास हरी कुंपल युक्त ___ अभावयुक्त होना।
दूब। कुशेशया (जयो०वृ० ११/५०) दरिद्रित (वि०) खाली, अभाव युक्त, कष्टगत।
दर्भट (नपुं०) [दृभू+अटन्] स्वकीय कक्ष, अपना कक्षा दरिद्रितहस्त (वि०) खाली हाथ वाला। (दयो० २०) दर्भाङ्करः (पुं०) दर्भ की कूपल, दूब का अग्रभाग। दरीमय (वि०) गुहात्मक। (जयो० २४/२०)
दर्भानूपः (पुं०) दर्भ युक्त भूमि। दरैकधाता (वि०) भयानक। (६/१५)
दर्वः (पुं०) [दृ+व] राक्षस, पिशाच। दर्दरः (०) [दृायद्+ अच्] १. पर्वत, पहाड़।
दर्वटः (पुं०) पहरेदार, द्वारपाल। दर्दरीकः (पुं०) [दृ+यङ्+ईकन्] १. मेंढक, २. बादल, मेघ। । दर्वरीकः (पुं०) १. इन्द्र, २. वायु, हवा। ३. वाद्ययन्त्र विशेष।
दर्विका (स्त्री०) [दर्वि+कन्+टाप] कड़छी, चमचा। दर्ददीकं (नपुं०) एव वाद्ययन्त्र विशेष।
दी (स्त्री०) कड़छी, चमचा। दर्दुरः (पुं०) [दृ-यङ्-उरच्] १. मेंढक, २. मेघ, बादल। दर्शः (पुं०) [दृश्+घञ्] दृश्य, दृष्टि, दर्शन, अवलोकन। ___ प्लवङ्ग (वीरो० ४/८) ३. पर्वत, पहाड़।
दर्शकः (पुं०) अलकानगरी का राजा। (समु० ५/२०) ददुरदोषः (पुं०) शब्द कहते हुए वन्दना करना।
दर्शक (वि०) [दृश्+ण्वुल] देखने वाला, अनुष्ठान करने दर्दुः (स्त्री०) दाद, चर्मरोग। (जयो० २/४, कुष्ठविकार (जयो०वृ० वाला। दृष्टुमिच्छद्भिः कतिपयैः (जयो०५/२) (जयो०वृ० १८/२२)
१०/११४) दर्पः (पुं०) [दृप्+घञ्] १. अहंकार, (वीरो० १/३४) दो दर्शकः (पुं०) १. प्रदर्शन, २. द्वारपाला
वलकृत। घमण्ड, अभिमान धृष्टता। (जयो० ३/१०५) दर्शन-संचयः (पुं०) दर्शक समूह। (सुद० १०७) दो निष्कारणोऽनादरः गर्व, दम्भ, ०रोष, विक्षोभ। २. | दर्शनं (नपुं०) [दृश्+ल्युट्] १. देखना, अवलोकन करना गर्मी, ३. कस्तूरी।
(जयो० ३/३४) निरीक्षण करना। २. जानना, चिंतन दर्पकः (पुं०) [दृप्+णिच्+ल्युट] मदन, कामदेव। (जयो० करना, समझना। ३. नयन, अक्षि, आंख। ४. निरीक्षण, ३/२३, ५/२४)
परीक्षण। ५. सम्मुखीकरण, सम्मुख होना। ६. विवेक, दर्पकरः (वि०) अहंकारी, अभिमानी। (सुद० १३१)
सूझ-बूझ। ७. निर्णय, अवबोध। दर्पकारी (वि०) अहंकारी, अभिमानी।
० तत्त्वश्रद्धान, विश्वास। (सम्य० ५) दृश्यन्ते-श्रद्धीयन्ते दर्पण: (पुं०) शीशा, आयना। (सम्य० १५३) मुकुर, आदर्श। पदार्था अनेना स्मादस्मिन् वेति दर्शनम्। __ (जयो० ३/७५) सुद० १२५
० दृष्टिा दर्शनम् (सुद० ९८) दर्पणं (नपुं०) १. अक्षि, २. जलन।
० तत्त्वश्रद्धान रूप आत्मपरिणाम (सम्य० १२४) दर्पणखण्डः (पुं०) काचांश। (जयो०वृ० १५/२६)
० दर्शन विशोधक प्रवृत्ति। दर्पणतलं (नपुं०) शीशा का भाग। (सम्य० १५३)
० तत्त्वार्थ श्रद्धान।
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दर्शनक्रिया
४६७
दल
० तत्त्वराचका
दर्शनयोग्यः (पुं०) दृश्य योग्य, देखने योग्य। 'दृश्यो दर्शनयोग्यः' ० सम्यग्दर्शन (सम्य० पृ०६)।
(जयो०वृ० १५/२६) ० उपयोग रूप-जं सामण्णग्गहणं दसमेयं।
दर्शनयोग्यः (पुं०) शंकादिदोष रहित तत्त्वार्थश्रद्धान, परमार्थ ० अनाकार दर्शनम्।
श्रद्धान सप्त तत्त्व सम्बंधी विनय। ० सामान्यावबोध।
दर्शनरुचिः (स्त्री०) १. तत्त्व श्रद्धान, २. अवलोकन के प्रति ० आत्मविषयक उपयोग।
लगाव (जयो०७० ३/४१) श्रद्धानरुचि, श्रुतज्ञान रुचि। ० स्वरूप ग्रहण-सामान्य और विशेषण का ग्रहण।
'पदार्थश्रद्धाने नि:शङ्कितत्त्वादिलक्षणोपेतता दर्शनविनयः' ० अवलोकनवृत्तिर्वा दर्शनम् (जयो० १/१६६)
(त०वा० ६/२४) ० स्वरूपसंवेदनं दर्शनम्।
दर्शनशुद्धः (पुं०) सम्यक्त्व के अष्ठ गुण से युक्त। ० वस्तुमात्रग्राहकं दर्शनम्।
दर्शनसमाधिः (स्त्री०) धर्मध्यानादि युक्त समाधि। ० सामान्यग्राहि दर्शनम्।
दर्शनाचारः (पुं०) सम्यक्त्व परिपालन। • सामान्यस्यावलोकनं दर्शनम्।
दर्शनावरणं (नपुं०) तत्त्वार्थ श्रद्धान की प्रतीति न होने देना। ० आत्मविषयक उपयोग।
दर्शन गुण के आवरक कर्म। दर्शनावरणस्य अर्थानालोचनम् ० दर्शनोपयोग विशेष।
(स०वा० ८/३) 'दंसणस्स आवरणं कम्मं दसणावरणीयं' दर्शनक्रिया (स्त्री०) देखने की अभिलाषा, अवलोकनाभिप्राय, (धव० १३/२०८) ___ स्वरूपावलोकन।
दर्शनार्यः (पुं०) सम्यग्दर्शन से सम्पन्न आर्य। दर्शनगत (वि०) दर्शन को प्राप्त हुआ।
दर्शनिक (वि०) परमेष्ठि-पथानुगामी श्रावक। दर्शनगामी (वि०) श्रद्धागामी।
दर्शनीय (वि०) सुन्दर, सुहावना, मनोहर, रमणीय, इष्ट, दर्शन-ज्योतिः (स्त्री०) दृष्टि की कान्ति।
योग्य, अभीष्ट, देखने योग्य, अवलोकन करने योग्य, दर्शनपण्डितः (पुं०) क्षायिक, क्षायोपशमिक, या औपशमिक मंगल को अभिव्यक्त करने वाला दर्शनीय है। (जयो०७० में परिणत पण्डित।
३/८४) दर्शनपण्डितमरणं (नपुं०) सम्यक्त्वपूर्वक मरण।
दर्शनीय-कल्पः (पुं०) देखने योग्य पदार्थ। (दयो० ६६) दर्शनपुलाकः (पुं०) मिथ्यादृष्टियों का प्रशंसक साधु।
यस्यास्ति वित्तं स नरः कुलीनः कृतज्ञ एवं श्रुतिमान् दर्शनप्रतिमा (स्त्री०) ग्यारहवीं प्रतिमा में प्रथम, जिसमें शंकादि प्रवीणः। स एव वक्ता। स च दर्शनीयः स्वर्णे गुणस्तत्र शल्यों से रहित निर्मल सम्यग्दर्शन का भाव हो।
मितोऽनणीयः।। (दयो० ८२) दर्शनकाल: (पुं०) तत्त्वार्थ श्रद्धान से रहित। 'मिथ्यादृष्टयः दर्शनोपयोगः (पुं०) आत्म विषयक उपयोग।
सर्वथा तत्त्वश्रद्धानरहिताः दर्शनबालाः'। (भ०आ०टी० २५) दर्शयति-वर्तमान काल लट्लकार दिखलाता है। (जयो० ४/५५) दर्शनबालमरणं (नपुं०) अतत्त्वश्रद्धान पूर्वक विरुद्ध आहार या 'तटभागं दर्शयति प्रकटयति'। विषादि द्वारा घात करना।
दर्शयित (वि०) [दृश्+णिच्+तृच्] ०द्वारपाल, पहरेदार, दर्शनबोधिः (स्त्री०) सम्यग्दर्शन का बोध, सम्यक्त्वपूर्वक दौवारिक, ०ढ्यौद्रीवान, संतरी, कौचवान, ०मार्ग दर्शक।
दर्शित (वि०) [दृश्-णिच्+क्त] प्रदर्शित, प्ररूपित, देखा दर्शनमोहः (पुं०) शुद्धात्मादि तत्त्वों के विपरीत अभिनिवेश, | ___ गया, अवलोकित, व्याख्यात, सिद्ध, प्रसिद्ध, भाषित।
(सम्य० ५९) तत्त्वार्थश्रद्धान रूप दर्शन को मोहित करना। दर्शिनी (स्त्री०) साक्षिणी, तरतमभावेन सौन्दर्यसाक्षणी शोभाम्, 'दर्शनं मोहयति मोहनमात्रं वा दर्शनमोहः' (ल०श्लो० शोभा शालिनी। (जयो०वृ०८/१२०) ८३)
दल (अक०) फटना, टूटना, ध्वंस होना, प्रसार होना, खिलना, ० दर्शनमोहस्य, प्रकृतिः तत्त्वार्थश्रद्धानम्। (त०वा०६/३) विकसित होना। • शुद्धात्मादितत्त्वेषु विपरीताभिनिवेशजनकमोहो दर्शनमोहो दल (सक०) फाड़ना, काटना, बांटना, दल करना, चूर्ण मिथ्यात्वम्' (वृ० द्रव्यं सं० टी० ४८)
करना, पीसना। दलयन्त (जयो० १३/११)
लाभ।
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दलः
४६८
दशयोजनं
दल: (पुं०) [दल्+अच्] १. अंश, भाग, टुकड़ा, खण्ड, २. यस्य तत्त्वं शंसतीत्येवमेष' (जयो० ११/१४) 'दशत्वं उपाधि, ३. पुंज, राशि, ढेर, टुकड़ी, टोली। ४. पत्र।
तच्छंसो' (जयोवृ० ११/१४) दलकोषः (पुं०) कुन्दलता।
दशधर्मः (नपुं०) एक हजार। (समु० २/२०) दलजातिः (स्त्री०) पत्र जाति। 'या खलु लोके फलदलजाति दशधाशतं (पुं०) क्षम्मदि दशधर्म। र्जीवननिर्वहणाय निभाति' (सुद० १३१)
दशधा (अव्य०) [दशन्+धा] दश प्रकार का, दस अंशों का। दलनं (दल्+ल्युट्) फाड़ना, तोड़ना, काटना, पीसना, मसलना, स्वर्णमेव कलितं सुकृतायं स्यादिहेति दशधा दुरूपाय। (जयो० कुचलना, विदीर्ण करना।
२/१०१) 'दशधा दशप्रकारं दानं प्रोक्तम्' (जयो०७० दलनिर्मोकः (पुं०) भोजपत्र पादप।
२/१०१) दलप: (पुं०) शस्त्र, १. सोना, २. शास्त्र।
दशध्वजा (स्त्री०) दस प्रकार की ध्वजाएं। (जयो०१० २६/५७) दलपुष्पा (स्त्री०) केवड़े का पादप।
दशन (पुं०) दांत, दन्त। (दयो० ८६) दललता (स्त्री०) पत्रावली, पत्रोपलक्षितवत्ली। (जयो० १५/८२) दशनं (नपुं०) (जयो०८/३०) १. पर्वत शिखर। २. कवच। दलश: (अव्य०) [दल्+शस्] टुकड़े-टुकड़े करके, पीस दशनछदः (पुं०) ओष्ठ, होंठ। करके, हिस्से करके।
दशनपदं (नपुं०) दन्त चिह्न, दांत से काटने पर जो चिह्न हो। दलसङ्कप्लः (पुं०) पल्लवप्रपञ्च, पत्र समूह। (जयो० १२/५) दशनबीजः (पुं०) दाडिम तरु, अनार का वृक्ष। 'दलसङ्कल्पेन पल्लवप्रपञ्चेन'
दशनवसनं (नपुं०) अधरोष्ठ। (जयो० ६/६४) दलित (भू०क०कृ०) [दल्+क्त] टूटा हुआ, भ्रंश हुआ, दशनवायस् (नपुं०) होंठ। ___ मसला हुआ, विदीर्ण किया हुआ, पतित, भ्रंश, अपभ्रंश। दशनांकः (पुं०) दांत के चिह्न। दल्भः (पुं०) [दल+भ] १. चक्र, पहिया, चाक, २. धोखाधड़ी, दशनांशुः (स्त्री०) दांतों की शोभा। 'दशनानां दन्तानामंशभिः ३. पाप।
किरणैः' (जयो० १४/३५) दवः [दु+अच्] अरण्य, वन, जंगल। १. दवाग्नि, दावानल दशनि (पुं०) दन्ति, हस्ति, हाथी। (जयो० १२/८०) (भक्ति० २५)
दशनी (स्त्री०) दशवाँ दिन। दवज्वाला (स्त्री०) दावाग्नि। (दयोc ७६)
दशपदं (नपु०) दश कदम। दवथुः (स्त्री०) [दु+अथुच्] १. अग्नि, आग, २. गर्मी, दशपूर्वी (वि०) दश पूर्व ग्रन्थ का ज्ञाता, विद्याधर श्रमण। उष्णता, ३. दुःख, पीड़ा, चिन्ता।
दशबलः (पुं०) बुद्ध। दवदानं (नपुं०) अग्नि प्रज्वलित करना।
दशभूमिगः (पुं०) बुद्ध। दववह्निः (स्त्री०) दावानल, वृंहण। (जयो० १३/५०) दशमसर्गः (पुं०) दसवां अध्याय। दविष्ठ (वि०) [दूर+इष्ठन्] अधिक दूर वाला।
दशमी (वि०) एक दश संख्या की तिथि वाला दिन। दवीयस् (वि०) [दूर+ईयसुन्] अधिक दूर।
दशमीतिथि: (स्त्री०) दशमी का दिन, मार्गशीर्ष मास की दवीयसी (वि०) दीर्घता। (जयो० २१/६९)
तिथि, कृष्ण दशमी-मार्गशीर्षस्य मासस्य कृष्णा सा दवोपतापः (पुं०) दावानल का संतापा (भक्ति. २५)
दशमीतिथि:' (वीरो०१०/२६) धूप दशमी, सुगन्धदशमी। दशक (वि०) [दशन् कन्] दश से युक्त, दशगुना। दशमीप्रतिमा (स्त्री०) श्रावक की दशमी प्रतिमा, जिसमें दशकं (नपुं०) दश का योग।
अपने निमित्त बने हुए आहार के खाने दस मास तक दशत् (स्त्री०) [दशन्+अति] दशक, दश का योग।
त्याग किया जाता है। दशन् (पुं०) संख्यावाची विशेषण, दस संख्या!
दशमुखः (पुं०) रावण। दशककष्ठः (पुं०) रावण।
दशमूलं (नपुं०) दशमूल स्थान। दशकन्धरः (पुं०) रावण।
दशमूलारिष्टः (पुं०) एक औषधि, जिसमें दश प्रकार की दशतय (वि०) [दशन्त यम्] दस गुना।
औषधियों का मिलाकर काढ़ा बनाया जाता है। दशत्वशंस (पुं०) दस संख्या का सूचक। 'दशेव दशाऽवस्था | दशयोजनं (नपुं०) दस योजन का प्रमाण, चार कोश का एक
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दशरथः
४६९
योजन माना गया। तपस्या-माहात्म्यात् दशयोजन-पर्यन्त
सुगन्धदायी पुरीष: समभूदिति' (दयो० ३१) दशरथः (पुं०) अयोध्याधिपति राजा। सूर्यवंशीय भूपालो
रथोऽभूद्दशपूर्वकः। (वीरो० १५/२३) दशरथ। दशरश्मिशतः (पुं०) दिनकर, सूर्य। दशरात्रं (नपुं०) दस रातों का समय। दशरिपुः (पुं०) राम। दशरूपभृत् (पुं०) विष्णु। दशवक्त्रः (पुं०) दशमुख। दशवदनः (पुं०) दशमुख। दशवाजिन् (पुं०) चन्द्र, शशि। दशवाषिक (वि०) दस वर्ष तक रहने वाला। दशविध (वि०) दस प्रकार का। दशवैकालिकं (नपुं०) एक आचार-विवेचक आगम, दस
अध्ययनों में साधक के आचार-विचार एवं व्यवहारादि क्रियाओं का ग्रन्थ/ दसवेयालियं आयार-गोयरविहिं वण्णेइ' (धव० १/९७) विशिष्टाः काला विकालास्तेषु भवानि वैकालिकानि वर्ण्यन्तेऽस्मिन्निति दशवैकालिकम्, तत्साधूनामाचार-गोचर-विधिं पिण्डशुद्धि-लक्षणं च वर्णयति'
(गोम्मट्टसार जीवकाण्ड) दशशतं (नपुं०) १. एक हजार, २. एक सौ दश। दशशती (स्त्री०) एक हजार संख्या। दशसहस्रं (नपुं०) दस हजार। दशरस्थ (वि०) शताब्दी के अंतिम दश वर्ष। दशहरा (स्त्री०) गंगा। दशा (स्त्री०) [दंश्+टाप्] १. अवस्था, जीवन, आयु, काल।
स्थिति। लतेव सम्पल्लवभावभुक्ता दशेव दीपस्य विकासयुक्ता (वीरो० १/१९) 'अनुभूता शतशोमयाऽहो दशा परिभ्रमणस्य' (सुद० ९४) ० परिणति-परिणाम सम्यग्ज्ञान-चरित्रलक्षणवृषं प्राप्तस्य चैष दशा' (मुनि० १६) ० वर्तिका, वत्ती (जयो० ६/१३) नि:स्नेहजीवनतयापि तु दीपकस्य संशोच्यतामुपगतास्ति दशा प्रशस्य। (जयो०१८/४१) ० गोट, झालर, मगजी। ० मनस्थिति, मनोदशा। ० कर्मपरिणति
० ग्रहस्थिति। दशाकर्षः (पुं०) वस्त्र का छोर, दीपक की बत्ती। दशार्णः (पुं०) दशार्ण देश। (वीरो० १५/२०)
दशार्णा (पुं०) एक देश। दशानि ऋणानि दुर्गभूमयो वा यत्र। दशानुवर्तिन् (वि०) अवस्था के अनुसार, प्रवर्तित (वीरो०
१२/२७) दशाधिकारी (वि०) दस रूपता को प्राप्त, दस अवस्था जन्य।
(जयो० १/५६) दशान्तर (नपुं०) द्वेष। 'दशान्तरमपि द्वेषोऽपि' (जयो० २५/६९) दशास्यः (पुं०) दशानन्, रावण। (वीरो० १७/२९) दशार्णेशः (पुं०) दशार्ण देश का नरेश। (वीरो० १५/२०) दशिन् (वि०) [दशन्+इनि] दक्ष रखने वाला। दशेर (पुं०) धातक जन्तु, विषैला जन्तु। दशेरकः (पुं०) उष्ट्र शावक। दस्युः (पुं०) १. चोर, लुटेरा, उचक्का, २. बहिष्कृत, विद्रोही,
कर्तव्यच्युत। दम्र (वि०) [दस्यति पांसून, दस्+रक्] भीषण, भयानक,
दु:खदायक। दृह् (सक०) १. जलाना, समाप्त करना, भस्म करना। ___दहति-भस्मसात्करोति (जयो० ६/२९) नष्ट करना। २.
सताना, कष्ट देना, पीड़ा उत्पन्न करना,दहन्ति (सुद०) दहनः (नपुं०) १. अग्नि, आग। (जयो० ८/५२) २. कबूतर,
३. कुकर्मी। दहनं (नपुं०) [दह ल्युट्] जलाना, भस्म करना। दहनं
प्रतीतमूल्मुकादिभिः, ३. पवनवेग, वायु प्रवाह। दहनकेतनः (पुं०) धूम, धुंआ। दहनप्रियाः (स्त्री०) स्वाहा। दहनशील (वि०) जलाने वाला। दहनीय (वि०) जलाने में सक्षम। (दयो०६०) दहर (वि०) [दह+अर] रंचमात्र, थोड़ा भी, सूक्ष्म, थोड़ा सा,
किचित् भी। दहरः (पुं०) १. शिशु, बालक। २. लघु भ्राता, छोटा भाई। ३.
चूहा, मूषक। ४. हृदय। दा (सक०) देना, प्रदान करना, स्वीकार करना, ग्रहण करना।
अंगीकार करना। 'एषा परिचयं ददामीत्यर्थः' (जयो०७० ५/५३) अदायि-दत्त (जयो० ३/२२) दे- (सुद० ७३) दत्वा (सु० ७१) दांतु- (सुद० ७८, सुद० १२५) आददीन-(सुद० ४/४२) काचिद् भुजोऽ दादिह बाहुबन्धं योग्यानि वस्तूनि तदा प्रदाय। (वीरो० ५/१६) 'दत्वा निजीयं हृदयं तु तस्यै प्रगे ददौ दर्पणमादरेणं' (वीरो० ५/९) देयं (सुद० १२४, ददौ-९५)
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दाकर्णः
४७०
दानवः
दाकर्णः (पुं०) ध्यान देना, अच्छी तरह सुनना। दाचक्षुः (नपुं०) ताली बजाना। दादर्शनं (नपुं०) अपने आपको प्रदर्शित करना। दाक्षायणी (स्त्री०) [दक्ष्+फिञ्+ङीष्] एक नक्षत्र विशेष। दाक्षाप्यः (पुं०) [दक्ष् अप्य अण्] गिद्ध पक्षी। दाक्षिण (वि०) [दक्षिणा+अण्] उपहारक, प्रदत्तक। दाक्षिणं (नपुं०) दक्षिणाओं का संचय। दाक्षिणात्य (वि०) [दक्षिणा+त्यक] दक्षिण दिशा से सम्बन्ध
रखने वाला। दाक्षिणिक (वि०) दक्षिणा सम्बंधी। दाक्षिण्यं (नपुं०) [दक्षिण+ष्यञ्] निपुणता, चतुरता, नम्रता।
गम्भीरता, धीरता। 'गाम्भीर्यधैर्यमचिवो मात्सर्य विघाकृत्
परमः' १. दक्षिण से सम्बन्ध रखने वाला। दाक्षी (स्त्री०) [दक्ष इञ्+ङीष्] दक्ष की पुत्री। दाक्षेयः (पुं०) [दाक्षी ठक्] एक नाम विशेष। दाक्ष्यं (नपुं०) [दक्ष+ष्यञ्] कुशलता, चतुराई, उपयुक्तता। दाघः (पुं०) [दह्+घञ्] जलन। दाडकः (पुं०) दांत, हस्ति दन्त। दाड्यः (पुं०) प्रजा। (वीरो० १८४६) दाडिमः (पुं०) अनार का वृक्ष, करकफल। (जयो० १४/१८) दाडिम्बः (पुं०) अनार का वृक्षा दाडिम-फलं (नपुं०) करकफल। (जयो० १८/१०१) दाडिमबीजं (नपुं०) अनार के बीज। (जयो० ११/६०) दाढा (स्त्री०) [दा+क्विप्-दा+ढौक्+दु+टाप्] १. बड़ा दांत,
दाढ़, २. समुच्चय। ३. कामना इच्छा, वाञ्छा, चाह। दाढिका (स्त्री०) [दाढ+कन्+टाप्] दाढ़ी। दाण्डाजिनिक (वि०) [दण्डाजिन ठञ् मृगछाल। दाण्डिक (वि०) दण्ड देने वाला। दात (वि०) [दर+क्त] काटा हुआ, बांटा हुआ, विभक्त
किया, धोया हुआ। दातिः (स्त्री०) [दा-क्तिन्] देना, काटना, नष्ट करना। दातुं -देने के लिए। (सुद० ९८) दातृ (वि०) [दा+तृच्] देने वाला, दाता, प्रदाता। (मुनि० १०)
(जयो०वृ० १/३) दात्यूहः (पुं०) [दाति ऊह्+अण्] जलकुक्कुट, चातक पक्षी। दानं (नपुं०) [दा+ष्ट्रन्] दराती, हंसिया, दांती, चाकू। दादः (पुं०) [दद्+घञ्] दान, उपहार। दान् (सक०) काटना, टुकड़े करना, विदीर्ण करना, ध्वंस
करना, नष्ट करना, क्षय करना।
दानं (नपुं०) [दा+ल्युट्] १. देना, त्याग (जयो० १/४२)
स्वीकार करना, ग्रहण करना, प्रदान करना, समर्पण
करना, सौंपना। (सुद० ३/६) ० उपहार, भेंट, प्राभृता ० उदारता, दानशीलता ।(जयो० २/७२) ० अतिसर्ग-अनुग्रहार्थं स्वस्यातिसगों दानम्। (त०सू० ७/३३) • परानुग्रह बुद्धि-अतिसर्जन। ० स्व-पर-उपकारार्थ अनुग्रह ० स्ववित्त परित्याग। ० कार्यवश/स्वार्थवश वस्तु/पदार्थ/धन प्रदत्ति। ० प्रयच्छन (जयो० २/१०६) मदधारा संशृखल: स्वस्य पदानुवृत्यादानं ददौ कुञ्जराज एकः।
(जयो०१३/११०) यथा पद्धति दानं मदं, ददौ-विससर्ज। ० नवधाभक्तिो दान। (हित० ५०) ० वृत्तिपरित्याग (हि० ४९)
अहो दानमहो दाताऽहो पात्रस्य परिस्थितिः।
अहो विधानमप्येताद्विश्व-कल्याणहेतवे।। (दयो० ११७) दानकर्ता (वि०) दत्तिकृत्, दान देने वाला। दानधरः (पुं०) मदधर, हस्ति, दन्ति (जयो० २३/४४) (जयो०
८/१७) दानधर्मः (पुं०) दान करने का धर्म। (समु० ४/६) दानधारी (वि०) दान लेने वाला। दानपतिः (पुं०) उदार पुरुष। दानपत्रं (नपुं०) दान लेख, अनुदान, उपहार का उल्लेख,
गुल्लक, दानपेटी। दानपात्रं (नपुं०) दान देने योग्य। नवधाभक्तितो दानं तपस्विभ्यः
प्रदीयते। सौहार्दमात्रतोऽन्येभ्यो देशकालानुसारतः।। (हित० सं० ५०) ठकाय दत्तं ह्यतिलोभतो गतं सकात्समायाति विवृद्धय तद्धितमे स्थले समुप्तं शतशः फलत्यरं तथैव पात्राय समर्पित वरम्।। (दयो० ११८) यतिः स्यादुत्तमं पात्रं वानप्रस्थस्तु मध्यमम्। जघन्यमन्य एताभ्यामपात्रं
त्वतिगार्हितम्।। (दयो० ११८) दानपुरस्सरः (पुं०) प्रदत्त कर ग्रहण, दान का मान। (जयो०
१२/१३७) दानभिन्न (वि०) रिश्वत देकर फोड़ा गया। दानमयप्रवृत्तिः (स्त्री०) दान युक्त भाव। (सुद० २२) दानमोदः (पुं०) दान में आनंद। दानवः (पुं०) [दनो अपत्यम् इन्+अण्] राक्षस, पिशाच।
(जयो० ४/८)
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दानवारि
४७१
दारसारः
दानवारि (नपुं०) दान देने योग्य जल।
दापयामि दिखलाता हूं, दिलवाता हूं। दानवारि (वि०) दानवों को शत्रु।
दापितवान् (वि०) दिलवाई गई। (वीरो० ७/६) दानवीरः (पुं०) दान में प्रवीण, परमदानी। (सुद० २/३९) दायक (वि०) देने वाला। दत्तं दायकः। दानवेयः (पुं०) दानव, राक्षस, पिशाच।
दायितं (वि०) [दा+णिच् क्त] प्रदत्त किया गया, दिलाया दानशालिता (वि०) दान देने में तल्लीनता। निरीक्ष्य माताऽस्य गया, लगाया गया, २. अधिन्यस्त, प्रदत्त।
च दानशालितां निषेधयामास दुरीहिताञ्चिता। (समु० ४/७) दामः (पुं०) माला। (जयो० ) हार। दानशीलत्व (वि०) दान शीलता। (जयो० १/१२)
दामक्षेपणं (नपुं०) माल्यार्पण। (जयो० ३/६) दानार्थ (वि०) दान के निमित्त। (जयो० १/४२) संकल्प
दामनीतिः (स्त्री०) एक नीति विशेष। (जयो० २/१) ___ कारिजलयुक्त दान।
दामन (नपुं०) [दो+मनिन्] १. धागा, डोरी, रस्सी, फीता। २. दामार्चनं (नपुं०) दान पूजा। (समु० ४/२९)
___हार, पुष्प, गुच्छा, माला गुलदस्ता। (जयो० ४/३१) दानानुकूलः (पुं०) दान के योग्य। (दयो०६१)
दामिनी (स्त्री०) [दामन+अण्+ङीप्] मालावती। १. महाकच्छ दानाभियुक्त (वि०) दान से प्रेरित।
के राजा की रानी। विद्युत, बिजली। (समु० २/१२) दानार्ह (वि०) दान के योग्य।
दाम्पत्य (पुं०) [दम्पती+यक्] विवाह, परिणय, पतिपत्नी का
सम्बंध। दानिन् (वि०) दान देने वाले। 'किमिदानीं न दानिन् रसं यामि'
दाम्भिक (वि०) [दम्भ+ठक्] १. पाखण्डी, ठगी करने वाला, _(सुद० ७३)
अभिमानी, घमण्डी। २. धोखेबाज, अभिमानी। ३. आडम्बर दानु (पुं०) दानव, दैत्य। (जयो० १/३७)
प्रिय, ढोंगी। दानुश्रितधाम (नपुं०) दानव के आश्रित स्थान/घर। 'दानुभिदैत्यैः
दायः (पुं०) [दा+घञ्] १. दान, उपहार, भेंट, समर्पण, श्रितं धाम तत्तामिति' (जयो०वृ० १/३७)
बांटना, वितरण करना। २. हानि, विनाश, क्षय, घात। ३. दान्त (भू०क०कृ०) [दम्+क्त] जयी, (भक्ति० २२) १.
स्थान, गृह, घर। विजयी, शान्त, संयमित, इन्द्रियजयी, वशीभूत, आधीन,
दायिका (स्त्री०) स्वीकृति, दत्ति, प्रदत्ति, प्रतिग्रहण। नियन्त्रित, दमित, निग्रहीत, वश में किया हुआ। २.
दायक-दोषः (पुं०) १. प्रदत्ति दोष। २. आहारादि प्रदान करने पालतू, ३. त्यक्त। ४. उदार।
में दोष। दान्तः (पुं०) १. पालतू बैल, २. दानी, ३. दमनक तरु। ४.
दायकशुद्धः (पुं०) दाता की उदारता से दिया गया दान। दान्त नामक आर्यिका, जिनशासन में दीक्षित एक
दारः (दृ+घञ्) १. दरार, रिक्ति, छिद्र, २. जुता हुआ खेत। साधनाशील आर्यिका। (समु० ४/१६) अथैव
३. स्त्री (सुद० १२३) दान्तहिरण्यसम्मती शुभार्यिकाभ्यां प्रतिबोधितासती।
दारक (वि०) १. फाड़ना, जोतना, फैलाना, टुकड़े करना। (समु० ४/१६)
विदारक। (जयो० २५/२७) २. स्वामी का उत्कर्ष बढ़ाने दानभर (वि०) माल्यमण्डप। (जयो० १४/४४)
वाला। दान्तमतिः (स्त्री०) दान्तमति नामक आर्यिका। सदार्यिका दारकः (पुं०) पुत्र, सुत, लड़का, शिशु, बालक, बेटा, बिटआ, दान्तमतिः प्रतीयते गतार्यिकात्वं च ततोऽम्बिका चते।
वत्स। करोति. नारी जनरत्रसार्थकं विना व्रतैजीवनमस्त्या-पार्थकम्।। | दारकी (स्त्री०) पत्री। (समु० ४/३२)
दारणं (नपुं०) [दृ-णिच् ल्युट्] चीरना, फाड़ना, खण्ड करना, दान्तिः (स्त्री०) [दम्+क्तिन्] आत्म संयम, इन्द्रिय संयम, टुकड़े करना। मन संयम, आत्मानुशासन, आत्म-नियन्त्रण।
दारदः (पुं०) [दरद्+अण्] १. पारा, २. समुद्र। दान्तिक (वि०) [दन्त ठञ्] दांत से बना हुआ, दांत से दारवरः (पुं०) स्त्रीजन। यादृङ् नरे जगति दारवरेऽपि तादृक्
निर्मित। ० दमन करने वाला, इन्द्रिय संयम करने वाला। भूयात् क्रमः किमिति नेति महात्मनां दृक्। दापना (स्त्री०) दिलाना, शय्यादि प्रदान करना।
दारसारः (पुं०) दाररत्न, स्त्रीरत्न। (वीरो० २२/१०) (जयो० दार्फवाहन: (पुं०) दार्फवाहन नामक राजा। (वीरो० १५/२८) २७/६६)
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दाररत्नः
४७२
दासी-पोषक
दाररत्नः (पुं०) स्त्रीरला
दार्षद (वि०) [दृषद्+अण्] प्रस्तर खण्ड से निर्मित। १. दारदं (नपुं०) सिन्दूर।
खनिज सिल पर पिसा हुआ। दारा (स्त्री०) महिला, नायिका। (सुद० १) (जयो० १६/२१, दार्टान्त (वि०) [दृष्टान्त अण्] व्याख्यायित, उदाहरण देकर २१)
समझाया गया। दारिका (स्त्री०) १. पुत्री, सुता, दुहिता, बालिका, बाला, दालीसंयोगिता (वि०) दाल का संयोग। (जयो०० २८/३४) बच्ची, छोटी, लड़की। २. वेश्या।
दावः (पुं०) [दुनाति-दु+ण] अरण्य। दारान्तरायः (पुं०) परस्त्री अपहरण। (जयो० ७/४३) दाव-दहनः (पुं०) अरण्याग्नि। दारित (वि०) [दृ+णिच्+क्त] विभक्त, विभाजित, विदीर्ण, दावाग्निः (स्त्री०) जंगल की आग। खण्डित, चीरा गया।
दावानलः (पुं०) जंगल की आग, वृंहण। (जयो०वृ० १३/५०) दारासारः (पुं०) रानी, श्रेष्ठ नायिका। (जयो० २/४३) दावैकनाथः (नपुं०) वन निवासक। दारिद्रय (वि०) [दरिद्र+ष्यञ्] निर्धनता, गरीबी, अर्थाभाव, दाशः (पुं०) [दशति हिनस्ति मत्स्यान्] मछुआरा, मछली धनाभाव। (सुद० १२०)
पकड़ने वाला। धीवर। (जयो०वृ० १/४०) दारी (स्त्री०) [दृ+णिच+इन+ ङीष्] १. दरार, छिद्र, २. एक दाशग्रामः (पुं०) मछुआरों का गांव। रोग।
दाशकन्दिनी (स्त्री०) माता सत्यवती, व्यास ऋषि की माता। दारु (वि०) चीरने वाला, फाड़ने वाला।
दाशरथ/दाशरथि (पुं०) दशरथ का पुत्र राम या अन्य तीनों दारुः (नपुं०) १. लकड़ी, २. गुटका, ३. चटखनी। (जयो० भाई। १. राम। (समु० ४/१०) (दयो० ९३)
८/१७) काष्ठ (वीरो० ८/२३) देवदारु वृक्ष, कच्चा दाशार्हाः (वि०) [दशाह+अण] दशाह के वंशज, यादवकुल। लोहा।
दाशेरः (पुं०) [दाश+दृक्] मछुआरे का लड़का। १. मछुआरा, दारुकः (पुं०) देवदारु वृक्ष।
२. ऊँट। दारुगर्भी (वि०) काष्ठ पुत्तलिका, लकड़ी की पुतली। दार्शरकः (पुं०) [दाशेर+कन्] मालव देश। दारुदित (वि०) काष्ठ निर्मित। (सुद० १२३)
दाशेरकाः (वि०) मालव देश के रहने वाले। दारुजः (पुं०) ढोल।
दासः (पुं०) [दास्+अण्] भृत्य, नौकर, सेवक (सुद० २/१, दारुण (वि०) कठिन, कठोर, निर्दय, भयंकर। (जयो० १/२६) जयो० १/१०) दासो मूल्य क्रीतः (सुद० ३/४७) दारुणोङ्कित (वि०) भयंकर चेष्टा।
० तुच्छ, हीन। निम्न 'दासस्यास्ति सदाज्ञस्यासौ दारुपात्रं (नपुं०) लकड़ी पात्र, काष्ठपात्र, लकड़ी का बर्तन। स्वामिजनान्वितिरिति चरणेन। (सुद० ३२) दारुयन्त्रं (नपुं०) काष्ठ पुत्तिलिका, लकड़ी का यन्त्र।
० आधीन, वशीभूत (सम्य०७०) (सुद० ४/१४) नार्थस्य दारुविदारक (वि०) लकड़ी भेदक, धुन, एक कीट विशेष, जो दासो यशसश्च भूयात्। (वीरो० १८/३४) इन्द्रियाणं तु यो लकड़ी को भेद डालता है। (जयो०१/७१)
दासः स दासो जगतां भवेत्। (वीरो० ८/३७) दारुसंभरः (पुं०) काष्ठनिचय। (जयो० १३/५१)
दासजनः (पुं०) क्षुद्रजन, सेवक जन। दारुसारः (पुं०) १. चदन, २. लकड़ी का बुरादा।
दासता (वि०) आधीनता। (जयो० २/२०) वीरो०६/२७) दारुसंग्रहः (पुं०) काष्ठोदय (जयो०वृ० १५/६७)
दासपदं (नपुं०) भृत्यस्थान। १. क्षुद्र स्थान। दारुहस्तकः (पुं०) लकड़ी का चम्मच।
दासभावः (पुं०) निम्न भाव, हीन भाव, तुच्छ विचार। दार्दुरः (पुं०) १. दक्षिणावर्ती, २. शंख।
दासमतिः (स्त्री०) तुच्छ बुद्धि। दार्भ (वि०) [दर्भ+अण्] दर्भ से निर्मित।
दासी (स्त्री०) सेविका, परिचारिका, नौकारानी। (सुद० ११६) दार्व (वि०) [दारु+अण्] काष्ठ निर्मित।
(जयो० २५/६५) 'दासकर्मरता क्रीता वा स्वीकृता सती' दाट (नपुं०) न्यायालया
(लाटी संहिता ६/१०५) दास्याऽदर्शि (सुद० ९८) दार्शनिकः (वि०) विचारक, चिन्तनशील, दर्शनशास्त्र का | दासीगृह (नपुं०) भृत्य घर। ज्ञाता।
दासी-पोषक (वि०) दासी द्वारा पाला गया।
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दासीसुतः
४७३
दिग्विजयकाल:
दासीसुतः (पुं०) दासी पुत्र।
दिगभ्रमभावः (पुं०) दिशाओं के भ्रम का भाव। (दयो० १९) दासेरः (पुं०) दासी पुत्र।
दिगम्बरः (पुं०) क्षपण, नग्न, ध्वान्त, शूल, अन्धकार। दास्यं (नपु०) [दास्+ष्यञ्] दासता, गुलामी, सेवा, आधीनता। 'दिगम्बरस्तु क्षपणे नग्ने ध्वान्ते च शूलिनि' इति विश्वलोचनः' दास्यमयः (पुं०) सेवक भाव। (जयो० १०/७)
(जयो० १३/४८) दास्यवृत्तिः (स्त्री०) आज्ञाकारित्व। (जयो० २३/७९)
० गङ्गाधर, उग्र, कैलाशपति, शिव, शंकर, चन्द्रचूड। दस्युः (पुं०) चोर, लुटेरा, जारज। (सम्य० २७) (दयो० ४१) |
(जयो० १६/१४) 'सद्धारगङ्गाधरमुग्ररूपं तमेवमुच्चैस्तनदास्युसंग्रहः (पुं०) चोर समुदाय। (वीरो० १०/२५)
शैलभूपम्। दिगम्बरं गौरि! विधेहि चन्द्रचूडं करिष्यामि दाहः (पुं०) [दह्+घञ्] १. जलन, ज्वाला, अग्नि, तपन,
तमामतन्दः।। (जयो० १६/१४) ताप, संतापजनक संक्लेश। २. संक्लेश, दु:ख, आर्त,
० वस्त्र रहित, निर्ग्रन्थ (जयो० वृ० १६/१४) वस्त्रहीन पीड़ा, कष्ट। दाहो णाम संकिलेसो। (धव० ११/३४१)
(जयो०वृ० १/२२) दाहक (वि०) [दह्+ण्वुल्] तपनशील, जलाने वाला, तापक,
० दिगम्बरेषु दिशामवकाशेषु निरम्बरेषु मध्यस्थं आकारमगात्। संतापजनक।
(जयो०वृ०८/५६)
०दिक अम्बर, निर्दोष आकार, स्वाभाविक, यथाजात। दाह-ज्वरः (पुं०) जलनशील ज्वर/बुखार।
दिशाओं में अवकाश, निरम्बर भी इसका अर्थ है। 'स्वभाविक दाहनं (नपुं०) [दह् + ल्युट्] जलाना, भस्म करना।
सहजवेषमुपाददानान्। वेदेऽपि, कीर्तितगुणान्मनुजास्तथा तान्। दाहसरस् (नपुं०) श्मशान भूमि।
(वीरो० २०१७) दाहहर (वि०) संताप हारक।
दिगम्बरत्व (वि.) अचेलक्य, निर्वस्त्रता, निर्ग्रन्थता। (जयो० दाह्य (वि.) [दह्+ण्यत्] जलाने योग्य, संक्लेश करना।
१/२२) दिक् (स्त्री०) दिशा, आकाशप्रदेश श्रेणी।
दिगम्बर-प्रशंसा (स्त्री०) दिगम्बर का गुणगान। दिक्कः (पुं०) युवाहस्ति, करभा ।
नग्नरूपो महाकायः सितमुण्डो महाप्रभः। दिक्कुमारः (पुं०) दिशाओं में क्रीडा करने वाला देव। 'दिशन्ति
मार्जिनी शिखिपत्राणां कक्षायां स हि धारयन्।। (दयो०पृ० २५) अतिसर्जयन्ति अवकाशमिति दिशः दिक् क्रीडायोगाद
पद्मासनः समासीन: श्याममूर्ति दिगम्बरः। मृतान्धसोऽपि दिशः, दिश: च ते कुमाराः दिक्कुमाराः'
नेमिनाथः शिवोऽथैवं नाम चन्द्रस्य वामन।। (दयो०प० २६) दिक्ककुमारी (स्त्री०) दिशाओं की देवियां, दिक्कुमारीगणस्याग्रे
दिगम्बरीभूय (वि०) निर्ग्रन्थ साधु होकर। (वीरो० ११/१४) गच्छतो हस्तनापुरे (वीरो० १५/१२/४)
दिगान्ध्य (वि०) दिशाओं में अन्धा हुआ। शिरस्याघात एव दिकक्रीडा (स्त्री०) दिशाओं में क्रीडा, दिशाओं में मनोरंजन
स्याद्दिगान्ध्यमिति गच्छतः। (वीरो० ८/१५) दिकपालः (पुं०) यमराज। (जयो०वृ० १२/९४)
दिग्जयः (पुं०) दिग्विजय, दिशाओं पर जय। चक्रञ्च कृत्रिम दिकशुद्धिः (स्त्री०) दिशाओं सम्बंधी शुद्धि। .
. चक्रे चक्रिणो दिग्जयो जयम्। (जयो०७/४१) दिगना (स्त्री०) दिशा रूपी नायिका। 'दिग एवाङ्गना दिगङ्गना'
दिग्दाहः (पुं०) दिशाओं की तरह लाल अग्नि युक्त। (जयो० ६/१२८)
दिग्ध (वि०) [दिह्+क्त] लिया हुआ, सना हुआ। दिगनुरागिणि (वि०) स्नेहयुक्त, प्रेमयुक्त (जयो० १०/११६) दिग्धः (पुं०) तेल, मल्हमा .. दिगनूपः (स्त्री०) दिशाओं का राजा। 'दिशामनूपाः स्वामिनो दिग्धवः (पुं०) यमराज, दिक्पाल। (जयो० १२/९४)
वासिनो वा उपसमीपमनुवर्तन्त इत्नुनूपः' (जयो०० ५/७) दिग्भ्रमः (पुं०) दिशा भ्रम। दिगन्त (वि०) दिशाओं तक, सर्वत्र, सभी दिशाओं की ओर। दिग्भ्रान्तः (पुं०) दिशाओं से भ्रमित (सम्य० २) दिग्भ्रमिति न (जयो० १/४५)
वेत्ति सुमार्ग। (सुद० ९७) दिगन्तर-व्याप्ति (वि०) सभी दिशाओं में व्याप्त होने वाला। | दिग्विजयः (पुं०) सम्पूर्ण विजय। (जयोवृ० ३/५) सभी ___ 'दिगन्तेषु व्याप्नोतीति दिगन्तरव्यापि' (जयो० १९/३३) दिशाओं में जीत। (जयो०० ६/५३) दिगन्तरालः (पुं०) दिशा भाग (सुद० २/१५)
दिग्विजयकालः (पुं०) दिशाओं में विजय की ओर प्रयाण दिगन्तव्याप्त (वि०) सभी दिशाओं में फैले हुए। (सुद०८२) |
करने का समय। (जयो०वृ० ३/५१)
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दिग्विजयप्रयाणः
४७४
दिव्
दिग्विजयप्रयाण: (पुं०) दिशाओं में विजय के लिए प्रस्थान, दिनपतिः (पुं०) रवि, सूर्य। (जयो० १४/९५) प्रयाण वेला। (जयो० ६/५३)
दिनबन्धु (पुं०) सूर्य, रवि। दिग्विजय समयः (पुं०) दिशाओं में विजय का समय। दिनमणि (पुं०) सूर्य, रवि, दिनकर। दिग्विरति (स्त्री०) दिशाओं की मर्यादा, दिग्व्रत। दिग्वलयं दिनमनापि (वि०) यावद्दिन, जीवन पर्यन्त तक।
परिगणितं कृत्वातोऽहं बहिर्न यास्यामि। (रत्नकाण्ड ४/६८) दिनमयूखः (पुं०) सूर्य, रवि, दिनकर। दिण्डि (पुं०) एक वाद्य यन्त्र।
दिनमुखं (नपुं०) प्रभात वेला, प्रात:काल। दिण्डिरः (पुं०) देखें ऊपर।
दिनमुत्ततार (वि०) दिवस व्यतीत करने वाली। (जयो०२४/११८) दित (वि०) [दो+क्त] विदीर्ण, खण्डित, कटा हुआ, छिन्न-भिन्न दिनमूर्धन् (पुं०) उदयाचल पर्वत। किया गया, विभक्ति।
दिनमोदकः (पुं०) सूर्य, रवि। दितिः (स्त्री०) [दो+क्तिन्] काटना, टुकड़े-टुकड़े करना, दिनरत्नः (पुं०) सूर्य, रवि। विभक्त करना।
दिनयौवनं (नपुं०) मध्याह्न, दोपहर का समय। दितिजः (पुं०) राक्षस, पिशाच।
दिनश्री (स्त्री०) सूर्य की शोभा। (जयो० १५/१६) दित्यः (पुं०) [दिति+यत्] राक्षस।
दिनवच्छ्री (स्त्री०) दिन की शोभा, सूर्यप्रभा, खिली हुई धूप। दित्सा (स्त्री०) [दातुमिच्छा-दा+तन-अ+टाप्] देने की इच्छा, (सुद० ३/१६) प्रदान करने का भाव।
दिनागमः (पुं०) प्रात:काल। दिदृक्षा (स्त्री०) [दृष्टुमिच्छा-दृश्+सन्+अ+टाप्] देखने की | दिनाण्डं (नपुं०) अन्धकार, अन्धेरा। इच्छा, अवलोकन का भाव।
दिनात्मजः (पुं०) १. शनि, २. सुग्रीव। दिधिषुः (स्त्री०) [दिधं धैर्यं स्यति] पुनर्विवाहित स्त्री का दिनात्ययः (पुं०) सायंकाल, संध्या समय। 'दिनात्यये प्रावृषि पति।
वारि वर्षति' (जयो० २४/२७) दिधीर्वा (स्त्री०) [धृ+सन्+अ+टाप्] जीवित रखने की इच्छा, | दिनादिः (पुं०) प्रात:काल। सहारा देने का भाव।
दिनान्तः (पुं०) सूर्यास्त का समय, सन्ध्याकाल, सायंकाल। दिनं (नपुं०) दिवस, दिन, चौबीस घण्टे का समय। 'प्रातः
(दयो० ३९) समये यादृशं शुभाशुभं कर्म विधीयते तादृशमेव दिनं व्यत्येतीति दिनान्तसमयः (पुं०) सूर्यास्त का समय, सन्ध्या काल, सायंकाल,
(जयो० २/२३) 'दिनानि अत्येति तटस्थ एव' (सुद० १११) अस्ताचल का काला (जयो० १५/४) दिनकरः (पुं०) सूर्य, रवि, सूरज। (जयो०वृ० १०/११६) दिनाधीश: (पुं०) सूर्य, रवि, दिन का पति-सूर्य। दिनकर्तृ (पुं०) सूर्य, रवि।।
दिनावसानं (नपुं०) अस्ताचल का समय, सूर्यास्त का समय। दिनकेशरः (पुं०) अंधकार, अंधेरा।
दिनिका (स्त्री०) [ दिन+ठन्+टाप्] दिन की मजदूरी। दिनकौमुदी (स्त्री०) प्रकाश, सूर्य प्रभा।
दिनेशः (पुं०) सूर्य, रवि। (जयो० ४/६१) दिनखण्डः (पुं०) दिवस भाग।
दिनेश्वरः (पुं०) दिनकर, सूर्य. भानु। दिनचर्या (स्त्री०) प्रतिदिन की क्रिया, प्रतिदिन का कार्यक्रम। | दिनोदयसद्भावः (पुं०) दिवसप्रवेश, दिन का प्रारम्भ, दिनज्योतिस् (नपुं०) धूप, सूर्यप्रभा।
प्रात:काल। (जयो० १८/४२) दिनत्रय (वि०) तीन दिन। (सुद० १२३)
दिरिपकः (पुं०) कन्दुक, गेंद। दिनदुःखितः (पुं०) चक्रवाक पक्षी।
दिलीपः (पुं०) सूर्यवंशी नृप। दिननाथः (पुं०) सूर्य, रवि।
दिव (अक०) १. चमकना, प्रकाशमान होना, उज्ज्वल होना,। दिननाथकान्तः (पुं०) सूर्य, रवि, दिनमणि, सूर्यकान्तमणि। २. फेंकना, ३. खेलना, ४. दांव लगाना।
मन्दाग्निरुग्युगभवद्दिननाथकान्त, दिननाथकान्ता नाम दिव (सक०) १. बेचना, २. प्रशंसा करना, कमाना, सताना, सूर्यकान्ता नाम मणि। (जयो० १८/१८)
कष्ट देना। दिनपः (पुं०) रवि, सूर्य। (वीरो०१० ४/३०)
दिव (स्त्री०) [दीव्यन्त्यत्र दिव+वा आधारे डि] १. स्वर्ग।
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दिवं
४७५
दिव्यध्वनिः
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(सुद० ४/३४) २. आकाश, ३. दिन, ४. प्रकाश, कान्ति, मनोहर, रमणीय। ३. स्वर्गीया दैवी, आकाशीय, ४. उज्ज्वल, प्रभा, चमक।
कान्ति युक्त, ५. देव सम्बन्ध, स्वर्ग सम्बन्ध। (जयो० दिवं (नपुं०) [दिव+क] १. स्वर्ग, (जयो० ३/६८) २. १/३४) आकाश, ३. दिन, ४. अरण्य।
दिव्यः (पुं०) १. अलौकिक प्राणी, २. जौ, ३. यम। दिवसः (पुं०) [दीव्यतेऽत्र दिव्+असच्] दिन। (सु० ४/२३) | दिव्यं (नपुं०) १. दैवी प्रकृति, दिव्यता, आकाश। २. शपथ, त्रिंशन्मुहूर्ता दिनरात्रिरैका (सम्य० ३)
सत्योक्ति, ३. साक्षी। ४. लवंग। दिवसं (नपुं०) दिन।
दिव्यकला (स्त्री०) अलौकिक कला, उत्तम विद्या। दिवसकरः (पुं०) दिनकर, सूर्य, रवि।
दिव्यकारिन् (वि०) साक्षी लेने वाला, शपथ लेने वाल, दिवसनाथः (पुं०) दिनकर, सूर्य।
दिव्यकौमुदी (स्त्री०) श्रेष्ठ ज्योत्स्ना, पूर्ण चांदनी, पूर्णिमा की दिवसपतिः (पुं०) दिनोदय का सद्भाव। (जयो० १८/४२) कौमुदी। दिवसमुखं: (नपुं०) प्रात:काल।
दिव्य-कौमुदी (स्त्री०) स्वच्छ आकाश, खुला आकाश। दिवसविगमः (पुं०) सूर्यास्त, सान्ध्यकाल।
दिव्यगतिः (स्त्री०) उत्तम गति, देवगति। दिवसेशसर्गः (पुं०) सूर्य। (समु० ६/९)
दिव्य-गानं (नपुं०) उत्तम गान, उच्चगान, श्रेष्ठ गीत। दिवसेश्वरः (पुं०) सूर्य, रवि।
दिव्यगायन: (पुं०) गन्धर्व। दिवा (अव्य०) [दिव। का] दिन में, दिन के समय। (जयो० । दिव्य-गुणः (पुं०) १. देव सम्बन्धी गुण। दिव्यसम्बन्धिनो १५/४)
गुणस्य दयादानादेः प्रयोगः। (जयोवृ० १/९४) २. दिवाकरः (पुं०) सूर्य, रवि।
अश्रुतपूर्वगुण-दिव्यस्य अश्रुतपूर्वस्य गुणस्य गणनप्रयोगः दिवाकीर्तिः (स्त्री०) चाण्डाल।
(जयो०वृ० १/३४) दिवातनः (वि०) दिवस सम्बंधी।
दिव्यज्ञानं (नपुं०) परम ज्ञान, अच्छा ज्ञान, अलौकिक प्रतीति, दिवानिशं (अव्य०) दिन रात। दिवानिशां विश्वहिते प्रवृत्ता अपूर्व ज्ञान। (सुद० ११८)
दिव्यता (वि०) उत्कृष्टता, अलौकिकता। दिवान्धः (पुं०) उल्लू। (जयो०वृ० १८/३१)
दिव्यतमध्वनिः (स्त्री०) उत्तम से उत्तम ध्वनि। उदियत्य दिवान्धकी (स्त्री०) छछुन्दर।
जिनाधीशाश्चोऽसौ दिव्यतमो ध्वनि (वीरो० ४५/३) दिवाधिपः (पुं०) रवि, सूर्य (वीरो० १२/१)
दिव्यतनु (नपुं०) भव्य शरीर, सुंदर देह। (जयो० २/४०) दिवाप्रदीपः (पुं०) दिन का दीपक, अप्रसिद्ध पुरुष। दिव्यदेहसम्पन्न (वि०) वपुष्मती, दिव्यशरीर से युक्त। दिवाभीत: (स्त्री०) उल्लू।
(जयो० २/४१) दिवामणि (पुं०) सूर्य, सहस्ररश्मि। (जयो० १५/३१) दिव्य दर्शनं (नपुं०) अनुपम अवलोकन। दिवामध्यं (नपुं०) मध्याह्न।
दिव्यदानं (नपुं०) उत्तम दान, उचित दान, उत्कृष्ट चिन्तन। दिवारानं (अव्य०) दिन रात।
दिव्यदेहिन् (पुं०) सुरेन्द्र। (जयो० २/२४) दिवास्तुः (पुं०) सूर्य।
दिव्यदृक् (नपुं०) दिव्यदृष्टि। (सु० २/३५) दिवाशय (वि०) दिवस में शयन करने वाला।
दिव्यदृश्यं (वि०) उत्कृष्ट देखने की शक्ति। दिवास्वप्नः (पुं०) दिन में शयन, दिन में स्वप्न।
दिव्यधारा (स्त्री०) अविरल प्रवाह, स्वच्छधारा, निरन्तर गतिशील। दिवास्वापः (पुं०) दिन में स्वप्न।
दिव्यध्वनिः (स्त्री०) अनक्षरात्मक ध्वनि, वचन प्रकार। दिविः (स्त्री०) नीलकण्ठ, चाष पक्षी।
(भक्ति० ३३) सर्वभाषामयीधर्म ध्वनि। दिवौकस (पुं०) देव।
स्वर्गापवर्ग-गममार्ग विमार्गणेष्टः, दिवौकसामीशः (पुं०) इन्द्र। (जयो० २४/२१)
सद्धर्मतत्त्व-कथनैक- गुणैक-पटुस्त्रिलोक्याः । दिव्य (वि०) [दिव्यत्] १. अतिशय युक्त, अलौकिक, दिव्यध्वनिर्भवति ते विशदार्थ-सर्व
अपूर्व, अनुपम, प्रमुख, श्रेष्ठ, उन्नत। २. देदीप्यमान, भाषास्वभाव-परिणाम-गणप्रयोज्यः।।
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दिव्यपदं
दीधितिमत्
(भक्तामर-३५) व्याख्याति तत्त्वं सकल ज्ञतातः, बहिर्न दिशान्तरं (नपुं०) अन्तराल, अन्तरिक्ष। किञ्चिद्यदुपेयतात:।
दिशाम्बर (वि०) निर्ग्रन्थ, दिगम्बर। वचो निरुद्ध्याङ्गमकारि सुस्थं श्वासप्रचारं मृदुलं वपुत्स्थम्।। दिशाबोधः (पुं०) निर्देश का ज्ञान, आदेश, आज्ञा। (भक्ति संग्रह पृ० ३२/१८) 'नि:शेष ध्वनि मीशम्य किन्तु दिष्ट (वि०) [दिश्+क्त] संकेतित, आदेशित, प्ररूपित, वर्णित, जग्राह गौतमः' (वीरो० १५/४)
___ इंगित, निश्चित, उल्लिखित। दिव्यपदं (नपुं०) परमपद, उत्कृष्ट पद।
दिष्टं (नपुं०) नियति, भाग्य, आदेश, उद्देश्य, ध्येय, अभिप्राय। दिव्यप्रवचनं (नपुं०) दिव्यकथन, प्रवचन, वीतराग वाणी, दिष्टिः (स्त्री०) [दिश्-क्तिन्] शिक्षा, आज्ञा, आदेश, उपदेश, विरोध रहित विचार। (वीरो९ १५/६२)
निर्देश, नियति। दिव्यफलं (नपुं०) उन्नतफल।
दिष्ट्या (अव्य०) सौभाग्य से, नियति से, परम आदेश से। दिव्यबोधि (स्त्री०) उत्कृष्ट ज्ञान।
दिह (सक०) लीपना, थांपना, सामना, पोतना, बिछाना, मैला दिव्यभावः (पुं०) दिव्यध्वनि, सर्वज्ञ की अनक्षरात्मक ध्वनि।
करना, अपवित्र करना। दिव्य-मनुजः (पुं०) सज्जन।
दी (अक०) नष्ट होना, क्षय होना। दिव्यमाला (स्त्री०) गन्धर्वमाला, देव सम्बंधी माला।
दीक्ष (सक०) दीक्षा करना, तैयार करना, अनुष्ठान करना दिव्य-मौलि: (स्त्री०) दिव्य मुकुट।
शिष्य बनाना, संस्कार करना, आत्म संयम करना। दिव्य-यन्त्रं (नपुं०) उन्नत यन्त्र, अच्छा यन्त्र।
दीक्षकः (पुं०) [दीक्ष+ण्वुल] आत्म-मार्ग दर्शक, आत्म दिव्ययोगः (पुं०) समाधि योग।
शिक्षक। दिव्यरत्नं (नपुं०) देदीप्यमान रत्न, देव सम्बंधी रत्न।
दीक्षणं (नपुं०) [दीक्ष ल्युट] दीक्षा देना, आत्म-संयम करना। दिव्यरथः (पुं०) आकाश विमान, देव विमान।
दीक्षा (स्त्री०) आत्म-संयम, संलग्न सर्व संग/परिग्रह त्याग। दिव्यरसः (नपुं०) अनुपम वस्त्र, उज्ज्वल वस्त्र।
(जयो० १८०) प्रव्रज्या, धर्म मार्गानुष्ठान। दिव्यवस्त्र (वि०) देवीय वस्त्र वाला।
दीक्षापात्रं (नपुं०) दीक्षा के योग्य, जो जाति, कुल रूप आदि दिव्यबोध: (पुं०) उत्कृष्ट ज्ञान। (वीरो० १२/४९)
से श्रेष्ठ धीर, शान्त परिणामी होता है। देश जाति कुलोत्पन्न दिव्यसरित् (स्त्री०) आकाश गङ्गा, स्वर्ग गङ्गा।
क्षमासन्तोष शीलवान्। दिव्यसारः (पुं०) साल वृक्षा दिव्यसुरभिः (स्त्री०) उत्तम गन्ध।
दीक्षागुरु (पुं०) प्रव्रज्यादायक गुरु, संघस्थ निर्विकल्प संयम के दिव्यहस्तिः (पुं०) ऐरावत हाथी।
प्रतिपादक। दिश् (सक०) १. प्रदर्शन करना, संकेत करना, दिखलाना।
दीक्षादिवस् (पुं०) दीक्षा दिन। (जयोवृ० १/८) २. नियत करना, ३. देना, प्रदान करना,
दीक्षाप्रयोगः (पुं०) अभिषेक। (जयो० १६/२५) समर्पण करना, सौंपना। ४. घोषणा करना, कहना, प्ररूपणा
दीक्षाभावः (पुं०) दीक्षा की भावना। करना। ५. उल्लेख करना, निर्देश करना। ६. सिखाना,
दीक्षामंत्र (नपुं०) दीक्षा मन्त्र, दीक्षा पाठ। बतलाना।
दीक्षामत्रं (वि०) दीक्षा धारक। दीक्षामतः समासाद्य दिश् (स्त्री०) [दिशति ददात्यवकाशम्-दिश्+क्विप्] १. दिशा, गणनायकतामगात्। (वीरो० १५/२५)
प्रदेश, भाग, अन्तराल, स्थान। २. दृष्टिकोण, अभिप्राय, दीक्षायोग्यः (पुं०) दीक्षा का पात्र, दीक्षा लेने का अधिकारी। आदेश, कथन, उपदेश, देशना।
दीक्षावर्णनं (नपुं०) दीक्षा कथन। (सुद० ११६) दिशच्छ्री (स्त्री०) दिशाओं, दिशाओं की शोभा। (सु० १३७) दीक्षाविधानं (नपुं०) दीक्षा वर्णन। (सुद० ११६) दिशा (स्त्री०) [दिश् अङ्कटाप्] १. प्रदेश, स्थान भाग, | दीक्षित (भू०क०कृ०) [दीक्ष्+क्त] संस्कारित, संयमित, दीक्षा
अन्तराल। २. पृथ्वी का चौथाई भाग। ३. उपदेशक-दिशं प्राप्त, आत्मानुशासित, अभिषिक्त। (दयो० ३४) मोक्षवर्तन्याश्रयमुपदिशति यः सूरिः स दिशा इत्युच्यते। दीदिविः (नपुं०) स्वर्ग। (भ०आ०टी० ६८) ४. सरलक्षेत्र विशेष। ५. निर्देश, दीधितिः (स्त्री०) प्रकाश, किरण, प्रभास, आभा, कान्ति। आदेश, संकेत।
दीधितिमत् (वि०) [दिधिति+मतुप] उज्ज्वल, कान्तिमान्।
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दीधी
४७७
दीपता
दीधी (अक०) चमकना, दिखाई देना, प्रतीत होना।
अम्भोजान्तरितोऽलिरेवमधुना दीपे पतङ्ग पतन्। (सुद० दीन (वि०) [दी+क्त तस्य न:] १. दरिद्र, गरीब, निर्धन। २. १२७) रवि प्रतीपश्च निशासु दीप:' (सुद० १२७)
निर्बल, बलहीन। (समु० ३/२०) ३. खिन्न, अनाथ ० पूजा के निमित्त बनाई गई सामग्री छटा दीप जिसके (सम्य० ७७) उदास, शोकग्रस्त, भीरु, डरा हुआ। ३. चढ़ाने पर पूजक यह भाव व्यक्त करता है कि 'शुद्धसर्पिषः रहित-'सदास्यहं सिद्धवदगी हीनः ज्ञानैकता नो न तु जातु कर्पूरस्याप्युत माणिक्य कलायाः। प्रज्ज्वालयेयमिह दीन:।। (भक्ति० २९) 'विभेति मरणाद्दीनो न दीपकमहमग्रे जिनमुद्रायाः हतिः स्याच्चितनिशाया' अर्थात् दीनोऽथामृतस्थितिः' (वीरो० १०/३०) उक्त पंक्ति में शुद्ध घृत, (सुद० ७२) कर्पूर एवं रत्नमय दीपक लाकर 'दीन' का अर्थ निर्बल, बलहीन है।
जिनमुद्रा के आगे जलाऊ, जिससे कि मेरे मन का बन्धु-बन्धुरमनो विनोदयन् दीन-हीन-जगमुन्नयन्नम्। (जयो० अन्धकार विनष्ट हो और ज्ञान का प्रकाश फैले। ३/६) शोकग्रस्त-खिन्न 'दीनाः पुनः 'दीङ् क्षये' इति दीपक (वि०) [दीप्+णिच्+ण्वुल] समुद्योतकर (जयो० वचनात् क्षीण-सकल, धमार्थकामाराधवशक्त्यः । ३३/३८) प्रज्ज्वलित करने वाला, प्रकाश करने वाला, (जै०ल.पृ० ५२२) कृत्वाऽत्रममाम्बुजसग्बिहीनां सरोवरी आभा फैलाने वाला। (सम्य० १५६) मङ्गज! किन्नु दीनाम्। (समु० ३/१३)
दीपकः (पुं०) दिया, दीवा, प्रकाश स्तम्भ। (सुद० ७२) ० दयनीय, शोचनीय, क्षुद्र।
नानुवर्तिनि रवौ प्रतियाते दीपके मतिरुदेति विभाते। (जयो० दीनः (पुं०) १. गरीब, दु:खी आदमी, निर्धन, २. भावजन्य।
५/२५) दीनजन (पुं०) कष्टजन्य लोग, अभावग्रस्त मनुष्या स्वयशांसि दीपकजीवः (पुं०) स्नेह, मैल। (जयो० २५/७४)
च तावदक्षिणोषि सततं दीनजनाय दक्षिणोऽसि। (जयो० दीपकल्लिका (वि०) दीपक की लौ। १२/९५)
दीपकल्पः (वि०) दीप सदृश, दीपक के समान। (सुद० दीनता (वि०) हीनता, खिन्नता, उदासीनता। (वीरो०२/४१) ७/१२) दीनदशा (स्त्री०) दैन्यभाव, (दयो० १/१९) हीन अवस्था, दीपक-श्लेषः (पुं०) दीपक श्लेष अलंकार। कलापकं जयस्वान्तं निर्बलदशा।
रूपमाला सुलोचनाम्। संवदामि यत: शोभां जगतः संस्कृतस्य दीनदानं (नपुं०) तुच्छ दान, खिन्न मन से वस्तुदान।
हि।। (जयो० २२/८६) उक्त श्लोक में एक ही शब्द के दीनधनं (नपुं०) तुच्छ धन।
दो अर्थ है, तथा एक ही क्रिया से आदि, मध्य एवं अन्त दीनबन्धु (नपुं०) दीन-दुःखियों का मित्र।
में सम्बन्ध है। दीनवत्सल (वि०) दीन दयालु, दीन/निर्धनों का हितैषी, निर्बलों | दीपकालङ्कारः (पुं०) दीपक अलंकार (जयो० २१/२, १६/४६) का सहभागी। बलहीनजनों का सेवक।
आदिमध्यान्तव]क-पदार्थनार्थसङ्गतिः। वाक्यस्य यत्र जायेत दीनस्वरः (पुं०) करुण स्वर, ध्वनि, कष्टमय स्वर। 'अथैकदा तदुक्तं दीपक यथा। (भट्टालंकार ४/९८) अर्थात् जिस
भूमिरुहोपरिष्टात्स्थितस्य दीनस्वर-सम्विशिष्टाम्।' (समु० स्थान पर आदि, मध्य और अन्त में रहने वाली एक क्रिया ३/३७)
से वाक्य का सम्बन्ध उत्पन्न होता है, वहां 'दीपक' दीनारः (पुं०) १. अशर्फी, २. एक सोने का सिक्का। ३. अलंकार होता है। दिक्षु शून्यतमतां वितरीतुं सत्तमैर्नृप सुतां आभूषण। (दयो० ८९)
तु वरीतुम्। दर्शकैरपि परैरपहर्तुं तानितं तदितरैः परिकर्तुम्।। दीनोद्धरणं (नपुं०) निर्धनों का उद्धार। दधार दीनोद्धरणं (जयो० ५/२) __स्वतन्वाऽर्हन्तं हृदा सत्यवचा भवन्वा। (समु०६/३७) दीपकिट्टिम् (नपुं०) दीपक का फूल। दीप् (अक०) ० चमकना, झलना, दहकना, प्रज्ज्वलित होना। दीपकिट्टिमा (स्त्री०) दीपक की कालिमा। ० बढ़ना, आग बबूला होना।
दीपकूपी (स्त्री०) दीपक की बत्ती। दीपः (पू) [दीप णिच्+अच] लौ, ज्वाला, प्रकाश, दीपक, दीपश्वरी (स्त्री०) दीपक की बत्ती।
दिया, दीवा। (सुद० १२७) दीप्यता स्नेहेन दीप्यतां तावत् दीपता (वि०) प्रकाशित होने वाला, सुशोभित, प्रज्वलित, का दशा स्यात्पुन:। (जयो० ७/३०) | अभिभासित।
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दीपध्वजः
४७८
दीर्घदर्शिन
३/१६)
दीपध्वजः (पुं०) काजल।
दीप्तिः (स्त्री०) [दीप्+क्त्न्]ि चमक, प्रभा, प्रताप, आभा, दीपपादपः (पुं०) दीवट, दीपाधार, दीप स्तम्भ।
कान्ति। (दयो० ५५) 'द्युतिदीप्तिमताङ्गजन्मना' (सुद० दीपपुष्पः (पुं०) चम्पक तरु। दीपभाजनं (नपुं०) दीपक।
दीप्तिमता (नपुं०) दीप्ति युक्त शरीर। दीपमहमग्र (वि०) दीपक की महानता।
दीप्तिवान् (वि०) कान्तिमय, प्रभा युक्त। दीपमाला (स्त्री०) दीपाली, दीपक की रोशनी, प्रकाश समूह। दीप्र (वि०) जगमगाता हुआ, चमकीला, आभाजन्य। दीपवेश (वि०) प्रदीप रूप धारक। (जयो० ७५/२२) दीर्घ (वि०) [दृ+घञ्] १. चिर। (जयो० १४/९८) दीपशत्रुः (पुं०) पतंग।
• लम्बा -(जयो०वृ० १/२५ सुद २/८) दीपशिखा (स्त्री०) दीपक की लौ। 'चरुणि दीपशिखायाः' ० प्रलम्ब-(जयो० १/५२) भोगीन्द्र दीर्घाऽपि (सुद० ७२) 'दीपशिखेव धु' (सुद० १/४३)
भुजाभिजातिररिश्रियामेव रुजां प्रजातिः। (जयो० १/५२) दीपशिखांश: (पुं०) दीप की शिखा का अंश। (जयो० 'शेष नागः स एव दीर्घा प्रलम्बमाना' (जयो०वृ० १/५२) १६/७)
० उत्तुंग, उन्नत, ऊँचा, गहरा, ०अत्यधिक, बहुत, दीपान्विता (स्त्री०) दीपावली, अमावस्या।
विस्तृत। दीपाराधनं (नपुं०) आरती उतारना, दीप द्वारा उपासना करना। | दीर्घः (पुं०) दो मात्रिक-द्विमात्रो दीर्घः' जिसके उच्चारण दीपाली (स्त्री०) दीपपंक्ति, दीपावली। देवैनरैरपि परस्परतः करने में बहुत समय लगे, दीर्घ स्वर-आ, ई, ऊ, ए, ऐ
समेतै र्दीपावली च परितः समपाति एतैः। (वीरो० २१/२३) ओ, औ। दीपावली (स्त्री०) दीपोत्सव, प्रकाशपर्व, उत्साह दिवस।। दीर्घकालः (पुं०) चिरसमय। (जयोवृ० ११/९३) दीपिका (स्त्री०) [दीप्+णिच्+ण्वुल्+टाप्] (जयो० १०/११४) दीर्घकाल-कलित (वि०) दीर्घकाल को प्राप्त। 'दीघकालात्
प्रकाश, ज्वाला, मशाल, प्रदीपिका। (२०/११५) (स्त्री०) चिरात् कलितामुपलब्धताम्' (जयोवृ० ४/९६) दीपकोद्दीपनेत्री।
दीर्घ-कन्धरः (पुं०) सारस। दीपित (वि०) [दीप्+णिच्+क्त] ० वर्धक। यस्या भृश दीपित दीर्घकष्ठः देखें ऊपर। कामदेवा' (वीरो० ४/१०)
दीर्घकष्टकः देखें ऊपर। ० प्रकाशित, प्रज्वलित, आभावान्, प्रकाशमय। दीर्घ-काय (वि०) लम्बा शरीर, लम्बाकद। दीप्त (भू०क०कृ०) [दीप्+क्त] प्रकाशित, प्रज्वलित, उद्दीपित, दीर्घकेशः (पुं०) भालू, रीछ। उत्तेजित, प्रकाशमय।
दीर्घकोपी (वि०) बहुत क्रोधी। दीप्तः (पुं०) सिंह।
दीर्घगतिः (स्त्री०) ऊँट, दीप्तकरः (पुं०) सिंह।
दीर्घग्रीवः (पुं०) ऊँट। दीप्तकिरणः (पुं०) सूर्य, रवि।
दीर्घघाटिकः (पुं०) उष्ट्र, ऊँट। दीप्कीर्तिः (पुं०) कार्तिकेय।
दीर्घ-जङ्घः (पुं०) ऊँट। दीप्तजिह्वा (स्त्री०) लोमड़ी।
दीर्घजनुष (वि०) चिरजीवि, दीर्घजीवि। (जयो० ४/४५) दीप्तज्योति (स्त्री०) प्रकाश प्रभा।
दीर्घजिह्वः (पुं०) सर्प, अहि। दीप्ततपस् (वि०) धर्मनिष्ठा से शोभायमान तप, एक ऋद्धि दीर्घतपस् (वि०) अत्यधिक तप। विशेष। देहदीप्त्या प्रहतान्धकारा दीप्ततपसः' सतत् शरीर दीर्घता (वि०) आयत युक्त, लम्बाई युक्त। (जयो० १३/४६) की प्रभा वाला।
दीर्घतुण्डी (स्त्री०) छछुन्दर। दीप्त-पिङ्गलः (पुं०) सिंह, केशरी।।
दीर्घदण्डः (पुं०) ताड़वृक्ष। दीप्तरसः (पुं०) केंचुवा।
दीर्घदु (पुं०) ताड़ वृक्षा दीप्तलोचनः (पुं०) बिल्ली।
दीर्घदर्शिन् (वि०) सूक्ष्मदर्शी, विवेकी, ज्ञानी, दूरदर्शी। (जयो० दीप्तलोहं (नपुं०) पीतल, तांवा।
१४/४३)
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दीर्घनाद
४७९
दुःखभावः
दीर्घनाद (वि०) अत्यधिक निनाद। दीर्घनिद्रा (स्त्री०) चिरशयन, मृत्यु। दीर्घनेत्रं (नपुं०) विस्तृत नयन, फैले हुए नेत्र। (सुद० ३३) दीर्घपत्रः (पुं०) ताड़ तरु। दीर्घपादः (पुं०) बगुला। दीर्घपादपः (पुं०) १. नारियल का पेड़। २. सुपारी का वृक्ष,
ताड़ वृक्षा दीर्घप्रेमी (वि०) चिर प्रेमालापी। दीर्घपृष्ठः (पुं०) सर्प, सांप। दीर्घबाला (स्त्री०) हरिणा दीर्घमारुतः (पुं०) हस्ति, हाथी। दीर्घरदः (पुं०) सूअर। दीर्घरसनः (पुं०) सर्प, सांप। दीर्घरोमन् (पुं०) रीछ, भालू। दीर्घवक्त्र (पुं०) हस्ति, गज। दीर्घ विचारवान् (पुं०) अखर्वसूत्री, विस्तृत व्याख्या वाला। __(जयो० वृ० ३/८५) दीर्घशङ्का (स्त्री०) शौच। (दयो० ३४) दीर्घसंदर्शिता (वि०) विचारशीलता। (वीरो० ३/३२) दीर्घसक्थ (वि०) लम्बी जंघाओं वाला। दीर्घसत्रं (नपुं०) चिरकाल तक चलने वाला। दीर्घसूत्र (वि०) प्रलम्बमानतन्तु (जयो० १७/७३) १. मन्थर,
धीरे-धीरे कार्य करने वाला। दीर्घसूत्रता (वि०) ढील करना, धीरे धीरे कार्य करना। (दयो०
६९) दीर्घाकार (वि०) बड़े आकार वाला। दीर्घाधार (वि०) उच्च आश्रय वाला। दीर्घाध्वग (वि०) लम्बा गमन करने वाला। (जयो० १३/३३) दीर्घायु (वि०) दीर्घजीवि, चिरजीवि। दीर्घायुधः (पुं०) भाला, कुन्तल। दीर्घालोचक (वि०) दीर्घदर्शी, दूरदर्शी। (जयो०१० १६/७७) दीधिका (स्त्री०) [दीर्घकन्+टाप्] वापिका, बावड़ी, जलाशय, __सीढ़ीदार कुंआ। दीर्धीकरणं (नपुं०) ह्रस्व का दीर्घ होना। दीर्ण (वि०) [दृ+क्त] १. विदीर्ण किया, फाड़ा गया, चीरा
गया, विनष्ट किया गया। २. भयभीत, डरा हुआ। दीव्य (वि०) रमणीयता, सुन्दरता। (जयो० ३/४६, ३/७१) दीव्यता (वि०) सुंदरता, रमणीयता।
दु (सक०) जलाना, दु:खी करना, भस्म करना, सताना, कष्ट
देना। दु (अक०) पीड़ित होना, कष्टग्रस्त होना। दुःख (वि०) [दुष्टानि खानि यस्मिन् दुष्टं खनति-खन्ड,
दुख+अच्] पीड़ा, कष्ट, अरुचि, वेदना, विषाद, बेचैनी, व्याकुलता, अशुभ प्रवृत्ति, दौगत्य। (भक्ति० ५) ० असाता-असादं दुक्खं। ० पीडालक्षण: परिणामो दु:खम्। ० इष्ट वियोग। . पारतन्त्र्यं हि दुःखम्। ० असतोदयकारण। ० अप्रीतिभाव। ० अप्रीति (सम्य० ९०)। ० संक्लेशपरिणाम। ० आर्तभाव। ० द्वेष जन्य भाव। ० कर्म बन्ध (सम्य० २९)
'दु:खयतीति दुःखं वेदनालक्षणः परिणाम:' (त०वृ०६/११) दुःखं (नपुं०) खेद, विषाद, वेदना, पीड़ा। दुःखकर (वि०) 'दु:खयतीति दु:खं वेदनालक्षण: परिणाम:'
(त०१० ६/११) दुःखकर (वि०) पीडाकारक, कष्टजनक। दुःखकारिन् (वि०) पीड़ा जनक। दुःखगेहं (नपुं०) दु:ख का स्थान। दुःखग्रामः (पुं०) संसार. दु:खों का स्थान। दुःखक्षय (वि०) दुःख का अभाव। दुःखक्षतिः (स्त्री०) दु:ख की हानि। दुःखछिन्न (वि०) पीड़ा मुक्त. अधिक पीड़ से घिरा हुआ। दुःखजाति (स्त्री०) दु:खोत्पत्ति (समु० १/२५) दुःखद (वि०) कष्टप्रद (वीरो० ५/७) 'न जातु ते
दुःखदमाचराम:' दुःखदायिन् (वि०) पीड़ाकारक। (वीरो० २२/२८) दुःखधाम (पुं०) दु:ख स्थान। दुःखप्रायः (वि०) दुःख की बहुलता। दुःखभर (वि०) कष्ट से घिरा हुआ, दु:ख समूह।
'मोहिजनचक्षुषोर्दु:खभरमञ्जनम्' (मुनि० ३४) दुःखभाज् (वि०) दु:खी, अप्रसन्न, व्याकुलता युक्त, वेदनाग्रस्त। दुःखभावः (पुं०) दुःख परिणाम।
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दुःखभेदिन्
४८०
दुःखभेदिन् (वि०) पीड़ानाशक।
दुग्धपानं (नपुं०) दृध पीना। (जयो० १२/१२७) दुःखमात्मसात् (वि०) दु:ख झेलने वाला। (वीरो० २२/२९) दुगधपोष्य (वि०) दूध से पाला गया शिशु। दुःखलोकः (पुं०) संसारिक जीवन।
दुगधभाजनं (नपुं०) दूध का बर्तन, दुग्धपात्र, क्षीर-पात्र। दुःखविधि (स्त्री०) पीड़ा की स्थिति, पीड़ा का क्षेत्र। (सम्य० दुग्धभावः (पुं०) दूध का कौशल।
९०) अपथ्यवद् दुःखविधेरपेतुं लग्नः सुखे चागदतां समेतुम्। दुग्धसमुद्रः (पुं०) दूध सागर, क्षीर सागर। (सम्य० ९०)
दुग्धात्मक (वि०) दुग्ध सदृश, अमृतरूप। (जयो०१० ११/८२) दुःखविपाकः (पुं०) दु:ख की परम्परा, दु:ख का परिणाम। दुग्धाब्धिः (पुं०) क्षीर सागर। दुगधाब्धिवदुज्वले तथा के दुःखातीत (वि०) दुःखों से परे, पीड़ा से मुक्त, व्याकुलता शयानकेऽध्यमत्या साकम्। (सुद० ९८) रहित।
दुग्धाश्रमः (नपुं०) अमृताश्रम, अमृत स्थान, स्वर्ग स्थान। दुःखान्तः (पुं०) मुक्ति, मोक्ष, निर्वाण।
(जयो०वृ० १८/४४) दुःखायापरन् (वि०) दु:ख से दूर होने वाला। दुग्धीकृत (वि०) दूध को करने वाला, नीर-क्षीर विवेक
दु:खमेकस्तु सम्पर्क प्रददाति परः परम्। दु:खायापसरन् वाला। भाति को भेदोऽस्त्वसतः सतः (वीरो० २८/३१)
दुग्धीकृतेऽस्य मुग्धे यशसा निखिला जले मृषास्ति सता। दुःखायते (समु० ३/६) दु:खायत दु:खी होना। (मुनि० २०) पयसो द्विवाच्यताऽसौ हंसस्स च तद्विवेचकता।। (जयो० ६/३७) दुःखित (वि०) [दुःख इतच्] पीड़ित, विषाद युक्त। दुदुदुत (वि०) अस्पष्ट वाणी वाला। (जयो० १६/५०) दुःखिन् (वि०) पीडित, विषाद युक्त, ग्लपिता (सुद० ७३) दुध (वि०) [दुह+क] दूध देने वाला।
(भक्ति० २२) 'दीनं दरिद्रं खलु दुःखिनं वाऽवलोक्य चित्ते दुद्धउ (वि०) कठिनाई से धारण करने योग्य। (समु० ४/८) करुणावलम्बात्।। (सम्य० ७७)
दुधा (स्त्री०) [दुधाटाप्] दुधारु, गाय, दूध देने वाली गाय। दुःखिनी (वि०) पीड़िता, विषाद युक्ता। वनविचरणतो दुःखिनी दुनोति-कर रहा है (वीरो० ५/३) __किल सीता सती तु तेन। (सुद०८८)
दुण्डुक (वि०) छल-कपटी। दुःखोच्छेदकर (वि०) दु:ख का विनाश करने वाला, पीड़ा दुन्दमः (पुं०) [दुन्दु+मण-ड] दुन्द इत्यव्यक्तं मणति शब्दायते। नाशक। (जयो०७० २०/९)
दुन्दुभि, एक ढोल। दुःसह (वि०) असहनीय। (सुद० ७८)
दुन्दु (पुं०) ढोल। दुःखोत्पादनं (नपुं०) दुःख अपकार, दुःखक्षय। (वीरो०वृ० दुन्दुभः (पुं०) [दुन्दु+भण+ड] बड़ा ढोल। १/३३)
दुन्दुभि (स्त्री०) एक वाद्य विशेष, नगाड़ा, ढोल। (वीरो दुःसंसर्ग (वि०) दुष्ट संगति। (जयो० १/६२)
१३/२३) दुकूलं (नपुं०) [दु+ऊलच्] रेशमी वस्त्र, शाटी। (जयो० | दुन्दुभिक (वि०) नाद युक्त। (जयो० २६/५९) १३/५६) महीन वस्त्र (जयो०वृ० ३/३६)
दुन्दुभिनादः (पुं०) भेरी नाद। दुकूलावली (स्त्री०) साड़ी, साटिका। (दयो० १८)
दुन्दुभिनिनादः (पुं०) ढोल निनाद, नगाड़े की ध्वनि। (जयो० दुग्ध (वि०) [दुह्+क्त] दुहा हुआ, निकाला गया।
६/१२७) दुग्धं (नपुं०) दूध, क्षीर। 'दुग्धवन्भृदुवचः श्रुतिदेशे' (जयो० | दुन्दुभिध्वनि (स्त्री०) नगाड़े की ध्वनि। दुन्दुभिर्वादित्रविशेषः ४/२०) सुद ८५, जयो० २/१५३।
सोऽसो ध्वनिमनुतेने। (जयो० ५/५७) दुग्धकलाक्षरिणी (वि०) मीठा दूध प्रवाहित करने वाली, | दूर (अव्य०) [दु+रुक्] यह उपसर्ग में प्रयुक्त होने वाला 'दुग्धस्य कलायाः क्षरिणी प्रस्रविणी' (जयो०९/७१)
अव्यय है, जिससे 'बुरा' विकार' निरर्थक, अप्रयोजन दुग्धदात्री (वि०) पयस्विनी, पयोधरा, दूध देने वाली। (वीरो० २/२०) ___ भूत, कठिन, आदि अर्थ प्रकट होता है। दुग्ध-पाचनं (नपुं०) दूध उबालना, दूध ओटाना।
दुर्कर्मन् (नपुं०) किलाबंदी, कठिन मार्ग। दुग्धपात्रं (नपुं०) दुग्ध भाजन. दूध का बर्तन। (जयो० दुर्ग (नपुं०) किला। (दयो० ७७) २१/५८)
दर्ग (नपुं०) यस्याभियोगात् परे दु:खं गच्छन्ति दुर्जनोद्योग
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दुर्गतिः
४८१
दुर्बल
विषयो वा स्वस्यापदो गमयतीति दुर्गम्। १. दुर्गमस्थान भेदोभेद स्वरूप वस्तु में अनपेक्षा विरुद्धधर्म की अपेक्षा विशेष। (जयो० ११/२३)
न करना। अपेक्षातो निष्क्रान्तो वा अपेक्षा येनासौ निरपेक्ष:दुर्गतिः (स्त्री०) दुर्भाग्य, गरीबी, दरिद्रता,। २. कठिन स्थिति। दुर्नयः। (न्यायकुमुचंद ६/७१) 'इतरेतराकांक्षारहितस्तु दुर्नयः'
'दुरिताद दुर्गतिमेति जनोऽसौ शुभतो विलसति नर्म (जयो० दुर्नयस्तन्निराकृतिः तत्प्रयनीकप्रतिक्षेपो दुर्नयः (अष्ठशती २३/७६)
१०६) सावधारणनि वाक्यानि दुर्नयाः। (धव० ९/८३) दुर्गन्ध (वि०) बुरी गन्ध वाला, अशुचिकर गन्ध।
दुर्दम (वि०) प्रबल, कठोर, कठिनता से दबाया जाने वाला। दुर्गन्धि (वि०) खराब गन्ध वाला, सडांध।
दुर्दमन (वि०) प्रबल कठोर। दुर्गन्धिन् (वि०) देखो ऊपर।
दर्दभ्य (वि०) अत्यधिक कठिन, अधिक कठोर। दुर्गम (वि०) कठिनता से पहुंचने वाला मार्ग, अप्रवेश द्वार। दुर्दशा (स्त्री०) कठिन परिस्थिति। (सम्य० ११६) (दयो०८)
दुर्दर्श (वि०) कठिनाई से दिखाई देने वाला। दुर्गमस्थानं (नपुं०) कठिन मार्ग युक्त स्थान। (जयो०८) दुर्दान्त (वि०) अत्यधिक कठिनता से दबाया जाने वाला। दुर्गा (स्त्री०) १. दुःखेन गम्यत इति दुर्गा (जयो० ३/८७) युद्ध घमण्डी, धृष्ट। ___ में जाने के लिए संकेत सूचक ध्वनि। (जयो० ६/२८) | दुर्दिनं (नपुं०) वृष्टिकाल, मेघाच्छन्नकाल, बुरा दिन-'दुर्दिनः दुर्गाद (वि०) अनवगाह्य, अनुसन्धान करने में कठिन।
पतदुदकाभ्रसंयुक्तो दिवसः' (मूला०वृ० २/१८) दुर्गाध (वि०) अनवग्राह्य।
दुर्दष्ट (वि०) सही मूल्यांकन न होना। दुर्गाह्य (वि०) अनवग्राह्य।
दुर्दैव (वि०) दुर्भाग्य, पापा (समु० १/५। दुग्रह (वि०) कष्टसाध्य।
दुर्दैवभिद-कृपाणी (वि०) पापकर्म को नष्ट करने वाली छुरी दुर्गुण (वि०) अशुभ गुण। (जयो० १/२)
(समु० १/५) दुर्गुणभारः (वि०) अतिचार, दोष। (जयो० ५/४४) दुर्दैवता (वि०) दुर्भाग्यता। (वीरो० ४/७) दुर्गहप्रतिकृत (वि०) भूतवाधा निवारक। (जयो० १९/७८०) दुर्घतं (नपुं०) बेईमानी से जुआं खेलना। दुर्घट (वि०) कठिन, असम्भव।
दुर्धर (वि०) जिसे रोका न जा सके। दुर्घोषः (पुं०) कर्कशध्वनि, कठोर शब्द।
दुर्धर्ष (वि०) अनुल्लंघनीय, अगम्य। दुर्जन (वि०) दुष्टजन, प्रकृति में उद्दण्ड मनुष्य, कुनर। (समु० दुर्थी (वि०) दुष्ट बुद्धि वाला, कुमति युक्त।
६/३८) दुर्जना दोषवित्तिका दुर्जनानां वचः स्वादु हृदि दुर्ध्यान (वि०) खोटा ध्यान, आर्तध्यान। 'दुरिति शब्दो वैकृते हालाहल यथा। फणायां फणिनो रत्नं दंष्ट्रायां गरलं महत्। वर्तते, विकृतो वर्णो दुर्वर्ण इति यथा, एवं विकृतं ध्यानं (दयो०६१)
विकारान्तरमापन्नं दुध्यानमिति' (जैन०ल०पृ० ५२४) दुर्जनवारणं (नपुं०) दुष्टता का निवारण। ओं सव्वोसहिपत्ताणं दुर्नामनः (पुं०) बवासीर।
णमो स्यादुपसर्गहृत् णमो मणवलीणं चापस्मार-परिहारभृत।। | दुर्निग्रह (वि०) उच्छृखल, उद्दण्ड, बेलगाम, कठिनाई से वश (जयो० १९/७८)
__ में होने वाला। दुर्जनसमूहः (पुं०) दुर्जनसमुदाय।
दुर्निमित्त (वि०) अहितकर कारण, अपशकुन। (सुद० १२५) दुर्जय (वि०) अजेय। (मुनि० ३०)
दुर्निनाद (वि०) अपशब्द ध्वनि, कर्कशध्वनि। दुर्जर (वि०) चिरयुवा।
दुर्निवार (वि०) अजेय, अत्यधिक कठिन। (जयो० ७/७१) दुर्जात (वि०) दुःखी, अभागा, दुष्ट स्वभाव को प्राप्त। दुर्निवार्य (वि०) जिसका निवारण करना कठिन हो। दुर्जातिः (स्त्री०) दुर्भाग्य, दुर्दशा।
दुर्नीत (वि०) दुराचरण। दुर्जान (वि०) कुज्ञान, अनर्थकारी, बोध।
दुर्नीति (स्त्री०) दुर्व्यवहार, प्रतिकूल शासन, अरीति। (जयो०० दुर्जेय (वि०) कठिनता से जानने योग्य।
१/१२) दुर्णयः (पुं०) दुराचरण, अन्याय।
दुर्बल (वि.) १. बलहीन, कमजोर, क्षीणकाय, शक्तिहीन। दुर्नयः (०) दुराचरण, अन्याय, अनौचित्य।
२. स्वल्प, थोड़ा, कम।
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दुर्बुद्धि
४८२
दुराधिग
दुर्बुद्धि (स्त्री०) खोटी बुद्धि।
दुर्योनि (वि०) निम्न जाति में उत्पन्न। दुर्बुद्धि (वि०) मूर्ख, कुविद्। (जयो०१० २/१२४)
दुर्लक्ष्य (वि०) अदर्शनीय, नहीं दिखाई देने वाला। दुबोध (वि०) दुर्ग्राह्य, शीघ्र समझ में नही आने वाला। दुर्लभ (वि०) कठिन, कष्टसाध्य। (जयो०वृ० १/१०६) दुर्भग (वि०) भाग्यहीन, अभागा।
दुर्ललित (वि०) बिगड़ा हुआ, लाड़-प्यार से रहित। दुर्भगा (वि०) बुरे स्वभाव वाली स्त्री।
दुर्लाभ (वि०) कठिन लाभ। दुर्भर (वि०) अत्यधिक भार।
दुर्लेश्या (स्त्री०) १. कृष्ण लेश्या, २. अत्यधिक क्रूर प्रकृति। दुर्भाग्य (वि०) अभागा, भाग्यहीन, दुर्विधि। (जयो०९/६) दुर्वचस् (नपुं०) गाली, झिड़क। दुर्भक्ष (वि०) कठिन खाद्य, कठोर खाद्य।
दुर्वर्ण (वि०) अवर्ण, वर्ण विहीन, हीन। (जयो० ६/७४) बुरे दुर्भक्षं (नपुं०) अकाल, खाद्याभाव।
रंग गा। दुर्भिक्षभावः (पुं०) अखाद्य भाव। (दयो०१६) भीख मिलना दुवर्णता (वि०) अवर्णता। (मुनि० ९) कठिन।
दुर्वह (वि०) भारी, अत्यधिक भार वाला। दुर्भेद्य (वि०) अजेय। (जयो० १/७१)
दुर्वाच्य (वि०) उच्चारण करने में अत्यधिक कठिन। दुर्मृत्यः (पुं०) क्रूर सेवक।
दुर्वाद (वि०) अपवाद, कुख्याति, अपयश, कुवचन। दुर्भातृ (पुं०) कठोर प्रकृति वाला भाई।
दुर्वार् (वि०) निवारण करने में कठिन, असह्य, निरर्गल, दुर्मत (वि०) अपक्रम। (जयो० १२/४)
अबाधरूप। (जयो० १५/३) दुर्मति (स्त्री०) कुबुद्धि, कुमति। (जयो० ४/२०)
दुर्वासना (स्त्री०) कुवासना, अशुभ प्रवृत्ति, नीच प्रवृत्ति, नीच दुर्मति (पुं०) मंत्री नाम कुसचिव। (जयो० ४/१३) ___ कामना, निम्न कामना। दुर्मद (वि०) मद की अधिकता वाला, दुरभिमान। (जयो० | दुर्वासस् (वि०) नग्न। ___३/१९) मदोन्मत्त, दुर्मदाचलपर्वत। (जयो० ३/१४) दुर्विगाह (वि०) अगाध, गहीर, गंभीर, जिसमें अवगाहन दुर्ममनस् (वि०) खिन्न मन वाला, दुःखी, हतोत्साहित। ___ करना कठिन हो। दुर्मनुजः (पुं०) क्रूर मनुष्य।
दुर्विचिन्त्य (वि०) अचिन्तनीय, अतळ। दुर्मत्रं (नपुं०) दुःसाध्य मन्त्र।
दुर्विदग्ध (वि०) मूर्ख, मन्दबुद्धि। दुर्मन्त्रि (वि०) क्रूर प्रकृति वाला मन्त्रि।
दुर्विध (वि०) अधम, नीच, दुष्ट, हीन, तुच्छ, निर्धन। दुर्मरणं (नपुं०) अकाल मृत्यु।
दुरभिमान (वि०) दुष्टाहङ्कार, दुर्मद (जयो० २/९) दर्प (जयो० दुर्मषण: (पुं०) एक व्यक्ति। (जयो० ७/१)
२/१२४, ३/१९) दुर्मर्याद (वि०) निर्लज्ज, अशिष्ट।
दाकर्ष (वि) आकर्षित करने में असमर्थ। (जयो० १७/१३) दुर्मल्लिका (स्त्री०) एक सुखान्त प्रहसन।
दुराक्ष (वि०) कुदृष्टि वाला। दुर्मागकृत (वि०) कठिन मार्ग वाला। (वीरो० १८/४४) दुरातिक्रम (वि०) दुर्जय, दुस्तर, अजेय, दुर्लघ्य। दुर्मित्र: (पुं०) शत्रु।
दुराग्रह (वि०) कठिन भाव। (वीरो० २०/१८) शुत्र भाव दुर्मुखं (वि०) विकराल मुख वाला, अदर्शनीय मुख वाला (वीरो० ४/४३) __कटुभाषण करने वाला।
दुराग्रहलोपी (वि०) शत्रुभाव अपहारक। (जयो० ४/४६) दुर्मुद् (वि०) हर्षरहित। (भक्ति० ४८)
दुराग्रहवती (वि०) शत्रुता धारण करने वाले। तस्माद् दुर्मूल्य (वि०) अधिक मूल्य वाला।
दुराग्रहवतीर्षण शीलताऽपि (वीरो० १२/२०) दुर्मेध (वि०) मूर्ख, मन्दबुद्धि वाला।
दुराचारयुक्त (वि०) अनीतिप्रथित। (जयो०० ३/१०८) दर्मोच (वि०) मोह का कारण। (वीरो० ९/७७)
दुरात्मन (वि०) दुष्ट प्रकृति वाला। (जयो० ७/१) अशुभ दुर्यशः (पुं०) अपकीर्ति। (जयो० २/९४) (जयो० १२।८०) आत्मा (मुनि० १८) अपमान, अनादर।
दुरात्यय (वि०) कठिनाई से प्राप्त होने वाला, दुर्लभ अगाध। दुर्योध (वि०) अजेय, जो जीता न जा सके।
दुराधिग (वि०) दुष्प्राप्य, दुर्लभ।
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दुराधिष्ठित
४८३
दुष्कृत्य
दुराधिष्ठित (वि०) प्रबद्ध, बंधा हुआ, घिरा हुआ।
(जयो० २।८३) वाति किन्तु दुरितावधीरणः सर्वतोऽपि दुराधी (वि०) कष्टकरी। (भक्ति० २८)
पवमान ईरण:।। दुराध्यय (वि०) दुर्लभ।
दुरितैकधनी (वि०) पाप से परिपूर्ण। दुराध्यवसायः (पुं०) मूर्खतापूर्ण व्यवसाय।
दुरितैकलोपी (वि०) पाप से मुक्त। (वीरो० १८४९ दुराध्वः (पुं०) कुमार्ग।
दुरितैकशापी (वि०) पाप से भयभीत। (सुद० २/३२) दुरान्त (वि०) अनन्त, अन्तहीन।
दुरिङ्गित (वि०) दुष्टचेष्टा (भक्ति० ४२) दुरान्वय (वि०) दुर्गम।
दुरीहवत् (वि०) दुराग्रह के समाना (वीरो० १६/२५) दुराभिमानिन् (वि०) मिथ्या अहंकारी।
दुरीहित (वि०) दुष्ट, कठोरता। (मुनि० २२) दुराराध्य (वि०) कठिन आराधना वाला। (सुद० ३/४२) दुरीहिताञ्चित (वि०) लोभी। दुरारोह (वि०) कठिन चढ़ाई वाला। (सुद० ४/१०) दुरुधर (वि०) अन्यायी। (जयो० १५/७९, (समु० ४/७) दुरालोक (वि०) अवलोकन में नहीं करने वाला।
दुरुद्योगी (वि०) अन्यायी। (दयो० ४७) दुरावगाम (वि०) दुर्बोध।
दुरुपयोगसमर्थ (वि०) पक्षपाती। (जयो० ३/१५) दुरासद (वि०) धर्मकार्य में अशक्य। (जयो० २६/६४) दुरुपायः (पुं०) स्वार्थ भावना जन्य। दुराशय (वि०) दुष्टाभिलाषा युक्त। (समु०१/७१)
दुरितापवर्तिनी (वि०) दुराचार निषेधयित्री (जयो० ३/१८) दुराशा (स्त्री०) दुराभिलाषा। (समु० ३/३६, जयो० ३/३०) दुरितान्धारक (वि०) पाप के अन्धकार से युक्त। (वीरो० १/३९) दुराशिषः (पुं०) शाप। (जयो० २७/३४)
दुरेषणा (स्त्री०) एषणा समिति के विरुद्ध। (भक्ति० ४४) दुरिङ्कित (वि०) बुरी चेष्टा। (सुद० १०३)
दुर्विधि (स्त्री०) दुर्भाग्य। (जयो० ९/६) दुरित (वि०) १. कठिन, कठोर। २. दरिद्र। (जयो० २५/२१) दुर्विनयः (पुं०) उद्दण्ड।
३. पाप जन्य, ४, पापी, अशुभ प्रवृत्तिवाला। (सुद० १०१) दुर्विनीत (वि०) अशिष्ट, असभ्य, दुष्ट, उद्दण्ड स्वभाव वाला। दुरित-यात्री (वि०) पापबुद्धि वाला यात्री। (सुद० ९७) दुर्विपाक (वि०) दुष्परिणाम, बुरा परिणाम, क्षुद्र भाव वाला। दुरभिनिवेश (वि०) दुराग्रह। (वीरो० ४/४३)
१. कर्म का दुष्परिणाम। (जयो०वृ० १/२२) दुरन्त (वि०) पापोदय। (सुद० १०९)
दुर्विलसित (वि०) स्वेच्छाचार। दुरन्तदुःख (वि०) पापोदय से दुःख। (सुद० १/२) दुर्वृत्त (वि०) असभ्य, दुष्ट, दुराग्रही। दुरन्तदुरित (वि०) पापोदय से घिरा हुआ। (सुद० १०९) दुर्वृत्ति (स्त्री०) अशिष्ट व्यवहार। (समु० ३/३५) दुरन्तकुन्तिन् (वि०) विश्वासघात, अमानवीय कार्य। (वीरो० दुर्वृष्टि (स्त्री०) अनावृष्टि, कम वर्षा। १७/२४)
दुर्व्यवहारः (पुं०) गलत निर्णय। दरितयोगि (वि०) पाप समूह वाला। (समु० ७/१६) दुर्वत (वि०) अनाज्ञाशील, आज्ञा से विमुख। दुरितप्रणीतिः (स्त्री०) दारुण दु:ख। (वीरो० ९/४०) दुर्हदय (वि०) दुरात्मा, दुष्ट। (समु० ३/२१) दुरितप्रभु (वि०) पाप की अधिकता वाला। (समु०३/24 दुल् (सक०) घुमाना, भुलाना, हिलाना। दुरितहर्ता (वि०) पाप नाशक, वर्जित (जयो०)। दुलालापाधिकालः (पुं०) मङ्गलोच्चारण समय। (दयो० १०९) दुरितसमारम्भप्राय (वि०) पापजन्य कार्य की प्रवृत्ति वाला। दुलिः (स्त्री०) कछुवी, छोटा कछुवा। (सुद० ११२)
दुष् (अक०) दूषित होना, कलंकित होना, क्रूर होना, शुद्र दुरितान्त (वि०) पाप कर्म का अन्त करने वाला। (जयो० होना, उद्दण्ड होना, भ्रष्ट होना। २१/८२)
दुष् (सक०) भ्रष्ट करना, कलंक लगाना, खण्डन करना, दुरितापहारक (वि०) पापापकृत, पाप को नष्ट करने वाला। दोष निकालना। (जयो० १/११३)
दुष्कर्मसमन्वयः (वि०) पापजनक कर्मों का घेरा। (वीरो० दुरितानिबन्धन (वि०) पाप चेष्टा। (जयो० २६/४१)
११/१०) दुरितावधीरण (वि.) पाप प्रलोपक पवित्र करने वाली। | दुष्कृत्य (वि०) दुष्टकार्य युक्त। (वीरो० १६/२१)
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दुष्ट
४८४
दुहित
दुष्ट (भू०क०कृ०) [दुष+क्त] क्षतिग्रस्त, दूषित, कलंकित, दष्प्रमुष्ट दोषः (पुं०) प्रमार्जन न करते हुए वस्तु को उठाना
प्रकृति में अभद्र व्यवहारी, अशिष्ट, अलुषित। (सुद० रखना, आदान-निक्षेपण समिति का दोष। १३४) (जयो० दृ० १/२०)
दुष्प्रयुक्तः (पुं०) दुष्ट प्रयोग। दुष्कामि (वि०) पापकर्मी। विक्रीयते निष्करुणैकर्मणीव दुष्प्रयुक्त-कायक्रिया (स्त्री०) असावधान प्रवृत्ति वाली शारीरिक तैर्दुष्कामि-सिंहस्य को स्वयं हेते: (वीरो० ९/७)
क्रिया। दुष्क्रम (वि०) अपक्रम, दुर्मन। (जयो० १२/४) 'दुष्टः दुष्प्रयोगः (पुं०) दुष्ट प्रयोग।
कषायविषय-दूषितः। मलिन, पापासक्त। (सम्य० ७०) दुष्फल (वि०) पाप विपाक। (सुद० २/३५) दुष्कर्मन् (नपुं०) पापकर्म।
दुस् (वि०) [दु+सुक्] दुष्ट, खराब, घटिया, मलिन। दुष्टगजः (पुं०) मदोन्मत्त हाथी।
दुष्कर (वि०) कठिन, दुष्ट, करने में अधिक कठोर। दुष्टगामी (वि०) अशिष्टता पूर्वक गमन करने वाला। दुस्कर्मन् (पुं०) पापकर्म। दुष्टचेतस् (नपुं०) दूषित बुद्धि, दुर्भावना जन्य मन। दुस्कालः (पुं०) अकाल, अनावृष्टि का समय। दुष्टधी (वि०) दूषित बुद्धि वाला।
दुस्कुल (नपुं०) निम्न कुल, अधम परिवार, गिरा हुआ कुटुम्ब। दुष्टता (वि०) अभद्रता।
दुस्कुलीन (वि.) निम्न जाति में उत्पन्न हुआ। दुष्टभावः (पुं०) दूषित विचार। (वीरो० ११/२२)
दुःशीला (वि०) दुराचारी। (जयो० १/२०) असती। दुष्ट-वृषभः (पुं०) अड़ियल बैल।
दुःशीलाचरणं (नपुं०) व्यभिचार। (जयो० १/४०) दुष्टसङ्ग (पुं०) बुरी संगति। (जयो० ४/६२)
दुःसाध्य (वि०) दुर्दिन। (वीरो० ४/७) दुष्टात्मन् (वि०) पापजन्य मन वाला, मिथ्यात्व से युक्त दुष्कृत् (पुं०) दुष्टपुरुष, नीच व्यक्ति। ___ आत्मा वाला। (समु० ६/३८)
दुष्कृतिः (स्त्री०) पाप जन्य कार्य। दुष्टा (स्त्री०) कलंकिता। (जयो० २०/६८)
दुश्चर (वि०) अगम्य, दुर्गम, दुर्व्यवहार करने वाला। दुष्टाशय (वि०) दुष्ट अभिप्राय वाला।
दुश्चरित (वि०) दुराचरण करने वाला, घृणित चरित वाला। दुष्टिः (स्त्री०) [दुष्+क्तिन्] खोट, भ्रष्टाचार।
दुश्चिकित्स्य (वि०) अशक्य। (जयो० ७/६६) असाध्य रोग दुष्टु (अव्य०) [दु+स्था+कि] दुष्ट, बुरा, अनुकूल।
युक्त। दुष्कर्मन (नपुं०) पापकर्म। (जयो०८/१२ जयो० १/८४) । दुश्च्यवनः (पुं०) इन्द्र। दुष्पक्वाहारः (पुं०) अध पका हुआ आहार, नहीं पका हुआ दुस्तर्कः (पुं०) मिथ्या विचार।
अहार। 'असम्यक् पक्वो दुःपक्वः अस्विन्नः, अतिक्लेदेनेन दुस्थ (वि०) दुर अवस्था गत, कठिन परिस्थिति युक्त।
वा दुष्टः पक्वो दुःपक्वः दुःपक्वः तस्य आहारः दुःपक्वाहारः। नियन्त्रितुं तान् मनवो बभुक्ते धरातलेऽस्मिन् समवाप्त दुष्पच (वि०) पचाने में कठिन। (त०१० ७/३५)
दुस्थे। (वीरो० १८/११) दुष्पथं (नपुं०) कुमार्ग, उत्पथा (भक्ति० ११)
दुःस्थित (वि०) दूर स्थित। (वीरो० २२/२४) दुष्पतनं (नपुं०) दुर्वचन।
दुस्शकुनं (नपुं०) अपशकुन। दुष्परिग्रह (वि०) ग्रहण करने में कठिन।
दुस्शासनं (नपुं०) कठिन शासन वाला। दुष्परिणामफलं (वि०) दुबुद्धि, बुरी परिणति, दुर्विपाक। (दयो०९८) दुस्शासनः (पुं०) धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों में से एक। दुष्प्रसह (वि०) भयानक, असह्य।
दुस्सह (वि०) कठिन, कठोर (जयो० ९/४) दुष्प्रतिलेखसंयमः (पुं०) भली-भांति प्रमार्जन न करना। दुः। दुस्साहसः (पुं०) कठिन कार्य, मिथ्यासाहस। (जयो० २/१४५)
प्रतिलेखो दुष्टु प्रमार्जनं जीवघात-मर्दनादिकारकं, तस्य दुस्साहसिक (वि०) साहस में कठिनता रहित। संयमनं यत्नेन प्रतिलेखनं जीवप्रमादमन्तरेण दुष्प्रतिलेखसंयमः दुहु (सक०) दोहना, निचोड़ना, दुहना, लगाना, निकालना। (मूला०वृ० ५/२२०)
(सुद० ४/२२) दुष्प्रत्युपक्षेपणं (नपुं०) व्याकुलित चित्त से मल-मूत्र विसर्जन। | दुहित (स्त्री०) [दुह् तृचपुत्री, कन्या, सुता, धूता, लड़की। दुष्प्रभावः (पुं०) पापजनक प्रभाव। (जयो० ४/६२)
(जयो० ४/४३) (जयो० २/१३२) तनया (जयो० ४/१९)
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दुहितृपतिः
४८५
दूषिका
दुहितृपतिः (पुं०) जमाता, दामाद।
दूरदूरात (अव्य०) दूरी से। दुहितृनायकः (पुं०) जमाता, जामई। (जयो० १३/२२) दूरदूरेण (अव्य०) अधिक दूरी से, फासले से। दू (अक०) कष्टग्रस्त होना, पीड़ित होना खिन्न होना। दूरवर्तित्व (वि०) दूर रहने वाला। (सम्य० ५०) दूतः (पुं०) [दु+क्त] सन्देशवाहक, (जयो०७/६५) राजदूत, दूरवर्ती (वि०) दूर रहने वाला। (वीरो० २०/८) संदेश ले जाने वाला। (जयो० ३/३५)
दूर-वर्तिन् (वि०) पराङ्मु ख, उदासीन। (वीरो० १/२६) दूतकः (पुं०) राजदूत। [दूत+कन्]
दूरारुढः (पुं०) दूर स्थित। (सम्य० ४१) ऊँचाई पर स्थित। दूतचर (वि०) संदेश का काम करने वाला।
दूरीकृ (वि०) दूर करना। दूतजनः (पुं०) चरनर, संदेशवाहक। (जयो० वृ० ३/१४) दूरीभू (वि०) दूर रहने वाला। दूतदोषः (पुं०) संदेश देकर स्थान प्राप्त करना साधु का दूत | दूरेक्षणयन्त्रशक्तिः (स्त्री०) दूरदर्शन यन्त्र। ___ दोष है।
दूरेत्य (वि०) [दूरेभव+-दूर+एत्य] दूरी पर स्थित। दूतशिरोमणि (स्त्री०) चारतीर्थ। संदेश वाहकों में प्रमुख। दूर्यं (नपुं०) [दूरे उत्सार्यम-दूर-यत्] विष्ठा, मैला। (जयो०वृ० ७/६२) प्रमुख संदेश वाहक।
दूर्वा (स्त्री०) [दुर्व+अ+टाप्] घास, दूब, हरिताङ्कर। (जयो० दूतसंलपितं (नपुं०) दूत का शान्तिपूर्ण वचन। 'दूतस्य संलपितं १/५८) भूभाग पर उगने वाली दूबा। (जयो० ११/९१) तदेव तस्यार्ककीर्ते' (जयोवृ० ७/६१) ।
दूर्वाङ्करः (पुं०) कोमल दूब। (जयो० १५/१२) (वीरो० दूतहूति (स्त्री०) दूत का आह्वान्, दूत की पुकार। 'दूतस्य १/१७) इतिमाह्वानमुपगम्य' (जयो०वृ० ३/११) ।
दूलिका (स्त्री०) [दूली+कन्+टाप] नील का पौधा। दूतिका (स्त्री०) [दू+ति+कन्+टाप्] दूती, संदेशवाहिका।। दूष (वि०) [दूष्+णिच्+अच्] दूषित करने वाला, अपवित्र दूती (स्त्री०) [दूति ङीष्] संदेवाहिका, रहस्य जानने वाली। करने वाला। (जयो० १५/८९)
दूषक (वि०) [दृष्+णिच्+ण्वुल] कलंक लगाने वाला, अपवित्र दूत्यं (नपुं०) [दूतस्य भावः-दूत+यत्] दूतालय, संदेश स्थान। करने वाला, उल्लंघन करने वाला, अपराध करने वाला, दून (वि०) [दूत+क्त, नत्वम्] पीडित, कष्टजन्य।
गुमराह करने वाला, भ्रष्ट, पतित, दुराचारी। दूना (स्त्री०) अशंका, शुचमापन्न। (जयो० १३/३) । दूषकः (पुं०) भ्रष्ट, पतित, निम्न, गिरा हुआ। दूर (वि०) [दुःखेन ईर्यते-दुर+इण्+रक्] दूरवर्ती, विप्रकृष्ट, दूषणं (नपुं०) [दूष+ल्युट्] बिगाड़ना, हानि पहुंचाना, अपवित्र
अत्यन्त दूर। (जयो० ३/९१) दीर्घ, विशाल (जयो९ करना, दोष, हानिकर। (जयो० ४/२०, २/५३) 'दूषणानि १६/७७)
वचनस्य शोधयेच्च' (जयो० २/५३) 'महाव्रतेभ्योऽयमिहातिदूरः' (सम्य० ९८)
० अप्रतिष्ठा, अपराध, त्रुटि, पाप, अशुभ परिणति, दूरं (नपुं०) दूरी, अधिकता, अत्यन्त, बहुत अधिक। दूरस्य आलोचना, आक्षेप। सम्पश्य पुनः सुहस्त। (समय० १३८)
० साधन में दोष को प्रकट करना। 'साधनदोषोद्भावनं दूषणम्। दूरग (वि०) दूर रहने वाला। (समु०७/२७)
दुषणकारित्व (वि०) दोष करने वाला। (जयो० १७/५६) दूरतः (अव्य०) [दूर+तस्] दूर से, 'तदद्वयं परिहरेत्तु दूरतः' दूषणता (वि०) निन्दापना, दोषारोपण। धरा तु धरणेभूषणताया __(जयो० २/१०९) (जयो० ३/१०८)
नैव जात्वपि स दूषणतायाः। (सुद०७५) दूरत (वि०) दुष्टता युक्त, कुत्सित क्रीडा युक्त। (जयो० १४/२) | दूषणभृष्टिः (स्त्री०) उत्तरोत्तर गुणाधिकता। (जयो० ५/३०) दूरतर (वि०) अधिक दूरी। दूराद दूरतरं (वीरो० १५/९) दूषणाभासः (पुं०) जात्युत्तर, साधन में जो दोष संभव नहीं, दूरतम (वि०) अत्यधिक दूर, बहुत दूर। (भक्ति० ३३)
उनके उद्भावन को दूषणाभास कहा जाता है। दूरदर्शनम् (नपुं०) १. दूरवर्ती पदार्थों का अवलोकन। । दूषणावह (वि०) कलंक लगाने वाला।
२. टेलीविजन, एक यन्त्र विशेष, जिससे सभी प्रदेशों, दूषिः (स्त्री०) [दूष्+णिच्+इन्] दोष, ढीढ, आंख का मैल। स्थानों, देशों आदि सचिव दर्शन होते हैं।
दूषिका (स्त्री०) [दूषि कन्+टाप्] लेखनी, निर्झरणी, कूची, दूरदर्शी (वि०) दीर्घालोचक, दीर्घदर्शी। (जयो० १६/७७)
आंख का मैल।
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दूषिण
૪૮૬
दृढप्रहारः
दक्षिण (वि०) तिरस्कृत करने वाले। (जयो० १०/५७) दृगप्लावनं (नपुं०) नेत्रों का मंगल स्नान। (सुद० १०१) दूषित (वि०) [दूष्-णिच्+क्त] भ्रष्ट, पतित, गिरा हुआ, दृगुत्तमा (वि०) उत्तम दृष्टि वाली। (जयो० ५/९३)
विकृत, निन्दित, अपवित्र, विकृत, अपहत, हतोत्साहित, | दृनिर्निमेषत्व (वि०) नेत्र की स्थिरता, पलक का एकाग्रीकरण कलंकित, बदनाम, अपमानित।
पलकों का नहीं झपकना। इतीव वक्तुं जगते जिनस्य दृष्य (वि०) [दूष्+णिच् यत्] निन्दनीय, गर्हित, कलंक युक्त। दृनिर्निमेषत्वमगात्वसमस्य' (वीरो० १२/४२) केवल ज्ञान दूष्यं (नपुं०) १. वस्त्र, २. मवाद, राद, ३. विष, ४. कपास, प्राप्त करते ही भगवान् के नेत्र निर्निमेष हो गए। ५. तम्बू।
दृङ्मोहः (पुं०) दर्शनमोहनीय कर्म। (सम्य० ५९) दूष्यकं (नपुं०) वस्त्रगृह, तम्बू, डेरा। महिलाभिरलाभिदूष्यक | दृङमोहनाश: (पुं०) दर्शनमोहनीय कर्म का नाश। (सम्य० प्रसमीक्षासहिताभिरध्यकम्। (जयो० १३/७१)
११०) दृष्या (स्त्री०) हाथी के कसने का तंग।
दृकं (नपुं०) [दृकक्] १. छिद्र, २. दृष्टि। (भक्ति० १२) दृ (अक०) आदर करना, सम्मान करना, पूजा करना, | दुकक् (वि०) देखने वाला। (वीरो० २०/१०)
प्रतिष्ठा करना, मन लगाना, आराधना करना, संलग्न दृढ (वि०) [दृह्+क्त] स्थिर, अचल, ठोस, कठोर, मजबूत रहना, ध्यान करना, स्तवन करना।
कसा हुआ, संपुष्ट, स्थापित, अत्यधिक शक्तिशाली, दूह (अक०) पुष्ट करना, समर्थन करना, दृढ़ होना, विकसित टिकाऊ, गहन, बड़ा, मर्मभेदी। (जयो०८/२६) होना।
दृढकाण्डः (पुं०) बांस। इंहित (भू०क०कृ०) [इंह+क्त] पुष्ट किया, समर्थन किया। दृढकर्मन् (वि०) अचल कार्य, स्थिर कार्य। दुक (नपुं०) चक्षु, नयन, नेत्र, अक्षिा 'दृक् तस्य चायात्स्मर- दृढग्रन्थिः (स्त्री०) बांस। दीपिकायाम्' (जयो० १०/११५)
दृढग्राहिन् (वि०) शक्ति से पकड़ा हुआ, बलपूर्वक ग्रहीत। दक्पथं (नपुं०) नयनपथ। (जयो० ४/९) देखना, अवलोकन दृढचित्तं (नपुं०) कठोर हृदय। (जयो० २/११) करना।
दृढचेता (वि०) दृढ चित्त वाला, संकल्पशीलमना। (समु० ३/५) दुग (नपुं०) चक्षु, नेत्र। (सुद० ) दृष्टि (जयो० १/७८) दृढत्व (वि०) शक्तिशाली, मर्मभेदी, अचलत्वा (वीरो० ३/२) दृग्ज्ञानवृत्तं (नपुं०) दर्शन, ज्ञान और आचरण (सम्य० १२४) औदार्य रूपमारोग्यं दृढत्वं पटुवाक्यता। (दयो० ७०) दरज्ञानसुखं (नपुं०) दर्शन और ज्ञान का सुख। (भक्ति० ३१) दृढदंशकः (पुं०) मगर मच्छ। दृग्देशित (वि०) दृष्टिपथ से युक्त। (जयो० २०/४१) दृष्टि दृढद्वार (वि०) वज्रद्वार, ठोस दरवाजा। द्वारा अच्छी तरह देखा गया।
दृढधनः (पुं०) बुद्धि, मति, धी। दृग्भ्रमरी (वि०) नयनगोचर, नेत्र रूपी भ्रमरी। दृगेवभ्रमरी दृढधन्विन् (पुं०) श्रेठ धनुर्धारी। (जयो० १०७०)
दृढधारा (स्त्री०) तेज प्रवाह। दुग्वर्त्म (वि०) दृशौर्नेत्रयोर्वर्त्म-मार्ग नयनगोचरः। (वीरो०६/२१) दृढधार्मिक (वि०) दृढव्रती। (वीरो० १५/४१) दृग्मोहः (पुं०) दर्शन मोह। (सम्य० १२३)
दृढधार्मिकता (वि०) श्रेष्ठ धार्मिक भाव वाला। दृगन्तः (पुं०) कटाक्ष, तिरछी चितवन। 'दृगन्तो मम दृढनिश्चय (वि०) अडिग, अटल, पुष्ट, उचित।
कटाक्षविक्षेपः' (जयो० १६/१५) (सुद० १०३) दृढनीरः (पुं०) नारिकेल वृक्षा दूगन्तसमर्थिनी (वि०) नेत्र पर्यन्त खींची गई। (जयो० १०/३६) दृढनीति (स्त्री०) उचित विचारधारा। दृगन्तवाणं (नपुं०) कटाक्षशर। (जयो० १७/१६)
दृढंत (नपुं०) दृढ़ता युक्त, अत्यधिक शक्ति सम्पन्न। दगञ्चयर्ची (वि०) आंखों की चमक, आंखों में अनुराग। दृशा दृढपथं (नपुं०) गहन पथ।
दर्शनमात्रेणानायासेन स्वत एवाञ्चन्निर्गच्छदर्चिर्यस्य, यद्वा दृढपादपः (पुं०) पुष्ट पौधा, उत्तम पादप, पुष्ट पौधा। दुशोरञ्चदर्चिर्यस्य स' (जयोवृ० १२/६९)
दृढप्रतिज्ञ (वि०) निश्चल वृत्ति वाला, निश्चल प्रतिज्ञा वाला। दृगञ्चला (वि०) अत्यन्त चञ्चल अपांगों वाली। 'दृगञ्चला | (सुद० १२१) चञ्चलापाङ्गवती' (जयो०वृ० ६/४७)
दृढप्रहारः (पुं०) मर्मभेदी प्रहार, कठोर प्रहार। (जयो ८/२६)
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दृढप्रहारिन्
४८७
.
दृष्ट
दृढ प्रहारः प्रतिपद्य मूर्छामिभस्य हस्ताम्बुकणा अतुच्छाः।
(जयो० ८/२६) दृढप्रहारिन् (वि०) शक्ति से प्रहार करने वाला। दृढभक्ति (वि०) श्रद्धालु, निष्ठावान्। दृढमतिः (स्त्री०) १. एक आर्यिका, जैन साधनाशील आर्यिका
साध्वी। २. स्थिरबुद्धि, अडिग, स्थिरप्रज्ञा। दृढमुष्टि (वि०) कृपण, कंजूस। दृढमूलः (पुं०) नारिकेल तरु। दृढलोमन् (पुं०) जंगली सुअर। दृढयोगचा (स्त्री०) योग की कठिन चर्या। (दयो० ३०) दृढवैरिन् (पुं०) निर्दय शत्रु, निर्दय व्यक्ति। दृढव्रत (वि०) धर्ममार्ग पर स्थिर। दृढसंकल्प (वि०) प्रण का पक्का। (दयो० १/१५) दृढसन्धि (वि०) कसकर जुड़ा हुआ, सघन, संहत, सटा हुआ। दृढसंयमाञ्चित (वि०) दृढसंयम का धारक। स्फुरन्मनः
पर्ययचारणर्द्धितः समन्वितः सन्दृढसंयमाञ्चित। (समु० ४/१८) दृढसौहृद (वि०) अटल मित्रता वाला। दृढांग (वि०) शक्तियुक्त शरीर वाला, बलशाली। दृढादेश (वि०) दृढता युक्त। (जयो० २३/८४) दृढाशय (वि०) दृढचित्त वाला, स्थिरचित्त। 'दृढ आशयो येषां
ते दृढचित्ताः' (जयो०१० २/११) दृतिः (पुं०) मशक, चर्म मछली, धौंकनी। दृप (सक०) प्रज्ज्वलित करना, जलाना, सुलगाना, प्रकाशित
करना। दप (सक०) अहंकार होना, ढीठ होना, घमण्ड करना,
आरम्भ होना। दृप्त (वि०) [दृप्+क्त] अहंकारी, घमण्डी, मदोन्मत्त, असभ्य,
मूढ, मंदबुद्धि युक्त। दृप्तिः (स्त्री०) १. विद्यमानता (वीरो० २०/११) २. अहंकार। दृप्र (वि०) [दृप्+रक्] अहंकारी, घमण्डी, शक्तिशाली। दृष्धिः (वि०) कोमलता। (सम्य० ४५) उत्साहविचारदृब्धिः। दृश् (सक०) १. देखना, दृष्टि रखना, अवलोकन करना, २.
समीक्षा करना, निरीक्षण करना, ३. सम्मान करना, ४. प्रतीक्षा करना, सीखना, जानना। 'ददर्श योगीश्वरमात्मसाधनम्' पश्यति, दृश्यते, दर्शयति (सुद० ३/५३) दशर्यते, अदर्शि (जयो० १/९०) 'दृष्टवा मुनीन्द्रं कमलश्रियो भूः' (सुद० २/२५)'अपश्यमस्यन्तमितो द्रुतम्' (सु०२/१७) 'दृष्टुं मुखं मञ्जु दृशो रयेण' (वीरो० ५/९)
दृश् (वि०) [दृश्+क्विप्] १. देखने वाला, अवलोकन करने
वाला, विवेचन करने वाला, जानने वाला, प्रतीत होने वाला। (सम्य० ७९) २. अवलोकन, ज्ञान, दृष्टिगोचर,
आंख, दृष्टि। (सुद० २/४८) दृश् (नपुं०) दर्शन, विश्वास, श्रद्धा। (सम्य० ७९) दृशद् (स्त्री०) प्रस्तर, पत्थर। दृशंत (वि०) अपाङ्गवीक्षण। (जयो० १७/१३) दृशमाक्षु (नपुं०) नयन, नेत्र, अक्षिा (सुद० ७०) दृशा (स्त्री०) [दृश्+टाप्] अक्षि, आंख, चक्षु दृष्टि। (सुद०
७०) नेत्र, नयन (जयो० १/८३, जयो० ५/३३) दृशानः (पुं०) [दृश्+आनच्] १. आध्यात्मिक गुरु। २. विप्र,
३. लोकपाल। दृशानं (नपुं०) प्रकाश, प्रभा, कान्ति, उजाला। दशाभिरामः (पुं०) मनोहर दृष्टि। 'दृक् दृष्टिश्च तयाऽभिरामो ___ मनोहरः' (जयो०वृ० १/८३) दृशिः (स्त्री०) दृष्टि, आंख, अक्षि। दृशि-निमिष (वि०) पलकपात। 'दृशि दृष्टौ निमिषः
पलकपातस्य' (जयो०१० २२/२९) दृश्य (संकृ०) दर्शनीय, देखने योग्य, देख करके, अवलोकनीय।
(सम्य० २४) 'इदं प्रत्यक्षदृश्यं रवितामियति' (जयो० १/२३) 'आनन्दृशः प्रसन्नदृष्टेरेकोऽनन्यरूपश्चासौ दृश्यो
दर्शनीयस्तम्' (जयो० १/७७) दृश्यतम (वि०) सर्वोत्कृष्ट दर्शनीय। दृश्यतमोऽयं बाले
कुसुमेषुरदृश्य इति किन्तु। (जयो० ६/८७) दृश्यवस्तु (नपुं०) देखने योग्य पदार्थ। (सुद० १०९) दृश्यविधिः (स्त्री०) देखने की विधि, अवलोकन पद्धति,
निरीक्षण की रीति। (भक्ति० २६) दृश्वन् (वि.) [दृश्+क्वनिप्] देखने वाला, परिचित, समझने
वाला। दृषद् (स्त्री०) [दृ+अदि, षुक्] १. चट्टान, पत्थर, शिला। २.
सर्वज्ञ। (वीरो० २०/११) दृषद्त् (वि०) [दृषद्+व्रत] चट्टान से बना हुआ, शिला से
निर्मित। दृष्ट (भूक०कृ०) [दृश्+क्त] देखा गया, अवलोकित,
पर्यवेक्षित, दर्शनीय, अवलोकनीय, दृष्टिगोचर किया गया, पर्ववेक्षणीय। (सम्य० ७१) ० समझा गया, सोचा गया, सराहा गया, व्यक्त किया गया, जाना गया।
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दृष्टकष्ट
४८८
दृष्टिविषः
वाला।
० निर्धारित, निर्णीत, निश्चित, नियत किया गया। 'दृष्टः (जयो० २५/४३, २४/८६, ३/६४, २७/७३, २७/३६, सुहानोकहको विशाल' (सुद० २/१५)
दृष्टान्तोऽलंकारः (जयो० २७/६, वीरो० १/८) जयो० दृष्टकष्ट (वि०) देखे गए कष्ट अनुभूत दु:ख।
३/३७, ३/४३, ७/४९, ७/३६) दृष्टकूट (नपुं०) गूढ प्रश्न, रहस्यमय प्रश्न।
दृष्टान्त-निदर्शनं (नपुं०) साध्य-साधन का निर्दशन उदाहरण दृष्टदोषः (पुं०) आलोचन दोष, जो दोष दूसरे के द्वारा देखा का निरूपण। (जयो० ७/७९) नीतिमीतिमनयो नयन्नयं
गया, उसकी आलोचना गुरुके समीप करना। 'यद् दृष्टं दुर्मतिः समुपकर्षति स्वयम्' उल्मुकं शिशुवदात्म्नोऽशुभं
दूषणस्यान्य दृष्टस्यैव प्रथा गुरुः' (अनगार धर्मा० ७/४१) योऽह्नि वाञ्छति हि वस्तुतस्तु भम्। (जयो० ७/७९) दृष्टप्रत्यय (वि०) विश्वास रखने वाला, विश्वस्त।
दृष्टान्ताभासः (पुं०) साध्य से रहित दृष्टान्त। तदाभासाः दृष्टमात्रं (नपुं०) दर्शनमात्र। 'यो दृष्टमात्रेण हरज्जनीनाम्' साध्यादिविकलादयः (न्याय वि० २/२११) (वीरो० १३/१८)
दृष्टिः (स्त्री०) [दृश्+क्तिन्] १. नेत्र, नयन, अक्षिा (जयो० दृष्टरजस् (स्त्री०) रजस्वला वाली कन्या।
११/४) २. देखना, अवलोकन, निरीक्षण, समीक्षण। ३. दृष्टवंत (वि०) देखा गया। (सुद० १/५)
जानना, समझना, ज्ञान करना, मानना। पर्याय एवास्य बभूव दृष्टव्यतिकर (वि०) अनिष्ट को समझने वाला, कष्ट को दृष्टिः (सम्य० ५३), ४. विचार, आदर, सम्मान। (सम्य०पृ० भांपने वाला।
५४) श्रद्धावान (सम्य १२२) दर्शन (सम्य० १२१) दृष्टादृष्टं (नपुं०) किसी के देखा जाने पर दृष्ट होना। दृष्टिक (वि०) दार्शनिक, दर्शनशास्त्र का ज्ञाता, जानने वाला। दृष्टादृष्टवन्दनक (वि०) किसी के देखे जाने पर वन्दना करने कर्म यत्सतुषमेति सृष्टिकः शोधयन्ननुकरोति दृष्टिकः।
(जयो० २/१३) दृष्टान्त (पुं०) उदाहरण, निर्देशन, किसी का अर्थ स्पष्ट हो, दृष्टकृतं (नपुं०) स्थलपा। व्यावहारिक।
दृष्टिक्षेपः (पुं०) दृष्टि डालना, अवलोकन करना। ० साध्य और साधन धर्मों का सम्बन्ध जानना।
दृष्टिगुणः (पुं०) तीर चलाना, निशाना साधना। 'सम्बन्धो यत्र निर्जातः साध्यसाधनधर्मयो स दृष्टान्तः (न्याय दृष्टिगोचर (वि०) दृश्य, दिखाई देने वाला, अवलोकन करने विनश्चय २/११) दृष्टमर्थमन्तं नयतीति दृष्टान्तः
योग्य। 'अतीन्द्रियप्रमाणदृष्टं संवेदन-निष्ठां नयतीत्यर्थः।
दृष्टिदानं (नपुं०) प्रसाद। (जयो०वृ० १०/११६) कृपा दृष्टि। ० व्याप्ति-सम्प्रतिपत्तिप्रदेशो दृष्टान्तः' (न्यायदीपिका १०४) दृष्टिपथः (पुं०) दृष्टि मार्ग, अवलोकन का कार्य। (जयो० ० दृष्टान्त अलंकार विशेष, जिसमें कोई उचित उदाहरण १/७९, दयो०१७) देकर समझाया जाए।
दृष्टिपथगत (वि०) गृहीत, संगृहीत, अवलोकनीय। (जयोवृ० अन्वयख्यापनं यत्र क्रियया स्वत दर्शयोः।
१/३३) दृष्टान्तं तमिति प्राहुरलङ्कारं मनीषिणः। (वाग्भट्टालंकार | दृष्टिपातः (पुं०) १. अक्षि विक्षेप, कटाक्ष करना। २. दयाभाव। ४/८१) जहां प्रस्तुत और अप्रस्तुत का क्रियागुण-चेष्टादि । दृष्टिपूत (वि०) दृष्टि मात्र से पवित्र किया, देखने में निर्दोष। सम्बन्ध से यथातथ्य वर्णन किया जाता है, वहां दृष्टान्त दृष्टिबन्धुः (स्त्री०) जुगनु, खद्योत। अलङ्कार होता है।
दृष्टिमोहः (पुं०) दर्शन मोह। (सम्य० १२१) वात्ययाऽत्ययिनि तूलकलापे तादृशी स्मरशरार्पित शापे। दृष्टिरागः (पुं०) दर्शन विषयक राग, विचार, श्रद्धा। वेगिता तु समभूत् कृतचारे सा भुवामधिभुवां परिवारे।। दृष्टिवादः (पुं०) अंग आगम का बारह अंग। (जयो० ५/३)
जिस श्रुत में भावों की प्रधानता हो। दिट्ठीओ वददीति दृष्टान्तलङ्कारः (पुं०) अलंकार विशेष जिसमें उचित उदाहरण दिढ़िवाद।
को स्थान देकर समझाया जाता है। (जयो० ३/६४) दृष्टिविक्षेपः (स्त्री०) नेत्र विज्ञान। एतादृशी समिच्छन्तु सर्वेऽपि रमणीमणिम्।
दृष्टिविभ्रमः (पुं०) अनुराग युक्त दृष्टि, हाव-भाव जन्य दृष्टि। स्पृहयति न कं चन्द्रकलाप्यविकलाशया।। (वीरो०५/४१) | दृष्टिविषः (पुं०) सर्प, सांप।
पिया
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दृष्टिविषा
४८९
देवदिगभिद्वारः
दृष्टिविषा (स्त्री०) ऋद्धि विशेष, जिसके दर्शन से मरण। देवकी (स्त्री०) कृष्ण की मां, राजा उग्रसेन की पुत्री। दृह (अक०) स्थिर होना, दृढ़ होना, बढ़ाना, कसना।
श्रीदेवकी मत्तनुजापिदूने' (वीरो० १७/३४) दे (सक०) रक्षा करना, पालना, पोसना।
देवकुलं (नपुं०) जिनालय, देवालय, मन्दिर, देवस्थान, देवों देदीप्यमान (वि०) [दीप्य +शानच्] जगमगाता हुआ, का स्थान। ज्योतिष्मान्, अत्यन्त चमकदार।
देवकुलोपान्तः (पुं०) धर्मशाला, विश्रान्तिगृह। (दयो० ३९) देय (वि०) [दा+यत्] प्रदेय, उपहार योग्य, देने योग्य, प्रदान देवकुल्या (स्त्री०) स्वर्ग गंगा। करने योग्य।
देवकुसुमं (नपुं०) लवंग, लौंग। देव (अक०) खेलना, क्रीड़ा करना, विलाप करना, चमकना। देवखातं (नपुं०) पर्वत पर स्थित प्राकृतिक गुफा, जलाशय, देव (वि.) [दिव्+अच्] दिव्य, उचित, योग्य, स्वर्गीय।
दिव्य सरोकर। देवः (पुं०) सुर, अमर, देवता। धुसदा। (जयो० १५/५९, सुद० देवगणः (पुं०) देव समह, देवों की श्रेणी। २/१४)
देवगणिका (स्त्री०) अप्सरा। ० जिनदेव। (सम्य० १३०, १०९)
देवगर्जनं (नपुं०) घनघोर गर्जना, मेघ गर्जना। ० सुमनस। (जयो०वृ० ३/४६)
देवगतिः (स्त्री०) चार गतियों में एक देवगति, जो दिव्य गुणों ० सुधान्यम्। (जयोवृ० १२/७०)
के आश्रय से क्रीड़ा करते हैं। 'जस्स कम्मस्स उदएण ० मेघा। (जयो०१० २४/८९)
देवभावो जीवाणं होदि तं कम्मं देवगदि त्ति' (धव०६/६७) ० परमात्मा। (सम्य० ९२)
देवगायनः (पुं०) गन्धर्व गान, दिव्य ज्ञान। ० परमेष्ठी वाचक। (सम्य०७४, सुद० ७२, ७३, देवगुरुः (पुं०) बृहस्पति। ० दीव्यतीति देव इति अद पदं परमेष्ठिषु पञ्चपरमेष्ठिषु देवगुही (स्त्री०) सरस्वती, भारती। प्रयुक्तम्' (जयो० २/४) देवोऽर्हन् परमेश्वरः मङ्गलं तु | देवगृहं (नपुं०) देवस्थान, मंदिर। (दयो० २२) परमेष्ठिपूजितं दिव्यदेहिषु नियोगपूजितम्। पार्थिवेषु पृथुताश्रितं देवचर्या (स्त्री०) दिव्य पूजा, श्रेष्ठ अर्चना, उचित सेवा। परं प्रत्ययं चरति देव इत्यदः।।
देवच्छन्दः (पुं०) एक विस्तार प्रमाण, उत्कृष्ट जिनभवनों का दीव्यते-स्तूयते इति देवः
प्रमाण, वसति के भीतर गर्भगृह, जो दो योजन ऊँचा, एक ० श्रेष्ठ, निर्दोष, उत्तम, प्रकटित, निर्दोष। रूपार्थमिमं योजन विस्तृत और चार योजन लम्बा होता है। देवशब्दम्, उत्तमोऽर्थो यस्य स तं श्रेष्ठार्थकं स्वीकरोति' देवतरु (पुं०) मंदार, पारिजात, हरिचन्दन। (जयो०वृ० २/२५)
देवता (स्त्री०) [देव+तल+टाप्] १. देवत्व, शक्ति विशेष, २. ० अमानव (जयो०वृ० ३/१०१)
देव, (सुद०१३४) सुर, मूर्ति, प्रतिमा। (दिव्य ) (जयो० ० स्वामो। विहाय सारं विहरन्तमेव विमानमानन्दकरं च ५/४७) देव। (सुद० २/१८)
० श्रेष्ठ, पूज्य (जयो०१० २/२५, २/२६, २/२७) ० पूज्य। (जयो० २/२५)
देवतास्थली (स्त्री०) देवस्थान। (वीरो० ९/१३) ० अकम्पित गणधर के पिता का नाम। (वीरो० १४/९) देवतादः (पुं०) अग्नि, वह्नि। देवकन्या (स्त्री०) दिव्यकन्या, अप्सरा।
देवत्व (वि०) देवीय। (सुद० ४/३८) ०देव स्वरूप गत। देवकर्मन् (नपुं०) धार्मिक कार्य, अर्हत् उपासनादि क्रिया। देवदत्ता (स्त्री०) एक वेश्या। (सुद० १२२) दासी समासाद्य च देवकार्य (नपुं०) उत्तम कार्य, उचितकर्म।
देवदत्तां वेश्यामसौ तन्नगरेऽभजत्ताम्। (सुद० ११६) देवकीर्ति (पुं०) देवकीर्ति नामक राजा, जयकुमार राजा | देवदारु (पुं०/नपुं०) १. एक वृक्ष विशेष। २. देववृन्द, देवसमूह। सहयोगी राजा। (जयो० ७/८८)
(जयो० २१/२८) देवकान्ता (स्त्री०) देवाङ्गना, देवी।
देवदासः (पुं०) देवालय सेवक, मंदिर की सेवा करने वाला। देवकाष्ठं (नपुं०) देवदारु, वृक्ष।
देवदिगभिद्वारः (पुं०) मुख्य द्वार, प्रवेश द्वार, प्रमुख द्वार। देवकुण्डं (नपुं०) दिव्यकुण्ड, नैसर्गिक जल का कुण्ड, झरना। (जयो० ३/७१)
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देवदीपः
४९०
देवशत्रुः
लिपि।
देवदीपः (पु०) अक्षि, आंख।
'राग-द्वेष-मलीमस-देवानां सेवा देवमढता' (कार्तिकेया० देवदूतः (पुं०) संदेशवाहक, दिव्य संदेश वाहक।
३२६) देवदुन्दुभिः (स्त्री०) १. दिव्य वाद्य, देवों द्वारा बजाया जाने देवभूयं (नपुं०) इन्द्रपुरी, स्वर्ग। वाला वाद्य विशेष। २. तुलसी पुष्प।
देवभृत् (पुं०) इन्द्र। देवदेवः (पुं०) परम देव. अनन्तगुणों से देव।
देवमणि (स्त्री०) दिव्यमणि, कौस्तुभ मणि। देवर्द्धिः (पुं०) देवर्द्धिगणी नामक श्वेताम्बर आचार्य। (वीरो देवमातृका (वि०) प्रतिपालक माता। २२/६)
देवमानकः (पुं०) कौस्तुभ मणि। देवनदी (स्त्री०) स्वर्ग गंगा।
देवमुनि (पुं०) देवऋषि। देवनन्दी (पुं०) एक आचार्य विशेष।
देवमाला (स्त्री०) दिव्य माला, अमर। अक्षय पुष्पदाम। देवनागरी (स्त्री०) एक लिपि-प्राकृत, संस्कृत आदि की | देवमूर्ति (स्त्री०) देव प्रतिमा। (जयो० २/३०)
देवयजनं (नपुं०) यज्ञभूमि, यज्ञस्थान। देवनिकायः (पुं०) १. देवसमूह, देवस्थान, चारों देवों के समूह देवयजि (वि०) देवों के प्रति आहूति।
जहां स्थित रहते हो। २. देव प्रकार भवनवासी, व्यन्तर देवयात्रा (स्त्री०) देवप्रतिमा की यात्रा, देवोत्सव। ज्योतिषी और वैमानिक देव समूह। ३. अमरगण। देवयानः (नपुं०) देवरथ, देव विमान। (जयो० १/९९)
देवयुगं (नपुं०) सतयुग, सुकाल, अच्छा युगा देवनिन्दक (वि०) देवों की निन्दा करने वाला।
देवयोनिः (स्त्री०) देवों में उत्पत्ति, उपदेव, दिव्य जन्म स्थान। देवनिर्मित (वि०) स्वभाव से बना हुआ प्राकृतिक संरचना। देवयोषा (स्त्री०) अप्सरा। देवपञ्चकः (वि०) देव समर्पित। (जयो० १७/१२७) देवरहस्यं (नपुं०) देवताओं का रहस्य। देवपतिः (पुं०) १. इन्द्र, मेघ. २. राजा। देवो राज्ञि सुरे मेघे | देवराज (पुं०) इन्द्र, (जयो० १२/९९) शक्र। (जयो० २४/२८) इति विश्व। (जयो० २४/४१)
'निजगाद स विस्मयो गिरा भुवि वीरोऽयमितीह देवराट्। देवपथः (पुं०) अन्तरिक्ष, आकाश, स्वर्ग मार्ग।
(वीरो०) (सुद०) देवपुरी (स्त्री०) इन्द्रपुरी, अमरावती।
० राजा-देवराडेव बान्धठयात् सहभावो हि बन्धुता। (जयो० देवपूजनं (नपुं०) देवार्चन, देवपूजा। (जयो० २/२३,
३/७०) 'अनिष्टनाशनं देवानां पूजनं देवपूजन इष्टदेवार्चनमस्तु' ० वज्रि- दधतोऽपि शचीव वज्रिणोरतिकी तनुजा समस्तु (जयो० २/२३)
नः। (समु० २/१७) देवपूज्य (वि०) १. देवों द्वारा पूजित, २.अर्हत्, सर्वज्ञ। देवरूपता (वि०) दिव्यता 'भूभागादपि दीव्यतां देवरूपतां भजत' देवप्रतिकृतिः (स्त्री०) ०देवमूर्ति, ०अर्हतमूर्ति।
(जयो०वृ०३/४६) देवप्रतिमा (स्त्री०) ०देवमूर्ति, अर्हतमूर्ति, इष्टप्रतिमा, | देवलिङ्गं (नपुं०) देव प्रतिमा, जिनप्रतिमा। दिव्यप्रतिबिम्ब।
देववक्त्रं (नपुं०) अग्नि, आग। देवप्रश्नं (नपुं०) विशेष जिज्ञासा, भविष्य के प्रति जिज्ञासा। देववर्मन् (नपुं०) आकाश, नभ। देवबलिः (स्त्री०) देव के प्रति आहूति।
देववर्धिक (वि०) देवता बढ़ाने वाला। देवभवनं (नपुं०) १. देवालय, मंदिर, २. स्वर्ग, ३. गूलर वृक्षा देववाणी (स्त्री०) आकाशवाणी, दिव्य उद्घोष। देवभावः (पुं०) १. दिव्यभाव, श्रेष्ठ विचार, उचित परिणाम। देववाराङ्गना (स्त्री०) अप्सरा। (जयो०वृ० ५/८९)
२. देवत्व प्राप्ति, देवगति में उत्पन्न होना। देवतां देवभावं देवबंदः (पुं०) १. देवदारु, २. शक्रसमूह। (जयो० २१/२८) परिपठन्ति। (जयो० २/२६)
देवव्रतं (नपुं०) धार्मिक अनुष्ठान।। देवभूमि (स्त्री०) स्वर्गभुवन, इन्द्रपुरी।
देववाहनः (पुं०) १. देव विमान, २. अग्नि। देवमूढता (स्त्री०) देवत्व से रहित के प्रति श्रद्धा, राग-द्वेषयुक्त देवव्यूहः (पुं०) देव समूह, देवानां व्यूहे समूहेऽपि। (जयो० ५/१९)
देवों के प्रति श्रद्धा, आप्तता से रहित देव को देव मानना। | देवशत्रुः (नपुं०) राक्षस।
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देवश्रुत
४९१
देव्या
देवश्रुत (नपुं०) दिव्य श्रुत, उत्तम शास्त्र।
१. तेषामाधेर्दायकत्वान्निषेधकत्वादित्येकः प्रकारः। आप देवश्रुतः (पुं०) नारद।
कुबुदेवताओं को आधि-मानसिक व्याधि देने वाले हैं, देवसभा (स्त्री०) सुधर्मा सभा।
'पुंस्याधिर्मानसीव्याथा' इत्यमरः (जयो०वृ० २४/९) देवसदृश (वि०) देवों के समान।
२. अक्षाणामिन्द्रियाणां देवशब्द-वाच्यानां येऽर्था विषयास्तेभ्यो देवसमूहः (पुं०) देव व्यूह, देववृंद। (जयो०वृ० ५/१९) भूतस्य संजातस्याधेश्चिकित्सकत्वादिति द्वितीयः प्रकारः। देवसात् (अव्य०) देवों की प्रकृति के समान।
आप इन्द्रिय वाचक देवों के विषयों से प्राणिमात्र के देवसेना (स्त्री०) १. इन्द्र की इन्द्राणी, २. एक राज कुमारी। चिकित्सक हैं अर्थात् इन्द्रिय विषयों को प्राणियों को देवसेव्य (वि०) शुद्ध सेवन करने योग। 'देवैऋषिभिः सेव्यं सुरक्षित करते हैं। 'देवो राज्ञि मेघे देवं स्यादिन्द्रिये मतम्'
ग्रहणयोग्यं तदनवशेषमन्नम् आहरतु' (जयोवृ० २/१०८) इति विश्वलोचन (जयो०७० २४/८९) देवस्थानं (नपुं०) १. धर्मशाला। (दयो० ४२) २. देवालय, ३. इन्द्रादिभिर्देवैश्च त्वं स्तुत्य इत्यतो देवानामधिदेव इति--आप मन्दिर, मूर्तिस्थान, देव की प्रतिमा का स्थल।
इन्द्रादि देवों द्वारा स्तुत्य हैं उन सबसे श्रेष्ठ होने के कारण देवांघ्रिसेवा (स्त्री०) देवों की चरण सेवा। 'तव देवांघ्रिसेवां देवाधिदेव हैं।
सदा यामि त्विति कर्त्तव्यता भव्यताकामी' (सुद० ७३) देवाधिदेवत्व (वि०) परम देवता पना से युक्त। देवांशः (पुं०) १. देवस्थान। 'उपपुरे पुरसमीपभागे दीव्ये देवाधिपः (पुं०) इन्द्र।
मनोहरे वस्तुनि स्थाने तेनैव देवेन देवांशे स्फुरद्। (जयो०वृ० देवान्नं (नपुं०) उत्तम आहार, शुद्ध भोजन, सात्विक, भोजन। ३/७१) २. देव का एक अवतार।
विधिवत् बनाया गया भोजन। देवाङ्गना (स्त्री०) अप्सरा, देव की प्रिया।
देवाभीष्ट (वि०) देवताओं का प्रिय। देवागमः (पुं०) १. देवों का आगमन, २. द्वादशाङ्गाभिधान देवरः (पुं०) पति का भाई।
(जयो० २२/८४) ३. देवागम नामक स्तोत्र, जो आचार्य देवारण्यं (नपुं०) इन्द्र उद्यान। समन्तभद्र द्वारा रचा गया है। इसका अपर नाम आप्तमीमांसा देवार्चनं (नपुं०) देवपूजा। ‘देवानां पूजनं देवपूजनम्' भी है। (जयो० २२।८४, वीरो० ४/३९, २/५) 'किञ्च इष्टदेवार्चनमस्तु' (जयो०१० २/२३) शान्तिवर्मा नाम समन्तभद्र आचार्यस्तस्य भावस्तया।' देवायु (पुं०) देव में उत्पत्ति, देव की आयु। (सम्य० १२०) (जयो०वृ० ३/६३) देव देवागमनाम स्तोत्र (जयो०वृ० देवावसयः (पुं०) देवालय, देवस्थान, पवित्रस्थले। ३/७७) ४. देवस्थिति।
देवावर्णवादः (पुं०) देवों के दोषों का कथन। देवागमसम्भूत (वि०) देवों के आगमन से बनी हुई, देव ने देविक (वि०) दिव्य, देवगुणों से युक्त। देव से प्राप्त।
आकर बनायी, देव सम्पादित। 'मण्डपशाला देवस्यागमेन देविका (स्त्री०) रानी। (वीरो० १५/४६) सम्भूता सुरसम्पादिता।' (जयो०७० ३/७७)
देविकाधिकारिणी (स्त्री०) अधिकारिणी (जयो० २३/२९) देवागम-स्तोत्रः (पुं०) आचार्य समन्तभद्र प्रणीत स्तोत्र। देवी (स्त्री०) [दिव्+अच् डीप] देवी, अधिष्ठात्री देवी। १.
'देवागमनामस्तोत्रस्योपरि कृता, अकलङ्क नामकस्याचार्यस्य रानी (सुद० ८५, जयो० १/१) २. प्रशंसनीय, दिव्य। पूर्विकापि विद्यानन्द स्वामिना व्यावर्णितास्ति' (जयो०वृ० (सुद० १/४६)
देवीय (वि०) देवी संबंधी। (सुद० ४/३८) देवागारः (पुं०) देवालय।
देवोत्तरदेशः (पुं०) देवकुरु और उत्तरकुरु नामक देश। (जयो० देवाचल: (पुं०) मेरुगिरि। (जयो०वृ० २४/४)
२४/७) देवातिदेवः (पुं०) इन्द्र।
देवेज् (वि०) देवताओं की पूजा। देवाधिदेवः (पुं०) सर्वदर्शी, सर्वज्ञ। ०देवों के देव। देवेज्यः (पुं०) वृहस्पति।
0 सबसे श्रेष्ठ। ०त्वां मनुजा महापुरुषा देवाधिदेवमिति | देवेन्द्रः (पुं०) देवताओं का राजा, इन्द्र। (दयो० २८) मनन्ति/स्तुवन्ति तदधुना त्रिधा त्रिप्रकारं ये वास्तवेन देवा न | देवेशः (पुं०) देवों की स्वामी, इन्द्र। भवन्ति किन्तु संसारिणः स्वार्थवशेन यान् देवा इति कथयन्ति। देव्या (पुं०) देवता। (जयो० ५/४७)
३/७७)
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देशः
४९२
देशविरति
देशः (पु०) [दिश्+अच्] स्थान, प्रदेश, प्रान्त। (सुद० ११७,
जयो० १/९०) 'कुतश्चिद्दिश्यते इति देशः' जो किसी अवयव से निर्दिष्ट किया जाए। ० धर्मास्तिकाय का स्थान भी देश है। ० स्कन्ध के अर्ध भाग का नाम भी देश है। ० ग्रामादीनामवधृतपरिणामः प्रदेशो देशः। ० विभाग, अंश, भाग, पक्ष, हिस्सा। (जयो० १/३) ० देश-कथन (जयो० २/९०) ० देशव्रत-श्रावक के पालन करने योग्य बारह व्रतों में एक व्रत, जिसमें देश की सीमा का क्षेत्र निर्धारित किया जाता है।
० देश, प्रस्ताव, अवसर, विभाग और पर्याय। देशकः (पुं०) उपदेशक, शिक्षक उपाध्याय, शासक
० राज्यपाल। देशकथा (स्त्री०) विभिन्न देशों की कथा, चार कथाओं में
एक देश सम्बंधी कथा। देशकरणं (नपुं०) प्रदेश करण, अध्यवसान विशेष करण।
देशतः करणाभ्यां यथाप्रवृत्तिः। देशकरणोपशना (स्त्री०) दर्शनमोहनीय का उपशम करना। देशकांक्षा (स्त्री०) मिथ्यामत की आकांक्षा। देशकालः (पुं०) देश प्रस्ताव, अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति का
काल। देशकालज्ञ (वि०) समय का ज्ञाता। देशकालविमुक्त (वि०) देश काल से रहित। (दयो० २५) | देशकृत (वि०) कुछ अंश का एक देश का। (दयो० २/३)
त्यजेदेकं कुलस्यार्थे ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेत्। ग्रामं देशकृते त्यक्त्वाप्यात्मार्थ पृथिवीं त्यजेत्।। (दयो०
२/३) देशघाती (वि०) आत्म गुणों का घातक। देशघातिस्पर्द्धकः (पुं०) देश का घात करना, आत्मगुणों का
आंशिक रूप से घात करना। (सम्य०६०) देशचारित्रं (नपुं०) एकदेशविरति। अगारिणां गृहस्थानां देशतः
एकदेशविरतिलक्षणं देशचारित्रम्। देशच्छन्दकथा (स्त्री०) स्त्री के सेव्यासेव्य की कथा करना,
स्त्री के गम्यागम्य की कथा करना, स्त्री कथा निरूपण। देशज (वि०) स्वदेशी, अपने देश में उत्पन्न होने वाली। देशजात (वि०) स्वदेशी, अपने देश में पैदा होनी वाली।
० शुद्ध, स्पष्ट, तात्त्विक।
देशजिनः (पुं०) एक देश जिन, जो कषायादि के एक देश
जीतने वाले हैं। देशज्ञानावरणीयं (नपुं०) ज्ञान के अंश को आच्छादित करने वाला। देशत्यागी (वि०) एक देश का त्याग करने वाला। देशदानं (नपुं०) एक अंश का दान। देशना (स्त्री०) [दिश णिच् यच+टाप] धर्मापदेश, धर्म-कथन,
धर्म निर्देश। 'देशनेव दुरितापवर्तिनी' (जयो० ३/१८) 'या सभा देशना धर्मोपदेशः' (जयो०वृ०३/१८)'न देशनास्तीर्थपतेः किलापः' शरीरिणां दु:खदवोपताप:' (भक्ति० २५) जिस धर्म का दूसरे के लिए प्रतिपादन किया जाता है। 'दिश्यते परस्मै प्रतिपाद्यते इति देशना उपदेशयमानो धर्मो धर्मोपदेशनं
वा देशना। (अनगार धर्मामृतः १/५) देशनाकृता (वि०) देशना करने वाले। (जयो० २/७४) देशनालब्धिः (स्त्री०) उपदेशित तत्त्व का ग्रहण, सदुपदेश का
रुचि के साथ ग्रहण। गत्वा गुरोरन्तिकमेतदात्तां लब्धा मयेयं महतोऽपिभाग्यात्। सुधामिवेत्थं सपिवासुरस्तु सम्यक्त्वहेतोः समुदायवस्तु।। (सम्य० ४३) ०चिन्तन शक्ति का समागमा
० धारणा शक्ति का समागम। देशनिर्जरा (स्त्री०) क्षयोपगम को प्राप्त जीव के कर्म की
निर्जरा। संसारे संसरंतस्स खओवसमगदस्स कम्मस्सा सव्वस्स
वि होदि जगे......। (मूला० ८/५५) देशपरिक्षेपी (स्त्री०) देश के अभिप्राय वाली। देशप्रत्यक्षः (पुं०) इन्द्रिय और मन के आलम्बन से उत्पन्न
कारण। देश-यति धर्मः (पुं०) पांच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रत रूप
धर्म।
देशान्तरः (पुं०) अन्यदेश, दूसरा देश, व्याप्त। 'देशान्तरेऽस्य
कीर्तिः' (जयो० ६/१०९) दूरदेशेष्वपि व्याप्त्यर्थकत्वात्'
अन्यार्थकत्वाच्च' (जयो०वृ० ६/१०९) देशविकल्पकथा (स्त्री०) देशविशेष की अपेक्षा चर्चा करना। देशविचिकित्सा (स्त्री०) एक देश संशय, एक अंश पर भी
संदेह। देशविरति (स्त्री०) १. एक देश से विरत होना, हिंसादि पापों
से एक देश हटना। 'यस्तु देशतो विरतः स देशविरतः' २. देशविरतव्रत, जिसमें निश्चित प्रमाण की मर्यादा की जाती है। 'विरमणं विरतिः, निवृत्तिरिति यावत. देशाद् विरतिः, देशविरति:' (त०वा० ७/२१)
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देशव्यतिरेकः
देहपात्रं
देशव्यतिरेकः (पुं०) एक देश के अतिरिक्त दूसरा नहीं, जो | देशोपलब्धिः (स्त्री०) अभीष्ट देश मोक्ष की प्राप्ति। 'सुरसार्थ: दूसरा देश है, वह दूसरा ही है, अन्य नहीं।
संसेव्यो ह्यभीष्टदेशोपलब्धिहेतरपि' (वीरो० ४/५३) देशव्रतं (नपुं०) १. देशविरतिव्रत, श्रावक का एक व्रत, प्रदेशस्तस्य संलब्धिस्तस्याः समीहितमुक्ति प्राप्तेः हेतुः
जिसमें परिमाण का नियम किया जाता। (सम्य० ९८) २. (वीरो०वृ० ४/५३) पांचवा गुणस्थान देशविरत, इसमें प्रत्याख्यानावरण कषाय | देशोपशमना (स्त्री०) प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश का का उदय होने से पूर्ण संयम तो नहीं होता, परन्तु थोड़ा ___ अल्प उपशम। व्रत होता है। देशेन एकदेशेन त्रसवधनिवृत्याश्रयेण संयतो देश्य (वि.) [दिश्+ण्यत्] १. देश सम्बंधी, स्थानीय, प्रान्तीय, विरतो देश संयतः (गो० जी० ३१)
देशी, स्वदेशी। २. शुद्ध, निर्मल, खरी। देशव्रती (वि०) पांचवें गुणस्थानवर्ती श्रावक, देशसंयत, देश देश्यः (पुं०) साक्ष्य, गवाह। विरत श्रावका
देश्य (नपुं०) देशना, तर्कपूर्ण कथन, पूर्वपक्षी। देशव्यवहारः (पुं०) देश के रीति-रिवाज, प्रचलित प्रथा। देहः (पुं०) [दिह्य+घञ्] अंग। शरीर, काया, गात्र। देहश्च देशशंका (स्त्री०) देश विषयक शंका, भव्य-अभव्य, ग्राह्य-अग्राह्य कीदृक शठ एस एव। (वीरो० ३)
आदि के प्रति शंका। 'देशशङ्का एकैकवस्तुधर्मगोचरा' ० औदारिक, वैक्रियिक और आहारक तर्गणाओं का देशसत्यं (नपुं०) गणाश्रय पद भाषिवचन, गण, कुल आदि
पुद्गलपिण्ड। के उचित उपदेशक वचन।
० कर, चरण, शिर और ग्रीवा आदि अवयव स्वरूप देशसंयमः (पुं०) देशसंयत, देश विरत पंचम गुण स्थान का परिणत पुद्गलपिण्ड। विनाशि देहं मलमूत्रगेहं वदामि चारित्र।
नात्मानमतो मुदेऽहम्। (सुद० १२१) मदीयं मांसलं देहं देशसंवरः (पुं०) तत्त्व ज्ञाता का संवरण।
दृष्टवेयं मोहमागता' (सुद० १०१) देशस्नानं (नपुं०) एक देश स्नान। अक्षि-पलक का धोना। देहकान्तिः (स्त्री०) शरीर की प्रभा। देशातिथि: (स्त्री०) देश में अतिथि, विदेशी।
देहकोषः (पुं०) १. शरीर का आवरण। २. रोग, शरीर विकार। देशाचारः (पुं०) देश की प्रथा।
देहक्षयः (पुं०) शरीर ह्रास, रोग। देशान्तरिन् (पुं०) विदेशी।
देहगत (वि०) शरीर सम्बन्धी, छाया से प्राप्त। (सुद० १३५) देशाख्यानं (नपुं०) देश का कथन।
देहजः (पुं०) पुत्र, सुत। देशावकाशिकव्रतं (नपुं०) दिशा प्रमाण, श्रावण के व्रत में देहजा (स्त्री०) पुत्री, सुता। प्रमाण की मर्यादा।
देहत-शरीर से। देशावधि: (स्त्री०) क्षयोपशम से आश्रय से उत्पन्न अवधिज्ञान। देहत्यागः (पुं०) मृत्यु, मरण, शरीर परित्याग। देशिक (वि०) [देश+ठन] स्थानीय, लौकिक, इसी स्थान का देहदः (पुं०) पारा, एक धातु विशेष। रहने वाला।
देहदीपः (पुं०) अक्षि, आंख, नयन। देशिकः (पुं०) उपदेशक, तत्त्वोपदेशक, आध्यात्मक-उपदेष्टा। | देहदीप्तिः (स्त्री०) शरीर कान्ति। (जयो० ५/१) (जयोवृ० देशित (वि०) कथित, उपदेशित, प्रतिपादित। (जयो० २/९०) १०/११४)
'देशितं हृदयहार वर्द्धितम्' (जयो० २/९०) 'यत्तु देशितं | देहधर्मः (०) शारीरिक क्रिया। विधेयत्वरूपेण निर्दिष्टं' (जयो०वृ० २/९०)
देहधारणं (नपुं०) जीवन, प्राण। देशिनी (स्त्री०) १. प्ररूपिका, निर्देशनी (जयो० ३/१०, देहधि (स्त्री०) कक्ष, बाजू।
२/४३) २. [दिश्+णिनिङीप्] तर्जनी, अंगुष्ठ के देहधर (वि०) शरीरधारी। (समु०७/६) समीपवर्ती अंगुली।
देहधारी (वि०) शरीर धारण करने वाला। (जयो०वृ० १/२३) देशी (स्त्री०) [देश+ङीष्] १. देश विशेष में प्रचलित बोली, | देहधृष् (पुं०) पवन, वायु, हवा। जनसाधारण की बोली। २. देश सम्बंधी।
देहनामन् (नपुं०) अवनति, झुकना। (जयो०वृ० १२/१३१) देशीय (वि०) प्रान्तीय, स्थानीय, स्वदेशीय।
देहपात्रं (नपुं०) शरीर रूपी भाजन।
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देहपूतः
४९४
दैवगतिः
देहपूतः (पुं०) शारीरिक स्वच्छता।
यतः। मङ्गलोत्तम-शरण्यतां श्रितो देहिनां तदितरोऽस्तुको देहबद्ध (वि०) मूर्त, शरीर की सन्नद्धता।
हितः।। (जयो० २/२७) अधिकतुर्मिदं देही वृथा वाञ्छति देहबन्ध (नपुं०) १. शरीर बन्ध, काय की जकड़न, २. शरीर मोहतः। (वीरो० १०/४) प्रायः प्राग्भाव-भाविन्यौ प्रीतत्यप्रीत की हड्डि ।
च देहिनाम्। देहभाज् (पुं०) शरीर धारी, काययुक्त।
देहिराशि (स्त्री०) जीवसमूह। (सुद० १२१) देहभुज् (पुं०) प्राण, जीव, आत्मा, चेतना।
दै (सक०) पवित्र करना, शुद्ध करना। देहभृत् (पुं०) जीवधारी ।
दै (अक०) पवित्र होना, धवल होना। देहमात्रावशिष्ट (वि०) देहमात्र धारण करते हुए। 'देहमात्रावशिष्टो दैगम्बरी (वि०) दिगम्बरता, निर्ग्रन्थता। (सुद० ८१) दिगम्बरः' (दयो० २५)
दैतेयः (पुं०) [दिति ढक्] दैत्य, दिति का पुत्र। देहयात्रा (स्त्री०) मृत्यु, मरण।
दैतेयगुरु (पुं०) असुरों में पूज्य। देहरुक् (स्त्री०) शरीर कान्ति, देहप्रभा। (जयो० २४/५) दैतेयपुरोधस् (पुं०) दैत्यों के प्रमुख। देहला (स्त्री०) [देह+ला+क] मदिरा, शराब।
दैत्यः (पुं०) देवता। देहलिः (स्त्री०) [देह+ला+कि] द्वाराग्रभाग, चौखट, दरवाजे दैत्या (स्त्री०) [दैत्य+टाप्] औषधि। १. मदिरा, सुरा। के नीचे की लकड़ी। (जयो० )
दैन (स्त्री०) [दिनं दिनं भव दिनंदिन+अण दिन+ठज] दैनिक। देहलिदीपः (पु०) देहली पर रखा दीपक।
दैनंदिनी (स्त्री०) दैनिक, दिन सम्बंधी। देहलिन्यायः (पुं०) न्याय के अन्तर्गत।
दैन्यं (नपुं०) १. दयनीय, निर्धन, गरीब। दरिद्रता, दुर्दशा, देहवायुः (स्त्री०) प्राणवायु।
दीनता (जयो० १/११३) २. कष्ट, खेद, दु:ख शोक, देससम्बन्धिन् (वि०) शरीर से सम्बन्ध रखने वाली। देहात्मन्। दुर्बलता खिन्नता, उदासीनता। 'धीभ्रंशनं परवशत्वमुपैति (सुद० ४/५) विसृजेद् देहात्मनः
दैन्यम्' बुद्धिहीन परवशता और दीनता को प्राप्त होता है। देहसारः (पुं०) मज्जा।
(जयो० २/१२९) देहस्वभावः (पुं०) शारीरिक गुण। कायिक विशेषता। दैन्यभाक् (स्त्री०) दीनदशा, निर्धनावस्था। (दयो० १/१९) देहस्वरूपः (पुं०) शरीर लक्षण। देही देहस्वरूपं एवं देह दैव (वि०) [देव+अण] देवों से सम्बन्ध रखने वाला, देवीय,
सम्बन्धिनं गणम्। मत्वा निजं परं सर्व-मन्यदित्येष मन्यते। । स्वर्गिक, दिव्य। (सम्य० १२०) (जयो० ११/८२) (सुद० ४/५)
दैवं (नपुं०) भाग्य-प्रयतेत नरः किन्तु भविष्यति तदेव यत देहस्थित (पुं०) पिण्डस्थित, शरीर में स्थित। (भक्ति० २८) दैवेन वाञ्छयते भूमौ दैवाग्रे ना नपुंसकः।। (दयो० ७७) देहात्मन् (वि०) देहसम्बन्धी, बहिरात्मा। (सम्य० ४०)
योग्यता कर्म पूर्वं वा।' योग्यता या पूर्व कर्म का नाम दैव देहात्मन् (पुं०) जीव जन्तु। (सुद० ४/६) देहात्मवादः (पुं०) भौतिक विचार, चार्वाक सिद्धान्त।
• फल देने को उन्मुख होना। देहात्मविवेकः (पुं०) शरीर और आत्मा सम्बंधी विवेक। ० अध्यवसाय का कारण बनना।
समस्ति देहात्मविवेकरूपः शुभोपयोगी गुणधर्म कूपः। किम् देवे विपरीते परुषाण्यपि पौरुषाणि स्युः। किलान्तरात्माऽयमनेन भाति परीतसंसार-समुद्र-तातिः।। (जयो० ६/६७) भाग्य, नियति, भविभव्यता, किस्मत, (समु०८/२२)
योग, संयोग। देहावरणं (नपुं०) कवच, रक्षक, परिधान।
दैवकर्मन् (नपुं०) दिव्यकर्म, देवताओं की पूजा आदि करना। देहावलोकनं (नपुं०) शरीर विज्ञान, शरीर दर्शन।
दैवकोविदः (पुं०) ज्योतिषी, निमित्तज्ञानी, भविष्यवेत्ता। देहिन् (वि०) [देह+इनि] शरीरी, शरीरधारी। 'नो चेत्पुनरसन्तीष दैवकृत (वि०) भाग्यधीन। सन्ति यानि तु देहिनः' (वीरो० ८/३१)
दैवज्ञः (पुं०) ज्योतिषी, निमित्तज्ञानी। (दयो० ७७) देहिन् (पुं०) जीवधारी प्राणी। (सुद० ४/१६) 'देही देहस्वरूपम्' | दैवचिन्तकः (पुं०) भविष्यवेत्ता, ज्योतिषी।
(सुद० ४/७) सर्वतः प्रथममिष्टिरहतो देवतास्वपि च देवता | दैवगतिः (स्त्री०) भाग्य की परिणति।
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दैवत
४९५
दोषावरणप्रहीणः
दैवत (वि०) [देवता+अण्] दिव्य।
दैहिक (वि०) [देह+ठक्] शारीरिक, कायिक, शरीरगत। दैवतं (नपुं०) १. देव, देवता, अमर। २. देवसमह, देवप्रतिमा। दैह्य (वि०) [देहे भव: ष्यञ्] शारीरिक। दैवतन्त्र (वि०) भाग्याश्रित।
दैह्यः (पुं०) आत्मा। दैवतस् (अव्य०) [दैव तस्] भाग्यवश, संयोगवश।
दो (सक०) बांटना, काटना, फसल काटना। दैवत्य (वि०) [देवता+ष्यञ्] देवता को मान्य, देव को दोग्धृ (पुं०) [दुह-नृच्] ग्वाला, दूध दुहने वाला। १. चारण, भाट। सम्बोधित।
दोग्ध्री (स्त्री०) [दोग्धृ+ङीप्] दुधारु गाय, दूध देने वाली दैवदुर्विपाकः (पुं०) भाग्य की निष्ठुरता, भाग्य की विपरीत गाय। परिणति, भाग्य की अशुभ प्रवृत्ति।
दोधः (पुं०) [दुह्+अच्] बछड़ा। दैवदोषः (पुं०) भाग्य का दोष, भाग्य की विपरीत परिणति। दोपाश: (पुं०) भुजपाश। (जयो० १७/१३२) दैवपरः (वि०) भाग्य पर, भाग्यवादी, प्रारब्ध, भाग्य में लिखा। दोरः (पुं०) [दुल्+घञ्] झूलना, डोलना, हिंडोला, डोली। दैवपरिणतिः (स्त्री०) भाग्य की प्रवृत्ति।
दोला (स्त्री०) [दोल्+टाप्] ढोली, पालकी, हिंडोला, पालना, दैवप्रश्नः (पुं०) भविष्यकथन ज्योतिष।
झूलना। दैवमलः (पुं०) कर्ममल अपाहरक प्राभवमृच्छरीर आत्मस्थितं दोलाचरणं (नपुं०) हिंडोले का अनुकरण। नरदेवमलं च वीरः। (वीरो० १२/४१)
राजवशादृशात्मसादपि दोलाचरणं कृतं तदा। (जयो० १३/२०) दैवयुगं (नपुं०) देवों का युग।
दोलायितम् (नपुं०) झूलना, हिलाना। (जयो० २६/३५) दैवयोगः (पुं०) भाग्यवश, संयोग।
चलाचल, एक साधु वन्दना दोष। दैवलः (पुं०) प्रेत आत्मा, १. देवरा, किसी देव का चबूतरा। दोर्लतिका (स्त्री०) भुजलता। (जयो० ६/८२) दैवलेखकः (पुं०) ज्योतिषी, भविष्यवक्ता।
दोलनं (नपुं०) बदन, शरीर, देह, काय। (जयो० १६/२८) दैवलोकः (०) स्वर्ग, दिव्य लोक।
दोषः (पुं०) [दुष्+घञ्] १. त्रुटि, निन्दा, लांछन, दूषण, दैववश: (पुं०) भाग्यधीनता, नियति के कारण। (जयो० अपराध, कसूर। २. पाप, भय, क्षति, हानि (सुद० १०९) ९/१२९)
(मुनि० २८) ३. व्याधि, रोग। दैववाणी (स्त्री०) आकाशवाणी, दिव्यघोषणा।
दोषग्रहं (नपुं०) दोष ग्रहण। (समु० १/२४) दैववादिन् (वि०) भाग्यवादी। (दयो०७८)
दोषज (वि०) १. विषमता से उत्पन्न होने वाले। २. वात, पित्त देवश्री (स्त्री०) भाग्यश्री पुण्यवान्। भवादृशां कष्टमदुष्टदैवश्रियां । आदि पीड़ा उत्पन्न करने वाले।
क्व सम्भाव्यमहो सदैव। (जयो० ३/२६) दैवं भाग्यं पुण्यकर्म दोषणं (नपुं०) [दुष्+णिच्+ल्युट्] दोष लगाना, लांछन लगाना, तस्य श्री शोभा। (जयो०वृ० ३/२६)
क्षति पहुंचाना। दैवसंयोगः (पुं०) भाग्य की आधीनता। आगता दैवसंयोगाद्विहरन्ती | दोषन् (पुं०/नपुं०) भुजा, बाहु, बाजू। निजेच्छया' (सुद० १३३)
दोसभाक (वि०) दोष सूचक। (जयो० २/२९) दैवसम्विदः (पुं०) ज्योतिषी। (समु० २/१५)
दोषपरीक्षक (वि०) दोष देखने वाला (वीरो० १०/७) (जयो० दैवहीन (वि०) भाग्यहीन, अभागा।
७/५६) दैविक (वि०) [देव+उक्] दिव्य, दैवीय, देवताओं से सम्बन्धित। दोषल (वि०) [दोष लच्] दोषी, भ्रष्ट। दैविकं (नपुं०) स्वाभाविक होने वाली घटना, दैवीय घटना। दोषमूलं (नपुं०) दोष की जड़। (वीरो० ३/२३) दैविन् (पुं०) [दैवइनि] ज्योतिषी।
दोषवर्जित (वि०) निस्तुष, अपराधहीन। (जयो०६/२७) दैव्य (वि०) [देव+यञ्] दिव्य, देव सम्बन्धी।
दोषानुरक्त (वि०) दोषों में लीन, रात्रि में अनुरक्त। दोषायां दैशिक (वि०) [देश+ठञ्] स्थानीय, लौकिक, प्रान्तीय, संकेतित, रात्रौ दोषेषु वा अनुरक्तः। (वीरो० १/२०) निदेशक, परिचित स्थान वाली।
दोषावरणप्रहीण: (०) १. दोषों से पूर्णतः रहित। दोषा-रागादण दैशिक-सौराष्ट्रीय-रागः (फु) संगीतात्मक पद्धति। (सुद० ८९) आवरणं ज्ञानदर्शनाभावरूपं ततः प्रहीण। २. पूर्णरूपेण दैष्टिक (वि०) [दिष्ट ठक्] प्रारब्भ, भाग्य में लिखा हुआ। | रहित।' (जयो०वृ. २६/७२)
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दोषातिगः
दौ गिनेयः
दोषातिगः (पुं०) रात्रि का अतिक्रमण, दोष रहित।
जयः कराशी राजितो- १३ दोषाज्झितः (वि०) रात्रि से रहित दोष या रात्र रहित। (जयो० 15 15 SS15 २८/५१)
वीरोचितात्र सापि-११ दोषस् (स्त्री०) रात्रि, रजनी।
55 15151 दोषा (स्त्री०) भुजा, बाहू। (जयो० ७/५६)
कविताश्रयदोहानयेऽ- १३ दोषा (अव्य०) [दुष्यते अन्धकारेण दुष्+घञ्+टाप] रात्रि को। ।। 5 ।। 5 5 15 दोषाकरः (पुं०) चन्द्रमा (जयो० २/१४७)
घस्य श्रमो ममापि ११ दोषाकरः (पुं०) दूसणकर, चन्द्र शशि। (जयो० १२४)
55। 5 ।। दोघाकरत्व (वि०) चन्द्रमा (वीरो०५/४८) (दयो०६८)
| दौः शील्यं (नपुं०) [दुःशील+ष्यञ्] दुर्भावना, तुच्छ स्वभाव। दोषातन (वि०) रात्रि विषयक, रात में होने वाला।
दौः साधिकः (पुं०) [दुःसाध+ठक्] द्वारपाल, ढ्योढीवान। दोषापकरणं (नपुं०) छिद्रपूरण, छिद्र भरना, दोष हटाना।
दौकूल: (दुकूल+अण्) रेशमी वस्त्र। दोषायितत्त्व (वि०) रात्रि रूपत्व (वीरो० २/४५)
दौत्यं (नपुं०) [दूत+ष्यञ्] दूत का कार्य, संदेश। दोहः (पुं०) [दुह्+घञ्] १. दोहना, दूध निकालना, २. दूध,
दौरात्म्यं (नपुं०) [दुरात्मन्ष्य ञ्] दुर्भावना, कुभावना, खोटा दूध पात्र।
विचार, (जयो० ७/१) दुष्टता, नीचता, निम्नता।
दौरुधरी (वि०) दुरुधर, दु:खवाली। (जयो० दोहकछन्दः (पुं०) एक छंद का नाम, जिसके प्रत्येक चरण
दौर्गत्यं (नपुं०) १. निर्धनता, गरीबी। २. हीनता, कमी, में ९ वर्ण हैं। सत्करोमि यत्पदयुगं, सन्निधिरयमिह नाम। मम कर्मासन्निर्वृतं सममधिगत ललाम्।। (जयो० २०/८८)
अभाव। ३. दु:ख। येऽनादितः कर्ममलीमसत्त्वाद्
दौर्गत्यमेवानुसरन्ति सत्त्वाः । दोहदः (पुं०) [दोहमाकर्ष ददाति-दा+क] गर्भावस्था में किसी ।
दौर्गत्यकारिणी (वि०) दुःखदायी कष्टजन्य, दुर्गति को ले जाने वस्तु की कामना, अभीष्ट रुचि।
वाली। (जयो०१० ११/८८) दोहदं (नपुं०) दोहल, इच्छा, अभिरुचि।
दौर्गत्यहेतुः (पुं०) दुर्गति का कारण, नरकगति का निमित्त। दोहदकालः (पुं०) गर्भवती स्त्री की प्रवल रुचि का समय।
रौद्रध्यानमिदं दुरीहिततया दौर्गत्यहेतुः पर स्त्वस्मिन् दोहदभावः (पुं०) दोहद की इच्छा।
लब्धिजनुष्यमैति सुतरां श्रीसाधुताया नरः।। (मुनि० २२) दोहदलक्षणं (नपुं०) भ्रूण, गर्भ।
दौर्गन्ध्यं (नपुं०) [दुर्गन्ध+ष्यञ्] अरुचिकर गंध, तीव्र हानिकारक दोहदवती (वि०) [दोहद+मतुप्+ङीष्] गर्भवती स्त्री की ।
दुर्गन्धा (सुद० १०२) इच्छा, गर्भजन्य दोहद के समय अभीष्ट इच्छावाली स्त्री। | नौगध्य-यत:
दौगन्ध्य-युक्तः (पुं०) दुर्गन्ध युक्त। विलोपमं तत्कलिलोक्ततन्तु दोहन् (वि०) [दुह्+ल्युट्] दुहने वाला, चूसने वाला, अधिक
दौर्गन्ध्ययुक्तं कमिभिर्भूतन्तु।। (सुद० १०२) काम लेने वाला।
दौर्जन्यं (नपुं०) [दुर्जन+ष्यञ्] दुष्टता, दुर्जनता, नीचता, दोहनं (नपुं०) दोहना। (सुद० ४/२२)
अधम प्रवृत्ति युक्त। दोहलः (पुं०) [दो+ला+क] दोहद।
'कथमप्यस्तु समस्त्येव तु कस्मैचिदप्य दोहली (स्त्री०) [दोहल+ङीष्] अशोकवृक्ष।
निष्टचिन्तनमनुचितं किं पुनरात्मीयाय। दोह्य (वि०) [दुह+ण्यत्] दुहने योग्य।
तदेव हि दौर्जन्यं यदन्येषां दोहा (स्त्री०) एक छन्द विशेष, 'कविताया आश्रयो पथप्रस्थायिनामपि किलापकरणम्। (दयो० १०१) दोहानामच्छन्दसो' (जयो० २२/९०)
दौर्जीवित्यं (नपुं०) [दुर्जीवित+ष्यञ्] कष्टमय जीवन, आपत्ति तेरहमत्ता पढम पअ, पुणु एआरह देह।
युक्त जीवन। पुणु तेरह एआरहइ, दोहो लक्खण एह।।
दौर्बल्यं (नपुं०) [दुर्बल+ष्यञ्] दुर्बलता, क्षीणता, कृशता, जिसके प्रथम चरण में तेरह मात्र, द्वितीय में ग्यारह, तृतीय हीनता, शक्ति की कमी। में तेरह और चौथे में ग्यारह मात्राओं हों, उसे दोहा कहते | दौर्भागिनेयः (पुं०) [दुर्भगा ढक्, इन] अभागी स्त्री का
पुत्र।
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दौर्धात्र्यं
४९७
द्योतक
दौर्धात्र्यं (नपुं०) [दुर्धात्+अण] आपसी मन मुटाव, अन्तर्कलह, धुकः (धु+कन्) उल्लू। ___ भाईयों का आपस में मन-मुटाव।
धुचरः (पुं०) १. ग्रह, २. पक्षी। दौर्मनस्यं (नपुं०) [दुर्मनस्+ष्यञ्] १. तुच्छमन, निम्नमन, २. धुजयः (पुं०) स्वर्ग प्राप्त करना।
अधम स्वभाव, ३. मानसिक क्लेश, कष्ट, दु:ख, विषाद, द्युत् (अक०) चमकना, प्रकाशित होना, जगमगाना। पीड़ा, ४. निराशा, उदासीनता।
द्युत् (सक०) स्पष्ट करना, समझाना, व्याख्या करना। दौर्मन्त्र्यं (नपुं०) [दुर्मन+ष्यञ्] निम्न मन्त्रणा, तुच्छ उपदेश। द्युतिः (स्त्री०) [द्युत्+इन्] १. कान्ति, प्रकाश दीप्ति, प्रभा, निम्नस्तर की विचार भावना।
आभा। (सुद० ३/१६) २. महिमा, कीर्ति, यश, गौरव। दौर्वचत्यं (नपुं०) [दुर्वचस्+घ्यञ्] दुर्वचन, कुकथन, निम्नवाणी,
द्युतित (वि०) प्रकाशित। नीच-उपदेश, अप्रिय भाषण, कर्णकटु अपलाप।
द्युतिदानं (नपुं०) प्रदीप्तिसम्पादन। दौर्हत्दं (नपुं०) [दुर्हद+अण्] हृदय की बुरी भावना, हृदयगत
द्युतिदानहेतुः (नपुं०) प्रदीप्तिसम्पादन के निमित्त, कान्तिदान वैमनष्यता, मन की तुच्छ अवस्था।
हेतु। (जयो० १७/६६) दौर्हदयं (नपुं०) शत्रुता, मन-मुटाव, कलुषता।
धुमणि (स्त्री०) सूर्यकान्तमणि। (जयो० १८/३९, १६/६८) दौलिक (वि०) हिंदोलित, चलायमान। (४/२ वीरो० २१)
द्युतिमत् (वि०) मनोहर कान्ति युक्त। अयि काविलराजोऽयं दौल्मिः (पुं०) इन्द।
शस्यद्युतिमत्त्वमस्य पश्य वपुः। (जयो० ६/४२) दौवारिकः (पुं०) [द्वार+ठक्] द्वारपाल, पहरेदार। (दयो० १०६)
द्युम्नं (नपुं०) [द्यु+म्ना-क] १. कान्ति, आभा, प्रभा, प्रकाश। दौश्चर्यं (नपुं०) [दुश्चर+ष्यञ्] दुराचरण, दुष्टता, दुष्कृत्य।
२. कीर्ति, यश, सामर्थ्य, बल शक्ति, ३. सम्पत्ति, वैभव, दौष्कूल (वि०) नीच कुल्लोपन्न, अघमकुल में उत्पन्न।
४. प्रोत्साहन। दौष्ठव (वि०) [दु:+स्था+कु-दुष्ठु तस्य भावः-अण्] दुष्टता,
धुपति (पुं०) भानु, सूर्य, दिनकर। (जयो० १५/७) दिनकर। बुराई, शत्रुता।
धुरत्नं (नपुं०) [दधाति पौप्ये समये धुरत्नम्] सूर्य, (वीरो० दौष्यंति (पुं०) दुष्यंत पुत्र। दौस्थ्यं (नपुं०) १. वैरभाव, असहिष्णुता। २. आरम्भ परिग्रह
६/१६) (जयो० २/११३) 'महीभृतामेव शिरस्सु सौस्थ्यं सदा दधानो
धुरामा (स्त्री०) आकाश की स्वच्छ स्वभाविणी स्त्री। 'नष्टेऽपि विषमेषु दौस्थ्यम्।। (जयो० १/३०) 'दौस्थ्यं दुस्थितिमत्त्व
__पत्यौ तरणै धुरामा सुधांशुमारादभिसर्तुकामा' (जयो०१५/२७) महिष्णुतां विषमेषु कामस्तस्य दौस्थ्यं वैरभावं दधानः।
धुवन् (पुं०) सूर्य। (जयोवृ० १/३०) ० मन की कुटिलता (वीरो० १६/१५)
धुसदा (पुं०) देव, अमर। पीड़ा (सम्य ९०)
द्यतः (पं०) जुआ खेलना, जआ। (जयो० २/१२५) अक्ष दौस्थितिः (स्त्री०) चुगलखोर। (समु० ८/२८)
पासादिनिक्षिप्त। दाव लगाना। वित्ताञ्जय-पराजयम्। क्रियायां दौस्थित्यं (नपु०) दुर्भाग्य पूर्ण स्थिति। दौस्थित्येन हि हेतुना
विद्यते यत्र, सर्वं द्यूत मिति स्मृतम्। (लटी० २/१११) जगति ना संभाति भार्याजितः। (मुनि० २३)
द्यूतकर (वि०) जुआरी। (दयो० २०) दौहित (पुं०) दोहिता, पुत्री का पुत्र। (हित० सं० १०) द्यूतकार (वि०) जुआं खेलने वाला। द्यूतकारमिव रिक्तपाणिम्' दौहित्रं (नपुं०) तिल।
द्यूतक्रीड़ा (स्त्री०) जुआं खेलना। दौहित्रायणः (पुं०) [दौहित्र+फक] दोहते का पुत्र।
द्यूतवृत्ति (स्त्री०) जुआरी, जुआंघर रखना। दौहित्री (स्त्री०) [दौहित्र ङीप्] दोहती, पुत्री का पुत्र। द्यूतसभा (स्त्री०) जुंआघर, द्यूतस्थान, द्यूतशास्त्र। दौहृदिनी (स्त्री०) [दोहद्+इनि+ङीप्] गर्भधारण करने वाली | } (अक०) घृणा करना, तिरस्कार जन्य व्यवहार करना, स्त्री, गर्भवती स्त्री।
निन्दा करना। धु (अक०) अग्रसर होना, सामना करना, आक्रमण करना, द्यो (स्त्री०) स्वर्ग, आकाश, अन्तरिक्ष। घात लगाना।
द्योतः (पुं०) [द्युत्+घञ्] १. प्रभा, कान्ति, आभा, ज्योति, धु (नपुं०) [दिव्+उन्] १. दिवस दिन, २. आकाश, ३. स्वर्ग, प्रदीप्ति, प्रकाश, २. धूप, गर्मी। ४. प्रकाश।
द्योतक (वि०) चमकने वाला, कान्तिवान्, प्रकाशमय।
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द्योतकः
४९८
द्रव्यक्रोधः
द्योतकः (पुं०) शाण। (वीरो० २/१४) द्योतनं (नपुं०) १. प्रकाश, कान्ति, २. प्रकटीकरण। (जयो०
१६/८) द्योतितदीपकः (पुं०) प्रदीप्त दीपक। (जयो० २/२३) द्योतिस् (नपुं०) १. प्रभा, कान्ति, आभा, कीर्ति। २. तारा,
नक्षत्र।
द्योभूमिः (स्त्री०) पक्षी। धौ (स्त्री०) द्यौ नामक स्त्री। जाता परिभ्रष्टपयोधरा द्यौः।
(वीरो० २१/३) दङक्षणं (नपुं०) [द्राक्षान्ति अनेन-द्राक्षु ल्युट] एक तोला। दढयति-दृढ़ करना, जकड़ना, कसना। दढिमन् (पुं०) [दृढ+इमनिच्] दृढ़ता, जकड़ना। द्रप्सम् (नपुं०) तरल दही, पतला दही। दम् (अक०) इधर-उधर जाना, परिभ्रमण करना, दौड़ना,
भागना। दव (वि०) [द्रु+अप्] १. परिभ्रमण करने वाला, भागने वाला।
२. तरल, बहने वाला, टपकने वाला। ३. पिघला हुआ। दवः (पुं०) १. जाना, गमन, गिरना, टपकना, रिसना। २.
तरलता, द्रवीकरण। एक तरल पदार्थ। संयमस्थान पदार्थ
(जयो० २४/७४) द्रवजः (पुं०) राव। दवद्रव्यं (नपुं०) तरल पदार्थ। दवत्व (वि०) विगलन, टपकना। (जयो० ११४८६) दवरसा (स्त्री०) लाख, गोंद। दवशील (वि०) बहने वाला, क्रियाशील युक्त। दविकः (पुं०) राग-द्वेष रहित जीव। 'द्रविका नाम
राग-द्वेष-विनिर्मुक्ता' द्रवः संयमः सप्तदशविधानः कर्म-काठिन्य-द्रवणकारित्वात्-विलयहेतुत्वात्, स येषां विद्यते।
ते द्रविकाः (जैन ल० पृ० ५४३) द्रविडः (पुं०) एक देश, दक्षिण भाग पर स्थित देश। द्रविणं (नपुं०) [द्रु+इनन्] १. धन, सम्पत्ति, वैभव, ऐश्वर्य।
(जयो० २५/१४) (वीरो० ६/३४) २. द्रव्य, ३. सामर्थ्य,
४. शक्ति वीरता, पराक्रमा दविणाधिपः (०) कोषाध्यक्षा (दयो १/१४) १. कुबेर
खजांची। दविणाधिपतिः (पुं०) १. कुबेरपति, धनपति, २. कोषाध्यक्ष। दविणोत्सवः (पुं०) धनोत्सव, धन संचय। 'नरमते रमते
द्रविणोत्सवे (जयो० २५/१४)
दवित (वि०) पलायित, तरलित। द्रवीभूत (वि०) पिघलने वाला, तरल होता हुआ, चलायमान,
चपलतायुक्त। (मुनि० २०) द्रव्यं (नपुं०) १. वस्तु, पदार्थ, सामग्री, २. अर्थ धन, (सम्य० १९)
सम्पत्ति, वैभव, औषधि, लज्जा, शालीनता (सम्य० ५३) ० मदिरा, शर्त। . ० गुण और पर्याय से संयुक्त तत्त्व। ० सामान्य और विशेष धर्म से युक्त तत्त्व। ध्रुवांशमारव्यान्ति गुणेति नाम्ना पर्येति योऽन्यद्वितयोक्तधामा। द्रव्यं तदेतद् गुणपर्ययाभ्यां यद्वाऽत्र सामान्य विशेषताऽऽभ्याम्।। (वीरो० १९/१८) ० सद्व्य लक्षणम्। (त०सू० ५/२९) ० द्रवन्ति जो, अपने आप को न छोड़कर भी बदलते रहते हों तथा सदा एक से ही न रहते हों। (त०सू० ३/२) ० दवियदि गच्छदि ताई ताई सब्भावपज्जयाई जं। दवियं तं भण्णते अणण्णभूदं तु सत्तादो।। (पंचा० ९/१०) ० गुणपर्यवद् द्रव्यम्। (त०सू० ५/३८) ० गुणैर्दोष्यते गुणान् द्रोष्यतीति वा द्रव्यम् (स०सि०१/५) ० द्रोष्यते गम्यते गुणैर्दोष्यते गमिष्यति गुणानिति वा द्रव्यम। ० जो गुणों का आश्रय हो। ० द्रूयते द्रोष्यते अद्रावि पर्याय इति द्रव्यम्। (धव० ३/२) ० इयर्ति पर्यायानर्यते वा तरित्यर्थे द्रव्यम्। (त०वा० १/१७) ० आत्मद्रव्य, शुद्धात्मद्रव्य (सम्य० ८५)
० स्वतन्त्रद्रव्य -जीव और पुद्गल। (सम्य० २२) दव्यकरणं (नपुं०) द्रव्य के निमित्त अनुष्ठान, द्रव्य का द्रव्य
द्वारा अनुष्ठान। 'द्रव्यस्य द्रव्येण द्रव्ये वा करणं द्रव्यकरणमिति
द्रव्यस्य द्रव्येण द्रव्यनिमित्तं वा करणम्। (जैन ल०प० ५४५) दव्यकर्मन् (नपुं०) जो द्रव्य स्वभावतः सद्भावक्रिया से निष्पन्न है। दव्यकायः (पुं०) द्रव्य शरीर, जायक शरीर और भव्यशरीर से
व्यतिरिक्त। द्रव्यकायोत्सर्गः (पुं०) कायोत्सर्ग शरीर सम्बंधी। द्रव्यकारकः (पुं०) द्रव्यका करने वाला। द्रव्यस्य द्रव्येण द्रव्यभूतो
वा कारको द्रव्यकारकः। द्रव्यकालः (पुं०) द्रव्य का काल, द्रव्य का प्रवर्तन, वर्तनालक्षण।
'द्रव्य' इति वर्तनादिलक्षणो वाच्यः''द्रवतीति द्रव्यम्, तस्य
द्रव्यस्य वा वर्तना द्रव्यकालः। द्रव्यक्रीतः (पुं०) द्रव्य से द्रव्य का खरीदना। दव्यक्रोधः (पुं०) बाह्यकारण रूप क्रोध।
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द्रव्यगत
द्रव्यशल्यं
दव्यगत (वि०) द्रव्य को प्राप्त हुआ।
दव्यपुरुषः (पुं०) पुंवेद के उदय से शरीर में चिह्न विशेष द्रव्यचारित्रं (नपुं०) भव्य और अभव्य के उपयोग से रहित श्मश्रु, कूर्च आदि। चारित्र।
दव्यपूजा (स्त्री०) द्रव्य दीप धूपादि से पूजा। दव्यच्छेदना (स्त्री०) द्रव्य का छेदना, द्रव्य-धान्यादि का द्रव्यपूति (स्त्री०) अपवित्र गन्ध युक्त होना। प्रमाण करना।
दव्यप्रतिक्रमणं (नपुं०) पापयुक्त बसतियों का छोड़ना, दोष द्रव्यजिनः (पुं०) शरीर का आधार लेकर जिन कहना।
युक्त स्थान का परित्याग करना। दव्यजीवः (०) मनुष्यादि के रूप की ओर अभिमुख को द्रव्यप्रतिसेवना (स्त्री०) विवक्षित वस्तु की प्रतिसेवन की योग्यता। जीव मानना।
द्रव्यप्रख्याख्यानं (नपुं०) द्रव्य विषयक प्रत्याख्यान, सचित्त, दव्यज्ञानं (नपुं०) ज्ञान की उपयोग रहित अवस्था।
अचित्त, सचित्त-अचित्त द्रव्य का प्रत्याख्यान। दव्यतीर्थः (पुं०) तीर्थंकरों के जन्मस्थान, दीक्षा स्थान, ज्ञान द्रव्यप्राणः (पुं०) इन्द्रिय, बलादि प्राण। 'पौद्गालिकद्रव्येन्द्रियादि
स्थान या निर्वाण स्थान को द्रव्यतीर्थ कहा जाता है। व्यापार रूपाः द्रव्यप्राणाः' (गो० जी० टी० १२९) दव्यदिक् (वि०) दश दिशाओं का विभाग करना।
द्रव्यबन्धः (पुं०) सांकल आदि का बन्धन। द्रव्यबन्धो निगडादिः। दव्यधर्मः (पुं०) द्रव्य का निज स्वरूप।
वस्तु की ओर अनुरक्त होना। दव्यनमस्कारः (पुं०) हाथ जोड़ना, अंजली बांधना। नमस्तस्मै द्रव्यमनः (पुं०) पुद्गल विपाक का रूप ग्रहण, मन रूप
इत्यादि शब्दोच्चारणं उत्तमांगावनतिः कृतांजलिता च परिणमन। द्रव्यनमस्कारः। (भ०आ०टी० ७२२)
द्रव्यमनोयोगः (पुं०) द्रव्य मन रूप परिणमन। द्रव्यनामः (पुं०) द्रव्यानुयोग शास्त्र। (जयो०२/४९) किं किमस्ति द्रव्यमलं (नपुं०) बाह्य मल मूत्रादि मल सम्बद्धता।
जगति प्रसिद्धिमत्कस्य सम्पदथ कीदृशी विपद। द्रव्यनाम | द्रव्यमंगलं (नपुं०) साधुओं का शरीर द्रव्यमंगल।
समये प्रपश्यतां नो वितर्कविषया हि वस्तुता। (जयो० २/४९) द्रव्यमोक्षः (पुं०) भव परित्याग, सांकलादि बन्धन से मुक्ति। द्रव्यनिक्षेपः (पुं०) भाव परिणाम विशेष की प्राप्ति की ओर दव्ययुतिः (स्त्री०) द्रव्य की संयुक्ति, द्रव्य का स्वामित्व।
अभिमुख। द्रव्य की योग्यता का धारक। गुणैर्दुतं गतं प्राप्तं द्रव्ययोगः (पुं०) मन, वचन और काय का योग। द्रव्यम्। गुणान् वा द्रुतं गतं प्राप्तं द्रव्यम्, गुणैर्दोष्यते द्रव्यम्, द्रव्यलक्षणं (नपुं०) द्रव्य का स्वरूप निर्धारण। गुणान् द्रोष्यतीति द्रव्यम्। (जैन०ल० ५४८)
द्रव्यलिङ्गं (नपुं०) १. बाह्य परिवेश, बाह्य चिह्न। २. नामकर्म द्रव्यनिबन्धनं (नपुं०) द्रव्य का बन्धन, द्रव्य का द्रव्यान्तर से के उदय से उत्पन्न होने वाले योनि या मेहन आदि/पुरुषेन्द्रिय सम्बन्ध।
आदि। दव्यनिद्रा (स्त्री०) निद्रा का वेदन।
दव्यलेश्या (स्त्री०) पुद्गल विपाकी वर्ण, शरीर गत वर्ण, द्रव्यनिर्जरा (स्त्री०) एक देश क्षय होना।
कृष्ण, नीलु, पीतादि वर्ण। दव्यनिर्देशः (पुं०) सचित्तादि द्रव्य का कथन, द्रव्य विशेष का | द्रव्यलोकः (पुं०) जीवाजीव द्रव्यरूप सप्रदेश-अप्रदेश रूप, कथन। यह गाय है इत्यादि।
कालाणु या परमाणु रूप। दव्यपक्वः (पुं०) ईंधन के संयोग से पकना।
द्रव्यवर्गणा (स्त्री०) द्रव्य की वर्गणा, एक प्रदेशी से लेकर दव्यपरिवर्तनं (नपुं०) कर्म द्रव्य या नोर्मद्रव्य का परिवर्तन, अनन्तप्रदेशी तक पुद्गलों की वर्गणा। द्रव्य का यथायोग्य परिभ्रमण।
द्रव्यवाक् (नपुं०) पुद्गल रूप वचन। दव्यपरीग्रहः (पुं०) धन संचय।
द्रव्यविवेकः (पुं०) बहिर संग परित्याग। द्रव्यपर्यायः (पुं०) मनुष्यादि का परिवर्तन।
दव्यविशेषः (पुं०) गुणों की उत्कर्षता। द्रव्यपापं (पं०) अशुभ परिणाम रूप पुद्गल का परिणमन। | व्यवेदः (पुं०) योनि, लिंगादि-पुंवेद, नपुंसकवेद और स्त्रीवेद। दव्यपुण्यं (नपुं०) शुभ परिणाम रूप पुद्गल का परिणमन। द्रव्यव्युत्सर्गः (पुं०) अन्न-पानादि का परित्याग। दव्यपुद्गलपरावर्तः (पुं०) अनुक्रम से समस्त पुद्गलों को द्रव्यशल्यं (नपुं०) कारण भूत कर्म, मिथ्यादर्शन, माया और ग्रहण करके छोड़ना।
निदान रूप शल्य।
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दव्यशस्त्रं
५००
द्रव्योद्योतः
दव्यशस्त्रं (नपुं०) कुठार आदि शस्त्र।
० द्रव्य की सामान्य अनुवृत्ति। 'द्रव्यं सामान्यमुत्सर्गः द्रव्यशुद्धिः (नपुं०) वस्त्रादि की स्वच्छता।
अनुवृत्तिरित्यर्थः तद्विषयो द्रव्यार्थिकः (स०सि० १/३३) दव्यश्रुतं (नपुं०) अक्षरों की प्राप्ति, उच्चारण का आश्रय। • जो सामान्य की सिद्धि करता है-अनुप्रवृत्ति सामान्य दव्यसमवायः (पुं०) द्रव्यों का समान समुदाय।
द्रव्यं चैकार्थवाचका नयस्तद्विषयो य स्याज्ज्ञेयो द्रव्यार्थिको दव्यसमाधिः (स्त्री०) स्वस्थान में समत्व।
हि सः।। द्रवति द्रोष्यति अदुद्रुवदिति वा द्रव्यम् तदेवार्थों दव्यसंकोचः (पुं०) हाथ, पैरादि का संकुचन।
यस्य द्रव्यार्थिकः। दव्यसंयोगः (पुं०) दो से अधिक द्रव्यों का संयोग।
० द्रव्याश्रय अभेद रूप होता है। द्रव्यसंवरः (पुं०) संसार के कारण भूत कर्मपुद्गलों के ग्रहण
|दव्यार्थिकनिक्षेपः (पुं०) भूत, भावी पर्यायों में अनुपचारित। का अभाव।
द्रव्य के सादृश होना। द्रव्यसाधु (पुं०) भाव से रहित-वेषधारी साध।
दव्यार्थिकनैगमः (पुं०) संग्रह एवं व्यवहार का ग्रहण करना। दव्यसामायिकं (नपुं०) द्रव्य के विषय में राग-द्वेष नहीं करना।
द्रव्यावग्रहः (पुं०) तत् तत् द्रव्य का अवग्रहण, देवेन्द्र, राजा, दव्यसूत्रं (नपुं०) गणधर प्रणीत शब्द रचना, विसंवाद रहित
गृहपति, सागरिक और साधार्मिक इन पांच अवग्रहों में
जो चेतन है उसका ग्रहण। सचित्त द्रव्य का ग्रहण। शब्दरचना। दव्यस्तवं (नपुं०) चौबीस तीर्थंकरों का कीर्तन, अभिप्राय
दव्यावश्यकः (पुं०) द्रव्य स्वरूप का अनुभव करना।
दव्यास्तिकः (पुं०) अविवक्षित से प्रतिपादन, ध्रुवत्व का युक्त गुणगान। ० गुणानुवाद, संकीर्तन।
प्रतिपादन। द्रव्यस्थानं (नपुं०) आकाश द्रव्य का स्थान।
दव्यास्रवः (पुं०) आत्म समवाय से रागादि परिणाम प्राप्त दव्यस्नानं (नपुं०) जल से स्नान।
होना। ज्ञानावरणादि योग्य पुद्गलों का आगमन। द्रव्यस्पर्शः (पुं०) द्रव्यों का संयोग, समवाय रूप से एकत्व।
णाणावरणादीणं जोग्गं जं पोग्गलं समासदि। दव्वासवो स दव्याग्निः (स्त्री०) १. काष्ठिक अग्नि, २. पारिणामिक भाव
णेओ अणेयभेओ जिणक्खादो।। (द्रव्य सं०३१) से युक्त अग्नि।
दव्येन्द्रियं (नपुं०) निवृति और उपकरण। 'निर्वृत्युपकरणे दव्यानुयोगः (पुं०) आत्म-कल्याणकारी शस्त्र। (जयो०वृ०
द्रव्येन्द्रियम्' (त०सू० २/१७) निर्वृति नाम रचना, वह दो १/८७, १/६) तत्त्वार्थ वर्णन का योग (जयोवृ० १९/२८)
प्रकार की होती है, एक भीतरी और दूसरी बाहरी। उसमें उत्सङ्गमध्यप्रहिसैक पाणिस्तत्त्वार्थ साथानुभवे च वाणी।
आत्मा के प्रदेशों का इन्द्रिय के आकार परिणमन होना ध्यानैकतानं मनसो विधानं कर्तुं सदैवादिशतीव सा नः।।
अभ्यन्तर निर्वृति है और नोकर्म परमाणुओं का इन्द्रिय आकार (जयो० १९/२८)
रूप होना बाह्य निर्वृति है। (त०सू० १/१७, पृ० ३७) ० द्रव्य में द्रव्य का अनुयोग। दव्वस्स जोऽणुओगो दव्वे
० द्रव्य पुद्गल पर्याय रूप इन्द्रिय। दव्वेण दव्वहेदु वा। दव्वस्स पज्जवेण व जोगो दव्वेण वा
० पुद्गलस्कन्ध और आत्म प्रदेश का आधार। जोगो।
० द्रव्येन्द्रियं पुद्गलात्मकम्। (समु० १/५) • जीवादि तत्त्वों का यथार्थ व्याख्यानप्राभृत तत्त्वार्थ • द्रव्यं पुद्गलपर्यायः, तद्रूपमिन्द्रियं द्रव्येन्द्रियम्। सिद्धान्तादौ यत्र शुद्धाशुद्ध जीवादिषड्द्रव्यादीनां मुख्यवृत्त्या द्रव्योत्थानं (नपुं०) द्रव्य का उत्थान, शरीर को स्थिर रखना, व्याख्यानं क्रियते स द्रव्यानुयोगो भत्यते। (बृ०द्र०सं०टी० कायोत्सर्ग के समय शरीर को स्थिर रखना। शरीर का ४२)
अविचल अवस्थान। दव्याभिग्रहः (पुं०) द्रव्य का विशेष नियम, द्रव्य/पदार्थ का दव्योत्सर्गः (पुं०) द्रव्य विषय का परित्याग, द्रव्यभूत विषय से
रहित होना। दव्यार्जनं (नपुं०) धन प्राप्ति, धन का संग्रहण।
द्रव्योत्सृतः (पुं०) ध्यान रहित होना। दव्यार्थिकनयः (पुं०) नयों के दो भेदों से एक भेद
दव्योद्गमः (पुं०) द्रव्य/वस्तु विषयक उद्गम। ० जिसका प्रयोजन द्रव्य है। द्रव्यमर्थं प्रयोजनमस्येत्यसौ दव्योद्योतः (पुं०) द्रव्य प्रकाश, द्रव्य के परिमित क्षेत्र में द्रव्यार्थिक:। (स०सि०१/६)
रहना।
ग्रहण।
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द्रव्योपक्रमः
द्रव्योपक्रमः (पुं०) द्रव्य का उपक्रम, विवक्षानुसार कारकों की योजना |
द्रष्ट (वि०) दर्शक, देखने वाला।
द्रष्टव्य (सं० कृ०वि०) १. देखने योग्य, २. अनुसन्धान करने योग्य, परीक्षण योग्य। ३. दर्शनीय, ४. सौन्दर्य युक्त । दह: (पुं०) गहरी झील । द्रह इव दधान सततं क्लमनाशको भविनाम् । (वीरो० ४/५०)
दा (अक० ) १. सोना, २. दौड़ना, ३. शीघ्रता करना, उड़ना
भागना ।
द्राक् (अव्य०) [द्रा+कु] शीघ्रता से, जल्दी से, तत्काल, उसी समय (जयो० ५/५१, वीरो० ४/११) २. दृष्टि (जयो० ५/२८)
द्राक्षा (स्त्री० ) [ द्राक्ष्+अ+टाप्] दाख, गोस्तनी, दाख, अंगूर । (जयो० ६/४६) द्रोक्षव मृद्वी रसने हृदोऽपि प्रसादिनी नोऽस्तु मनाक् श्रमोऽपि । ( वीरो ० १ / १ ) दाक्षारस: (पुं०) अंगूर का रस, द्राक्षा का आसव, एक पेय पदार्थ
दाघयति - लम्बा करना, फैलाना, बढ़ाना, विस्तार करना । दाघिमन् (पुं० ) [ दीर्घ इमनिच् ] लम्बाई |
द्राघिष्ठ: ( वि० ) [ अतिशयेन दीर्घः, दीर्घ इष्ठन् ] अधिक लम्बाई वाला।
द्राघीयस् (वि० ) [ दीर्घ + ईयसुन्] बहुत लम्बा | दाण (वि० ) [द्रा+क्त] उड़ा हुआ, भागा हुआ। द्वाप: (पुं०) [द्रा + णिच् + अच] १. कीचड़, दलदल, २. स्वर्ग, आकाश, ३. मूर्ख, जड़ ।
दामिल: (पुं०) चाणक्य ।
द्वाव: (पुं० ) [ द्रु+घञ्] १. भगदड़, प्रत्यावर्तन चाल, गमन। २. सरलता युक्त, ३. पिघलना, बहना।
द्रावक : (पुं० ) [ द्रु+ण्वुल्] १. पिघलने वाला पदार्थ । २. अयस्कान्तमणि, चुम्बक । ३. चन्द्रकान्त मणि ।
द्रावणं (नपुं०) [द्रु+णिच् + ल्युट् ] १. गलना, पिघलना, भागना। २. अर्क निकालना।
द्रावयति पिघला देना । वह्निघृतं द्रावयतीत्यनेन । घृतं पुनः संद्रवतीश्रितेन । (सम्य० पृ० ७)
द्राविड (पुं० ) [ द्रविण+अण्] द्रविड देश, दक्षिण प्रान्त, द्राविण, कर्णाट, गुर्जर, महाराष्ट्र और तैलंग ये पांच द्राविण क्षेत्र हैं।
द्राविडिक (वि०) द्रविड देश का निवासी ।
५०१
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दुममाला
प्रत्यावर्तन करना। २.
दु (वि०) १. दौड़ना, बहना, भाग जाना, धावा बोलना, हमला करना आक्रमण करना। ३. तरल होना, घुलना, पिघलना, रिसना । ४. जाना, हिलना, अनुसरण करना।
दु (पुं० / नपुं० [द्रु+डु] १. वृक्ष, तरु, पादप । (जयो० १/८० ) भूयात्सुतो मेरुरिवातिधीरः सुरद्रुवत्सम्प्रति दानवीरः । (सुद० २ / ३९) २. लकड़ी, ३. शाखा ।
दुधण: (पुं०) गदा, थापी, बढ़ई की हथौड़ी। दुघ्नी (स्त्री०) कुल्हाड़ी।
द्रुण: [ द्रुण+न] १. बिच्छू, २. तलवार । दुणं (नपुं०) १. धनुष, २. तलवार । दुणा (स्त्री०) धनुष की डोरी ।
दुणि: (स्त्री० ) [ द्रुण+इन्] १. कछुवी, २. ढोल, ३. कनखजूर । द्रुत (भू०क० कृ० ) [द्रु+क्त] १. शीघ्रगामी, फुर्तीला, बहा हुआ, भागा हुआ। २. दूर किया, अलग किया। लोकाचारपराङ्गमुखानुगुणिभिः संभाषणे हीÍता। (मुनि १/२) ३. शीघ्रता से । 'तमितिद्रुतमेवाऽऽनेष्यामि' (सु० ९२ ) ४. सादर । इदं स्विदङ्के द्रुतभ्युदेति यदादरी तच्छिशुको मुदेति । (सुद०१/५)
५. दौड़े हुए। राज्या इदं पूत्करणं निशम्य भटैरिहाऽऽगत्य धृतो द्रुतं या (सुद० १०५)
६. प्राप्त हुआ। स्तुतवानुतनिर्निमेषतां द्रुतमेवायुतनेत्रिणा धृताम्। (सुद० वृ० ३/९)
दुतंगमा (वि०) शीघ्रगामी। (जयो० २१ / १० ) द्रुतमेव ( अव्य०) शीघ्रता से ही । (दयो० ८१) (जयो०
१/२६) 'ध्रियते द्रुतमेव पाणिसत्तलयुग्मे' (सुद० ३/२४) दुता (वि०) द्रविता, द्रवित हुई, पसीजी हुई। किं चन्द्रकान्ता न कलावता द्रुता । (सुद० ३/४१ )
द्रुति: (स्त्री० ) [द्रु+ क्तिन्] घुलना, रिसना, पिघलना, पसीजना,
भागना ।
दुपदः (पुं०) पांचाल देश का अधिपति । द्रुपदभूपतिः (पुं०) पांचाल देश का राजा, बाला द्रुपदभूपतेर्यापि, गदिता पञ्चभर्तृका सापि । (सुद० ८८ )
दुमः (पुं०) पादप, वृक्ष, तरु ।
दुमनति: (स्त्री०) तरु पंक्ति ।
दुमनख: (पुं०) कांटा।
दुममाला ( स्त्री०) वृक्ष पंक्ति । द्रुमाणां वृक्षाणां माला पङक्तिः (जयो० १३ / ५२ )
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दुममूलदेशः
५०२
दुममूलदेशः (पुं०) वृक्ष के नीचे। मुनि हिन्मतॊ द्रुममूलदेश | दोहः (पुं०) षड्यन्त्र रचना, द्वेष करना, आघात, आक्रमण स्थितं वनान्ताद्दिवसात्ये सः। (सुद० ४/२३)
__की चेष्टा, क्षति, उपद्रव, ईर्ष्या। दुमव्याधिः (स्त्री०) ताड़ वृक्षा
दोहकर (वि०) आघात कारक, द्वेष युक्त, ईर्ष्याजनक। दुमश्रेष्ठः (पुं०) ताड़ वृक्ष।
दौरात्म्यमात्मसात् कुर्वन्नाह द्रोहकरं वयः। (जयो० ७/१) दुमारिः (पुं०) हस्ति, हाथी, कारि।
द्रौपति (स्त्री०) द्रुपद पुत्री, पांचालनृपति की पुत्री, पाण्डव दुमामयः (पुं०) लार, गोंद।
प्रिया। (सुद०८८) दुमावली (स्त्री०) वृक्षपंक्ति। क्वापि बाधा समायाता द्रुमालीवेष्यते | द्रौपदेयः (पुं०) [द्रोपदी+ढक्] द्रौपदी का पुत्र। सहिमा। (सुद० १०९)
द्वन्द्वः (पुं०) [द्वौ द्वौ सहर्तभव्यक्तौद्विशब्दस्य द्वित्वम्] घड़ियाल दुमाश्रयः (पुं०) छिपकली।
घंटा निनाद सूचका दुमिणी (स्त्री०) [द्रुम इनि+ङीप्] वृक्ष समूह।
द्वन्द्वं (नपुं०) १. युगल, जोड़ा, समूह। २. प्रतिस्पर्धा (दयो० दुमेश्वरः (पुं०) ताड़ वृक्ष, चन्द्रमा।
__५/२९) ३. कलह, झगड़ा, लड़ाई, युद्ध, टण्टा, विवाद, दमोत्पलः (पुं०) कनेर वृक्ष, कर्णिकार तरु।
परस्पर भिड़ना। ४. किला, गढ़। ५. रहस्य। दुवयः (पुं०) [द्रु+वय] माप, मान, प्रमाण विशेष। द्वन्द्वचर (वि०) युगल रूप में विचरण करने वाले। दुहु (अक०) विद्रोह करना, द्वेष करना, ईर्ष्या करना। (जयो० द्वन्द्वचारिन् (वि०) समूहात्मक रूप से गतिशील।
२५/३०) के स्मो वयं निष्कपट-द्रुहाणाम् कर्त्तव्यताया द्वन्द्वभावः (पुं०) वैपरीत्य भाव। विषये ब्रुवाणा। (समु० १/२०)
द्वन्द्वभिन्नं (नपुं०) एक-दूसरे का वियोग, स्त्री और पुरुष का दुह (वि०) [दुह+क्विप्] द्रोह, द्वेष करने वाला, चोट पहुंचाने वियोग। वाला।
द्वन्द्वमतिः (स्त्री०) दोलायमान धी, चंचल बुद्धि। (जयो० दुहः (पुं०) [हूँ संसारगतिः हन्ति-द्रु+ह्न+अच्] शिव।
६/२) इत्येवमभिनिवेशा द्वन्द्वमतिस्तेषु परिशेषात्। (जयो० ६/२) दुहिलं (नपुं०) द्रोह स्वभाव, द्रोहात्मक वचन। कलुषं वा | द्वन्द्वयुद्धं (नपुं०) मल्ल युद्ध। द्रुहिलम्-वृकपदं (जैन०ल० ५६४)
द्वन्द्वशः (अव्य०) [द्वन्द्व-शस्] दो दो करके युगल रूप से। दूः (पुं०) [द्रु+क्विप्] स्वर्ण, सोना।
द्वन्द्वसमासः (पुं०) दो पदों में परस्पर सम्बन्ध। दूषणः (पुं०) हथौड़ा।
० तयोरितरेतरयोगलक्षणो द्वन्द्व। दूणः (पुं०) बिच्छू, वृश्चिक।
० उभयप्रधानो द्वन्द्वः। (जैन ल० ५६५) दोण: (पुं०) [गुण+अच्] १. बादल, २. माप विशेष। चतुराढकं | द्वन्द्वसमासः (पुं०) दो या अधिक संज्ञाओं का योग-इतरेतर द्रोणः (त०वा० ३/३८) चतुर्भिराढकैद्रोणः
द्वन्द्व, समाहार द्वन्द्व और एक शेष द्वन्द्व। द्रोणकाकः (पुं०) पर्वतीय काका।
द्वय (वि०) [द्वि-अयट्] दुगुना, दोहरा दो प्रकार का। (सम्य० ३१) द्रोणक्षीरा (स्त्री०) चार आढक प्रमाण। दूध देने वाली। द्वयं (नपुं०) १. दो, युगल, युग्म, संयुक्त, जोड़ा, द्वैधता। २. दोणदुग्धा (स्त्री०) द्रोण प्रमाण वाली गाय।
मिथ्यात्व, झूठा। दोणपथं (नपुं०) जल-थलमार्ग, जल स्थलमार्ग से युक्त भाग। | द्वयकोशमुन्नत: (पुं०) दो कोश प्रमाण से उन्नत। (वीरो० १३/१) द्रोणमुखं (नपुं०) १. द्रोणपथ, जल एवं स्थल मार्ग से संयुक्त द्वयर्थभावः (पुं०) मायाचार, छल-कपट भाव। (जयो० ७/५०) भाग। २. मुख्यनगर।
द्वयणुकः (पुं०) अत्यंत सूक्ष्म। (जयो० ५/५१) द्रोणाचार्यः (पुं०) धनुर्विद्या प्रवीण आचार्य। 'स्वयमेव द्वयशनं (नपुं०) दो बार भोजन। (सुद० १३१)
द्रोणाचार्यप्रतिमामारोप्य स्वसहायेन धम्वियतापि प्राप्ता किल।' द्वयस (वि०) इतने से इतना। (जयो०वृ०२०/६०)
द्वयात्मक (वि०) दो रूप युक्त। द्रोणायनः (पु.) अश्वत्थामा।
द्वयी (स्त्री०) युगल, युग्म। द्रोणि:द्रोणी (स्त्री०) [द्रु+नि-द्रोणि ङीष्] १. कुप्पी, जलाधार, द्वाः (स्त्री०) द्वार, दरवाजा, उपाय। (वीरो०५/३१) शुद्धरेश्च काठ की खोर। २. एक माप विशेष।
किं द्वाः जिनवाक्यप्रयोगः।
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द्वादशं
५०३
द्विचरण
द्वादशं (नपुं०) बारह, दो और दश-बारह एक संख्या विशेष। द्वारवती (स्त्री०) द्वारकापुरी। (जयो०वृ० २६/५८)
द्वाराग्रामभागः (पुं०) देहली। (जयो०वृ० ३/२५) द्वादश-नक्षत्रं (नपुं०) बारह नक्षत्र। (जयो० २६/५८) द्वारिका (स्त्री०) द्वारकापुरी, गुजरात के पश्चिमी किनारे पर द्वादशभागः (पुं०) बारह भाग, बारह अंग, आचारांगदि बारह स्थित कृष्ण की राजधानी।
अंग। वाणी द्वादशभागेषु भक्तिमान् स विभक्तवान्। (वीरो० द्वाविंशत् (वि०) बावीस। (दयो० २८) १५/७)
द्वाविंशसर्गः (पुं०) बावीसवां सर्ग। द्वादशवतं (नपुं०) बारह व्रत, श्रावक के पांच अणुव्रत, तीन द्वा:स्थ (वि०) द्वार पर स्थित। गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत ये बारह भेद।
द्वारस्थजनः (पुं०) द्वार पर स्थित मनुष्य। (सुद० १०४, ९२) द्वादश-भावना (स्त्री०) बारह भावना, बारह अनुप्रेक्षा। द्वासप्ततिः (स्त्री०) बहत्तर। (जयो० १/१३) द्वादश-शताब्दी (स्त्री०) बारहवीं शताब्दी। (वीरो० १५/४७) द्वाः स्थनिरन्तराय (वि०) द्वार पर बिना रुकावट। 'अन्तःपुरं द्वादशसद्वतं (नपुं०) बारह उत्तम व्रत। प्रद्युम्नवृत्ते गदितं द्वा:स्थनिरन्तरायि' (सुद०८/१)
भविन्नः शुनी च चाण्डाल उवाह किन्न। अण्वादिक-द्वादश- द्वास्थितः (पुं०) द्वारपाल, पहरेदार। द्वास्थितो रविकरानवदात
सव्रतानि उपासकोतानि शुभानि तानि।। (वीरो० १७/३२) उत्पलेषु सरसीव विभातः। (जयो०५/२२) द्वादशसर्गः (पुं०) बारह सर्ग।
द्वि (संख्यावाची विशेष) (वीरो० ११/४८) दो, दोनों। द्विद्वादशात्मकत्व (वि०) बारह प्रकार के रूप का धारक। स न त्राणामशनं च गेहिसदने' (मुनि० २८)
दृश्यः सन्तापकृद् भो द्वादशात्कमत्वेन। (सुद० ८७) द्विऋचं (नपुं०) ऋचाओं का संग्रह। द्वादशाङ्गं (नपुं०) द्वादशाङ्ग सूत्र। (जयो० वृ० १/२) द्विकः (पुं०) काक, कौवा। द्वादशानुप्रेक्षा (स्त्री०) बारह भावना। भावनानामनित्या- द्विक् (सं०वि०) दो। (वीरो० ४/४५)
शरणेत्यादिद्वादशानुप्रेक्षाणां जिनागमोक्तनामाद्ये पदे द्विअथ (वि०) दो आंख वाला। तावदनित्यवचनेऽर्थवति' (जयो०वृ० १८४८)
द्विअक्षर (वि०) द्वयक्षरी, दो अक्षरों से सम्बद्ध। द्वापरः (पुं०) द्वापरकाल, चतुर्थकाल। एवं पुरुर्मानव-धर्ममाह | द्विअङ्गल (वि०) दो अंगुल लम्बा।
यत्रापि तैः संकलितोऽवगाहः। तेतिरूपेण विनिर्जगाम द्वि-अणुकं (नपुं०) दो अणुओं का समूह। कालः पुनर्वापर आजगाम।। (वीरो० १८/४३)
द्विअर्थ (वि०) दो अर्थ रखने वाला। ० संख्या प्रमाण-जिस राशि में चार का भाग देने पर दो | द्वि-अशीत (वि०) बयासीवां। शेष रहे। चतुर्विभक्ते द्विशेषो द्वापरसंज्ञः।
द्विअशीतिः (स्त्री०) बयासी। द्वापरयुग्म (पुं०) एक संख्या का प्रमाण १४भाग४३, शेष २) द्वि-अष्टम् (नपुं०) तांबा। द्वार (स्त्री०) [हणिच्। विच्] १. द्वार, दरवाजा, फाटक। ० द्वि-आत्मक (वि०) दो प्रकार के स्वभाव वाला।
प्रवेश भाग (जयो०वृ० १/६) उपतिष्ठामि द्वारि पश्य। द्वि-आमुष्यायणः (पुं०) उत्तराधिकारी। राज्ञीहाऽहं द्वारि खलु। (सुद० ३४)
द्वि-ककुदः (पुं०) ऊँट, ऊष्ट्रा ० उपाय।
द्विगु (वि०) दो गौओं से विनिमय किया हुआ। द्वारद्वारं (अव्य०) प्रतिद्वार। (जयो० १०)
द्विगुः (पुं०) संख्यावाची समास। तत्पुरुष समास का एक भेद। द्वारपालः (०) दरबान, ड्योढीवान्।
संख्या पूर्वकस्तत्पुरुषो द्विगुसमासः। संख्या के साथ जो द्वारपट्टः (पुं०) द्वार का पर्दा।
तत्पुरुष समास होता है, वह द्विगुसमास है। 'त्रिरत्नम्' द्वारपिंडी (स्त्री०) द्वार देहली।
पञ्चमहाव्रत। द्वारविधानः (पुं०) दरवाजे की कुण्डी, दरवाजे की सांकल। द्विगुण (वि०) दुगुना। द्वारबलिभुज् (पुं०) काक, कौवा।
द्विगुणत्व (वि०) दुगुना। (सुद० १२६) द्वार-बाहु (पुं०) द्वार पाख।
दिगुणीकृत् (वि०) दो गुनी परिवृद्धि। द्वारयन्त्रं (नपुं०) सांकल, कुंडी।
द्विचरण (वि०) दो पैरों वाला।
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द्विचत्वारिंश
५०४
द्वतीयाख्य-कषायः
द्विचत्वारिंश (वि०) बयालीसवां।
द्विजिह्वः (पुं०) १. सर्प, सांप, शेषनाग। २. चुगलखोर। द्विचत्वारिंशत् (स्त्री०) बयालीस।
द्विजिह्वाधिपति देखें ऊपर। द्विजः (पुं०) दुजन्मा, ब्राह्मण, विप्र। (जयो०वृ० ६/१०८, | द्विडकीर्ति (स्त्री०) बैरियों की अपकीर्ति। द्विषां
समु०४/२४) संस्काराद् द्विज उच्यते द्वाभ्यां जन्म संस्काराभ्यां __वैरिणामकीर्तिरपयशः परिणतिः (जयो० ६/४३) जायेत स द्विज इति। (हित० २३)
द्वितय (वि०) [द्वौ अवयवौ यस्य-द्वितिय[] दो से युक्त, ० दांत-दन्त (जयो० १/६२)
दुगुना, दोहरा। ० अंडज जंतुः पक्षी (वीरो० ९/४३)
द्वितयं (नपुं०) १. युगल, दो, दोनों (सुद० २/४८) २. युगल, ० दो जन्म वाला (जयो० १/६२) द्विजः द्विर्जातो मातगर्भ युग्मं श्रीपादपद्मद्वितयं-चरण-विन्दयुगलम् (जयो०वृ० जिनसमयज्ञानगर्भ चोत्पादात् द्विजः ब्राह्माण-क्षत्रिय- १/६८) शाटकं चोत्तरीयं च वस्त्रयुग्ममुवाह सा। कमण्डलु विशामन्यतमः (सा०ध०टी० २/१९)
भुक्तिपात्रमित्येतद् द्वितयं पुनः।। (सुद० ४/३१) द्विजगणः (पुं०) १. ब्राह्मणवर्ग, २. पक्षी समूह। (वीरो० ९/४३) सहस्र-द्वितयात् सूर्य-संख्याके विक्रमाब्दके। (सम्य० १५५) द्विजत्व (वि०) ब्राह्मणतव (वीरो० ११/९) ब्राह्मण कुल की द्वितिय (वि०) दूसरा, पृथक्।
प्राप्ति। स्वर्ग गतोऽप्ये त्य पुनर्द्विजत्वं धृत्वा द्वितीय (वि०) [द्वयोः पूरणं-द्वितीय] दूसरा, अन्य पृथक-दूसरा, परिव्राजकतामतत्त्वम्। (वीरो० ११/९)
दो प्रकार का। (जयो० १/५) तत्राद्यः साध्यरूपः स्याद् द्विजन्मन् (पुं०) १. ब्राह्मण (जयो० २/१११) अथो पुनर्द्धिजन्मानो द्वितीयस्तस्य साधनम्। (सम्य० ८२)
विप्राश्च सन्ति। जो द्विज हैं, उनका दूसरा जन्म/संस्कार | द्वितीयः (पुं०) १. दूसरा। 'अर्हदुपाश्रये द्वितीय-तृतीय' (जयो० जन्म भी होता है। 'द्विजन्मा चन्द्रः स नित्यं नवोदयं २६/५७) नूतनमुदयं याति' (जयो० ११/५४)
२. युगम, युग्म। (जयो०वृ० ३/६२) ० दो जन्म वाला (जयो०वृ० १/६२)
३. अपर। (जयो०वृ० ३/६२) द्विजभावः (पुं०) ब्राह्मण भाव। (जयोवृ० ६/१०८)
४. दूसरा अर्थ (जयो० ३/६२) द्विजराजः (पुं०) १. चन्द्र, शशि। (जयो० ११/५५) द्विजराजस्य । द्वितीयक (वि०) [द्वितीय कन्] दूसरा, अपर, अन्य।
चन्द्रस्य (जयो०वृ० १/५४) २. ब्राह्मणा-'द्वाभ्यां द्वितीय-कर्म (पुं०) दूसरा कर्म, दर्शनावरणीय कर्म। जन्मसंस्काराभ्यां जायन्ते ते द्विजाः' (जयो० वृ० ११/५५) द्वितीय-कारकः (पुं०) दूसरा कारक, कर्म कारक। ३. पक्षी। पिकद्विज-कोकिलो नाम पक्षी। द्विजानां राजा। द्वितीय-खण्डं (नपुं०) दूसरा भाग, दो खण्ड, युगल अंश। (जयो०वृ० ११/५५)
द्वितीय-गतिः (स्त्री०) अन्य गति, दूसरी पर्याय। द्विजराजराशि (स्त्री०) १. ब्राह्मण समूह। २. चन्द्रमंडल- द्वितीयचन्द्रः (पुं०) दूसरा चन्द्र।
'द्विजराजस्य चन्द्रस्य राशौ रात्रौ मौनं मुद्रणम्' (जयो०७० द्वितीयजन्मन् (पुं०) अन्य जन्म, पुनर्जन्म, दूसरा जन्म। १/५४) द्विजानां राजराशौ प्रधानसमूहे मौनं मूकभावः द्वितीय-तपः (पुं०) उत्कृष्ट तप। (जयो०१० १/५४)
द्वितीय दानं (नपुं०) अनुपम दान। द्विजराड् विरोधी (वि०) १. चन्द्रमा का विरोधी, २. विप्र द्वितीय-वर्गः (पुं०) १. अर्थ पुरुषार्थ। (जयो० १/६६)
विरोधी। सत्संगमापकरणो द्विजराविरोधी। (जयो० १८/७५) 'द्वितीयश्चासौ वर्गः पुरुषार्थोऽर्थस्तेन। (जयो० १/६६) २. द्विजवर्गः (पुं०) विप्रवर्ग, ब्राह्मण समूह। (सुद० ९७)
चवर्ग-व्यञ्जन समूह का द्वितीय वर्ग-द्वितीय वर्गेण चवर्गण, द्विजाति: (पुं०) १. ब्राह्मण, २. पक्षी, द्विजातयः पक्षिणो अर्थात् जकारेण सह अन्तःस्थेषु लसन्। (जयो०वृ० १/६६) नीडानि श्रयन्ति। (जयोवृ० १५/१२)
द्वितीयसर्गः (पुं०) दूसरा सर्ग, द्वितीय अध्याय। द्विजाधिराट् (पुं०) १. विप्र, ब्राह्मण। (जयो० १५/६७) द्वितीया (स्त्री०) १. द्वितीया विभक्ति, कर्मकारक। २. द्वितीया द्विजातीय (वि० दो जन्म वाले।
तिथि दूज। (जयो०वृ० ५/१०६) द्विजाली (स्त्री०) पक्षिसमूह, खग पंक्ति। 'द्विजानां पक्षिणामाली द्वितीयाख्य-कषायः (पुं०) द्वितीय अप्रत्याख्यानावरण कषाय। पंक्तिः ' (जयो० १८/६९)
(सम्य० ९९)
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द्वितीयातिथि:
५०५
द्विवेशरा
द्वितीयातिथि: (स्त्री०) दूज। (जयो०वृ० ५/१०६)
द्विपदिका (स्त्री०) पक्षी। द्वितीयाप्रतिमा (स्त्री०) दूसरी प्रतिमा,
द्विपदी (स्त्री०) दो पद युक्त, पक्षी। द्वितीयाश्रमः (०) गृहस्थाश्रम! (दयो० ६५)
द्विपवृन्दः (पुं०) हस्तिकरि। (जयो० १३/४८) द्वितीयिन् (वि०) [द्वितीय इनि] दूसरे स्थान पर अधिकार द्विपाद्यः (पुं०) दुहरा। किए हुए।
द्विपायिन् (पुं०) हस्ति, हाथी। द्वितीयेऽञ्चतिः (स्त्री०) करणानुयोग। द्वितीयेकरे पुस्तकमञ्चति- द्विपेन्द्रः (पुं०) हस्ति, हाथी, करि। (जयो० १३/९६) गजराज करणानुयोगः (जयो० १९/२६)
द्विपानां इन्द्रो-गजराजः (जयो० ७/४१) द्वितीयोपशमसम्यक्त्वः (पुं०) मोह के उपशम से उत्पन्न
द्विपेन्द्रवन्दं (नपुं०) हस्ति समूह। द्विपानां हस्तिनां वृन्दं । सम्यक्त्व।
(जयो० १३/१०९) द्वितीयो लम्बः (पुं०) दूसरा लम्ब, चम्पूकाव्य के दूसरे
द्विप्रहरं (नपुं०) दोपहर, मध्याह्न काल (जयो० १३/६८) अध्याय का नाम।
द्विबिन्दु (स्त्री०) विसर्ग। (:) द्वित्र (वि०) दो तीन बार।
द्विभुजः (पुं०) कोण। द्वित्रिंश (वि०) बत्तीसवां।
द्विभूम (वि०) दो माले का भवन, दो मंजिला, भवन। द्विदण्डि (अव्य०) डंडे से डंडा।
द्विमातृ (पुं०) गणपति। द्विदन्त-दन्तः (पुं०) गजदन्तपर्वत। द्विदन्तदन्तान् स्म स वन्दते
द्विमातृजः (पुं०) गणपति। ___मुदामुदार-वक्षारगिरीनुताश्रयः। (जयो० २४/१४)
द्विमात्रः (पुं०) दीर्घ स्वर-आ, ई, ऊ, ए, ओ, औ। द्विदलं (नपुं०) दो दल वाले चना, उड़द, मूंग आदि। अन्नेन
द्विमार्गी (स्त्री०) पगडंडी, छोटा रास्ता, पैदल चलने का रास्ता। नाधुर्द्विदलेन साकमामम्। (जयो० १३०) 'दना तक्रेण वा
द्विमुखा (स्त्री०) जोंक। मिश्रं द्विदलञ्च न भक्षयेत्' (हित० ४६)
द्विरः (पुं०) भ्रमर, भौंरा। द्विदलान्नं (नपुं०) दो दल वाले अन्न, दाल विशेष, उड़द, मूंग
द्विरतः (पुं०) हस्ति, हाथी, गज। (वीरो० ४/४१, जयो० चना, मसूरादि। 'मसूरो नाम द्विदलान्नभेद:' (जयोवृ०
१३/१०२) (समु० २/१६) १२/१२६) द्विदलान्नभुक्तिः (स्त्री०) दालादि का सेवन। 'दुरेषातः
द्विरसनः (पुं०) सर्प, नाग, अहि। पणकादिभुक्तिः क्षीरेण दध्ना द्विदलान्नभुक्तिः। अकारि
द्विरात्रं (नपुं०) दो रात्र। रात्रावशनाय चेतः सम्प्रार्थ्यते नाथ! मृषा क्रियेत।। (भक्ति०४४)
द्विरूप (वि०) दो रूप वाला। द्विदश (वि०) १. बीस, २. द्वादश, बारह।
द्विरेतस् (पुं०) खच्चर, टट्टू। द्विदशी (स्त्री०) चंद्र पक्ष की १२वीं तिथि।
द्विरेफ: (पुं०) भ्रमर, भौंरा। (वीरो० ४/८) द्विदेहः (पुं०) गणपति।
द्विरेफ-वर्गः (पुं०) मधुपवर्ग। पलाशिता किंशुक एव यत्र द्विधा (अव्य०) दो प्रकार का। (सम्य० ८२)
द्विरेफवर्गे मधुपत्वमत्र। (सुद० १/३३) द्विधार (स्त्री०) दो भाग। (वीरो० १८/५)
द्विवचनं (नपुं०) १. दो वचन, व्याकरण प्रसिद्ध वचन। २. द्विनवत (वि०) बानवेवां।
द्वयर्थकता, दो अर्थ की वास्तविकता। (जयो० ६/३७) दो द्विनवतिः (स्त्री०) बानवे।
अर्थों वाला-पयसो द्विवाच्यताऽसौ हंसस्य च तद्विवेचकता। द्विपक्षः (पुं०) १. पंछी, पक्षी। २. दो पक्ष का एक माह। (जयो० ६/३७) द्विवाच्यता-पयो दुग्धं जलञ्चेति। पन्द्रह-पन्द्रह दिन वाले दो पक्ष।
द्विवजकः (पुं०) १६ कोणों का स्थान। द्विपञ्चाश (वि०) बावनवां।
द्विवाहिका (स्त्री०) वहंगी। द्विपञ्चाशत् (स्त्री०) बावन।
द्विविंश (वि०) बाइसवां द्विपथं (नपुं०) दो मार्ग, दोराहा।
द्विविंशतिः (स्त्री०) बाईस। द्विपदः (पुं०) १. दो पैरों वाला मनुष्य। २. दो काव्य के पद। | द्विविध (वि०) दो प्रकार का, दो तरह का। (सुद० ११७)
द्विवेशरा (स्त्री०) खच्चर गाड़ी।
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द्विशतं
५०६
द्वेषः
द्विशतं (नपुं०) दो सौ। द्विशत्य (वि०) दो सौ वाला, दो सौ में क्रय किया गया। द्विशफ (वि०) दो खुर वाला, फटे खुर वाला, बैल आदि। द्विशीर्षः (पुं०) अग्नि। द्विष् (अक०) घृणा करना, विरोध होना। द्विष् (वि०) [द्विष्+क्विप्] विरोधी। द्विष (पुं०) शत्रु। द्विषत् (पुं०) शत्रु। द्विषतस्थलं (नपुं०) शत्रु स्थल, शत्रुदेश। द्विषतां स्थलं शत्रुदेशः
(जयो० ६/८६) द्विषदसुपवनं (नपुं०) बैरियों की प्राण वायु। 'द्विषदां रिपूणामसुपवनं
प्राणवायुं निपीय' (जयो०वृ० ६/१०६) द्विषन् (पुं०) दुष्ट, शत्रु। स्थायीतां भवत एव पद्मया योजितो
भवतु स द्विषन्मया। (जयो० ७/८१) द्विषष् (वि०) दो बार, छह (६+६=१२)। द्विषष्टि (स्त्री०) वासठ। द्विषष्ट (वि०) बासठवां। द्विषाञ्जित (वि०) शत्रु नाशक, शत्रुविजयी। सुभगा शुभगान्धिका
र्पितपिचुका संक्रमतो द्विषाञ्जितः। (जयो०२६/१९) द्विष्ट (वि०) [द्विष्+क्त] दो बार। द्विसंयोगी: (वि०) दो तरह से सम्बंध रखने वाला, दो के
संयोग वाला। (वीरो० १९/६) द्विसप्तत (वि०) बहत्तरवां। द्विसप्ततिः (स्त्री०) बहत्तर। द्विसप्ताहः (पुं०) पक्ष, पखवाडा। द्विसहस्र (वि०) दो हजार युक्त। द्विसीत्य (वि०) लम्बाई से चौड़ाई की ओर। द्विसुवर्ण (वि०) दो सुवर्ण मुद्रा में क्रय किया गया। द्विह्न (पुं०) हस्ति, हाथी। द्विहायन् (वि०) दो वर्ष की आयु का। द्विहित (वि०) दोनों पक्षों का कल्याण करने वाली। (जयो०
३/५६) द्विहृदया (वि०) गर्भवर्ती स्त्री। द्विहोत् (पुं०) अग्नि। द्वीन्द्रियः (पुं०) दो इन्द्रिय जीव। लट, शंख, केंचुआ आदि
स्पर्शन और रसना युक्त जीव। (वीरो० १९/३५) द्वीन्द्रियजाति (स्त्री०) दो इन्द्रिय में उत्पन्न। द्वीन्द्रियजीवः (पुं०) स्पर्श और रस को जानने वाला जीव।
द्वीन्द्रियनामकर्मोदयाद् द्वीन्द्रिया:।
द्वीपः (पुं०) [द्विर्गता द्वयोर्दिशार्वा गता आपो यत्र-द्वि+अप]
टापू, (जयो० ११/३५) 'द्वीपोऽथ जम्बूपपदः समस्ति' (वीरो० २/१) अन्तर्वीप, शरणस्थल, आश्रयभूतस्थान।
भूलोक का एक हिस्सा। (सुद० १/११) द्वीपकुमारः (पुं०) द्वीपों में क्रीड़ा करने वाला कुमार, जो वर्ण
से श्याम और सिंह के चिह्न से युक्त होते हैं। द्वीपधरणी (स्त्री०) द्वीप स्थान। द्वीपपथं (नपुं०) टापू मार्ग। द्वीपवत् (वि०) [द्वीप्+मतुप्] टापुओं से युक्त। द्वीपवत् (पुं०) समुद्र। द्वीपसागर-प्रज्ञप्ति (पुं०) द्वीप-समुद्र की प्रामाणिकता का
ग्रन्थ, जिसमें बावन लाख छत्तीस हजार पदों द्वारा द्वीप-समुद्रों के प्रमाण का प्ररूपण किया गया हो। 'दीप-सायर-पण्णत्ती वावण्ण-लक्खण-सत्तीस-पद-सहस्सेहि बहुभेयं वण्णेदि।
(धव० १/११०) द्वीपस्थानं (नपुं०) द्वीप स्थल। द्वीपान्तरं (नपुं०) अन्य द्वीप। 'द्वीपान्तराणामुपरिप्रतिष्ठः' (वीरो० २४१) द्वीपायनः (पुं०) द्वीपायन मुनि। एक तपस्वी ऋद्धिधारी मुनि।
जो ऋद्धियों के अहंकार से नरकगामी हुआ। स्वस्या एव
समद्धितो न नरकं द्वीपायनः किं गत। (मुनि० १५) द्वीपिन् (पुं०) [द्वीप+इनि] १. सिंह, २. चीता, ३. व्याघ्र। द्वैतरूपचरणं (नपुं०) यति, धावक के आचरण योग्य शास्त्र।
चरणानुयोगश यति-श्रावकभेदेन द्वैतरूपं यच्चरणश्रुतं चरणानुयोगशास्त्रम् (जयो०१० ५/४६) २. युगल चरण
(जयो०वृ०५/४६) द्वैतवत् (पुं०) मिथुन (जयो० १६/८) द्वेधा (अव्य०) [द्वि+धा] दो भागों में, दो प्रकार से, दो रूप
में। 'शुभाशुभप्रायतया जगाद, द्वेधा जिनो यस्य वरोऽभिवादः।
(समु०८/२५) द्वेधाजनः (पुं०) दो प्रकार के आदमी। द्वेधाजनो भूवलये
विभाति, संयोग एकः खलु दुःखजातिः। (समु० १/२५) द्वेषः (पुं०) [द्विष्+घञ्] घृणा, अरुचि, दोष, क्रोधादि कषाय
भाव, जुगुप्सा, शोक, अरति, भय। (सम्य० ४१) अनिच्छा (सुद० १२५) -राग-द्वेष-मलीमसेन मनसा श्री धर्मभावाद विना।। (मुनि० १८) ० द्विष्यतेऽनेनेति द्वेषः। । द्वेषणं द्वेषः। ० अप्रीतिलक्षण द्वेषः।
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द्वेषणं
५०७
धनञ्जयः
धः (पुं०) १. तवर्ग का चतुर्थ वर्ण, इसका उच्चारण स्थान
दंतमूल है। २. ब्रह्मा, ३. कुबेर, ४. गुण, आचार विचार,
० अप्रीतिपरिणाम द्वेषः ० वैरपरिणाम-द्वेषः।
० आत्मीयोपघातकारिणि द्वेषः। द्वेषणं (वि०) [द्विष्+ल्युट] घृणा करने वाला, ईर्ष्या करने वाला। द्वेषधामः (पु०) अन्यायमार्ग। (वीरो० २२/३७) द्वेषिन् (वि०) [द्वेष+इनि] घृणा करने वाला। द्वेषिन् (पुं०) शत्रु। द्वेष्य (सं०कृ०) [द्विष्+ ण्यत्] १. घृणा के योग्य। २. घृणित। द्वेष्टि (वि०) दोष, शत्रुता, विरोध। (वीरो० ११/४१) तुष्यति
द्वेष्टि चाभ्यन्तो निमित्तं प्राप्य दर्पणम्। (सुद० १२५) द्वैगुणिकः (पुं०) [द्विगुण+ठक्] सूदखोर, ब्याज लेने वाला। द्वैगुण्यं (नपुं०) [द्विगुण+ष्यञ्] १. द्वित्व, द्वैतावस्था, २. दो पर
अधिकार रखने वाला। द्वैत (नपुं०) [द्विधा इतम् द्वितम् तस्य भावः स्वार्थे अण] द्वित्व
द्वैतवाद-दो तत्त्वों का विवेचन करने वाला। आत्मा-परमात्मा,
ब्रह्म-जगत्, जीव-प्रकृति आदि। द्वैतवादिन् (पुं०) द्वैतसिद्धान्त का प्रतिपादक। द्वैतिन् (पुं०) द्वैतसिद्धान्त का प्रतिपादक। द्वैतीयीक (वि०) [द्वितीय+ईकक्] दूसरा। द्वैध (वि०) [द्विधमुज्] दुगुना, दोहरा, दो प्रकार का। द्वैधं (नपुं०) दुहरी प्रकृति वाला, दो भागों में विभक्त। द्वैधीभावः (पुं०) [द्वैध+च्चि+भू+घञ्] १. द्वैतता, दो प्रकार
की अवस्था, दो खण्ड! २. द्विधाभाव, अनिश्चितता।
(जयो०वृ० २६/५९) वैध्यं (नपुं०) [द्विधा+ष्यञ्] दोनों की ओर, दोनों पक्ष वाला। द्वैप (वि०) [द्विप+अण्] टापू से सम्बंध रखने वाला। द्वैपक्षं (नपुं०) [द्विपक्ष-अण] दो दल, दो भाग। द्वैपायनः (पुं०) [द्वीपायन अण्] १. द्वीप में उत्पन्न। २.
वेदव्यास। ० द्वीपायन ऋषि। द्वैप्य (वि०) [द्विप+ष्यञ्] टापू निवासी। द्वैमातुर (वि०) [द्विमातृ+अण्] दो माताओं वाला। द्वैमातृक (वि०) [द्विमातृक+अण] दोनों क्षेत्र वाला। द्वैरथं (नपुं०) [द्विरथ+अण्] एकल युद्ध। द्वैराज्यं (नपुं०) [द्विराज्य+ष्यञ्] दो राजाओं में विभक्त, दो
राज्यों में विभक्त। द्वैवार्षिक (वि०) [द्विवर्ष+ठक्] दूसरे वर्ष होने वाला। द्वैविध्यं (नपुं०) [द्विविध+ष्यञ्] विविधता, दोगलापन, भिन्नता। |
ध (वि०) धा+ड] धारण करने वाला, रखने वाला। धं (नपुं०) धन-सम्पत्ति, वैभव। धक्क् (सक०) ध्वस्त करना, गिराना, नष्ट करना। धटः (पुं०) [ध+अट्+अच्] १. तराजू, तराजू के पलड़े २.
तुलाराशि, तुला परीक्षण। धटकः (पुं०) [धट+कैक] एक तौल विशेष। धटिका (स्त्री०) [धटी+कन्+टाप्] १. चिथड़ा, जीण-जीर्ण
वस्त्र। २. लंगोटी। धटिन् (पुं०) [धट+इनि] तुला राशि। धण् (अक०) शब्द करना, ध्वनि होना। धत्तूरः (पुं०) [धयति धातून्-धे-उरच्] धतूरे का पौधा। धन् (अक०) शब्द करना, ध्वनि निकालना। धनं (नपुं०) [धन्+अच्] द्रविण, सम्पत्ति, निधि, रूपया-पैसा।
(जयो०वृ० २५/१४) वित्त। गेहमेकमिह भुक्तिभाजनं पुत्र तत्र धनमेव साधनम्। तच्च विश्वजनसौहृदाद् गृहीति त्रिवर्ग-परिणाम-संग्रही।। (जयो० २/२१) नो चेत्परोपकराय समुप्तं गुप्तमेव तु। धनं च निधनं भूत्वाऽऽपदे सद्भिर्निवेद्यते।। (वीरो० १७/४४) ० मूल्यवान, सम्पत्ति, सोना-चांदी। ० मूल्वान्, वस्तु। आराम् धाम-धनतो धरणीं समस्ताम्। (सुद० १/३६) ० राशि। ० पुरस्कार, पारितोषिक।
० धनिष्ठा नक्षत्र। धनकेलिः (पुं०) कुबेर। धनघात (वि०) धन हानि। धनक्षय (वि०) संपत्ति विनाश। धनक्षीण (वि०) निर्धनता, धनहानि, धन की कमी। धनगत (वि०) वित्त से अहंकारी, संपत्ति से घमण्डी। धनगर्वित (वि०) वैभव में भूला हुआ, समस्त निधियों से
अहंकारी। धनज (वि०) धन कमाने वाला। धनजात (वि०) धन युक्त, सम्पत्ति वाला। धनञ्जयः (पुं०) एक जैन कोशकार, नाममाला प्रणेता।
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धनतृष्णा
५०८
धनुर्धारी
धनतृष्णा (स्त्री०) धन की इच्छा (सुद० ७४) लालची, | धनविलासः (पुं०) धन का विलासी। 'धनस्य विलासस्तस्मिन् लोलुपी।
तत्पदाः' (जयो० २/२०) धनदः (पु०) १. दानी, उदार। २. कुबेर (समु० २/१०) धनव्ययः (पुं०) अपव्यय, खर्च।
अलकानगरी गरीयसीहगिरावुत्तरोनहीदृशी। धनदस्य पुरी धनसारशाली (वि०) धन युक्त। (जयो० १३/३४)
परीक्ष्यते प्रतिभूषेन समस्तु साक्षितेः। (समु० २/१०) धनस्थानं (नपुं०) कोषागार, धनागार, खजाना। धनदेवः (पुं०) मण्डिक गणधर के पिताश्री। मौर्यस्थले धनहरः (पुं०) १. उत्तराधिकारी। २. चोर, धन हरण करने
मण्डिकसंज्ञयाऽन्यः बभूव षष्ठो गणभृत्सुमान्यः पिताऽस्य वाला। नाम्ना धनदेव आसीत्ख्याता च माता विजया शुभाशी:।। धनहीनजनः (पुं०) निर्धन व्यक्ति। निधिघटीं धनहीनजनो (वीरो० १४१)
यथाऽधिपतिरेष विशां स्वहशा तथा। (सुद० २/४९) धनदण्डः (पुं०) अर्थदण्ड, संपत्ति का दण्ड, जुर्माना। धनश्री (स्त्री०) एक स्त्री का नाम। धनदायिन् (पुं०) अग्नि, आग।
धनि (वि०) धनवान्, धनसम्पन्न। (जयो० २/२८) धनधान्य-प्रमाणातिक्रमः (पुं०) परिग्रह परिमाणव्रत का दोष धनिकः (पुं०) [धनमादेयत्वेनास्ति अस्य] साहूकार, महाजन।
जिसमें धन-रुपया-पैसा एवं धान्यब्रीहि, जो मसूर आदि (जयो० २/२८) का नियमित प्रमाण का अतिक्रमण।
धनिन् (वि०) स्वामी, धनी। (दयो० १७) धन-धान्य-संख्यातिक्रमः (पुं०) धन-धान्य की संख्या का धनिष्ठ (वि०) [धन+इष्ठन्] अत्यन्त वैभवसम्पन्न, धनी।
अतिक्रमण। 'धनं गणिम-धरिम-मेय-परीक्ष्यलक्षणम्। धनुराकारः (पुं०) चापसन्निभ। (जयो०वृ०८/५३) धान्य-ब्रीहिर्यवो मसूरो गोधूम-मुद्ग-माष-तिल-चणकाः' धनुषकाण्डं (नपुं०० चाप, कम्र। (जयो० ६/१०४) कम्रः (जैन०ल०पृ० ५६८) 'धनं च धान्यं च धनधान्यम् तया शोभनश्चाप इव धुनष्काण्ड इव विभाति (जयोवृ०
अतिक्रमं उल्लंघनं संख्यातिक्रमोऽतिचारः। (जैन०ल० ५६८) ६/१०४) धनपतिः (पुं०) कुबेर।
धनुष्काण्डार्थ (वि०) चापार्थ। (जयो० ५/८४) धनपालः (पुं०) कोषाध्यक्षा
धनी (पुं०) सेठ, साहूकार (सुद० २/८, ३/१६) धनपिशाचिका (वि०) धन का लोभ, धन का लालची, धनी धनबलेनैव कुर्याद् यद्यदपीच्छति। धनलिप्सी, धनलोलुपी।
धनस्यान्तः स्वयं तिष्ठेद्दयनायत्तं यतो जगत्।। (दयो० ४८) धनप्रयोगः (पुं०) सूदखोरी, रिश्वतखोरी।
स्त्री, तरुणी, युवती। धनबल: (पुं०) सम्पत्ति की शक्ति। (दयो० ४८)
धनुः (पुं०) [धन्+उ] धनुष, चाप, कम्र। धनमति (पुं०) एक वणिक।
धनुष्कर (वि०) धनुष से सुसज्जित। धनमद (वि०) वैभव पर इठलाने वाला, सम्पत्ति से अहंकारी। धनुर्कल (स्त्री०) धनुष विद्या। (जयो० ६/१०८) धनमित्रः (पुं०) एक सेठ, नगर सेठ। (समु० ४/३८) धनुःखण्डं (नपुं०) धनुष भाग। धनमूलं (नपुं०) मूल सम्पत्ति, मूलधन, वास्तविक पूंजी। धनुर्गुण: (पुं०) धनुष की डोरी। धनवत् (वि०) [धन+मतुप्] धनी, धनवान।
धनुर्ग्रहः (पुं०) धनुर्धारी। धनवती (स्त्री०) उष्ट्रदेश के राजा यम की रानी। धनुग्रहपरायण (वि०) प्राणिमात्रोपरि उपकारक। सभी जीवों (वीरो० १५/२९)
का उपकार करने वाला। (जयो०वृ० १/१०५) धनवती (स्त्री०) १. इक्ष्वाकुवंशी राजा पद्य की पत्नी। (वीरो० धना (स्त्री०) धनुष की डोरी। (जयो० १०/६९)
१५/३३) २. आर्य व्यक्त गणधर के पिताश्री, धनुर्दुमः (पुं०) बांस। कोल्लागनिवासी (वीरो० १४/४)
धनुर्धरः (पुं०) धनुर्धारी। अभूच्चतुर्थः परमार्य आर्यव्यक्तोऽस्य बप्ता धनमित्र आर्यः। धनुर्धारि (पुं०) धनुर्कला प्रवीण, धनुर्विद्या निष्णात। (जयो० कोल्लागवासी भुवि वारुणीति माता ६/१०८, जयो० २१/२४) द्विजाऽऽख्यातकुलप्रतीति। (वीरो० १४/५)
धनुर्धारी देखो ऊपर।
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धनुप्रसङ्गः
५०९
धरणीधरः
धनुप्रसङ्गः (पुं०) धनुराशि का प्रसङ्ग। (वीरो० ९/१९) धमः (पुं०) १. चन्द्र, शशि। २. यमराज। धनुष्पाणि (वि०) धनुष से सुसज्जित, हाथ वाला।
धमकः (पुं०) लुहार। धनुर्मार्गः (पुं०) वक्ररेखा, तिरछी रेखा।
धमधमा (स्त्री०) अनुकरणात्मक शब्द। धनुर्लता (स्त्री०) चापयष्टि। (जयो०८/५१)
धमन (वि०) [धम+ल्युट्] चौंकने वाला। धनुर्विद्या (स्त्री०) धनुष कला। (जयो० ६/१०६)
धमनः (पुं०) एक मनुष्य सम्बंधी कुल। धनुर्वेदः (पुं०) धनुर्विज्ञान। (जयो०वृ० ९/३९)
धमनि/धमनी (स्त्री०) [धम्+अनि, धमनि डोष] १. शरीर धनुर्वेदित (वि०) चापविद्या वाला।
की नाड़ी, शिरा। २. गला, कण्ठ, गर्दन। धनेशः (पुं०) १. कुबेर (जयो० ४/६१, वीरो० ६/१) २. कोषाध्यक्षा । धमिः (स्त्री०) [धम्+र] फूंक मारना। धनोत्सवः (पुं०) द्रविणोत्सव, धन का उत्सव। (जयो०वृ०२५/१४) धम्मल: (पुं०) अलंकृत शिरो भूषण, स्त्री के सिर का धनोद्गीतिः (स्त्री०) धनका अपहरण। दृष्टया याऽपहरेन्मनोऽपि अलंकृत भूषण। तु धनोद्गीति समायोजने। (सुद० १०२)
धम्मिल: (पुं०) कोल्लाग ग्राम का ब्राह्मण, पञ्चम गणधर के पिता। धनोपार्जनं (नपुं०) धन कमाना। (जयो० ३/१) 'स्वहस्तेन धम्मिल्लः (पुं०) धम्मिल्ल नामक मंत्री, महाकच्छ का मंत्री
धनोपार्जनादेः उत्तमपुरुष-लक्षणत्वात्। (जयो०वृ० ३/१) (समु०४/११) धन्धन् (पुं०) धन्धा, कार्य व्यापार। 'धन्धने कार्यव्यापारेऽभ्युनुरतो धम्मिल्लचर (पुं०) महाकच्छ राजा का मंत्री। (समु० ४/३७) विलग्नोऽपि।' (जयो०७० २५/७०)
धय (वि०) [धे+श] पीने वाला, चूसने वाला। धन्नः (पुं०) धन्नासेठ। (जयो० २८)
धर (वि०) [धृ+अच्] धारण करने वाला, ग्रहण करने वाला, धन्य (वि०) [धन्य त्] धन प्रदान करने वाला, धनी, अक्षधर, गदाधर, अंशुधर, महीधर आदि।
साहूकार। किं निर्धनं किं पुनरत्र धन्यम् (सुद० ११९) सेठ धरः (पुं०) गिरि, पर्वत, पहाड़। मालदार। महाभाग, ऐश्वर्यशाली।
धरण (वि०) [धृ+ल्युट्] रखने वाला, संभालने वाला। धन्यः (पुं०) भाग्यशाली, श्लाघ्य, प्रशंसनीय। धन्याः परिग्रहाद्यूयं धरणः (पुं०) १. गिरि, २. सूर्य, ३. वक्षस्थल, ४. चावल।
विरक्ताः परितो ग्रहात्। (जयो० १/१०७) वैद्यो भवेद्भक्तिरुधेव धरणं (नपुं०) सहारा देना, संभालना। धन्यः। (वीरो० १६/१६) मृगादयो वा सहचारिणस्तु धन्यः धरणि/धरणी (स्त्री०) [धृ+अनि, धरणी+ङीष्] १. पृथ्वी, भू, स एवात्म-सुखैकवस्तु। (सुद० ११७)
धरा, भूमि। आराम-धाम-धनतो धरणीं समस्तान्। (सुद० ० पुण्यात्मन् आत्म-गुण-सम्पन्न। (जयो० ५/१३)
१/३६) २. छत, ३. नाड़ी, शिरा, ३. मिट्टी। ४. बुद्धि। धन्यमन्य (वि०) सौभाग्यशाली मानने वाला।
धारयति तथा निर्णीतमर्थ या बुद्धिर्धरयति। धन्यवादः (पुं०) साधुवाद, प्रशंसा, स्तुति।
धरणीकीलकः (पुं०) गिरि, पर्वत, पहाड़। धन्याकं (नपुं०) [धन्य+आकन] धनिया, धनिये का पौधा। धरणीकम्पः (वि०) पृथ्वी का कम्पन्न। धन्वं (नपुं०) [धन्+वत्] धनुष।
धरणिखण्डं (नपुं०) भू भाग। धन्वन (पुं०/नपुं०) [धन्व+कनिन] मरुधरा. मरुभमि, परत धरणीगुहा (स्त्री०) भू कंदरा, खोह। भूमि, उपजविहीन भूभाग।
धरणीजा (स्त्री०) जनक पुत्री, पृथ्वी से उत्पन्न होने वाली। धन्वन्तरं (नपुं०) चार हाथ के बराबर दूरी का माप। धरणीतलं (नपुं०) भू भाग, भूतल, पृथ्वी का अंश। (दयो० धन्वन्तरि (पुं०) [धनुः चिकित्साशास्त्रं तस्यान्तमुच्छति- ६१, जयो० ४/६३) भैरवश्यमपि यत्र नभस्तु भैरवस्य
धनु-अन्त+ऋ-इ] चरकविशेषज्ञ वैद्य, भिषग, धरणीतलमस्तु। (जयो० ४/६३)
चिकित्साशास्त्र जानकार, सुश्रुतसंहिता। (जयो० ३/१६) धरणीतिलकः (पुं०) विजयार्द्ध पर्वत की दक्षिण दिशा का धन्विन् (वि०) धनुष से सुसज्जित।
एक नगर। पत्तनस्य धरणीतिलकस्यादित्यवेगनरपो विजयाद्ध। धन्विनः (पुं०) [धन्वाइनन्] सूकर।
(समु० ५/१७) धम (वि०) [धम्+अच्] धौंकने वाला, पिघलाने वाला, धरणीधरः (पुं०) नृप, राजा। 'सोमदत्तः धरणीधरणाविन्दयुगलं गलाने वाला।
प्रणनाम।' (दयो० १०८)
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धरणीधवः
५१०
धर्मः
० चक्रवर्ती-शुचिरिहास्मद् धीधरणीधर सति पुनस्त्वयि कोऽयमुपद्रवः। (जयो० ९/७३) ० कच्छप। ० पर्वत, गिरि। धरणीधरवक्त्रतः पुनस्तत् (जयो० १२/१८) ० हस्ति, हाथी।
० विष्णु। धरणीधवः (पुं०) राजा, सर्व शिरोमणि। (जयो० २५/५९) । धरणीधवलः (पुं०) पवित्र भूमि। धरणीधाम (नपुं०) भूतल, भूस्थान। धरणीधृत (पुं०) पर्वत, गिरि। धरणीपुत्रः (पुं०) पृथ्वी पुत्र मंगल। धरणीपुत्री (स्त्री०) जनक पुत्री सीता। धरणीभूषणं (नपुं०) पृथ्वी का अलंकार, भू अलंकरण। धरणीभूषणता (वि०) धरणीतल की शोभा वाला। 'धरा तु
धरणीभूषणताया नैव जात्वपि स दूषणतायाः। (सुद० ७५) धरणीभृत् (पुं०) पर्वत, गिरि। भरतेऽत्र गिरिर्महानुरु, विजया?
धरणीभृतां गुरुः। (समु० २/१) धरणीवलयः (पुं०) भू अलंकरण, पृथ्वी का कंगन। (समु०
६/४२) धरणीश्वरः (पुं०) नृप, राजा। धरणेन्द्रः (पुं०) नागेन्द्र, एक देव का नाम। (भक्ति० ३२) धरा (स्त्री०) [धृ+अच्+टाप्] पृथ्वी, भूमि, भू (जयो० १/५)
धरैव शय्या (सुद० ९/१) धरा पुरान्यैरुररीकृता वाऽसकाविदानीं भवता धृता वा। (सुद० १११) निष्कण्टकादर्शमयी धरा वा मन्दः सुगन्धः पवनः स्वभावात्। (वीरो० १२/५०) ० शिरा।
० योनिस्थल। धराङ्कं (नपुं०) धरातल, भूभाग। 'धराया मातृस्थानीयाया अङ्के
(जयो० ३/२३) धराचरः (पुं०) राजा, भूपति। धराचलः (पुं०) भूपति। (जयो० ६/१२) धराचलकुलः (पुं०) भूपति समूह। (जयो० ६/१२) 'धराचराणां
भूमिगोचराणां भूपतीनां कुलं समाजमनयन्त' धरातलं (नपुं०) भू भाग, भूतला (सुद० ८५) (वीरो० २१/७) धरात्मजः (पुं०) मंगल ग्रह। धरात्मजा (स्त्री०) सीता, पृथ्वी से उत्पन्न होने वाली। धराधरः (पुं०) पर्वत, गिरि।
धराधिपः (पुं०) भूपति, राजा। धराधिपानामिति चित्रमाला।
(समु० ६/१८) धराधीशः (पुं०) अधिपतिः भूपति, नृप, राजा। साधारण
धराधीशाञ् जित्वाऽपि स जयः कुतः। (जयो०७/४९) धराधीश्वरः (पुं०) नृप, राजा। ये ये समुपायाता अत्र धराधीश्वराः
परेऽप्यनया। (जयो० ६/९८) । धरानिवासिन् (वि०) पृथ्वी पर रहने वाले, वसुधालय के
वासी। (जयोवृ० १२/७०) धरापतिः (पुं०) राजा, नृप। धरापुत्रः (पुं०) मंगल ग्रह। धराभवः (पुं०) मृत्युलोग। (जयो० १/७९) धराभितप्त (वि०) पृथ्वी संतप्त, भू तपन। धरा पृथिवीदानीम
भितप्ता किल सन्तापसमन्वितास्तीति (जयो० १५/१६) धराभुज् (पुं०) नृप, राजा, पृथ्वीपति। धरामण्डल (नपुं०) भू भाग, पृथ्वीमंडल। धरामोदः (पुं०) पृथ्वी का आनन्द। धरावंशः (पुं०) धरा नामक वंश, धरा नामक परिवार।
परमारान्वयोत्थस्य धरावंशस्य भामिनी। शृङ्गारदेवी आसीच्च जिनभक्ति सुतत्परा।।
(वीरो० १५/५२) धरावलयः (पुं०) भूमण्डल, भूभाग। (जयो० १३/५४) धरासुरः (पुं०) ब्राह्मण, विप्र। (वीरो० १४/६) धरित्री (स्त्री०) [धृ+इत्र ङीष्] भूमि, पृथ्वी। धरिमण (नपुं०) [धृ+इमनिच्] तुला, तराजू। धत्तूरः (पुं०) धतूरे का पौधा। धत्रं (नपुं०) [धृ+त्र] १. घर, गृह। २. सद्गुण। धर्मः (पुं०) [ध्रियते लोकोऽनेन, धरति लोकं वा-धृ+मन्]
नैतिक गुण, श्रेष्ठ कार्य, उत्तम कार्य, उत्तम विधि क्रिया कलाप। ० दार्शनिक अभिव्यक्ति-एक वस्तु का गुण-जो धर्म एवं धर्मी के तादाम्य से युक्त होता है। 'धर्मण वै संध्रियतेऽत्रवस्तु न वस्तुसत्त्वं तमृते समस्तु। (सम्य० ७१) ० धार्मिक संस्कार-'अङ्गीकृते धर्मिणि भातु धर्मः सूर्ये प्रकाशः स्फुरतीति मर्मः। (सम्य० ७२) ० आचार, आचरण-सदाचार (जयो०वृ० १/९८) नाप्नोति धर्म बहिरात्मतात:' (सम्य० ७०) ० कर्त्तव्या ० प्रथा, रीति, प्रचलन, अध्यादेश, अनुविधि।
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धर्मकथा
५११
धर्मतीर्थंकर
० अधिकार, न्याय, औचित्य, निष्पक्षता।
धर्मक्षेत्रं (नपुं०) धर्मभूमि। ० पवित्रता, शालीनता, अच्छा, सात्त्विक। (सुद० ४/१२) धर्मचरणं (नपुं०) उत्तमधर्मों का आचरण। ० नैतिकता। (समु० ४/२१)
धर्मग्रहणं (नपुं०) धर्म स्वीकार करना। (समु० ४/२१) ० प्रकृति, स्वभाव, चरित्र गुण। (सुद० ) धर्मस्य तत्त्वं च | धर्मगृहैककेतु (स्त्री०) धर्म प्रसार की अद्वितीय ध्वजा। (वीरो० समीक्ष्य तावत्' (सुद० १०८)
११/६) प्रजासु आजीवनिकाभ्युपायमस्यादिषट्-कर्मविधि ० सत्संगति, समरूपता।
विधाय। पुनः प्रवब्राज स मुक्तिहेतु-प्रयुक्तये धर्मगृहकैकेतुः। ० धर्म पुरुषार्थ (जयो०वृ० १/३) तत्रापि धर्मः प्रवरोऽस्ति (वीरो० ११/६) भूमौ न तं विना यद्भवतोऽर्थ-कामौ (दयो० २/२५) धर्मचक्रं (नपुं०) धर्म प्रवर्तन चक्र। दिशि यस्यामनुगमः 'किमु धर्म हि च नर्मशर्मणी वः' (जयो० १२/४८) धर्मः सम्भाव्योऽभूज्जिनेशिनः। तत्रैव धर्मचक्राख्यो वर्त्म वर्तयति खलु शर्महेतुरीष्यते जनानाम् (जयो० २३/४९)
स्म सः।। (वीरो० १५/१३) हे धर्म चक्र तल संस्तव एष ० दया की प्रधानता-दयाविसुद्धो धम्मो।
पातु पश्चात् भुवि क्व परचक्रकथास्तु जातु। दुष्कर्मचक्रमपि • आत्म-परिणाम-मोहक्खोह-विहीणो परिणामो अप्पणो यत्प्रलयं प्रायतु सिद्धिः समृद्धिसहिता स्वयमेव भातु।। (जयो० धम्मो। (भा०पा० ८१)
१०/९८) ० सम्यक् दृष्टि
वृषचक्र। वृषचक्रं धर्मचक्राख्यं रत्नं यत् किलापक्रमप्रभावस्य ० इष्ट स्थान को प्राप्त करने वाला-इष्ट स्थाने धत्ते इति दुर्मतप्रसारस्य प्रतियोगि प्रतिपक्षस्वरूपं यच्च योगिनं योगिनं धर्मः। (स०सि० ९/२)
प्रति प्रभावद् भवति। (जयो०१२/४) ० अहिंसा आदिलक्षण धर्म।
धर्मचर्या (स्त्री०) धार्मिक अनुष्ठान, धर्म आचरण। ० शुभ स्थान की प्राप्ति। (सम्य० ९८)
धर्मचारिन् (वि०) भद्रव्यवहार करने वाला, धर्माचरणशील, ० अभ्युदय, निःश्रेयस सुख।
सद्गुणी, सद्व्यवहारी। ० धर्म परिणाम, भाव, अवस्था, परिस्थिति, अन्त और | धर्मचारिन् (पुं०) श्रमण, साधु, मुनि, यति, साधक। तत्त्व ये एकार्थवाचक हैं।
धर्मचारिणी (स्त्री०) पतिव्रता, नारी, पत्नी, भार्या। चारित्र धर्म, वस्तुस्वभाव धर्म। वत्थुसहावो धम्मो। धर्मचिंतनं (नपुं०) सद्गुणों का मनन, वस्तुस्वरूप का अध्ययन, ० धर्मद्रव्य-गमनशील जीव। (सम्य० १९)
सात्त्विक विधिविधान का प्रतिपालन, नैतिक विचार, ० सम्यक्त्व-प्रभावेयेदेष सदा स्वधर्ममाप्नोति लोको यत आत्म-परिणाम पर विचार। एव शर्म (सम्य० ९६)
धर्मचिंता (स्त्री०) आत्म-परिणाम का चिन्तन, वस्तुस्थिति ० धर्मात्मा विना धर्म नहीं-धर्मस्य संग्राहक एष यस्माद् ___ का मनन। धर्मात्मना नास्तु विना स तस्मात्। (सम्य० ९६) धर्मजः (पुं०) धर्म से उत्पन्न पुत्र। ० धर्म महापुरुष चरित्र चित्रण। (सम्य० ९७)
धर्मजन्मन् (पुं) युधिष्ठिर।। ० वीतरागपने का नाम धर्म। (सम्य० ९८)
धर्मजिज्ञासा (स्त्री०) सदाचरण की पृच्छा, उत्तम संस्कारों की ० भेद-विज्ञान। (सम्य० १०६)
अभिलाषा। ० धर्म नाथ तीर्थंकर का नाम। (भक्ति० १९)
धर्मजीवनं (नपुं०) धर्ममय जीविका, कर्तव्यनिष्ठ जीवन। धर्मकथा (स्त्री०) अनुयोग कथा, सदाचरण की कथा। धर्मज्ञ (वि०) धर्मज्ञाता, वस्तु स्वरूप का ज्ञाता, धार्मिक धर्मकर (वि०) धर्म करने वाला।
विधिविज्ञ, पुण्यात्मा, धर्मपरायण, तत्त्वज्ञ, नीतिज्ञ। धर्मकर्मन् (नपुं०) धर्मपालन, सदाचरण का उपयोग, धार्मिक धर्मतरू (पुं०) कल्पवृक्ष। धर्मवृक्ष सर्वमेतच्च भव्यात्मन् विद्धि कर्त्तव्य, यज्ञानुष्ठान। (जयो० वृ० ३/१)
धर्मतरोः फलम्। (सुद० ४/३९) 'मूलं धर्मतरोरबोहिमतिधर्म-कर्माध्यक्षः (पुं०) पुरोहित। (जयो०वृ० ३/१४)
मन्यत्लादहिंसाव्रतम्' (मुनि० ५) धर्मकार्य (नपुं०) सदाचरण का कार्य।
धर्मतीर्थं (नपुं०) धर्म प्रवर्तक। धर्मकोषः (पुं०) धर्मशास्त्र।
धर्मतीर्थंकर (वि०) धर्म रूप तीर्थ के प्रवर्तन करने वाले।
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धर्म तीर्थंकरः
५१२
धर्मलक्षणं
धर्म तीर्थंकरः (पुं०) धर्मनाथ तीर्थंकर, जैनधर्म के पंद्रहवें
तीर्थकर का नाम। धर्मत्याग (पुं०) धर्मच्युत, धर्ममार्ग से विमुख। धर्मदेवः (पुं०) निर्ग्रन्थ साधु। धर्मद्रव्यं (नपुं०) जीव और पुद्गल को गमन करने में
सहकारी। (वीरो० १९/३९) ० धर्मास्किाय-गमनशील जीव और पुद्गल को मछली की तरह जल गमन करने में सहायक हो। (सम्य० १९) 'धर्मोऽत्रकर्म प्रकारोऽथवा तु' (समु० ८/३) धर्मद्रव्य
पुनः क्रिया शुरू करने वाला है। धर्मद्रोहः (पुं०) धर्म के प्रति ईर्ष्या, धर्मग्लानि। धर्मदोहिन् (वि०) धर्म के प्रति ईर्घ्य करने वाला। धर्मधर (वि०) धर्म के धारक, सदाचरण को धारण करने
वाले। 'धर्मः सदाचारः चापश्च सद्धारकेण साधुना'
(जयो०वृ० १/९८) धर्मधुरी (स्त्री०) धर्माधार। (वीरो० १६/१८) धर्मध्वजः (पुं०) छद्मवेशी। धर्मध्वजिन् (पुं०) पाखण्डी, धर्म के नाम पर छल करने __ वाला, छद्मवेशी। धर्मध्यानं (नपुं०) दश प्रकार के धर्म का अनुचिंतन। आज्ञा,
अपाय, विपाक और विवेक में संस्थित। ० मोह क्षोभ से विवर्जित ज्ञान, दर्शन और चारित्र का ध्यान। ० वस्तु स्वरूप का यथार्थ अनुचिन्तन। • आर्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल इन चार ध्यानों में धर्म | ध्यान, जिसमें अपने समान दूसरे के हित का चिंतन किया जाता है। अन्यस्यापिहिताय चिन्तनमथ स्वस्येव संजायते, यत्रैतत्किल धर्मनाम सुखदं ध्यानं समाख्यातेः (मनि० २२) ० औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदयिक और पारिणामिक इन पांच भावों का अनुचिन्तन मनन धर्मध्यान है। (सम्य० ८१) ० सरागधर्म और वीतरागधर्म एवं दोनों का अनुचिन्तन
मनन। (सम्य०८२) धर्मध्यान-ध्याता (वि०) धर्मध्यान की ओर संलग्न होने
वाला, अशुभ लेश्या और अशुभ भावना से रहित चिन्तन
करने वाला धर्मध्यान का ध्याता है। धर्मनन्दनः (पुं०) युधिष्ठिर। धर्मनाथः (पुं०) पन्द्रहवें तीर्थंकर का नाम।
धर्म-निवेशः (पुं०) धार्मिक श्रद्धा। धर्म-निष्पत्तिः (स्त्री०) धर्माचरण, धर्म अनुष्ठान, धर्मनीति __का पालन, कर्तव्य पालन। धर्मपत्नी (स्त्री०) पतिव्रता पत्नी, जिसके साथ विधिपूर्वक
विवाह किया गया, जो सजातीय हो, धर्मादि कार्य में सहयोगी हो। परिणीतात्मज्ञातिश्च धर्मपत्नी च सैव च। धर्मकार्ये च सध्रीचि यागादौ शुभकर्मणि।।
(लाटी संहिता २/१८०) धर्मपथः (पुं०) सन्मार्ग, नीतिपथ, न्यायपरायण मार्ग। धर्मादागतो
धर्म्य आगमोक्त उत्तरलोकहितंकरः 'धर्मश्च तौ पन्थानौ
तयोर्युग्मम्' (जयो०वृ० ५/४७) धर्मपर (वि०) धर्मनिष्ट, धर्म में लीन। धर्मपरायण (वि०) धर्मभाव युक्त, कर्तव्यनिष्ट। धर्मप्रभावना (स्त्री०) धर्म प्रचार-प्रसार (वीरो० १५/३७) धर्म
मार्ग की प्रभावना। धर्मपात्रः (पुं०) दिगम्बर साधु। (जयो० २/९४) धर्मपालः (पुं०) धर्मरक्षक, धर्म की ओर अग्रसर। धर्मपालनं (नपुं०) धर्ममार्ग का अनुसरण। (दयो० ३४) धर्मपाठकः (पुं०) धर्मज्ञान दायक शिक्षक धर्माध्यापक। धर्मपीडा (स्त्री०) धर्मापराध, अशुभप्रवृत्ति। धर्मपुत्रः (पुं०) युधिष्ठिर। धर्मप्रतिपादकशास्त्रं (नपुं०) श्रुति, आगम। (जयोवृ० ३/१५) धर्मप्ररोटः (पुं०) धर्म प्रचार। (वीरो० १५/३२) धर्मप्रवक्तु (पुं०) धर्म व्याख्याता, धर्म प्रतिपादक, धर्म प्रचारक। धर्मप्रवचनं (नपुं०) धर्म प्रधान व्याख्यान, वस्तु-तत्त्व प्रतिपादक ____ कथन, धर्मोपदेश। धर्मभावः (पुं०) धर्मभावना, धर्मानुचिन्तन। धर्ममय (वि०) धर्म युक्त, धर्म सहित, धर्मध्यान सहित। _(सम्य० ९७) धर्ममूलं (नपुं०) धर्माधार, धर्म की प्रमुखता। यथा स्वयं
वाञ्छति तत्परेभ्यः कुर्याज्जनः केवलकातरेभ्यः। तदेतदेक
खलु धर्ममूलं परन्तु सर्वं स्विदमुष्य तूलम्।। (वीरो० १६/६) धर्मयुगं (नपुं०) सत्युग, अच्छा समय। धर्मरति (स्त्री०) न्यायशील, न्यायप्रिय। धर्मराज (पुं०) १. जिन, अर्हत्, २. युधिष्ठिर, ३. राजा। धर्मरोधिन् (वि०) धर्म विरुद्ध, अनैतिक, अन्याय, अनाचार। धर्मलक्षणं (नपुं०) धर्म चिह्न, धर्मभाव।
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धर्मलाभः
५१३
धर्मानुरागः
धर्मलाभः (पुं०) धर्मवृद्धि। धर्मवत्सल (वि०) कर्त्तव्यशील, धर्मपरायण। धर्मवर्तिन् (वि०) कर्त्तव्यशील, धर्मपरायण, न्यायशील। धर्मवादः (पुं०) स्वसमय का ज्ञायक, धर्म कथन, धर्मचर्चा। धर्मवासरः (पुं०) पूर्णिमा दिवस। धर्मवित्स (वि०) धर्मवेत्ता, धर्म स्वरूप जानने वाला। 'धर्मो
वदेत् केवलिनं हि सर्वं न धर्मवित्सोऽस्ति यतो ह्यखर्वः।
(वीरो० १७/२५) धर्मविद् (वि०) धर्मबोध, संस्कार जन्य शिक्षा। धर्मविप्लवः (पुं०) धर्म विरोध, अनैतिकता, कर्त्तव्य संहार,
नीति उल्लंघन। धर्मवीरः (पुं०) शौर्यसम्पन्न, अत्यधिक धर्मनिष्ठ योद्धा। धर्मवृक्षः (पुं०) कल्पवृक्ष, वृषतरु। (जयो० २५/८४) धर्मवृद्ध (वि०) सद्गुणों में ज्येष्ठ सद्गुणी वृद्ध व्यक्ति। धर्मवृद्धि (स्त्री०) धर्मलाभ, धर्मवृद्धि, सद्गुणों का विकास,
पवित्र गुणों की प्राप्ति। उत्तमाङ्ग सुवंशस्य यद्दासीदृषिपादयोः।
धर्मवृद्धिरभूदास्याद् गुणमार्गणशालिनः।। (सुद० ४/४) धर्मशर्मा (पुं०) नाम विशेष, जैन वेद, वेदांग परायण ब्राह्मण
हरिश्चन्द्र कवि (जयो० २२/८५) धर्मशर्मा नाम ब्राह्मणः काशिकातो विद्याध्ययनं कृत्वा वेद-वेदङ्ग-पारङ्गतः' (दयो०
९०) १. (वि०) धर्म के सुख का अनुभव करने वाला। धर्मशर्माधिराट् (पुं०) धर्मशास्त्र में प्रवीण राजा-जयकुमार।
(जयो०३० २२।८५) धर्मशर्माभूत् (वि०) धर्म में सुख का अनुभव करने वाला।
'धर्मतो धर्म वा शर्म सुखं यस्य स धर्मशाभूत्' (जयो०वृ०
२२।८५) धर्मशर्माभ्युदयं (नपुं०) महाकवि हरिश्चन्द्र विरचित एक जैन
महाकाव्य। धर्मशाला (स्त्री०) धर्मार्थ संस्था, यात्रियों के लिए नि:शुल्क
ठहरने योग्य स्थान। धर्मस्थान (जयो०७० २५/३९) वृषव
(जयोवृ० २५/३९) धर्मशासन (नपुं०) धर्मशास्त्र, धर्म संहिता। धर्मशास्त्र (नपुं०) १. आध्यात्म शास्त्र, २. पवित्रशास्त्र, ३.
नीतिपरक शास्त्रा धर्मशील (वि०) पुण्यात्मा, पुण्यवान, धर्मनिष्ठ, नीतिज्ञ, धर्मज्ञ,
विदज्ञ, सद्गुणज्ञ, सदाचारी। धर्मसंधर्ता (वि०) धर्म का समर्थक धर्म धारक। 'धर्मस्य च
संधर्ता धारकोऽभूत्। (जयो० २३/४४)
धर्मसंहिता (स्त्री०) धर्मशास्त्र, नीतिशास्त्र। धर्मसत्व (वि०) धर्मरहस्य। धर्मसभा (वि०) समवसरण, दिव्योपदेश स्थान, शास्त्रसभा,
आगमनिष्ठ सभा, सर्वज्ञवचन को प्रतिपादिन करने वाली
सभा। धर्मसहाय (वि०) धर्म में सहायक। धर्मज्ञात् (वि०) धर्म युक्त। (जयो० २/७३) धर्मसाधक (वि०) धर्मध्यान की साधना करने वाला। धर्मस्तु (वि०) धर्म हो। (सु० ४/६) धर्मस्थानं (नपुं०) धर्मशाला। (जयो० २५/३९) धर्मस्थिति (स्त्री०) धर्म की विशेषता, नीति की स्थिति।
समाप्य चैवं व्यवहाररूपधर्मस्थितिं सम्प्रति योगिभूपः।
(भक्ति० २९) धर्माख्यः (पुं०) धर्म सम्बन्धी, धर्म नाम वाली। धर्माङ्कः (पुं०) सारस। धर्मागमः (पुं०) आगम ग्रंथ, धर्मशास्त्र, सिद्धान्त शास्त्र। धर्माचार्यः (पुं०) धर्म शिक्षक, सच्चे गुरु। धर्माचरणं (नपुं०) [धर्मस्य आचरणं करोति] धर्म के आचरण
में तत्पर। (जयो०वृ० १/४०) धर्मात्मजः (पुं०) युधिष्ठिर। धर्मात्मन् (वि०) धर्मात्मा, धर्म प्रधान आत्मा वाला। धर्मस्य
संग्राहक एष यस्माद् धर्मात्मना नास्तु विना स तस्मात्।
(सम्य० ९६) धर्मात्मता (वि०) धर्मात्मापन, धर्म का धारक। धर्मात्मतां विज्ञ
उपैति बाह्ययत्यागातिगोऽपि क्षमतां विगाह। (सम्य०७०) धर्माधिकरणं (नपुं०) विधिप्रशासन, न्यायालय। धर्माधिकरणिन् (पुं०) न्यायधीश, दण्डनायक। धर्माधिकर्तृत्व (पुं०) धर्माधिकारी। धर्माधिकर्तृत्वममी दधाना
बाह्य क्रियाकाण्डमिताः स्वमानात् (वीरो० १८/४९) धर्माधिकारः (पुं०) न्याय-प्रशासन, न्याय संरक्षणाधिकार। धर्माधिकारी (पुं०) न्याय-प्रशासन, दण्डनायक, न्यायधीश। धर्माधिभुवः (पुं०) धर्म प्रचार। पुरुदितं नाम पुनः प्रसाद्यामुष्मिस्तु
धर्माधिभुवोऽजिताद्याः। (वीरो० ४५) धर्माधिष्ठान (नपुं०) न्यायालय। धर्माध्यक्षः (पुं०) न्यायाधीश। धर्मानुप्रेक्षा (स्त्री०) जिनोपदिष्ट धर्म का अनुचिंतन।
० एक भावना, जिसमें धर्म का अनुप्रेक्षण किया जाता है। धर्मानुरागः (पुं०) धर्मप्रेमी, धर्मवत्सल। एतद्-धर्मानुरागेण
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धर्मानुयायित्व
५१४
धवलाटीका
चैतद्देशप्रजाऽखिला। प्रायशोऽव बभूवापि जैनधर्मानुयायिनी।। चतुर्थ कथन का विवेचना 'आक्षेपिणी विक्षेपणी संवेजनी (वीरो० १५/३१)
निर्वेदनति चतस्रः कथाः, तासा कथनं धर्मोपदेशः। धर्मानुयायित्व (वि०) धर्म मार्ग का अनुसरण करने वाले। (भ०आ०टी० १०४) धर्मानुष्ठान, धर्मदेशना। तैः सार्द्ध न धर्मानुयायिनी (वि०) धर्म का अनुसरण करने वाले। (वीरो० हि भाषणं च कुरुताद् धर्मोपदेशादृते' (मुनि० ५) १५/३१)
धर्म्य (पुं०) एकाग्रता, धर्मध्यान सम्बन्धी। न्यायोचित, उपर्युक्त। धर्मानुष्ठानं (नपुं०) धर्माचरण, धर्म युक्त क्रिया, पूजा, समीचीन व्रतानि लात्वा समितीर्वहभयो, धर्म्य मतिं भावनया विधान, आत्म-ज्ञान का शिक्षण।
दधद्भ्यः । (भक्ति० वृ० १५) धर्मान्धः (पुं०) धर्मान्ध, धर्म पर अन्धविश्वासी। (दयो० ३४) | धर्म्यकर्मन् (नपुं०) धर्मकार्य, अभीष्ट कार्य। 'धर्महितं धर्म्य च धर्मापेत (वि०) धर्म विरुद्ध, दुराचारी, अनैतिक आचरण तत्कर्म तस्मिन् रतस्तत्परः' (जयो०१० २/७३) वाला।
धर्षः (पुं०) [धृष्+घञ्] धृष्टता, अहंकार, अभिमान, घमंड, धर्मामृतं (नपुं०) धर्मपीयूष, धर्म रूप अमृत। (वीरो० १८/४६) अधीरता, १. अवज्ञा, २. बलात्कार, सतीत्व हरण। धर्माम्बुवाह (वि०) धर्मबुद्धि वाले। 'धर्माम्बुवाहाय न कः धर्षक (वि०) [धृष्+ण्वुल्] आक्रमणकारी, अधीर, बलात्कारी। सपक्षी' (सुद० ४/२२)
धर्षकः (पुं०) नर्तक, अभिनेता। धर्मारण्यं (नपुं०) तपोवन।
धर्षणं (नपुं०) [धृष्+ ल्युट] धृष्टता, अविनय, अवज्ञा, अहंकार। धर्माराधना (स्त्री०) धर्म की उपासना, उत्तम क्षमादि की धर्षणिः (स्त्री०) [धृष्+अनि] सतीत्व हीन, स्वैरिणी, कुलटा, आराधना। (जयो०वृ० ३/३)
व्यभिचारिणी। धर्मालीक (वि०) झूठे चरित्र वाला, दुराचरण करने वाला। धर्षित (वि.) [धृष्+क्त] अत्याचार से पीड़ित, विजित, धर्मावर्णवादः (पुं०) धर्म की निन्दा करना।
पराभूत, परास्त, तिरस्कृत। धर्मासनं (नपुं०) न्यायाधिकरण, न्याय की गद्दी।
धषितं (नपुं०) १. अहंकार, अभिमान, २. सहवास, संभोग, मैथुन। धर्मास्तिकायः (पुं०) गमन क्रिया युक्त धर्मद्रव्य, जीव और | धषिन् (वि०) [धृष्+णिनि] अहंकारी, घमण्डी, २. सतीत्व पुद्गल को गमन करने में सहकारी। (सम्य० २२)
हरण करने वाला, दुर्व्यवहार करने वाला, आक्रमण करने ० गमणणिमित्तं धम्म।
वाला। ० गइ-लक्खणो उ धम्मो।
धवः (पुं०) [धु+अप्] १. कम्पन। २. पति। लगेन्न-वोढापि ० गतिपरिणतौ धर्म उपकारकः।
धवस्य गात्रे (वीरो० ९/३९) ३. स्वामी (जयो० १३/) ४. धर्मिन् (वि०) [धर्म इनि] ० पुण्यात्मा, सद्गुणी। (सम्य० कान्त:धवः कान्तः स विश्वं' (जयो० १४/२३) ५. धवा
९२) ० वस्तु को निर्णय करने वाला साधन, जो प्रमाण का वृक्षा से, विकल्प से अथवा दोनों से प्रसिद्ध होता है, उसे धवल: (पं०) [धवं कम्पं लाति ला+क] १. श्वेत, शुभ्र, अनुमान के प्रकरण में धर्मी कहा जाता है। स्वच्छ सुन्दर, साफ, स्पष्ट। २. अर्जुन पांच पाण्डवों में 'कारणादि-व्यपदेशं द्रव्यं धर्मो, स्वधर्मापेक्षया द्रव्यस्य एक (जयो०वृ० १/१८) ३. धव वृक्ष। ४. वृषभ, बैल। धर्मिव्यपदेशः। (जैन०ल० ५७६) धर्मेण वै संध्रियतेऽत्रवस्तु, धवल-कूर्चक (वि०) वृद्धावस्थापन्न सफेदी दाढ़ी-बाल युक्त। न वस्तुसत्त्वं तमृते समस्तु। (सम्य. ७१) धर्म से ही वस्तु (जयो० २/१५३) धर्मी का ग्रहण होता है। धर्म के बिना धर्मी का अस्तित्त्व धवलगिरिः (पुं०) हिमालय का उन्नत शिखर। हिमगिरि। नहीं।
धवलगृहं (नपुं०) महल, चूने से पुता गृह। धर्मेन्द्रः (पुं०) एक देव का नाम, २. युधिष्ठिर। ३. धर्म में धवलधामं (नपुं०) वृषभस्थान, बैलों के स्थान। 'धवलानां प्रमुख, धर्म श्रेष्ठ।
वृषभाणां धामभिः स्थानैर्मण्डितान्' (जयो०१० २१/५०) धर्मेशः (पुं०) यम।
धवलयति (वर्तमान काल, निर्मल होता है। धवलयति क्षमावलयं धर्मोत्तर (वि०) न्यायपरायण, निष्पक्ष व्यक्ति।
___'वृद्धद्वारास्य भो अमृतपुरधरे' (जयो० ६/१०५) धर्मोपदेशः (पुं०) धर्म का प्रवचन, धर्म कथा का अनुष्ठान। | धवलाटीका (स्त्री०) षट्खण्डागम पर प्रतिपादित भाष्य,
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धवलित
५१५
धात्रीवलयः
भूतवलि-पुष्पदन्त रचित शौरसेनी भाषा का प्रथम आगम पर प्राकृत एवं संस्कृत में लिखा गया विवरण। 'षट्खण्डागम-धवलाटीकातोऽप्युपपत्तिमत्' (हित० संपादक
पृ० २६) आचार्य वीरसेन द्वारा निबद्ध टीका। धवलित (वि०) [धवल+इतच्] सफेद किया हुआ, श्वेत
किया गया। धवलिमन् (नपुं०) [धवल इमनिच्] सफेदी, सफेद रंग। धवलीभाव (पुं०) शुक्लता/शुभ्रता का भाव, सफेदी का
सद्भाव। (जयो०वृ० १५/६९) धवित्रं (नपुं०) [धू+इत्र] मृगचर्या का पंखा। धा (सक०) ० रखना, लिटाना, धरना, ० लगाना, जमाना,
प्रदान करना, अर्पित करना, ० उपहार देना, पकड़ना, ग्रहण करना, ० धारण करना, पहनना, लेना, प्रदर्शन करना, ० संभालना, निवाहना, स्थापित करना, ० सहारा देना, उत्पादन करना, रचना. ० भोगना, सहना, ग्रस्त होना, • सम्पन्न करना। स्म दधाति सुपुस्तकं सदा सविशेषाध्ययनाय शारदा। (सुद० ३/३१) इत्युक्तमाचारवरं दधानः भवन् गिरां सम्विषयः सदा नः' (सुद० ११८) 'त्रिकालयोगं स्वयमादधानः' (सुद० ११८) तपोऽनुभावं दधता तथापि (सुद० ११८) 'वैरस्य भावं दधदग्रस्त्वम्' (सुद० १०१६) दधाना (सुद० ७८)
'सदा दधानो विषमेषु दौस्थ्यम्' (जयो० १/३०) धा (पुं०) ब्रह्मा। (जयो० वृ०५/८६) पृथिव्या धा ब्रह्मा कोऽपि
अपूर्वप्रतिभोऽस्ति खलु। धाकः (पु०) प्रभाव-का कोमलाङ्गी वलये धराया
धाकोऽप्यपूर्वप्रतिमोऽमुकायाः। (जयो० ५/८६) १. वृषभ, २. आधार, आशय। ३. आहार. भात। ४. खंभा, स्तम्भ,
स्थूण। घाटी (स्त्री०) [धा+घञ्ङीप्] धावा, आक्रमण। धाणकः (पुं०) [धा+आणक] सिक्का, दीनार। धातकीयः (पुं०) धातकी खण्ड। (वीरो० ११/२५) धाता (पुं०) विधाता, ब्रह्मा। (जयो०वृ० ३/४८) धातुः (पुं०) [धा+तुन] ० मूल, तत्त्व, पृथिवी तत्त्व, खनिज
पदार्थ। ० क्रिया का मूल रूप-हसादि धातवः। (जयो० । १६/४२) भूप्रभृतेरग्रे (जयो० १/९५) ० शरीर का शुक्राणु,
वीर्य। ० ज्ञानेन्द्रिय। ० पंच महाभूत। धातु कुशल (वि०) धातु कार्य में निपुण। धातुक्रिया (स्त्री०) धातुकर्म, खनन क्रिया, धातुविज्ञान।
धातुगत (वि०) भू आदि धातु को प्राप्त। (जयो० १६/४२) धातुजं (नपुं०) शिलाजीत। धातुद्रावकः (पुं०) सुहागा। धातुपः (पुं०) पौष्टिक रसायन। धातुभूत् (पुं०) पर्वत, गिरि। धातुमत् (वि०) धातुओं/खनिज पदार्थों से परिपूर्ण। धातुमलं (नपुं०) शरीर में स्थित धातुयुक्त मल, अपवित्र
रूपांतर। धातुमाक्षिकं (नपुं०) खनिज पदार्थ, उपधातु, सोना मक्खी। धातुमारिन् (पुं०) गन्धक। धातु राजकः (पुं०) वीर्य। धातुवल्लभं (नपुं०) सुहागा। धातुवादः (पुं०) धातु विज्ञान, खनिज विज्ञान। धातुवादिन् (पुं०) खनिज पदार्थ ज्ञाता, धातुज्ञ। धातुवैरिन् (पुं०) गन्धक। धातुशेखरं (नपुं०) गन्धक का तेजाब, कासीस। धातुशोधनं (नपुं०) सीसा। धातुसंभवं (नपुं०) सीसा। धातुसाम्यं (नपुं०) निरोग, वात, पित्तादि रहित शरीर। धातु (पुं०) [धा+ तृच्] रचयिता, उत्पादक, प्रणेता, संधारक,
सहारा देने वाला, विधाता, (जयो० ३/६२) धात्रं (नपुं०) [धा+ष्ट्रल] पात्र, बर्तन। धात्री (स्त्री०) [धात्र+ङीप्] माई, धाय, उपमाता। (सुद०
९७) १. राजा (सुद० १/३८) २. पृथ्वी, (मुनि० ८) ३.
आंवले का वृक्षा (जयो० १/३८) धात्रीतलं (नपुं०) पृथ्वीतल। (मुनि०८) धात्रीदोषः (पुं०) पंचविध कर्म करने वाली दाई से भोजन
ग्रहण करना। मञ्जन, मण्डल, क्रीडन, क्षीर और अम्ब से पांच धाय होती हैं। साधक इनसे यदि भोजन लेता है तो वह धात्रीदोष कहलाता है। मार्जन-क्रीडन-स्तन्यपान-स्वापन-मण्डनम्। बाले प्रयोक्तुर्यत्प्रीतो दत्ते दोषः स धत्रिकाः।।
(अन०वृ० १५/२०) धात्रीपिण्डः (पुं०) धातृकर्म में संलग्न से भोजन प्राप्त करना। धात्रीफलं (नपुं०) आमलकी फल। (जयो० १/३८) धात्रीवलयः (पुं०) धरातल, पृथ्वीतल। (समु०८/२०) 'पलाप
धात्रीवलये नृपाल! समस्ति तेऽयं खलु योग्यकालः' (सुद० ८/२०)
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धात्रीवाहनः
धात्रीवाहनः (पुं०) राजा, नृप चम्पानगरी का राजा। (सुद० (१/३८) धात्रीवाहननामा राजाऽभूदिह । धात्रीवृक्ष (पुं०) आमलक, आंवला (जयो० १४/१५) धात्रेयिका ( स्त्री० ) [ धात्रेयी + कन्+टाप्] धात्री पुत्री, धाय की लड़की ।
धानं (नपुं० ) [ धा+ ल्युट्] १. पात्र, वर्तन, २. आधार आश्रय स्थान, राजधानी।
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धाना (स्त्री०) [धान टापू] १. खीर, २. सत्तूत, ३. अन्न, अनाज, ४. अंकुर, कली।
धानुष्कः (वि०) (धनुप्-ठक्क] धनुष धारण करने वाला, धनुर्धर, तीरंदाज। 'धनुष्को धनुषी योगात् ' धानुष्य (वि०) [धनुष्+ ष्यञ् ] बांस ।
धान्धर (स्त्री०) इला, इलायची।
धान्यं ( नपुं० ) अनाज, अन्न, चावल 'ब्रीहि आदि अठारह प्रकार के धान्य । धान्य ब्रीह्यादि अष्टादशभेदसुसस्यम् गोधूम - शालि-यव-सर्षप माष मुद्गाः श्यामाक कड्गु-तिल कोद्रव राजमाषाः। कीनाशनालमथ वैणवमाढकी च सिंवा कुलस्थ- चणकादि सुवीजधान्यम् । (कार्तिकेयानुप्रेक्षा टी० ३४०) धान्यमस्ति न विना तृणोत्करम्' (जयो० २/३) धान्यमन्नं नोद्भवति (जयो०वृ० २/ ३) धनिया।
-
धान्यकः (पुं०) धनिया, धना । (जयो०वृ० २८/३० ) 'शुण्ठि धान्यक-नागमुस्ता नेत्रनाल- विल्वफलानि ' (जयो०वृ० २८/३० )
धान्य- कल्कं (नपुं०) भूसी, चोकर, छिलका, पुआल । धान्यकूट : (पुं०) धान्य के ढेर, धान्य समूह, धान्य भण्डार 'धान्यस्य कूटा राशियो ये वीरो०वृ०२/११)
धान्यकेश: (पुं०) धान्य के भण्डार, धान्य कोठार, अनाज संचयन केन्द्र।
धान्यकोष्टकः (पुं०) धान्यकोश ।
धान्यक्षेत्रं (नपुं०) धान्य खोत, शस्यादि का भू-भाग । धान्यचमसः (पुं०) चौला, चिड़वा ।
धान्यत्वच् (स्त्री०) छिल्का, भूसी, चोकर धान्यमानप्रमाणं (नपुं०) धान्य मापने का प्रमाण | धान्यमाय: (पुं०) गल्लाव्यापारी, अनाज व्यापारी। धान्यराज (पुं०) जौ ।
धान्यवर्धनं (नपुं०) शस्य वृद्धि ।
धान्यवीजं ( नपुं०) धनिया ।
५१६
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धारण
धान्यवीर : (पुं०) उड़द दाल ।
धान्यशीर्षकं (नपुं० ) अनाज की बाल, शस्य को बाल । धान्यशूकं (नपुं०) कूट, धान्य टूंड अनाज काटने के बाद अवशिष्ट डण्ठल ।
धान्यसार : ( पुं०) साफ धान्य, अक्षत चावल, स्वच्छ किया
गया अन्न।
धान्यस्थली (स्त्री०) शस्यभूमि । ( वीरो० २ / १३) धान्यस्वरूप (पुं०) धान्यरूप (जयो०वृ० १८/१७) धान्यहितः (पुं०) ओदन रूप परिणाम । धान्य रूप | 'बहुरनल्पो योऽसो धान्यहितप्रभाव:' (जयो०वृ० १८/१७) धान्या (स्त्री०) [धान्य+टाप्] धनिया धान्यान्यर्जयत् (वि०) अन्नोपार्जन करने वाले। (मुनि० १३) धान्यान्यर्जयत् स्वतन्त्रविधिना त्वतः पिपलस्य किम् । धान्यार्थ (वि०) धान्य के निमित्त । (सुद० १/८ ) अनेकधान्यार्थमुपायकत्रर्महस्तु शीरोचितधामभत्र (सुद०२/२९) धामकः (पुं०) एक माशे का तोल ।
धामन् (नपुं० ) [ घा+मनिव्] स्थान, आवास, गृह, प्रासाद। आधार, आश्रय अलीकबोधो हि कुदृष्टिधामा (सम्य० १३५) विश्वविदेकधामा (सम्ब० १८) (जयो० ३ / ११६, जयो० ३/३३) (सुद० ११२) 'अनल्पपीताम्बरधामरम्याः ' (वीरो० २/१०) नैक नो ग्राम इवास्ति धाम' धामनिधानं (नपुं० ) प्रमुख स्थान (जयो० २२ / १ ) (जयो० ३/३३)
धामभतृ ( वि०) आजीविका करने वाले कृषकों का स्थान । (सुद०२/२९)
धामरम्या (वि०) प्रासाद की रमणीयता । ( वीरो० २/१० ) धार (वि०) [+ णिच्+अच्] धारण करने वाला, सहारा देने
वाला, आधारभूत।० सीमा, परिधि । ० धार-आयुध का तीखापन। 'मम वा यमवाक्सन्धाकारयाऽऽयुधधारया' (जयो० ७/२७) ० धारा (जयो० ७/२३)
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धारकः (पुं०) [धृ+ण्वुल्] १. जलपात्र, वर्तन, २. संग्राहक (सम्य० ३३)
धारक (वि०) धारण करने वाला, प्रतिपत्तार (वीरो० १५/५५) दुर्मदाचलभिदः सदा स्वतो धारक क्षणलसच्चमत्कृतः । (जयो० ३/१९ )
धारण ( वि०) [घृणिच् स्युद्] ग्रहण / अंगीकार करने वाला, सहारा देने वाला, रक्षा करने वाला। ९? ( सुद० ७/६) ( सम्य० १५) अनुभूत / गृहीत बात को नहीं ।
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धारणा
५१७
धाव
भूलना-'गृहीतस्याविस्मरणं धारणम्' धारणमविस्मरणम्'
(जैन०ल० ५७७) धारणा (स्त्री०) विषय के अनुसार प्रतिपत्ति, ०अवधारणा,
० धैर्य, दृढ़ता, स्थिरता, निश्चित नियम, उपसंहार,
स्मरण शक्ति, मन को शान्त रखना। (वीरो० ३/३१) • कालान्तर में नहीं भूलना। • धारणा स्मृतिहेतुः। स्मृति का कारण। ० निर्णीत अर्थ का कालान्तर में विस्मृत नहीं होना। 'निर्णीतार्थाविस्मृतिर्यतस्या धारणा' (धव० ९/१४४) ० श्रुतिनिर्दिष्टबीजानामवधारणम्' (महापुराण २१/२७) 'न तादृशी भूमिधनादि-कारणानुवृत्तये कीदृशि अस्ति धारणा। (वीरो० ३/१६) ० आस्था, समझ, विश्वास, औचित्य। ० मनोयोग, भावना, संस्कार, ० धरणी, धारणा, स्थापना, कोष्ठा और प्रतिष्ठा ये धारणा के पर्यायवाची शब्द है। 'धरणी धारणा ट्ठवणा कोट्ठा
पदिट्ठा (षट् खंडा ५/५ पृ० २४३) धारणाशक्ति (स्त्री०) स्मरण शक्ति। धारयतः-धारण करना, भजना, रहना। (जयो० १/४८)
धारयति-धारण करना।
धारयन्-(सुद० ४/६) धारण करना। धारयन्ती (वर्तकृ०) धारण करती हुई। (वीरो० १५/१४) धारयित्री (वि०) पृथ्वी, धरा, धारणी। धारा (स्त्री०) [धार+टाप्] प्रवाह, जल प्रपात, जल की रेखा।
(जयो० १२/६५) जलपरम्परा। 'वारां नृपतेर्जयस्य धाराम्' (जयो० १२/५५) ० बौछार। ० अनवरत रेखा, एक सी रेखा। ० घड़े का छिद्र। ० घोड़े की चाला ० हाशिया, किनारा, सीमा। • तलवार या अन्य आयुध का किनारा। ० परिधि, पहिए की परिधि। • उद्यान की दीवार। ० उच्चतम बिन्दु, सर्वोपरिता। ० यश। ० रजनी। ० हल्दी । ० कान का अग्रभाव।
धारागृह (नपुं०) स्नानागार, सुसज्जित फव्वारों से युक्त स्नानघर। धाराचारण (नपुं०) एक ऋद्धि, जिसमें जीवों का बचाया गया। धाराघरः (पुं०) मेघ, बादल। धारानिपातः (पुं०) जल प्रपात। धारान्वित (वि०) धाराओं से भरा हुआ। (जयो० २/१३०) धारापतनं (नपुं०) धारा प्रवाह। (जयो० ७/२३) धारापातः (पुं०) धारा प्रवाह, सलिल वृष्टि, जल का बरसना। धारायन्त्रं (नपुं०) झरना, स्रोत, प्रपात, निर्झर, फव्वारा। धारासंपातः (पुं०) मूसलाधार वर्षा, तेज बारिश। धारावाहिन् (वि०) अनवरत, क्रमश, लगातार, एक सा। धाराविषः (पुं०) टेढ़ी तलवार। धारि (वि०) धारण की जाने वाली। (जयो० १/४७) धारिणी (स्त्री०) १. धारणी नामक रानी, जो सभी प्रकार की
कला में कुशल, धान्यवृद्धि में सक्षम तथा धान्य खेत की ज्ञाता भी थी। २. पृथवी, भू, धरा। ३. (वि०) धारण करने
वाली, कुशलता युक्त। धारिन् (वि०) [धृ+णिनि] १. ले जाने वाला, सुरक्षित रखने
वाला, आश्रय देने वाला, सहारा देने वाला। २. स्मरण
शक्ति रखने वाला। धार्तराष्ट्रः (पुं०) [धृतराष्ट्र+अण] धृतराष्ट्र का पुत्र। धार्मिक (वि०) [धर्म+ठक्] पुण्यात्मा, न्यायाशील, धर्मनिष्ठ,
सद्गुणी, शुभप्रवृत्तिवाला। श्रुत और चरित्र में स्थित रहने वाला। 'धर्मे श्रुत-चारित्रात्मके भवः, स वा प्रयोजनमस्येति
धार्मिकः। (जैन ल० ५७९) धार्मिक-परमहंसा (स्त्री०) जिनवाणी, वीतराग वाणी। (जयो०
१३/५८) विशुद्ध धर्म सम्बंधी विचार युक्त वाणी। धार्मिकसंस्कारः (पुं०) धर्मयुक्त संस्कार, अच्छे ज्ञानवर्धक
संस्कार। ० धर्मभावना। ० चारित्रभाव। धार्मिणं (नपुं०) [धर्मिन्+अण] सद्गुणी समाज। धार्य (वि०) संग्राह्य (सम्य० ३३) धार्यमाण (व०कृ०) धारण करता हुआ, रखता हुआ। (वीरो०
१६/१८) घाटयं (नपुं०) [धृष्ट+ष्यञ्] अहंकार, अविनय, ढिठाई,
अभिमान, धृष्टता। (हि०सं० ५) नैवानुमन्यते धाष्ट्रा
त्समाजस्यानु शासनम्' (हि० सं०५) धाव (अक्०) ० दौड़ना, आगे बढ़ना, भागना, जाना, चलना।
(जयो० ५/९६) 'धावति ते स्वनजितविपञ्चि' (जयो० ६/७) ० पलायन करना-'दरिणो भीता भवन्तो धावन्ति
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धावक
५१८
धीरचेतस्
पलायन्ते' (जयो०वृ० १३/४७) ० धोना, निर्मल करना, | धिषणाधरः (पुं०) अध्यापक, गुरुजी। न्यगादि केनामुकबाकेषु, रगड़ना 'झगिति धावति नावति कश्मलं ननु विवेकमुपेत्य विनोदभावाद्धिषणाधरेषु' (समु० १/३३) सुफेनिलम्। (जयो० २५/६६) शीघ्रमेव धावति-प्रक्षालयति धिषणाधिदेवः (पुं०) बुद्धि के भण्डार। (समु० ३/१३) कश्मलं नाम मलम्' (जयो०७० २५/६६)
धिष्ण्यः (पुं०) [धृष्+ण्य] यज्ञाग्नि का स्थान। १. 'सदन। धावक (वि०) दौड़ने वाला।
धिष्ण्यं सद्मनि नक्षत्रे इति विश्वलोचन:' (जयो०वृ० धावकः (पुं०) १. धोबी।
२६/१०४) धावनं (नपुं०) [धाव+ल्युट] निगालना ०धोना, प्रक्षालन, ० नक्षत्र।
मार्जन, प्रमार्जन, 'करयोर्निगालनं धावनं तस्मिन्' (जयो० • शक्ति, बल, सामर्थ्य। १२/१३२) पौद्गालिकस्य देहस्य धावन-प्रेञ्छनातिगः। ०१. केतु, २. अग्नि, ३. तारा, ४. उल्का । (समु० ९/१७) ० कलिमल-धावनमतिशय-पावनः'। (सुद० धी: (स्त्री०) [ध्यै+क्विप्] मति। (वीरो० १४/२१) ७०)
० बुद्धि, ज्ञान, विवेक, समझ। (जयो० ४/५) (समु० धावल्यं (नपुं०) [धवल+ष्यञ्] सफेदी, स्वच्छता।
१/१) 'धियो बुद्धयो न जयन्ति' (जयो०वृ० ३/८६) धि (सक०) संभालना, रखना, अधिकार करना।
० विचार, कल्पना, उत्प्रेक्षा। धिः (स्त्री०) आधार, आश्रय, भण्डार।
० आशय, प्रयोजन, नैसर्गिक प्रवृत्ति। धिक् (अव्य०) [धा+डिकन्] धिक्कार, निन्दा, गर्दा, ० प्रार्थना, अर्चना, भक्ति।
घृणा, विषाद (जयो० २/१२८) दु:ख, शर्म, तरस। ० यज्ञ। करिवरेण मृणाल निभो भवत्रपि बलीति वदेद् धिगिमं धीगुणा (वि०) बुद्धि सम्बंधी गुण। स्तवम्। (समु० ७/६) धिक् पुनरपि धिक्-(जयो०१० धीचयं (नपुं०) गुणी की उत्पत्ति। (सुद० १/४६)
२८/८) 'राज्ये ममेद्दगापि धिग्दुरितैकधानी' (सुद० १०५) | धीपतिः (पुं०) बृहस्पति। धिक्कारः (पुं०) तिरस्कार, अवज्ञा, अपमान, निन्दा, गरे, धीमत् (वि.) महाबुद्धिमान, विपश्चित्, विद्वान्। झिड़कना, फटकारना।
आत्मन्येवाऽऽत्मनाऽऽत्मानं चिन्तयतोऽस्य धीमतः। (सुद० धिक्कृति (स्त्री०) धिक्कार, तिरस्कार, निन्दा, अवज्ञा, अपमान। १३५) 'धीमतामपि धिया किमसाध्यम्' (जयो०४/३३) (जयो० १६/७०)
'छान्दसं समवलोक्य धीमतां प्रीतये भवति मञ्जुवाक्यता' धिक् पुनरपि धिक् (अव्य०) बारम्बार धिक्कार, पुनः पुनः धीमतां-विदुषां प्रीतये (जयो० २/५३) भला-बुरा कहना, झिड़कना। (जयो० २५/२)
धीमन् (वि०) बुद्धिमान, प्रतिभाशाली, बुद्धिभृता (जयो०१० धिगपि धिग् (अव्य०) बारम्बार धिक्कार, भला-बुरा कहना,
९/४७) तिरस्कार करना। (जयो० २५/८)
धीर (वि०) [धी+रा+क] ०सहिष्णु, धैर्यवान्, ०धीरतायुक्त, धिगेव (अव्य०) तिरस्कार ही है। 'राज्ञामतः पञ्चदशी धिगेव शक्तिशाली, दृढ़, निश्चल, स्थाई, अटल, धृतिशाल किं नाभव सा गुरुवाग्युगेव। (जयो० ५/९९)
(जयो० ३/२५) 'कुतोऽलङ्करुतोऽथ धीर।' (जयो० ३/२५) धिप्सु (वि०) [दम्भ सन्+उ] धोखा देने वाला, धोखा देने • शान्त, सरल, मृद। सौम्य, प्रशान्त गम्भीर। 'धिया का इच्छुक।
बुद्ध्या राजन्तीति धिषणः (पुं०) [धृष्+क्युः] वृहस्पति।
० दूरदर्शी, चतुर, प्रज्ञ, अज्ञ। धिषणं (नपुं०) निवास स्थान, गृह, घर, आवास, आश्रय। ० आचरणशील, बुद्धि से शुभोभित। धिषणा (स्त्री०) बुद्धि, अक्ल, ज्ञान, विवेक, समझ। ० सत्त्व सम्पन्न।
(जयो० ४/१६, ९/७६) 'सुधीनां धिषणाः श्रयन्तु।' (सुद० ० धीरा-कर्मविदारण सहिष्णवो। १३०) पदार्थ। प्राणात्यये का धिषणाऽस्य तेन, जीवोऽस्तु धीरः (पुं०) समुद्र, उदधि।
यावन्मरणं सुखेन। सूक्त, स्तुति। (सुद० ११९) धीरचेतस् (वि०) सुदृढ़ चित्त वाला, साहसी, दृढ़ी, धैर्यवान्। धिषणाधर (वि०) बुद्धिधारक।
भवताद्य सभामध्ये, स्थातव्यं धीरचेतसा' (समु० ३/३९)
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धीरता
५१९
धुनिः
धीरता (वि०) सहिष्णुता, गंभीरता, शान्तचित्तता। (जयो०२०/५१) धुरता (वि०) प्रधान भाव वाला। धीरता (स्त्री०) धैर्य, साहस।
धुरन्धर (वि०) योग्य, श्रेष्ठ, प्रधान, प्रमुख. उच्चस्थान वाला, धी-रता (वि०) बुद्धिरत, बुद्धिमान्। (जयो० २०/५१)
(दयो० ४५) धुरा धारक। 'स्वराज्यप्राप्तयेधीमान् धीरप्रशान्तः (पुं०) शूरवीर एवं शान्त, नाटक का नायक। सत्याग्रहधुरन्धरः' (वीरो० ११/३९) धीरललितः (पुं०) दृढ़ एवं पराक्रमी नायक का गुण।
० बोझ ढोने वाला, भारवाहक। धीरस्कन्धः (पुं०) भैंसा।
० अग्रगण्य। धीरा (स्त्री०) [धीर+टाप्] दृढ़शीला नायिका।
० जीते जाने योग्य। धीराड् (पुं०) बुद्धिमान्, विद्वान्। 'यश्चाज्ञागधिगम्य पावनमना ० जुआं संभालने वाला। धीराडहिंसाश्रियः (वीरो० १६/२७)
० कर्त्तव्य निष्ठ। धीलटि: (स्त्री०) [धी+लट'इन] पुत्री, सुता, लड़की, बेटी। धुरा (स्त्री०) बोझा, भार। १. मुखभाग। (जयो० २६/६३) धीवरः (पुं०) [दधाति मत्स्यान-धा-ष्वरच्] दशपुत्र (जयो० 'परमामोदविधालसद्धराम्' (जयो० २६/६३)
२२/२९) मछुआर, ढीमर, (जयो० २२/ जयो० १/४०) | धुरी (स्त्री०) [धुरं वहति-धुर+इनिङीप्] आधारभूत, पहिए
मछली पकड़ने वाला। 'मत्स्यरीतिरिपुरेषु धीवरः' (जयो० ३/४) की नाभि, पहिए का मुखभाग। धी-वर (वि०) बुद्धिमान्, विद्वान्। (जयो० ३/४) एष जयकुमारो ० शिरोमणि। 'प्रातः समापित-समाधिरिहा नगारधुर्यो नमोऽर्हत
धी-वरो बुद्धिमान् (जयो०७० ३/४) (जयो० १२/३४) इतीदमदादुदारः' (सुद० ४/२५) धीवरता (वि०) बुद्धिमती। (जयो० १२/३४)
धुरीण (वि०) [धुरं वहति, अर्हति वा-धुन्+ख] बोझा ढोने धीवरी (स्त्री०) ढीमरी, मछुआरी।
योग्य, मुख्य, प्रधान, अग्रणी, ०महत्त्वपूर्ण कार्यों में धीवरोचर (वि०) धीवरी की पर्याय वाली। 'क्षुल्लिकात्वमगाद्यत्र नियुक्त। 'दासीव सत्कर्मविधौ धुरीणा' (समु० ६/१२) देवकीधीवरीचरे' (वीरो० १७/३६)
धुर्य (वि०) बोझ संभालने योग्य, महत्त्वपूर्ण कार्य करने योग्य, धीवरीभव (वि०) धीवरीपर्याय का होना।
__ आधारभूत, आश्रय योग्य। धीश्वरः (वि०) बुद्धिशाली, बुद्धिमान्। हे धीश्वरासुरहितं धुर्यः (पुं०) भार वाहक पशु।
सहसान्धकारम्' (जयो० १८/३०) भो! भोगाद् विरतो रतो धुस्तुरः (पुं०) धतूरा। भगवतः संचेतनेधीश्वरः' (मुनि० २५)
धू (सक०) हिलाना, कंपाना, ०क्षुब्ध करना, हराना, धुक्षु (सक०) सुलगना, जीतना, भोगना, कष्ट सहना, प्रज्ज्वलित नष्ट करना, चोट पहुंचाना, ०पराभूत करना, ०अस्वीकृत करना।
करना। धुत (वि०) [धु+क्त] परित्यक्त, त्याज्य, चुना हुआ, छोड़ा | धूः (स्त्री०) [धू+क्विप्] १. हिलना, कांपना, क्षुब्ध होना।
गया, परिहत, नष्ट। 'धुतः परिहत उग्रविधिः (जयो०वृ० २. बाधा, विपद। (जयो० २५/४८) १/९५)
धूत (भू०क०कृ०) [धू+क्त] हटाया हुआ, फेंका हुआ, धुतान्त (वि०) कम्पित, डरा हुआ। पन्थानमीषन्मरुता धुतान्तः त्यक्त, परित्यक्त। ० परीक्षित, तिरस्कृत, उपेक्षित, ० कुचाम्बला कस्य कृतेऽक्षिकृद्याः (वीरो० २१/१७)
अवज्ञात, अनुमानित। धुन् (सक०) धुनना, पीटना, ताड़ना, मिटाना, कष्ट देना। धूतकल्मष (वि०) पाप मुक्त।
(दयो० ३४) धुनित्वा (दयो० ३४) 'शिरो धूताङ्कश (वि०) अंकुश की परवाह न करने वाला 'धूतो न धुनेच्चेत्कथमेवमस्ति' (वीरो० ३/१२)
गणितो अंकुशो। (जयोवृ० १३/१०४) धुनिः (स्त्री०) [धु+नि] नदी, सरिता, कल्लोलिनी। धूतपाप (वि०) पापमुक्त। धुनी (वि०) बरसाने वाली, बिखेरने वाली। सुधाधुनी | धूतिः (स्त्री०) [धू+क्तिन्] हिलाना, तिरस्कृत करना, हटाना, गौविंधुवद्विधाना' (सुद० १/१०)
फेंकना। धुर् (स्त्री०) [धु क्विप्] धुरा, जुआं। (जयो० १३/५) | धून (भू०क०कृ०) [धू+क्त] क्षुब्ध, धुना हुआ, पीड़ित। 'सुदृढां स धुरं रथाग्रणी:' (जयो० १३/५)
धूनिः (स्त्री०) हिलाना, क्षुब्ध करना।
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धूप
५२०
धूर्वी
धूप (सक०) सुगन्धित करना, सुवासित करना।, १. गरम धूमसम्पन्न (वि०) धूम युक्त, धुंए सहित। करना, उष्ण करना। २. चमकना, बोलना।
धूमाकृतिः (स्त्री०) धूमरेखा, धुंए की लकीर। धूपः (पुं०) [धूप्+अच्] सुगन्धित द्रव्य, चन्दनादि का सुगन्धित धूमावली (स्त्री०) धूमरेखा। (जयो० १६/८२) धूमपंक्ति।
मिश्रण, सुगन्धित चूर्ण। (सुद०७२) पूजा के अष्ट द्रव्यों धूमित (वि०) अंधकार युक्त। में सप्तम धूप निक्षेपण की क्रिया अष्टकर्म के दहन हेतु धूमोत्थित (वि०) धूम सम्पन्न। (वीरो० २/३३) धूप का चढ़ाना।
धूमोद्गारः (पुं०) बाष्प उठना। धूपघटं (नपुं०) धूमक, धूपदान। (जयो० २६/५४) धूमोर्णा (स्त्री०) यम की भार्या। धूपदशा (स्त्री०) दंशागधूप, सुगंधितधूप। (सुद० ७२) धूम्या (स्त्री०) [धूम+यत्+टाप्] धुएं का बादल, प्रगाढ़ धूम। धूप-निक्षेपणं (नपुं०) धूप खेना, धूप डालना, धूप चढ़ाना। धूम्र (वि०) धुएं से युक्त, काला, अंधकार युक्त। धूपपात्रं (नपुं०) धूपदान, धूप खेने का पात्रा
धूम्रकः (पुं०) उष्ट्र, ऊँट। धूपधूमावली (स्त्री०) धूप के खेने से उठने वाली धूप रेखा। धूम्ररुच् (वि०) मटमैला।
'धूपस्य धूमावली धूमपंक्तिरिव' (जयो० १६/८२) धूम्रलोचनः (पुं०) कबूतर। धूपवासः (पुं०) धूप की गन्ध।
धूम्रलोहित (वि०) गाढा मटमैला, प्रगाढ़ लाल रंग वाला। धूपवृक्षः (पुं०) गुग्गुल तरु, सरलवृक्षा
धूम्रवर्णः (पुं०) कृष्णवर्ण, श्यामल। (जयो०व० ७/१०३) धूमः (पुं०) [धू+मक्] धुआं, वाष्प। धुंध, कोहरा। (जयो० धुम्रशुकः (पुं०) ऊँट।
१३/९९) 'तदस्य धूमा इव कुन्तलाश्चला'। (जयो० धूर्जटिः (स्त्री०) उग्र स्वभाव वाली स्त्री। (जयो० ६/७८) २३/१५)
धूर्त (वि०) [धूर्वक्त] पिशुन ०शठ, मूर्ख, चालाक। • उल्का , केतु।
(वीरो०वृ० १/१९) वाचाल धूतैः समाच्छादि जनस्य सा ० मेघ, बादल।
दृक्, वेदस्य चार्थः समवादि तादृक् (वीरो० १/३२) धूमकेतु (स्त्री०) १. धूमाकार रेखा। २. आग, उल्का, पुच्छल वञ्चक-(जयो० ७/१४)
तारा 'धूमकेतुर्गगने धूमाकाररेखाया दर्शनम्' (मूला०वृ. मायावी- (जयो०वृ०७/४) ५/७८) 'उप्पादकाले चे धूमलट्ठि व्व आगासेक ठगी-अहो धूर्तस्य धौर्त्यम् निभालयताम् (सुद० १०५) उवलब्भमाणा धूमकेदू णाम। (धव० १४/३५)
धूर्तकः (पुं०) [धूर्त कन्] १. गीदड़, २. चालाक, मक्कार, धूमचारणं (नपुं०) धूमचारण ऋद्धि।
जालसाज। धूमजः (पुं०) मेघ, बादल।
धूर्तकृत् (वि०) धूर्तता करने वाला, छली, कपटी, मायावी। धूमधामः (पुं०) धूमाकृति, घूमरेखा। धूमस्येव धाम (जयो० | धूतर्जन: (पुं०) धूर्त लोग, छली व्यक्ति। (वीरो० ९/४) १३/९९)
(दयो०५१) अजेन माता परितुष्यतीति तन्निगद्यते धूतजनैः धूमधारा (स्त्री०) धूएं की रेखा, धूमाकृति। 'ह्रियांशु-दीप- ___ कदर्थितम्। (वीरो० ९/४) ____व्ययिनीत्युदारातमोमिषात्तत्कृतधूमधारा।' (जयो० १५/३७) | धूर्तजन्तुः (पुं०) धूर्तप्राणी। धूमध्वजः (पुं०) अग्नि, आग।
धूर्तत्व (वि०) धूर्तता, ठगीपना, वञ्चकत्व। (जयो० ७/१४) धूमपंक्ति (पुं०) धूमावली, धूमरेखा।
धूर्तवत् (वि०) धतूरे की तरह। (जयो० ७/१४) प्रत्येतुं धूमपानं (नपुं०) वाष्प लेना।
नैनमेक्तोऽपि बभूव कपटं पटुः। धूममञ्जुला (स्त्री०) धूम की मनोज्ञता।
अहो धूर्तस्य धूर्तत्व धूर्तवज्जगदञ्चति।। (जयो० १/१४) धूममनोज्ञता (स्त्री०) धूमाकृति की श्रेष्ठता। (जयो०१० १४/७२) धूर्तरचना (स्त्री०) धूर्तविद्या, ठगीकला। धूममहिषी (स्त्री०) कुहरा, धुंध।
धूर्तराट् (पुं०) धूर्तराज। (जयो० ७/४) धूर्तानां राजा धूर्तराट्धूमयोनिः (स्त्री०) मेघ, बादल।
'छलछद्वाकारप्रधान (वीरो० ६/३४) (जयो० ७/४) धूमरेखा (स्त्री०) धूमाकृति।
(शठराज मुनि० २९) धूमल (वि०) धुंआ युक्त।
धूर्वी (स्त्री०) [धुर+अज्+क्विप्] गाड़ी का बम, अगला भाग।
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धूलक
५२१
धृतसक्रिय
धूलकं (नपुं०) [धू+लक] विष, ज़हर। धूरधूसरित (स्त्री०) धूल से युक्त। (जयो० २१/६७) धूरी (स्त्री०) धुरी-आधार। (सम्य० १२८) धूरी (स्त्री०) धूली, रेणु। (जयो० २८/५४) धूलिः (स्त्री.पुं०) [धू-लि] वालका (जयो० ११/५९) धूल,
रेणु, धूरी, रजकण। (जयो० १३/१०६) अनागसे सम्प्रति
सामजातैरधारि धूलिः शिरसा तथा तैः। (जयो० १३/१०६) धूलि-कुट्टिमम् (नपुं०) प्राचीर, टीला, रेत का टापू, धूल
का ढेर। धूलि-केदारः (पुं०) प्राचीर, टीला, रेत का टापू, धूल का
ढेर। धूलिध्वजः (पुं०) पवन, हवा। धूलिपटलः (पुं०) रेत का टापू, धूल का समूह। धूलिपुष्पिका (स्त्री०) केतकी पौधा। धूलिपुष्पी (स्त्री०) केतकी पादप। धूलिप्रायः (पुं०) सैकतमय, वालुकामय। (जयो० ११/५९) धूलिशालः (पुं०) समवसरण का एक स्थान, एक उत्कृष्ट
सभा स्थल। २. रत्नरेणुनिर्मित भाग, मणिसंकणि- संविभालतस्त्ववधूतो नवधूलिशालतः' नयनारिरगादभावतां न निशावासरयोर्भिदोऽत्र ता:।। (जयो० २६/४८)। समवसरण का परकोटा। आदौ समादीयत धूलि शालस्ततश्च यः खातिकया विशालः। स्वरत्न-सम्पत्ति धृतोपहारः सेवां प्रभोरब्धिरिवाचचार।। (वीरो० १३/२) सव्वाणं बाहिरए, धूलीसाला विसाल-समवटटा। विप्फुरिय-पंच-वण्णा, मणुसुत्तर-पव्वदायारा।। चरियट्टालय-रम्मा, पयत-पदाया-कलाव-रमणिज्जा। तिहुवण-विम्हय-जणणी, चदुहि दुवारेहि परियरिया।। (ति० प०४/७४१, ७४२) समवसरण के सबसे पहले पांच वर्षों से स्फुरायमान, विशाल, एवं समानगोल, मानुषोत्तर पर्वत के आकार सदृश धूलिसाल नामक कोट होता है, जो मार्ग एवं अट्टालिकाओं से रमणीय, चञ्चल पताकों से सुन्दर, तीनों लोकों को विस्मित करने वाला और चारों द्वारों से
युक्त होता है। धूसर (वि०) मटमैला, धूल से सना हुआ। धूसरः (पुं०) १. भूरारंग, २. गधा, ऊँट, कबूतर, ३. तेली। । धूसरित (वि०) धूल से सना हुआ। (जयो० २१/६७) धूसरीकृत् (वि.) पञ्चारित, विविधवर्ण युक्त। (वीरो०७०
३/१)
धृ (अक०) होना, रहना, विद्यमान होना, सुरक्षित रहना,
चलते रहना। धृ (सक०) धारण करना, लेना, पकड़ना, संभालना, पहनना,
रोकना, दमन करना। ० भूलता-'अकारि निर्जल्जतया तु नाहो कुलीनत्वधारि जातु। (सुद० १०१) ० स्थान देना-सुमनो मनसि भवानिति धातु (सुद० ९९) ० धारण करना-दधुर्योऽरयश्चैव कन्दपं स्विदपत्रपाः। (जयो० ८/१०५) ० लगाना, स्थापित करना। स्व-स्वकर्मनिरतास्तु धारयन् तद्गलोपनियमान् सुधारयन्। (जयो० २/११८) दधार
-(जयो० २२/४९) ध्रियते (सुद० ३/२४) धृत (भू०क०कृ०) [धृ+क्त] सहारा दिया गया, रक्खा गया,
धारण किया गया, पहना गया, उपयोग में लाया गया। अभ्यास किया गया, पालन किया गया। धारक (सुद०
३/९) 'द्रुतमेवन्वायुत-नेत्रिणा धृताम्' (सुद० ३/९) धृतदण्ड (वि०) दण्ड देने वाला। धृतपट (वि०) पटाच्छादित। धृतप्रमाण (वि०) प्रमाणित किया गया। धृतभङ्ग (वि०) वशीभूत। (समु० ३/७) (वीरो० १२/४९) धृतभाव (वि०) भावयुक्त। धृतमंत्र (वि०) मंत्रधारी। धृतमाया (वि०) छद्मवेशधारी। धृतयुक्ति (वि०) धैर्ययुक्त हुआ 'तज्जयाय मतिमान्
धृतयुक्तिरिस्तु।' सैव खलु सम्प्रति मुक्तिः । (सुद० ११०) धृतराग (वि०) अनुरागवान्। (जयो० ४/५६) धृतराजन् (वि०) राज्यशासित, राजा के आधीन। धृतराष्ट्र (वि०) समस्त देश को व्याप्त करने वाला।
श्री भारतोक्तविभवो धृतराष्ट्र एष, वीरं जनाय खलु
कौरवमीक्षते सः' (जयो० १८/५६) धृतराष्ट्रः (पुं०) कुरुवंश का नृपति। धृतवीर (वि०) वीरता युक्त। (सुद० ) श्रीभारते नामेतिहासग्रन्थे,
उक्तः प्रख्यापितो विभवो यस्य स धृतराष्ट्रो नाम राजा।
(जयो०वृ० १८/५६) धुतशंस (वि०) अतिशय शोभायमान्। (जयो० २२/१६) धृतवती (वि०) धारण करती हुई। (जयो० १०/११३) धृतसत्क्रिय (वि०) न्याययुक्त चेष्टा वाले-'हे! धृतसत्क्रिय,
धृताऽङ्गीकृता सती न्याययुक्ता चेष्टा येन' (जयोवृ० ९/१०)
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धृतसत्ता
५२२
धैवतः
धुतसत्ता (वि.) संगठित, सत्तायुक्त। 'स्वं वरं प्रचरितुं धृतसत्तां धृष्णज् (वि०) [धृष्+ नजिङ्] साहसी, दृढ़संकल्पी, ढीठ, गन्तुमेष च सभामभवत्ताम्। (जयो० ४/१४)
निर्लज्जा धृताञ्जनं (वि.) १. अञ्जन लगाए हुए। २. अञ्जन जाति के | धृष्णिः (स्त्री०) [धृष्+नि] प्रकाश किरण। वृक्षों वाला। (सुद० पृ० ८३)
धृष्णु (वि०) [धृष्+क्नु] साहसी, दृढ़संकल्पी, पराक्रमी। धृतादरः (पुं०) १. आदर करने वाला (जयो० २/१०८) २. धे (सक०) चूसना, पीना, निगलना, चूंट भरना।
नैष्ठिक धृत आदरो येन स गृहीतविनयो नरो (जयो० २/९१) धेनः (पुं०) [धे+नन्] १. समुद्र, २. नद।। धृतानति (वि०) स्वीकृत नमन। (जयो० १३/१८)
धेनुः (स्त्री०) [धेनु] गाय, गो। (सम्य० ९६) 'धेनुरस्ति धृतानुराग (वि०) प्रेमभाव युक्त, लालिमा। धृतः सम्बद्धोऽनुरागौ महतीह देवता' (जयो० २/८७) तच्छकृत्प्रनवणे निषेवता लालिमा प्रेमभावश्च। (जयो० १५/७)
'धेनूनां पोषणं केवलमन्नत एव न भवति' (जयो० २/११) धृतार्थ (वि०) प्रयोजन से युक्त। धृतोऽर्थो हेतुभावो येन तदस्तु, 'वदेयुर्मातरं धेनुं प्रभावः तन्मतरेयम्' (वीरो० १५/५७)
'अर्थः प्रयोजने वित्ते हेत्वभिप्रायवस्तुष' (इति विश्वलोचनः ० पृथ्वी, धरणी, मा। जयो०वृ० २६/७४)
धेनुक (वि.) [धुने कन्] धेनु वाला। १. गोपुर। (जयो० धृतिः (स्त्री०) १. धर्म पुरुषार्थ। धृतिर्धर्मस्तु' (जयो०३० ३/१०७)
२/१०) २. धैर्य, दृढ़संकल्प, दृढ़ता, स्थिरता। (जयो० धेनुका (स्त्री०) [धेनुक+टाप्] हथिनी। २/७४) ३. सन्तोष, साहस, तृप्ति, प्रसन्नता, हर्ष। ४. धेनुग (वि०) सदाचारी। (जयो०वृ० २१/४४) प्रीतिः, अनुराग। (जयो० ६/२३) ५. लेना पकड़ना, धेनुगत्व (वि०) धेनुपना, सरलता का भाव। (जयो० २१/४४)
ग्रहण करना, रखना, अधिकृत करना। ६. आत्म-संयम। धेनुततिः (स्त्री०) गो समूह। (वीरो० २/२०) धृति-कक्ष (नपुं०) धैर्य भवन। 'हावे च भावे धृतिकक्षदावे' धेनुधनं (नपुं०) गोधन। (दयो० ५३) राज्ञी क्षमा ब्रह्म-गुणैकनावे। (सुद० १०३)
धेनुमुदा (स्त्री०) दोनों हाथों की अंगुलियों को परस्पर मिलाकर धृतिधारणं (नपुं०) प्रेमपूर्वक, सन्तोषजनक। 'प्राणिनामनुरागपूर्वक स्थित होना, गो स्तनाकारवत् स्थित होना।
प्रेमपूर्वकं प्रजायाः परिपालनम्'। (जयो० ६/७३) धेनुरक्षकः (पुं०) गोपति, ग्वाला, गोपपति। (जयो० ८/१०७) धृतिमत् (वि०) [धृति+मतुप्] १. स्थिर, सुदृढ़ परिपक्व, धेनुष्या (स्त्री०) [धेनु+यत्-सुक्] सुरक्षित दूध वाली गाय। अडिग, २. संतुष्ट, प्रसन्न, प्रहष्ट, तृप्त।
धैनुकं (नपुं०) गायों का समूह। धृतिमान् (वि०) दृढ़संकल्पी, धैर्यवान्, स्थिर, सुदृढ़, परिपक्व, धैर्य (नपुं०) [धीर+ष्यञ्] साहस, धीर, दृढ़ता, स्थिरता, अडिग।
सामर्थ्य, शक्ति, स्थायित्व, शान्ति, सहिष्णुता। (वीरो० ० संयम में रति।
३/२) 'पश्येन्नान्तरमन्तकात्मसुहृदो धैर्य धरेदात्मनि' (मुनि० ० अनुरक्तमना। 'धृतिः संयमे रतिः, सा विद्यते येषां ते ४) 'सौवर्ण्यमुद्वीक्ष्य च धैर्यमस्य दूरं गतो मेरुरहो नृपस्य' धृतिमन्तः।
(वीरो० ३/२) धुतिशालिन् (वि०) १. धैर्यशाली, धीर २. संतोषी, प्रसन्नचित्ता । धैर्यगुणः (पुं०) धैर्यगुण, धीरता, धीरभाव, स्थिरता, दृढ़ता। (जयो० ३/२५)
'स्मरः शरद्यस्ति जनेषु कोपी तपस्विनी' धैर्यगुणो व्यलोपी। धृतिस्तनावह (वि०) धृतिधारण, अनुराग धारण। (जयो० (वीरो० २१/१३) ६/७३)
धैर्यधनोपलोपी (वि०) धीरता रूपी धन का लोप करने वाला। धृत्वन् (पुं०) [धृ+ क्वनिप्] १. ब्रह्मा, सद्गुण। २. आकाश, 'धैर्य-धनस्योपलोपं करोतीति' (जयो० १५/२४) समुद्र। ३. चतुर व्यक्ति ।
धैर्ययुक्त (वि०) धीरता सम्पन्न। धृष्ट (वि०) [धृष्+क्त] निर्लज्ज, उच्छृखल, अविनीत, ढीठ। धैर्यशाली (वि०) शक्तिशाली।
(जयो० १३/१५) निजमङ्ग जमङ्ग जङ्गमं सहसोत्थापय धैर्यसम्पन्न (वि०) सामर्थ्य युक्त। धृष्ट! वर्मत। (जयो० १३/१५)
धैवतः (पुं०) [धीमत्+अण] संगीत के सरगम का एक स्वर। • प्रगल्प, दुःसाहसी, दुश्चरित्र।
(जयो० ११/४७) सात स्वरों में छटा स्वर।
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धैवत्यं
५२३
ध्यानकता
धैवत्यं (नपुं०) [धीवत्+ष्यब्] चतुराई, निपुणता। धोर (अक०) जल्दी जाना, दौड़ना, चलना। धोरणं (नपुं०) [धोर+ल्युट्] वाहन, सवारी, अश्वगति। धोरणी (स्त्री०) [धोरणि ङीप] अनवच्छिन्नश्रेणी, उद्भट
परम्परा। धोरित (वि०) क्षति पहुंचाना, प्रहार करना। धौत (भू०क०कृ०) [धाव्+क्त] धोया हुआ।
० साफ किया गया, क्षालित। (जयो० ६/३८) ० क्षालन। (जयो० १८/६६) ० चमकाया, स्वच्छ किया।
० उजला, स्वच्छ चमकीला। धौतुं (हेत्वर्थवृदन्त) धोने के लिए, साफ करने के लिए।
'धौतुमारंभतात्माख्यपटमेष महामनः' (समु० ९/२०) धौर्त्य (वि०) धूर्तभाव। (जयो० २३/२८) ध्मा (सक०) फूंक मारना, श्वास छोड़ना, धोंकना, उद्दीप्त करना।
० फेंकना, डालना, गिराना।
० फुलाना, भरना। ध्माकारः (पुं०) [ध्मा+कृ+अण्] लुहार, लोहाकार। ध्मात (भू०क०कृ०) [ध्मा+क्त] फुलाया हुआ, हवा भरा
हुआ। ध्यात (वि०) [ध्यै+क्त] विचार किया गया, सोचा गया। ध्याता (वि०) ध्यान करने वाला। (सम्य० ११४) ध्यातुं (हे०कृ०) ध्यान करने के लिए। रत्नत्रयमनासाद्य यः
साक्षात् ध्यातुमिच्छति' (सम्य० ११६) ध्यानं (नपुं०) [ध्यै ल्युट्] ० चिन्तन, मनन, एकाग्रता, विचार,
० अन्तर्ज्ञान, अन्तर्विवेक, अन्तदृष्टि। (सम्य० ११५) ० उपासना की पद्धति-० आत्मा के उपयोग में एकाग्रता होना निश्चलपना आ जाना-ऐकाग्रयमात्म- प्रकृतोपयोगे, ध्यानं तदेवानुवदन्ति सन्तः' (समु०८/३४) ०चित्तविक्षेप त्याग। ० स्थिर अध्यवसान। ० प्रशस्त प्रणिधान। ० चित्त की एकाग्रता होना। (सम्य० ११६) ० योग विरोधा ० शुद्धात्मस्वरूप की अविचल चैतन्य वृत्ति। ० शुद्धोपयोग रूप पणिमन। (सम्य० ११६) ० शुद्धोपयोग में शुक्ल का पर्यायवाची शुद्ध शब्द है और ।
उपयोग शब्द विचार का/ध्यान का पर्यायवाची यानी
शुद्धोपयोग/शुक्लध्यान। ध्यान-करणं (नपुं०) चिन्तन, मनन का कारण। (जयो०वृ०
१/२२) ध्यानकेन्द्र (नपुं०) ध्यान का लक्ष्य। ध्यानकृत् (वि०) ध्यान करने वाला। ध्यानगत (वि०) ध्यान में तत्पर, एकाग्रता युक्त। ध्यानगृहं (नपुं०) ध्यान स्थान, चिन्तन का निलय। ध्यानचक्रं (नपुं०) चिन्तन परिकर। ध्यानतत्पर (वि०) ध्यान में अग्रसर। (दयो० २४) ध्यानतत्त्वं (नपुं०) चिन्तन करने योग्य पदार्थ। ध्यानद्रव्यं (नपुं०) मनन करने योग्य द्रव्य। ध्याननिधिः (स्त्री०) चिन्तन कोष। (मुनि० २१) ध्याननिष्ठ (वि०) चिन्तनशील। मनन में तत्पर। ध्यानपात्रं (नपुं०) एकाग्रता का पात्र। ध्यानफलं (नपुं०) विषयभूत तत्त्व का बोध।
ध्यानं नामफलं यदीय सुरते: श्रीशान्तिलाभो भवेदात्माधीन-जनस्य मानसरुचिः संभाति यत्संस्तवे। स्वाध्यायं भुवि बीजमस्य चिनुयाच्छेयार्थि एतावता। स्पष्टोक्तिः समुदेति। सर्वसुखदासौ श्रीमतामहताम्।। (मुनि०
२७) ध्यानभावना (स्त्री०) चिन्तन की स्थिति। (सम्य० ११६) ध्यानमुद्रा (स्त्री०) पद्मासन की स्थिति। (जयो० १९/१२८) ध्यानयुक्त (वि०) ध्यान में तत्पर। ध्यानयोगः (पुं०) मन, वचन और काय की एकाग्रता। ध्यानलक्षणं (नपुं०) ध्यान स्वरूप। ध्यानवप्रः (पुं०) ध्यान परिधि, ध्यान की सीमा। ध्यानसंचेतना (स्त्री०) बोध परक दृष्टि। ध्यानसिद्धिः (स्त्री०) ०ध्यान की सिद्धि, ० एकाग्रता की
प्राप्ति। ध्यान की उपलब्धि, चिन्तन की प्राप्तिा (सम्यक
११६) ध्यानाख्या (पुं०) ध्यान स्वरूप। (मुनि० २१) ध्यानारुढ (वि०) चिन्तन में लगा हुआ, एकाग्रता युक्त।
(सुद० १३३) ध्यानारूढममुं दृष्टवा व्यन्तरी महिषीचरी।
(सुद० १८३) ध्यानेच्छा (स्त्री०) ध्यान भावना। ध्यानकता (वि०) ध्यान में निमग्न। नासा दृष्टिरथ प्रलम्बितकरो
ध्यानक तानत्वतः। (सुद० ९८)
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ध्यास
५२४
ध्वनिः
० ध्यानमुद्रा में स्थिति।
शितशोणोज्ज्वललोलतां स्युः। (जयो० १३/२९) 'ध्वजे ० पद्मासनी भूत। (जयो० १९/२८)
निःशाणाख्ये' (जयो०वृ० १३/२९) ध्याम (वि०) [ध्यै+मक्] कालिमा, मैला, मलिन। (सुद० • लक्षण, प्रतीक, भूषण। २/४४)
ध्वजचिह्न (नपुं०) प्रतीक, ध्वज में वृषभादि लक्षण। ध्याम (नपुं०) घास विशेष।
ध्वजदण्डं (नपुं०) केतन दण्ड। (जयो० १३/२१) ध्यामन् (पुं०) [ध्यै मनिन्] १. माप, २. प्रकाश।
ध्वजपटः (पुं०) झण्डा, केतनाञ्चल, झण्डा, ध्वजा, पताका। ध्यामलता (स्त्री०) कालिमा की वल्ली। (सुद० २/४४)
(जयो० ७/१०९) ध्येय (वि०) ध्यान करने योग्य।
ध्वजपटं (नपुं०) ध्वजानां पटैर्वस्त्रैर्वीजयन्ति, ०ध्वजा, पताका, ध्यै (अक०) सोचना, चिन्तन करना, विचार करना, मनन केतनाञ्चल। करना।
ध्वजप्रान्तः (पुं०) केतनाञ्चल। ध्रुव (वि०) स्थिर, दृढ़, अचल, शाश्वत, नित्य, स्थायी, ध्वजपल्लवः (पुं०) केतु। (जयो० ३/१२) अटल, सदैव रहने वाला। (जयो०८/८५)
ध्वजपंक्तिः (स्त्री०) ध्वजतति। (जयो० ३/११२) ० वस्तु का स्थायी गुण।
ध्वजप्रहरणं (नपुं०) पवन, वायु, हवा। ० वस्तु का नित्यत्व।
ध्वजयन्त्रं (नपुं०) ध्वजनीति, झण्डा फहराने की युक्ति। ० धारणाशील।
ध्वजयष्टिः (स्त्री०) ध्वजदण्ड। निश्चित
ध्वजवस्त्रं (नपुं०) केतनाञ्चन, झण्डे का वस्त्र, ध्वजपट। ० ध्रुव तारा, नक्षत्र विशेष।
(वीरो०६/२५) ० समय, काल, युग।
ध्वजवस्वपल्लः (पुं०) ध्वजप्रान्त भाग, केतनाञ्चल। (जयो० ध्रुवं (नपुं०) आकाश, अन्तरिक्ष।
१६/७) ध्वजस्य वस्त्रपल्लः ध्रुवं (अव्य०) अवश्य, निश्चित रूप में।
ध्वजा (स्त्री०) पताका, केतन, झण्डा। (वीरो० २/३५) (सम्य ध्रुवकः (पुं०) [ध्रुव+कन्] टेक, गति, गेय पद का गुण।
७९) ध्रुवत्व (वि०) नित्यत्व। (जयो० २३/८४)
ध्वजांशुकः (पुं०) केतनचीवर, ध्वज का वस्त्र, ध्वजपट। धौव्यं (नपुं०) [ध्रुव+ष्यञ्] स्थिरता, दृढ़ता, निश्चय, नित्य, (जयो० २४/३९) परिस्फुरद्भिर्विशदैर्ध्वजांशकैरिवातिशाश्वत।
मात्रोन्नतिमन्नितम्बिनि! (जयो० २४/३९) ० वस्तु का तत्पना बना रहना।
ध्वजाली (स्त्री०) पताकातति। (जयो० ३/८२) केतनपंक्ति, ० द्रव्य की स्थिरता 'ध्रुवे स्थैर्यकर्मणो ध्रुवतीति ध्रुवः' केतन समूह, ध्वज समुदाय। 'ध्रुवस्य भावः कर्म वा ध्रौव्यम्'
ध्वजिन् (वि०) [ध्वज+इनि] चिह्नधारी, झण्डा ले जाने ० ध्रुवति स्थिरीसंपद्यते यः स ध्रुवः तस्य भावः कर्म वा वाला। ध्रौव्यम्' (त०१० ५/३०)
ध्वजिनी (स्त्री०) सेना। (जयो० १३/३७) 'गगनाङ्गणमाशु ध्वस् (अक०) नीचे गिरना, ०टुकड़े होना, चूर चूर होना, चञ्चलैर्ध्वजिनी' (जयो० १३/३७)
नष्ट होना, विनष्ट होना, डूबना, मिटना, ०ग्रस्त | ध्वजीकरणं (नपुं०) १. झण्डारोहण ०पताका फहराना, झण्डा होना।
चढ़ाना। २. अपना पक्ष प्रस्तुत करना। ध्वंसः (पुं०) [ध्वंस्+घञ्] गिरना, नष्ट होना, समाप्त ध्वन् (अक०) गुनगुनाना, शब्द करना, गरजना, दहाड़ना, होना, घात, विघात, विनाश, ०क्षति, ०हानि।
चिल्लाना, भिनभिनाना, प्रतिध्वनि करना। ध्वंसन (नपुं०) क्षति, हानि, नाश, घात, समाप्त, क्षय। ध्वनः (पुं०) [ध्वन्+अप्] १. शब्द, स्वर। २. भिन-भिनाना, ध्वंसिः (स्त्री०) [ध्वंस्+इन] क्षति, हानि।
गुनगुनाना। ध्वजः (पुं०) [ध्वज्+अच्] पताका, झण्डा, वैजयन्ती, केतन, | ध्वननं (नपुं०) ध्वनि, शब्द, शब्दशक्ति, वाक्य विचार।
• निशान, ध्वजदण्ड। द्विषतां हि मनांसि तद्ध्वजे | ध्वनिः (स्त्री०) [ध्वन्+इ] शब्द, प्रतिध्वनि, गूंज, गुंजार,
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ध्वनिकेन्द्र
५२५
नक्तमालः
चीख। लय, ताल, तान, वाद्ययन्त्र की शब्दशक्ति। ० तर्क पुष्टि में 'न'। प्राप्तमेतदनुयातु नात्र कः पैत्रिकासुतरल-तरवीचिप्रोज्जजृम्भे किलेति ध्वनिरपि च तदुत्थः ङ्गलियुगेव बालकः। (जयो० २७) स्मेत्युदारो निरेति। (जयो० २०/३१)
प्रमाण पुष्टि में 'न'। आत्रिकेष्टिनिरता पुनर्नवानान्नतो ध्वनिकेन्द्रं (नपुं०) शब्द निस्तारण स्थान।
हि परिपेषणं गवाम्। ध्वनिगत (वि०) शब्द को प्राप्त।
० अन्य की स्थापना। शल्यवद्रुजति यद्विरोधितानाम्बुधौ ध्वनिग्रहं (पुं०) कर्ण, कान, श्रवण केन्द्र, श्रवणेन्द्रिय, कर्णेन्द्रिय। मकरतोऽरिता हिता। (जयो० २/७०) ध्वनित (वि०) [भू०क०कृ०] [ध्वन्+क्त] संकेतित, गुंजित। ० अपेक्षात्मक दृष्टि में 'न'। तर्यादिभमावपि नेदगिष्टिः ध्वविविकारः (पुं०) शब्द विकार।
'यतस्ततश्चादिपदेऽपि विष्टिः' (सम्य० पृ० ११०) 'न ध्वस्तिः (वि०) क्षय, नाश।
जंगमायाति सुवर्णखण्डः पते पतित्त्वापि च लोहदण्डः' ध्वांक्षः (पुं०) काव, कौआ।
(सम्य०६१) ध्वांत (नपुं०) नष्ट, नाश, १. अन्धकार (जयो० १८/७८, • हर्षात्मक पक्ष में 'न'। न तुममायं कुविधामनुष्यादेकेति वीरो० १४/१९)
बुद्ध्या सुतमत्र पुष्यात्' (सम्य०६८) ० अपकर्ष भाव में 'न'। न्यायोचिते भोगपदेऽपकर्षः, सन्तोष
एवास्य वृक्षा न तर्षः।
नकर (वि०) कर नहीं देने वाला। नः (पुं०) तवर्ग का अन्तिम वर्ण, इसका उच्चारण स्थान दंत नकलङ्गहीन (वि०) उच्चकुल वाला नहीं। (जयो० ५/८७)
न किं स्वयं (अव्य०) स्वयं भी नहीं कहता। (सुद० ७७) न (पुं०) १. उपमा, २. रत्न, ३. स्वर्ण, ४. युद्ध, ५. बन्ध, ६. नकुटं (नपुं०) नाक, नासिका। मोती, ७. धन।
नकुलः (पुं०) [नास्ति कुलं यस्य] १. नेवला, आखेट करने नः (सर्व०) हमारा, अपना। 'नोऽस्माकं चिद्विचारो वर्तते' वाला नकुल। (वीरो० १४/६१) २. पाण्डुपुत्र नकुल। (जयो० ५/१०४) (सुद०)
(जयो०वृ० १/१८) 'यस्य च कुलस्य वंशस्य वाच्यता न (वि०) [न+मश्+ड] पतला, क्रश, क्षीण, रिक्त।
निन्दा न बभूव।' (जयोवृ० १/१८) न (अव्य०) निषेधवाचक अव्यय, अभाव, रहित, नहीं। (जयो० नकेलः (पुं०) नाक में डाली जाने वाली रस्सी। नकलावलि
१/४) 'नाति क्लिष्टा एते श्लोकाः, अतो न व्याख्याताः' (जयो०वृ० १३/७३) (जयो० २०/५२)
न कोऽपि (अव्य०) कोई भी नहीं। (वीरो० ११/२) ०भिन्न भिन्न वाक्यों में निषेध के लिए न की पुनरावृत्ति। नक्कारः (पुं०) ढक्का, एक सूचक वाद्य, जो किसी घोषणा इत: कलत्राणि न बालकानि मुखानि येषां तु नवालकानित। के लिए बजाया जाता। (जयो०० २२/६१) 'ढक्का (जयो० १५/८५) नो हृदैव न दृशैव विलोकैः किन्तु नक्कार इति नाम वाद्यं तस्याः शोभना' (जयोवृ० २२/६१) पुर्णवपुषैव हि लोकैः' (जयो० ५/६८)
नक्तं (अव्य०) रात्रि के समय। (जयो० ३/३) ० अभाव-विद्याऽनवद्याऽऽप न वालसत्वं संप्राप्य वर्षेषु नक्तं (नपुं०) [न+क्त] रजनी, रात्रि। चतुर्दशत्वम्' (जयो० १/६)
नक्तकः (पुं०) मलिन मैला। (वीरो० १/२१) ० वस्तु की पुष्टि के लिए-'व्यर्थं च नार्थाय समर्थनं तु' नक्तंकमलं (नपुं०) कैरव। (जयोवृ० १५/५०) (जयो० १/१७)
नक्तञ्चर (वि०) रात्रि में विचर करने वाला। ० अत्यधिक प्रशस्त गुणों की अभिव्यक्ति के लिए। 'न' नक्तञ्चर्या (स्त्री०) रात्रि में घूमना। युधिष्ठिरो भीम इतीह मान्यः शुभैर्गुणैरर्जुन इव नान्यः। नक्तंचारिन् (पुं०) उल्लू, विलाव, चोर, राक्षस, प्रेत, भूत। (जयो० १/१८)
नक्तंदिवं (अव्य०) अहिर्निश, रात-दिन। (जयो० २३/६१) ० कामनार्थक योग में 'न' का प्रयोग। दिगम्बरत्वं न च नक्तंभोजनं (नपुं०) रात्रि का भोजन। नोपवासश्चिन्तापि चित्ते न कदाप्पुवासः' (जयो० १/२२) | नक्तंमालः (पुं०) एक वृक्ष विशेष।
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नक्तंमुखा
५२६
नगमूर्धन्
नक्तंमुखा (स्त्री०) सन्ध्या, सायंकालर। नक्तंवतं (नपुं०) दिन का व्रत, रात्रि धार्मिक व्रत। नक्तं संगमः (पुं०) रात्रि समुद्गम। (जयो० २०/२४) नक्रं (नपुं०) नाक, नासिका। (सुद० १/२४) नक्रः (पुं०) मकर, मगर। (जयो० ६/८२, जयो० १६/२१) नक्रलावलि (स्त्री०) नकला (जयो० १३/७३) नक्रसंकोचः (पुं०) नाक सिकोड़ना, नासिका रुचित। (जयो०
१६/९) नक्रा (स्त्री०) नासिका, नाक। नक्षत्रं (नपुं०) [नक्ष+अत्रन्] तारा, तारक पुंज, तारावली।
(जयो० ४/५४) (सुद० ५/२) चन्द्रपथ। नक्षत्र (वि०) क्षत्रियत्व विहीन। (दयो० ४) नक्षत्रकमालिका (स्त्री०) मौक्तिमाला। (जयो० १०/४८) नक्षत्रनाथः (पुं०) चन्द्र, शशि। रजनीकर। नक्षत्रपः (पुं०) चन्द्र (जयो० २२/३३) नक्षत्रपतिः (पुं०) चन्द्र, शशि, रजनीकार। नक्षत्रमासः (पुं०) परिवर्तित मास। नक्षत्रराजः (पुं०) चन्द्रमा। नक्षत्ररीति (स्त्री०) तारक पद्धति। (जयो० १८/५०) नक्षत्रवर्मन् (पुं०) आकाश, नभ, गगन। नक्षत्रशून्य (वि०) नक्षत्ररहित। (समु० ६/४०) नक्षत्रविद्या (स्त्री०) गणित विद्या, ज्योतिष विद्या। नक्षत्रवृष्टिः (स्त्री०) तारापतन, नक्षत्र का टूटना। नक्षत्रसंवत्सरः (पुं०) बारह नक्षत्र मास। नक्षत्रसूचकः (पुं०) ताराओं का दर्शक। नक्षत्रिन् (पुं०) [नक्षत्र+इनि] चन्द्रमा। नक्षत्रौथः (पुं०) नक्षत्र समूह। नखः (पुं०) नाखून, पंजा, नखर. कराग्र। (जयो० ६/६०) नखं (नपुं०) नख, नाखून। नखः (पुं०) अंग, भाग, हिस्सा। न ख-निष्प्रभ। (जयो० ३/४५) नखकुट्टः (पुं०) नापित, नाई। नखचुष्टिका (स्त्री०) नख की चिऊँटी, नकोचना। (जयो०
२०/६६) नखजाहं (नपुं०) नाखून की जड़। नखदारणः (पुं०) नाखून काटने की कैंची, नेलकटर। नखनिकृन्तनं (नपुं०) नहरना, नेलकटर। नखपदं (नपुं०) नखचिह्न, खरौंच। नखमुचः (पुं०) धनुष।
नखर: (पुं०) [नख+टा-क] नाखून। (जयो० २४/९१) नखरं (नपुं०) नाखून। नखलत्व (वि०) १. नाखूनपना, २. अशठतापन। (जयो० १/५६) नखलाभिधानः (नपुं०) १. दुर्जन नहीं। खलो न भवतीत्यभिधावान्
२. नरपर्याय। (जयो० ११/१४) ०सज्जन, सभ्य,
०सदाचरण युक्त। नखलेखा (स्त्री०) नखचिह्न। नखविष्किरः (पुं०) शिकारी पक्षी। नखशङ्खः (पुं०) छोटा शंख। नखसंस्कारः (पुं०) नख रंगना! रखाङ्कः (पुं०) खरौंच, नखचिह्न। नखांश (स्त्री०) नख प्रभा। नखाना नखोद्भूतरश्मीनां (जयो०
११/१९) नखाघातः (पुं०) खरौंच, नख लगने का घाव। नखानरिव (स्त्री०) नखों से होने वाली लड़ाई। नखायुधः (पुं०) व्याघ्र, सिंह, कुक्कुट। नखारि (स्त्री०) नखाली, करज तति। (जयो० १७/५४) नखाशिन् (पुं०) उल्लू। नखाहत (वि०) नखों से आहत। नखिन् (वि०) नाखूनों वाला। नगः (पुं०) [न गच्छति न+गम्-ड] पर्वत, गिरि, पहाड़। देव
(जयो० १/१०) (भक्ति०७) ० गकार अभाव। (जयो०वृ० १/४८) ० तरु, वृक्ष। नगत्वं गकारा भावत्वम् अथवा नगत्वं पर्वतत्त्वमेव तत्त्व जगौ। गकार पठनानन्तरमेव पकारस्य पाठात् तस्य नगत्वं बदतः (जयो०वृ० १/४८) ० पादप। ० सूर्य। ० सर्प। ० नगीना। आभूषणों में जटित रत्नादि।
० पुरुषश्रेष्ठ (सुद० ८५) नगज (वि०) पर्वत पर उत्पन्न, पहाड़ी, पर्वतीय। नगजः (पुं०) हस्ति, हाथी। नगजा (स्त्री०) पार्वती, गौरी, पर्वती की पुत्री। नगणं (नपुं०) काव्य में प्रयुक्त एक गण। नगणनीयता (वि०) अगणित। नगनन्दिनी (स्त्री०) पर्वत, सुता, गौरी, पार्वती। नगपतिः (पुं०) हिमालय पर्वत। नगमूर्धन् (पुं०) शिखर, पर्वत का उन्नत भाग, गिरिशृंखला।
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नगरं
नडिनी
नगरं (नपुं०) [नग इव प्रासादाः सन्त्यत्र] चतुर्गोपुरान्वितं
नगरम्। शहर, पुर। (समु० २/३१) नगरकेंद्रः (नपुं०) नगर का भाग। नगरगत (वि०) नगर को प्राप्त हुआ। नगरघातः (पुं०) हस्ति, हाथी। नगरजनः (पुं०) पुरजन, शहरी व्यक्ति। नगरनिवासी (वि०) नगर में रहने वाले। (दयो०६४) नगरपथं (नपुं०) राजमार्ग। नगरपरिधि (स्त्री०) नगर की सीमा। नगरप्रांतः (पुं०) नगर का उपप्रान्त। नगरमार्गः (पुं०) नगरपथ, राजपथ। नगररक्षा (स्त्री०) पुर सुरक्षा। नगरस्थ (वि०) नगरीय नागरिक, नगर में रहने वाला, नगरवासी। नगरस्थापित (वि०) नगर में नियुक्त किया गया। नगरस्थापितमन्त्रि (पुं०) नगर में नियुक्त मन्त्री। (जयो०
२१/७२) नगराजः (पुं०) मेरु पर्वत। नगरी (स्त्रो०) [नगर-ङीप्] पुरी, नगरी, शहर।
विशालापि सुशाला सा नगरी सगरीत्यभूत्।
वसुधा महिता तावद्युक्ता नवसुधान्वयैः।। (जयो० ३/७९) नगरीकाकः (पुं०) सारस। नगरीगत (वि०) पुरगत, नगर को प्राप्त हुआ। नगरीप्रघाणवः (पुं०) नगरी की देहली। 'नगरी सर्वदा
निवासयोग्यत्वात् तस्या प्रद्याकावद् देहलीमिव' (जयो०
२१/६०) नगरीभूखण्डं (नपुं०) नगर की भूमि। नगरीमध्यं (नपुं०) नगर के बीच। नगरीय (वि०) नगर संबंधी। नगरीयोद्यानं (नपुं०) नगर सम्बंधी आराम गृह, नगर के बगीचे। नगी (स्त्री०) स्थली, स्थल सम्बंधी। (जयो०१० ५/५५) नगोकस् (पुं०) १. विजयार्ध पर्वत निवासी, २. वृक्ष निवासी।
नागरिक। (जयो० ६/८) नगेन्दः (पुं०) नगराज पर्वत, सुमेरु पर्वत। नग्न, (वि०) [नज्+क्त] अचेलक १. नंगा, निर्वस्त्र, २. निर्ग्रन्थ ___ साधु। (दयो० २४) 'यः सर्वसङ्ग संत्यक्तः स नग्नः'
दिगम्बरमुनि। नग्नक (वि०) [नग्न कन्] निर्लज्ज, लज्जाहीन। नग्नकः (पुं०) दिगम्बर मुनि, निर्ग्रन्थ।
नग्नका (स्त्री०) निर्लज्ज स्त्री, लज्जाविहीन नारी। नग्नता (वि०) निर्ग्रन्थपना। (सुद० ९९) नग्नत्व (वि०) अचेलकत्व प्राप्त। (सभ्य० ७०) नग्नभावः (पुं०) दिगम्बर भाव। (सुद० १२३) नचिकेतस् (पुं०) अग्नि, आग। नचिर (वि०) [न चिरम्] अचिर, थोड़े समय का। नच् (सक०) सघन करना। न चेत् (अव्य०) नहीं। मधुरेण समं तेन सङ्गमात्कौतुकं न
चेत्। (सुद०८६) नञ् (अव्य०) निषेधात्मक अव्यय, 'न' का लाक्षाणिक शब्द,
नञ् समास रूप शब्द। नट् (अक०) नाचना, अभिनय करना, हाव-भाव व्यक्त करना। नटः (पुं०) [नट्+अच्] १. नर्तक, नाचने वाला अभिनेता। २.
अशोक वृक्षा
० कुशीलता। (जयो० २/१११) नटचर्या (स्त्री०) अभिनय, हाव-भाव व्यक्तिकरण। नटत (वि०) नृत्य करने वाला (जयो० २५/१५) नटदप्सरोभर (वि०) नृत्यकारिणी समूह। (जयो० २६/५५)
नटन्तीमामप्सरसां या भरो। नटनं (नपुं०) [नट्+ ल्युट्] नाच, नृत्य, नाचना, अभिनय __ करना, अनुकरण करना। (जयो० ५/५०) नटभूषणः (पुं०) हरताल। नटमण्डनं (नपुं०) हरताल। नटरंगः (पुं०) रंगमंच, नृत्यस्थान। नटवत् (वि०) नट की तरह, नृत्यकारक। (जयो० २६) नटवरः (पुं०) प्रमुख नट, अभिनेता। नटशाला (स्त्री०) नृत्यशाला। नटसजकः (पुं०) अभिनेता, नायक। नटसजकं (नपुं०) हरताल। नटायु (अक०) व्यवहार करना। (वीरो० १८/३४) नटी (पुं०) [नट ङीष] १. अभिनेत्री, नर्तकी, नायिका। २.
रण्डी, वेश्या। नटीसुता (स्त्री०) नर्तकी की पुत्री। नट्या (स्त्री०) [नट्+य+टाप्] अभिनेता समूह। नडः (पुं०) [नल्+अच्] मनुष्य का एक प्रकार। नडश (वि०) [नड+श] सरकण्डों से आच्छादित। नडिनी (स्त्री०) [नडइनि+ ङीष्] सरकण्डों का समूह, मूढा,
शय्या।
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नत
५२८
ननदृ
नत (भू०क०कृ०) [नम्+क्त] प्रणत, नम्रोभूत, झुका हुआ,
नतमस्तक। (सम्य० ९५) ० अवसन्ना ० उन्नत। (जयो०वृ० १/५) ० विनत, विनय। (जयो० ३/२०)
० कुटिल, वक्र, टेढ़ा। नतकर (वि०) नम्रीभूत। नतगतः (वि०) विनयगत। नतदृक् (वि०) नीची दृष्टि, लज्जायुक्त नेत्र। नतदृशा (वि०) झुका हुआ मुख। अहह पाश्वमिते दयिते द्रुतं
नतदृशाऽवनिकूर्चनतोऽद्भूतम्। वदति यद्यपि भावि वधूजनो
न तु मनः प्रतिबुद्धयति कामिन:। (जयो० २/१५६) नतनासिक (वि०) चपटी नाक वाला। नतभूः (स्त्री०) झुकी हुई भौं वाली स्त्री। (वीरो० ९/३६)
नतभ्रुवो भोग भुजाऽभिभूतः। (जयो० ११/१०) नते ध्रुवौ
यस्यास्तस्याः सुलोचनाया (जयो० १४/६०) नतवर्गः (पुं०) १. विनयशील, २. अमात्यवर्ग। 'नतानां अमात्यादीनां
वर्गः समूहस्तेन मण्डिते सेविते' (जयो०१० ३/२०) तवर्गण
युक्तो न भवतीति नतवर्गमण्डितः। (जयो०व० ३/२०) नतिः (स्त्री०) [नम्+क्तिन्] लज्जा, नम्रना, विनय, झुकना।
(जयो० १/५) • वक्रता, कुटिलता, टेढ़ापन।
० प्रणति, शालीनता, अभिवादन की शालीनता। नतिज्ञ (वि०) विनयज्ञ, विनय करने वाला। सर्वत्र देवागमगुर्वभिज्ञः
सदैव भूत्वा गुणतो नतिज्ञः। (सम्य० ९२) नतिपूर्वकं (नपुं०) नमस्कार पूर्वक, नम्रता युक्त। भवाम्बुद्यौ
पोत इवोत्तम! प्रभो, निवेदनं मे नतिपूर्वकं च भोः। (समु०
४/२०) नतिशील (वि०) नम्र, विनयवान्। (जयो०वृ० १/५) न तु (अव्य०) तो भी नहीं। न तु पुनः (अव्य०) फिर भी नहीं। न तु पुनरेकान्ततया
वस्तुमेणाक्षीणां मनस्युदारे' (सुद०८८) नतोन्नत (वि०) [नतश्चोन्नश्च] ऊँच-नीच। (जयो० १४/२६) नद् (अक०) ० बोलना, कहना, निनाद होना। (वीरो० ७/२)
० शब्द करना। कलकल करना। ० चिल्लाना। • गूंजना,
पुकारना। ० दहाड़ना, गर्जना करना। नदः (पुं०) [नद्+अच्] नदी, सरिता, दरिया, प्रवहणी, नाला।
(जयो० १३/९५) समुद्रा
नदथुः (स्त्री०) [नद्+अथुच] गर्जना, कोलाहल, शोरगुल। नदी (स्त्री०) [नद्। ङीप्] सरिता, निम्नगा, आपगा, प्रवहणी,
कल्लोलिनी (दयो० २३) (जयो० ४/५५) नदीकान्तः (पुं०) समुद्र, सागर, उदधि। नदीकुलप्रियः (पुं०) मनुष्य जाति का एक भेद। नदीज (वि०) जलोत्पन्न। नदीणं (नपुं०) कमल, पद्म। नदीतरस्थानं (नपुं०) घाट, तट, पुलिन। नदीतीरः (पुं०) पुलिन, तट-भाग, नदी का किनारा। (जयो०१०
१३/६३) नदीदोहः (पुं०) भाड़ा, माल ढुलाई, किराया। नदीधरः (पुं०) शिव। नदीन: (पुं०) समुद्र, उदधि, सागर। 'जडाशयत्वातिगतो नदीनः'
(समु०६/४०) 'नदीनस्य समुद्रस्य सम्पत्तिरतश्च' (जयो०
१४/८३) नदीनभावः (पुं०) [न दीनो भावः यस्य] औदार्यगुण, उदारचरित्र।
(वीरो० २/३७) 'नदीनस्य भावेन शोभन्ते' (वीरो० २/३७)
० समुद्रभाव, ० गम्भीर भाव। नदीपः (पुं०) समुद्र। नदीपरूपः (पुं०) दीपाभाव। (जयो० १५/२१) ० नदीप रूप,
नदीपति, समुद्र। 'नदीपस्य समुद्रस्य रूपेऽवगाहे बुडन्त्येव
तावत्' (जयो०वृ० १५/२१) नदीपुलिनः (पुं०) नदीतट। 'नद्याः पुलिनयोः पार्श्वभागयोः'
(जयो०वृ० १३/५६) नदी-पुलिनदेशः (पुं०) नदीतट। नदी के किनारे। (जयो०
२२/७१) नदीनां पुलिनदेशेषु सारसयो : केलिरपि प्रसारिता
(जयो०१० १२/७१) नदीपुरः (पुं०) प्रवाहमान सरिता, पूर/उफनती हुई नदी। नदीभवं (नपुं०) समुद्री नमक। नदीमातृक (वि०) सिंचित क्षेत्र। नदीरयः (पुं०) सरिता प्रवाह। नदीवंकः (पुं०) नदी का टेढ़ापन। नदीष्ण (वि०) नदी के प्रवाह में जाने वाला। नद्ध (भू०क०कृ०) [नह क्त] बद्ध, चारों ओर से घिरा हुआ,
बांधा हुआ, जकड़ा हुआ, संयोजित, संसक्त, आवृत्त। नद्धं (नपुं०) ग्रन्थि, गांठ, बन्धन। नधी (स्त्री०) [नह+ष्ट्रन्+ ङीप्] चमड़े का फीता। ननद (ननांदृ स्त्री०) [ननन्दति सेवयापि न तुष्यति, न+नन्दु ऋन्]
पति की भगिनी, बहिन।
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५२९
नन्दा
पप
ननु (अव्य०) ० प्रश्नसूचक अव्यय।
० मेंढक। ० निश्चयात्मक।
० विष्णु, शिव। ० अवश्य ही, निःसन्देह, क्या!
नन्दनं (नपुं०) नन्दनवन, इन्द्र उद्यान, स्वर्गवन। (जयो० ० संबोधन सूचक अव्यय।
१/३६) 'हत्वाम्बरं नन्दनमेति चारमहो जरायां तु कुतो ० तर्कशैली में प्रयुक्त होने वाला अव्यय। ननु तर्कणायाम् विचारः' (जयो० १/३६) 'नन्दनं स्वर्गवन तनयं च' (जयो० ५/६९)
(जयो०वृ० १/३६) बहुकल्पपादपैरपि रम्यं सुमन: समूहतो • आक्षेप या विरोधी प्रस्ताव को प्रस्तुत करने वाला भुवि गम्यम्। नन्दनं वनमिवातिमनोज्ञं पुण्यपुरुषैर्वभूव भोग्यम्।। अव्यय। हीति निश्चये, ननु वितर्के' (जयो०वृ० २५/५४) (जयो० १४/५) 'यद् वनं नन्दनं स्वर्गीयवनमिव' भुवि ननु सहस्व गुणिन् सहसा स्वयं किमु विलक्षतया धरायां बभूव' (जयो० १४/५) व्रजताज्जयम्। ननु पुराकृतमेतदुदीरितं, नहिं परन्तु कदापि ० नन्दनकूट। लभे हितम्।। (जयो० २५/५) 'सत्तनुर्ननु परं जनमञ्चेत् ० अभिनन्दन, चतुर्थ तीर्थंकर का नाम। (जयो० ४/२८)
नन्दनकलोक्तिः (स्त्री०) आनन्दप्रदकलाकथन। (जयो० ० ननु निर्धारणे। (जयो० १३/४८)
१२/१४७) ० ननु प्रश्नेऽवधारणे इति विश्वलोचन: (जयो० १३/४८) नन्दकलोक्तिपः (पुं०) जिनेश्वर। 'आनन्दप्रदकलाकथनेशः स 'ननु भावोरपि निर्भयस्त्वयम्'
जिनदेवो' (जयो० १२/१४७) ० ननु चोक्त्यन्तरे (जयो० १/९७) परमिहोद्धरतो तपसोचितं । नन्दनगृहं (नपुं०) १. आरामघर, विश्राम गृह, २. आनन्द ननु जगत्तिलकेन विराजितम्। (जयो० ११/९७)
दायक घर। ० ननु नियमतः तु पादपूरणे (जयो० ४/१५) पद्धतिर्ननु | नन्दनचारुत्व (वि०) नन्दन वन की रमणीयता।
सुलोचनिके वाऽऽमोददा सफलकौतुक सेवा। (जयो० ४/१५) नन्दनतरु (पुं०) कल्पतरु, कल्पवृक्ष। नन्द् (अक०) शब्द करना। (जयो० १/३८)
नन्दन दायक (वि०) आनन्द दायक। नन्दः (पुं०) [नन्द+अच्] आनन्द, सुख, हर्ष, प्रसन्नता। नन्दन-पादपः (पुं०) नन्दन तरु, नन्दन वन का वृक्ष, कल्पतरु। (सुद० ३/१४)
नन्दनप्रभृति (स्त्री०) नन्दनवनादि। ० एक गोप का नाम। (दयो० ५८)
नन्दन-फलं (वि०) आनन्द का परिणाम, शुभ फल, अच्छा ० मेंढक।
__परिणाम। ० पुष्पकलदेश के छत्रपुरी का अभिनंदन राजा, उसकी नन्दन-श्री (स्त्री०) नन्दनवन की शोभा। रानी वीरमति का पुत्र (वीरो० ११/३५)
नन्दन-वनं (नपुं०) स्वर्गवन, इन्द्रवन। नन्दक (वि०) [नन्द्+णिच्+ण्वुल्] आनन्दक, प्रसन्नता युक्त, नन्दनवती (वि०) एक वापिका। हर्ष मनाने वाला।
नन्दतः (पुं०) नन्द्+णिच्+झच्] सुत, पुत्र, बेटा। नन्दकः (पुं०) मेंढक।
नन्दनसम्पदा (स्त्री०) वन सम्पत्ति। (वीरो० ७/८) नन्दकिन् (पुं०) [नन्दक+इनि] विष्णु।
नन्दा (स्त्री०) [नन्द्+टाप्] एक रानी का नाम अभयकुमार नन्दगोपः (पुं०) नन्द नामक गोपाल।
की माता, राजा श्रेयांस की पत्नी। ० खुशी, हर्ष, आनन्द। नन्दगोप इव श्रीमान् यशोदा तव भामिनी।
० पक्ष की व्याख्या-अन्य दर्शन के पक्ष को उपस्थित कर अयञ्च कृष्णवद्भाति सुदामस्थानिनो मम।। (दयो० ५८) उसका निराकरण करते हुए अपने पक्ष की स्थापना करना नन्दथुः (स्त्री०) [नन्द्-अथुच्] आनन्द, खुशी, प्रसन्नता, हर्ष। या व्याख्या करना। नन्दन (वि०) [नन्द्+णिच् ल्युट्] मिलनमेतदभूत किल नन्दनं ० नन्दा नामक वापिका। नवें गणधर अचल की मातुश्री।
(जयो० ९/५१) आनन्दप्रद, सुहावना, प्रिय, दर्शनीय। कैलाशपुरी के राजा वसु की पत्नी। (वीरो० १४/१०) (जयो० १२/१४७) आनन्ददायक। (जयो० ९/५१)
० नन्दा नामक द्रह/तालाब। नन्दनः (पुं०) पुत्र। (सुद० ३/१४)
० ऋषभदेव की भार्या।
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नन्दावर्तः
५३०
नभः कल्प:
नन्दावर्तः (पुं०) १. नन्दावर्त नामक भवन (ति०प० ४/३५३) नन्दीश्वरद्वीप भक्तिः (स्त्री०) नन्दीश्वर द्वीप की अर्चना।
२. इन्द्रक विमान, एक क्षुद्र जन्तु (ष०खं० ५/५/६९) नन्दीश्वर-वारिनिधिः (पुं०) नन्दीश्वर समुद्र। (ति०प० ५/४६) नन्दिः (पुं०स्त्री०) [नन्द्+इनि] आनन्द, हर्ष, खुशी। मंगल, नन्दीषणः (पुं०) तृतीय नारायण। (ति०प० ४/१६१२) प्रमोद।
नन्दोत्तरः (पुं०) नन्दोत्तर नामक देव। • एक वाद्य विशेष।
नन्दोत्तरा (स्त्री०) नन्दोत्तरा नामक वापिका। ० नन्दि नामक देव। (ति०प०५/४६)
नपः (पुं०) एक कञ्चकी नाम। (जयो०वृ० १/५) ० जुआं खेलना।
नपात् (पुं०) [पाती इति-पा+शत-नतो ना समासे प्रकृतिभावः] ० वृषभ, बैल।
पोता। ० शिव का अनुचर।
नपुंस् (पुं०) नपुंसक, हिजड़ा। (सुद० ८४) नन्दिकः (पुं०) [नन्दि+कन्] हर्ष, प्रमोद आनन्द, शुभ, नपुंसकता (वि०) कामाशक्ति की क्षीणता। (वीरो० २२/३३) कल्याण।
नपुंसकस्वभावः (पुं०) भोगलिप्सा के अभाव से रहित, नन्दिघोषः (पुं०) नन्दिघोष नामक वापिका (ति०प० ५/६२) कामासक्ति क्षीण। नपुंसकस्वभावस्य स्वभाऽवश्यमियं न ० अर्जुनरथ।
किमु। (सुद० ८४) नन्दिन् (वि०) [नन्द्+णिनि] आनन्दित, हर्षित, रोमाञ्चित। नपुरस्सर (वि०) क्षत्रियत्व हीन। नकारपूर्वकं नक्षत्रमिति, नन्दिन् (पुं०) १. पुत्र, २. नाटक में नान्दीपाठ करने वाला। (जयो०१० ५/२७) नन्दिना (स्त्री०) घनोपल, ओला। 'नन्दि शिवप्रतीहारे । नप्त (पुं०) पोता, नाती। [न पतन्ति पितरो येन, न+पत्+तृच्]
द्यूतभाण्डभिदोर्मुदि' इति विश्वलोचनः (जयो० २४/२७) लड़के का पुत्र, लड़की का पुत्र। नन्दिनी (स्त्री०) १. सुरभि, गाय। २. पुत्री समुद्र की पुत्री नबालता (वि०) बाल्यावस्था से रहित। न विद्यते बालता
जड़धीश्वरनन्दिनी प्रसिद्धा कमलवासिनी वा या। (सुद० (जयो० ५/८८) ११२)
नभः (पुं०) [नभ्+अच्] श्रवण मास। नन्दिप्रभः (पुं०) नन्दिप्रभनामक देव। (ति०प० ५/४६) नभस् (नपुं०) [नह्यते मेधैः सह-नह+असुन्] गगन, आकाश, नन्दिमित्रः (नपुं०) नन्दिमित्र नामक सातवां वनदेव। (ति०प० खेभाग, अन्तरिक्षा (जयो०१/६८) 'प्रवर्तते किञ्च मर्तिमेयं ४/५२४)
नभस्यभूद् व्याप्तयाऽप्यमेयम्' (जयो० १/२३) ____० नन्दिमित्र नामक एक आचार्य। (अंगचूर्णि)
० नभ-आकाशद्रव्य (सम्य० १९) 'नभस्तु रङ्गस्थलम्' नन्दिवर्धनः (पुं०) १. एक आचार्य, २. शंख का एक (समु०८/२) धर्मोऽप्यधर्मः समयो नभश्च, स्यात् पञ्चम् भेद-जिस शंख की नाभि सुन्दर हो।
पुद्गल नामकश्चः' (समु०८/२) अस्या अनन्यरमणीयायाः नन्दी (स्त्री०) प्रथम नारायण। (ति०प० ४/१६११)
पदस्याग्रं प्रान्तभागं भया भान्त्या सहितं, यद्वा भैर्नक्षत्रैः ० नन्दी नामक एक श्रुतकेवली चौदह पूर्वज्ञाता। सहितं सभमिति, जनाः साधारणलोकाः सदा खं न भवतीति (ति०प०४/१४९४)
नखमाहुर्जगुः। कान्त्या व्याप्तया ख वर्जितमवकाशरहित० नन्दी नामक बलदेव। (ति०प० १/५२४)
मित्युक्तवन्तः, किन्तु न कोऽपि जनस्तत्रावकाशमाप्तवान्। नन्दीश्वरः (पुं०) नन्दीश्वर नामक अष्टम द्वीप।
'नभस्तु पुनर्भ-शून्यतया निष्प्रभतया च खमिति ख्यातिमाख्यां (ति०प० ५/५५, जयो० १०/११७) नन्दीश्वरं सम्प्रति श्रीपूज्यपादतो मुनिनायकाल्लेभे खमभावरूपं भाभावादेव देवदेव पिकाङ्गना चूतकसूतमेव' (जयो० १०/११२) वर्षेषु नभ आकाशमिति नाम लेभे किल। (जयो०वृ० ३/४५)
वर्षान्तरपर्वतेषु नन्दीश्वरे यानि च मन्दिरेषु' (भक्ति० ३४) ० नभ-कान्तिविहीन। (जयोवृ० ३/४५) नन्दीश्वर-जलधिः (पुं०) नन्दीश्वर समुद्र। (ति० ५/५२) ० नक्षत्र रहित। नन्दीश्वजिनमन्दिरं (नपुं०) नन्दीश्वर जिनालय। (ति०प०५/१०१) नभः कल्पः (पुं०) नभस्तल, नभभाग, आकाश स्थान। नन्दीश्वरद्वीपः (नपुं०) द्वीप विशेष। (ति०प० ५/५२)
(सुद० ७८) 'तत्र तल्पे नभ कल्पे घनाच्छादनमन्तरा' नन्दीश्वरपंक्ति (स्त्री०) नन्दीश्वर द्वीप की एक श्रृंखला। (सुद० ७८)
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नभश्कान्तिः
५३१
नमस्यनं
नभश्कान्ति: (स्त्री०) आकाश प्रभा। नभश्कान्तिन् (पुं०) सिंह, शेर। नभश्गजः (पुं०) मेघ, बादल। नभश्चक्षुस् (पुं०) दिनकर, रवि, सूर्य। नभश्चमस् (पुं०) शशि, चन्द्र। नभश्चर (वि०) गगन बिहारी आकाश में विचरण करने
वाला। नभोगाधिभुव (जयो०६/१०) नभश्चराध्वनि (स्त्री०) १. आकाशध्वनि। (वीरो० ७/२) २.
शंखध्वनि। नभश्चरः (पुं०) ज्योतिषी देव। नभश्चर-व्यन्तर-भावनानां
लसन्ति नित्यानि विमानजानाम्' (भक्ति० ३५) नभश्चरार्थ (वि०) नभचारी। नभश्चरी (स्त्री०) विद्याधरी। आदिमार्दवतो नभश्चरी, स्ववभातीव
गुणेन किन्नरी। (समु० २।८) नभश्तलं (नपुं०) आकाश भाग। नभश्दुहः (पुं०) मेघ, बादल। नभश्दृष्टिः (पुं०) १. अक्षि विहीन, अन्धा २. आकाश की
ओर देखने वाला। नभश्द्वीपः (पुं०) मेघ, बादल। नभश्धूमः (पुं०) मेघ, बादल। नभश्नदी (स्त्री०) नभ गंगा, आकाश गंगा। नभश्प्राणः (पुं०) वायु, पवन, हवा। नभश्मणिः (पुं०) सूर्य। नभश्मंडल (नपुं०) आकाश, गगन, अन्तरिक्ष। नभरजस् (पुं०) अन्धकार, अंधेरा, तमस्। नभश्रेणु (स्त्री०) धुंध, कोहरा। नभश्लया (स्त्री०) धूम, धुंध। नभश्लिह् (वि०) १. आकाश चाटने वाला, २. उन्नत, अति _ विस्तृत, ऊँचा। नभश्सद् (पुं०) ज्योतिषी देव। नभसरित् (स्त्री०) छायापथ, 'आकाशगंगा। नभस्थली (स्त्री०) आकाश, गगन। नभस्थानं (नपुं०) गगन चुम्बी, विशाल, ऊँची। नभस्यः (पुं०) [नभस्+यत्] भाद्रपद की महिमा। नभस्वत् (वि०) [नभस्+मतुप्] धुंधयुक्त, कोहरा जन्य। नभावुपः (पुं०) चातक पक्षी। नभाकः (पुं०) [नभ्+आक] १. अन्धकार, २. राहु। नभोगा (वि०) आकाशगामिनी। नभसि गच्छन्तीति नभोगा
आकाशगामिनी देवविद्याधराः (भक्ति० २५)
नभोगाधिभुव (वि०) नभश्चर, विद्याधर। (जयो० ६/१०) नभोगृहं (नपुं०) आकाशरूप घर। (वीरो० २५/८) नभोनिकायः (पुं०) नभस्वरूप, आकाश कक्ष। नभोयानं (नपुं०) नभ में गमन। नभोवाक (स्त्री०) आकाशवाणी। इदं प्रबुद्धाय समपणीयं स्वयं
नभोवाक् समुपालभीयम्। (सुद० ४/१९) नभ्राज् (पुं०) [भ्राज्+क्विप्] कृष्णमेघ, सघन बादल, काली
घटा। नम् (सक०) झुकना, नमस्कार करना, अभिवादन करना।
ननाम हे पाठक! वच्मि तुभ्यं (जयो० १९/१५) प्रणाम करना, नमन करना (भक्ति० १/ नाममि) ० व्यतीत करना-बिताना-'तयोरगाज्जीव नमत्यघेन निरन्तरं जन्तुबधाभिधेन। (सुद० ४/१७) ० नमस्कार करना-नमाम्यहं तं पुरुषं पुराणमभूधु (समु० १/१) नमति स्म मुदा यत्र न मति: स्मरतः पृथक् (जयो० ३/२१) व्यक्त करना, बोला जाना। (जयो० १२/७२) तत्र मखे हवनकर्मणि समुक्तं नम इत्येतद्-ॐ सत्यजाताय नम
इत्यादि-मन्त्रो में 'नमः' बोला जाने के रूप में। नमकीनं (पुं०) १. वटक चुम्बन (जयो० १२/१२४) २. भोज्य
पदार्थ। (जयो०वृ० १२/१२४) नमदाचरणं (नपुं०) नमन व्यवहार। (सुद० ४/४४) नमंती (वर्त०कृ०) नमन करती हुई। (सुद० १/२०) नमनं (नपुं०) प्रणाम, नमस्कार, झुकना। (वीरो० ७/३) नमस् (अव्य०) [नम्+असुन्] नमन, अभिवादन, प्रणाम,
पूजा, सत्कार, प्रणति, विनीतभाव। नमोऽस्तु (जयो० ११/८५) 'नमस्' अव्यय का प्रयोग सम्प्रदान अर्थ में किया जाता है। यह निपात से निष्पन्न शब्द है। श्री गुरुभ्यो
नमो नमः (दयो० १/५) नमस्कारः (पुं०) प्रणम्यभाव, सादर नमन, प्रणति, प्रणाम।
शिरोवनति, वन्दन। (जयो० ११/८५) नमस्कारार्थ (वि०) नमनहेतु। (वीरो० ५/२५) नमस्कृत (वि०) नमन करने योग्य। (सुद० ४/४६) नमस्कृति (स्त्री०) नमन, प्रणाम, प्रणति। नमस्कृत्य (वि०कृ०) नमन करके। (जयो० ३/९८) नमस्गुरु (पुं०) आध्यात्मिक शिक्षक। नमस्य (वि०) [नमस्+यत्] अभिवादनार्थ, वन्दनीय, सम्मानित,
आदरणीय, पूजनीय। नमस्यनं (नपुं०) नमन, नमस्कार।
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नमस्या
५३२
नयप्रमाणं
नमस्या (स्त्री०) पूजा, अर्चना। नमि (पुं०) १. एक विद्याधर, पिंगला गान्धार के राजा की पुत्री
का पती, दामाद नमि। विद्युत्प्रभा सुपुत्री ह्यन्वितनामानयोनमेर्भार्या। (जयो० २४/१०५) २. नमिनाथ तीर्थं कर,
इक्कीसवें तीर्थंकर का नाम। (भक्ति० १९) नमुचिः (पुं०) एक दैत्य। नमेरुः (पुं०) [नम् एरु] एक वृक्ष, रुद्राक्ष, मुरपुन्नाग। नमोह (वि०) विमोही। (वीरो० २६/२४) नमोऽस्तु (अव्य०) नमन हो, नमस्कार। (समु० ३/१६) नमोऽस्तु
सिद्धेभ्यः, नमोऽस्तु विश्व दृश्यवने। (दयो० १/३) नम्र (वि०) [नम्र+ट] नम्र, विनीत, विनयशील, प्रणतियुक्त,
अभिवादन जन्य। नम्रगत (वि०) झुका हुआ, प्रणत, नमनशील। नम्रचारी (वि०) झुककर चलने वाला। नम्रता (वि०) नम्रभाव युक्त, प्रणम्य युक्त। (जयो० २/१३२)
विनयशीलता। नय् (सक०) १. जाना, रक्षा करना, देखना, प्रकट करना।
(वीरो० १४/१४), २. सेवन करना (सुद० १२२) नयन्तु-पश्यन्तु (जयो० १/९), ३. ले जाना प्राप्त करना, ग्रहण करना। (सुद० १०८) नयन् प्राप्तयन (जयो० ६/१२) ४. व्यतीत करना। नयाम (सुद०५/२ नय प्रापय
(जयो० २/३) नयानि (सुद० ९८) नयः (पुं०) [नो+अच्] ० निर्देशन, मार्गदर्शन, प्रबन्धन, ०
व्यवहार, आचरण, चर्या। ० नीति, शासन विषय बुद्धिमत्ता, नीतिमार्ग। (जयो० १२/५०) राजनीतिज्ञता, प्रशासन। (जयो०वृ० ६/५४) ० न्याय, (सुद०) नैतिकता, न्यायपूर्वक (जयो० वृ० १२/५०) ० सिद्धान्त वाक्य, नियम, क्रम, प्रणाली पद्धति, परम्परा, रीति। ० नाद्, कथन पद्धति, ‘णीञ् प्रापणे, तस्य नय इति रूपम्' वक्तैव सूत्रार्थप्रापणे गम्ये परोपयोगान्नयति नयः' वस्तुनः पर्याणां संभवतोऽधिगमनमित्यर्थः। (जैन० ल०५८७) ० मुख्यनियामक हेतु। ० स्यात् पद युक्त कथन। ० नय के समानान्तर-प्रापक, कारक, साधक, निर्वर्तक, निर्भासक, उपलम्भक, व्यञ्जक। दीपक, भावक। ० जो विविध प्रकार से अर्थ विशेष को ले जाता है।
• ज्ञाता का मत-अभिप्राय। नयो ज्ञातुरभिप्रायो युक्तितोऽर्थपरिग्रहः। ० विकल संकथा। ० प्रमाणप्रकाशितार्थ विशेष प्ररूपको नयः। (त०वा० १/३३) ० निश्चय नय, व्यवहार नयः (सम्य० ११) (जयो० २/३) आत्मने हितमुशान्ति निश्चय (सम्य० ११) व्यवहारिकमुताहित नयम्। (जयो० २/३) एकदेश वस्तु का अध्यवसाय, एकदेशविशिष्टोऽर्थो नयस्य विषयो मतः' (न्यायविनिश्च० २९)
० श्रुतनिरुपितैक देशाध्वसायो नयः' (मूला०वृ० ९/६७) नयकोविद (वि०) नीतिज्ञ, विधिवेत्ता, न्याय परायण। नयनी (नपुं०) कथन निरूपण। (सुद० ९९) नयगत (वि०) न्याय को प्राप्त हुआ, १. नयपक्ष की ओर
अग्रसर। २. नियम पालन करने वाला। नयज्ञ (वि०) १. दूरदर्शी, नीति कुशल, २. नयपक्ष को आधार
बनाने वाला। नयचक्षुस् (वि०) दूरदर्शी, बुद्धिमान, अग्रदृष्टि रखने वाला। नयनं (नपुं०) [नी ल्युट्] १. नीति, प्रबन्धन, निर्देशन, निकट
लाना। नयन-प्रेषण, भेजना (जयो० २/११३) २. शासन करना। ३. नय (समु० ७/२०), नेत्र, अक्षिा (जयो०
९/११) (वीरो० ४/३०) (जयो० ४/१२) नयनक्रि (स्त्री०) ले जाना। नयनगोचरः (वि०) दृष्टिगोचर, दिखाई देने वाला, दृश्यमान।
दृग्वर्त्मकर्मक्षण। (वीरो० ६/२१) नयनगतिः (नपुं०) अक्षिगोलक। नयनपथ (पुं०) दृष्टिमार्ग, देखने का रास्ता। (जयो० २०/१९)
(जयो० ११/४९) नयनविषयः (पुं०) दृश्यपदार्थ, देखने योग्य विषय. अवलोकन
युक्त वस्तु। नयनानन्दः (पुं०) दृष्टि विनोद, नयनों के प्रिय। नयनाभिराम।
(सुद०८४) नयनोपन्तिः (पुं०) कटाक्षा (जयो० २/१३५) नयनाभिरामः (वि०) प्रियदर्शन, नेत्रों के प्रिय। नयन्तवन्त (वि०) निकला हुआ। (सुद० २/१७) नयनाभिरामः (पुं०) शशि, चन्द्र। नयनोत्सवः (पुं०) १. दीपक। २. नेत्रों की अभिरुचि। नयनोदकं (नपुं०) प्रेमाश्रु। (जयो०वृ० १३/२) नयप्रमाणं (नपुं०) नय रूपप्रमाण, अनन्त धर्मात्मक वस्तु के
एक अंश का ग्रहण।
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नयमञ्जुलं
नरभवः
नयमञ्जुलं (नपुं०) सुन्दरनीति। (जयो० २६/४५) नयरय-मय (वि०) नीतिविचारवान्। (जयो० १२/१०७) नयवती (स्त्री०) नीतिमति (जयो० ७/४७) नयवर्त्मन् (नपुं०) नीतिमार्ग। (जयो० २/१३७) नयवाद (पुं०) नय प्ररूपक सिद्धान्त। 'उच्यते कथ्यते अनेनेति,
न्यायाधिकारी, नयवाद : सिद्धान्तः' (धव० १३/२८७) नयविद् (पुं०) राजनीतिज्ञ। नयविधि (स्त्री०) नयपूर्वक पदार्थों का विधान, सत्-असत्
आदि रूपं नयों का निरूपण। नयशास्त्र (नपुं०) राजनीतिशास्त्र। नयागधिगम (वि०) नीतिज्ञानगत। नयानतिर्नतिः (स्त्री०) नय की स्वीकृति। (जयो० २४) नयस्य
नीतेरानति स्वीकृतिः। नयान्तरविधि (वि०) नयभेदों की प्ररूपणा। नयान्तराणि
नैगमादिसप्तशतनयभेदाः, ते विधीयन्ते निरूप्यन्ते विस्रय-साङ्कर्यनिराकरण द्वारेण अस्मिन्नति नयान्तर
विधिश्रुतज्ञानम्। (धव० १३/२८४) नयान्वित (वि०) नीतियुक्त। (जयो० १३/५८) नयाभासः (पुं०) प्रतिपक्ष के निराकरण करने वाले नय। दुर्नय __इत्यर्थः। (जैन०ल० ५९०) नयाधीन (वि०) नीतिज्ञान सहिता (जयो० २८/४१) नयुतः (पुं०) एक संख्या प्रमाण, चौरासी लाख नयतांगों की
एक नयुत। नयनान्तशरं (नपुं०) कटाक्षबाण। (जयो. १०/६९) नयनोत्पलवासिजलं (नपुं०) अश्रुप्रवाह। (जयो० ६/८६) नयुताङ्गः (पुं०) एक संख्या प्रमाण। चौरासी लाख प्रयुतों की
एक नयुतांग। नयोत्झित (वि०) अनैतिक, नीतिरहित। नयेन उज्झितो
नीतिरहितोऽस्ति (जयो० २/१३३) नरः (पुं०) [नृ+अच्] मनुष्य, पुरुष, आदमी, पुमान्। नासौनरो
यो न विभाति भोगी। (सुद० ३/२०) (वीरो० २/३८) 'नृ नये' नृणन्ति तथा विधद्रव्यक्षेत्रादि सामग्रीमवाप्य स्वर्गापर्गादिहेतुसम्यग्नयविनयपरा भवन्तीत्यचि नरा मनुष्याः' (जैन० ल० ५९) ० शतरंज का मोहरा। ० धूपघड़ी की कील। • शंकु। ० परमात्मा, परमपुरुष।
नरकः (पुं०) [नृ+वुन्] तीव्र वेदना। (सुद० १२७) आत्यन्तिकं
दु:खं नृणन्ति नयन्तीति नरकाणि (त०वा० २/५०) नरक, दुःख पूर्ण स्थान, घृणित प्रदेश। (मुनि० १६) नरक द्वीपायन: किं गत (मुनि० १५) ० नरान् कायन्तीति नरकाणि। ० नरान् कायन्ति शब्दायन्त इति नरकाणि। ० नरान् प्राणिनः कायति पालयति, खलीकरोति इति
नरकः कर्म (धव०१/२०१) नरनायकः (पुं०) नरनाथ, राजा। (समु०२/२६) नरकगति (स्त्री०) नरक में जन्म लेना नरकभाव, नारक
पर्याय। 'यन्निमित्तं आत्मनो नारको भावस्तन्नरकगति नाम। (स०सि०८/११) यस्या उदयः सकलाशुभकर्मणामुदयस्य
सहकारिकारणं भवति वा, नरकगतिः। नरगृहं (पुं०) मानवगृह। (धव० १/२०१) नरकायु (नपुं०) नारक पर्याय धारण करना। नरतः (पुं०) परस्पर प्रीति का अभाव, रति का अभाव। नरडूषा (वि०) मनुष्य के वशीभूत। (सुद० १२३) नरगतिः (स्त्री०) मनुष्यगति। नरजन्मन् (नपुं०) मनुष्य जन्म। (वीरो० ८/४२) नरजातिः (स्त्री०) मनुष्यकी उत्पत्ति। नरदेवः (पुं०) राजा, नृपति, मनुष्यों में श्रेष्ठ, जो चतुरंग
चक्रवर्ती होकर सम्यक्त्व से सहित, चक्ररत्न के स्वामी, नौ निधियों के अधिपति, वृद्धिगत कोश युक्त, बत्तीस हजारों राजाओं से अनुगत और समुद्र पर्यन्त पृथ्वी क पति
नरदेव हैं। नरधातु (पुं०) परिपालक, राजा। (जयो० ३/१४) नरद्वारं (नपुं०) मानवगृह। (वीरो० ५/३) नरनाथ (पुं०) राजा। (दयो० ४१, जयो०वृ० १/२४) नरनायकः (पुं०) नरनाथ, राजा, अधिपति, (समु० २/२६) नरनाथपुत्री (स्त्री०) राजकुमारी। (जयो० ३/८५) नरपः (पुं०) राजा, अधिपति। (जयो० १२/५१) नरपतिः (पुं०) नृपति, राजा, चक्रवर्ती। (समु० ५/१०) नरपशुः (पुं०) मानव रूप पशु। नरपालः (पुं०) नृपति, अधिपति, राजा। नरपालता (वि०) राजापना (वीरो० २२/१२) नरपुंगवः (पुं०) उत्तम पुरुष, श्रेष्ठ पुरुष, सज्जन। नरभवः (पुं०) मनुष्य जन्म (हित० पृ० १२)
बाल्ये विद्यामधीयानो, युवत्या यौवनेऽञ्चितः। वार्द्धक्ये सति तां त्यक्त्वा, भगवन्तमनुस्मरेत्।।
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नरत्वशंस
५३४
नर्मविधिः
नरत्वशंस (वि०) मनुष्यपन। (वीरो० १४/२७)
नर्तकी (स्त्री०) नृत्याङ्गना, नटी, अभिनेता। (वीरो० १७/३८) नरमानिका (स्त्री०) मनुष्य जैसी स्त्री, मर्दागनी।
(जयो०वृ० १/३२) नरयन्त्रं (नपुं०) मनुष्य द्वारा खींची जाने वाली गाड़ी, पालकी। ० हथिनी। (जयो० १३/३१)
__० मयूरी, मोरनी। नररथः (पुं०) मनुष्य द्वारा खींची जाने वाली गाड़ी। नर्तन: (पुं०) [नृत्+ल्युट्] नाचने वाला, अभिनेता। नरराट् (पुं०) राजा।
नर्तनगृहं (नपुं०) नृत्यशाला। नरराजन् (पुं०) राज कुमार। (जयो० ३/१५, ३/१०९) नर्तनालयः (पुं०) नृत्यशाला। (जयो० २१/३४) नर्तकप्रतिगुण: नरवर्गः (पुं०) मनुष्य समूह। (जयो०वृ० ३/९०)
शुभाननेऽमुष्य पश्य किल नर्तनालयः। (जयो० २१/३४) नरलोकः (पुं०) कुबेर।
नर्तित (वि०) [नृत्+णिच्+क्ति] नचाया हुआ, नाचने वाला। नरवीरः (पुं०) शूरवीर, पराक्रमी व्यक्ति।
नर्तिमुखं (नपुं०) नम्रमुख, झुका हुआ मुख। (वीरो० ६/५) नरवेशः (पुं०) मर्त्य शरीर। (जयो० ४/४४)
नई (अक०) गरजना, दहाड़ना, शब्द करना, गतिशील होना। नरशस्य (पुं०) राजा। (जयो० ६/६८)
नर्द (वि०) [न अच्] गरजना, दहाड़। नरशार्दूलः (पुं०) प्रमुख पुरुष, प्रधान व्यक्ति।
नर्दनं (नपुं०) [न ल्युट्] गरजना, दहाड़ना, प्रार्थना करना। नरशृंगं (नपुं०) सत्ताविहीनता का लक्षण।
नर्दितं (नपुं०) गर्जना, दहाड़, चिल्लाना, चीखना। नरर्षभः (पुं०) नरोत्तम, पुरुषश्रेष्ठ। (जयो० १/९६) नर्मटः (पुं०) [नर्मन्+अटन्] ठीकरा, बर्तन का टुकड़ा। नरसंसर्गः (पुं०) मानव समूह।
नर्मठः (पुं०) [नर्मन्+अठन्] १. भांड, लम्पट, २. दुश्चरित्र नरसिंहः (पुं०) एक नाम विशेष।
वाला, ३. दुराचारी। क्रीड़ा, ४. मनोरंजन विनोद, नरहरिः (पुं०) नाम विशेष।
५. मैथुन, संभोग। नरांगः (पुं०) [नर्+अंग्+अण्] लिङ्ग, ज्ञाननेन्द्रिय। नर्मन् (नपुं०) [नृ+मनिन्] क्रीडा, विनोद, आमोद, प्रमोद के नरायित (वि०) पुरुषायित। नरस्येवाचरण नरायित। लिए विहार, हास्य भाव। अवस्था (सम्य० ४२) 'नर्मशर्मणि (जयो०वृ० १/२६) (वीरो० ९/३५)
शरीरमाश्रयन्' (जयो० ३/१) नरी (स्त्री०) नारी, स्त्री।
० विनोदवृत्ति (सम्य० ३३) संशर्म नर्म भुवि भर्म नरीनर्ति (स्त्री०) स्त्री के नाच।
समेत्यशोकः। (जयो० १०९५) 'क्षणिकनकर्मणि नरेन्द्रः (पुं०) नराणाम् इन्द्रः चक्रवर्ती, नरोत्तम। (सुद० १/२८) निजयशोमणि' (सुद० ३८) भक्ति० ३२, जयो० ४/१)
० अर्थ पुरुषार्थ (जयो० १२/४८) शोभा-सत्संगतं नरेशः (पुं०) नराणामीशो नरेशः रामा, अधिपति। (वीरो० ५/३) माणिक्यमिव खलु स्वं नर्म यानि। (सम्य० २६) नरेशललना (स्त्री०) रानी, महाराज्ञी। (सुद०
नर्मदा (स्त्री०) मेकलकन्यका, नर्मदा नदी। विन्ध्याचल से नरेशवर्गः (पुं०) राजा समूह, नृपतिवर्ग। 'कदाचिदासीदपराजिताख्यः निकलने वाली नदी। 'मेकलकन्यकाया नर्मदाया नद्याः ___पराजिताशेष-नरेशवर्गः' (समु० ६/९)
श्रेणी प्रवाह-तुल्या वर्तते' (जयो० ११/७०) नर्म प्रसादनं नरेश्वरः (पुं०) नृपति, अधिपति, राजा। (जयो० ३/७१) ददानीति नर्मदा (जयो० ११/३०) समुद्र-सदसनादरतायामस्तु नरोत्तमः (पुं०) १. प्रधान पुरुष। २. विष्णु (जयो० ११/९१, सज्जनाभिनर्मदायाम्।' (जयो० २२/११)
नरर्षभ (जयो०वृ० १/९६) उत्तम पुरुष। नरोत्तमदीनता नर्मकीलः (पुं०) पति। यस्मान्न भोगाधीनता स्वस्मात्। (सुद० १०९)
नर्मगर्भ (वि०) रसिक, ठिठोलिया, विनोदी। नर्तः (पुं०) [नृत्+अच्] नृत्य, नाच।।
नर्मगर्भः (पुं०) गुप्तप्रेमी। नर्तकः (पुं०) नृत्यवृत्ति वाला पुरुष, अभिनेता, नट, भाट, चर्मधर (वि०) उत्साहधारी। (सम्य० १४०)
चारा। ० हस्ति, ० राजा, ० मयूर। ० कदलीवृक्ष, केला | नर्मद्युतिः (वि.) प्रसन्नमुख, हर्षभाव से युक्त। का वृक्षा (जयो० २१/३४) नर्तकः कदलीवृक्ष नटश्च | नर्मविधिः (स्त्री०) विनोद छटा। 'सुखेन खे नर्मविधेर्विधाति' तस्य प्रतिगुणः प्रभावो यत्र सः' (जयो० २१/३४)
(समु० ३/८)
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नर्मवश्या
५३५.
नवतानुयोगचतुष्टयः
० कमलिनी कथितः पति विदुषां पुनः खलु विकसति
नलिनी तेन। (सुद० ८७) नलिनीखण्डं (नपुं०) कमलपुञ्ज, कमलसमूह। नलिनीरुहः (पुं०) कमलिनी से उत्पन्न। १. ब्रह्मा। नल्वः ( पुं०) [नल+व] एक माप, जिससे दूरी नापी जाती
नर्मवश्या (वि०) विनोदवशंगता। (जयो० १४/२९) नर्मची (वि०) विनोदवशंगत। (वीरो० ६/३७) नर्मसचिवः (पुं०) विदूषक, मनोविनोदी। नर्मसागम (वि०) प्रसन्नता देने वाली। (जयो० ३/३२) नर्महेतु (नपुं०) कल्याणकारक। (जयो० २६/२२) नर्मोद (वि०) एकाग्रचित्तवाला। (सुद० ७१) नर्मराः (स्त्री०) [नर्मन्+र+टाप्] घाटी, कंदरा, धौंकनी। नल (नपुं०) [नल+अच्] ० कमलसार। स्वर्गात् सुरद्रो:
सलिलान्नलस्य (जयो ०१/५०) 'नलंतु रससीरुहे इति विश्वलोचनः' (जयो० ११/१) 'नलं कमलं तद्वच्छस्यः
प्रशंसनीयः' (जयो० ६/६८) नलः (पुं०) नल राजा, निषध देश का राजा नलक (नपुं०) कुहनी, शरीर की लम्बी हड्डी। नलकी: (स्त्री०) टांग, घुटने की कपाली। नलकूबर: (पुं०) कुबेर का पुत्र। नलकोमलः (पुं०) कमल के समान मृदु। 'नलकोमल: कमल
तुल्यो मुदुः पाणिः' (जयो० १२/६०) उपघातमहो करस्य सोढुं क्व समर्थोऽसिपरिग्रहस्य वोढुः। नलकोमल एव पाणिस्या
अनवद्य द्रव एवमर्पित: स्यात्।। (जयो० १२/६०) नलदं (नपुं०) खस, उशीर, एक सुगन्धित जड़। नलपट्टिका (स्त्री०) चटाई।। नलमोनः (पुं०) जल वृश्चिक, झींगा मछली। नलसदास्य (वि०) कमल के समान चमकता हुआ मुख। 'न
लसत्यास्ये मुखं यस्य स नलसदास्यो विरूपाननोऽपि विलसति शोभव इति विरोधः। 'नलं कमलमिव सत्सुन्दरमास्यं यस्य स इति परिहारः। (जयो०७० ६/५४) विरुपानन
(जयो०वृ० ६/५४) नलिनः (पुं०) [नल+इनच्] १. सारस।
० प्रमाण विशेष। नलिनं (नपु०) सरोज, कमल। (जयो० १२/१०) नलिन
कमलाङ्ग च। (महापु० ३/३१४) ० प्रमाण विशेष, चौरासी लाख वर्षों से गुणित नलिनांग
प्रमाण एक नलिन। ० नलिन-जल। ० नील का पौधा। नलिनम्रजा (स्त्री०) कमलों की माला। नलिनानां कमलानां
स्रजा मालया बबन्ध गृहीतवती। (जयो० १२/१०) नलिनाङ्गं (नपुं०) एक प्रमाण विशेष, गणितीय प्रमाण। नलिनी (स्त्री०) [नल इनि+ङीप्] कमल समूह, कमल
पादप।
नव (वि.) [नु+अप्] नया, नूतन, नवीन, तात्कालिक, इसी
समय का। नव नूतनं चरित्रमिव चरित्रम् (जयो० ३/१०१)
नौ संख्या (जयो० १/४) नवः (पुं०) कौआ, काका नवं (अव्य०) इसी समय, आजकल में, अभी अभी, बहुत
दिन हुए। नवकलिका (स्त्री०) नूतन कला। नवकारिका (स्त्री०) रजस्वला स्त्री, नवविवाहित स्त्री। नवकालिका (स्त्री०) रजस्वला स्त्री। नवकौतुकः (पुं०) प्रफुल्लन, (जयो० १८/७१) नवग्रहः (वि०) नूतन समालिंगन, तात्कालिक समालिंगन। नवे
ग्रहे नूतने समालिङ्गने। (जयो० १७/५५) नवचरित्रं (नपुं०) अद्भूत चरित्र, नूतन आचरण। नूतनं चरित्रमिध
चरित्रम्। (जयो० ३/१०१) नवचत्वारिंशत् (स्त्री०) उनचास। नवछात्रः (पुं०) नया विद्यार्थी, नवीन शिष्य। नवछिद्र (नपुं०) नौ छिद्रवाला शरीर। नवत (वि०) नब्बे वा। नवतः (पुं०) कम्बल, चादर, आवरण, हाथी की झूल। नवता (वि०) नव संख्यात्मकता नवीन भावपना। (जयो०
१/३४) नवीनता (वीरो०वृ० १/२२) नवतानुयोगः (पुं०) नव संख्यात्मक अनुयोग। नवधा (अव्य०) नौगुणा, नौ प्रकार। (सम्य० ३२) नवधाभक्तिः (स्त्री०) विशेष भक्तिपूर्वक। प्रतिग्रहण, उच्चासन
दान, साधुपूजा, प्रशंसा, मनःशुद्धि, वचनशुद्धि, कायशुद्धि, अन्नशुद्धि। (सम्य० १३२) नवधामभक्तितो दानं, तपस्विभ्यः प्रदीयते।
सौहार्दमात्रतोऽन्येभ्यो, देशकालानुसारतो।। (हि०सं०५०) नवतानुयोगचतुष्टयः (पुं०० चार अनुयोग का नौ संख्या को
प्राप्त होना। 'अनुयोगचतुष्टये प्रथमकरण-चरणद्रव्योपनामके शास्त्रचतुष्के नवता नवीनभावो बभूव। (जयो०वृ० १/३४)
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नवतिः
५३६
नविविदुमः
पता
नवतिः (स्त्री०) नब्बे। नवतिका (स्त्री०) [नवति कन्+टाप] एक संख्या विशेष। (९०)
० नब्बे।
० चित्रकार की कुंची। नवन् (सं०वि०) [नु+कनिन्] १. नवीन, २. नौ। नवनवारम्भः (पुं०) १, नवीन केले के स्तम्भ, २. सुन्दर
अप्सरा। (जयो० ४/६८) नवनवतिः (स्त्री०) निन्यानवें। नवनिधिः (स्त्री०) नौ निधियां-महापद्म, पद्म, शंख, मकर,
कच्छप आदि। (जयो० ११/३६) (जयो० ७८) नवनी (स्त्री०) नवीनता युक्त। नवनीतं (नपुं०) १. मक्खन, ताजा मक्खन। २. नवीनता से
संघटित, अत्यन्त सुन्दर। नवीनतया नीतं संघटितं सुन्दरमस्ति (जयो०११/३६) (जयो० १०/१३) 'दुग्धतो हि नवनीतमुदेति गौस्तृणानि हि समादरणेऽत्ति। (जयो० ४/२१) 'तक्रतो हि नवनीतमाप्यतेऽत पुनघृतकृते विधाप्यते। (जयो० २/१४) 'समुचितो नवनीतविनीतकः' (जयो० १/१००) सन्धानं च नवनीतमगालितजलं सदा।
पत्रशाक च वर्षासु नाऽहंतव्यं दयावता।। (सुद० १२९) नवनीतकं (नपुं०) परिष्कृत मक्खन, नैनू, ताजा मक्खन। नवपरिणीता (स्त्री०) नवलावधू, नई व्यवाहित। (जयो० ७/६१) नवपंचाश (वि०) उनसठवां। नवपंचाशत् (स्त्री०) उनसठ। नवपदार्थः (पुं०) नौ जीवादि पदार्थ। जीव, अजीव, आश्रव,
बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्ष, पुण्य और पाप। नवपाठकः (पुं०) नया अध्यापक, नया शिक्षक। नवपुष्पं (नपुं०) नूतन पुष्प। नवपुष्यः (पुं०) पुष्य नक्षत्र, ज्योतिर्लोक का एक पुष्य नक्षत्र।
लोकोऽखिल: सत्कृतिक: पुनस्ताः स्त्रियः समस्ता नवपुष्य
शस्ताः ।। (सुद० १/२९) नवप्रवाहः (पुं०) नौ द्वार का प्रवाह, शरीर के नौ स्थानों से
बहने वाला मला शश्वन्मलस्त्रावि नवप्रवाहं शरीरमेतत्समुपैम्यथाऽहम्। पित्रोश्च मूत्रेन्द्रियपूतिमूलं घृणास्पदं केवलमस्य तूलम्।।
(सुद० १०२) नवभक्तिः (स्त्री०) १. नूतन भक्ति, अभिनव भक्ति। २.
नवधाभक्ति (जयो० २/९५) प्रतिग्रहण, उच्चासनदान, साधु पूजा, प्रशंसा, मन:शुद्धि, वचन शुद्धि/वाक्यशुद्धि, |
कायशुद्धि, अन्नशुद्धि/आहारशुद्धि। (हित०सुं० ५०) भोजनोपकृति-भेषज-श्रुती: श्रद्धया स नवभक्तिभिः कृती। पूरयेद्यतिषु सन्मना गुणगृह्य एव यतिनामहो गणः।। (जयो०
२/९५) नवमसर्गः (पुं०) नवीन आहूति। नवयौवनं (नपुं०) यौवन का नया क्रम। नवयौवनयुक्त (वि०) नव युवावस्था से युक्त। (समु० २/१४) नवयौवनवती (स्त्री०) नवयौवना। (जयो० ११/८९) नवयौवना (स्त्री०) नवयुवती। कौमारं कुमार भावुत्क्रान्तवती
लङ्कितवती-नवयौवनाऽभवदित्यर्थः। (जयो०वृ० ३/४२) नवरजस् (स्त्री०) नूतन रजस्वला वाली लड़की। नवरत्नं (नपुं०) नौ अमूल्य रत्न, मुक्ता, माणिक्य, वैडूर्य,
गोमेद, वज्र, विद्रुम, पद्मराग, मरकत और नीत रत्न। नवरसाः (पुं०) काव्य के नौ रस। शृंगार, वीर, करुण, हास्य,
रौद्र, भयानक, वीभत्स, अद्भुत और शान्त। नवरात्रं (नपुं०) नौ दिन का समय। आश्विन मास के प्रथम
नौ दिन का समय, उपासना का समय। नवराट् (पुं०) नवभूप। (जयो० २६/१८) नवला (स्त्री०) नवपरिणीता, नई नवेली। (जयो० १६/६९)
व्याहिता। (जयो० १७/६१) नवलोहितः (पुं०) नया रक्त, नूतन रक्त, तात्कालिक निकला
लाल वर्ण का खून। 'नवं च तल्लोहितं रक्तवर्ण च'
(जयो० १५/४०) नववधू (स्त्री०) नई व्याहिता स्त्री। नववधू किल
संकुचतान्मतिरपसरेन्मुखवारिमिषाद्धृतिः। (समु० ७/४) नववधू-समयी (पुं०) नववधू का स्वामी। (जयो० ४/५१) नववरिका (स्त्री०) नई व्याहिता। नववल्लभं (नपुं०) चन्दन की एक जाति। नववल्लभः (पुं०) नया प्रियतम। नववस्त्रं (नपुं०) नूतन वस्त्र, नया परिधान, स्वच्छ कपड़े। नवविंश (वि०) उन्नीसवां। नवविंशतिः (स्त्री०) उन्तीस। नवविस्मयः (पुं०) अधिक आश्चर्य, नया आश्चर्य, नूतन
चमत्कार। नवो नूतनो यो विस्मयस्तमै विस्मयाय भवन्ति।
(जयो०६/९) नवसुधान्वयः (पुं०) नए चुने से पुते। नवैनूतनैः सुधाया
अकुलेपनैर्युक्तेति (जयो० ३/७८) नवविदुमः (पुं०) प्रवाल। (जयो० ३/७५) नई कोंपला नवैविद्रुमैः
प्रवालैः पल्लवैर्वा
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नवविध
५३७
नहि कोऽत्र
नवविध (वि०) नौ तरह का।
भाग जाना, उड़ जाना, बच निकलना। ० असफल होना, नवशतं (नपुं०) ० एक सौ नौ। ० नौ सौ।
अन्तर्धान होना। ० हटा देना, मिटा देना। नवशशिभृत् (पुं०) शिव।
नश (स्त्री०) नाश, हानि, विनाश अन्तर्धान, ध्वंस। नवषष्टिः (स्त्री०) उनहत्तर।
नश्वर (वि०) [नश् क्वख्] क्षणभुगर, क्षणस्थायी, अनित्य, नवसूतिः (स्त्री०) नई प्रसूतिका गाय। जच्चा स्त्री।
अस्थायी अशाश्वत, अस्थिर। नवसूतिका देखो ऊपर।
नष्ट (भू०क०कृ०) [नश्+क्त] •लुप्त, ०अदृश्य, समाप्त नवान्नं (नपुं०) नूतन धान्य, नया चावल।
०ध्वस्त, पलायित, उच्छिन्न, विनष्ट । नवाङ्करं (नपुं०) नूतन अंकुर।
० वंचित, भागा हुआ, मुक्त।
० क्षीण, भ्रष्टा नवाकृतिः (स्त्री०) नूतन आकृति, सुन्दर छवि।
नष्टकषाय (वि०) क्षीण कषाय, कषाय रहित। नवाड़ी (स्त्री०) नवयौवना। (वीरो० ४/२९)
नष्टकर्म (वि०) कर्म रहित, कर्म मुक्त। नवाम्बु (नपुं०) ताजा पानी, स्वच्छ जल।
नष्टकान्तिः (स्त्री०) यश रहित। नवानवा (स्त्री०) नृतन संपदा। (वीरो० १३/६) (जयो० ३/११५)
नष्टकाय (वि०) क्षीणकाय वाला, कृशकायो। नवालका (स्त्री०) नूतन केश। (वीरो० ८/४६) नए केश।
नष्टखेद (वि०) आवरण विमुक्त। (वीरो० २०/१४) 'नवा नवीना अलकाः केशा यस्य अथ च बालको न
नष्टगृह (वि०) गृह विहीन। भवतीति' (जयो० ११/७९)
नष्टचन्द्र (वि०) क्षीणचन्द्र। नवालता (वि०) नवीनता। (समु० ३/२२) 'नवालता यत्र (समु० नष्टज्योति (वि०) ज्योति विहीन। ६/२२) बभूव साऽधुना' नवीन वल्लरी। (जयो० ११४८९)
नष्टपाप (वि०) पाप रहित। नवाशीतिः (स्त्री०) नवासी।
नष्टयश (वि०) क्षीण यश। नवासुरा (स्त्री०) नूतनमदिरा। (जयो० १५/५४)
नष्टसंशय (वि०) संशय विमुक्त। नवोद्धत (वि०) नवनिर्गत। नवोद्धतं नाम दधत्तदिन्दुबिम्ब नष्टसौरभ (वि०) सौरभ विहीन। बभूवेह-घृतस्य विन्दुः। (जयो० १६/२२)
नष्टोधिष्टार्थ (वि०) प्रनाशार्थ। (जयो० १९/६९) नवीन (वि०) नया, ताजा, नयापन। (वीरो० १०/१२) नस् (स्त्री०) [नस्+क्विप्] नासिका, नाक। नवौढा (स्त्री०) नवयौवना स्त्री। (जयो० १६/५८) (वीरो० नस्तस् (अव्य०) [नस्+तसिल] नरक से। नव्य (वि०) १. नवीन, नया। २. नव्य-व्याकरण।
नसा (स्त्री०) नाक, नासिका। नव्य-भव्यः (०) अत्यधिक सुन्दर, नूतन सौन्दर्य। (जयो०
नस्तः (पुं०) [नसृ+क्त] नाक। ५/६७) दृष्टिराशु पतिता विमलायां नव्यभव्यरजनी
नस्तं (नपुं०) [नस्+ल्युट्] नासिका, सूंघनी, नसवार। शकलायाम्। (जयो० ५/६७) 'नव्यो नवीनोऽत एव भव्यो
नस्तित (वि०) [नस्त+इतच्] नाक में रस्सी डालकर। मनोहरो योऽसौ। (जयोवृ० ३/६७)
नस्य (वि०) [नासिक+यत्] अनुनासिक।
नस्यं (नपुं०) नाक का बाल, १. सूंघनी। नव्यभव्यनिवहः (पु०) नव दीक्षित भव्य समूह। (जयो०
नह (सक०) बांधना, पहनना, धारण करना, कसना, सुसज्जित २१/२७) ० नए दीक्षार्थियों का समूह।
करना। नव्य-मालती (स्त्री०) नवीन मालती पुष्प।
नहि (अव्य०) निश्चय ही नहीं, यथार्थ रूप में नहीं, नवमाला (स्त्री०) नवीनस्रक, नई माला!
०वास्तव में नहीं किसी रूप में नहीं, बिल्कुल नहीं। नव्यरथः (पुं०) नया यान, रथ।
(सम्य० ३९) 'नहि करोम्यहमेतदिहाग्रत: विषभिषग् ध्रियतां नव्याकृतिः (स्त्री०) नव्य व्याकरण। नव्याकृति में शृणु भो
स महानतः। (समु० ७/१५) 'बलमखिलं निष्फलं च सुचित्वं कुतः पुनः सम्भवतात्कवित्वम्। वक्तव्यतोऽलंकृति तच्चेदात्मबलंनहि यस्या (सुद०७०) नहि परतल्पमेति स ना तु। दूरवृत्तेर्वृत्ताधिकारेष्वपि चाप्रवृत्तेः। (वीरो० १/२६)
(सुद०८९) नश (अक०) नष्ट होना, समाप्त होना, क्षय होना, विलीन | नहि कोऽत्र (अव्य०) यहां कोई भी नहीं। 'नहि कोऽत्र युवा
होना। (सुद० २/२३) ० लुप्त होना, अदृश्य होना, ० यः' (जयो०५/४)
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नहि किञ्चिदपि
५३८
नागमोथा
नहि किञ्चिदपि (अव्य०) किसी तरह का भी नहीं। (वीरो० नागकेसरः (पुं०) नागकेसर नामक वृक्षा ४/३६)
नागगर्भ (नपुं०) सिन्दूर। न ही न भा (स्त्री०) अक्षीणकान्ति। (जयो० ११/५४) नागचूडः (पुं०) शिव। नहुषः (पुं०) [नह। उषच्] एक चन्द्रवंश का नृपति। नागज (नपुं०) १. सिन्दूर, २. राग। ना [नह्+डा] नहीं, न, मत। न हि परतल्पमेति स ना तु। नागजिबिका (स्त्री०) मैनसिल। (सुद०८९)
नागजीवनं (नपुं०) रांगा। ० ना-नरः, मनुष्य। (जयो० २/६७) नागदंत: (पुं०) हाथी दांत। शिष्टमाचरणमाश्रयेदनावश्यकं च खलु तत्र तत्र न। (जयो० नागदंतकः (पुं०) हाथी दांत। २/४०) 'ना मनुष्यो महत्सु महापुरुषेशु भक्तिमानस्तु' नागदंशनं (नपुं०) सर्पदंशन, सर्प का काटना, सर्प डसना। (जयो० २/६७)
(दयो० ७७) नाकः (पुं०) [न+कम्-अकम् दु:खम्, तत् नास्ति अत्र इति] नागदंती (स्त्री०) सूरजमुखी पुष्प।
स्वर्ग, सुरालय। 'अनेक दुःखेन रहित नाकम्। (वीरो० नागदलः (पु०) १. नागसमूह, (वीरो० २/२३) २. २/२२) पाकोऽथवा पुण्यविधेनरन्यः नाकोऽनयात्रैव समस्तु नागवल्लीसमूह, ताम्बूल। (जयो० २२/५४) धन्यः। (जयो० ५/८६)
नाग दमनी (स्त्री०) नाश को वश में करने वाली औषधि। नाकपतिः (पुं०) इन्द्र। (वीरो० ४/४४)
(दयो० ७७) नाकिन् (पुं०) [नाक+इनि] देव, अमर। 'किन नाकिभिरेव | नागदेवः (पुं०) नागदेवता। (वीरो० २/२३) १. एक राजा निषेधितम्'
(वीरो० १२/३२) नाकिनायकः (पुं०) सौधर्मइन्द्र। (वीरो० ७/७)
नागदेवता (पुं०) नागों में शिरमोर, शेषनाग। नाकिजनः (पुं०) पुण्यात्मा (जयो० ९/२७)
नागनक्षत्रं (नपुं०) आश्लेषा नक्षत्र। नाकुः (पुं०) १. गिरि, पर्वत, २. वल्कीम।
नागपञ्चमी (स्त्री०) श्रावण शुक्ला, पंचमी का दिन, इस दिन नाक्षत्र (वि०) [नक्षत्र+अण्] नक्षत्र विषयक।
नागों की पूजा की जाती, उन्हें दूध पिलाया जाता है। नाक्षत्रं (नपुं०) नक्षत्रमास सम्बन्धी।
(दयो० ८०) नाक्षत्रिक (वि०) नक्षत्र सम्बन्धी, नक्षत्र के अन्तर्गत। नागपति (पुं०) शेष नाग। (सुद० १/३७) (दयो० ४३) नागः (पुं०) [नाग+अण्] १. सर्प, सर्पदेव, नागदेव। (जयो० (जयो०वृ० १/२५)
२/१५८) २. हत्थि, हाथी, करि गज। (जयो०१३/९८) नागपदः (पुं०) रतिबन्ध। ० कूर, अत्याचारी।
नागपाशः (पुं०) एक अस्त्र विशेष, जो नाग की आकृति का ० गणमान्य, पूज्य।
होता है, जिसमें शत्रुओं को फंसाने का कार्य किया जाता है। ० मेघ, बादल।
नागपुरी (स्त्री०) नागों की नगरी। (दयो० ३०) • खूटी।
नागपुष्पः (पुं०) चम्पक का पौधा, पुन्नाक वृक्षा ० नागकेसर, नागरमोथा।
नागपूजा (स्त्री०) नाग की अर्चना। ० नागकुमार नामक देव।
नागमलिकः (पुं०) सपेरा, सांप को पकड़ने वाला। नागकन्या (स्त्री०) नागपुत्री, नाग सुता। 'सा नागकन्या यतो नागमन्दिरं (नपुं०) नागदेवता का स्थान, नाग देव मन्दिर।
जघन्या क्व किन्नरीणान्तु तुमैव धन्या। (जयो० ११/७३) (वीरो० ११/५४, दयो० ८०) 'नागकन्या जगत्प्रसिद्ध-रूपवत्यपि यतो यस्या' (जयो०वृ० नागमणि (स्त्री०) सर्प शिरोरत्न। (जयो० २/१६) ११/७३) दयोदय काव्य में नागकन्या को भोगिनी भी नागमल्लः (पुं०) ऐरावत। कहा है। (दयो० १०९)
नागमुक्ता (स्त्री०) नागर मोथा (जयो० २८/३०) नागकुलं (नपुं०) नागकुल, नाग परम्परा। यन्निरन्तर नागमोथा (स्त्री०) ०नागर मोथा, नागमुक्ता, मेघ, बादल। नागकुलैकरम्यम्। (वीरो० २/२३)
(जयो० २८/३०)
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नागयष्टिः
५३९
नाथसोमाभिधः
नागयष्टिः (स्त्री०) एक गहराई नापने का बांस।
नाटितकं (नपुं०) [नट+णिच्+क्त+कन्] अनुकृति, संकेत, नागर (वि०) [नगर+अण] नगर में उत्पन्न, नगर में पला। ० चेष्टा, हाव-भाव। नम्र, शिष्ट, चतुर, चालाक।
नाट्यं (नपुं०) [नट्+ष्यञ्] नाचना, अनुकरणात्मक चित्रण, नागरः (पुं०) नागरिक। १. देवर, २. व्याख्यान, ३. नारंगी। ४. हाव-भाव, प्रदर्शन। (समु०८/४) लिपि विशेष।
नाट्यन्ती (वर्तकृ०) नाचती हुई। (वीरो० २/४४) नागरक (वि०) नगर में उत्पन्न।
नाट्यर (वि०) नाटक, नृत्य। (वीरो० ७/३८) नागरी (स्त्री०) नागरी लिपि।
नाट्यशाला (स्त्री०) रंगमंच। (वीरो० १३/१०) नागरीट: (पुं०) लम्पट, दुश्चरित्र, जार।
नाडि (स्त्री०) [नड-णिच+इनि] कमल नाल। नागरुकः (पुं०) संतरा, नारंगी।
नाडिका (स्त्री०) [नाडि कन्+टाप्] ० घड़ी, २४ मिनट का नागरेणुः (स्त्री०) सिन्दूर।
समय। ० नली के आकार का अंग। नागर्यम् (नपुं०) बुद्धिमत्ता, चतुराई।
नाडिधमः (पुं०) सुनार, स्वर्णकार। नागलता (स्त्री०) नागवल्ली, ताम्बूल, मालुदल।
नाणकं (नपुं०) [न+आणकम् इति] वित्त (जयो०७० ३/१) नागलोकः (पुं०) भूलोक, सर्पलोक।
सिक्का, मोहर लगी हुई वस्तु। नागवल्ली (स्त्री०) पान, तम्बूल, मालुदल। (जयो० १०/६३, | नात (भू०क०कृ०) नहीं होना (सुद० ११४)
१२/१३४) ० सौधसम्पदद्दल (जयो०वृ० १२/१३४) नातिचर (वि०) [न अतिचदः] जो लम्बी दूरी का न हो। नागवारिकः (पुं०) महावत, राजकील हस्ति, मयूर। नातिचार (वि०) [न अतिचरः] अतिचार रहित, दोष रहित, नागशय्या (स्त्री०) शेषनाग का आसन। (जयो०वृ० १२८३) अहिंसादि व्रतों में दोष से विमुक्त। नागसम्भवं (नपुं०) सिन्दूर। (जयो० १०/४२)
नातिदूर (वि०) [न+अतिदूरः] समीप, पास में, अधिक दूरी नागसंभूतं (नपुं०) सिन्दूर।
से रहित। नागांगना (स्त्री०) हथिनी।
नातिवादः (पुं०) [न+अतिवाद:] अतिवाद/दुर्वचन रहित, नागसेवित (वि.) सत्पुरुषों से आराधित। नागैः सत्पुरुषैः । अपशब्द से रहित। सेवित आराधित। (जयो० ३/५)
नाथ् (सक०) निवेदन करना, याचना करना, प्रार्थना करना। नागांजना (स्त्री०) हथिनी।
० शक्ति रखना, सामर्थ्य होना। नागांतकः (पुं०) गरुड़।
० तंग करना, कष्ट देना। नागधिपः (पुं०) शेषनाग।
नाथ: (पुं०) [नाथ्+अच्] ० प्रभु, स्वामी, नायक, रक्षक नागारातिः (पुं०) गरुड़।
(जयो० १/३७) नागरिः (पुं०) गरुड़ा
० पति (जयो० २/१४१) नागाननः (पुं०) गणपति, गणेश।
० एकोऽद्वितीयश्चासौ नाथ: स्वामी (जयो० १/३७) नागाशनः (पुं०) मयूर।
० नाथवंश (जयो० ७२/११०) नागेन्द्रः (पुं०) धरणेन्द्र देव।
नाथचरः (पुं०) पति। 'गतेर्षयां नाथचरामङ्गना' (जयो० २/१४१) नाचिकेत: (पुं०) अग्नि, वह्नि।
नाथ-नामवंशः (पुं०) नाथ नामक वंश। अथ कश्चन नाग्न्यपरीषहजयः (पुं०) बाईस परीषहों में नग्नता का सहन नाथनामवंशसमयस्य स्म समीष्यते वतंसः। (जयो० करना।
१२/११०) नाटः (पुं०) [नट्+घञ्] नाचना, अभिनय करना।
नाथवंशः (पुं०) नाथवंश। नाटकं (नपुं०) [नट्+ण्वुल्] स्वांग, रूपक, रूपक का एक भेद। | नाथवंशिन् (पुं०) नाथवंश, वाले राजा। 'नाथवंशिन् इवेन्दुवैशिनः' नाटकीय (वि०) नाटक सम्बन्धी, नाटक विषयक।
ये भुतोऽपि परपक्ष शंसिनः' (जयो० ७/९१) नाटारः (पुं०) [नट्या अपत्यम् आरक्] अभिनेत्री का पुत्र। नाथ-सोम-संज्ञकः (पुं०) नाथवंश और सोमवंश। (जयो०७/३७) नाटिका (स्त्री०) [नाट्+कन्+टाप्] एक लघु नाटिका, प्रहसन। | नाथसोमाभिधः (पुं०) नाथ और सोमवंश। (जयो० ७/३७)
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नादः
५४०
नाभिगोलः
नादः (०) [नद्+घञ्] शब्द, ध्वनि, चीख, चिल्लाहट,
गरजना, दहाड़ना, निनाद, घोषणा। नादिन् (वि०) [नद्+णिनि] शब्द करने वाला, चिल्लाने वाला। नादेय (पुं०) [नदी+ठक्] जलीय, नदी में उत्पन्न, समुद्र में उत्पन्न। नादेयं (नपुं०) सेंधा नमक। नाना (अव्य०) [न+नाञ्] अनेक प्रकार के, विविध प्रकार
के, तरह-तरह के, अलग-अलग, पृथक्-पृथक्, विभिन्न। नानांद्रः (पुं०) [ननांदृ+अण्] ननद का पुत्र। नानाकुकर्मः (पुं०) अनेक प्रकार के दुराचरण। (जयो० २/) नानाकुचेष्टा (स्त्री०) अनेक कुचेष्टाएं, विविध दुष्प्रवृत्तियां।
इत्यादि सङ्गीतिपरायणा च सा नानाकुचेष्टा दधती नरङ्कषा। कामित्वमापादयितुं रसादितऐच्छत्समालिङ्गन चुम्बनादितः।।
(सुद० १२३) नानाकुयोनिः (स्त्री०) विविध निम्न योनियां। (वीरो० ११/१०) नानागृहं (नपुं०) अनेक घर, तरह तरह के घर। नानाचरणं (नपुं०) अनेक प्रकार का आचरण। नानाचरित्रं (नपुं०) तरह तरह के चरित्र चित्रण। नानाजडः (पुं०) अनेक अचेतन पदार्थ। नित्योऽहमेकः खलु
चिद्विलासी, नानाजडो दृश्यविधिर्विनाशी। (भक्ति० २६) नानाजातिः (स्त्री०) विविध जन्म स्थान, अनेक जातियां,
अनेक उत्पत्ति स्थल। नानाज्योतिः (स्त्री०) विविध प्रकाश। नानातपः (पुं०) अनेक प्रकार के तप। नानादरिणी (वि०) अनुकूलाभाव युक्त, प्रतिकूल प्रवृत्ति युक्त। नानादोषः (पुं०) अनेक दोष, विविध दुराचरण। नानाधर्मः (पुं०) अनेक धर्म। नानापदं (नपुं०) अनेक प्रकार पद/स्थान। नानाप्रकृतिः (स्त्री०) अनेक स्वभाव। (वीरो० १८/३४) नानाफलं (नपुं०) विविध परिणाम। अनेक कर्मविध फल। नानाभावः (पुं०) विविधभाव। नानामणि (स्त्री०) विधिमणिरत्न। नानामणि-मण्डलांशु (नपुं०) नाना प्रकार की मणिसमूह की
किरणें। (जयो० २४/२१) 'नानामणयस्तेषां मण्डलस्यांशुभिः
किरणैः' (जयो०वृ० २४/२१) नानामहिः (स्त्री०) विविध पृथिवियां। (सुद० १/३९) नानामहिम-विधानं (नपुं०) अनेक प्रकार के इष्ट दान।
(सुद० १/३९) ० विविध महिमा धारक।
नानारदा (स्त्री०) बहुत दांत। (जयो० १/६१) नानारस (स्त्री०) विविध रस युक्त। नानारूपा (वि०) विविध रूपों वाले। (जयो०० १/३२) नामावर्ण (वि०) भिन्न-भिन्न रंगों वाले। नानाविध (अव्य०) विविध रीति से। नानाविधान (नपुं०) नाना प्रकार। (वीरो० ४/३९) नानाव्यञ्जनं (नपुं०) विविध पकवान्। षड्रसमय-नाना___ व्यञ्जनदलमचि कलमवि च सुधायाः। (सुद०७२) नानुया (वि०) अनुगमन नहीं करने वाला। (जयो० २/७) नांत (वि०) अन्त रहित, अनन्त। नांदिकरः (पुं०) [नान्दी करोति-कृ+ट] नांदी पाठ कर्ता। नांदी (स्त्री०) [नन्दन्ति देवा अत्र-नन्द्+घञ्] हर्ष, सन्तोष,
खुशी। १. समृद्धि। नांदीनिनादः (पुं०) हर्षनाद। नांदीमुख (वि०) पुण्यस्मृति की भावना। नांदीवादिन् (पुं०) नांदी पाठ कर्ता। नाधिकलम्ब (वि०) दीर्धता रहित। (जयो० ११/८९) नापितः (पुं०) [न आप्नोति सरलताम-न। आप्न तन्] नाई,
क्षौर कर्मी। नापिप्यं (नपुं०) [नापित+ष्यञ्] नाई का व्यवसाय। नाभिः (पुं०/स्त्री०) [नह इञ्]
० तुण्डी -जयो० ३/४७, (सुद० २/४७) (वीरो० ३/२२) ० सूंडी। ० केन्द्र, केन्द्र बिन्दु (सुद०७४) ० मुख्यभाग, प्रधान, अग्रणी। ० आधारभूत। ० चक्रधूरी।
० नाभि राजा, प्रथम तीर्थंकर के पिता। नाभिक-नाभिक (वि०) नाभितक व्याप्त, नाभिस्तुण्डी यस्या,
एवं स्वार्थक प्रत्ययश्च (जयो०६/४६) नाभिका (स्त्री०) तुण्डी। 'सद्याप पद्मा हृदि नाभिकापि' (जयो०
१/५८) नाभिकुहरः (पुं०) तुण्डिकाप्रदेश, नाभिगत। (जयो० २४/१३५) नाभिकूपः (पुं०) नाभिगर्त। (जयो० १७/६७) गहीर नाभियुक्त।
(सुद० ११९) नाभिगर्तः (पुं०) नाभिकुहर, नाभिकूप, तुण्डिकाकूप। (जयो०
१७/६७) नाभिगोल: (०) तुण्डी। (जयो० ११/३२) तारुण्यलक्ष्म्या
गलिताथ नाभिगोलान्मषेः सन्ततिरेष भामिः। (जयो० ११/३२)
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नाभिचक्र
५४१
नामन्
नाभिचक्र (नपुं०) तुण्डी मण्डल। (जयो० २१/२०) नाभिजः (पुं०) नाभिराज। नाभिजातः (पुं०) कमल से उत्पन्न ब्रह्मा, विधि। (जयो०वृ०
१/३५) ० नाभिमण्डल (वीरो० ६/५) अकुलीन-स नाभिजातोकुलीनः' (जयो०वृ० १/३५) ० ऋषभदेव, आदिब्रह्मा, नाभिराजा का पुत्र, अन्तिम कुलकर अन्तिम मनु से उत्पन्न ऋषभ। सैवाभिजातोऽपि च नाभिजातवः समाजमन्यो वृषभोऽभिधानः। (वीरो०१/२)
० नाभिराजस्य जात सुपुत्रा(जयो०वृ० १९/१७) नाभिजात (वि०) हीन जातीय, अकुलीन 'अभिजातं न भवतीति
नाभिजातः' (जयो० २८/२९) नाभिजातकः (पुं०) नाभिनाल। 'सितिमानमिवेन्दुस्तकम
भिजातादपि' नाभिजातकम् (सुद० ३/१३) नाभिदरी (स्त्री०) नाभिगर्त, ताभि रूप गुहा। नाभिमेव दरी
गुहाम् (जयो० २२/१२) नाभिदप्नु (वि०) नाभिपर्यन्त (जयो० १८/२७) नाभिदेशः (पुं०) तुण्डिकाप्रदेश, तुण्डी के समीप। (जयो०
१३/९४) नाभिनरेशः (पुं०) अन्तिम कुलकर नाभिराज। (मुनि० १ ) नाभिनरेशसुनुः (पुं०) नाभिराज का पुत्र, ऋषभदेव, आदिदेव,
आदिब्रह्मा, वृषभदेव, आदिनाथ। (मुनि० १) नाभिपर्यन्तभागः (पुं०) नाभि का भाग। नाभिपुत्रः (पुं०) नाभिराज का पुत्र, ऋषभदेव। नाभिबिलं (नपुं०) नाभिगर्त। पिपीलिकालीक्रमकृत्य
प्रशस्तिर्विनिर्गता नाभिबिलात्समस्ति। (जयो० ११/३३) नाभिभवः (पुं०) नाभिरूप संसार। (सुद० १/२२) नाभिभ्रमणं (नपुं०) नाभिकुहर, नाभिगर्त। (सुद० २/४) नाभिमण्डलं (नपुं०) नाभिजात। (वीरो० ६/५) नाभिमान (वि०) अभिमान रहित। (वीरो० ८/१८) अहंकारशून्य। नाभिराज (पुं०) नाभिराजा, अन्तिम कुलकर। नाभिराजात्मजः (पुं०) ऋषभदेव। (मुनि० १०) नाभिल (वि०) नाभि से सम्बन्धिता नाभिवापी (स्त्री०) नाभिगा, नाभिभ्रमण। (जयो० २/४८) नाभिसरस् (नपुं०) तुण्डी गर्त रूप जलाशय। 'सतृष्णया
नाभिसरस्य वापि किलावतारः शनकैस्तुयापि' (जयो० ११/५) नाभिसुनुः (पुं०) ऋषभदेव। (जयो०७/५९) नाभीलं (नपुं०) [नाभि+गीष्+ला+क] १. नाभिगर्त, २. पीड़ा।
नाभरेसा (पुं०) नाभिराज के पुत्र।
नाभेरसा वृषभ आस सुदेवसूनु यो,
वै चचार समद्दग्दृढयोगचाम्। यत्पार्महस्यमृषयः पदमामनन्ति
स्वस्थः प्रशान्तकरण: परिमुक्तसङ्ग।। (दयो० ३०, दयो० ३१) नाभेयः (पुं०) ऋषभदेव, प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ।
(भक्ति० १८) (जयो० ५/२४) (जयो०२४/१२) नाभ्य (वि०) [नाभि+यत्] नाभि से सम्बन्ध रखने वाला। नाम (अव्य०) नामधारी, नामक। समस्युज्जयिनी नाम नगरीह
गरीमसी। नाम वाला, नाम युक्त। (दयो० ५) नाम धारक। (जयो० ५) ० निःसन्देह, निश्चय ही, सचमुच ही, वास्तव में, यथार्थ में, वस्तुत:- नृभवो नाम पन्थैको (दयो० १२०) ० संभावना-विषाऽस्या नाम सञ्जातं रजनीव निशोऽवनो (दयो०६) ० झूठ-मूठ का बहाना। ० आश्चर्य-धरातले साम्प्रतमर्दितोदरः प्रवर्तते हन्त स नामतो नरः। (वीरो० ९/१२) • दोष, निन्दा। ० वाक्यालङ्कारे-मधुर्धनी नाम वनीजनीनाम् काल: किलायं सुरभीतिनामा। (वीरो० ६/१३) ० यथार्थवाचक (सम्य० १३२) नाम सत्यमिव वाहतामिति मङ्गले न पठितुं समर्हति। (जयो० २/१५) (जयो०
११/७२) नामन् (नपुं०) [म्नायते अभ्यस्यते नम्यते अभिधीयते अर्थोऽनेन
वा म्ना+मनिन्] नाम, अभिधान, नाम रखना, बुलाना। 'नमयत्यात्मानं गम्यतेऽनेनेति नाम। ० केवल नाम। ० चिह्न, पहचान। (सम्य० १२२) 'धात्री वाहननामा राजाऽभूदिह'। (सुद०पृ० ३३) ० नाम्नि। (सम्य० १३५) .. गतिजातिनाम। ० संसार को प्राप्त कराना, अभिमुख करना। ० कर्मपुद्गल द्रव्य। ० जीव को नमाना। ० नाना रूप को प्राप्त करना। • भवान्तर की प्राप्ति होना। ० शुभाशुभ भाव होना। ० छठा कर्म का भेद छट्ट्ठ कम्मं तु भण्णेद णाम।
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नामकरणं
५४२
नामस्तवं
नामकरणं (नपुं०) नाम रखना। नामकरणं करणमिति नामैव,
नाम्नो वा करणं नामकरणम् नामतः करणं नामकरणं (जैन० लं० ५९४)
• नामकरण संस्कार। नामकर्मन् (नपुं०) नामकर्म, जिस कर्म के उदय से शरीर,
संस्थान, संगठन वर्ण, गन्ध आदि की प्राप्ति होती है। • चित्रकार की तरह विविध प्रदेश की प्रवृत्ति। यन्नमयति किलात्मानं नाना नरकादि। पर्यायैः शब्द यति तन्नामकर्म गति वगैरह बियालीस नामकर्म की प्रकृतियों का उदय जो होता है, वह उस उस तरह की साधन सामग्री के साथ इस आत्मा का समागम करा देता
है। (तत्त्वार्थसूत्र पृ० १२७) नामकायोत्सर्गः (पुं०) दोषों के शोधनार्थ कायोत्सर्ग। नामकृतिः (स्त्री०) नाम देना। एक जीव, एक अजीव, बहुत
जीव बहुत अजीव। नामक्षेत्रं (नपुं०) अपने आप में प्रवृत्त होना, जीव-अजीव या
उभय कारणों से निरपेक्ष अपने आप में प्रवृत्त होना। नामग्रहः (पुं०) नामोल्लेख करना, नामोच्चारण, नाम स्मरण
करना।
नामचतुर्विंशति (स्त्री०) नाम से या अक्षरों की पंक्ति से
चतुर्विंशति नाम रखना। नामच्छेदना (स्त्री०) दूसरे से अलग करना, सचित्त-अचित्त
द्रव्यों को दूसरे से अलग करना। नामजातिः (स्त्री०) यथार्थ जाति। (सम्य० १३२) नामजिनः (पुं०) जिन ऐसा शब्द कहना, 'जिणसद्दो णामजिणो
(धव० ९/६) नामजीवः (पुं०) 'जीव' नाम रखना, किसी भी जीवन गुण की
अपेक्षा न करके जीव नाम रखना। नामदिक् (स्त्री०) नाम से दिशा। नामदव्यं (नपुं०) 'द्रव्य' ऐसा नाम रखना। नामधर्मः (पुं०) धर्म संज्ञा देना, धर्म के गुण से रहित का भी
धर्म नाम रखना। नामधारक (वि०) नामधारी, नाममात्र का। नामधारिन् (वि०) नामधारी। नामधेय (वि०) नाम वाला। (जयो०७० ३/६९) स्फुरायमाणं
तिलकोपमेयं किलार्य खण्डोत्तमनामधेयम्। (सुद० १/१४) नामनमस्कारः (पुं०) नाम रूप में नमस्कार। नामनिक्षेपः (पुं०) अतद् गुण वस्तु में न्यास।
० अर्थ के विपरीत संज्ञाकर्म।
० पुरुष के द्वारा किया जाने वाला नामकरण।
० विवक्षित अर्थ से निरपेक्ष नाम। नामनिर्देशः (पुं०) नाम से संकेत। यस्य निर्देश इति नाम
क्रियते, नाम्नो व निर्देशो यथा अयं जिनभद्र इत्याद्यभिधान
विशेषभणनम्। नामपदं (नपुं०) नाम आश्रित पद। नामपदं नाम गौडोऽन्ध्रो
द्रमिल इति। नामपिण्डं (नपुं०) विवक्षा विना नाम। नामपुरुषः (पुं०) पुरुष नाम युक्त। नामपूजा (स्त्री०) अरहंत, सिद्धादि का नामोच्चारण करना। नामप्रतिक्रमणं (नपुं०) आयोग्य नामों के उच्चारण का परिहरण।
अयोग्यनाम्नामुच्चारणं नाम प्रति प्रतिक्रमणम्' (भ०आ०टी०वृ० २७५) नामप्रतिक्रमणं पापहेतुनामातिचारान्निवर्तनं प्रतिक्रमणं-दण्डक- गतशब्दोच्चारणं वा।
(मूला०वृ० १/११५) नामप्रत्याख्यानं (नपुं०) अयोग्य नाम का उच्चारण नहीं
करूंगा, ऐसा विचार। नामप्रमाणं (नपुं०) प्रमाण का नामकरण। नामबन्धः (पुं०) बन्ध नाम विशेष। नामबन्धक (वि०) नाम बन्ध वाला। नामभावः (पुं०) अपने आप में प्रवृत्त भाव। नाममंगलं (नपुं०) अरहंतादि का नाम। 'तत्थ णामंगलं णाम
णिमित्तंतर-णिरवेक्खा मंगलसण्णा' (धव० १/१७) 'तत्र
मङ्गलमिति नामैव नाममङ्गलम्' नामलक्षणं (नपुं०) वस्तु का लक्षित होना। नामलोकः (पुं०) लोक के शुभ-अशुभ का जानना। नामवर्गणा (स्त्री०) 'वर्गणा' शब्द व्यवहार। नामवेदना (स्त्री०) अष्टविध बाह्य अर्थ का आलम्बन न
करना। नामव्रतं (नपुं०) व्रत संज्ञा होना। नामश्रुतं (नपुं०) श्रुत/शास्त्र नाम रखना। नामसत्यं (नपुं०) जो अर्थ सत्य हो, फिर भी नाम रखना। नामसमः (पुं०) नाना रूप से जानना। नामसंक्रमः (पुं०) 'संक्रम' शब्द व्यवहार। नामसंख्या (स्त्री०) जिसकी कोई संख्या हो, एक जीव, दो भाव। नामसामायिकः (पुं०) गुण आदि की अपेक्षा न करके सामायिक
करना। उच्चारण में गुण को महत्त्व देना। नामस्तवं (नपुं०) चौबीस तीर्थंकरों का नाम रूप में स्मरण।
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नामस्थापना
५४३
नारी
नामस्थापना (स्त्री०) जिस नाम का स्थान हो।
उत्पन्न होना। नरकेषु भवं नारकमायुः (स०सि० ८/१०) नामस्पर्शः (पुं०) आठ स्पर्श में से किसी एक स्पर्श।
'नरकेषु तीव्र-शीतोष्णवेदनेषु यन्निमित्तं दीर्घजीवनं नामांक (वि.) नाम युक्त, नाम चिह्नित।
तन्नारकायुः' (त०वा० ८/१०) नामानन्तः (पुं०) कारण की अपेक्षा बिना अनन्त नाम। नारकिक (वि०) [नरक+ठक्+इनि] नरक में रहने वाला। नामानुयोगः (पुं०) जो अनुयोग हो उसका नाम। चरित्र से नारंगः (पुं०) [नृ+अगच्] १. संतरे का वृक्ष। (सुद० ७२) चरणानुयोग, वस्तु विवेचन से द्रव्यानुयोग।
आनं नारंगं पनसं वा-२. लम्पट, लालची। नामान्तरं (नपुं०) अपने आप में प्रवृत्त योग।
नारदः (पुं०) [नरस्य धर्मो नारं, तत् ददाति, दा+क] एक नामाभिधानं (नपुं०) नाम विशेष।
विद्वान् नारद और पर्वत नामक विज्ञ बीसवें तीर्थंकर में हुए नामावश्यकः (पुं०) आवश्यक नाम होना।
० नारद मुनि। (जयो०१० २४/१०) नामासंख्यातः (पुं०) असंख्यात संख्या का नाम।
०विरञ्चिपुत्र/श्रीकृष्ण वाभ्यां सहितस्य विरञ्चिपत्रस्य त्वादरस्य नामास्रवः (पुं०) आस्रव नाम होना।
सच्छविं विभर्ति। (जयोवृ० २४/१०) नामोत्तरं (नपुं०) उत्तर नाम युक्त।
० संक्लेश-नारदपर्वतवद्यत् कृतम् भवति तद् द्यूत। (जयो० नामोपक्रमः (पुं०) निकटवर्ती काल का उपक्रम।
२/१२७) नायः (पुं०) [नी+घञ्] नायक, नेता, अभिनेता, मार्गदर्शक ० सन्त, वीणाधारी सन्त। (जयो० १४/१) निर्देशका
नारद-परिव्राजकोपनिषदः (पुं०) नारद की कथावस्तु को ० नीति, उपाय।
प्रस्तुत करने वाला उपनिषद्। (दयो० २४) नायकः (पुं०) [नी+ण्वुल्] मार्गदर्शक, अग्रणी, नेता, अभिनेता। नारसिंह (वि०) [नरसिंह+अण्] नरसिंह से सम्बन्ध रखने वाला। (जयो० ३/९५)
नाराचः (पुं०) [नरान् आचमति नारं आचामति] लोह का बाण। ० गणमान्य, प्रधान, मुखिया। मानवानामग्रणी नायका ० नाराचसंहनन, वज्राकार बन्धन और वलयबन्धन से रहित, (जयो०वृ० ३/९५)
मर्करबन्ध। ० पूज्य व्यक्ति, प्रतिष्ठित व्यक्ति।
नाराचिका (स्त्री०) [नाराच++टाप्] सुनार की तुला, स्वर्णकार ० धीरोदात्त व्यक्ति।
की तराजू। ० निदर्शन की प्रधानता युक्त।
नारायणः (पुं०) त्रिषष्ठि शलाका पुरुषों में प्रसिद्ध नारायण नायिका (स्त्री०) [नायक+टाप्] स्वामिनी, अभिनेत, पुरुष, मुरारि। (जयो०वृ० १४/६६)
०प्रमुखा, (जयो०वृ० ३/११३) विशिष्ट स्त्री, नेतृत्वकर्ती ० श्री कृष्ण नारायण। (मुनि० २४) यो नारायणतां जगाम गणसंघिनी, संचालिका, निर्देशिका।
च हरिः । नारः (पुं०) [न+अण्] जल
नारायणता (वि०) परमात्मपना, परमात्मदशा। नरस्य नारं (नपुं०) नरसमूह, नर-समुदाय।
नारायणताऽऽप्तिहेतोर्जुनर्व्यतीतं भवसिन्धुसेतो। (वीरो० नारजीवनं (नपुं०) सोना।
१४/३२) नारक (वि०) नरकों में रत। नरकों में उत्पन्न।
नारिकरः (पुं०) नारियल, श्रीफल। (जयो० २४/८०) ० जो मनुष्यों को क्लेश पहुंचाते हैं। 'नरान् कायन्तीति । नारी (स्त्री०) [स्त्री जातिः न विद्यते अरिर्यस्या] (जयो० नरकास्तेषु भवा नारकाः' (जैन० ल०६००)
१५/३८) स्त्री, नारी, नर को जन्म देने वाली। (सुद० ० नरकगति में होना 'नरान् प्राणिनः कायति घातयति ११५) जिसके समान नर का दूसरा अरि न हो-तारिसओ कदर्थयति खलीकरोति बाधत इति नरकं कर्म, तस्यापत्यानि णत्थि अरी णरस्स अण्णेत्ति उच्चदे णारी। (भ०आ० नारकाः। (गो०जी०क०टी० १४७)
९७८) नारकगतिः (स्त्री०) नरकों में जाने की गति।
'अन्तर्विषमया नार्यो बहिरेव मनोहराः। नारकानुपूर्वी (स्त्री०) नरकगति के प्रायोग्य का अनुपूर्वी।
परं गुञ्जा इवाभान्ति तुलाकोटिप्रयोजना:।। (जयो० २/१४६) नारकायु (स्त्री०) नरक में दीर्घ समय तक रहना, नरक में या नाम नारीति विभर्ति मे साऽरिभावमायात्यधुना विशेषात्।
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नारीदलं
५४४
नासादारु
विचारतोऽहं परिवारलोके पुनः पदेनैव तथावलोके।
(दयो० ३७) करोति नारी जनुरत्रसाथक विनाव्रतैर्जीवनमस्त्यपार्थकम्।।
_ (समु० ४/३२) नारी बिना क्वनुश्छाया निश्शाखस्य तरोरिव। (वीरो०८/४) नारीदलं (नपुं०) स्त्री समूह। (जयो० १४/९६) नारीप्रसंगः (पुं०) कामासक्ति। नारीरत्न (नपुं०) स्त्रीरत्न, श्रेष्ठ स्त्री। नार्यणः (पुं०) [नारीणाभङ्गमिव शोभनमंगं यस्य] संतरा, नारंगी। नाल (वि०) नरकुल का बना हुआ। नालं (नपुं०) नाल, पोला, खोखला, नालदण्ड, कमलदण्ड।
० धमनी, शरीर की नालिका। ० हरताल। ० मूठ।
० नाली, नहर, जलप्रवाह की नाली। नाला (स्त्री०) [नल्+ण+टाप्] पोला डंठल, कमलनाल। नालिः (स्त्री०) [नल+णिच् इन]
० नालिका, शरीर की धमनी। ० कमलनाल। ० समय द्योतक यन्त्र।
० नहर, नाली। नाली देखो ऊपर। प्रणालिका। नालिकः (पुं०) [नलमेव नालमस्त्यस्य ठन्] भैंसा। नालिकं (नपुं०) कमलदण्ड। नालिका (स्त्री०) ० वाद्ययन्त्र, बांसुरी।
० कमलपुष्प। ० एक प्रमाण, माप, साढ़े अड़तालीस लव प्रमाण काल। 'अड़तीस लवे अद्धलवं च घेत्तूण एगा णालिया होदि।'
(धव० ३/६५) नालिकेरः (पुं०) नारियल, श्रीफल। (जयो० २४/८०) नाली (स्त्री०) नालिका, साढ़े अड़तालीस लव प्रमाण काल। नालीकः (पुं०) मिथ्याभाषण/झूठ रहित सत्य, यथेष्ठ। अलोकस्य
विरोधी-'नालीक: पिण्डजेप्यज्ञे' इति विश्वलोचने (जयो०३० २८/६४) ० नालीकानां मूर्खाणां विप्रिय इति। ० नाल्यां कायति-बाण।
१. भाला, २. कमल, ३. कमलदण्ड। नालीकिनी (स्त्री०) [नालीक-इनि+ङीप्] कमल गुच्छ,
कमलसमूह।
नावा (पुं०) नौका, जलयान। (सुद० १०३, जयो० २२/५२) नावान्तः (वि०) १. गहरी नदी, २. नाव का प्रान्त। 'नावा
जलयानेन कृत्वान्तः प्रान्तो यस्या ता' यद्वा न विद्यतेऽवान्तो
यस्यास्या नावान्ता (जयो० २२/५५) नाविकः (पुं०) [नावा-तरति-ठन्] चालक, पोतवाहक, मल्लाह,
नौयात्री। १. कर्णधार, ले जाने वाला, पार उतारने वाला। नाविन् (वि०) मल्लाह, केवट। नाव्य (वि०) [नावा तार्य नौ यत्] जहाज को ले जाने वाला। नाव्यं (नपुं०) नयापन, नूतनता। नाशः (पुं०) [नश्+घञ्] ध्वंस, घात, विनाश, क्षय, हानि।
० 'दृग्मोहनाशान्ननुजायमानं' (सम्य० १२३) ० नाशः पुनः स्वभाव प्रच्यवनम्। • मृत्यु, मरण। (सम्य० ५९) ०संकट। ० परिकार, परित्याग। ० अभाव।
'कुज्ञाननाशेऽपि भवेत्तथा नः'। (सम्य० १३७) नाशक (वि०) [नश् णिच्ण्वुल] विध्वंसक, घातक, विनाशक,
अन्तक। (जयो०वृ० १/९४) नाशगत (वि०) नाश को प्राप्त, क्षय को प्राप्त। नाशन (वि०) नष्ट करने वाला, घात करने वाला, क्षय करने
वाला, हटाने वाला, समाप्त करने वाला। नाशनं (नपुं०) विनाश, घात, विध्वंस, नष्ट होना, दूर करना। नाशिन् (वि०) [नश्+णिनि] विध्वंसक, घातक, नष्ट करने
योग्य, क्षय करने योग्य। (जयो० ३/१४) नाष्टिकः (पुं०) [नष्ट ठञ्] खोई हुई वस्तु का स्वामी। नासा (स्त्री०) [नास्+अ+टाप्] नाक, घ्राण। (जयो० १/६१,
जयो० ५/८३)
० घ्राणेन्द्रिय, पञ्चेन्द्रियों में द्वितीय घ्राणेन्द्रिय। नासाग्रं (नपुं०) नाक का अग्रभाग। नासाछिद्रं (नपुं०) नथुना। नासादृशा (स्त्री०) नासाग्रदृष्टि। 'योग-भोगयोरन्तर खलु नासादृशा
समस्य। (सुद०७०) नासादृष्टिः (स्त्री०) नासाग्रदृष्टि, ध्यान की एक अवस्था,
जिसमें नासाग्रदृष्टि को महत्व दिया जाता है। नासादृष्टिरथ प्रलम्बितकरो ध्यानैकतानत्वतः' श्रीदेवाद्रिवदप्रकम्प इति
योऽप्यक्षुब्धभावं गतः।। नासादारु (नपुं०) नासिक की लकड़ी, चौखट के ऊपर का भाग।
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नासापरिस्रावः
५४५
निःश्रयणी
नासापरिस्रावः (पुं०) नाक का बहना, सर्दी लगना।
० स्थायित्व। नासापुट (नपुं०) नथुआ, नथुना, नाक के विवर, नाक छिद्र। ० कुशलतानिपुण। नासारन्ध्र (नपुं०) नथुआ, नथुना।
० नियन्त्रण, निग्रह, निरोध। नासावंशः (पुं०) नाक की हड्डी।
० आश्रय, शरण। नासासंस्कारः (पुं०) नाक का मैल निकालना, नाक साफ | नि:कांक्षितः (पुं०) देशकांक्षा और सर्वकांक्षा रहित सम्यग्दृष्टि। करना।
कांक्षा न होना (सम्य० ९१) 'कांक्षानिरासो वा नि:कांक्षता' नासाम्रावः (पुं०) नाक बहना।
जो ण करेदि दुक्खं कम्मफले तह य सव्वधम्मेसु। सो नासिका (वि०) [नास्+ण्वुल्+टाप्] नाक, घ्राण।
णिक्कंखो चेदा सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो।। (समयसार २४८) नासिक्य (वि०) [नासिका+ण्यच्] अनुनासिक, नाक में होने | निःश्रयणी (स्त्री०) नसैनी, सीढ़ी, जीना, पदपंक्ति, सोपानवाला।
'निश्चिता श्रेणिः सोपानपंक्तिः।' नासिक्यः (पुं०) नाक, घ्राण।
नि:श्रेणिः (स्त्री०) खजूरवृक्षा निःश्रोणिरधिरोहिण्यां खजूरी नासीरं (नपुं०) [नासाय-इते-ईर+क] सेना का अग्रभाग, पादपे स्त्रियाम् इति वि (जयो० २४/५) आगे बहना।
निःश्रेणी (स्त्री०) नसैनी, सीढी, सोपान। (जयो० ११/५, नास्ति (अव्य०) [न+अस्ति] यह नहीं है, असद्भाव, एक ___मुनि० ११)
अंश का अभाव। नहीं है। (सुद० ९४) परकीय द्रव्य, निःशेषीकरणं (नपुं०) समस्त, पूर्ण। (जयो० २/११०) क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा नास्ति रूप। ० स्याद्वाद निःश्रेयसः (पुं०) मोक्ष, मुक्ति, रत्नत्रय, अपवर्ग। (जयो० सिद्धान्त की एक पद्धति, जिसमें वस्तु का सर्वथा निषेध | १२/२८) समस्त कर्मों की अभाव रूप अवस्था। या अभाव नहीं किया जाता, अपितु कोई भी वस्तु से | निःशङ्कः (पुं०) भय रहित, दृढ़ श्रद्धशील, देशशंका और विरुद्ध धर्म के बिना पूर्णता को प्राप्त नहीं होती है।
सर्वशंका रहित। निर्गतो निः शंकस्तस्य भावो निःशंकता नास्ति-अवक्तव्यं (नपुं०) स्याद्वाद सिद्धान्त का छटा भंग, (मूला०वृ० ५/४)
वस्तु के सद्भाव और असद्भाव में युगपत विवक्षित होना। ० संदेहाभाव। (सम्य० ९०) नास्तिकः (पुं०) नास्तिक पुरुष, धर्म, देश और गुरु से रहित ० शंकानिरास। (दयो० ९९) पुरुष नास्तिक है। (वीरो०वृ० १/३४)
० सन्मार्गे अंसशया। ० अनीश्वरवादी, विश्वास नहीं रखने वाला, आगम | निःशङ्कितः (पुं०) संदेहाभाव, सगुण। (भक्ति०७) 'निर्गतं वि प्रामाणिकता को नहीं मानने वाला।
शंकितं यस्मादसौ निःशङ्कितम्। नास्तिकत्व (वि०) नास्तिक वादपना। (जयो०५/४४) निःशेष (वि०) १. पूर्ण सुखाना (जयो० १/२६) २. अखिल नास्तिक्यं (नपुं०) [नास्तिक+ष्यञ्] नास्तिकता।
(दयो० १/५६) ३. कुछ भी नहीं। (सुद० ३५) नास्तिता (वि०) नास्तिकपना। (वीरो० १९/१३)
निःशर्वरीत्व (वि०) रात्रि का अभाव। नास्तिद्रव्यं (नपुं०) अर्थान्तर रूप द्रव्य, 'घट से भिन्न पर ___० स्त्री का अभाव। (जयो० १८४४३) द्रव्या '
० ब्रह्मचारित्व। नाहः (पुं०) [नह+घञ्] ० बन्धन, निग्रह, ० फंदा, जाल, ० निःशाणं (नपुं०) ध्वजदण्ड। (जयो० १९/६०) मलाविरोध।
निःशेषता (वि०) सम्पूर्णता (दयो० १६) सदाचर। नाहुषः (पुं०) एक नृपति का विशेषण।
निःशेषवाचनाविनयः (पुं०) विवक्षित आगम की वाचना में नि (अव्य०) संज्ञा के पूर्व लगने वाला उपसर्ग-० नीचे की | विनय सूत्र, अर्थ, हित और नि:शेष में विनय। ओर, निम्नता निषद।
निःश्वसंतः (पुं०) श्वासोच्छवास युक्त। (जयो०८/८४) ० समूह, संग्रह, निकर, निकाय।
निःशत्रः (वि०) शत्रुशून्य, शूरवीर। (जयो० ६/१०९) ० तीव्रता, निगृहीत।
निःक्षेपः (पुं०) [निर्+क्षिप्+घञ्] फेंकना, भेजना, व्यय ० निदेश, आदेश।
करना।
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निःश्वासितः
५४६
निकाम
निःश्वासितः (पुं०) नीचे सांस लेना।
निःसही (स्त्री०) विघ्ननिवारक मन्त्र। (जयो० २४/ ) निःश्वासः (पुं०) [निर्+श्वस्+घञ्] श्वांस निकालना, सांस निःसाधन (स्त्री०/वि०) अपर साधन वर्जित। (जयो०८/९३)
छोड़ना, लम्बा सांस लेना, आह भरना। अधोगमनस्वभावो निःसार (वि०) सार हीन, व्यर्थ। (जयो०७/२४) (वीरो०१/११) नि:श्वासः'
निःसारणं (नपुं०) [निर्+सृ+णिच्+ ल्युट्] १. निष्कासन, बाहिर निःसरणं (नपुं०) [निर्+सृ+ल्युट]
करना, निकाल बाहर करना। २. द्वार, निकास, दरवाजा। ० बहिगर्मन, बाहर जाना।
निःसारपरिणति (स्त्री०) असारता। (जयो०वृ० ११/९४) ० महाप्रयास, अभिनिष्क्रमण।
निःसारभागः (पुं०) सिंचन भाग। (जयो० ३/५०) ० निकास, द्वार।
निःसृतज्ञानं (नपुं०) १. अवग्रह, ईहादि का ज्ञान। २. अभिमुख्यार्थ ० मृत्यु, मरण, घात।
का ग्रहण। (मूला० १२/१८७) ० उपाय, उपचार।
निःसवः (पुं०) [निर्++अप्] शेष, बचा हुआ, अवशिष्ट। ० मुक्ति, मोक्षा
निःस्रावः (पुं०) [नि+स्तु] व्यय, बहना, खर्च करना, व्यर्थ नि:स्वहरहित (वि०) प्रीति रहित। (जयो०८/४१)
होना। निःस्नेहता (वि०) प्रेमा भावपना, प्रेम का अभाव। (जयो० निकट (वि.) [नि समीपे कटति नि+कट्+अच] समीप, ८/२०)
सन्निकट, पास में दूरता रहित। (जयो० ९/५) निःस्वजनः (पुं०) दरिद्रजन। (सुद० ११५)
निकटक देखें ऊपर। नि स्व (वि०) धन रहित। (जयो० २२/१४)
निकटस्थलकालः (पुं०) समीप का समय। (जयो० १८/९३) निःस्वजनी (स्त्री०) धनरहित लोग (सुद०७४)
निकरः (पुं०) [नि कृ+अच्] ० समूह, समुदाय, निकाय। निःस्वनं (नपुं०) कोलाहल, शब्द, गुंजार। (जयो० ७/११) ० ढेर, झुण्ड। नि:स्वानः (पुं०) दीन, निर्धन। (जयोवृ. ३/६)
० संग्रह। नि:स्वार्थता (वि०) त्यागना, परित्यक्तता। (जयो० २/७४) 'समस्त-नारी-निकरोत्तमाङ्गमण्डनरूपा' (दयो० १०९) निःस्वेदपदं (नपुं०) धर्मजकव्याज, पसीना बहना। (जयो० निकर्तनं (नपुं०) [नि+कृत्+ल्युट] काट डालना. छाटना। २७/१२७)
निकर्षणं (नपुं०) [नि+कृष्+ल्युट्] यात्री स्थल, अतिथिगृह। निःस्वागतगणना (स्त्री०) दरिद्र के आगमन की गणना। 'वयं ० विश्रामस्थल।
तु नि स्वेभ्योदरिद्रेभ्य आगत गणनैव गणना। (जयो० ० खेल का मैदान। १२/१४३)
० ढालान। निःस्पृह (वि०) अनासक्त। (जयो० २/१२)
निकषः (पुं०) [नि+कष्+ध+अच] परीक्षण, कसौटी, परीक्षोपल नि:स्वार्थ (वि०) स्वार्थरहित।
आदर्श रेखा। (सम्य० ८९) (जयो० २/४७) 'स्वर्णकं हि नि:संकोच (वि०) अपगत-लज्जा, लज्जारहित। (जयो० ४/५५) निकषे परीक्ष्यते' (जयो० २/४७) (जयो० ११/५१) निरुह। (जयो० १४/९५)
निकष-ग्रावन् (पुं०) कसौटी का पत्थर। निःसंगः (पुं०) १. सर्व परिग्रह रहित। (दयो० २।८) (भक्ति० निकषपाषाण: (पुं०) कसौटी का पत्थर।
१६) २. बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह से रहित साधु। निकषा (स्त्री०) [नि कष् अच्+टाप] निकट, समीप, पास, अदूर। (मुनि० ७)
निकषात्मजः (पुं०) राक्षस। नि:संगतः (पुं०) परिग्रहरहित, सम्पूर्ण वस्तुओं के परित्याग। निका (स्त्री०) ग्राहणी। (जयो० २४/२९) निःसंगता (वि०) अपरिग्रहता। (वीरो० १८/१२९)
निकाचः (पुं०) निकाचन, छंदन, निमंत्रण। निःसरणात्मकः (पुं०) अशुभ का हो जाना, तैजस् शरीर का | निकाचना (वि०) कर्म का उत्कर्षण अपकर्षण होना। बाहर निकल जाना।
निकाम (वि०) [नि। कम्+घञ्] पर्याप्त, अत्यधिक निःसह (वि०) [निर्+सह] असह्य, नि:शक्त, बलहीन, ० विपुल, बहुत, अधिक। शक्तिक्षीण, श्रान्त, थका हुआ, परेशान।
० इच्छुक।
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निकामः
५४७
निक्षिप्तदोषः
निकामः (पुं०) कामना, इच्छा, चाह। १. निष्क्रिय, निरीह। | निकुलीनिका (स्त्री०) [नि+कुवीन+कन् टाप्] परम्परागत (जयो० २४/९०)
विशेषता युक्त, अपने कुल की कला में प्रवीण। निकाम (अव्य०) यथेच्छ, इच्छानुसार।
निकृत (भू०क०कृ०) [नि+कृ+क्त] विजित, तिरस्कृत, प्रवंचित, निकायः (पुं०) [नि+चि+घञ्] ० समूह, समुदाय, संघात, हटाया गया, कष्टग्रस्त, क्षतिग्रस्त, दुष्ट, अधम नीच।
संकाय, भाग। (सुद० २६) 'निचीयन्ते इति निकायाः' | निकृति (वि०) [नि+कृ+क्तिन्] वञ्चना, ठगना, छल करना। 'स्वधर्म विशेषापादितसामर्थ्यात् निचीयन्ते इति निकायाः' 'निक्रियतेऽनया परः परिभूयत इति' निकृतिः। (त०भा० (त०वा० ४/१)
८/१०) ० तरह, प्रकार-'देवाश्चतुर्णिकायाः'1 (त०सू० ४/१)
० धन या कार्य की अभिलाषा। 'अतिसन्धानकुशलता धने ० अधिक काय-'अधिको वा कायः निकाय: कार्ये वा कृताभिलाषस्य वंचना निकृतिः' (भ०आ०टी०२५) यथा-अधिकदाहो निदाह इति'।
० दुष्टता, नीचता। ० घर, आवास, स्थान।
० धोखा। ० धर्म परिषद्।
० तिरस्कार, अपमान, अपराध। • शरीर।
निराकरण, अस्वीकृति। ० उद्देश्य, निशाना।
० दरिद्रता निर्धनता। ० परमात्मा।
० हीनता, कमी। निकाय्यः (पुं०) [नि+चि ण्यत्] निवास, आवास, घर, स्थान, निकृन्तनार्थ (वि.) कष्ट के प्रयोजनार्थ। (वीरो० १६/८) निकारः (पुं०) [नि+कृ+घञ्]
निकूतन (वि०) काटने वाला, नष्ट करने वाला। ० उड़ाना, धान्य फटकना, साफ करना।
निकृष्ट (वि०) [नि+कृष्+क्त] अधम, नीच, दुराचारी, गिरा ० उठाना।
हुआ, घृणित, बहिष्कृत। ० वध, हत्या।
निकेतः (पुं०) [निकेतति निवसति अस्मिन् नि+कितु-घञ्] ० अनादर, अवज्ञा, क्षति, दुष्टता। पराभय, तिरस्कृत। घर, आवास, भवन, आलय, निकुञ्ज, कुञ्ज। (जयो० ५/१)
निकेतनः (पुं०) [नि+कित्+घञ्] प्याज। ० द्वेष, विरोध।
निकेतनं (नपुं०) [नि-कित्+ल्यु] भवन, आलय, निवास निकारणं (नपुं०) [नि कृ+णिच्+ल्युट्] वध, हत्या।
स्थान। (जयो० २४/४१) शिविरस्थान-'उज्ज्वलस्य निकाशः (पुं०) [नि+काश्+घञ्]
श्वेतवर्णस्य निकेतनस्य निवासस्थानस्य' (जयो० १३/१०९) ० दर्शन, दृष्टि।
निकेतिवृत्तिः (स्त्री०) आधारभूत वृत्ति। (सम्य० ४०) ० क्षितिज।
निकोचनं (नपुं०) [नि कुच्+ल्युट्] सिकुड़न, सिमटन, संकुचन। ० सामीप्य।
निक्वणः (पुं०) संगीतस्वर, ध्वनि। • समानता, समरूपता।
निक्षा (स्त्री०) [निश्+अ+टाप्] लीख। निकाषः (पुं०) [नि+कष्+घञ्] खुरचना, रगड़ना। निक्षिप् (सक०) डालना, छोड़ना, रखना। (जयो०वृ० १/५९) निकुंचनः (पुं०) [नि+कुंचल्युट्] एक तोल, १/४ कुदव के निक्षिप्त (भू०क०कृ०) [नि+क्षिप्+क्त] • फेंका हुआ, डाला बराबर। आठ तोले बराबर।
हुआ, रक्खा हुआ। ० समर्पित (जयो०५/१३) ० अस्वीकृत, निकुंजः (पुं०) लतामण्डप, लतागृह।
परित्यक्त (वीरो० २१/१५), प्रस्थापित (जयो० १३/८९), निकुंज (नपुं०) पर्णशाला, कुटिया, आवास स्थान।
० भेजा हुआ, आहित, ० स्थापित किया हुआ-'निक्षिप्तः निकुम्भः (पुं०) [नि+कुम्भ+अच्] ० एक अनुचर, ० स्थापितः, सचित्तादिषु परिनिक्षिप्तमाहारम्
सुन्द-उपसुन्द का जनक। • गण्डस्थल-'हस्तिनो निकुम्भात् । निक्षिप्तदोषः (पुं०) हरित वस्तु से आच्छादित आहार, सचित्त गण्डस्थलात्' (जयो०८/३५)
पृथ्वी आदि के ऊपर आसन, शय्यादि का लगाना। निकुरं (नपुं०) झुण्ड, समूह, संग्रह, समुच्चय, समुदाय। 'सचित्त-पृथिव्यादेस्त्रसानां वा उपरि पीठफलकादिक
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निक्षिप्त दृष्टिः
५४८
निगमनं
स्थापयित्वा अत्रशय्या कर्तव्येति या दीयते वसतिः सा पाठ। द्विजवणे निष्क्रियतां दृष्ट्वा किं निगदानि भ्रात्द्दन्। निक्षिप्ताः' (भ०आ०टी० २३०)
(सुद० ९७) निक्षिप्त दृष्टिः (स्त्री०) परित्यक्त दृष्टि। (वि० २१/१५) निगदं (नपुं०) स्तुति पाठ करना, सस्वर पाठ करना। निक्षेपः (पुं०) [नि+क्षिप्+घञ्] ० फेंकना, डालना, ० न्यास, ० भाषण, प्रवचन, प्ररूपण।
धरोहर, अमानत। ० स्थापना, नियत, निश्चित, ० भेजना, ० व्याख्या, उल्लेख। ० परित्याग करना। • मिटाना, सुखाना। • जैन दर्शन में ० छोड़ना, (सुद० ९७) प्रसिद्ध एक पद्धति, जो वस्तु की विविधता का न्यास निगद् (सक०) १. कहना, बोलना, (सुद० ७०) २. भाषण करता। • जो अवस्था हो वैसा मानना। (त०सू०पृ० १४) करना, पाठ करना। (जयो० १/२०) ३. स्तुति करना, निक्षिप्यते इति निक्षेपः स्थापना। ज्ञानं प्रमाणमात्मादेरुपायो प्रार्थना करना। जातिं श्रीजिनवाचमेव निगदद्यस्याः न्यासः इष्यते' (लघीयस्त्रय १० २) णिच्छए णिण्णए प्रसादाद्यतिः। (मुनि० १५) 'आनुकूलवचनं निजगाद' खिवदि त्ति णिक्खेवो' (धव० १/१०) उपायः कारणं (जयो० ४/११) 'निजगाद-कथितवांस्तदा' (जयो० ४/११) आत्मादिज्ञानस्य नामादि न्यासो निक्षेप इष्यते - निगद्यते (जयो०वृ० १/२०) (न्यायकुमुद-५२)
निगदत (वि०) बात करते हुए। (जयो०वृ० १८/७०) निक्षेपणं (नपुं०) [नि+क्षिप् ल्युट्] डालना, फेंकना, न्यास निगदित (वि०) ०कथित, प्ररूपित, (सम्य० १५४) कहा करना, रखना, विरचना।
गया, प्रतिपादित। 'जिनशासनस्य चरणानुयोगे निगदितमस्ति' निक्षेपणासमितिः (स्त्री०) प्रतिलेखन समिति, कमण्डलु, पुस्तक (जयो०वृ० १/२२) आदि का सावधानी पूर्वक रखना।
निगदितं (नपुं०) प्रवचन, भाषण, कथन, प्ररूपण। निक्षेपणीकथा (स्त्री०) वस्तु प्रतिष्ठापन कथा, | निगम् (सक) जाना, निश्चय करना।
निक्षेपकोविदकथा, जो यथार्थ चित्रण में समर्थ हो। निगमः (पुं०) [नि+गम्+घञ्] निक्षोदिमः (पुं०) पर्वतीय खनन, सुरंग से पृथ्वी का उत्खनन। ० वेद पाठ। निखननं (नपुं०) [नि+खन्+ल्युट्] खोदना, उत्खनन करना, ० शास्त्र, ग्रन्थ- श्रीनिमित्तनिगमं प्रपश्यता भाविवस्तु निकालना।
तदपेक्ष्यते मता। (जयो० २/५८) निखर्व (वि०) टिंगना।
० वाणिग्जन। (जयो० २/११३) निखात (भू०क०कृ०) [नि+खन्+क्त] ० निकाला हुआ, ० व्यापार, धन्धा, व्यवसाय यः क्रीणाति समर्घमितीदं खोदा हुआ। ० गाढ़ा हुआ।
विक्रीणीतेऽवश्यम्। विपणौ सोऽपि महर्घ पश्यन् कार्यमिदं निखिल (वि०) [निवृत्तं खिलं शेषो यस्मात्] सम्पूर्ण, पूर्ण, निगमस्य। (सुद० ९४)
सकल, व्याप्त। 'निखिलेऽप्याकाशे' (जयो०वृ० १/२३) ० मण्डी, मेला, संग्रह स्थान। निखिलात्म (वि०) सम्पूर्ण आत्म युक्त। (वीरो०२२/२९) ० निश्चय, विश्वास, तर्क। निखिलोत्करः (पुं०) चारों ओर का समूह, सम्पूर्ण ढेर।
- निगमो वणिग्जननिवासः। ०वणिकों का निवास, मण्डी क्षेत्र। निगड (वि०) [नि+गल+अच् लस्य डः] ०बंधा हुआ, जकड़ा - निगमः प्रभूत-तर-वणिग्वर्गावासं (जैन०ल० ६०६) हुआ, श्रृंखलित।
निगमनं (नपुं०) कथन, निरूपण, प्ररूपण, तर्क प्रस्तुतीकरण, निगडः (पुं०) जंजीर, बेड़ी,
उपसंहार, अध्यात्म हेतुओं का कथन। निगडं (नपुं०) हथकड़ी।
० प्रतिज्ञा का उदाहरण। निगडदोषः (पुं०) कायोत्सर्ग का दोष।
० हेतुपूर्वक पक्षवचन प्रस्तुत करना। निगडित (वि०) [निगड+इतच्] जकड़ा हुआ, बंधा हुआ, ० प्रतिज्ञा का उपसंहार-'प्रतिज्ञाया उपसंहारः साध्यधर्मजंजीर युक्त, श्रृंखलित।
विशिष्टत्वेन प्रदर्शनं निगमनम्' (प्रमेयरत्नमाला० ३/५१) निगणः (पुं०) यज्ञ धूम।
० जाना, पलायन करना, छोड़ जाना। 'नक्षत्रता दृष्टिमपि निगदः (पुं०) [नि+गद्+अप्+घञ्] ० स्तुति पाठ, सस्वर | नाञ्चति सितधु तेर्निगमनतः। (सुद०६९)
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निगमानाभासः
५४९
निचुलक
निगमानाभासः (पुं०) साध्यधर्म का दृष्टान्तधर्मी में उपसंहार। ० पराजय, हार। निगरः (पुं०) [नि+गृ+अप्] निगलना, डकारना, गले उतारना। ० नष्ट करना, दूर करना। निगरणं (नपुं०) [नि++ ल्युट्] निगलना, गले उतारना।
० दण्ड। -स्वेच्छाप्रवृत्तिनिवर्तनम्। निगरणः (पुं०) गला, कण्ठ भाग।
- प्राकाम्याभावो निग्रहःनिगलः (पुं०) [निगरं, निगार-रलयोरभेद:] • निगलना, उतारना।
- स्वपक्षसिद्धिरेकस्य निग्रहोऽन्यवादिनः। सांकल। (दयो०६५) ० गला, कण्ठभाग तत्तदाप्य निगले
- निग्रहो वादि-प्रतिवादिनो। हि विभूनामर्पणीयमिति युक्तिरनूना। (जयो०४/३२) 'निगले
निग्रहकारिन् (वि०) निग्रह करने वाला। (मुनि० २) कण्ठभागेऽर्पणीयम्' (जयो०७० ४/३२) मालां जयस्य
निग्रहणं (नपुं०) परिहार। पराजययस्यासतां निग्रहणे च निष्ठा निगले वदति क्षेप्तुं किल स्मरः स्मर माम्। (जयो०
मतां सतां संग्रहणे घनिष्ठा। (जयो० १/१६) ६/११७) भुजपाशेन दृढन्तं वधान निगलेऽत्र विलसन्तम्।
निग्रहण (वि०) दबाने वाला। (जयो० १६/६०) निगालनं (नपुं०) धावन, ०धोना, प्रक्षालन अमिसिञ्चना।
निग्राहः (पुं०) [नि+ग्रह्+घञ्] दण्ड, सजा।
निग्रहबुद्धिः (स्त्री०) द्वेष से पीडित होना, व्यर्थ उपवासादि (जयो० १२/१३२) निगीयते दिलाना, (समु०)
करना। निगीर्ण (भू०क०कृ०) [नि+गृ+क्त] निगला हुआ, डकारा
निग्रहस्थानं (नपुं०) अपने पक्ष का निराकृत होना। हुआ, छिपा हुआ, गुप्त।
निघ (वि०) [नि+हन्] एक सा। निगूढ (वि०) [नि+गुह्+क्त] ० रहस्यपूर्ण, प्रच्छिन्न, ढका निघः (पुं०) गेंद, कन्दुक। हुआ। ० गुप्त, अदृश्य। (जयो० १२/५९)
निघंटुः (स्त्री०) [नि+घण्ट् कु] शब्दावली, एक ग्रन्थ विशेष। -अतिनिगूढपदं स पुनः कुतश्चतुरशीतिकलक्षभवेष्वतः' निघर्षः (पुं०) [नि+घृष्+घञ्] रगड़ना, घर्षण, घोटना। (समु० ७/८)
(जयो० ५/७८) निगृहनं (नपुं०) [नि+गुह्+ल्युट्] छिपाना, दुराना।
निघर्षकुण्डी (स्त्री०) घोटने का साधन। निगोदं (नपुं०) जीवों का आश्रय विशेष स्थान, जीवों का | निघर्षणं (नपुं०) रगड़ना, घर्षण करना।
नियत स्थान। 'नियतां गां भूमि क्षेत्रं निवासमनन्तानन्तजीवानां निघसः (पुं०) ० लाना, ० भोजन करना। ददातीति निगोदम्। (गो जी०टी० १९१)
निघातः (पुं०) [नि+हन्+घञ्] प्रहार, अभिघात, दमन, क्षय निगोदजीवः (पुं०) साधारण रूप में एक ही शरीर वाला
नाश, अभाव। जीव, जो निगोद भाव से जाते हैं। ‘णिगोदेसु जीवंतु,
निघातिः (स्त्री०) [नि+हन्+डूञ्] लोहे का गदा, मुद्गर। जिगोदभावेण वा जीवंति त्ति णिगोदजीवा' (धव० ७/६०६)
निघुष्टंक (नपुं०) [नि+घुष्+क्त] ध्वनि शब्द। निगोदशरीरं (नपुं०) निगोद का शरीर।
निघूर्णा (स्त्री०) चालन, संचालन। (जयो० ३/६१) निगोप (वि०) सुरक्षित, रक्षित, गुप्त। (वीरो० १८/४१)
निघ्न (वि०) [नि+हन्+क] ० आज्ञाकारी, अनुसेवी, आश्रित। _ 'सन्निधानमिवाऽऽभान्तं यत्नेनैवं निगोपय (सुद० १०४)
० संहारक, संकटहरण। (जयो० १०/१५) निगोपयन्-छिपना, ढकना, आच्छादित करना। (जयो० २४/३८)
निचयः (पुं०) [नि+चि+अच्] संग्रह, समूह, समुदाय, राशि, निग्गंथनाठपुत्तः (पुं०) महावीर। (वीरो० २०/२२)
ढेर, समुच्चय, ओघ। निग्रंथनं (नपुं०) [नि+ग्रन्थ्+ल्युट्] वध, हत्या। निग्रह (सक०) रोकना, ०वश में करना, आधीन करना आज्रय
निचायः (पुं०) [नि+चि+घञ्] समूह, ढेर, समुदाय। बनाना (सुद०१/२७)
निचित (भू०क०कृ०) [नि+चि+क्त] ० संचय, पूरित, ०भरा निग्रहः (पुं०) [नि+ग्रह+अप] एकाग्रता, स्थिरीभाव।
हुआ। (जयो० २३/५९) ० आच्छादित, फैला हुआ। ० निरोध, रोका
० उठाया हुआ। ० निराकृत, निराकरण।
निचुम्बनं (नपुं०) चुम्बन का समय। (जयो० १७/२८) नियन्त्रण, दमन।
निचुलः (पुं०) चोली, चादर, चुन्नी। ० दबाना, कुचलना, रोकना।
निचुलकं (नपुं०) चोली, वक्षत्राण, अंगिया।
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निचोल:
५५०
निजप्रजा
निचोलः (पुं०) [नि+चुल्+घञ्] . चूंघट, पर्दा, अवगुण्ठन। निजजीवनं (नपुं०) स्वकीय जीवन।।
० कुचवस्त्र। (जयो० १३/८४) ० विछाने की चादर। निजजीवनत्रुटि: (स्त्री०) अपने जीवन की गलती आमीय। ० डोली का आवरण-डोली का पर्दा
(सुद० ११६) निचोलकः (पुं०) [निचोल+कै+व] चोली, बनियान, जाकेट। | निजज्योतिः (स्त्री०) आत्म प्रकाश। निच्छविः (स्त्री०) एक प्रदेश।
निजटंकारः (पुं०) स्वध्वनि। निच्छविः (वि०) प्रभा विहीन।
निजतत्त्वं (नपुं०) आत्म तत्त्व। (जयो० २३/८९) निज् (सक०) धोना, साफ करना।
निजतपः (पुं०) स्वकीय तप। ० स्वच्छ करना, निर्मल करना, पवित्र बनाना। निजतोषः (पुं०) आत्म संतोष। ० पोषण करना।
निजद्रव्यं (नपुं०) आत्म द्रव्य! १. अपना धन। ० प्रक्षालन करना, छिड़कना।
निजदासी (स्त्री०) अपनी दासी स्वकीय चेटी। (जयो० १२/११०) निज (वि०) [नि+जन्+ड] अपना, स्वकीय, आत्मीय। 'परिहासवचोभिरेव धन्यान्निजदासीभिरभोजयत्स जन्यान्'
(सुद० ११६) आत्मन्, अपने (सुद० ३/१८) 'भवः स (जयो० १२/११०) गौरी निजमधर्मङ्गम्' त्यक्त्वा निजं विजानातु निजदेशः (पुं०) अपना देश, स्वदेश। (जयो०० २१/७३) (जयो० १/१५) सुधारसमय बुधः (जयो०वृ० २७/६३) निजदोषः (पुं०) अपनी त्रुटि, स्वकीय दोष। देही देहस्वरूपं स्वं देह सम्बन्धिनं गणम्।
निजधनं (नपुं०) स्वकीय वित्त, अपना द्रव्य। मत्वा निजं पर सर्वमन्यदित्येष मन्यते।। (सुद० ४/७) निजधान्यं (नपुं०) अपना धान्य। विलोमगामिन चैव निजं जिनोऽभवत्।
निजधी (स्त्री०) स्वकीय बुद्धि। सहिष्णुभावतः स्वीयां शक्तिमुद्योत यन्नये।। (जयो० २९/२१) निज-नंदः (पुं०) आत्मानंद। • चिरस्थायी, सदैव रहने वाला।
निजनारी (स्त्री०) अपनी स्त्री। ० विशिष्ट।
निजनिजकर्मन् (नपुं०) अपने अपने कर्म। 'निज-निजकर्मणि निजकरं (नपुं०) अपने हाथ।
कुशलाः परथाऽमीमूर्षि संपतन्मुशलाः। (जयो० २/११५) निजकल्मष (नपुं०) अपने पापा (वीरो० १४/४९)
निजपति (पुं०) अपना पति। (सुद० ८७) निजकारणं (नपुं०) स्वकीय कारण, अपना हेतु।
निजपत्तन (नपुं०) अपना नगर। (वीरो० ७/७) निजकीर्तिः (स्त्री०) आत्मयश, स्वमशोगान। 'निजकीर्तिकुलानि निजपदं (नपुं०) अपना स्थान। कुल्यराट्' (जयो० १३/६६)
निजपथः (पुं०) अपना मार्ग। निजकेन्दं (नपुं०) स्वस्थान। (जयो० ४/१)
निजपल्लवः (पुं०) अपने पल्लव, अपने वृक्षों की कोमलता। निजखण्डं (नपुं०) अपना हिस्सा।
(सुद० ४/१) 'अथ कदापि वसन्तवदाययावुपवन निजग (वि०) निजी, अपना, स्वकीय। निजगौ महीयान्। निजपल्लवमायया' (सुद०४/१) (सुद०८/३)
निजपरिकरेणान्वित (वि०) अपने परिकर सहित, निजचारित्रं (नपुं०) अपना चरित्र, स्वकीय आचरण।
परिच्छिदहान्वित। (जयो०१० १३/१३) निजचेटिका (स्त्री०) अपनी दासी। (सुद० ८६)
निजपश्चिमः (पुं०) स्वपृष्ठस्थित, पीछे स्थित। 'करित्तदानीं निजचेष्टा (स्त्री०) स्वगति, अपनी चेष्टा, अपनी क्रिया निजपश्चिमेन विलूनमूर्धा निपपात तेन। (जयो० ८/३१) (जयो०वृ० १४/२८)
निजपाणिः (पुं०) हस्त, हाथ, स्वहस्त। चिरोच्चितासिव्यसनापदे निजचेष्टित (वि०) चेष्टा युक्त। (वीरो० २२/४)
____ तुक् सोमस्य जायुं निजपाणये तु। (जयो० १/७५) निजजन्मन् (नपुं०) अपना जन्म, अपनी उत्पत्ति, अपनी निजपाणि: (स्त्री०) अपना हस्तदान, पाणिग्रहण का दान। जाति, जन्मस्थान का केंद्र।
निजपात्रं (नपुं०) अपना पात्र। निजजाति (स्त्री०) अपनी उत्पत्ति, अपनी जाति, जन्मस्थान निजप्रजा (स्त्री०) अपनी प्रजा। 'निजप्रजायाः यः प्रतिपाली' का केंद्र।
(सुद० १/३८)
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निजप्रतीकः
५५१
निजोन्नतिः
निजप्रतीकः (पुं०) स्वकीयमङ्ग, अपने अंग के चिह्न। १/९९) २. वृत्तपर्यन्त-'निजवतंसपद इति वृत्तपर्यन्तम्'
'यदेवमिन्दीवरपुण्डरीकसारैः समारब्धनिजप्रतीकम्' (जयो० (जयो०वृ० १/९१) १६/४१)
निजवतंसपदं (नपुं०) मुकुट स्थन। निजप्रयत्नं (नपुं०) अपना प्रयत्न, अपना उद्यम, स्वकीय निजवर्तनं (नपुं०) अपना परिणमन। (भक्ति० २७)
परिश्रम निजप्रयत्नेन तदेक नाम। (समु० १/३२) निजवित्तं (नपुं०) अपना धन। 'सकल जनानां निजवित्तस्य च निजफलं (नपुं०) आत्म परिणाम।
लुण्टाकेभ्यस्त्रात्री यमायाताऽरमहो कलिरात्रिः' (सुद० ९७) निजबन्धुः (नपुं०) आत्मबन्धन, स्वकीय बन्धन।
निजवैभवः (पुं०) अपनी सम्पत्ति, अपना धन, अपना राज्य। निजबन्धुजनः (पुं०) स्वकीय मित्रजन, कुटुम्बीजन। पृथुतुजेऽत्यसृजन्निजवैभवं प्रतिविधातुमुदीय स वैभवम्।
'निजबन्धुजनस्य सम्पदाम्बुनिधिं स्वप्रतिपत्तितस्दा' (सुद० (समु० ७/२२) ३/२७)
निजवृत्तं (नपुं०) आत्म चरित्र, अपना वृतान्त। 'नगरं प्रविवेश निजबान्धवः (पुं०) कुटुम्बीजन।
वैभवान्निज वृत्तं कियदेषु संवदन्' (जयो० २१/७३) निजभरणं (नपुं०) स्वोदरपूर्ति।
निजशुद्धिः (स्त्री०) मनः सम्यग्भाव। (जयो० २३/८५) निजभर्तु (पुं०) अपना स्वामी। (जयो० ४/२९)
निजहितः (पुं०) आत्मकल्याण, स्वकल्याण, अपना हित। निजभारः (पुं०) अपना बोझ।
'आत्मनो निजहिते/आत्मकल्याणे योजनं प्रवर्तमस्ति' निजभावः (पुं०) अपना, अभिप्राय, आहम-परिणाम।
(जयो०१० २/५०) निजभावना (स्त्री०) आत्मचिन्तन, स्वकीय अनुचिन्तन। निजाडू (नपुं०) क्रोड, गोद। पितरौ तु विषेदातुः सुतां न निजभेदः (पुं०) आत्मभेद।
तथाऽऽजन्मनिजाङ्गवर्द्धितम्। (जयो० १३/२२) निजभ्रातृ (पुं०) सहोदर।
निजात्मानुयुक् (वि०) आत्मा में लीन। इत्याज्ञाविचये समर्थितमना निजमङ्गजः (पुं०) अपने छोटे छोटे बच्चे। (जयो० १३/१५) भूयान्निजात्मानुयुक्। (मुनि०पृ० २२) निजमतः (पुं०) अपना अभिप्राय, अपना विचार।
निजार्द्ध-देहानुमित (वि०) अर्धाङ्गिनी रूप में परिणत। (जयो० निजमतिः (स्त्री०) अपनी बुद्धि। (सुद० ९०)
२४/६) 'गिरीश्वरः सेवत एव सत्तमा निदाद्धदेहानुमितां तु निजमदः (पुं०) अपना अभिमान।
पार्वतीम्। (जयो० २४/६) निजमनस् (नपुं०) स्वकीय मन।
निजान्तरङ्गं (नपुं०) अपना मन। निजनिजन्तरङ्गे मोदं हर्षमुपेत्य निजमनोभावः (नपुं०) अपना मनोगत अभिप्राय, अपना (जयो० ४/५०) आशय।
निजासनं (नपुं०) अपना आसन, ब्रह्मासन, कमलासन। निजयीप्सित (वि०) स्वाभिलषित। (जयो०व० ४८)
निजासने चाकुलतां प्रयाता चक्रे न वै मध्यमितीव घाता। निजयशस् (पुं०) आत्मख्याति, अपनी प्रसिद्धि। (सुद० ८९) (जयो० ११/२५)
'क्षणिकनर्मणि निजयाशोमणिसुलभं च जहातु-(सुद० ८९) निजीय (वि०) आत्मीय, स्वकीय। (समु०८/२०) 'प्रसादयन् निजरत्नं (नपुं०) अपना रत्न, अपने कीमती रत्न। 'स भद्रमित्रं बुद्धिमहो निजीयाम्' (वीरो० १८/३३) निजरत्लवस्तुनः' (समु० ४/१)
निजीयलीला (स्त्री०) अपनी मनमानी। (वीरो० ११/७) निजरत्नसारः (पुं०) रत्नत्रय सार।
निजेच्छा (स्त्री०) अपनी इच्छा, इच्छानुसार। (वीरो०८/१३) निजराशिः (स्त्री०) स्वकीय समूह।
___'आगता दैवसंयोगाद्विहरन्ती निजेच्छया' (सुद० १३३) निजरुदनं (नपुं०) अपना क्रन्दन।
निजोचितः (पुं०) आत्मानुकूल, आत्मानुरूप। (जयो० १०/८४) निजलाभः (पुं०) आत्म लाभ।
अपने योग्य, अभीष्ट। 'पुरी-परीतमुपेत्य निजोचित' परिकरं निजलालसा (स्त्री०) आत्म इच्छा, स्वकीय इच्छा।
परमत्र सुसंहितम्। (समु०७/१३) निजलोभः (पुं०) अपनी अभिलाषा, चाह, इच्छा, लालच। | निजोद्देशसमर्थनं (नपुं०) अपने उद्देश्य की पुष्टिा (वीरो० १८/२५) निजवतंसं (नपुं०) १. स्वकीय आभूषण, मुकुटस्थान। (जयो० | निजोन्नतिः (स्त्री०) आत्मोत्कर्ष, आत्मोन्नति, अपनी प्रगति।
१/९९) निजस्य स्वस्य वतंसपदे/मुकुटस्थाने (जयो०वृ० परोत्कषसहिष्णुत्वं जह्याद्वाञ्छन्निजोन्नतिम्। (सुद० ४/४२)
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निजोपार्जित
नित्यमित्रं
निजोपार्जित (वि०) अपने पूर्वोपार्जित, कर्म, स्वयं के उत्पन्न ० अटल, नियमित, निश्चित। अवेहि नित्यं विषयेषु
किये गए। फलं सम्पद्यते जन्तोर्निजोपार्जितकर्मणः। कष्टम्। (सुद० १२१) (सुद० १२५)
० सदैव, हमेशा 'कष्टाय नित्यं ननु देहिराशौ' (सुद० १२१) निटलं (नपुं०) मस्तक, सिर।
० वस्तु स्वभाव का विनाश न होना 'तद्भावाऽव्ययं निडीनं (नपुं०) [नीचैः डीनं पतनमस्ति] झपट्टा मारना,
नित्यम्' ०चिरस्थायी, शाश्वत, निर्बाधा (त०सू० ५/३१)
० जीव में गुण, चेतन आदि का बना रहना। (त०सू०पृ०८१) पक्षियों का नीचे की ओर उड़ना।
० अनादि, अनन्त एवं सर्वकालिक स्वरूप होना जिसके नित (अव्य०) सदैव। (सम्य० १५३)
विषय में यह ज्ञान हो कि यह वही है, जिसे पहले देखा नितंबः (पुं०) [निभृतं तम्यते कामुकैः, तमु कांक्षायाम्]
था, वह नित्य है, (जयो हि० २६/८९) यत् सतो भावान्न चूतड़, श्रोणी भाग, कूल्हा, कटिपृष्ट भाग। (जयो० ११/२४)
व्येति, न व्येष्यति तन्नित्यमिति' (जैन०ल० ६०७) (वीरो० ३/२२) स्त्रियों का पिछला उभरा हुआ हिस्सा, | नित्यं (अव्य०) प्रतिदिन, सदा, सर्वथा हमेशा, लगातार, निरन्तर। 'समेखलाभ्युन्नतिमन्नितम्बा' नटी स्मरोत्तानगिरेरियं वा। त्रसानां तनुर्मासनाम्ना प्रसिद्धा यदुक्तिश्च विज्ञेषु नित्यं (सुद० २/५) तमेकचक्रं च नितम्बमेनं जगज्जयी संलभते निषिद्धा। (जयो० २/१२३) मुदं नः। (जयो० ११/२२) 'नितम्बनामा रसनाकलापच्छेन' नित्यकृत्यं (नपुं०) प्रतिदिन किया जाने वाला कार्य। (जयो० ११/२३)
नित्यतदन्यरूपः (पुं०) नित्यानित्यामक, नित्य और अनित्य। नितम्बदेशः (पुं०) कटिपृष्ठ भाग 'नितम्बदेशे पृथुचक्रमानात्।
(जयो० २६/८९) (वीरो० ३/२१)
नित्यैकतायाः परिहारकोब्द: नितम्बप्रदेशः (पुं०) कटिपृष्ठ भाग। श्रोणिभाग।
क्षणस्थितेस्तद्विनिवेदिशब्दः। नितम्बबिम्बं (नपुं०) १. तीरस्थल (जयो०१३/९६), २.
सिद्धोऽधुनार्थः पुनरात्मभूव।
संज्ञानतो नित्यतदन्यरूपः। श्रोणिपृष्ठपद। (जयो०वृ० १३/९६), ३. स्वकीय श्रोणिप्रदेश।
नित्यदानं (नपुं०) प्रतिदिन का दान। (जयो० १५/७६)
नित्यनिगोदः (पुं०) तीनों कालों में त्रस पर्याय के योग्य न हो। नितम्बभागः (पुं०) कटिप्रदेश।
नित्यनियमः (पुं०) नित्य का नियम, प्रतिदिन का सिद्धान्त, नितम्बवत् (वि०) [नितम्ब+मतुप्] सुन्दर कूल्हों की तरह।
प्रतिदिन की प्रक्रिया। नितम्बिन् (वि०) [नितम्ब इनि] उन्नत कूल्हों वाला, रमणीय नित्यनूत्वा (वि०) प्रतिदिन, नया-नया। श्रोणिपृष्ठ युक्त।
नित्यनैमित्तकं (नपुं०) निरन्तर किया जाने वाला अनुष्ठान। नितम्बिनी (स्त्री०) नितम्ब वाली, श्रोणि युक्त, उभरे सुन्दर नित्यपाठः (पुं०) निरन्तर चलने वाला अभ्यास। ___ कटि पृष्ठभाग वाली। (जयो० १४/८४)
नित्यपिण्डः (पुं०) प्रतिदिन का आहार। नितराम् (अव्य०) [नि+तरप्+अमु] ० पूर्णरूप से, पूरी तरह
नित्यपूजा (स्त्री०) प्रतिदिन की पूजा, देव, शास्त्र और गुरु की से। ० अत्यधिक, अत्यंत, बहुत बड़ा, (जयो० १३) ०
प्रतिदिन की जाने वाली पूजा/अर्चना/भक्ति। भारी से भारी, गुरुतर।
नित्यप्रलयः (पुं०) सुसुप्त दशा। नितलं (नपुं०) [नितरां तलम् अधोभागः यस्मिन] पाताल का
नित्यबन्धः (पुं०) निरन्तर बन्ध।
नित्यभावः (पुं०) शाश्वत भाव। एक भाग।
नित्यभावना (स्त्री०) स्थायी विचार। नितान्त (वि०) ०अत्यधिक, बहुत अधिक, तीव्र, दृढ़तर,
नित्यमरणं (नपुं०) प्रतिसमय आयु का विनाश। 'समये समये ०प्रगाढ़, प्रकृष्ट, ०अतिशय, ०बहुत ज्यादा। 'नयतो जय
स्वायुरादीनां निवृत्तिः'। (त०वा० ७/२२) तोषयेरुपेतां प्रणयाधीनतया नितान्तमेताम्। (जयो० १२/५०) नित्यमहः (पुं०) नित्यपूजा। नितान्तं (अव्य०) ०अत्यधिक, बहुत ज्यादा, तीव्रतर। (वीरो० तेषु नित्यमहो नाम स नित्यं यज्जिनोऽर्च्यते।
१२/२३) 'सरलामनुमन्य वंशजां मां कुरुषे कान्त नितान्तमेव नीतैश्चैत्यालयं स्वीयगेहाद् गन्धाक्षतादिभिः।।(जैनल पृ०६०८) वामाम्। (जयो० १२/९३)
नित्यमित्रं (नपुं०) अकारण दूसरे का रक्षक। 'यः कारणमन्तरेण नित्य (वि०) [नियमेन नियतं वा भवं नित्यप्]
रक्ष्यो रक्षको वा भवति तन्नित्यं मित्रम्। (जैन०ल०६०९)
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नित्यमुक्तः
५५३
निदिग्ध
नित्यमुक्तः (पुं०) परमात्मा।
• चिह्न, पहचान, सूचक। नित्यमेव (अव्य०) नित्य ही, प्रतिदिन ही।
० योजना, पद्धति विधि नित्ययौवना (स्त्री०) सदा युवती रहने वाली, द्रोपदी।
० प्रकाशन, आशीर्वाद विरुद्धवृत्तौ रुपमे ति नित्यवादः (पुं०) नित्यवाद का कथन, कपिल/सांख्य को | लोकश्छन्दोऽनुवोतर्ष निदर्शनौकः। रोषो न तोषा जगदेकपोष नित्यवाद की पद्धति। (जयोवृ० १८/६४)
ऋषेर्भवत्येव भवेऽपदोषः।। (जयो० २७/२१) नित्यशस् (अव्य०) [नित्य+शस्] निरन्तर, सदैव, हमेशा, निदर्शना (स्त्री०) एक अलंकार विशेष, जिसमें वस्तु सम्बन्ध
लगातार, प्रतिदिन। (जयो० २/४८) 'किलाधरप्रदेशे रमते उपमा से परिकल्पित होता है। स्म नित्यशः। (जयो० २४/२) इत्थं चिन्तनमस्तु निदा (स्त्री०) तीव्र वेदना। 'नितरां निश्चितं वा सम्यक् दीयते योगिहृदयानन्दप्रदं नित्यशः। (मुनि० २३)
चित्तमस्यां इति निदा' (जैन०ल० पृ०६०९) नित्य-शंकित (वि०) सदा ही शंका युक्त रहने वाला, सदैव निदाघः (पुं०) [नितरां दह्यते अत्र+नि+द+घञ्] ० ताप, गर्मी तत्पर, कार्य के प्रति सजगता।
तपन, उष्णता। (वीरो० २/१५) ० ग्रीष्मऋतु, गर्मी का नित्यहोतन् (पुं०) वैदिक ब्राह्मण। (जयो०७० ३/१४)
समय। (वीरो० १२/२) नित्यातपत्रं (नपुं०) छत्रत्रय। (जयो० १०/९९)
निदाघकरः (पुं०) सूर्य, दिनकर, रवि। नित्यात्यः (पुं०) उदधि, समुद्र।
निदाघकाल: (पुं०) ग्रीष्म समय, गर्मी का समय। (जयो० नित्यात्यं (अव्य०) प्रतिदिन, सदैव, निरंतर, लगातार।
२२/११) 'निदाघकालेऽप्यतिकूलमेव प्रसन्नरूपा वहतीह नित्यानध्यायः (पुं०) नित्य अध्ययन का त्याग।
देव। (वीरो० २/१५) नित्यानन्दपदं (नपुं०) ०शुद्धात्मपद, परमानन्द पद, उत्तम | निदाघभीति (स्त्री०) ग्रीष्मकाल का भय। 'निदाघस्य ग्रीष्मकालस्य
आनन्द का स्थान, शाश्वत् कल्याण पद। जन्म-मरणादि भीतिर्भयपरिणतिः' (जयो०१० २२/११) से रहित शुद्ध स्वरूप का स्थान। नित्यानन्दपदे निरन्तर-रतो निदानं (नपुं०) [निश्चयं दीयतेऽनेननि+दा+ल्युट] ० निरादर, भूयाः स्वयं सर्वदा। (मुनि० १४)
अपमान (जयो० ४/२७) नित्यानित्यामकः (पुं०) नित्य और अनित्य रूप, नित्यदन्यरूप। ० भोगा कांक्षा, भोगाभिलाषा। 'निदानं विषयं। भोगाकांक्षा'
'प्रत्यभिज्ञानतो नित्यतदन्यरूपः' (जयो०वृ० २६/८९) (स०सि० ७/१८) 'भोगाकांक्षया नियतं दीयते चित्तं तस्मितेनेति नित्यानुभूतः (पुं०) बार-बार अनुभव में आई हुई। वा निदानम्' (स०सि० ७/३७)
नित्यानुभूतनिजलाभनिवृत्ततृष्ण श्रेयस्मतद्वचनया ० अध्वसाय विशेष-'निदायते सूयतेऽनेनेति निदानं अध्यवसाय चिरसुप्तवुद्धः। (दयो० ३०)
विशेषः'। नित्यैकता (वि०) नित्य एकत्व। 'नित्यमेवैकं नानित्यमिति ० मन का विचार। (सम्य० १५२) विचारो नित्यैकता' (जयो० २६/८९)
० शल्य, पीड़ा, कष्ट। निदः (पुं०) [निदात् विषात् द्राति पलायते निन्द्रा कु] ० रोग का कारण जनना, चिकित्सा विज्ञान का कारण। मनुष्य, नर।
रोग प्रतिपादन। निदर्शक (वि०) [नि+दृश्+ण्वुल] निदर्शक, प्रदर्शक।
० बन्धन, पट्टा, रस्सी, डोरी। ० देखने वाला, प्रत्यक्ष करने वाला।
० आर्तध्यान का एक भेद। (मुनि० २१) ० संकेत करने वाला, इंगित करने वाला।
० अन्त, समाप्ति। ० प्रकथन वाला।
० पवित्रता, शुद्धता, निर्मलता। निदर्शनं (नपुं०) [नि+दृश्+ ल्युट्]
निदानभावः (पुं०) सुखाभिलाषा का भाव। ० दर्शनशक्ति, अन्तर्दृष्टि, दृश्य।
निदानमरणं (नपुं०) निदान पूर्वक मरण, ऋद्धि और भोगों की ० इंगित करना, संकेत करना, बतलाना।
अभिलाषा पूर्वक मरण। • प्रमाण, साक्ष्या
निदानहेतु (स्त्री०) निदान का कारण। (समु०८/३५) ० दृष्टान्त, उदाहरण।
निदिग्ध (भू०क०कृ०) [नि+दिह्+क्त] संलेपित, चुपड़ा हुआ।
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निदिध्यासनं
५५४
निन्दंक
निदिध्यासनं (नपुं०) [नि+ध्यै+सन् + ल्युट] निरन्तर | निधिः (स्त्री०) [नि+धा+कि] ० कोष, भण्डार, खजाना, मनन-चिन्तन।
संचय स्थान। 'नि:स्वजनी निधिना सा (सुद० ७४) निदेशः (पुं०) [नि+दिश्+घञ्] आज्ञा, अनुदेश, आदेश। ० वैभव, ऐश्वर्य। सम्पत्तिपात्राणामुपतर्पणं प्रतिदिनं सत्पुण्यनिदेशिन् (वि०) [निदेश इनि] संकेत करने वाला।
सम्पन्निधिः। (सुद०४/४७) निद् (अक०) निद्रा लेना, निद्रायते। (वीरो० १२/१६)
० घर, आधार, आश्रय, स्थान, आशय। निद्रा (स्त्री०) [निन्द्र क+टाप न लोप] नींद, सुप्तावस्था, ० समुद्र, उदधि।
मद, खेद, थकावट, आलस्य, शिथिलता, झपकी आना। निधिघटी (स्त्री०) कोष की मटकी, धन से भरी हुई मटकी। ० सुखपूर्वक जागरण।
निधिघटीं धनहीजनो यथाऽधिपतिरेष विशां स्वहशा तथा। ० स्वाप, शयन। (वीरो० ४/२८) 'मद-खेद-क्लम- (सुद० २/४९) विनोदार्थः स्वापो निद्रा' (स०सि० ८/७) (जैन०ल० पृ० निधीयते -बढ़ाना, वृद्धि करना। (वीरो० १५/५) ८/१०)
निधिनाथः (पुं०) कुबेर। ० मद्, खेद और थकान वगैरह को दूर करने के लिए या निधिपूर्णः (पुं०) धन से परिपूर्ण।
आराम पाने के लिए सो जाना (तसू० १२४) निधिशः (पुं०) कुबेर। निद्राण (वि०) [निद्रा+क्त] शयन करता हुआ, प्रमादकारी, निधीश्वरः (पुं०) स्वामी, ईशे। वदाम्यथो सौधनिधीश्वआलस्यदायिनी। (जयो०वृ० १८/१२)
रन्तत्सहासमास्यं शुचिरश्मिवन्तम्। (जयो० ११/४९) निद्रानिद्रा (स्त्री०) नींद पर नींद आना, घोर निद्रा, नींद के | निधुवनं (नपुं०) [नितरां धुवनं हस्तपादादिचालनमत्र]
ऊपर नींद आना। 'निद्रायाः उपर्युपरिवृत्तिर्निद्रानिद्रा'। ० क्षोभ, कम्पन्न। ० संभोग, मैथुन, ० आनन्द, केलि, उपभोग। (स०सि० ८/७, मूला०वृ० १२/१८८)
निधेय (वि०) विना प्रयोजन। निधेयं मया कि विधेयं करोतूत निद्राभंगः (पुं०) नींद टूटना, नींद खुलना, जागरण होना। ___ सा साम्प्रतं चाखवे यद्वदौतुः' (सुद० ७/५) निद्रावृक्षः (पुं०) अन्धकार तम।
निध्यानं (नपुं०) [नि+ध्यै+ल्युट्] अवलोकन, दर्शन, दृष्टि। निदासंजननं (नपुं०) कफात्मक वृत्ति, श्लेष्मा।
निध्वानः (नपुं०) [नि+ध्वन्+घञ्] शब्द, ध्वनि, कोलाहल। निदालु (वि०) [निद्रा+आलुच्] निद्रित, नींद में हुआ, नींद वाला। निन् (सक०) ले जाना। निन्यु। (जयो० ६/२६) निद्रित (वि०) [निद्रा+इतच्] सुप्त, सोया हुआ।
निवंक्षु (वि०) [नष्टुमिच्छु:-नश्+सन्+ड] मरने की इच्छा निधत्त (वि०) कर्म निधारण करना।
करने वाला, भागने वाला। निधन (वि०) [निवृत्त धनं यस्मात] दरिद्र, निर्धन, गरीब। । निनादः (पुं०) [नि+न+घञ्] तारगम्भीररव (जयो०६/१२७) निधनं (नपुं०) मरण, ध्वंस, नाश, हानि।
० शोरगुल, ध्वनि ० गम्भीर रव, दुन्दुभिनिनाद। (जयो० ० उपसंहार, अन्त, परिसमाप्ति।
६/१२७) ० भिनभनाहट, गुंजन। ० परिवार, वंश।
निनादिन (वि०) गर्जनशील। (वीरो० २/३०) निधानं (नपुं०) [नि+धा+ल्युट्] ० आधार, आश्रय, सहारा। ० | निनयनं (नपुं०) [नि+नी+ल्युट] समाप्ति, पूर्णतः।
भरा हुआ, पूर्ण (जयोवृ० १/१७) चातकस्य तनयो ० अनुष्ठान, धार्मिक क्रिया। घनाघनमपि निधानमथवा नि:स्वजनः। (सुद० ११५) ० ० उड़ेलना, उछालना। ०खजाना, कोष, ०आगार, गोदाम, भण्डार, ०संपत्तिस्थान ० सम्पन्न करना, पूर्ण करना। सुदृक्त्वमेकं सुविधानिधानम्। (सम्य० १२३)
निंद् (अक०) निन्दा करना, दोष लगाना, प्रत्यारोपण करना, निधानकुम्भं (नपुं०) भरा हुआ घट। निधानकुम्भाविव यौवनस्य बुरा कहना, छिद्रान्वेषण करना, ० धिक्कारना, फटकारना, परिप्लवौ कामसुधारसस्य। (सुद० १००)
डांटना, लोको निन्दतु पूजतादुत ततस्ते का विशिष्टिः निधानधामं (नपुं०) आश्रय भूत स्थान।
प्रभोः। (मुनि० १४) निधानपात्रं (नपुं०) परिपूर्ण पात्र, भरा हुआ बर्तन।
निन्दंक (वि०) [निन्द्+ण्वुल] ० कलंक लगाने वाला, दोषारोपण निधानसेतु (नपुं०) आश्रयभूत कारण।
करने वाला, डाटने वाला।
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निन्दनं
५५५
निपानं
० क्षति पहुंचाने वाला। ० बदनाम करने वाला।
० प्रच्छन्नस्तुति करने वाला। निन्दनं (नपुं०) प्रतिकार, विरोध 'स्वस्यदुक्ष्यरितमास स निन्दन,
तत्परस्य विधिनाभ्यनुविन्दन् (समु० ५/१२) ० निन्दा करना, अपमान करना। ० दोषारोपण। ० फटकारना। ० भला-बुरा कहना। ० क्षति, हानि, नुकसान। ० प्रच्छन्नस्तुति।
० व्याजस्तुति। निन्दा (स्त्री०) ० पश्चात्ताप। (मुनि० १९) सच्चरित्रस्य सत्त्वस्य
पश्चात्तापः स्वप्रत्यक्षं जुगुप्सा निन्दा। ० आत्मसाक्षिकी निन्दा। • दोष का उद्भावन, दोषारोपण। ० जुगुप्सा, ग्लानि। ० कलंका ० दोषोदभावननेच्छा।
० परिवाद। (जयो० १२/१४५) निन्दाकरणं (नपुं०) निन्दा करना, दोषारोपण करना, कलंक
लगाना। समस्तु दौस्थित्यविधिहूंदाचान्यस्यात्र निन्दाकरणादि
वाचा। (समु० ८/२८) निन्दागत (वि०) निन्दा को प्राप्त। निन्दापरायणः (पुं०) निन्दा में चतुर। (जयो० ११/१३) निन्दापहरणकर (वि०) परिवादहर। (जयो० १२/१४५) निन्दापूर्वकं (नपुं०) नन्दासहित, पश्चात्तापपूर्वक। दुष्कर्मार्जित
महतामधिपते! त्वत्पादमूलेऽत्र तन्निन्दापूर्वकमुज्जहामि सुपथे
वर्वतिषुः साम्प्रतम्।। (मुनि० १९) निन्दायोग्यः (पुं०) निन्दा का पात्र। (जयोवृ० ११/२७) निन्दित (भूक०कृ०) [निन्द्+क्त] कुत्सित। (जयो०वृ०
२/१२६) कलंकित, अपमानित, अप्रशंसित, दोषारोपित,
गाली दिया हुआ। निन्दित-व्यभिचारादिकर्मन् (नपुं०) कुत्सिताचरण। (जयो०वृ०
२/१२६) निंदु (स्त्री०) [निदु+उ] मृतवत्सा, मृत बच्चे को जन्म देने वाली। निंद्य (वि०) [निंद्+ण्यात्] ०कलंक योग्य, घृणा योग्य,
गर्हित, ०जघन्या ० प्रतिषिद्ध, वर्जित।
निंद्यवस्तु (नपुं०) अतयं वस्तु। (वीरो० १६/२६) निपः (पुं०) [नियतं पिवति अनेन नि+पा+क] जल भरने का
घट। निपः (पुं०) कदम्ब तरु। निपठः (पुं०) पढ़ना, सस्वर पाठ करना, अध्ययन, अभ्यास। निपत् (अक०) गिरना, प्राप्त होना। निपपात (सुद० १०९)
(वीरो० १८/४२) 'सक्ताः सुरापलपरा' (जयो० ६/५९)
निपतन्यकेषु (सुद० १२७) निपतनं (नपुं०) [नि+पत्+ल्युट] नीचे गिरना, उतरना, नीचे
की ओर जाना। (दयो० ८) निपतन-जात (वि०) पतन को प्राप्त हुआ। निपत्य (सं०कृ०) गिरकर। 'अधर्मतामित्यत एति सत्यमसौ
स्वीवात् सुतरां निपत्य' (सम्य० ७१) निपत्या (स्त्री०) [निपतन्ति अस्याम्-नि+पत्+क्यप्+टाप्]
० फिसलन युक्त भूमि।
. रणक्षेत्र। निपाकः (पुं०) [नि+पच्+घञ्] पकाना, परिपक्व करना। निपातः (पुं०) [नि+पत्+घञ्] निपात, अव्यय विशेष।
० नीचे गिरना, नीचे आना, नीचे उतरना। ० आक्रमण करना, टूट पड़ना, कूदना झपटना। • फेंकना, दागना, मारना। ० उतार, प्रपात। ० मरण, मृत्यु। ० आकस्मिक घटना। ० अनियमित रूप, अपवाद मानना। ० अव्यय, -वह शब्द जिसके अन्य रूप न बने। ० गिनने का अङ्क-निकालना, उत्कीर्णन। 'गुणानां गणनाया
योऽङ्क निपातउत्कीर्णनम्।' (जयो०वृ० ६/१०५) निपातनं (नपुं०) [नि+पत्+णिच्+ल्युट्]
० मारना, पछाड़ना, गिराना। (समु० २/२४) ० परास्त करना, ध्वस्त करना। ० अपवाद, अनियमितता।
० मर्म स्पर्श करना। निपानं (नपुं०) [नि+पा+ल्युट्]
० पीना, आचमन करना। • जलाशय, जोहड़, पोखर। ० पानी का माद। ० कूप, कुंआ।
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निपीडनं
५५६
निभृत
निपीडनं (नपुं०) [नि+पीड्+णिच् ल्युट्] निचोड़ना, भींचना, ० गांठ, सहारा, टेक। दबाना, चोट पहुंचना।
० पराश्रयता सम्बन्ध। निपीयते (वर्त०) पीया जाना। (जयो० १६/९)
० अन्योन्याश्रित। निपुण (वि०) [नि+पुण+क]
० कारण, मूल, हेतु, आधार, प्रयोजन। ० चतुर, चालाक, होशियार। (जयो० ६/९८)
० आगार, आधार। ० बुद्धिमान्, कुशल, प्रवीण।
• एक बद्धता युक्त लेख। ० परिचित, जानकार, अनुभवशील।
० नियोजन, अनुदाना निपुणं (अव्य०) चतुराई से, चालाकी से, कुशलता से। ० भाष्य, किसी ग्रन्थ की विशेष व्याख्या। निपूतः (पुं०) प्रभावित, प्रक्षालन। पवित्र (जयो० ११/११) निबन्धनी (स्त्री०) [निबन्धन ङीप] हथकड़ी, बन्ध, डोरी, रस्सी। निपूतपादः (पुं०) प्रक्षालितचरण। नितरां पवित्रौ पादौ (जयो० निबर्हण (वि०) [नि+बह ल्युट्] विनाशक, घातक, विध्वंसक २४/६५)
नष्ट करने वाला। निपूरः (पुं०) शब्द प्रवाह, जलप्रवाह। (जयो० ३/९३) निबर्हणं (नपुं०) ० वध, घात, . ध्वंस, विनाश। निपूर-पूरित (वि०) जल प्रवाह से पूरित, शब्द प्रवाह से | निबिड (वि०) [नि विड्क ] सघन, तीव्र, व्यापक। युक्त। (जयो० ३/९३)
निभ (वि०) [न+भा+क] समान, एक सा, अनुरूप। निपूरित (वि०) भरा हुआ, सम्भृत। (जयो०१०/११३)
'चरित्रनायकश्चन्द्र इव बभौ, परे च सर्वे नक्षत्रनिभा जाताः' निफेन प्रकार: (पुं०) फेन कण, छाग कण। (जयो० १३/९१) (जयो० ५/२७) निबद्ध (भू०क०कृ०) [नि+बन्ध+क्त]
निभं (नपुं०) दर्शन, प्रकाश, प्रकटीकरण, बहाना, छद्मवेश, ० • बांधा गया, जकड़ा गया।
कल्प, प्रयास। (जयो०वृ० ४/१३) 'शङ्क-शोधननिभं ० संलग्न, जुड़े हुए। 'दृग्भ्यां समं निबद्धौ हस्तौ कृत्वा हद् सहसाऽदः' (जयो० ४/१३) गिरमपि प्रशस्तौ' (सुद० ११५)
निभल् (सक०) देखना, अवलोकन करना। 'विघटनं नहि ० साथ, सम्बद्ध-निबद्धवैरेण च तेन भोगिनां वरेण दष्टः संघटनं च पुनः प्रतिनिभालयतां सकलो जनः' (जयो० सहसैव कोपिना। (समु० १/११)
९/४८) 'दम्भं परन्त्वत्र निभालयामि पश्यामि' निभालयामो ० निर्मित, जटित, खञ्चित।
(वीरो० ९/१) (जयो०वृ० १/२९) निभालयाम, (सुद० निबन्धः (पुं०) [नि+बन्ध+घञ्] प्रबन्ध, लेखन विधि।
५/१) 'अहो धूर्तस्य धौर्यं निभालताम्' (सुद० १०५) ० बांधना, कसना, जकड़ना।
निभालनं (नपुं०) [नि+भल्+णिच् ल्युट] ० देखना, अवलोकन ० रचना करना, लेखन, लिखना, कृति।
करना। (वीरो० ९/१), ० दृष्टि, प्रत्यक्षीकरण। ० नियन्त्रण, अवरोध, रोक, बन्धन।
निभालयन्त (वि०) देखने वाला। निभालयन्तं समरूपतोऽन्यं ० हथकड़ी।
किं निर्धनं पुनरत्र धन्यम्। (सुद० ११९) ० सम्पत्ति का दान।
निभूत (वि०) [नि+भू+क्त] ० हेतु, कारण।
० डरा हुआ, भयभीत, भयाक्रान्त। ० गड़बड़ी। (वीरो० १९/४३)
० गया हुआ, बीता हुआ। निबन्धनं (नपुं०) प्रबन्धन, हिसाव, लेखाजोखा। | निभृत (वि०) [नि+भृ+क्त] रक्खा हुआ, पहनाए गए। निभृतं
'प्रजोपयोगिवस्तूनामाय-व्यय-निबन्धनम्। विधाय योग-क्षेमार्थं स शिवाश्रियाऽभितः सुकपोल समुपेत्य चुम्बित: (सुद० यतिश्च मषिरित्यसौ।। (हि०सं०९)
३/१९) संगृहीत, संकलित, इकट्ठा किया हुआ। • बांधना, जकड़ना, जोड़ना, मिलाना।
० छिपाया हुआ, गुप्त, अवलोकित प्रच्छन्न। ० संरचना करना, निर्माण करना।
० चुप, शान्त। ० नियन्त्रण कराना, रोकना, कैद करना।
० स्थिर, नियत, अचल, गतिहीन ० बन्धन, हथकड़ी।
० मृदु, सौम्य, सरल।
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निमग्न
५५७
निमिला
० दृढ़, प्रचण्ड, अरल।
० एकाकी, अकेला। निमग्न (भूक०कृ०) [नि+गरज्+क्त] निमग्न, तल्लीन।
० जलमग्न, डूबा हुआ, अप्लावित। • नीचे गया हुआ। ० अभिप्लुत, आच्छादित।
० अवसन्न, अप्रमुख। निमग्ना (स्त्री०) द्रव्य को नीचे ले जाने वाली नदी। (ति०प०
४/२३९) ० सरिता, प्रवाहिनी। निमज्जथुः (पुं०) [नि+मरुज्+अथुच्] डुबकी लगाना, गोता
लगाना, शयन करना, सो जाना। निमज्जनं (नपुं०) [नि+मस्ज्+ ल्युट्] स्नान करना, नहाना,
प्रक्षालन, डूबना 'समुल्वणे यस्य यशः शरीरे निमञ्जनत्रासवशेन
मीरे। (जयो० १/३०) निमञ्जनत्रासः (पुं०) डूब जाने का भय-'निमज्जनत्रासवशेन
ब्रुडनभयभीतेन' (जयो०वृ० १/३०) निमज्ज्य (सं०कृ०) डूबकर, निमग्न होकर-निमज्ज्य-बुडित्वा
(जयो० २३/३०) निमज्जित (वि०) [नि+मस्+क्त]० निमग्न, तल्लीन, तत्पर।
० डुबकी लगाने वाला, स्नान युक्त। निमज्जिताया जले
जवेन नेत्रानुमितं मुखं सुखेन। (जयो० १४/६४) निमंत्र (सक०) [नि+मंत्र] बुलाना, निमंत्रण देना, आह्वान
करना। ० आमन्त्रण करना, प्रस्ताव भेजना। निमंत्रणं (नपुं०) आमन्त्रण, आह्वान, बुलावा, न्यौता, आह्वानन।
(जयो० ४/१२, ४/२३) निमन्त्रणतातिः (स्त्री०) आमन्त्रण पत्रिका, कुंकुम पत्रिका,
कंकूपत्रिका, किसी विशेष समायोजन के लिए दिया जाने
वाला पत्र। (जयो०४/१३) निमंत्रणपत्रं (नपुं०) आमन्त्रण पत्र। 'दत्तमस्त्यापि निमन्त्रणपत्रमत्र
येन च भवान् गिरमत्र। (जयो० ४/२१) निमन्त्रित (वि०) आमन्त्रित, आहूत। (वीरो० १४/१५) निमयः (पुं०) [नि+मि+अच्] वस्तु-विनिमय, लेन-देन,
अदला-बदली, परस्पर आदान-प्रदान, क्रय-विक्रय। निमस्ज् (सक०) स्नान करना। (जयो० ६/४३) निमानं (नपुं०) [नि+मा+ ल्युट्] ० माप, ० मूल्य। निमि (पुं०) निमेष, आंख झपकना। निमित्तं (नपुं०) [नि+मिद्+क्त] नियमेन मीयते अङ्गीक्रियते
तन्निमित्तं सहायक। वस्तु सहायक सहयोग देने वाला, मददगार और जहां मदद की जाती है। (सम्य० १५)
० कारण, प्रयोजन, आधार, हेतु। ० चिह्न, संकेत, निशान। ० भविष्यसूचक ज्ञान, त्रिकालवर्ती भाव का कथन।
० लक्ष्य। निमित्तकारणं (नपुं०) हेतु की वास्तविकता। निमित्तकुशलः (पुं०) निमित्त में निपुण, लोक को आदेश देने
वाला। (जयो० १९/६८) निमित्तज्ञानं (नपुं०) कारण का ज्ञान, निमित्त कुशल। निमित्तज्ञानार्थ (वि०) निमित्तज्ञान की प्राप्ति के लिए। णमो
अदंग-महाणिमित्त-कुसलाणं एतत्पदं निमित्तज्ञानार्थं पठ्यते'
(जयो०वृ० १९/६८) निमित्ततन्निन् (वि०) निमित्तज्ञानी,ज्योतिषी 'समं समालोच्य स
आत्ममन्त्रिभिस्तदेवमापृच्छय निमित्ततन्त्रिभिः। (जयो०३/६६) निमित्तधर्मः (पुं०) प्रायश्चित्त, सामायिक संस्कार। निमित्त-नैमित्तिकः (पुं०) एक-दूसरे का सम्बन्ध, कार्य-कार्य
का योग। 'सत्योदनेऽभ्येति च भुक्तये स, ० न सर्वथा नूनमुदेति जातु, यदस्ति नश्यत्तदथो न भातु। निमित्त-नैमित्तिकभावतस्तु, रूपान्तरं सन्दधकस्ति वस्तु।। (वीरो० १९/३९) ० कार्मण स्कन्ध निमित्त है और आत्मा नैमित्तिक। जैसे कमल के लिए सूर्य का उदय। (सम्य० १५) निमित्तनैमिक्तिकयोग एषः। क्षुधातुरः, किन्तु व्रती न याति, तथैव
दैवाय नुरस्तिजातिः।। (समु०८/१९) निमित्तपिण्डः (पुं०) उत्पादन दोष, भिक्षा का कारण बनाना,
भिक्षा का दोष। निमित्तविद् (वि०) शकुन ज्ञाता/भविष्यज्ञाता। निमित्तविद् (पुं०) ज्योतिषी। निमित्तशास्त्र (नपुं०) ज्योतिषी शास्त्र। (जयो० २/५८) निमित्तशुद्धिः (स्त्री०) शुभ शब्दों का सुनना। निमित्तसम्यग्दर्शनं (नपुं०) निमित्त से उत्पन्न होने वाला
सम्यग्दर्शन। 'निमित्तात् प्रतिमादिकात्, सम्यक्त्वं
निमित्तसम्यग्दर्शनमुच्यते' निमिषः (पुं०) [नि+मिष्।क] ०पालभार, ०क्षणभर, पलक,
झपकाना, ०आंख बन्द करना, ०बन्द होना। निमीलनं (नपुं०) [नि+मील+ल्युट्] पलक झपकाना, बन्द
होना। निमिला (स्त्री०) [नि+मील+अ+टाप्] आंखें बन्द करना,
झपकाना।
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निमीलिका
५५८
नियमः
निमीलिका (स्त्री०) पलक झपकना। निमीलिताक्ष (नपुं०) मुद्रित नेत्र। (जयो० १३/०८) निमूल (अव्य०) [नितरां मूलम्] नीचे तक, जल तक। निमेषः (पुं०) [नि+मिष्+घञ्] आंख झपकना, ०टकटकी ___ लगाना, ०एक टक देखना, दृष्टि रखना। निमेषकृत् (स्त्री०) विद्युत, बिजली। निमेषकृत् (पुं०) खद्योत, जुगनू। निम्नः (पुं०) [नि+म्ना+क] ० गहरा, गहीर।
० निम्न, नीचा।
० तल्लीतल। (जयो०वृ० ११/९८) निम्नं (नपुं०) गहराई, नीचा प्रदेश।
० निम्नभाग, अधोभाग। ० ढलान, ढाल। ० व्यवधान, भूरन्ध्रा
० अवसाद। निम्नगतं (नपुं०) अधोगत, नीचे की ओर गया। निम्नगतिः (स्त्री०) नीचगति। निम्नगा (स्त्री०) नदी, पर्वतीय सरिता (वीरो० २/१७)-'निम्न
गच्छतीति निम्नगा' (जयो० १४/८३) ० अवनतस्थानगत'निम्नमनतवस्थानं गच्छतीति निम्नगा' (जयो० २०/४९)
० नीचे की ओर बहने वाली। (सुद० १४८, १/४३) निम्नपदं (नपुं०) तुच्छपद। निम्नप्रेमः (पुं०) तुच्छप्रेम। निम्नभावः (पुं०) गम्भीर भाव। निम्न-रूपः (पुं०) नाशक। सम्बभूव वचनं नभसोऽपि
निम्नरूपतस्तत्स्मयलोपि। (सु० १०८) निम्नलिखित (वि०) निम्नोदित, निम्नाङ्कित। (सुद० ११३) निम्नाङ्कित (वि०) निम्नोदित, निम्नलिखित। (जयो०वृ० १/९१) निम्नोक्त (वि०) अधो अंकित, कथन, इस प्रकार का कथन।
(सुद० ९२) निम्नोक्ति (वि०) निम्नलिखित। (सुद० ११३) निम्नान्नतः (वि०) ऊबड़ खाबड़, नीचा-ऊँचा, अवनत-उन्नत। निम्बः (पुं०) [निन्ब्+अच्] नीम का पेड़। निम्बकल्पः (पुं०) नीम का प्रयोग, कल्प, रस। निम्बप्रयोगः (पुं०) नीम का कल्प, प्रयोग रस। निम्बिका (स्त्री०) निम्बफल। 'मधुरसा करटस्य हि निम्बिका
धनमहो दुरितस्य कदर्पिका। (जयो० २५/२१) निम्बफल (नपुं०) निम्बोली, निथेरी, निम्बिका। (जयो०७०
२५/२१)
निम्लोचः (पुं०) [नि+म्लुच्] सूर्यास्त। देना, नियच्छ प्रदान करना, (जयो० १/९२) नियत (भू०क०कृ०) [नि यम्+क्त]
० निश्चित, ध्रुव, शाश्वत। (वीरो० १७/४०) ० अवश्यंभावी, अचूक, जो होना है, वह होगा, अनिवार्य नियुक्त। (जयो० ३/१९) ० नियंत्रित, संयमित, नियोजित। (जयो०८.३८) ० अभिभूत, स्वशासित।
० मिताहारी, सावधान। नियतं (अव्य०) हमेशा, लगातार, क्रमशः, अवश्य, अनिवार्यतः,
निश्चय ही। 'तदेकदेशे नियतं प्रतीतौ' (सुद० २/२४) नियतस्थानं (नपुं०) निश्चित स्थान। नियति (स्त्री०) [नि+यम्+क्तिन्] नियतिवाद। ० भवितव्यता, प्रारब्ध, दैव। सम्मता हि महतां महान्वयाः
संस्मरन्तु नियति दृढाशयाः। (जयो० २/११) • धार्मिक कर्तव्य। ० आत्म नियंत्रण, आत्म संयम।
० प्रतिबन्धा (जयो० १३/२४) नियतिवादः (पुं०) एक निश्चितकथन, जो जिस समय में
जिससे, जैसे और जिस नियम से होता है, वह उस समय,
उसी के द्वारा, उसी प्रकार से और उसके होगा ही। नियंतृ (पुं०) [नि+यम् तृच्]
० सारथि, चालक। ० शासक, अधिकारी। (वीरो० १८/१२) . स्वामी, मालिका ० राज्यपाल।
० नियंता, विनियंता। नियंत्रणं (नपुं०) [नि+यन्त्र ल्युट्] आरक्षण, रोक, प्रतिबन्ध। नियन्त्रित (वि०) [नि+यन्त्र+क्त] प्रतिबद्ध, आरक्षित, संयमित,
सीमित। नियमः (पुं०) [नि+यम्+अम्] प्रतिबन्ध, संयम, नियंत्रण,
सीमित करना। ० निग्रह, निरोध। ० प्रतिज्ञा, व्रत। ० निश्चित, अनिवार्यता, आवश्यकता। ० विधि-विधान, कार्य पद्धति। ० धार्मिक साधना, व्रत की पद्धति। (सम्य० १५)
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नियमकृत
५५९
नियोद्ध
० नियम से जो किया जाता 'णियमेण य जं कज्ज नियुतं (नपुं०) [नि+यु+क्त]० एक क्षेत्र का प्रमाण। दस तण्णियमं णाण-दसण-चरित्ता' (नि०सा०३)
लाख। ० निषिद्ध परिवर्तन।
नियुज् (नपुं०) ०स्थापित कसा, नियुक्त करना, पद देना। ० परिमितकाल।
नियोजयन् (जयो० ३/१) ० कालसीमाकरण।
नियुद्धं (नपुं०) [नि+युध्। क्त]० घमासान युद्ध करना, पैदल नियमपूर्वक, निश्चितविधि से। (सुद०७०) 'भूरानन्दस्यात्र लड़ना, व्यक्तिगत संघर्ष। नियमतश्चैवं वयं भवामा'
नियोगः (पुं०) [नि+युज्+घञ्] ० प्रयोग, उपयोग, नियुक्ति। नियमकृत (वि०) निसम से करने योग्य।
० आज्ञा, आदेश, प्रतिपालना, समझना। (समु० ४/३) नियमगत (वि०) नियम को प्राप्त, सीमाकरण को प्राप्त। ० अधिकार, कार्यभार, आयोग निदेश। (जयो०व० १/२०) नियमचर (वि०) परिमित समय पर विचरण करने वाला।
० आवश्यकता, अनिवार्यता। नियमनं (नपुं०) शासन, अवरोध, प्रतिबन्ध, सीमा, आचरण। ० प्रयत्न, चेष्टा, शिट रीति। नियमनिषिद्ध (वि०) अतिचारों से रहित, अनुष्ठान युक्त,
० कार्य में लगना। मूलगुण और उत्तरगुण से अतिचारों से रहित।
० निवासविधि (जयो० २७/११) नियमनिष्ठा (स्त्री०) नियम में दृढ़ता। नियम का पालन। | नियोगपूजित (वि०) पूजनीयमात्र। 'नियोगेन पूजितं नियमपत्रं (नपुं०) लिखित पत्र, नियमावली।
पूजनीयमात्रम्' (जयो०वृ० २/२४) नियमवती (स्त्री०) नियम वाली, वतिनी, व्रत पालन करने वाली। | नियोगवान् (वि०) समझने वाला। (समु०४/३) नियमित (वि०) ० विहित, निर्धारित। ० स्थिर, संवेदित, | नियोगिन् (पुं०) [नियोग इनि] मन्त्री, अधिकारी, कार्यपालक, प्रतिज्ञात, ० शासित, निर्देशित।
नियंत्रक, आमात्य। (जयो० १/१२) ० दूत (जयो०वृ० नियागः (पुं०) आमंत्रित आहार का ग्रहण, अनाचरित साधु। १/१२) 'निखिला अपि नियोगिनोऽमात्यादयस्ते' (जयो०१० नियानं (नपुं०) प्रयाण, प्रस्थान। (जयो० १३/४)
२६/३७) नियामक (वि०) [नि+यम् णिच्+ण्वुल्] नियंता।
नियोगिनी (वि०) अभिसम्बंध युक्त 'नियोगोऽभिसम्बन्धो यस्याः ० निरोधक, नियन्त्रक, नियम में आबद्ध रहने वाला। सा' (जयो० २४/३५) ० समागमिना-'निशमिन्दुनियोगिनीं ० प्रतिबन्धक, शासित।
बुमक्षो' पतनं किन्न रवेरहो मुमुक्षो! (जयो० २०/३४) ० ० शासन करने वाला।
विधेय, मान्य-'न त्रिवर्ग विषये नियोगिनी नापवर्गपथि नियामकः (पुं०) शासक, स्वामी, अधिकारी, नियंता। चोपयोगिनी। (जयो० २।८८) ० नियम पालन करने वाला . सारथि, चाचक, परिचालक। ० कर्णधार, केवट।
'वृषभृतां तदाश्रमगत-नियम-पालकानामेव नियोगिनी' नियुक्त (भू०क०कृ०) [नि+युज्+क्त] ० अधिकृत, निर्धारित (जयो०वृ० २/११७)
(वीरो० २१/१८) ० जात, निर्देशित, आज्ञप्त, अनुदिष्ट, | नियोग्यः (पुं०) [नि+युष्यन्] ० स्वामी, अधिकारी। आदिष्ट। 'सहसा जग्धिविधौ तु ते नियुक्ताः' (जयो० १२/१५) नियोजनं (नपुं०) [नि+युज+ल्युट] संलग्न करना, लगाना, ० संलग्न, तत्पर, उपवद्ध।
०पद लेना, कार्य कराना, आदेश देना, विधान करना, नियुक्तजनः (पुं०) अधिकृत व्यक्ति, निर्देशित व्यक्ति, निर्धारित नियत करना, प्रेरित करना। व्यक्ति।
नियोजित (भू०क०कृ०) [नि+युज+क्त] नियुक्त किया, नियुक्तनेत्रिन् (वि०) दत्त दृष्टि वाला, देखने वाला। 'शुकसन्नि- कार्यभार दिया, आदेश दिया, आज्ञा दी। 'यमेन नियोजतानि
चयाश्च यात्रिणां हृदि भान्ति स्म नियुक्तनेत्रिणाम्' (जयो० नियुक्तानि' (जयो०८/३८) १३/६०)
नियोध (वि०) [नि+युज्-यत्] अधिकारी, कार्यनिर्वाहक, नियुक्तिः (स्त्री०) [नि+युज+क्तिन्] • आदेश, आज्ञा, सेवक, भृत्य, नौकर। ० कार्यभार, पद, नियोजन।
नियोद्ध् (पुं०) [नि+युध्+तृच्] योद्धा, मल्ल, बलवान्, नियुक्तिमान् (वि०) माने गए। (जयो० २/६३)
शक्तिमान्।
oferte
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नियोधिन्
५६०
निरववेषेण
नियोधिन् (वि०) [नि+युध्न इनि] युद्ध करने वाला, संग्राम | निरनुग (वि०) अनुयायी से रहित।
करने वाला। 'नियोधिनां दर्पभृदर्पणालैर्यव्युत्थितं व्योम्नि निरनुनासिक (वि०) अनुनासिक विहीन, जिसके उच्चारण में रजोऽङ्घिचालैः। (जयो० ८/१४) 'नियोधिनां संग्राम नासिका का सहारा न लिया जाता हो। कुर्वताम्' (जयो०वृ०८/१४)
निरानुरोध (वि०) मैत्री की कमी, मैत्री का अभाव, निर् (अव्य०) [नृ+क्विप्] से मुक्त, से रहित, उससे दूर, अनुरोध रहित, सद्भावशून्य, करुणा विहीन। __बाहर, उसके बिना, पृथक्। (जयो० १/११)
निरपराध (वि०) निरालम्ब, अपराध रहित। (जयो० २/१३४) निरंश (वि०) पूर्ण, सम्पूर्ण, समस्त।
निरभ्यासः (पुं०) निरन्तर अभ्यास, अत्यधिक परिश्रम, निरक्षः (पुं०) ज्योतिष का भोगांश से मुक्त स्थान।
निरपत्रप (वि०) निर्लज्ज, ठीठ। निरंकुश (वि०) दबाव रहित, स्वतन्त्र। (जयो० ६/२९) (दयो०
निरपराध (वि०) निर्दोष, दोष रहित। अनागसृजन (जयो०वृ०३/५) ४०, जयो० ११/८९)
निरपाय (वि०) ०दुष्टता रहित, ०क्षयरहित, ०अमोध, निरंकुशकथन (वि०) उच्छृङ्खलभाषिन्। (जयो० ११/४१)
निरपेक्ष (वि०) अपेक्षा रहित, परानपेक्षा (भक्ति० ४) निरंग (वि०) अंगहीन, अवयव रहित।
स्वावलम्बी, अपने अस्तित्त्व को समझने वाला, अनपेक्ष निरंजन (वि०) निर्दोष, निष्कलंक (भक्ति०३), मिथ्यात्व
(भक्ति० ४) तृष्णा मुक्त, भयहीन। उदासीन, असावधान, रहित, राग-द्वेषादि रहित। सरल, मृदुस्वभावी (सुद०
०सांसारिक विषय वासनाओं से परे। १३५) ० परम विशुद्ध, आत्मस्वभावी।
निरभिभव (वि०) तिरस्कार से रहित, दीनता के भाव से निरगुः (वि०) निष्क्रान्त। (जयो० ८/३५)
विहीन। निरग (वि०) निकला हुआ। (जयो० १/१९)
निरभिमान (वि०) स्वाभिमानी, अहंकार से रहित। निरगत (वि०) बहना, बाहर निकलना। (जयो० ९/६४)
निरभिलाष (वि०) इच्छा शून्य, उदासीन। निरन्तरः (वि०) गुणस्थान से अन्तर नहीं।
निरभ्र (वि०) मेघ रहित, स्वच्छ गगन। निरंतर (वि०) लगातार, अव्यवहित। (वीरो० २/११ (सुद०१०७)
निरम्बर (वि०) दिगम्बर निर्दोष। (जयो० ८/५६) (वीरो० ९/२२) (जयो० १/११) व्यवधान रहित, अव्यच्छिन्न। अनारत
निरम्बु (वि०) प्रतिबन्ध रहित शून्य (जयो० २/५) अर्गलारहित, (जयो० २३/२) निरन्तगौरवधार (वि०) सदैव गौरव का आधार। (जयो०२/११०)
निबोध, अनियंत्रित, निर्विघ्न, पूर्णता, मुक्त।
निरर्थ (वि०) निर्धन, धनहीन, गरीब, ०अर्थहीन, निरर्थक, निरग्नि (वि०) अग्नि से रहित। निरत (वि०) तल्लीनता, उदासीन रहित, तत्पर। (जयो० २/१२)
०व्यर्थ, बेकार, अलाभकर।
निरर्थक (वि०) अनर्थक, व्यर्थ। तर्कसंगत न हो। निरत (वि०) उद्यत, प्रयत्नशील १. असदाचरण युक्त। २. नारक, नरक में उत्पन्न होने वाला।
निरवकाश (वि०) मुक्त स्थान से रहित। कार्य के प्रति निरतगतिः (स्त्री०) नरकगति। 'निरतानां गतिर्निरतगतिः' संलग्न, तत्पर। (धव० १/२०१)
निवग्रह (वि०) मुक्त, स्वतन्त्र, अनियंत्रित, अनवरुद्ध, निरतिचार (वि०) अतिचार रहित।
दुर्निवार, ०स्वेच्छाचारी, दुराग्रही, निर्दोष। निरतिचारिता (वि०) अतिचार का अभाव, परित्याग भाव निरवद्यभावः (पुं०) निर्दोष अवस्था। (जयो० ११/१०) वाला।
निरवधि (वि०) असीम, अनन्त अवधि से रहित। निरनुकम्प (वि०) स्वयं कंपित न होता हुआ, शान्त, सहृदय,
निरवद्य (वि०) पापवर्जित, निर्दोष। (जयो० २७/८) अनुकम्पा रहित।
निरवयव (वि०) ०अविभाज्य, ०खण्डरहित, भाग रहित, अंग निरनुतापी (वि०) पश्चात्ताप नहीं करने वाला।
रहित, ०अन्तरहित। निरतिशय (वि०) अद्वितीय, अनुपम, बेजोड़।
निरवलंब (वि०) असहाय, निराश्रम। निरत्यय (वि०) निर्भय, निरापद, भयहीन, सुरक्षित। निरवशेष (वि०) पूर्ण, समस्त, सम्पूर्ण, अखिल। निरध्व (वि०) मार्ग से च्युत, मार्ग को भूला हुआ। निरववेषेण (अव्य०) पूरी तरह से, पूर्ण रूप से।
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निरव्यप
५६१
निरीक्ष्य
निरव्यप (वि०) निर्दोष। (जयो० ७/३८)
निराय (वि०) लाभरहित, इच्छाशून्य। निरशन (वि०) भोजन से रहित, उपवास करने वाला। निरायास (वि०) सुलभ, तत्काल प्राप्त की जाने वाली, निरस्त (वि०) समाप्त, गत। (जयो० १४/८२)
परिश्रम के बिना प्राप्त होने वाली। निरस्तदोष (वि०) दोष रहित। (सुद० १/९)
निरायुध (वि०) निरस्त्र, निहत्था, हथियार से रहित। निरस्त्र (वि०) अस्त्र रहित।
निराग (वि०) राग रहित। (सम्य० १३०) निरस्तगत (वि०) समाप्त हुई।
निरालंब (वि०) स्वतंत्र, पराधीनता से विमुक्त, अकेला, निरस्य (सं०१०) निराकृत्य। (जयो०वृ० १/११)
असहाय, आत्मस्थ ध्यान। निरहंकार (वि०) घमण्डरहित, अभिमान शून्य।
निरालोप (वि०) ०इधर उधर नहीं देखने वाला। दृष्टिहीन, निरंहकृति (वि०) अहंकार से रहित। विनीत, नम्र।
प्रकाश रहित, अंधकार युक्त। निरहम् (वि०) अहं से मुक्त।
निरावरणज्ञानं (नपुं०) आवरण रहित ज्ञान, सर्वज्ञज्ञान। निराकांक्षा (वि०) आकांक्षा विहीन, चाह रहित। वस्तु तत्त्व भविष्यतामत्र सतां गतानां, तथा प्रणीलीं दधता प्रतानाम्। का ज्ञाता।
ज्ञानस्य माहात्म्यमसाववाधा-वृत्तेः पवित्रं भगवानधाऽधात्।। निराकार (वि०) आकार रहित, आकृति शून्य। 'अनाकार (वीरो० २०/५) दर्शनम्' ०आकार विहीन।
निराश (वि०) आशा रहित, उम्मीद रहित। निराकुल (वि०) आकुलता रहित, स्वस्थ। (जयो० २/१६४) निराशंक (वि०) निर्भय, शान्त, निरापद, निराकुल।
सचेष्ट, शान्त, स्थिर (जयोवृ० २३/६४) ०स्वच्छ, निराशिष् (वि०) उदासीन, खिन्न, अशान्त। निर्मल। चेतनाशील।
निराश्रय (वि०) आश्रयहीन, (जयो० २७/५८), मित्रहीन, निराकुलता (वि०) शान्ति। (जयो०वृ० १/११०)
दरिद्र, अकेला, एकाकी। ०शरणरहित, निरालम्ब निराकुलभाव (वि०) प्रसन्नता, आनंद, खुशी (जयो०वृ० २३/४७) (जयो०३/६५) 'निराश्रया न शोभन्ते वनिता हि लता इव' निराकुलमतिः (स्त्री०) स्वस्थ्यबुद्धि। निराकुलामतिर्यस्य | निरासः (पुं०) विनाश, नष्ट। (जयो० ३/६५) य तो (जयो०वृ० २/१०४)
ममान्तस्तमसो निरासः (वीरो० १४/२३) निराक्रोश (वि०) तिरस्कार से रहित, दोष से रहित, आक्रोश निरास्वाद (वि०) आस्वाद रहित, फीका। शन्य।
निराहार (वि०) उपवास करने वाला। निरागास् (वि०) निर्दोष, निरीह, निष्पाप, निरपराध। (जयो० निरिंधन (वि०) ईंधनरहित।
२/१३४) 'रक्षेच्छक्त्या किन्न निरागसः' (जयो० ४/४१) निरिच्छ (वि०) उदासीन, इच्छा हित। निराचार (वि०) आचारहीन, सदाचरण रहित।
निरिन्द्रिय (वि०) विकलांग, अग, दुर्बल, अशक्त, बलहीन। निराडंबर (वि०) आडम्बर मुक्त, ढोंग रहित। (वीरो०२२/१६) ____०इन्द्रिय अभाव, मन। निरातंक (वि०) आतंक से रहित, भयमुक्त, निर्भय। ० नीरोग, निरिय (वि०) चलने वाला। (वीरो० ७/७) स्वस्थ्य, सुखद। (जयो० ४/२७)
निरीक्ष (वि०) निरीक्षण, दर्शनार्थ। (वीरो० ५/८) गुरोगुरुणां निरादर (वि०) सम्मान हीन। (जयो० ३/४२)
भवतो निरीक्षा। निरापद (वि०) संकटमुक्त, आपत्तिविहीन।
निरीक्षण (वि०) दर्शनार्थ, देखना, अवलोकन। (जयो० ३/३) निराबाध (वि०) बाधामुक्त, बाधारहित, उत्पीड़न मुक्त। शान्त। निरीक्षणीय (वि०) दर्शनीय, अवलोकनीय। निरामय (वि०) ०रोगमुक्त, स्वस्थ्य, नीरोग। (मुनि० ६) निरीक्षमाण (वि०) देखने योग्य। (सुद० २/३४)
(वीरो० १८/६) निष्कलंक विशुद्ध। (हित० ४५) निरीक्षित (वि०) अवलोकित। (जयो० १/२२) निर्दोष, सम्पूर्ण, आनन्द, मंगलयुक्त।
निरीक्ष्य (वि०) देखने योग्य। (सुद० १०८) निरामिष (वि०) मांसाहार से रहित। (हित० ४५) | निरीति (स्त्री०) प्रावर्तत। ०वासनाशून्य, ब्रह्मलीन।
निरीतिभावः (पुं०) निराकरण भाव। (जयो० १/११) इच्छा निराम्य (वि०) निरामय, नीरोग, पूर्ण प्रसन्नचित्त
रहित, आर्शीवाद से वञ्चित, आशीष से रहित।
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निरीश्वर
५६२
निरोधः
निरीश्वर (वि०) ईश्वर को नहीं मानने वाला, आत्मवादी। । निरुद्यम (वि०) परिश्रम का अभाव, आलस्य। निरीषं (पुं०) हल का फाल।
निरुद्यमी (वि०) आलसी, सुस्त, कर्तव्यहीनता रहित, उद्योग निरीह (वि०) उदासीन, तृष्णा रहित।
में अभिरुचित नहीं रखने वाला। निरीहचित् (वि०) निस्पृहचित्त। (वीरो० १८/२३) निहथा, निरुद्धभूतल (वि०) अभिव्याप्त भू। (जयो० २४/४७)
निष्काम, निष्क्रिय। (जयो० २४/९०), ०इच्छा रहित विरुद्धवती (स्त्री०) प्रतिरुद्ध करने वाली। (जयो० १/४५) (जयो० २४/९०)
निरुदव (वि०) सुखद, भाग्यशाली, निर्बाध, निर्भय, शान्त। निरीहचारिन् (वि०) इच्छा रहित विहार। (वीरो० १५/११) किलानक-निरूपद्रवं। (जयो० २६/१५) निरीहता (वि.) आदृता, नि:स्पृता, वीतरागता। (वीरो० २०/२, निरुष्मन् (वि०) शीतल, ठंडा।
वीरो० १०/१५) इच्छा का अभाव, संतोपना। 'अधारयत निरुद्वेग (वि०) गम्भीर, शान्त, उत्तेजना रहित।
ईशिताऽऽदृता क्व रहोनीतिरहो निरीहता। (जयो० २६/६०) निरूप (वि०) निरूपण, कथन। (जयो० ५/४७) निरीहत्त्व (वि०) नि:स्पृहता। (जयो० २७/५४)
निरूपक्रम (वि०) आरम्भ रहित, कार्य के प्रारम्भ से रहित। निरीहतार्चिषिः (स्त्री०) नि:स्पृहता रूपी अग्नि। (मुनि० ३३) निरूपक्रम (वि.) कर्म परिपाक के प्रयत्न से रहित।
'सम्यक्त्वेन निरीहतार्चिषि तपत्येवं तपस्वी भवेत्। । निरूपणं (नपुं०) आलम्बन, सहारा-०कथन, विवेचन। (जयो० (मुनि० ३३)
५/४७), बौद्धमत के पांच विज्ञानधातुओं में एक निरुच्छवास (वि०) श्वास रहित।
निरूपण विज्ञान, भक्तप्रत्याख्यान मरण, राज्यादि का निरुत्तर (वि०) अद्वितीय, अनुपमा (जयो० २०/७१)
अन्वेषणा निरुक्त (वि०) कथित, प्रतिपादित। (जयो० ४/३२) निरूद्ध (वि०) [निरुध्+क्त] अविरुद्ध, प्रतिरुद्ध। निरुक्तमूर्ति (वि०) स्थित, स्थिर, पुत्तलिका की तरह। निरूपयोगि (वि०) अनुपयोगी, उपयोग में नहीं आने वाला।
'तम:समूहेन, निरुक्तमूर्तिमिभं तदाऽरुक्षदथार्ककीर्ति:' 'यत्र यन्निरूपयोग तत्र तद्दानमप्यनुवदामि पापकृत्। (जयो (जयो०८/६०)
२/१०३) निरुक्ति (स्त्री०) [निर+व+क्तिन] कथन, (वीरो० २२/२३) निरूपप्लव (वि०) बाधा रहित।
०व्युत्पत्ति, शब्दों की व्याख्या, परिभाषात्मक व्याख्या, निरूपम (वि०) अनुपम, अद्वितीय, बेजोड़।
शब्द विश्लेषात्मक व्याख्या। 'ईदृक् निरुक्तिः क्रियते निरूपरागः (पुं०) शुद्धात्मानुभूति से च्युत। (सम्य० १३५) (सम्य०७१) उक्ति का नाम निरुक्ति। (सम्य० ७१) निरूपसर्ग (वि०) उत्पात रहित, उपद्रव रहित। क्रिया एवं कृदन्त द्वारा काव्यालंकारपूर्वक विवेचन। 'पदानि निरूपेक्ष (वि०) उपेक्षा विहीन, सतर्क, सावधान। सुप्तिङन्तात्मकानि उद्धरन्, प्रकृति- प्रत्ययादि-निरुक्तया निरूह (पुं०) [नि+रुह्+घञ्] तर्क, युक्ति, नि:संकोच, शोधयन्। (जयो०१० २/५२) निर्णयात्मिको-क्तिर्यस्य स | निश्चितता, निश्चय (जयो० १४/९५) निरुक्तिः (जयो० ४/१४) ०कहने वाला। प्रवृत्ति (जयो० निरेति निकलना (जयो० १३/५०) निःसरति, निर्गच्छति (जयो० १९/६) गृहीततमूर्तिः शशिनः प्रसाद आसीच्च ९/४८) गण्डूषनिरुक्तिवादः। (जयो० १९/६)
निरेना (वि०) पाप हीन। (जयो० २२/९) (सम्य० १०९) निरुक्तिवादः (पुं०) प्रवृत्तिवाद। (जयो० १९/६) ०व्याख्या, निरेन (वि०) नहीं हुए। (वीरो० २२/४) विश्लेषण
निरोधः (पुं०) [निरुध्+घञ्] रोक, रोकना, घेरना, वश में निरुचि (वि०) रुचि का अभाव। निरुच्यते-बतलाना (जयो०) करना। प्रतिबन्ध, दमन, नियंत्रण। एकचिन्ताविरोधो (वीरो०४/६)
यस्तद्ध्यानभावना परा। (सम्य० ११६) निरुत्सवः (वि०) उत्सव विना।
० रुकावट, विरोधा निरुत्साह (वि०) स्फूर्ति रहित, उत्साह से रहित, उदासीन। • ध्वंस, विनाश। निरुत्सुक (वि०) शान्त, उदासीन, चुपचाप।
० अरुचि। निरुदक (वि०) जलविहीन।
० निराशा।
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नरौष्ठय
५६३
निर्णयपादः
निरौष्ठ्य (वि०) ०अपवादपन (वीरो० २/३९) ०ओष्ठ से निर्जरः (पुं०) देव, अमर निर्णयपादः
बोले जाने वाले का अभाव। विरोधिता पञ्जर एव भातु निर्जरणं (नपुं०) गलन, पतन। निरौष्ठ्य काव्येष्वपनादिता तु। (सुद० १/३३)
निर्जरप्राय (वि०) जरा रहित, सदैव, युवा रहने वाला। (जयो० निर्गः [नि+गम्+ड] देश, प्रदेश, स्थान।
२४/१२८) निर्गच्छन्ती (वि०) निकलती हुई। (जयो०वृ० १/२०) निर्जरस्थण्डिल (वि०) निर्जर भाग वाले। (दयो० २२) निर्गत (वि०) बहती हुई।
निर्जरा (स्त्री०) गलना, नष्ट होना, पृथक् होना। एकदेशेन निर्गंधनं (नपुं०) [निर्- गंध ल्युट्] वध , हत्या।
कर्मण। निर्गुण (वि०) गुणहीन, ओज, प्रसाद, माधुर्य रहित।
निर्जरणं गलनं अध: पतनं शटनं निर्जरा। (कार्तिकेयानप्रेक्षा निर्ग्रन्थः (पुं०) दिगम्बर। (दयो० २२) (सम्य० १४२) टी० २) परिग्रहाहित (जयो० २८/६३)
निर्जीर्यते निरस्यते यया निर्जरणमात्रं वा निर्जरा। (त०वा० निर्ग्रन्थत्व (वि०) निर्ग्रन्थपना, बाह्य एवं आभ्यन्तर ग्रन्थ का १/४) निर्जीर्यते निरस्यते यया निरसनमात्रं वा निर्जरा परित्याग करने वाला।
(त०वा० १/४) निर्ग्रन्थधर्मः (पुं०) श्रमणधर्म। दिगम्बर धर्म।
कर्मों का एकदेश डालना। (सम्य० ८४) निर्ग्रन्थवृत्तिः (स्त्री०) साधुवृत्ति। (मुनि० २) मुनिवृत्ति।
०कर्मपरित्याग, कर्मविपाक। निर्ग्रन्थपदं (नपुं०) निर्ग्रन्थस्थान। (मुनि० ३४)
निर्जरानुप्रेक्षा (स्त्री०) निर्जरा का चिन्तन। निर्ग्रन्थमार्ग (पुं०) वीतरागमार्ग।
__ गुण-दोषों का अनुचिन्तन। निर्ग्रन्थसाधु (पुं०) वीतरागमार्ग प्रवर्तक साधु। दिगम्बर मुनि। । निर्जराभावः (पुं०) निर्जरा का परिणाम, कर्म की पृथक्ता। निर्गमः (पुं०) [निर्गम्। अप्] निकलना, प्रयाण करना। निर्जित (वि०) पराभूत, परास्त। (जयो० १/२५) निर्गमक्षणं (पुं०) निकलना, बाहर।
निर्जीर्ण (वि०) निर्जरा करते हुए। (सुद० ११९) निर्गुन्ददेश: (पुं०) दक्षिण का एक देश (वीरो० १५/३५) । निर्जीव (वि०) पौद्गलिक, निगूढः (पुं०) वृक्ष का कोदर।
'प्राणिनां शुभाशुभविधि-विधायकमदृष्टं तत्पौद्गलिक निर्घटः (पुं०) [निर्। घण्ट्+घञ्] ०शब्दावली, शब्दसंग्रह, निर्जीवमेव वस्तु भवतीति जैनसिद्धान्त'। (जयो०वृ० १०/०३) ००सूचीपत्र।
निर्जल (वि०) मरुभूमि, जलरहित। निर्घषण (नपुं०) [निर्+घृष्+ ल्युट्] रगड़, टक्कर। निर्जल्प (वि०) मौन। (जयो० २/१२३) निर्घातः (पुं०) [नि+ह्र+घञ्] विनाश, हानि, क्षय। वज्रपात, निर्जल्य (वि०) लज्जा रहित, अपत्रय। (जयो० ३/१०५) ० भूकम्प।
निज़र (वि०) स्वस्थ वर रहित। निर्घातनं (नपुं०) [नि+हन्+णिच्+ल्युट्] बलपूर्वक बाहर निर्झरः (पुं०) [नि+क+अप] निर्झर, प्रपात। निकालना, प्रकाशित करना।
निर्झरं (नपुं०) प्रपात, झरना, प्रवाह, स्यन्द। (जयो० ३/१०४, निर्घोषः (पुं०) [निर्+घुष्+घञ्] विवाद, ध्वनि, ठनक। जयो० २१/२२) 'प्रसर-द्रससारनिर्झरः स निसस्वान वरं हि खनक, झनझनाहट।
झर्झर:। (जयो० १०/१५) निर्पण (वि०) क्रूर, निष्ठुर, निर्दष्ट, निर्दोष। (जयो० २/३२) निर्झरिन् (पुं०) [निर्झर+इनि] पर्वत, पहाड़। निर्जन (वि०) शून्यस्थान, एकान्त, सुनसान।
निर्झरिणी (स्त्री०) [निर्झरिन्+ङीष] ०झरना, प्रवाह, प्रपात, निर्जन्तुक (वि०) जन्तुविहीन। (वीरो० १४/४३)
स्रोत, ० कलम, लेखिनी। निर्जन्म (वि०) उत्पत्ति रहित।
निर्णय (वि०) [निर्+नी+अच्] निर्धारण, फैसला, स्थिरीकरण, निर्जगाम (पुं०) निकला। (वीरो० १४/१६)
प्रकरण (जयो० ३/१२) उपसंहार, समापन, प्रदर्शन, निर्जयः (पुं०) [निर्+जि+अच] परास्त करना, विजय पाना। विचारविमर्श, गवेषणा, विचारण। नीतिशास्त्र (जयो० निर्जर (वि०) जरा रहित, सदैव। (जयो० ४/५८)
३/१२) व्यवस्था, मत, निश्चय। (जयोवृ० २/५) निर्जरत्व (वि०) युवा रहने वाला। (जयो० २४/१२८) निर्णयपादः (पुं०) व्यवस्था, मत, विज्ञाप्ति, घोषणा।
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निर्णयवेदः
५६४
निर्धारण
निर्णयवेदः (पुं०) प्रमाणभूत ज्ञान। (जयो० २/१३७)
०वर्णित, प्रतिपादित, विवेचित, कथित, अधिन्यस्त, नियत, प्रमाणित करने वाला, प्रामाणिक।
आदिष्ट, आज्ञापित, ०इंगित, निर्धारित। निर्णयात्मिक (वि०) कहने वाला। (जयो०वृ० ४/१४) निर्दुःख (वि०) पीड़ा रहित, स्वस्था । निर्णायक (वि.) [नि नी+ण्वुल] निर्णय देने वाला, फैसला निर्देशः (पुं०) [निर् दिश्+घञ्] ०आदेश, आज्ञा, निर्देश। करने वाला।
उपदेश, कथन। निर्देशः स्वरूपाभिधानम्। (स०सि० १/७) निर्णायनं (नपुं०) [निर्+नी ल्युट्] निश्चय करना, प्रमाणित प्रमाण, निरूपण। करना।
निश्चिय, स्पष्टीकरण। निर्णिक्त (भू०क०कृ०) [निर+नि+क्त] शुद्ध किया हुआ,
निर्देशता (वि०) वाच्यता, वचनगोचरता, स्पष्टीकरण, निश्चयता। स्वच्छ किया गया।
जग्मुर्निवृतिसत्सुखं समधिकं निर्देशतातीतिपम्' (जयो० निर्णितस्तिः (स्त्री०) [नि+नि+क्तिन्] सफाई, धुलाई,
२७/६६) ०परिशोधन, पश्चात्ताप।
निर्देशदोषः (पुं०) विवक्षित शब्द न कहना, उद्देश्य पदों में निर्णीत (वि०) अनुभूत, परिशोधित। तुष्टियुक्त। (जयो०
एकवाक्यता न होना।
निर्देशिनी (स्त्री०) देशिनी, प्ररूपिणी। (जयो० २/४३) २/१२३) निर्णेकः (पुं०) [नि+नि+घञ्] ०प्रक्षालन, सफाई, धुलाई।
निर्देशित (वि०) प्ररूपित, कथित (जयो० ७) प्रायश्चित्त, पश्चात्ताप, परिशोधन।
निदेष्टा (वि०) निर्देश करने वाला। (सम्य० ९३) निर्णेजकः (पुं०) [निर्+निज्+ण्वुल्] धोबी, रजक।
निर्दोष (वि०) निरपराध, दोषरहित, ०शुचि, समुज्ज्वल, निर्णेजनं (नपुं०) [निर्'निज्+ल्युट्] प्रक्षालन, संचालन,
प्राशुकत्व (जयो०१० २८०) ०अवमल, मलरहित
(जयो० १४/९६) परिशोधन, प्रायश्चित्त, पश्चात्ताप।
निर्दोषता (वि०) दोषों से, राग, द्वेष एवं मोहादि दोषों से रहित। निर्णोदः (पुं०) [निरनिद्घञ्] दूर करना, निर्वासन।
(दयो० ६८) निर्दड (वि०) दण्ड रहित।
निर्दोषत्व (वि०) निर्दोषता युक्त, मोहादि दोषों से रहित। निर्दण्डः (पुं०) क्षुद्र, शूद्र।
निर्दोषप्रवृत्तिः (स्त्री०) उत्तम प्रवृत्ति, उज्ज्वल भाव, शुचि निर्दर्प (वि०) अहंकार रहित। (सुद०७१)
भाव। (मुनि०८) निर्दय (वि०) क्रूर, निर्मम, करुणारहित। (जयो० १२/११६)
निर्दोष रूपः (पुं०) शुचि स्वरूप, विकार रहित रूप, उत्तम निर्दयं (अव्य०) निष्ठुरता के साथ, क्रूरतापूर्वक।
लक्षण। (भक्ति० २१) निर्दोषरूपाय गुणाश्रयाय तस्मै च निर्दयत्व (वि०) आकारूण्य, करुणा विहीन। (जयो० २/१३०)
भव्याम्बुजभास्कराय। (भक्ति० २१) निर्दरः (पुं०) [निर्+दृ+अप्] कन्दर, गुफा।
निर्द्वन्दभावः (पुं०) निराकुल भाव। (मुनि०५) (वीरो० १७/४५) निर्दलनं (नपुं०) [निर्+द+ल्युट] तोड़ना, ध्वंस करना, नष्ट
निर्द्रव्य (वि०) सम्पत्ति रहित, धन रहित। करना, पीसना, खण्ड-खण्ड करना, चूर्ण करना, कुचलना।
निदोह (वि०) द्रोह रहित, मैत्रीपूर्ण व्यवहार वाला। निर्दह (सक०) जलाना, प्रज्ज्वलित करना, दग्ध करना।
निर्धन (वि०) गरीब, दरिद्र। (सुद० ११२) किं निर्धनं किं (जयो० ६/३६)
पुनरत्र धन्यम्। धनहीन, सम्पत्तिरहित। (जयो०० २/२८) निर्दहनं (नपुं०) जलाना, दग्ध करना।
निर्धनत्व (वि०) निर्धता, दरिद्रता। 'मृत्युं जीवनमामनन्ति सुधयो निर्दातृ (पुं०) [नि+दा+तृच्] ०दाता, गिराने वाला।
ये निर्धनत्वं धनम्। (मुनि० २५) निर्दारित (वि०) [निर+दृ-णिच्+क्त] विदारित, विदीर्ण, खण्डित | निर्धर्म (वि०) धर्महीन, अधर्मी। किया।
निर्धारः (पुं०) [निर्+धृ+णिच्+घञ्] निश्चय करना, निर्णय निर्दिग्ध (वि०) [निर+दिहक्त] सुपोषित, हृष्ट-पुष्ट किया, करना, फैसला करना। ०बहुत में से किसी एक का घर। लेपित, मर्दित।
निर्धारणं (नपुं०) [निर्+धृ+णिच्ल्यूट्] निश्चय करना, नियत निर्दिष्ट (भूक०कृ०) [निर्+दिश्+क्त] ०संकेतित। 'साशयने करना, निर्णय करना, धारणा, विचार। 'न तु शक्नोमि
निर्दिष्टे' (जयो० ६/२०) दिखाया हुआ, बताया हुआ। निर्धारण। (दयो०७३)
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निर्धारित
५६५
निर्माण
निर्धारित (वि०) [निर्+धृ+णिच्+क्त] निश्चय किया गया,
नियत किया गया। निर्धूत (वि०) परित्यक्त, हटाया गया, निर्धूम (वि०) धूम रहित, स्वच्छ, साफ, स्पष्ट। निधूमसप्तार्चिः (स्त्री०) निर्धूम अग्नि। निर्धूमसप्तार्चिरिवान्तस्तु
स्वकीय कर्मेन्धनभस्मवस्तु। (सुद० २/४०) निधौत (पुं०) (भू०क०कृ०) [निर्धाव्+क्त] धो दिया गया,
प्रक्षालित किया गया, साफ किया गया। निर्नर (वि०) मनुष्य विहीन, शून्य, बीहड़, उजड़ा हुआ। निर्नाथ (वि०) नाथ रहित, स्वामी रहित। निर्नायक (वि०) नायक विहीन। निनिद (वि०) नींद से रहित, जागरुक, सजग। निर्निमन्त्रण (वि०) आमन्त्रण बिना। (जयो० ४/१२) निर्निमित्त (वि०) अकारण, अहेतुक, बिना कारण के। (सुद०९५) निर्मिमेष (वि०) टकटकी लगाने वाला। (सुद० ३/९) निर्निमेषनयनं (नपुं०) चित्रित नयन। 'निर्निमेषाणि नयनानि
यस्य' (जयो० ५/१९) निर्बन्ध (वि०) दुराग्रह, हठ। निर्बन्धु (वि०) मित्र रहित, बन्धु विहीन, मित्रहीन। निर्बल (वि०) शक्तिहीन, बलहीन। 'निर्बलस्य बलिना
विदारणमन्यता सहजक सुधारण। (जयो० २/१०२) निर्बलोद्धतिः (स्त्री०) निर्बलों का उद्धार। 'निर्बलानां
उद्धृतिरुद्धारस्तस्यां परस्तत्परः' (जयो०वृ० ३/२) निर्बाध (वि०) अनपाय, बाधा रहित, निरूपद्रव। (भक्ति० १६)
एकान्त, निर्जन, सुनसान। निर्बुद्धि (वि०) मूर्ख, अज्ञानी। निर्बुष (वि०) भूसी से रहित। निर्भट (वि०) [नि+भट्+अच्] कठोर, दृढ़। निर्भय (वि०) ०भय रहित, शंका रहित, निडर, नि:शकं,
(जयो० १३/४०) ०सुरक्षित, संरक्षिता निर्भयकर (वि०) अभय प्रदाता, महादाता। (जयो०वृ० १/१०८) निर्भयभावः (पुं०) अभय भाव। (जयो० १/९८) निर्भयमास्थित (वि०) निर्भयता से स्थित, निर्भयपूर्वक खड़े
हुए। अपि निर्भयमास्थिताः कथं व्रजतीतः खलु वाजिनां
व्रजः। (जयो० १३/१४) निर्भर्त्सनं (नपुं०) [निर् + भ + ल्युट्] गाली,
झिड़की, निन्दा, अपमान, दोषारोपण, दुर्भावना। निर्भर (वि०) अत्यधिक, तीव्र, उग्र, दृढ़, प्रगाढ़, गहरा, गम्भीर।
निर्भाग्य (वि०) भाग्य हीन, दुर्भाग्यपूर्ण। निर्भीक (वि०) निरङ्कश, उच्छृङ्खल। (जयो० ११/४१) निर्भीकलोकः (पुं०) उच्छृङ्खल भाषी कवि। निर्भीषणः (पुं०) विभीषण, रावण का भाई। (वीरो० १७/२९) निर्भूति (वि०) उचित कार्य नहीं करने वाला। निर्भेदः (पुं०) [नि+भिद्घञ्] विभक्त करना, खण्ड-खण्ड
करना। ०स्पष्ट उल्लेख, ०अभेद, सामान्य। निर्मक्षिक (वि०) मक्षियों से मुक्त। निर्मत्सर (वि०) ईर्ष्यारहित, मत्सर रहित। (वीरो० ११/३) निर्मत्स्य (वि.) मछलियों से रहित। निर्मथः (पुं०) [नि+मर्थ+घञ्] मथना, हिलाना, रगड़ना। निर्मथनं (नपुं०) मथना, बिलौना। निर्मथ्य (वि.) [नि+मंथ्+ण्यत्] मथने योग्य, हिलाने योग्य। निर्मथ्यं (नपुं०) अरणि, जिस पर रगड़कर आग पैदा की जाती है। निर्मद (वि०) गम्भीर, शान्त, सरल, मद रहित। निर्मनुज (वि०) मनुष्यों के अभाव वाला स्थान। निर्मन्यु (वि०) उदासीन, संसारिक संबंधों से युक्त। निर्मर्याद (वि०) मर्यादा विहीन, अपरिमित, अनियंत्रित, सीमा
का उल्लंघन करने वाला। निर्मम (वि०) ममत्व रहित, संकल्परहित।
उद्दण्ड, पापी, अपराधी। निर्मल (वि०) शुद्ध, निष्कलंक। भेज्ञानमुदेति निर्मलमिदं
मोदध्वमध्यासिताः' (सम्य० १४४)
अम्भस्यमल, समप्रत्यल, मल रहित। (जयो० वृ० १३/९३)
स्वच्छ, पवित्र (जयो० १२/१२०) (सु०७१) 'कञ्चन
कलशे निर्मलजलमधिकृत्य मञ्जु गङ्गायाः। (सुद०७१) निर्मलपथं (नपुं०) उन्नतमार्ग, सरलमार्ग, सीधा रास्ता। निर्मलबोधः (पुं०) पवित्रज्ञान। निर्मलभावः (पुं०) शुद्धभाव, उत्कृष्टभाव। निर्मलरसं (नपुं०) पवित्र शुद्ध आसव। (सुद० ३) निर्मला (वि०) शुक्ला, शुभ्रा। (जयो० १/) निर्मलाम्बरवती (स्त्री०) निर्मल आकाश वाली। (जयो० ४/५०) निर्मलायते -पवित्र करता है। (जयो० १/१०५) निर्मशक (वि०) मच्छरों से मुक्त। निर्मार्ग (वि०) पथ शून्य, भटका हुआ। निर्माणं (नपुं०) [नि+मा+ ल्युट्] १. उत्पादन, रचना, कृति,
आकृति। ०बनावट, रूप, आकार, ०सर्ग। (जयो० ११/४५)
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निर्माणकथा
५६६
निर्रक्तं
२. नियतमाप-, माप, जाति, लिंग, व्यवस्था, परिनिष्पत्ति, अन्तर्धान, तल्लीनता। परिनिर्माण।
मरण, मृत्यु। निर्माणकथा (स्त्री०) नियामक कथा।
०पशुबन्धन की रस्सी। निर्माणकार्यः (पुं०) कृतिकर्म, रचनाधर्मिता।
०हस्ति की आंख का बाहरी कोना। निर्माणयुक्तं (वि०) बनाने योग्य, रचने योग्य।
निर्याणकथा (स्त्री०) निकलने की कथा, निष्क्रमण कथा। निर्माणकाल (पुं०) संघटनकाल। (जयो० ११/३५)
निर्यातनं (नपुं०) [निर्+यत्+णिच्+ ल्युट्] ०प्रत्यर्पण, उपहार, निर्माणस्थानं (नपुं०) रचना स्थल।
दान। ०अर्पण करना, लौटाना निर्माय (सक०) रचना, बनाना। (सुद० ९४)
निर्याति (स्त्री०) [निर्+या+क्तिन्] निकलना, बाहर जाना, निर्मायक (वि०) शिल्पकृत। (जयो०वृ० १७/५२)
प्रस्थान, प्रयाण, गमन। (जयो० १६/८१) निर्मायित (वि०) रचित, निर्मित। (जयो० १९/८५) निर्यापकः (पुं०) निर्यापक श्रमण। जो व्रत का आरोपण करने आकार का नियामक, ०अंग-उपांग का निवेश स्थान।
वाला हो। निर्माल्यं (नपुं०) [निर्+मल्+ण्यत्] १. देवपूजन को चढ़ाया ०कल्प-अकल्प में प्रवीण। गया द्रव्य अवशेष। २. शुद्धता, स्वच्छता, शुभ्रता, शुचिता।
सूत्रार्थ का ज्ञाता। निर्मिति (स्त्री०) [निर्+का+क्तिन्] सृजन, कृति, रचना, निर्यापकपरिग्रहः (पुं०) समाधि में सहायक परिवर्ग/ उत्पादन, कलात्मक रचना।
परिजनसमुदाय। निर्मुक्त (भू०क०कृ०) [निर्+मुच्+क्त] वियुक्त, छोड़ा गया, निर्याम (पुं०) [नि+यम् णिच्+घञ्] मल्लाह, नाविक, चालक, अलग किया गया।
कर्णधार। निर्मूटः (पुं०) रवि, सूर्य।
निर्यासः (पुं०) [निर्+यस्+घञ्] गोंद, रस, राल, पौधों का निर्मूल (वि०) निराधार, आधारहीन, जड़ रहित।
निःश्रवण। निर्मूलनं (नपुं०) [निर्+मूल+ल्युट्] उच्छेदन, उच्चाटन, नियुक्ति (वि०) सहित। (जयो० २४/९०) उखाड़ना, फेंकना, नष्ट करना।
नियुक्तिः (स्त्री०) सम्पूर्ण युक्ति, पूर्ण उपाय निश्चय से निर्मूष्ट (भू०क०कृ०) [निर्+मृज्+क्त] पोंछा गया, धोया अधिक से अधिक व्याख्या। गया, प्रक्षालित।
निर्युहः (पुं०) [निर्+उ+क] कंगूरा। निर्मेघ (वि०) निरन्ध्र, मेघ रहित।
०मीनार, बुर्ज, कलश, ०मंदिर के ऊपरी भाग का निर्मेध (वि०) बुद्धिहीन, जड़, मूर्ख, अज्ञानी।
कलश। निर्मोकः (पुं०) [नि+मुच्+घञ्] केंचुली। (वीरो० २/२४) शिरोभूषण, मुकुट, चूडामणि।
निर्मोकस्य परित्युतामहिपते संज्ञयती का क्षतिः (मुनि० १८) ०खूटी, फाटक। निर्मोक्ष (पुं०) [नि+मोक्ष+घञ्] मुक्ति, मोक्ष, निर्वाण, छूटना। | नियूंथ (वि०) यूथ से विलग, हस्तिसमूह से अलग हुआ। निर्मोचनं (नपुं०) [निर्+मुच्+ल्युट्] मुक्ति, छूटना। निर्वृहः (पुं०) शृंग, द्वारप्रदेश। 'नि!हो द्वारिः निर्यासे शिखरे निर्मोह (वि०) मोह रहित, माया से रहित, ममत्व रहित। नागदन्तके' इति विश्वलो। (जयो० २४/५०) निर्यन (वि०) उद्यमहीन, परिश्रम रहित, निश्चेष्ट।
नागदन्ती, खूटी। नियंत्रण (वि०) ०निर्बाध, प्रतिबन्ध शून्य, अवरोध मुक्त। शिरोभूषण, चूडामणि। स्वेच्छाचारी, उद्दण्ड।
शिखर, मंदिर का कलशा। निर्यशस्क (वि०) यशहीन, कीर्तिरहित, लज्जाशील। निर्योगः (पुं०) योग रहित, मन, वचन और काय की प्रवृत्ति निर्यदालिवृन्दः (पुं०) निकलने वाले भ्रमर समूह। 'निर्यतामलीनां __ का अभाव, योग के विना। भ्रमराणां वृन्द: समूहस्तस्य' (जयो० १८/२०)
निर्योगविसर्जनं (नपुं०) विदाई। 'तनये मन एतदातुरं तव निर्याणं (नपुं०) [निर्+या+ ल्युट्] निष्क्रमण, प्रयाण, प्रस्थान, निर्योगविसर्जने परम्। (जयो० १३/९) गमन।
निर्रक्त (वि०) फीका, रंग विहीन।
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निर्रज
५६७
निर्वाणधनं
निज (वि०) राग रहित, रज रहित, धूल से विहीन। निर्वर्तना (स्त्री०) जो रचा जाता। 'निर्वर्त्यते इति निर्वर्तना' निर्रजस् (वि०) रजस्वला से रहित स्त्री।
(त०वा० ६/९) निर्रव (वि०) ध्वनि रहित।
निवर्तमान (वि०) अतिवर्तमान, आने वाला समय। (वीरो०६/२४) निर्रस (वि०) रस विहीन, स्वादरहित।
निर्वचनं (नपुं०) [निर+व+ल्युट] अभिप्रायस्पष्टीकरण (जयो० सूखा, रूखा, शुष्क।
२३/२४) उच्चारण, उक्ति, लोकोक्ति, नियुक्ति, व्युत्पत्ति, व्यर्थ, बेकार।
शब्दावली, शब्दसूची। निर्लक्षण (वि०) ०लक्षण रहित, चिह्न से विमुक्त, ०अनावश्यक, निर्वचनान्वयः (पुं०) कथञ्चिद् वाद की स्वीकृति। (वीरो०१२) अमंगलकारी, निरर्थक।
निर्वप् (सक०) देना, प्रदान करना। (जयो० २/१००) निर्लज्ज (वि०) लज्जाविहीन, ढीठ।
निर्वपणं (नपुं०) [नि+व+ल्युट] उड़ेल देना, डालना, भेद निर्लज्जता (वि०) लज्जाविहीनता। (सुद० ११२) अकारि करना, उपहार देना, दान, पुरस्कार।
निर्लज्जतया तया तु नाहो कुलीनत्वमधारि जातु। (सुद०१०१) निर्वर्णनं (नपुं०) [निर्+वर्ण+ल्युट्] देखना, अवलोकन करना। निर्लाञ्छनं (नपुं०) नासिक वेधन, गल-कम्बल विच्छेद, निर्वस्त्रं (नपुं०) निर्ग्रन्थ, दिगम्बर (जयो० १/२२) __ अङ्गावयव छेद।
निर्वहणं (नपुं०) [नि+व+ल्युट] ०अन्त, पूर्ति। निर्वाह निर्लिंग (वि०) चिह्न विहीन, लक्षण रहित, पहचान रहित। करना, जीवित रखना (सुद० १३१), ०ध्वंस, विनाश, निर्लुञ्चनं (नपुं०) [नि+लुंच। ल्युट्] उखाड़ना, फाड़ना, छीलना। सर्वनाश। उपक्रान्ति, परिवर्तन, अन्तिम अवस्था। निर्लुठनं (नपुं०) [निर्+लुंठ+ ल्युट्] लूटना, अपहरण करना। निर्वहणीय (वि०) निर्वाह करने योग्य। (वीरो० १८/३१) निर्लेखनं (नपुं०) [निर्+लिख्+ ल्युट्] ०नोचना, खरोंचना, निर्वाञ्छक (वि०) वाञ्छारहित। (जयो० १२/८७) खुरचना।
निर्वाण (भू०क०कृ०) [निर्वा +क्त]०मुक्ति, मोक्ष। रोपी, खुरपी, खुरचनी।
०परतन्त्रता की निवृत्ति। निर्लेप (वि०) लेप रहित, मालिश रहित।
०आत्मतत्त्व की उपलब्धि। निर्लेपनं (नपुं०) आहार, शरीर, इन्द्रिय और आनपान अपर्याप्तियों राग-द्वेष की इतिश्री। की निर्वृत्ति।
सकल कर्म विमोचन निर्लेपनस्थानं (नपुं०) कर्मलेप से दूर होने का स्थान।
•बुझाया, फूंक मारना। निर्लोभ (वि०) लोभ रहित, लालच रहित।
लुप्त, नाश, क्षय। निर्लोमन् (वि०) ०लोमाभाव, विलोम। (जयो० ११/१८) मृत, मरा हुआ, जीवन मुक्त।
रोम राजिरहित। (जयो० ३/४६), बाल रहित, ० अस्त, ०शान्त, ०चुपचाप। केशराजिशून्य।
०लोप, दृष्टि ओझल। निर्वंश (वि०) नि:सन्तान, वंशहीन।
विघटन। निर्वण (वि०) नग्न, निर्ग्रन्थ।
०शून्यता, टिकता, अभाव। ०वन से रहित।
०आनन्द, परमपद प्राप्त। ०खुला हुआ।
निर्वाणगत (वि०) मुक्ति प्राप्त। निर्वर्गुणा (स्त्री०) अपसरण भेद, बन्ध और उदय सम्बंधी निर्वाणगृहं (नपुं०) नष्ट गृह।
जघन्य कृष्टियों के अनन्त गुण-हानि के क्रम से होने निर्वाण-कर्म (पुं०) कर्मक्षय। वाले अपसरण भेद।
निर्वाणकाण्डं (नपुं०) मुक्तिपथिक का खण्ड के रूप में निर्वर्गणाकाण्डकः (पुं०) एक प्रमाण, अध: प्रवृत्तकरणकाल वर्णन, निर्वाण स्थान का कथन।
के संख्यातवें भाग मात्र परिणामस्थानों का नाम। निर्वाणतोषः (पुं०) संतोष का अभाव। निर्वर्तनं (नपुं०) प्रमाण विशेष, पल्योपम के असंख्यातवें भाग | निर्वाणदोष (पुं०) दोष क्षय। प्रमाण स्थिति। निष्पत्ति, पूर्ति, कार्यान्विति।
निर्वाणधनं (नपुं०) लुप्तधन।
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निर्वाणपथं
५६८
निर्विवर
निर्वाणपथं (नपुं०) मुक्तिपथ, दर्शन, ज्ञान और चारित्रपथ। निर्विण्ण (भू०क०कृ०) [निर्+विद्+क्त] ०व्याधि युक्ति। मोक्षपथ।
खिन्न, दु+खित, निर्वेदयुक्त। निर्वाणमार्गः (पुं०) सकल कर्मों की आत्यन्तिक निवृत्ति का कृश, शरीर से खिन्न। मार्ग, मुक्तिमार्ग, मोक्षमार्ग।
•पतित, क्षीण, मुझाया हुआ। निर्वाणसुखं (नपुं०) अनुपम सुख, अनन्त सुख, शाश्वत घृणित, वैराग्य। (जयो० २६/१०४) मुख।
विनम्र, विनीता निर्वाणिभवः (पुं०) मुक्त पुरुष। (जयो० २/२४)
निर्विण्णान्त (वि०) उदासीनता (समु०९/२) निर्वास (वि०) वायु रहित।
निर्विघ्न (वि०) बाधा रहित। निर्वादः (पुं०) [नि+वद्+घञ्] दुर्वचन, दोषारोपण, निर्विचार (वि०) विचार शून्य, अविवेकी, अचङ्ग, अदक्ष। ०परिवाद, लोकापवाद।
(जयो०७० २७/५७) निर्वापः (पुं०) [निर+वप्+घञ] समर्पण, दान, आहूति। निर्विचकित्स (वि०) घृणा रहित, ग्लानि रहित। (जयो० निर्वापकथा (स्त्री०) रस व्यञ्जक कथा।
२७/१०१) ०शंका रहित। निर्वापणं (नपुं०) [निर्+वप्+णिच् ल्युट्] ०भेंट, उपहार, निर्विचिकित्सा (स्त्री०) ग्लानि रहित। सम्यक्त्व का अंग।
चढ़ावा। ०बुझाना, गुल करना। निराकरण, उपशमन, निर्विचेष्ट (वि०) गतिहीन, ०संज्ञा रहित चेष्टा रहित। शान्ति। विनाश क्षय।
निर्वृत (भू०क०कृ०) [निर्+वृ+क्त] ०संतृप्त, संतुष्ट, प्रसन्न, निर्वापयितुं (पुं०) निराकरण करने के लिए।
खुश। निवार्यमाण (वि०) रोका गया। (वीरो० १८/५३)
निश्चित। निर्वारि (वि०) जल रहित (सुद०८६)
विश्रान्त, समाप्त। निर्वायस (वि०) कौओं से सुरक्षित।
निर्वृतिः (स्त्री०) [निर्+वृ+क्तिन्] ०संतृप्ति, प्रसन्नता, खुशी, निर्वासः (पुं०) [निर्+वसृघञ्] देश निकाला, बाहर करना। हर्ष। निर्वाहः (पुं०) [निर्वह्+घञ्] निष्पन्न करना, सम्पन्न
आकार की उत्पत्ति, इन्द्रिय रूप रचना। करना गति। (जयो०वृ० २/९७, २/५७)
०शान्ति, सुख, आनन्द। निर्वाहहेतु (स्त्री०) निर्वाह के निमित्त, जीवन यापन के लिए ०मुक्ति, मोक्ष, निर्वाण। (वीरो० १९/६) निर्वृत्तिनिर्वाणम्। भूमिदानं चकारापि तस्य निर्वाहहेतवे। मणि-माणिक्य
संपूर्ति, समाप्ति, निष्पत्ति। सम्पन्न-शिखरं सुमनोहरम्।। (वीरो० १५/४८)
०अर्धान होना, मरण, विनाश। सम्पूर्ति।
निवृत्त (भू०क०कृ०) [निर्+वृत्+क्त] निष्पन्न, सम्पन्न, समाप्त सहारा देना, धैर्य धारण करना।
अवाप्त। अन्त तक निबाहना।
निर्वृत्तिः (स्त्री०) पूर्णता, सम्पन्नता, समाप्ति मुक्ति। (सुद० ०पर्याप्त, जीवनपर्यन्त करना।
११३) (जयो० ५/७) दूर। व्यथेष्ट व्यवस्था, समुचित देखभाल।
निर्वृत्तिपथं (नपुं०) ०मोक्षपथ। (जयो० १८/६) ०मोक्षपथ, ०वर्णन करना, बखान करना, विवेचन करना।
___ मुक्ति। निर्वाणमार्ग। (जयो० १८/६१) निर्वाहणं (नपुं०) [निर्+व+णिच् ल्युट्] निबाहना, पूर्ति । निर्वृत्तिस्थानं (नपुं०) आयु का स्थान। करना, सहारा देना।
निर्विनोद (वि०) आमोद-रहित, प्रसन्नता शून्य। निवाहिनी (वि०) संधारिणी। (जयो०८/३३)
निर्विन्ध्या (स्त्री०) विन्ध्य से निकलने वाली नदी। निर्विकल्प (वि०) विकल्प से रहित।
निर्विमर्श (वि०) विचारशून्य, अविवेकी, अज्ञानी। ०प्रतिबन्ध युक्त।
निर्विवर (वि०) छिद्र रहित, अन्तराल से रहित। निर्विकल्पध्यान।
निर्विवर (वि०) यथार्थ, उचित, सटीक, सर्वसम्मत, मान्य। निर्विकार (वि०) विशुद्ध। (सम्य० ८४) (वीरो० १८/२५) विरोध रहित। (हित० सं० )
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निर्विवेक
निलयः
निर्विवेक (वि०) विवेकशून्य, अदूरदर्शी, मूर्ख, मूढ, विमूढ।
जडाशय। (जयो०वृ० १२/१३९) निर्विशंक (वि०) निर्भय, निडर, साहसी, शंका रहित, विश्वस्त,
विश्वास करने योग्य। निर्विशेष (वि०) समान, तुल्य, सादृश्य।
०भेद-भाव रहित। ०सामान्य।
०कोई अन्तर न मानने वाला। निर्विशेषण (वि०) विशेषण बिना। निर्विष (वि०) विष रहित। निर्विषय (वि०) विषय-वासनाओं से रहित, इन्द्रिय जन्य
विषय से मुक्त शान्त, सरल, अनासक्त। निर्विहार (वि०) आनन्द से परे। निर्बीज (वि०) बीज रहित। निर्वीर (वि०) शक्तिहीन, बल हीन। निर्वीरा (स्त्री०) पतिशून्या स्त्री। निर्वीटा (वि०) निर्बल, कमजोर,
०शक्तिहीन, पुरुषार्थ रहित।
नपुंसक। निर्वेदः (पुं०) [निर्+विद्+घञ्] विषाद निराश, अवसाद।
०कुमानुष पर्याय से रहित होना। घृणा, जुगुप्सा। विषयों से विरक्ति।
अतितृप्ति।
०दीनता, शोक, विरक्ति। निर्वेग (वि०) गतिहीन, चेष्टा रहित। निवेतन (वि०) वेतन रहित, अवैतनिक। निर्वेदनीकथा (स्त्री०) वैराग्य उत्पन्न करने वाली कथा।
निर्वेदनीं चाह कथां विरागाम्। (धव० १/१०५) निर्वेदनीरसः (पुं०) प्रमाद में प्रीति। निर्वेष्टनं (नपुं०) जुलाहे की नरी, ढरकी। निर्वैर (वि०) स्नेही, शान्तिप्रिय, क्षमाशील, मैत्रीपूर्ण। निर्व्यञ्जनं (नपुं०) व्यञ्जन का अभाव, खरा, सादा। निर्व्यय (वि०) ०व्यय से रहित।
०पीड़ा मुक्त।
०शान्त, स्वस्था निर्व्यपेक्ष (वि०) निरपेक्ष, उदासीन। निळलीक (वि०) प्रसन्न, निष्कपट, सच्चा, पाखण्डहीन।
निर्व्यसन (वि०) व्यसनमुक्त। (जयो० ९/९३) निर्व्याज (वि०) छल रहित, पाखण्ड हीन। निर्व्यापार (वि०) व्यापार रहित, बेकार, कार्य नहीं करने
__वाला, परिश्रम विहीन। नियूंढ (भू०क०कृ०) [निर्+वि-वह्+क्त] श्रेष्ठ श्रुत प्रतिपादित।
०समाप्त किया गया, उदित।
विकसित, वर्धित, बढ़ा हुआ। ०प्रतिसमर्थित, प्रदर्शित। उत्तम श्रुतधर्म का कथन। प्रमाणित, सत्यापित।
०परित्यक्त, छोड़ा हुआ। निर्वृदिः (स्त्री०) [निर्+वि+व+क्तिन्]०पूर्ति, अन्त,
उच्चमतम बिंदु। नियूहः (पुं०) [निर्+वि+वह्घञ्] शिरस्त्राण, ०कंगूरा,
कलगी, खूटी, नागदंती। निर्वण (वि०) व्रण रहित। निर्वत (वि०) प्रतिज्ञा विहीन, व्रतपालन से रहित। निहरणं (नपुं०) [निर् हाल्युट्] ०ले जाना, बाहर निकालना।
(जयो० २/२२) निचोड़ना, हटाना। उखाड़ना, उन्मूलन
करना। निर्हादः (पुं०) [निर्+हृद्+घञ्] मलत्याग, मलोत्सर्ग। निर्हारः (पुं०) [निर्ह+घञ्] ०ले जाना, दूर करना, निकालना,
हटाना। बाहर खींचना। उखाड़ना।
विनाश, घात। निर्हारिन् (वि०) [निर्+ह+णिनि] ०व्याप्त, विस्तार युक्त।
०पालन करने वाला। निर्हिम (नपुं०) हिमशून्य, बर्फ रहित। निति (वि०) निरस्त्र, अस्त्र रहित। निर्हेतु (वि०) निष्कारण, बिना प्रयोजन। निर्हृदः (पुं०) [नि हृद+घञ्] ध्वनि, शब्द। निर्हतिः (स्त्री०) [निर+ह+क्तिन्] दूर करना, मार्ग से हटाना,
अपहरण करना। निहीक (वि०) निर्लज्ज, ठीठ, लज्जारहित। निलग्नबाहु (स्त्री०) सम्बद्ध बाहु। (जयो० १४/३८) निलयः (पुं०) •आवास गृह, निवास। वास्तुशास्त्रमवलोकयेन्नरो
नास्तु येन निलयोव्यथाकरः। (जयो० २/६२)
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निलयगतः
५७०
निविड
स्थान-'शून्यागार-गुहा-श्मशान-निलयप्राये प्रतीतो मुदा।' निवहत (वि०) धारण करले। (जयो० १२/८०) (मुनि०२९) (जयो०९/६५) क्व निलयोऽनिलयोग्यविहारिणः' निवात (वि०) [निवृत्तः वातो यस्मिन्] सुरक्षित, शान्त, वायु घोंसला, मांद, जानवरों के छिपने का स्थान।
से रहित, सुसज्जित, दृढ़, कवच युक्त। अस्त होना, छिपना दिखाई नहीं देना।
निवातः (पुं०) निवासस्थान, शरणस्थल, आश्रयस्थान, आगार, निलयगतः (वि०) स्थान को प्राप्त।
आश्रम। निलयनं (नपुं०) [नि+ली+ल्युट] बसना, रहना, स्थान बनाना निवातं (नपुं०) वायु से सुरक्षित स्थान शान्त, निस्तब्धता। ___ शरण लेना, आश्रय, स्थान, गृह, आवास।
निवापः (पुं०) [नि+वप्+घञ्] बीज, अनाज, धान्य। निलयप्राप्त (वि०) आवास को प्राप्त हुआ।
जलतर्पण। निलयभूता (वि०) वासिनी, निवासिनी। (जयोवृ० १३/५८)
०भेंट, उपहार, प्राभृत। निलिंपः (पुं०) देव, अमर।
निवारः (पुं०) [नि+वृ+णिच्+अच्] १. दूर रखना, रोकना, निलिपा (स्त्री०) गाया
हटाना। २. प्रतिषेध, बाधा। निलिम्प (अक०) लिप्त होना, आसक्त होना।
निवारक (स्त्री०) रोका गया। (जयो० २/१३) निलिम्पित (वि०) लिप्त होने वाला। (जयो० १/१०४)
निवारणं (नपुं०) बचना, रोकना प्रहाणद्य। (दयो० ७७) निलीन (भू०क०कृ०) [नि+ली+क्त] ०परिवर्तित, रूपान्तरित,
निवारित (वि०) हत, रोका गया। (जयो० ५/१०५, ६/२७) ०ध्वस्त, नष्ट, नाश।
निवासः (पुं०) [नि वस्। घञ्] ०आवास, गृह, घर, स्थान पिघला हुआ, गला हुआ।
स्थल, रहना, बसना। परिवलयित।
विश्रामस्थल। ०बन्द, गुप्त, आच्छादित, लिपटा हुआ।
०वस्त्र, परिधान। निवचने (अव्य०) बोलना बन्द करके, नहीं बोलना। निवपनं (नपुं०) [नि+व+ल्युट] ०बोना, बीज बोना।
निवासगृहं (नपुं०) निलय, आवास, घर रहने का स्थान, उड़ेलना, बिखेरना, नीचे फेंकना।
अपना निवास स्थान। (जयो० १२/६२) निवरा (वि०) [नि+व+अप+टाप] ०अविवाहित कन्या।
निवासनं (नपुं०) [नि+वस्+णिच् ल्युट्] निकेतन, निलय, अक्षत योनि।
घर, आवास। निवर्तक (वि०) [नि+वृत्+ण्वुल] उन्मूल, निष्काशित करने
पड़ाव, डेरा, तम्बू, शरणस्थल। वाला, मिटाने वाला।
०समय बिताना। ०वापिस लाने वाला।
निवासनिष्ठ (वि०) आवास युक्त। (भक्ति० १६) निवर्तनं (नपुं०) [नि+वृत्+ल्युट] लौटना, वापिस अपना,
निवासयुक्त (वि०) आवास सहित। पीछे मुड़ना।
निवासस्थानं (नपुं०) निकेतन, घर, आवास, निलय। (जयो० निवर्तिन् (वि०) पराङ्मुख। (जयो० २/६८)
१३/१०९) निवर्ष (वि०) वर्षा रहित। (जयो० ३/९२)
निवासिन् (वि०) [नि+वस्+णिनि] निवासी, निवास करने निवस् (अक०) रहना, ठहरना। (समु० ५/११)
वाला रहने वाला। (तस्मिन्निवासीसमभून्मुदा) (सुद० २/१) निवसं (नपुं०) स्थान, गृह। (जयोवृ० १/१०९)
आवास युक्त। निवसतिः (स्त्री०) स्थान, घर, आवास, निवास स्थान। निवासिन् (पुं०) निवासी, प्रवासी, गृही, गृहस्थ। (सुद० निवसथः (पुं०) [नि+वस्+अथच्] ग्राम, गांव।
४/१७) निवसनं (नपुं०) [नि+वस्+ल्युट्] स्थान, वास, निवास, गृह, | निविड (वि०) [नि+विड+क] ०दृढ़, कसा हुआ, पक्का, घर आवास।
सघन। निवसनशील (वि०) रहने वाला, आवास युक्त। (वीरो० २/२२) मोटा, घना, अभेद्य, स्थूल। निवडू (सक०) धारण करना, ग्रहण करना, लेना, उठाना। टेढ़ी नाक वाला।
शिरोधार्य करना। (जयो० १४/१४३) (जयो० १३/५१) ०सदा हुआ, निरन्तराल।
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निविद्
५७१
निवेशनं
निविद् (सक०) निवेदन करना, कहना, बतलाना, समाचार
देना। (दयो० ८८, जयो० २३/८३) निविशेष (वि०) [निवृत्तो विशेषो] ०अभिन्न, समान, सदृश।
०पारस्परिक मिला हुआ। निविशेषः (पुं०) अन्तर का अभाव। निविष्ट (भू०क०कृ०) [नि+विश्+क्त] प्रविष्ट, स्थित, बैठा
हुआ।
नियंत्रित, दमित, केंद्रित। ०दीक्षिता
व्यवस्थित। निवीतं (नपुं०) [नि+व्ये+क्त] यज्ञोपवीत धारण करना। निवीतः (पुं०) परदा, अवगुंठन, आवरण, दुपट्टा। निवृत (भू०क०कृ०) [नि वृ+क्त] घिरा हुआ, लपेटा हुआ। निवृतं (नपुं०) अवगुंठन, चूंघट, परदा, आवरण। निवृतिः (स्त्री०) [नि+वृ+क्तिन्] ०आवरण, घेरा, प्रावरण। निवृत्त (भू०क०कृ०) [नि वृत्त+क्त] ०सम्वारित, दूर।
(जयो०वृ० १३/२३) लौटना, वापिस आना। (जयो०वृ० १७/१८) गया हुआ, विदा हुआ। रुका हुआ, टहरा हुआ, विरत, विराम युक्त। ०सांसारिक कार्यों से उदासीन।
०पश्चात्ताप लेने वाला। निवृत्तं (नपुं०) लौटना, वापिस आना। निवृत्तकारण (वि०) बिना कारण। निवृत्तकारणः (पुं०) धार्मिक पुरुष, सांसारिक क्रियाओं से
उदासीन व्यक्ति। त्यागी पुरुष। निवृत्तगृहं (नपुं०) घर त्याग। निवृत्तचारित्रं (नपुं०) चारित्र से शून्य। निवृत्तमांस (वि०) मांस छोड़ने वाला। निवृत्तराग (वि०) राग रहित, जितेन्द्रिय। निवृत्तवृत्ति (वि०) व्यवसाय से विरत। निवृत्तसंसार (वि०) संसार से उपरत। निवृत्तहृदय (वि०) पश्चात्ताप करने वाला। निवृत्तिः (स्त्री०) [नि+वृत्+क्तिन्] ०लौटना, वापिस आना।
०अन्तर्धान, विराम, उपरति, विरति। निष्क्रियता, कार्य से उदासीन। अरुचि। वैराग्य, विराग, शान्ति।
उन्मूलन, प्रतिरोध, प्रतिबन्ध।
०अस्वीकार। निवृत्ति-गृहं (नपुं०) गृहमुक्त। निवृत्तिगृहस्थ (वि०) आजीविका विहीन। गृहस्थ (समु०२/३३) निवृत्तिपथः (पुं०) मुक्ति मार्ग। (जयो० २८/११) निवेदनं (नपुं०) निवेदन, कथन, प्ररूपण।
०कहना, बतलाना, समझाना। (समु० ४/२०)
समाचार, उद्घोषणा।
समर्पण, प्रतिनिधान, आहूति। निवेदनार्थ (वि०) निवेदन के लिए, कहने के लिए, प्रकट
करने के लिए। (जयो०वृ० १२/११४) निवेदित (वि०) कथित, प्रतिभाषित। (समु० २/२३) प्ररूपित,
प्रतिपादित। (दयो०८६) 'एवं समागत्य निवेदितोऽभूदेकेन भूप सुतरां रूषोभूः।' (सुद० १०८) 'निवेदितो गारुडिनाऽपि'
(समु० ४/१४) निवेदयितुं (हे०कृ०) निवेदन करने के लिए, कहने के लिए
(दयो० ८८) 'जगाम धाम किश्चासौ निवेदयितुमङ्गनाम्।
(सुद० ११२) निवेद्य (वि०) सम्यक् व्यावर्ण्य, वर्णन करने योग्या(जयो०२३/८३) ___निवेदन करने योग्य। (जयो० ४/२) निवेद्यं (नपुं०) नैवेद्य, पकवान्। पूजन में चढ़ाया जाने
वाला द्रव्य। निवेद्यमानं (नपुं०) नैवेद्य, पकवान, पूजन में चढ़ाया वाला द्रव्य। निवेद्यमान (वि०) कहने वाला। 'भूतं तथा भावि खपुष्पवद्वा
निवेद्यमानोऽपि जनोऽस्त्वसद्वाक्। तमग्रयेत्विन्धनमासमत्य
जलायितत्त्वं करकेषु पश्यम्।। (वीरो० २०/६) निवेशः (पुं०) [नि+विश्+घञ्]०प्रवेश, प्रविष्ट।
पूंजी लगाना, जमा करना, अर्पण करना। ठहरना, स्थित होना। तम्बू, आस्थान। (जयो० विचार-'निवेशाविचारा स्ते' (जयोवृ० १२/९७) विवाह करना, जीवन स्थिर करना।
सैन्य व्यवस्था। ०सजावट, आभूषण।
०छाप, नकल। निवेशनं (नपुं०) [नि+विश्+णि+ल्युट] ०प्रवेश, प्रविष्टि।
०ठहरना, रुकना, स्थिर होना। आवास, निवास, घर स्थान।
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निवेशयन्
५७२
निशि
०तम्बू, शिविर, आस्थान मण्डप।
निशाधरः (पुं०) चन्द्र। oशिला-लेखन, लेखबद्ध करना।
निशानं (नपुं०) [नि+शो+ल्युट्] चिह्न, लक्षण। (समु० ७/२) घोंसला, खोह।
बहुगदाधिकृतेह तदग्रतः शुचिनिशानमुदेति अदो वत। (समु० निवेशयन् (पुं०) रखा, ठहरा। (जयो० १२/११७) अनुनी
७/२) विनिवेशयन्स्वहस्तं चक्रे तत्समुदश्चितं ततस्तम्। निवेशयन्
०पहनाना, शान पर चढ़ाना, तेज करना। सन्दधानः। (जयो०वृ० १२/११७)
निशानिशम् (अव्य०) सदैव, रातभर। निवेशरूपिणी (स्त्री०) स्थिरीभूत, दृढ़। मूर्तिमती। तम्बू, निशानिशाना (नपुं०) चन्द्रमा, शशि। 'परामृशन् भाति आस्थानशलिनी।
निशानिशान:' (जयो० १५/७२) निवेष्टः (पुं०) [नि+वेष्ट+घञ्] ०आवरण, परदा, आच्छादन। निशान्तः (पुं०) अन्तःपुर प्रदेश। (जयो० २१४८०) निवेष्टनं (नपुं०) लपेटना, बन्द करना।
निशापुष्पं (नपुं०) कुमुदिनी, सफेद कमलिनी, रात में खिलने निश् (स्त्री०) ०रात्रि, रजनी। हल्दी।
वाली कुमुदिनी। निशमनं (नपुं०) [नि+शम्+णि+ल्युट] ०लोचन करना,
०पाला, ओस, कुहरा। अवलोकन करना, देखना।
निशाभृत (वि०) रजनी की व्याप्ति, रात्रि का विस्तार। दर्शन, दृष्टि।
निशामः (पुं०) [नि+शम्+घञ्] निरीक्षण करना, प्रत्यक्ष ०सुनना, ध्यान लगाना।
करना, देखना, अवलोकन करना। ०समझना, पर्यालोचन करना, अनुचितंन करना।
निशामनं (नपुं०) [नि+शम् णिच् ल्युट्] ०दृष्टि, दर्शन, निशम्य (सं०कृ०) सुनकर। (सुद० ८४/ , ४/१६)
अवलोकन। निशरणं (नपुं०) [नि+ष+णिच्+ ल्युट्] वध, हत्या।
निरीक्षण। निशा (स्त्री०) [नितरां श्यति तनूकरोति व्यापारान्] निशा नाम स्त्री (जयो०वृ० १५/३७) का गतिर्निशि हि दीपकं बिना
०छाया, प्रतिबिम्ब। (जयो० २/९७)
०सुनना, श्रवण करना।
निशामुखं (नपुं०) रात्रि का आरम्भ। रजनी, रात्रि। (सुद० २/१३, ९४, ८६) ०अन्धकार। (सुद० ७२)
निशामृगः (पुं०) गीदड़। ०हल्दी। (समु० ८/५) निशा सुधा कुकुमतां प्रयातः (समु०
निशावनः (पुं०) क्षण। ८/५)
निशावसानं (नपुं०) रजनी की समाप्ति, रात व्यतीत करना। निशाकरः (पुं०) चन्द्र। मुर्गा, कपूर।
'दृष्टा निशावसाने विशदाङ्का स्वप्नषोडशी सहसा। (वीरो० निशाक्रमः (पुं०) रात बिताना, रात्रि व्यतीत करना।
४/३५) निशागृहं (नपुं०) शयनकक्ष, विश्राम स्थल।
० अवसान काल-लक्ष्मीरिवासौ तु निशावसाने ददर्श निशाचर (वि०) रात्रि में विचरण करने वाला। १. राक्षस।
हर्षप्रतिपद्विधाने। (सुद० २/११) ०को नाम वाञ्छेच्च निशाचरत्वम्। (वीरो० १८/३६) 'निशायां निशाविहारः (पुं०) पिशाच, राक्षस, निशाचर। चरतीति निशाचर:' पिशाच, राक्षस। (जयो० १५/२४) ।
निशावेदिन् (पुं०) मुर्गा, कुक्कुट। रक्तंचर। (सुद० १३१)
निशा-शशाङ्कः (पुं०) चन्द्रमा। निशाशशाङ्क इवायमिहाऽऽसीत् निशाचरत्व (वि०) राक्षसपना। निशाचरत्वं न कदापि मायादेनाशनो परिकलितः किल यशसां राशिः। (सुद० १/४४)
वा दिवसेऽपि भायात्। मद्यं च मांसं मधुकं न भक्षेत् स निशाशोषसूचकः (पुं०) कुक्कुट, मुर्गा। (जयो०वृ० १/७८) ब्राह्मणो योऽङ्गभृतं सुरक्षेत्।। (वीरो० १४/४२)
निशाहसः (पुं०) कुमुदिनी, कमलिनी, रात्रि में विकसित होने निशाचर्मन् (पुं०) अन्धकार।
वाला कुमुद। निशाजलं (नपुं०) ओस, कोहरा, कुहरा।
निशि (स्त्री०) हल्दी। यवत्सुधासु निशयोर्जगतां हिताय (वीरो० निशादर्शिन् (पुं०) उल्लू, घुघ्घु।
२२/१५)
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निशित
५७३
निषादः
निशित (वि०) [नि+शो+क्त] ०शान पर चढ़ा हुआ, पैना निश्चयतपश्चरणाचारः (पुं०) आत्मस्वरूप का तपन। किया हुआ।
निश्चयदर्शनाचारः (पुं०) सम्यग्दर्शन का आचरण। उद्दीप्ति।
निश्चयनयः (पुं०) ०शुद्धनय, निश्चयनय। (सम्य० ८२) निशितं (नपुं०) [नि+शो+क्त] लोहा, अयस्क।
शुद्धद्रव्य निरूपणात्मक नय। ०महात्मनो निश्चयननिशीथः (पुं०) [निशेरते जना अस्मिन् निशो अधारे थक] यमात्मने हितं शुभकरमुशन्ति। (जयो०वृ० २/३)
अर्द्धरात्रि, आधीरात। विलोकनेनास्य-निशीथनेतुः समुल्वणे निश्चल (वि०) [निस्+चल्+अच्] ०अटल, स्थिर, अडिग। सद्रससागरे तुं (जयो० ११/३) ०अन्धारक-अन्धकार। 'शुद्धात्मस्वरूप में स्थित आत्मा निश्चल। (सम्य० ८४) (वीरो० वृ० १/३९)
अपरिवर्तनीय, अपरिवर्त्य। निशीथकरः (पुं०) चन्द्र, शशि।
०अचल। (जयो०वृ० १/९४) निशीथचरः (पुं०) राक्षस, पिशाच।
निश्चला (स्त्री०) अचला, पृथ्वी। निशीथनेत (पुं०) चन्द्रमा, निशीथनेता-चन्द्रमा। (जयो०वृ०११/३) निश्चायक (वि०) [निसृ+चि+ण्वुल] निर्णयात्मक, अन्तिम, निशीथतीर्थ: (पु०) अर्द्ध रात्रि रूप जलाशय। निर्धारका
'निशीथोऽर्द्धरात्रि समयः स एव तीर्थो जलावगाहप्रदेशः' निश्चारकं (नपुं०) [निस्+च+ण्वुल] ०मलोत्सर्ग करना, (जयो० १६/१) ०अर्द्ध रात्रि का समय।
प्रस्रवण करना। निशीथभावः (पुं०) अर्द्ध रात्रि का स्वभाव। (दयो० ४)
०हवा, पतन, वायु। निशीथसूत्रं (नपुं०) एक जैनागाम का ग्रन्था नन्दिसूत्र टिप्पण। हठ, स्वेच्छाचारिता। निशीथहरः (पुं०) चन्द्र।
निषण्णकं (नपुं०) [निषण्ण+कन्] आसन, शय्या। निशीथिनी (स्त्री०) [निशीथ इनि+ङीष] रात्रि, रजनी।
०फलक, पाटा। निशुंभः (पुं०) [नि+शुम्भ+घञ्] ०वध, हत्या, प्राणघात। निषद्या (स्त्री०) [नि+सद्+क्यप्+टाप्] ०खटोला, पीला। तोड़ना, भग्न।
आसन। (जयो० ५/५) ०एक राक्षस।
दुकान, आपणिक स्थल। निशुभनाम् (नपुं०) [नि+शुभ+ल्युट्] वध करना, घात करना, मण्डी, मेला, हाट। हनन करना।
पद्मासन आदि आसन से बैठना। निशेन्दु (स्त्री०) चन्द्रमा, शशि। 'निशा नाम स्त्री, इन्दोः' ०वावीस परीषहों में एक निषद्या परीषह, जिसमें पद्मासन
स्वस्वामिनः परिरम्भवारात् आलिंगनसमयात् पर बैठकर ध्यान किया जाता है। (जयो०वृ०१५/३७)
निषद्वरः (पुं०) [नि+सद्+ष्वरच्] दलदल, गारा। निशौतुकी (स्त्री०) विडाली, बिल्ली। 'निशा रात्रि मौतुकी निषद्वरी (स्त्री०) रात्रि, रजनी। विडाली।' (जयो०वृ० १५/४५)
निषधः (पुं०) [नि+सद्+अच्] निषधदेश का शासक। निश्चयः (पुं०) [निस्+चि+अप] ०स्पष्टता, दृढ़ता, संकल्प निषध नामक पर्वत (जयो० २४/९) निर्धारण। (जयो० ५/४९)
निषधगिरिः (पुं०) निषध पर्वत। योजना, प्रयोजन, उद्देश्य।
निषधपर्वतः (पुं०) निषध नामक गिरि। स्थिर मत, दृढ़ विश्वास।
निषधाचलः (पुं०) निषध पर्वत, जिसके ऊपर देव-देवियां व्यवस्थित
क्रीडार्थ स्थित होते हैं। 'निषीधन्ति तस्मिन्निति निषधः, निश्चयकालः (पुं०) प्रवर्तन समय, आधारभूत समय।
यस्मिन् देवा देव्यश्च क्रीडा) निषीधन्ति स निषधः। (तव्वा० ०समयादिविकल्परहित कालाणु।
३/११) निश्चयचारित्रं (नपुं०) वीतराग चारित्र, रागादिविकल्पों से | निषादः (पुं०) [नि+सद्+घञ्] ०एक जाति, जो पर्वतीय क्षेत्र रहित स्वाभाविक चरित्र।
में रहती है। निश्चयज्ञानं (नपुं०) ०संकल्प-विकल्प रहित ज्ञान, परमानन्द चाण्डाल, वर्णसंकर जाति। स्वरूप का वेदन करने वाला ज्ञान।
एक स्वर विशेष, सप्त स्वरों में एक स्वर। (जयो०११/४७)
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निषादित
५७४
निष्कलङ्क
निषादित (वि०) [नि+सद्+णिच+क्त] बैठाया हुआ, स्थित। | निषेधः (पुं०) [नि+सिध्+घञ्] प्रतिरोध, निरोध, रोक। कष्टयुक्त, दु:खी। उच्चरित, प्रस्फुटित।
दूर रखना, हटाना, रोकना। निषादिन् (वि०) [निषाद+इनि] विश्राम करने वाला, बैठने ०प्रत्याख्यात। वाला।
०अपवाद नियम से व्यतिक्रम करना। निषादिन् (पुं०) महावत, हस्ति पर आरूढ़ होकर उसको निषधयित्री (वि०) अपवर्तिनी (जयो०वृ० ३/१८)
संचालन करने वाला। हस्तिपक। (जयो० १३/९५, जयो० निषेधिका (स्त्री०) निषिद्धिका, साधु की सामाचारी क्रिया। १३/१०४)
निषेधिनी (वि०) विरोधिनी। (सुद० ११२) निषिद्ध (वि०) [नि+सिध्+क्त] रोका गया, हटाया गया, मना | निषेवक (वि०) [नि+से+ण्वुल्] ०अभ्यास करने वाला, किया गया। (जयो० २/१२८)
अनुगमन करने वाला। भक्त, अनुरक्त, सेवाभावी। निषिद्धिका (स्त्री०) ०अंग बाह्य आगम की एक प्ररूपणा, निषेवणं (नपुं०) [नि+से+ल्युट्] ०पूजा, आराधना, भक्ति,
प्रायश्चित्त विधान सम्बंधी अधिकार। निषिद्ध स्थान, अर्चना। कन्दरा, गुफादि में प्रवेश करते समय व्यन्तरादि से
आसक्ति, अनुरक्ति, लगाव। पूछकर प्रवेश करना।
०रहना, बसना, ठहरना। निषिक्त (भू०क०कृ०) [नि+सिध्+क्तिन्] ०प्रतिषेध, दूर रखना। ०सेवा करना, उपस्थित रहना। प्रतिरक्षा, सुरक्षा करना।
निषेवमाण (वि०) सेवन करने वाले। निषिसिंच (पुं०) सींचा गया। (जयो० १०/६१)
निषेव्य (वि०) सेवनीय, आचरणीय, पालन योग्य। (जयो० निषीथः (पुं०) आचारांग सूत्र की द्वितीय चूलिका।
३/३६) (सुद० १/७) ___०आचारांग एक जैनगम है, जिस पर निषीथ लिखा गया। निष्क् (सक०) तोलना, मापना। निषीधिका (स्त्री०) प्रासुक स्थान पर आसन, आराधक का निष्कः (पुं०) [निष्क्+अच्] ०स्वर्णमुद्रा, रेशमी, बहुमूल्य। निर्जीव स्थान पर दृढ़ होना।
निष्कर्षः (पुं०) [निस्+कृष्+घञ्] ०सत्, सारभूत, तत्त्व, निषूदनं (नपुं०) [नि+सूद्। णिच्+ ल्युट्] वध करना, हत्या सारांश, उपसंहार। करना। नाशक, बुद्धि चातुर्य। (जयो० ९/५५)
निश्चय, ध्रुव, स्थिर, दृढ़। निषेकः (पुं०) [नि+सिच्+घञ्]
निचोड़ना, बाहर निकालना। बुद्धि कौशल। (जयो० १२/९)
निष्कर्षणं (नपुं०) [निस्+कृष्+ ल्युट्] निचोड़ना, निकालना। ०समय प्रमाण, विवक्षित कर्म की स्थिति में से उसके रहस्य खोलना। अबाधाकाल को घटा देने पर जो शेष रहे, वह प्रमाण
उपसंहार करना, समेटना। निषेक है।
निष्कण्टक (वि०) कंटक रहित, शान्त, धैर्ययुक्त। (जयो० छिड़कना, तर करना।
३/११५) ०बूंद।
निष्कपट (वि०) कपट रहित, छल रहित, आर्जवपरिणामी। ०टपकना, रिसना, झरना, बहना।
(समु० ९/३) मृदुता। स्राव, प्रस्राव।
निष्क-पट (नपुं०) रेशमीवस्त्र, बहुमूल्यपरिधान, जरी-सितारे ०वीर्यपात, वीर्यसिंचन।
आदि से अलंकृत वस्त्र। (जयो० ७/१११) सिंचाई।
निष्करदशा (स्त्री०) किरणरहितावस्था, प्रभा रहित स्थिति। ०प्रक्षालन का जल।
०म्लान, खिन्नदशा। ०वीर्य की अपवित्रता।
निष्कल (वि०) अनंतदु:ख युक्त आत्मा। गंदा जल, प्रदूषित नीर।
निष्कलङ्क (वि०) कलङ्क रहित, पाप रहित, अकलंक। निषेकक्षदभवग्रहणं (नपुं०) जघन्य आयुध का बन्ध।
(जयो० १२/२६)
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निष्कषाय
५७५
निष्ठा
निष्कषाय (वि०) कषाय रहित, शुक्लध्यान में लीन।
(जयो०३/११४) निष्काङ्क्षा (स्त्री०) कांक्षा का अभाव, भोगाभिलाषा की
इच्छा नहीं करना। निष्कांक्षित (वि०) देश कांक्षा और सर्वकांक्षा से रहित सम्यग्दृष्टि
जीव।
निष्कादर्य (वि०) कृपा रहित, उदारता से शून्य। (जयो०
२/१००) निष्कामिन् (वि०) काम रहित, इच्छा शून्य। निष्कालनं (नपुं०) [निस्+कल्+णिच् ल्युट्] हांकना, दूर करना।
वध, हत्या। निष्कारणं (वि०) सद्य, तत्काल, बिना प्रयोजन। (जयो०१७/६३) निष्काशयति (वर्त०) निकालना। (जयो० १५/१८) निष्काशित (वि०) निकाला जाने वाला, निर्वासित।
निष्काशितोऽतः प्रविताड्यलोकैः विक्षिप्त एवेत्युपलब्धरोकैः।
(समु० ३/३२) निष्कासः (पुं०) [निस्+काश्+घञ्] निर्गम, निकास। (सुद०
१०४) ०बाहर निकालना, अलग, पृथक्।
०अन्तर्धानाद्वारमण्डप। निक्कासिनी (स्त्री०) [निस्+कस+णिनि ङीप] निकाली गई,
बाहर की गई स्त्री। निष्कासित (भू०क०कृ०) निर्वासित, बाहर निकाला गया।
०खोला गया, खिला हुआ। निष्कुटः (पुं०) [निस्+कुट+क] क्रीडोद्यान, क्षेत्रीय उद्यान,
आवासीय स्थान का क्रीड़ा क्षेत्र। ०रनवास, अन्तःपुर। ०दरवाजा, द्वार।
वृक्ष का कोटर। निष्कुटिः (स्त्री०) बड़ी इलायची। निष्कुषित (वि०) [निस्+कुष्+क्त] विदीर्ण, विखण्डित,
विदारित।
निर्वासित, निकाला गया। निष्कुहः (पुं०) [निस्+कुह्+अच्] वृक्ष का कोटर, खोह। निष्कृत (भू०क०कृ०) [निस्+कृ+क्त] निष्काशित, निकाला
गया, बहिष्कृत किया गया। निष्कृतं (नपुं०) प्रायश्चित्त। निष्कृतिः (स्त्री०) [निस्+कृ+क्तिन्] प्रायश्चित्त, परिशोधन,
शुद्धिकरण।
०हटाना, दूर करना। ०आरोग्यलाभ, चिकित्सा। ०प्रतीकार, बचना, टालना।
अपेक्षा करना। निष्कृष्ट (भू०क०कृ०) [निस् कृष+क्त] खींचा गया, निकाला
गया। (जयो० ८/३३) निष्कोषः (पुं०) [निस्+कृष्+क्त] फाड़ना, विदीर्ण करना,
उखाड़ना, उन्मूलन करना। निष्कोषणं (नपुं०) उन्मूलन, उखाड़ना, विदीर्ण करना। निष्कोषणकं (नपुं०) [निष्कोषण+कन्] दांत खुरचनी। निष्क्रमः (पुं०) [निसृ-क्रम्+घञ्] निकलना, बाहर जाना,
निर्गमन होना, विदा होना। निष्क्रमणं (नपुं०) गमन, प्रव्रज्या हेतु अभिनिष्क्रमण।
___०संस्कार हेतु ले जाना, निकाला जाना। निष्क्रमणिका (स्त्री०) [निष्क्रमण कन्+टाप्] निकलना, गमन
होना, जाना बाहर होना। निष्क्रयः (पुं०) [निस्+की+अच्] निस्तार, छुटकारा, उद्धार।
०पुरस्कार, पारितोषिक। ०भुगतान, अदाएगी।
विनिमय। निष्क्रयणं (नपुं०) [निस्+की+ल्युट] विस्तार, छुटकारा, उद्धार। निकिष्क्रय (वि०) क्रियाहीन, कार्य करने की शक्ति रहित,
असमर्थ्य। (सुद० ९७) निष्क्रियता (वि०) अकर्मण्यता। (सुद० ९७) निष्क्वाथः (पुं०) [निस्+क्वथ्+घञ्] ०काड़ा, रस। निष्टपनं (नपुं०) [निस्+तप्ल्यु ट्] जलन, तपन। निष्टानकः (पुं०) [निस्तानक:] कलकलध्वनि, मेघ गर्जना,
मरमरध्वनि। निष्ठ (वि०) [नितरां तिष्ठति-नि+स्था+क] स्थिति, उपस्थिति,
० आश्रित, निर्भर, इंगित। ०अनुरक्त, तल्लीन। स्थैर्य, दृढ़ता। कुशल।
युक्त। 'नीरमुज्ज्वलजलोदभवनिष्ठम्। (जयो० ४/५९) निष्ठा (स्त्री०) अवस्था, दशा।
०दृढ़ता, धैर्यता, कुशलता। ० श्रद्धा, विश्वास, दृढ़प्रतीति भक्ति। 'आश्विनोपलपनेन हि निष्ठा' (जयो० ४/६५)
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निष्ठापनं
५७६
निष्प्रतीप
प्रवीणता, कुशलता, श्रेष्ठता, पूर्णता।
निष्पन्न (भू०क०कृ०) [निस्+पद्+क्त] ०पूर्ण हुआ, समाप्त उपसंहार, अन्त, अवसार।
हुआ। मृत्यु, विनाश, प्रलय।
निष्पादनार्थ (वि०) उत्पत्ति के लिए, सम्पन्नता हेतु। (जयो०९३) निश्चिति।
निष्परिग्रह (वि०) परिग्रहरहित। निष्ठापनं (नपुं०) [नि+स्था ल्युट्] चटनी, मसाला। निष्परिच्छद (वि०) अनुचर बिना। निष्ठाप्य (वि०) रखकर। (जयो० ३/३६)
निष्परीक्ष (वि.) परख रहित। निष्ठित (वि०) स्थित, आश्रित, निर्भर। (जयो० २४/२३)
उदित हुआ, जन्म लिया, उद्गत। लोक-वर्त्मनि सकावशस्यवन्निष्ठिते' (जयो० २/१७)
तत्पर, उद्यत, सम्पन्न। प्रवीणता, श्रेष्ठता, कुशलता।
निष्पवनं (नपुं०) [निस्+पू+ल्युट्] फटकना, शोधना, उड़ाना। निष्ठितिः (स्त्री०) कर्तव्य, परिणति। 'समयोचितमात्र- निष्पादनं (नपुं०) [निस्+पद्+णिच्+ल्युट] निष्पत्ति, उत्पत्ति निष्ठितिर्घटिता' (सुद० ३/११)
(दयो० ९३) ०संचयन, संकलन, समूह। ह्रासमेति जडताप्रतिष्ठितिः उत्पादन, पैदा करना। किन्तु यत्र बहुधाऽन्यनिष्ठितिः' (जयो० ३/८)
कार्यान्विति। निष्ठीवः (पुं०) [नि+ष्ठिव्+घञ्] थूक देना, थूकना। निष्पाप (वि०) पातकातिग, अपाप। (सुद० ११९) निष्ठीवनं (नपुं०) लार, थूक। (जयो०७० ३/२९)
(जयो०वृ०१५/५३) ०पुण्यशाली। निष्ठुर (वि०) [नि स्था+उरच] जालम, निर्दयी। (दयो० । निष्पावः (पुं०) [निस्+पू+घञ्] धान्य साफ करना, उड़ाना, २३)
फटकना, शोधना। ०कठोर, कर्कश, रुखा। (सुद० १३४)
०पवन, वायु। कड़ा, तेज।
निष्पीडय (अक०) ०पीडित होना, ०दुःखित होना। ०क्रूर, पत्थर हृदय।
(जयो०१८/५१) ०दबाना, मसलना, बाधित होना। निष्ठुरवयः (पुं०) कठोर वचन। (सुद० १३४)
निष्पीडित (भू०क०कृ०) [निस्+पीड्+णिच्+क्त] निचोड़ा निष्ठयूत (भू०क०कृ०) [नि+ष्ठिव्+च्च] फेंका हुआ, च्युत हुआ, भींचा हुआ। हुआ, निकाला गया।
निष्पुरुष (वि.) निर्जन, शून्य। निष्ठ्यूतिः (स्त्री०) [नि+ष्ठिन्+तिन्] थूक, खकार, निष्येषः (पुं०) [निस्+पिय्+घञ्] ०पीसना, चूर्ण करना। निष्ण (वि०) चतुर, प्रवीण, कुशल, विज्ञ, दक्ष, विशेषज्ञ।
कुचलना, मसलना। प्रकाशित, सम्पन्न, निष्पन्न।
निष्येषणं (नपुं०) कुचलना, पीसना। निष्णात (वि०) चतुर, दक्ष, प्रवीण, कुशल, प्रज्ञा
कूटना, आघात करना। निष्पक्व (वि०) [निस्+पच्+क्त] भिगोया हुआ, भली प्रकार निष्प्रवाणं (नपुं०) [निस्+प्र+वे+ल्युट्] नूतन वस्त्र, नया कपड़ा। से पकाया गया।
निष्प्रकंप (वि०) स्थिर, अचल।। निष्पतनं (नपुं०) [निस्+पत्+ल्युट] शीघ्र निकालना, तत्परता निष्प्रकारक (वि.) निर्विकल्प, भेद रहित, अस्पष्ट। से बाहर करना।
निष्प्रचार (वि०) केन्द्रित, ध्रुवीकृत, एकीकृत। निष्पताक (वि०) बिना ध्वज।
निष्प्रतिकार (वि०) उपचार विहीन। निष्पत्तिः (स्त्री०) [निस्+पद्+क्तिन्]
निष्प्रतिक्रिय (वि०) उपचार नहीं किया जा सके। उत्पादन, उत्पत्ति।
निष्प्रतिघ (वि०) निर्बाध, बाधा शून्य। जन्म लेना।
निष्प्रतिद्वन्द्व (वि०) निर्विरोध, शत्रु रहित। संपूर्ति, संपन्नता, समाप्ति, पूर्णता।
अप्रतिम, अनुपम। परिपक्वावस्था, परिपाक।
निष्प्रतिभान (वि०) भीरु, कायर, भयाक्रान्त। निष्पत्र (वि०) पंख बिना।
निष्प्रतीप (वि०) असम्बद्ध, पीछे मुड़कर नहीं देखने वाला।
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निष्प्रत्यूह
५७७
निस्तरणं
निष्प्रत्यूह (वि०) निर्विघ्न, अबाध!
निसर्गज (वि०) स्वभावगत, स्वाभाविक सम्यग्दर्शन, अपूर्वकरण निष्प्रपंच (वि०) विस्तार हीन। ०छल रहित।
के अनन्तर तत्त्वश्रद्धा का कारण उत्पन्न होना। निष्प्रभ (वि०) कान्तिविहीन। प्रभा रहित।
निसर्गतः (अव्य०) स्वभावतः, सहज रूप से। निसर्गतस्तस्य शक्तिविहीन, निस्तेज, द्युतिहीन।
तथैवजातिः, रोषाय कः कोऽत्र च तोषतातिः। (समु०१/२४) निष्प्रमाणक (वि०) प्रमाण रहित, अधिकार विहीन। निसर्गतल्पः (पुं०) स्वभावगत, स्वाभाविक समुत्पत्ति। निष्प्रयास (वि०) बिना श्रम, उद्देश्य से अनभिज्ञ। (वीरो०५/३९) 'लसच्चतुर्वर्गनिसर्गतल्प:' (सुद० १/१२) निष्प्रयोजन (वि०) निरुद्देश्य।
निसर्गभावः (पुं०) सहज स्वभाव, प्रकृति जन्य भाव। निष्कारण, निराधार। (जयो० १२/१४६)
प्रयत्नवानादशमस्थलन्तु, यतोऽयमात्मा व्यवहारतन्तुः। ०अनुपयोगी, व्यर्थ, अनावश्यक।
निसर्गभावेन निजात्मगूढस्ततः पुनर्निश्चय-मार्गरुढः।। निष्प्राण (वि०) असु रहित, प्राणरहित, चैतन्य शून्य।
(सम्य०१२६) (जयो०वृ० १९/९०)
निसर्गरुचिः (स्त्री०) नैसर्गिक सम्यग्दर्शन की प्रतीति 'निसर्गः निष्पृह (वि०) इच्छा रहित, आकांक्षा विहीन। (दयो० २।८)
स्वभावस्तेन रुचिः जिनप्रणीत-तत्त्वाभिलाषारूपा यस्य स निष्पृहत्व (वि०) इच्छा शून्यता। (समु० ९/४)
निसर्गरुचिः । (जैन०ल० ६३५) निष्फल (वि०) असफल, फलहीन। (सुद०१/६) 'नलमखिलं
निसर्गरूपः (पुं०) सहज सौन्दर्य। निष्फलं च' (सुद०७०)
निसर्गवासः (पुं०) रचना सद्भाव, सहज रूप। (समु० १/३०) निष्फलता (वि०) व्यर्थीभावता, अनुपयोगिता। (जयो० ५/८८)
निसर्गसम्यग्दर्शनं (नपुं०) स्वभाव से उत्पन्न सम्यग्दर्शन। (सुद० १/५) 'साफल्यं चक्षुषोरस्ति महतामेव दर्शने इति
यथार्थ रूप से जाने गए तत्त्व के प्रति रुचि। 'यत्सम्यग्दर्शनं सूक्ते। (जयो० ३/३२)
बाह्योपदेशं बिना उत्पद्यते तत्सम्यग्दर्शनं निसर्गजमुच्यते। निष्फेन (वि०) बिना झाग का।
(त०वृ० १/३) निस् (अव्य०) [निस्+क्विप्] धातुओं के पूर्व लगने वाला
निसर्गसिद्धः (पुं०) स्वभाव से प्रसिद्ध। उपसर्ग-जिससे कई प्रकार का अर्थ व्यक्त होता है-निश्चित,
निसर्गोत्थित (वि०) सहज रूप से उत्पन्न हुआ। आविष्कृतानिश्चय, पूर्णता, उपभोग, पार करना।
ऽन्यैरपि पौरवगैस्तथानिसर्गोत्थितहर्षसर्गः। (समु०६/१५) निसर्मः (पुं०) [नि सृज्+घञ्] स्वभाव, प्रकृति, सहज। (जयो० ५/१७) (समु० ३/२०)
निसारः (पुं०) [नि+सृ+घञ्] समूह, समुदाय, समुच्चय। निर्गमन। (जयो०वृ० ११/३३)
निसिध् (सक०) रोकना, हटाना। निषेधयास (समु० ४/७) प्रदान करना, अनुदान देना, पुरस्कार देना, उपहार देना।
निषेधयन् (सुद० ९४) मलोत्सर्ग, मलत्याग।
निसूदन (वि०) [नि सूद्-ल्युट] मारने वाला, नष्ट करने वाला। तिलाञ्जलि, छूटना।
निसूदनं (नपुं०) वध, घात। सृष्टि ।
निसेव् (सक०) सेवन करना, उपयोग करना, प्रयोग करना। १. निसृज्यत इति निसर्गः प्रवर्तनम्'। (स०सि० ६/९)।
निषेयते (वीरो० ९/१०) २. 'निसर्जनं निसर्ग: स्वभाव इत्यर्थः'।
निसृष्ट (भू०क०कृ०) [नि+सृज् क्त] अर्पित, समर्पित, सौंपा ३. निसृष्टिनिसर्गः। (त०वा० १/३, ६/९)
गया, प्रदान किया गया। तत्त्वश्रद्धा का कारण।
त्यक्त, परित्यक्त, विसर्जित। ०सम्यग्दर्शन का कारण।
अनुजात, अनुमत। निसर्गक्रिया (स्त्री०) प्रवृत्ति विशेषकी अनुमोदना। | निस्तरणं (नपुं०) [निस्+तृ ल्युट्] बाहर जाना, गमन करना। चिरकाल प्रवृत्ति।
पार करना, बचाना। ०परानुमतदान।
पार। (भक्ति० १) निसर्गचयनं (नपुं०) सहजपुष्टि। (सम्य० १२६)
०भवान्तर को प्राप्त कराना।
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निस्तहणं
५७८
नीचचर
मरणान्तर को प्राप्त होना। 'भवान्तरप्रापणं निस्तरो
मरणान्तप्रापणम्' (भ० आ० २) निस्तहणं (नपुं०) [निसृ+तृह ल्युट्] ०वध, घात, हनन। निस्तारः (पुं०) [निसृ+तृ+घञ्] ०पार करना, छुटकारा पाना,
उद्धार। मुक्ति, मोक्षा निस्तुद (वि०) ०दोष रहित। ०अकलङ्क, विशुद्ध। ०इष्ट, पवित्र।
(जयो० ६/२७) निस्तोदः (पुं०) [निस्+तुद्+घञ्] चुभना, ढंक मारना। निस्पंदः (पुं०) कंपन। निस्पदः (पुं०) [नि+स्पन्द्+घञ्] बहना, रिसना, टपकना,
गिरना, झरना।
०क्षरण, स्राव, प्रस्रवण। निस्यंदिन (वि०) [नि स्यन्द्+णिनि] टपकने वाला, बहने वाला। निस्रवः (पुं०) [नि+सृ+ अप्] सरिता, प्रवाहिनी, प्रसारिणी।
०धारा, प्रवाह, झरना।
चावलों का मांड। निस्वनः (पुं०) [नि+स्वन्+अप्] शब्द, कोलाहल, ध्वनि। निस्वापः (पुं०) देवलोक। (जयो० १०/१२) निस्सरंती (वि०) निकलने वाली, स्वच्छदगामिनी।
(जयो० १/२०) निस्सार (वि०) सार रहित, अनिष्ट। निस्सारता (वि०) असारता, अनिष्टता। (जयो० ११/२०,
जयो०१० २/१४) निहत (भू०क०कृ०) ०वध किया गया, ०मारा गया, ०प्रहार
किया गया।
०अनुरक्त, भक्त। निहन् (सक०) मारना। (वीरो० १६/३०) ०हनन करना। निहननं (नपुं०) [नि+ह्र ल्युट्] वध, घात। निहारः (पुं०) [नि+ह+घञ्] कुहरा, धुंध। निहिंसनं (नपुं०) [नि+हिंस्+ल्युट्] वध, घात। त्यक्तं क्रतौ
पशुबले: करणं परेण निहिंसनैकसमये सुसमादरेण। (वीरो०
२२/१७) निहितः (वि०) [नि+धा+क्त] प्रदत्त, दिया, रक्खा गया,
प्रयुक्त, समर्पित, अर्पित। निहीन (वि०) [निरतां हीन:] अधम, नीच। निहीनः (पुं०) निम्न पुरुष, अधमकुलजात व्यक्ति। निह्नवः (पुं०) [नि+हु+अप्] छिपाना, अदृश करना, भेंट
जाना, मुकरना।
गोपनीयता, रहस्य। ०अविश्वास, सन्देह, शंका। 'यतोऽस्तु गुर्वादिकनिह्ववादि' (भक्ति० ४३) ०दुष्टता। प्रायश्चित्त, परिशोधन। ज्ञानापलाप करना। गुरु के कथन का अपलाप। 'अन्यतः श्रुतमधीत्यान्यस्य गुरोः कथनं गुरोरपलापः।' भ०आ० ११३)
कुलादि की महानता का अपलाप। नी (सक०) ले जाना, नेतृत्व करना, लाना, पहुंचाना, संचालन
करना। निर्देश करना, शासन करना। (प्राप्त होना, (वीरो०५/१३) व्यय करना, बिताना। ०पता लगाना, खोज निकालना। प्रार्थना करना, निवेदना करना। प्रवृत्त करना, संलग्न करना, बहलाना। ०बचाना, प्रवर्तित करना। धर्मार्थ-कामेषु जानननीति नेतुं नृपस्यास्तु सदैव नीतिः। (जयो० २/१२०)
देना, प्रदान-'आश्विनसमये वयं मरुद्भिरिव नीताश्च कृतार्थतां भवद्भिः । (जयो० १२/१३९) नी (पुं०) [नी+क्विप्] नेता, नायक, पथ प्रदर्शक, अग्रणी,
प्रधान। नीका (स्त्री०) कुल्या, नहर। नीकाश (वि०) [नि+का+अच्] निकाश, बहाव। नीच (वि.) [निष्कृष्टतमी शोभां चिनोति] नीचे की ओर,
भो भद्र। नीचै व्रजे: (मुनि० ४) गर्हित, निन्दित। हीन, अधम, पतित, निम्न। ०छोटा, तुच्छ, थोड़ा, स्वल्प। दुष्ट।
अनार्य। नीचकुलः (पुं०) निम्नकुल, शूद्र। नीचकर्मन् (नपुं०) निम्नकर्म। नीचकैः (अव्य०) नीचा, अधम, नीचे, तले। नीचगतिः (स्त्री०) क्षुद्र, अवस्था। निम्न पर्याय। नीचगोत्रं (नपुं०) लोकनिन्दित कुल। 'गर्हितेषु यत्कृतं
तन्नीचैर्गोत्रम्' (त०वा० ८/१२) नीचचर (वि०) निम्न आचरण करने वाला।
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नीचजन्मन्
५७९
नीतिशास्त्रं
नीचजन्मन् (नपुं०) तुच्छजन्म।
नीतिचतुष्क (वि०) साम, दाम, दण्ड और भेद इन चार नीचजातिः (स्त्री०) अधम उत्पत्ति।
नीतियों से युक्त। (वीरो० ३/१४) नीचत्व (वि०) नीचता, निम्नता, हीनता। (हित० २६)
एकाऽस्य विद्या श्रवसोश्च तत्त्वं, सम्प्रात्य लेभेऽथ नीचदानं (नपुं०) स्वल्पदान, निष्कृष्ट दान।
चतुर्दशत्वम्। नीचयोनिन् (वि०) नीच कुलोत्पन्न।
शक्तिस्तथा नीतिचतुष्कसारमुपागताऽहो नवतां बभार। नीचपथः (पुं०) निम्न मार्ग।
(वीरो० ३/११४) नीचवृत्तिः (स्त्री०) न्यगवृत्ति, अवनति। नीचवृत्ते परित्यागस्ते | नीतिचतुष्टय (वि०) चार नीतियों वाला आन्वीक्षिकी, त्रयी, स्युः शूद्राश्च संस्कृताः। (हि० २८)
वार्ता और दण्डनीति। 'निजनीतिचतुष्टयान्वयं गहननीड:/नीडकः (पुं०) घोंसला, पक्षी आवास। (मुनि० १८) १. व्याजवशेन धारयन्। (वीरो० ७/२१)
कुलायस्थान। (जयो० १५/१२) 'द्विजा वलभ्यामधुना लसन्ति | नीतिचेष्टित (वि०) नीतिपथ की चेष्टा करने वाला। (जयो० नीडानि निष्पन्दतया श्रयन्ति। (वीरो० १२/१२)
२१/५१) 'भूरिशोभि-नवनीतिचेष्टिताद्'। नीत (भू०क०कृ०) [नी+क्त] ०संचालित, नेतृत्व किया नीतिदोषः (पुं०) आचारदोष।
गया, ०ले जाया गया। ०शब्दच्छल (जयो०वृ० १/१५) नीतिनिपुणः (पुं०) नीतिकुशल। (जयो० ३/७१)
०व्यतीत, समाप्ति, व्यवहत, संघटित। (जयो० ११/८६) नीतिपथ: (पुं०) आचारमार्ग, सदाचरण पथ। नीतं (नपुं०) धन, धान्य।
नीतिफलं (नपुं०) योग्यफल, उचित परिणाम। नीतिः (स्त्री०) [नी+क्तिन्] प्रवृत्ति, शिक्षा।
नीतिबलः (पुं०) आचारशक्ति, न्यायबल। (जयो० २३/२) निमीलिताम्भोजदृगाब्जिनीति,
नीतिभावः (पुं०) आचरण का स्वभाव। जाता समारब्ध-विलासनीतिः।
नीतिमार्गः (पुं०) नयवम॑न्। (जयो० २/१३७) नीति:-प्रवृतिः शिक्षा वा। (जयो०वृ० १५/८)
०लोकमार्ग, लौकिकमार्ग। (जयो०वृ० २/६९) विचार, कथन-'नीतिरैहिकसुखाप्तये' (जयो० २/४)
सद्धर्मभावना (जयो०२३/९०) वार्ता, निर्देशन, दिग्दर्शन, प्रबन्ध धर्मार्थकामुषे जनाननीति समीचीन धर्म की भावना। नेतुं नृपस्यास्तु सदैव नीतिः। (जयो० २/१२०)
नीतिमार्गश्रयिन् (वि०) नीतिपथ का आश्रय लेने वाला। विनय, शिष्टाचार।
(जयो० ७/७६) विनयो नयवत्येवाऽतिनये तु गुरावपि।
नीतिमान् (वि०) वि०) न्यायमार्गानुयायी। (जयो० ३/१०८) प्रपापणं जनः पश्येन्नीतिरेव गुरुः सताम्।। (जयो०७/४७) नयपथ के अनुगामी, आचारवान्, सद् विचारक। विनयः शिष्टाचारस्तु नयवत्येव नीतिमति जन एव, विधीयत (जयो०४/१) इति। यतो यस्मान्नीतिरेव सतां गुरुरुपदेष्ट्री विद्यत इत्यर्थः। | नीतिरहित (वि०) नयोज्झित। (जयो०वृ० २/११३) (जयो०वृ० ७/४७)
नीतिविचारवान् (वि०) नयपथ का विचारज्ञ, न्यायमार्ग का आचरण, सद्व्यवहार, शीलीनता, औचित्य।
विशेषज्ञ। (जयो० १२/१०७) नीतिविदता, नीतिज्ञता, बुद्धिमत्ता, व्यहारकुशलता। नीतिवाक्यामृतं (नपुं०) एक ग्रन्थ विशेष, ऋक्सुधा-ऋग्वेद नीति नीतिविदो विदुः कुरुपतेः स्फीतिं तु शूरा नरा। पर आधारित वचनामृत। (जयो०वृ० ७/७६) (जयो०८८५)
नीतिविद्या (स्त्री०) न्यायशास्त्र का ज्ञान। (जयो० ७/३१) आचारशास्त्र, नीतिशास्त्र, आचारदर्शन। (जयो० ७/४६) नीतिविद् (वि०) नीतिभाव। (दयो० ७६, जयो०वृ० १/२०) नीतिकुशलः (पुं०) विचारवान्, आचारकुशल, नीतिज्ञ, तत्त्वज्ञ, नीतिविषय (पुं०) नीतिसम्बंधी आधार। विचारज्ञ, तत्त्ववेत्ता।
नीतिव्यतिक्रमः (पुं०) आचारशास्त्र के नियमों का उल्लंघन। नीतिघोषः (पुं०) बृहस्पति का यान।
नीतिशास्त्र (नपुं०) निर्णयशास्त्र, नयशास्त्र, आचारशास्त्र, नीतिगत (वि०) आचरण गत।
नियमसार। (जयो०वृ० ३/१२) नीतिज्ञ (वि०) नीतिवान्। (वीरो०७७/४६)
०तन्त्रशासन, राज्यसत्ता के नियम का प्रतिपादक शास्त्र।
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नीति-सत्समयः
५८०
नीलपिच्छः
नीति-सत्समयः (पुं०) उचित समय। 'सुभगे शुभगेहि
नीतिसत्समयः शेषमयः स्वयं निशः।' (सुद० १०४) नीतिसेतु (पुं०) नीति का आधार, मर्यादा का आधारभूत __कारण, मर्यादा पुरुषोत्तम। (जयो० २०/२९) नीध्र (नपुं०) [नितरां ध्रियते धृ मूलवि क] *अरण्य, जंगल।
०परिधि, घेरा। नीपः (पुं०) [नी-प] तलहटी, पर्वत के नीचे का स्थान।
अशोक जाति का तरु। नीपं (नपुं०) कदंब वृक्ष का पुष्प। (जयो० १/८५) नीयत (वि०) संग्राहक। (जयो० १/९४) नीरं (नपुं०) [नी+रक्] जल, अम्बु, पानी वारि। तथास्तु
प्रीतये नृणां नद्या नीरघटेभृतम्। (दयो० १/७)
रस, आसव। नीरज (नपुं०) ०कमल, पद्म। (जयो० १३/५८) मुक्ता,
मोती। नीरजस् (वि०) पाप रहित, विरज, रज रहित। 'नीरजसे रजसा
पापेन रहिताय।' नीरजस्क (वि०) श्रेष्ठ कर्म रहित। (जयो० १३/५८) नीरदः (पुं०) मेघ, बादल। (वीरो० ४/१४) नीरद (वि०) दंत रहित। (वीरो०वृ० ४/१४) नीरदभावः (पुं०) दन्त रहित भाव, जलदानल। (जयो०२०/२) नीरधि (पुं०) समुद्र, उदधि। (सुद० १/१३) नीरधि चीरवत् (वि०) समुद्र रूपी वस्त्र की तरह। 'भालं
भवेन्नीरधिचीर वत्या' नीरनिधिः (पुं०) समुद्र, सागर, उदधि। नीरपूरः (पुं०) जल प्रवाह। (जयो० ७/५६) नीरपूर इव
संचरन् स वा छिद्र पूरणविधौ विचारवान्। (जयो०७/५६) नीरप्रदायिनी (स्त्री०) जल पिलाने वाली स्त्री। नीरभावः (पुं०) आसव भाव, रसभाव। नीरसंगत (वि०) जल सहित-नीरेण जलेन सङ्गतं समन्वितम्।
(जयो० १९/८९) नीरस (वि०) रस रहित, रस विहीन।
सूखा हुआ-'नीरस-वत्कलतः विस्तृतः' (सम्य० १४९) नीरसत्व (वि०) स्त्रीरसता, उदासीनता। (जयो० १२/१२५)
रसाभाव, रसपरित्याग करने वाला तपस्वी। (जयो०
२८/१३) नीरस-परिणामः (पु०) तपश्चरण योग्य समय।
(जयो०वृ०६/८६) नीरसवस्तु (नपुं०) रसहीन पदार्थ। (वीरो० १२/३१)
नीरागः (पुं०) वीतराग अवस्था। (भक्ति०६) (जयो०वृ०२८/८) नीराग (वि०) उबटन, अभ्यङ्ग लेप। (जयो०वृ० २८८) नीराजनं (नपुं०) [निर्+राज ल्युट्] ०आरार्तिक, आरती, ०देव
के प्रति अर्चना हेतु दीपक लगाना। (जयो० १०३)
०शस्त्र चमकाना। नीराजनं-भाजनं (नपुं०) आरती के पात्र। नीराजनस्य
आरार्तिकावतरणस्य श्वश्रुद्वारा भाजनमेव प्रणौ।
(जयो०वृ०१२/१०५) नीरुज (वि०) रोग रहित। (समु० २/२५) स्वस्थ (जयो०७/८४)
'नीरुजा रोगरहितेन गुणेन स्वास्थ्येन हेतुना'
(जयो०वृ०७/८४) नील (वि०) [नील+अच्] नीला, गहरा नीला, नील रंग का।
(जयो०१० ३/८०) नीलः (पुं०) नीलपर्वत। (जयो० २४/९)
काला-दीधोऽहिनीलः किल केशपाश:। (सुद०व २।८) नीलमणि। गूलर का पेड़, वट वृक्ष।
नील नामक वानर। नीलं (नपुं०) काला नमक।
नीला थोथा, तूतिया।
सुरमा, विष। नीलंयशा (स्त्री०) अलकापुरी के राजा मयूर को रानी।
विशाखनन्दी समभृद् भ्रमित्वा नीलंयशामात्रुदरं स इत्वा। मयूरराज्ञस्तनयोऽश्वपूर्व-ग्रीवोऽलकायां धृतजन्मपूर्वः।।
(वीरो० ११/१८) नीलकंठः (पुं०) ०मयूर, ०शिव। नीलकण्ठ, मधुमक्खी।
जलकुक्कुट, मधुमक्खी। नीलक (नपुं०) [नील+कन्] काला नमक।
नीला इस्पात, तूतिया, नीला थोथा। नीलकः (पुं०) काले रंग का अश्व। नीलकमलं (नपुं०) नीलोत्पल। (जयो० १/३३) नीलग्रीवः (पुं०) ०शिव, शंकर। ०छुहारे का वृक्ष। गरुड। नीलतरुः (पुं०) नारिकेल वृक्षा नीलगिरि का वृक्ष, सफेदी। नीलतालः (पुं०) तमाल तरु। नीलपंकः (पुं०) अन्धकार। नीलपादपः (पुं०) नीलगिरि का वृक्ष। नीलपटलं (नपुं०) पाला आवरण। नीलपिच्छः (पुं०) बाज पक्षी। १. मयूर।
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नीलपुष्पिका
५८१
नीलपुष्पिका (स्त्री०) नील का पौधा। अलसी।
नीविः (स्त्री०) [निव्ययति निवीयते वा-नि+व्ये इन्] नीलभः (पुं०) चन्द्र, मेघ। ०मधुमक्खी।
नीवीतु स्त्रीकटीवस्त्रग्रन्थौ मूलधने स्त्रियाम्। इति नीलमणिप्रभा (स्त्री०) नीलमणि का कान्ति। (वीरो० २/२९) विश्वलोचनः। (जयो०वृ० १७/८६) नीलमणिरत्नं (नपुं०) नीलमणिरत्न।
नीव्यामन्तरीयबन्धनस्थाने मूलधने च करं कुर्वति। नीलमलिकः (पुं०) जुगनू।
(जयो० १७/६७) नीलमृत्तिका (स्त्री०) लोहमाक्षिक, काली मिट्टी।
०अधोवस्त्र। (जयो० १७/६२) नीलराजिः (स्त्री०) घोर अंधकार।
०नाड़ा, गाठ, कमरवन्द। नीललेश्या (स्त्री०) छह लेश्याओं में दूसरी लेश्या।
पूंजी, मूलधन। आय-व्यय-विशुद्ध-द्रव्यम्। नीललोहितः (पुं०) शंकर, महादेव।
०दांव, शर्त। नीला (स्त्री०) काला रंग।
नीविबन्धः (पुं०) अधोवस्त्र ग्रन्थि, धोती का गांठ। (जयो० नीलांग: (पुं०) सारस पक्षी।
१७/६२) नीलांजनं (नपुं०) सुरमा, काजल।
नीविस्थानं (नपुं०) कमरबन्द का स्थान, नाड़ा। (जयो० नीलांजना (स्त्री०) एक नृत्यांगना, जो ऋषभ के राजदरबार में | १२/११७)
नृत्य करती थी। उसी की असमय में मृत्यु का कारण नीवृत् (पुं०) [नि+वृ+क्विप्] राज्य, राजधानी। ऋषभ वैराग्य को प्राप्त हुए वे ही तीर्थंकर ऋषभदेव ___समृद्धदेश, घनी आबादी वाला देश। कहलाए।
नीशार (पुं०) [नि+7+घञ्] गरमवस्त्र। मसहरी, मच्छरदानी। ०बिजली, विद्युत।
०कनात। नीलाब्ज (नपुं०) नीलकमल।
०मलमूत्र त्याग। नीलाम्बरं (नपुं०) नीलगगन, नील वस्त्र। (जयो०वृ० २४/७९) | नीहारः (पुं०) [नि+हृ+घञ्] कुहरा, धुंध, तुषार, पाला नीलाम्बरता (वि०) बलभद्रता।
ओस। आकाश को नीला, करने वाली धूप।
नीहार-विहारः (पुं०) तुषार प्रसारण बर्फ प्रसार। (जयो० नीलाम्बरता धूमेन कृतौ नीलाम्बरामाकाशं येन तत्ता तथा। २४/२४)
नीलाम्बरता नीलमम्बरं वस्त्र। (जयो०वृ० २४/२९) नीहारचारणं (नपुं०) हिम का आश्रय लेकर चलना, जीव नीलाम्बुजं (नपुं०) नीलोत्पल, नीलकमल, ०इन्दीवर, विराधना न करते हुए गमन करना। अरविंद, ०पभ।
नीहारप्रायोपगमनं (नपुं०) अन्यत्र मृत्यु को प्राप्त होना। नीलाम्बुजन्मन् (नपुं०) नीलकमल, अरविंद।
उपसर्ग के द्वारा अपहृत होकर जो अन्यत्र मृत्यु को प्राप्त नीलाम्बुरुहं (नपुं०) नीलोत्पल, नीलकमल, इन्दीवर। । होता है। (वीरो०२/१६)
नु (अव्य०) ०संभावना सूचक अव्यय, विस्तार। (जयो० नीलाभ्रः (पुं०) काले मेघ।
१/६३) ०संदेहवाचक अव्यय, आश्चर्य है,०प्रश्नवाचकता नीलारुणः (पुं०) प्रभातकाल, प्रात:काल, पौ फटना।
का द्योतक अव्यय। वितर्क (जयो० २५/८४) ०नु इति नीलोत्पलं (नपुं०) नीलकमल। (जयो० १/५३)
वितर्णे (जयो०१२/७८) नीलिका (स्त्री०) नील का पौधा।
नु (अक०) स्तुति करना, प्रशंसा करना। नीलिमन् (पुं०) [नील+इमनिच्] नीलारंग, कालापन, नीलापन। नु किम् (अव्य०) क्या संभव? (सुद० ८४) नीली (स्त्री०) [नील+अच्+ङीप्] नील का पौधा।
नुतिः (स्त्री०) [नु+क्तिन्] प्रशंसा, स्तुति, प्रशस्ति। ०पूजा, नीवरः (पुं०) [नी+ष्वरक्] व्यापार, व्यवसाय।
समादार, सम्मान। कीचड़।
नतिप्रिय (स्त्री०) भक्तिप्रिया। (वीरो० २२/४०) नीवाकः (पुं०) [नि+व+घञ्] दुर्भिक्ष, अकाल।
नुद् (सक०) ०ठेलना, हांकना, ०धकेलना, ०प्रोत्साहित नीवारः (पुं०) [नि+वृ+घञ्] धान्य, जंगली धान्य।
करना, उकसाना, भगाना, ०हटाना, अस्वीकार करना।
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नुम्
५८२
नृपाङ्गना
नुम् (वि०) नमन्। (सुद० ११८) नुमा (अव्य०) नामक, नाम वाला। 'यमनुमारिवरेण समर्पिताम्।
(समु०७/११) नाम संज्ञा-नामा (जयो० ५/३८) 'क्व
किन्नरीणान्तु नुमैव धन्या' (जयो० ११/७३) नुरछाया (वि०) छाया रहित। (वीरो०८/२४) नूतन (वि०) [नव+तनप्] नया, तात्कालिक, ताजा, भेंट,
उपहार, ०कुतूहल, पूर्ण, अजीब सा। नून (वि०) नूतन, नया, तात्कालिक। नूनं (नपुं०) नूतन। (वीरो० १८/३९) (जयो० २७/३०) नूतनकर्मबन्धः (पुं०) नए धर्मों का बन्ध। अतो
भवेन्नूतनकर्मबन्धः। (समु०८/१२) नूतनानन्दवती (स्त्री०) नवीन आनन्दकारी। (सुद० १/४१)
चन्द्रकलेव च नित्यनूतनाऽऽनन्दवती नृपशुचः पूतना। नूतनातृप्तिः (स्त्री०) १. नवीन तृप्ति। (जयो० १७/८३)
'नू तनायां रुचिरावश्यं भाविनी'। २. नवीन
अनुभूति। (जयो०वृ०१७/८३) नूनं (अव्य०) [नु ऊन्+अम्] निश्चय से, असन्दिग्ध रूप
से, (सुद०१०९) नूनं हन्तुं क्षमो न स्याज्ञान संचेतनामिमाम्' (सम्य० १२१) नि:संदेह। (सुद० १२४)
वैसे ही। (जयो० २/३६) नूनं अल्प। नूनमतून। नूनमनून-अल्प-बहुत। (जयो०वृ० १/६०) नूपुरः (पुं०) मञ्जरीक। (जयो० १७/८) •तुलाकोटि।
(जयो०१५/७५) ०पाजेब का धुंघरु, पैरों की अंगुलियों में पहलने वाला
बिछिया, बिछुड़ी, धुंघरु, एक छोटा आभूषण। नृ (पुं०) [नी+ऋन्] नर, मनुष्य, मानव। नृकपालं (नपुं०) मनुष्य की खोपड़ी। नकलत्रा (स्त्री०) पति-पत्नी। 'द्वयोरवस्थानुकलत्र-कल्पाः '
(सम्य० ३३) नृकेसरिन् (पुं०) नर शेर, नृसिंहावतार। नृगः (पुं०) वैवस्वत मनु का पुत्र। नृजलं (नपुं०) मानवमूत्र। नृत् (अक०) नाचना, नृत्य करना, हाव-भाव दिखाना, अभिनय
करना। नृता (वि०) मानवता। (जयो० २३/८०) नृतिः (स्त्री०) [नृत्+इनि] नृत्य, नाच।
नृत्यं (नृत्+क्त) नाचना, अभिनय करना, नाच, लास्य।
(जयो० १/३२) 'मूलसूत्रमनुरुद्ध्य नृत्यत:' (जयो० २/२९) नृत्यकारिणी (स्त्री०) लासनिवासिनी, हाव-भाव दर्शनी।
(जयो०७० २/५५) नटदप्सरोभर। नृत्य गत (वि.) नाच को प्राप्त, अभिनयशील। नृत्यचर (वि.) हाव-भाव का आचरण करने वाला। नृत्यशाला (स्त्री०) रंगमंच, अभिनय स्थान। (जयो०० २६/५५) नृत्यस्थानं (नपुं०) रंगमंच। नृदृग (नपुं०) नर-नयन, मानव अक्षिा (सुद० ३/२०) नृपः (पुं०) [नरान् पाति रक्षति-नृ+पा+क, नृणां पति] अधिपति,
राजा, नरेश। (सुद० १/२२) पार्थिव। (जयो०वृ० २/७०) नृपतिः (पुं०) राजा, अधिपति, नरेश, भूपति, भूप, भूपालक।
शासक। (जयो० २/११८) नरप, नरपति, (सुद० १/४६) दण्डं चेदपराधिने न नृपतिर्दधात्स्थितिः का भवेत्।
(सुद०११०) नृपतिरीति (स्त्री०) राजनीति राजा का कर्तव्य। नृपतिः
शासकस्तद्गतान् वर्णाश्रमगतान् सुधारयन्। (जयोवृ०
२/११८) नृपतीर्थपतिः (पुं०) राजतीर्थ। नृपतीर्थपतिर्ययोजयन्नृपतीनां
सन्नयो जयः। (जयो० २६/३) स्वस्वकर्मनिरतोस्तु धारयन् तद्गतोपनियमान् सुधारयन्। सारयन् पथि निज
परानथाऽऽधारयेन्नृपतिरीतिहत्कथा।। (जयो० २/११८) नृपद्वारः (पुं०) राज दरबार, राज्यसभा (समु० ३/३३) नृपधामः (पुं०) राजप्रसाद, राजमहल। (जयो० १०/१) नृपनाविकः (पुं०) राजकर्णधार। (जयो० ३/६१) नृपदण्डः (पुं०) राजदण्ड। नृपभूमि (वि०) राज बाहुल्य की भूमि। (जयो० ५/१४) नपयोषित (वि०) राजा द्वारा पालित, राजरानी। (सुद० १३४) नृपवरः (पुं०) श्रेष्ठ राजा। (जयो० १/९१) नृपशुचः (पुं०) राजा का शोक। चन्द्रकलेव च नित्यनूतना--- ____ऽऽनन्दवती नृपशुचः पूतना। (सुद० १/४१) नृपसदं (नपुं०) राजवचन। (जयो० १०/१४) नृपसुतः (पुं०) राजकुमार, राजपुत्र, राजकुंवर। (जयो० १५/२) नृपसौधः (पुं०) राज प्रसाद, राज भवन, राजमहल।
(जयो० ५/१५ सुद ५/९८) नृपस्थानं (नपुं०) राजा का स्थल, राज्य भू-भाग। नपाङ्गना (स्त्री०) राजरानी, महारानी, नृपभार्या। (सुद० ९०)
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नृपावतंसः
५८३
नेपालिका
नृपावतंसः (पुं०) राजाओं का मुखिया, नृप प्रधान, नृप-अध्यक्ष, | नेत्रजं (नपुं०) आंसू।
राजाओं का शिरमोर। चक्रायुधः प्राप्य पितुः पदं स, नेत्रजलं (नपुं०) असु, आंसू। भूमण्डलाशेषनृपावतंसः। (समु० ६/३७)
नेत्रता (स्त्री०) नयनभाव। (जयो०० ५/४९) नेत्रतामुपगतौ नृपासनं (नपुं०) राज्य सिंहासन। (जयो० १०/५) 'संसदीह नयनभावं प्राप्तौ' (जयो०१० ५/४८) नियतो नृपासने'
नेत्रदानं (नपुं०) अक्षिदान, दृष्टिदान। नुभवयोग्यः (पुं०) नरजन्म के योग्य। (जयो० २३/४८) नेत्रदोषः (पुं०) नेत्ररोग। नृभूभृदन्तः (पुं०) मानुषोत्तरपर्वत। (भक्ति० ३६)
नेत्रधारा (स्त्री०) आंसू। नृमिथुनं (नपुं०) मिथुनराशि।
नेत्रपर्यन्तः (पुं०) अक्षि का किनारा, आंख का बाहरी भाग। नमेधः (पुं०) नरमेध यज्ञ।
नेत्रपिण्डः (पुं०) अक्षि गोलक। (२१/३१) नृयज्ञः (पुं०) आतित्थ सत्कार।
नेत्रबिन्दु (स्त्री०) नयनतारक (जयो० १५/४९) नृलोकः (पुं०) मर्त्यलोक, मनुष्य लोक।
नेत्रमलं (नपुं०) आंख का मैल, अक्षि कीचड़, ढीढ। नृरत्नः (पुं०) राजा, अधिपति। (समु० ६/२९)
नेत्रयुग (वि०) दोनों नेत्र। (वीरो० ६/४) नृराट् (पुं०) अधिपति, राजा। (सुद० ७८) सज्जनपुरुष
नेत्रयोनिः (स्त्री०) नयनस्थल। (जयो०२/५९)
नेत्ररंजनं (नपुं०) सुरमा, अंजन। नवरः (पुं०) मनुष्योत्तम। (जयो० ९/६०)
नेत्ररोमन् (पुं०) अक्षिपलक, आंख का पर्दा।
नेत्रवती (वि०) नेत्र वाली। राजा (जयो० ८/२७)
नेत्रवस्त्रं (नपुं०) आंख की झिल्ली, अक्षि आवरण, नेत्रफलक। नृवर्य (वि०) महापुरुष, सज्जन। (वीरो० ५/६)
नेत्रवालः (पुं०) नेत्र की औषधि, नयन टिमकार। (जयो० नृवाहनः (पुं०) कुबेर।
२८/२९) नृवेष्टनः (पुं०) महादेव, शिव।
नेत्रविकारः (पुं०) अक्षिदोष, विभ्रम। (जयो० १६/२०) नृवातः (पुं०) समस्त जन समूह। (जयो० ६/१३२)
नेत्रान्तप्रदेशः (पुं०) कटाक्ष। (जयो० २४/४८) नृशंसव (वि०) [नृ+शस्+अण्] दुष्ट, क्रूर, निर्दय।
नेत्रिकं (नपुं०) ०नली, चम्मच। नृशंसता (वि०) आखेट, शिकार। (जयो० १६/२७) दुष्टता,
नेत्रिन् (वि०) नेत्रधारक। (समु० ३/९) क्रूरता (दयो० ३५)
नेत्री (स्त्री०) [नेत्र+ङीप्] नदी, ०धमनी, लक्ष्मी, नायिक, नृशंसाङ्गिन् (वि०) मारना, हनन करना।
अभिनेत्री। नृशार्दूलवरः (पुं०) नर श्रेष्ठ। (जयो० १७/१०)
नेत्रोदरः (पुं०) नेत्रभाग, अक्षिप्रान्त। (जयो० ३/९३) नेक (वि०) अच्छा, श्रेष्ठ। 'इ' एव इक कामः खेदो वा स न
नैदिष्ट (वि०) निकटतम, अत्यन्त निकट। विद्यते यस्य स नेकः।
नेदीयस् (वि०) निकटतर, अत्यधिक समीप। नेत (वि०) नेता, नायक। (जयो० ८/८७) महापुरुष
नेपः (पुं०) कुल पुरोहित। __ (जयो० २/१२७) (वीरो० १/५)
नेपथ्यं (नपुं०) [नी+विच, ने: नेता तस्य पथ्यम्] ०परिधान, नेत्रं (नपुं०) [नयति नीयते वा अनेन] ०नेतृत्व करना, संचालन।
पोशाक, वेशभूषा। अक्षि, आंख, नयन, दृष्टि।
आभूषण, सजावट। नेता, नायक।
रंगमंच का पृष्ठ भाग। न नेपथ्यं पथ्यं बहुतरमनतारा, नक्षत्र, पुंज। (भक्ति० ४)
ङ्गोत्सवविधौ इति प्रसिद्धः (जयो०वृ० १७/८२) दृष्टि। (जयो०वृ० १०/६४)
नेपथ्यकक्षः (पुं०) परदे के पीछे का भाग। नेत्रकनीनिका (स्त्री०) नेत्र की पुतली। (जयो०वृ० १५/४९) नेपथ्यकथा (स्त्री०) वेशभूषा की प्रंशसा। नेत्रकोषः (पुं०) नयनमण्डल, नेत्र तारक।
नेपालः (पुं०) नेपालदेश। नेत्रगोचरः (पुं०) दृश्य, प्रत्यक्ष दृष्टिगत।
नेपालिका (स्त्री०) [नेपाल+ङीष् कन्+टाप्] मैनसिल।
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नेम
५८४
नैमित्तिकः
नेम (वि०) [नी+मन] आधा।
नैगमः (पुं०)जानपद सम्बंधी। नय विशेष, सात नयों में प्रथम नेमः (पुं०) भाग, समय, काला
नैगमनय, जो पदार्थ के संकल्प मात्र का ग्रहण करता है। ऋतु, हद, सीमा।
(त०सू० २६) 'अर्थसंकल्पमात्रग्राही नैगमः' ०घेरा, बाड़ा, खाई।
निगम में कुशल-निगच्छन्ति तस्मिन्निति निगमनमात्रं वा परिखा।
निगमः, निगमे कुश लो भवो वा नैगमः। (जैन ल० नेमिः (स्त्री०) [नी+मि] परिधि, घेरा।
पृ०६४१) पहिए का घेरा, वृत्त।
नैगमनयः (पुं०) एक नय, जो अर्थ संकल्प मात्र का ग्राहक वज्र, पृथ्वी।
होता है। अर्थसंकल्पमात्र ग्राहको नैगमः नयः। ०हस्तघर्घरी, गरारी।
नैगमाभासः (पुं०) अत्यन्त भेद का प्रतिपादन, गुण-गुणी और रथ के चक्र का अन्तभाग/परिधि।
धर्म-धर्मी आदि में अत्यन्त्र भेद का प्रतिपादन करना। लोहे का घेरा/हाल।
'सर्वथाऽभेदवादस्तदाभासः'। (प्रमेयरत्नमाला० ६/७४) नेमिः (पुं०) बाइसवें तीर्थंकर का नाम। जिन्हें अरिष्टनेमि भी नैघुटुकं (नपुं०) [निघंटु ठक्] जिसमें निरुक्त शब्द हैं। कहते हैं। (भक्ति० १९)
नैचिकं (नपुं०) [नीचा+ठक्] बैल का सिर। नेमिकुमारः (पुं०) बाइसवें तीर्थंकर।
नैचिकी (स्त्री०) श्रेष्ठ गाय। नेमिचन्दः (पुं०) नेमिचन्द नामक आचार्य, जिन्हें सिद्धान्त नैतलं (नपुं०) [नितल+अण्] पाताल, नरक, पृथ्वी का अधोभाग।
चक्रवर्ती की उपाधि प्राप्त थी। आप गणित, भूगोल एवं नैत्यं (नित्यं+अण) नित्यता, ध्रुवता। कर्मग्रन्थ के ज्ञाता थे। जिनके गोम्मटसार, त्रिलोकसार नैत्यक (वि०) नियमित, रूप से घटने वाला, अपरिहार्य,
आदि ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं। (जयो० १९/३१) (वीरो० १५/४०) अनवरत, अवश्यकरणीय। नेमिनाथ: (पुं०) बाइसवें, तीर्थंकर का नाम। 'नेमिनाथ: नैदाघः (पुं०) [निदाघ+अण्] ग्रीष्म ऋतु, गर्मी का समय। शिवोऽथैवं नाम चन्द्रस्य वामन' (दयो० २६)
नैदानः (पुं०) [निदान+अण] निरुक्त वेत्ता। नेमीशः (पुं०) नेमिनाथ बाइसवें तीर्थंकर। नमि नेमीशन वश नैदानिक (वि.) [निदान+ठक्] व्याधिज्ञाता, रोग-विशेषज्ञ।
हो पाए जो जिन राजमती सती के। (भक्ति०२०) नैदेशिक (वि.) [निदेश+ठक] सेवक आदेश पालका नेष्टः (पुं०) [नेष्+तृच्] ०सोमयाग के प्रधान।
नैपातिक (वि.) [निपात+ठक्] आकस्मिक संयोग वाला, नेष्टुः (स्त्री०) [निश्+तुन्] मिट्टी का लोंदा।
दैवयोग से होने वाला कारण। नेहरु (पुं०) जवाहरलाल नेहरु, भारत के प्रथम प्रधानमंत्री | नैपुण्यं (नपुं०) [निपुण+अण] कुशलता, चतुराई। (जयो० १८४८४) नेहरुचयश्च उग्रवादी बभूव, अन्ते नेहरु
(वीरो० ४/२१) रापिशन्तिप्रियो बभूव (जयो० १८/३४)
प्रवीणता, चतुराई, दक्षता। नैक (वि०) [न+एक] जो अकेला न हो।
०समग्रता, पूर्णता, एक रूपता। नैकटिक (वि०) [निकट+ठक्] पार्श्ववर्ती, निकटस्थ। नैभृत्य (वि०) [निभृत्+ष्यञ्] लज्जाशीलता, विनम्रता। नैकट्यम् (नपुं०) [निकट+ष्यञ्] सामीप्य, पड़ौस।
गोपनीयता। नैकषेयः (पुं०) [निकषा+ढक्] राक्षस, पिशाच।
नैमन्त्रणक (वि०) [निमन्त्रण+अण्+कन्] भोज, दावत। नैकृतिक (वि.) [निकृत्या परापकारेण जीवति-निकृति ढक्] नैमष (वि०) [नियम+अण] सौदागर, व्यापारी, व्यवसायी। झूठा, बेईमान।
नैमित्तिक (वि०) [निमित्त+उक] लक्ष्यवेधी, दैवज्ञ, निमित्तज्ञाता, नीच, दुष्टात्मा।
_ ज्योतिषी। (दयो० ४८) सदाचारी नागरिक।
नैमित्तिकः (पुं०) वस्तु का विकार निमित्त है, जिसमें विकारपना नैगमः (पुं०) वेदव्याख्याता उपनिषद, उपाय।
या अन्यथापना है वह नैमित्तिक है। यत्स्यान्निमित्तं विकरोति ०व्यापारी, सौदागर।
वस्तु नैमित्तिकं विक्रियते तदस्तु। वह्रिघृतं द्रावयतीत्यनेन सदाचारी नागरिका
घृतं पुनः संद्रवतीश्रियेनः।। (सम्य०७)
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नैमित्तिकता
५८५
नैसर्गिक
नैमित्तिकता (वि०) नैमित्तिकपना। (सम्य० ६) नैमिष (वि०) [निमिष अण] अस्थायी, क्षणिक, क्षणभर
रहने वाला। नैमेय (वि०) विनिमय, लेन-देन, अदला-बदली। नैयग्रोधं (नपुं०) [न्यग्रोध+अण] बड़फल, बरगद फल, बरगद
पेड़, वटवृक्षा एक संस्थान विशेष। नैयमिक (वि०) [नियम+ठक्] नियमित, नियम सम्बन्धी। नैयायिक (वि०) [न्याय+ठक्] न्यायदर्शन का अनुयायी।
(वीरो०७० ३/१९) नैरर्थ्य (वि०) [निरर्थ+ष्यञ्] निरर्थकता, बकवास। नैरयिक (वि०) [निरर्थ+ष्यञ्] नरकगामी। नैराश्य (वि०) [निराश+ष्यञ्] निरर्थकता, बकवास। नैराश्य (वि०) [निराश+ष्यञ्] निराशा, आशा का अभाव।
(वीरो० २०/२४) निराशापन, (सुद० ११७, ८४) तृष्णा से रहित। (वीरो० १४/३१) नैराश्यमेवयस्याशाऽऽरम्भङ्गविवर्जितः।
साधुः स एव भूभागे ध्यानाध्ययनतत्परः।। (सम्य० ९४) नैराग्य-निगडं (नपुं०) निराशा रूप सांकल।
अभिवाञ्छसि चेदात्मन् सत्कर्तुं संयमद्रुमम्।
नैराश्य-निगडेनैतन्मनोमर्कटमाधर।। (वीरो० ११/४३) नैरुक्त (वि०) [निरुक्त+अण्] निरुक्ति ज्ञाता, शब्द व्युत्पत्ति
का जानकार। नैरुज्य (वि०) [निरुज+व्य] आरोग्य, स्वास्थ्य। नैर्ऋतः (पुं०) [निऋति+अण] राक्षस। नैर्गुण्य (वि०) [निर्गुण+ष्यञ्] निर्गुणता, सद्गुणों की हीनता। नैपुण्य (वि०) [निघृण-ष्यञ्] घृणा की अधिकता, निर्ममता,
क्रूरता। नैर्जुप्सा (वि०) जुगुप्सा का अभाव। (जयो० २।८२) नैर्जुगुप्सि (वि०) ग्लान्यभाव। (जयो० २/७६) नैर्मल्य (वि०) निर्मलता, स्वच्छता, शुद्धता। (जयो० १८/६६)
निःशेषतो मले नष्टे नैर्मल्यमधिगच्छति। (सुद० १३५) नैर्लज्ज्य (वि०) [निर्लज्य+ष्यञ्] निर्लज्जता, ढीठपन। नैव (अव्य०) नहीं, ऐसा नहीं-'नैव लोकविपरीतमञ्चितुम्'
(जयो० २/१५) प्रवेष्टुं नैव शक्नोति चटिका त्वन्तु चेटिका।
(सुद०९४) नैविड्य (वि०) निविडता, घनिष्टता, संशक्तता। नैवेद्यं (नपुं०) [निवेद+ष्यञ्] देवार्चन में प्रयुक्त द्रव्य, भोज्य
द्रव्य। (जयो० २४/७१) जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प और
पञ्चम नैवेद्य। 'क्षुद्यारोगविनाशनाय-नैवेद्यम्' षड्-रसमयनाना-व्यञ्जन-दलमविकलमपि च सुधायाः, सम्बलमादायार्पयेयमहमग्रे जिनमुद्रायाः वशेऽपि स्यां न क्षुधायाः।। (सुद० पृ० ७२)
नैवेद्य-गुल्गुला इति जयोदय काव्ये वि। (जयो० ११) नैःशङ्ग्य (वि०) निर्ग्रन्थता, परिग्रह त्यागपना। (मुनि० ५) नैशिक (वि०) रात्रि विषयक। नैश्चल्य (वि०) [निश्चल+ष्यञ्] अचलता, स्थिरता, दृढ़ता।
नैश्चल्यमाप्त्वा विलसेद्यदा तु तदा समस्तं जगदत्र भातु।
(वीरो० २०/४) नैषध (वि०) निषधदेशवासी, निषध देश में उत्पन्न होने वाला। नैषधः (पुं०) निषध पर्वत। (जयो० २४/१०) नैषधि (वि०) निषध पर्वत संबंधी। नैषेधिकी (स्त्री०) उत्तरगुण एवं मूलगुणधारी। (जयो० २४/९) नैष्कर्म्य (वि०) [निष्कर्म+ष्यञ्] अकर्मण्यता, क्रियाहीनता,
उद्यमविहीनता। समेति नैष्कर्म्यमुतात्मनेयं नैराश्यमभ्येत्य
चराचरे यः। (वीरो० १४/३१) नैष्किक (वि.) [निष्क+ठक] निष्क से निर्मित, टकसाल में
बना हुआ। नैष्ठिक (वि०) [निष्ठा+ठक] उपसंहारक, अन्तिम।
निर्णायक, निर्णीत, निश्चयात्मक।
स्थिर, दृढ़। नैष्ठिकः (पुं०) आध्यात्मिक शिक्षा में निपुण। नैष्ठिक ब्रह्मचारी (वि०) आजीवन ब्रह्म में विचरण करने
वाला, भिक्षावृत्ति पूर्वक विचरण करने वाला।
जिसका क्रियाकाण्ड, आवरण पर्यन्त स्त्री से रहित हो। नैष्ठिकश्रावकः (पुं०) जो निष्ठापूर्वक धर्माचरण करता, धर्म
के प्रति निष्ठावान्, निरतिचार रूप से श्रावक धर्म परिपालक। नैष्ठिकः निष्ठयाचरति तत्र वा भव:' (सागारधर्मामृत टी०१/२०)
मूलोत्तर-गुण-श्लाघ्यतपोऽनुष्ठाननिष्ठा' (सा०ध० ३/१) नैष्ठुर्य (वि०) [निष्ठुर+ष्यञ्] निष्ठुरता, कठोरता, क्रूरता। नैष्ठुर्ययो (पुं०) निष्ठुर व्यवहार। (सुद० १३४) नैष्ठ्य (वि०) [निष्ठ+ष्यञ्] दृढ़ता, परिपक्वता, स्थायित्व। नैष्प्रतीच्छयं (वि०) अप्रतिग्रह। (जयो० २/७४) नैसर्गिक (वि.) [निसर्ग+ठक] स्वाभाविक, निसर्गज, सहज,
अन्तर्जात, स्वतः उत्पन्न। 'नैसार्गिको मेऽभिरुचिवितक' (वीरो०५/२३)
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नैसर्गिकचापल्य
५८६
न्यञ्
नैसर्गिकचापल्य (वि०) स्वाभाविक चपलता। (जयो० १३/८८) । नौकादण्डः (पुं०) चम्पू, पतवार, दाव खेने का दण्ड-चम्पू। नैसर्गिकसरलस्वभावः (पुं०) सहज रूप में सरल प्रवृत्ति नौचरः (पुं०) नाविक, मल्लाह, मांझी। (दयो०पृ०६१)
नौजीविकः (पुं०) नाव चलाकर जीविका करने वाला नाविक। नैस्त्रिंशिक (वि०) कृपाणधारी, असि धारक।
नौतार्य (वि०) नाव पार ले जा सके। नो (अव्य०) निषेधवाचक अव्यय, नहीं, बिना, मत। नो हृदैव नौदण्डः (पुं०) चम्पू, पतवार, डांड।
न दृशैव विशोकैः किन्तु पूर्णवपुषैव हि लोकैः। (जयो० | नौमित (वि.) नमित, प्रणमित, बार बार नमित। ५/६८)
(सम्य० १५२) नो आनुभावदीर्घः (पुं०) अपने अपने उत्कृष्ट अनुभावों से
नौयायिन् (वि०) नाविक, जहाज संचालक, पोतवाहक। हीन बांधने वाले।
नौवाहः (पुं०) कर्णधार, नाविक, पोतवाहक। नो-आगमः (पुं०) आगम से भिन्न। आगमादण्णो णोमागमो।
नौव्यसनं (नपुं०) नाव का भंग होना। (धव० ३/१३)
नौसाधनं (नपुं०) नौसेना समूह, नौका समूह, जहाजी बेड़ा। नो इन्द्रियप्रणिधिः (स्त्री०) चार कषायों को रोकना। शुद्ध
न्यक् (अव्य०) [नि+अच्+क्विन्] घृणा, अपमान या दीनत आत्मा में स्थिर होना।
सूचक अव्यय। नो इन्द्रिय प्रत्यक्षः (पुं०) इन्द्रिय बिना स्वयमेव ज्ञान होना।
न्यकार (वि०) दीनता, अपमानता अनादर, घृणा। नोकर्म (पुं०) पुद्गल परिणाम रूप सुख-दुःख का कारण।
न्यकृ (अक०) तिरस्कार करना, अपमान करना, निन्दा ०शरीरत्व परिणाम।
करना। 'स्वमुत्तमं सम्प्रति मन्यमानोऽन्येन्यक्करोतीति शरीर रूप पुद्गल परिणाम।
विवेकभावो' (वीरो० १७/४) नोकर्मबन्धः (पुं०) माता, पिता, पुत्रादि का सम्बन्ध।
न्यकथः (वि०) फैलाना। (वीरो० १३/१९) नोकषायः (पुं०) कषाय के भाव, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद।
न्य भावः (पुं०) दीनता, घृणा, अपमान।
न्यभावित (वि०) अपमानित, घृणित। नोकृतिः (स्त्री०) निमूल नष्ट होना, गणितीय पद्धति, वर्गमूल, निकालने पर कुछ नहीं रहना।
न्यक्ष (वि.) [नियते क्रियते वा अक्षिणी यस्य] नीच, अधम, नो गौणः (पुं०) निरुक्त्यर्थ से रहित नाम-अमुद्र-समुद्र,
दुष्ट, पापी। अलाल-पलाल आदि।
न्यक्षः (पुं०) भैंस। नो गौण्यपदं (नपुं०) अनुगत अर्थ से रहित पद।
परशुराम नो चेत् (अव्य०) न हो, ऐसा न हो, फिर भी नहीं।
न्यगद् (सक०) कहना, बोलना (सुद० १२९) स्यान्नोचेद्हानि सा पुनीतम्बुजास्या। (सुद० ३/४५)
न्यगवृत्तिः (स्त्री०) नीचवृत्ति, अधम प्रवृत्ति-'न्यगवृत्ति कृता नोचेच्छत्रुः सम्भवेन्नात्र चित्रम्। (सु० ११०)
येन, स मुच्यतेऽत्र युक्ति किम्। (हित० सं० २८) अन्यथा, वरना, तो भी
न्यगाद (भू०) कह दिया, बोल दिया। (जयो० २०/८६) नो चेत् पुनः (अव्य०) फिर भी नहीं हो। अर्थ क्रियाकारितयाऽस्तु
न्यग्रोधः (पुं०) [न्यक्रूणद्धि-न्यक्रुध्+अच्] बरगद का वस्तु नो चेत् पुनः कस्य कुतः स्तवस्तु। (वीरो० १९/१)
पेड़। नोदनं (नपुं०) [नुद्+ल्युट्] हटाना, दूर करना, मिटाना।
एक संस्थान या आकृति विशेष। नाभि के ऊपर का ०ठेला, हांकना, आगे बढ़ाना।
शरीरवयव जो विशाल हो। नोधा (अव्य०) [नो+धा] नौ प्रकार, नौ गुणा।
न्यग्रोधो वटवृक्षः, समन्तान् मण्डलं परिमण्डलम्। नौः (स्त्री०) [नुद्यते अनया-नु।डौ] जहाज, नाव, नौका।
न्यग्रोधसंस्थान शरीरस्योर्ध्वभायेऽवयवपरमाणुबहुत्वम्। नौकर्णः (पुं०) मल्लाह, नाविक, पोत संचालक।
(जैन०ल० पृ० ६५३) नौकर्मन् (नपुं०) मल्लाह की आजीविका।
न्यग्रोधसंस्थानं (नपुं०) शरीरवयव। नौका (स्त्री०) [नौ कन्टाप] नौका, छोटी नाव, किश्ती। न्यंकुः (पुं०) बारहसिंहा। (वीरो० १८/३०)
न्यञ्च (वि०) [नि+अच्+क्विन्] नीचे की ओर जाता हुआ।
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न्यंचनं
५८७
न्यूनं
नीच, घृणा योग्य।
मन्थर, आलसी। न्यंचनं (नपुं०) वक्र, टेड़ा, कुटिल। न्यत् (वि०) व्यतीत। (सुद० ४/४७) न्यपत् (वि०) गिराया। (सुद० १२२) न्यमीलत् (वि०) जपा, फेरा गया। (जयो० ६/५५) न्यस्त (भू०क०कृ०) समानीय, लाया गया।
० फेंका गया, लिटाया गया। (जयो० २७/४३) ०अन्तर्हित, प्रयुक्त। ०वर्णित, चित्रित।
उत्सृष्ट, विसर्जित। न्यस्तदेह (वि०) विसर्जित शरीर, मृतकाय। न्यस्तशस्त्र (वि०) प्रयुक्त शस्त्र, निरस्त्र, अरक्षित। न्यस्य (वि०) प्रीतिजनक। (दयो० ४/५८) न्याक्यः (पुं०) मुमुरे, धानी, धान्य लाजा। न्यादः (पुं०) [नि+अद्+ण] भोजन कराना, आहार देना। न्ययोज (वि०) नियुक्त करना, बिठाना, स्थापित करना।
(जयो० २६/३) न्यवारि (वि०) बार, बार रोका गया। (जयो० १९/१५) न्यायः (पुं०) [नियन्ति अनेन नि-इ+घञ्] रीति, प्रणाली,
पद्धति, योजना, क्रियान्विति, औचित्य। (सम्य० १२१) ०कानून, न्यायपद्धति, नैतिकता की पद्धति। ०शासन व्यवस्था, दण्ड व्यवस्था। विश्वव्यापी नियम। न्याया मुक्तिः। न्यायः सिद्धान्तः। ०अनुष्ठान।
प्रमाण से प्रमेय की संगति। 'नयः प्रमाणात्मको न्यायः, निपूर्वादिण् गतौ इत्यस्माद् धातो करणे घञ्प्रत्यये न्यायशब्द सिद्धिः। (जैन०ल०पृ० ६५३)
प्रमाणेन प्रमेयस्य घटना। न्याय-काव्यं (नपुं०) ०नीतिकाव्य, अनुष्ठान काव्य, सिद्धान्त
ग्रन्थ। न्यायगत (वि०) पद्धति को प्राप्त, न्याय/कानून को प्राप्त। न्यायचर (वि०) न्यायपालक। न्यायपथ (पुं०) न्यायमार्ग। 'न्यायस्य समौचित्यस्य यः पन्था
मार्गः। (जयो० २७/६१)
न्यायपद्धतिः (स्त्री०) नैतिक पद्धति, नियम सम्बंधी योजना।
(जयो० ३/७) न्यायमार्गानुयायी (वि.) नीतिमान, नीतिज्ञ, विचारक।
(जयो०वृ० ३/१०८) न्याययुक्त (वि०) तर्क संग्रह, युक्तियुक्त, सदाचरणशील।
(जयो० ९/१०) न्यायशास्त्र (नपुं०) तर्क विज्ञान, तर्कशास्त्र। न्यायशील (वि०) सिद्धान्त पालक। न्यायसम्मत (वि०) पुनीतपथ, सच्चामार्ग, तर्क संगत।
(जयो० ७/९०) न्यायिन् (वि०) नीतिमार्गश्रयणी, नीतिमार्गानुगामी।(जयो० ७/७६) न्यायाधिपः (पुं०) न्यायधीश, न्यायप्रमुख। (वीरो० १८/५१) न्यायोचित (वि०) नैतिकतापूर्ण। न्यायोचिते भोगपदेऽपकर्षः,
सन्तोष एवास्य वृथा न तर्षः। (सम्य० ९९) न्यायोपार्जित (वि०) न्यायपूर्वक कमाया गया, यथोचित,
यथाशक्य। (जयो०वृ० २/९१) न्याय्य (वि०) [न्याय+यत्] उचित, श्रेष्ठ, तर्कसंगत, प्रामाणिक,
सारगर्भित, उपयुक्त, योग्य।
०सामान्य, प्रचलित। न्याप्यात्पथः (पुं०) न्यायोचितमार्ग। न्याय्यात्पथो नैवमथावसन्नः
__ कर्त्तव्यमओत्सततं प्रसन्नः।। (वीरो० १७/१०) न्यासः (पुं०) [नि+अस्+घञ्] रखना, धरोहर, संकलन,
निक्षेप, प्रदान। स्वर्णमूर्तिः कवितेयमार्या लसत्पदन्यासतयेव
भार्या। (वीरो० १/२७) न्यासहेतुः (पुं०) चरण प्रदान कारण। न्यासिन् (पुं०) [न्यास्+इनि] कर्म रहित। न्युरव (वि०) मनोहर, सुन्दर। न्यायापहरणं (नपुं०) धरोहर का अपहरण। न्यस्यते रक्षणरयान्यस्मै
समर्प्यत इति न्यासः सुवर्णादिः तस्यपहरणमलापः। न्यासापहारः (पुं०) विस्मरण कृत धरोहर का अपहरण।
'न्यासापहारे विस्मरणकृत परनिक्षेपग्रहणम्'
प्रिय उचित, ठीक। न्युब्ज (वि०) [नि+उब्ज+अच्] अवनत, झुका गया, मुड़ा
हुआ। न्यून (वि०) [नि+ऊन्+अच्] ०कम, घटाया हुआ, कम किया
हुआ।
नीच, निम्न, दुष्ट, निन्दनीय दुराचारी। न्यूनं (अव्य०) कम, थोड़ी मात्रा में, स्वल्प।
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न्यूनांग
५८८
पक्षकः
न्यूनांग (वि०) विकलांग, अपांग, अंगहीन। न्यूनाधिकत्व (वि०) थोड़ा, अधिक, असमान, एक सा न
होना। (वीरो० १९/७) पृथक्कृतौ व्यस्त-समस्तात: न्यूनाधिकत्वं न भवत्यधातः। (वीरो० १९/७)
प (पुं०) पवर्ग का प्रथम अक्षर। (जयो०वृ० १/२४) इसका
उच्चारण स्थान औष्ठ है। इसमें विचार, श्वास, घोष और अल्पप्रमाण नामक प्रयत्न का व्यवहार होता है, यह
स्पर्शवर्ण है। प (वि०) [पा+क] पीने वाला, चौकसी करने वाला, रक्षक। पः (पुं०) ०वायु, पवन। सुष्ठु यस्य पवनस्याणः शब्दो यत्र
तस्मिन् सुपाणे (जयो० २७/२७) ०पत्र।
०अण्डा। पकारपरा (स्त्री०) उमा, पार्वती (जयो० ५/५९) पक्कणः (पुं०) [पचति श्वादि निकृष्टमांसमिति पच्+ क्विप्]
०चाण्डाल गृह।
०बर्बर, शबर का घर। पक्तिः (स्त्री०) [पच्+क्तिन्] पकाना, परिपक्व, पक जाना।
०परिपक्वता।
प्रसिद्धि, ख्याति, प्रतिष्ठा। पक्तिशूलं (नपुं०) उदर पीड़ा, अपच से पीड़ा। पक्त (वि०) [पच्+तृच्] रसोइया, पाचक, पकाने वाला।
उद्दीपक, पचाने वाला। पक्तृ (पुं०) जठराग्नि। पक्तुं (वि०) [पच्+ष्ट्रन्] यज्ञाग्नि को स्थापित करने वाला। पक्तिं (वि०) [पच्+क्ति+मम्] ०पक्का, पका हुआ, परिपक्व
०पकाया हुआ। पक्त्रिम (वि०) भव्यमान। (जयो० २/६७) पक्व (वि०) [पच्+क्त, तस्य वः] ०पकाया हुआ, भुना
हुआ, उबाला हुआ। (वीरो० १६/२४) 'पक्वं नाम यद् अग्निना संस्कृतम्' गरम किया हुआ, तपाया हुआ। परिपक्व, पक्का।
सुविकसित, सुपूरित। ०अनुभवशील, बुद्धिमान्। ०नष्ट, क्षय, नाश, घात।
पक्वकृत (वि०) परिपक्व होने वाला, पकाने वाला। पक्वधान्य (वि०) पका हुआ धान्य, पक्वफलं (नपुं०) परिपक्व फल। पक्वबालसहित (वि०) पकी हुई धान्य की बालियों युक्त
(जयो० ४/५१) पक्वबालसहिता (स्त्री०) वृद्धा। (जयो० ४/५) पक्वरसः (पुं०) मदिरा, मद्य, शराब। पक्ववारि (नपुं०) कांजी का पानी, उबला पानी, प्रासुक जल। पक्वशः (पुं०) एक भील जाति। पक्वान्नम् (नपुं०) पका हुआ धान्य। (जयो० १०/१२) पक्ष (सक०) ०ग्रहण करना, ०लेना, ०स्वीकार करना।
पक्ष लेना। पक्षः (पुं०) [पक्ष+अच्] ०पत्र, पंख। ये पक्षाः/पत्राणि पतिता
इतस्ततो विकीर्णास्ते। (जयो०वृ० १५/४५) पार्श्वभाग, वस्तु का हिस्सा, वस्तु का भाग, दक्षिण-उत्तर के भाग। नगौकसश्चाखर्वे पक्षद्वय-शलिनः खगा सर्वे। (जयो० ६/८) ०समीपवर्ती। (सुद०७४) ०वार। ०वाद, कथन, अपनी अपनी नीति। एतदीयरदनच्छदसारौ। (जयो० ५/४८) पूर्वपक्ष-परपक्ष-विचारौ। ०शुक्लपक्ष, कृष्णपक्ष, महिने के दो भाग। समवर्धत वर्धयन्न यं सितपक्षोचित चन्द्रवत्स्वयम्। (सुद० ३/२७) ०काल विशेष। पण्णरस अहोरत्ता पक्खो-पन्द्रह दिनरात का पक्ष। पञ्चदशदिवसाः पक्षः (धव० १४/३१९) पण्णरसदिवसेहि पक्खो होदि (धव० १३/३००) प्रतिज्ञा-श्रावकाचार की प्रवृत्ति धर्मवृद्धि हेतु असत्यादि का त्याग। साध्य की स्वीकारता-अनुमानांग। साध्याभ्युपगमः, पक्षः, प्रत्यक्षाद्यनिराकृतः। (न्यायावतार १४) ०धर्म-धर्मिसमुदाय: पक्षः। 'पक्षश्च धर्म-धर्मिकसमुदायात्मा' (न्यायकुमुद चं० १/३) साध्यविशिष्टः प्रसिद्धो धर्मी पक्षः। (न्यायपदीपिका पृ० ७२) ०दल, समूह, गुट। ०श्रेणी, अनुयायियों की संख्या। ०बाजू, भुजा, कंधा।
०प्रतिवचन, उत्तर, समाधान। पक्षकः (पुं०) पार्श्व, समीपवर्ती।
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पक्षकक्षः
५८९
पङ्कजटव
पक्षकक्षः (पुं०) समीपवर्ती वनखण्ड। 'पक्षकक्षमिति कस्य
दहन्ति श्रीवर, न मदनदावा। पक्षकीय (वि०) पक्ष बाली। (वीरो० १८/५३) पक्षगत (वि.) ०समूह युक्त।
विकल्प युक्त।
०समाधान को प्राप्त। पक्षचरः (पुं०) चन्द्र। पक्षछिद् (पुं०) इन्द्र। पक्षजः (पुं०) चन्द्र। पक्षद्वयं (नपुं०) दो पक्ष, दोनों पहलू। पक्षता (वि०) मित्रता, पक्षता (स्त्री०) किसी एक पक्ष से सम्बन्धित। पक्षतिः (स्त्री०) [पक्षस्य मूलं-पक्ष-ति] पंख की जड़। शुक्ल
पक्षा ०सभा, सदन, परिषद। (जयो० ३/७) सुखेन गतं गमन
जीवननिर्वहणं तस्मै पक्षतिः सभा सा। पक्षद्वार (नपुं०) दरवाजा, द्वारभाग। पक्षधर (वि०) ०पक्ष रखने वाला।
पंखधारी। पक्षधरः (पुं०) चन्द्र, राशि। पक्षपरिच्युतिः (स्त्री०) प्रतिज्ञाहानि। (जयो० २६/८२) पक्षपातः (पुं०) किसी वस्तु के प्रति स्नेह, प्रेम, इच्छा, रुचि।
(सुद० १२१) पक्षपातवान् (वि०) पक्ष प्रस्तुत करने वाला। (सुद० ४/४४) पक्षपातिन् (वि०) पक्षपात करने वाला, पतनशील, सहानुभूति
रखने वाला, दुरुपयोगसमर्थ। (जयो० ३/१५) पक्षपालि: (स्त्री०) चोर द्वार। पक्षबिन्दु (स्त्री०) कंक पक्षी। पक्षभागः (पुं०) पार्श्वभाग, समीपवर्ती स्थान। (जयो० ३/१०३) पक्षमुक्तिः (स्त्री०) समय की सीमा। वचन सीमा। पक्षवादः (पुं०) ०मताभिव्यक्ति, अपने पक्ष का कथन,
पक्ष सम्मति। उत्तर, समाधान। पक्षवाहनः (पुं०) पक्षी, पक्षेव वाहनः यस्या सा। पक्षहत (वि०) पंख विहीन, पंख का घात। पक्षहरः (पुं०) पक्षी। पक्षहोमः (पुं०) पाक्षिक होम। पक्षालु (पुं०) पक्षी, पंछी। पक्षिणी (स्त्री०) [पक्ष इनि+ङीप्] पतत्त्रिणी। (वीरो० ३/२७)
०मादापक्षी, ०दो पक्ष वाली रात। ०पक्षपातवती। (जयो०
११/८१) पक्षिन् (पुं०) पक्षी, पंछी, खग। (जयो० ३/११३)
पक्षवन्तस्तिर्यंचः पक्षिणः। (धव० ३७/३९) पक्षिन् (वि०) पक्षवाला, अनुयायी। पक्षिगणः (पुं०) शकुनिसमूह, खग समुदाय, पंछीगण। (जयो०
१/८७) 'पादोदकं पक्षिगण: पिवन्ति' (जयो० १/८७) पक्षिराज् (पुं०) गरुड़, वैनतेय। (जयो०वृ० १/४४) पक्षिवरः (पुं०) श्रेष्ठपक्षी, गरुडपक्षी। (जयो०वृ० १८/४६) पक्षिशावकः (पुं०) पक्षी के बच्चे, खगशावक। (जयो०वृ०
१२/१३७) पक्षिशाला (स्त्री०) घोंसला, चिड़ियाघर। पक्षिसमूहः (पुं०) शकुन्तगण, शकुनिसमूह, खगकुल।
(जयो०१८/३) पक्षिसिंहः (पुं०) गरुड़ पक्षी। पक्षिस्वामिन् (पुं०) गरुड़राज। पक्ष्मन् (नपुं०) [पक्ष+मनिन] ०बटौनी, आंख के रोम।
फूल की पंखुड़ी।
०धागे का सिरा। पक्ष्मयुग्मः (पुं०) आंखों की बरौनी। (वीरो० १२/१४) पक्ष्मल (वि०) [पक्ष्मन्+लच्] दृढ़ बरौनी, सुन्दर भौंह। पक्ष्य (वि०) [पक्ष्+यत्] पाक्षिक, एक पक्ष से सम्बन्धित। पङ्कः (पुं०) [पच् विस्तारे कर्मणि कारणे वा घञ्]
पतन्त्यस्मिन्निति पङ्कः, पंकोनामत्वेदावद्धो मल:। कर्दम, मल, मैल, मिट्टी, दलदल। (सुद० १/६) (सुद० १२०) ०स एकदा मासिकवृत्तपारणा परायणोऽम्भः स्थलमेत्य
पङ्कसात्। (समु० ४/३४) पङ्ककीरः (पुं०) टिटहरी पक्षी। पङ्कक्रीड़ा (पुं०) सूकर। पङ्कगतिः (स्त्री०) कीचड़ से ऊपर गमन। पङ्कग्राहः (पुं०) मगरमच्छ, घड़ियाल। पङ्कजं (नपुं०) पंकादवकरात् जातानि पङ्कजान्येव। (जयो०वृ०
३/५०) कमल, वारिज। (जयो० ४/५६) पङ्कजः (पुं०) ब्रह्मा, सारस। (जयो० ) पङ्कजन्मन् (पुं०) कमल। पङ्कजटव (वि०) कीचड़ में पैदा होने वाला।
समुत्कीर्य करावस्या विधिना विधिवेदिना। तच्छेषांशैः कृतान्येव पङ्कजानीति सिद्धयति।। (जयो०३/५०) 'कमलानां पङ्कजत्वं सिद्ध्यतीति' (जयो०वृ० ३/५०)
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पङ्कजिनी
पञ्चधा
पङ्कजिनी (स्त्री०) कुमुद पादप, कमलदण्ड।
पचनः (वि०) पकाया हुआ, पक्व किया हुआ। पङ्कप्रभा (स्त्री०) एक नरक की भूमि। (समु० ५/३४) पचनः (पुं०) अग्नि। पङ्कमंडुकः (पुं०) द्विकोष शंख।
पचनं (नपुं०) [पच ल्युट्] ०पचाना, भोजन बनाना, परिपक्व पङ्करुह् (नपुं०) कमल।
करना। पङ्कवासः (पुं०) केंकड़ा।
ईंधन, बर्तन, भाण्ड, पात्र। पङ्कारः (पुं०) [पङ्क+ऋ+अण] सिवार।
पचा (स्त्री०) [पच्+अड्+टाप्] पकाने की क्रिया। सीढ़ी, नसैनी, जीना, पौड़ियां।
पचिः (स्त्री०) [पच्+इनि] अग्नि। ०बांध, मेंड।
पचेलिम (वि०) [पच्+एलिमच्] इच्छा करने वाला। पङ्किल (वि०) [पंक+इतच्] मैला, मलिन, गंदला, कर्दम | (सुद० ९८) ०शीघ्र ही पकने वाला, ०परिपक्व होने (जयो० ११/४)
योग्य, ०स्वतः पकने वाला। पङ्किलत्व (वि०) कर्दमबाहुल्य। (जयो० ११/४)
पचेलूकः (पुं०) [पच्+ एलुक] रसोइया। पढ़ेजं (नपुं०) [पके जायते-पंके+जन्ड् ] कमल। पञ्च (सं०वि०) पांच संख्या। (सम्य० १८) पड़ेजात (वि०) कीचड़ में उत्पन्न कमल। (जयो० १४/५८) पञ्चक (वि०) [पञ्चकन्] पांच से युक्त, पांच से सम्बद्ध, पङ्केरुह् (नपुं०) कमल। (जयो० ५/६००)
पांच का समावेश। (जयो० ११/४६) 'अ सि आ उ सा पढ़ेरुहः (पुं०) सारस पक्षी।
इत्येव' (जयो० १९/५५) 'हाँ ह्रीं हूँ, हौं ह्रः। (जयो०१९/५५) पड़ेशय (वि०) [पंके+शी+अच्] कीचड़ में रहने वाला। पञ्चता (स्त्री०) पांच गुना, पांच का समूह। पङ्क्तिः (स्त्री०) [पंच्+क्तिन्] ० श्रेणी, कतार।
पञ्चकर्मन् (नपुं०) पांच विधि, पंचक्रिया। ०समूह, समुदाय, संग्रह दल, रेवड़।
पञ्चकृत्वस् (अव्य०) पांच बार। ०पृथ्वी।
पञ्चकोणं (नपुं०) पांच कोण की आकृति। यश, प्रसिद्धि।
पञ्चकोषा (पुं०) पांच प्रकार का परिधान। ०संख्या समूह।
पञ्चकोशी (स्त्री०) पांच कोश की दूरी, मृत्यु, प्रणाश, पंक्तिग्रीवः (पुं०) रावण।
विनाश। (जयो० ३/२४) पंक्तिचरः (पुं०) समुद्री पक्षी।
पञ्चत्व (वि०) पांच से युक्त, पांच संख्या वाला, पञ्चमभाव। पंक्तिबद्ध (वि०) कतारबद्ध। (जयो० १/८३) (जयो०वृ० (जयो० १/४८) १३/६४)
पञ्चथुः (पुं०) [पञ्चन्+अथुच्] ०समय, कोयल। पंक्तिवर्ज (वि०) पंक्तियुक्त, श्रेणीगत, एक दल से युक्त। पञ्चतत्त्वं (नपुं०) पांच तत्त्व, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और पंक्तिश (वि०) पंक्तिबद्ध, क्रम से, एक समूह, वाला। आकाश। (जयो०वृ० १२/११८)
पञ्चतपस् (पुं०) पञ्चतप वाला। पंगु (वि०) [खञ्ज+कु, खस्य पत्वे जस्य गादेशः] लंगड़ा, | पञ्चतय (वि०) पांच गुणा। खंज, एक पैर से लडखड़ाता।
पञ्चत्रिंश (वि०) पैंतीसवां। पंगुः (पुं०) लंगड़ा।
पञ्चत्रिंशत् (स्त्री०) पैंतीस। पंगूल (वि०) [पंगु+लच्] विकलांग, लंगड़ा, अपंग। पञ्चदर्शन् (वि०) पन्द्रह। पच् (सक०) पकाना, पचाना, भूनना।
पञ्चदशसर्गः (पुं०) पन्द्रहवां सर्ग। ० भोजन तैयार करना।
पञ्चदशी (वि०) पन्द्रह से युक्त। [पञ्चानां दशानां समाहारः] पूर्ण करना, परिपक्व करना।
(जयो० ५/९९) गलाना, उबालना।
०पूर्णिमा। पचतः (पुं०) [पच्+अत] ०अग्नि, आग। ०इंगाल, अंगार। | पञ्चदीर्घ (नपुं०) पांच दीर्घ। सूर्य, ०इन्द्र।
पञ्चधा (अव्य०) [पञ्चन्+ध] पांच प्रकार से पंचभेद तत्व।
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पञ्चनखः
५९१
पञ्चशून्याक्षर
जीवोऽप्यजीवश्चस्तथापदार्थः स्यात् पञ्चधा। जीवइयानिहार्थः।
(समु०८/२) पञ्चनखः (पुं०) पंच नखों से युक्त जानवर।
०हस्ति, ०कछुवा, सिंह, ०व्याघ्र। पञ्चनदः (पुं०) पांच नदिया। पञ्चनवति (स्त्री०) पिंचानवें। पञ्चनीराजनं (नपुं०) पांच पूजा की सामग्री-दीपक, कमल,
वस्त्र, आम और पान। पञ्च पात्र। पञ्चपंचास (वि०) पचपनवां। पञ्चपंचाशत् (वि०) पचपन। पञ्चपदी (स्त्री०) पांच पद। पञ्चपात्रं (नपुं०) पांच पात्रों का समूह। युधिष्ठिरो भीम इतीह
मान्यः शुभैर्गुणैरर्जुन एव नान्यः। स्याद्वाच्यता वा नकुलस्य
यस्य ख्यातश्च सद्भिः सहदेव शस्य।। (जयो० १/१८) पञ्चपाण्डवः (पुं०) पांच पाण्डुपुत्र। अर्जुन, भीम, नकुल,
सहदेव और युधिष्ठिर। (जयो० १/१८) पञ्चप्राणाः (प्र०बहु०) पांच प्राण प्राण अपान, व्यान, उदान,
और समान। पञ्चप्रासादः (पुं०) विशिष्ट आकृति का देवालय। पञ्चमहल। पञ्चवाणः (पुं०) कामदेव। पञ्चबाणयुक्त (वि०) पांच बाणों से युक्त। पञ्चभुज (वि०) पांचकोण वाला। पञ्चभूतं (नपुं०) पांच भूततत्व। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और
आकाश। (सम्य० ५१) पञ्चभर्तका (स्त्री०) पांच भर्तारवाली द्रोपदी। (सुद०८७) पञ्चम (वि०) [पञ्चन्+मट्] पांचवां। पञ्चमः (पुं०) संगीत का स्वर। (जयो० ११/४७) कोयल स्वर। पञ्चम-अणुव्रतं (नपुं०) पांचवां अणुव्रत, परिग्रहपरिमाणाणुव्रत। पञ्चमगुणस्थानवर्ती (वि०) पांचवें गुणस्थान वाला। (सम्य०१००) पञ्चममहाव्रतं (नपुं०) पांचवां महाव्रत, परिग्रहत्याग महाव्रत। पञ्चमपुद्गलः (पुं०) पांचवां पुद्गल द्रव्य। (समु०८/२) पञ्चममूलगुणः (पुं०) प्राणातिपात आदि मूलगुणों में परिग्रह
परित्याग महाव्रत। पञ्चमलम्बः (पुं०) पांचवां लम्ब, दयोदय के अध्याय का नाम
लम्ब है, यह चम्पूकाव्य है। पञ्चमहापातकं (नपुं०) पांच पाप। हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील
और परिग्रह। पञ्चमुष्टिः (स्त्री०) पांच मुष्टि, श्रमणचर्या के साधु के गुणों
में एक गुण पञ्चमुष्टि का लुञ्चन भी है।
पञ्चमुष्टि स्फुरद्दिष्टिः प्रवृत्तोऽखिलसंयमे।
उच्चसान महाभागे वृजिनान् वृजिनोपमान्।। (जयो० २८/७) पञ्चमुष्टिलोचनं (नपुं०) पञ्च मुष्टियों से केशों का लुञ्चन
(जयो०वृ० २८/७) पञ्चमेरु (पुं०) पांच पर्वतराजावक्षार, मेरु, विजयार्ध, गजदन्त,
इष्कार और मानुषोत्तर ये पांच मेरु नाम वाले पर्वत हैं-वक्षार-रौप्याद्रिषु हस्तिदन्ते ष्विपूक्तशैलेषु नृभूभृदन्ते। वनेषु मेरुदित पर्वतानां चैत्यानि वन्दे जिनपुङ्गवानाम्।।
(भक्ति० ३६) पञ्चयामः (पुं०) पांच दिन। पञ्चयोजनं (नपुं०) पांच योजन। पञ्चरत्नं (नपुं०) पांच रत्न-नील, वज्रक, पद्मराग, मौक्तिक
और प्रवाल। पञ्चरात्रं (नपुं०) पांच रात्रि का समय। पञ्चराशिकं (नपुं०) पांचवी राशि, गणितीय विभाजन। पञ्चलक्षणं (नपुं०) पांच लक्षणों वाला। पञ्चवर्णः (पुं०) पांच वर्ण। पञ्चवर्णात्मकः (पुं०) पांच वर्ण वाला। पांचवां वर्ण, वर्ग का
पञ्चमवर्ग पवर्ग। (जयो०वृ० १/२४) पञ्चवर्षः (पुं०) पांच वर्ष। पञ्चवर्षीय (वि०) पांच वर्ष सम्बन्धी। पञ्चवल्कलं (नपुं०) पांच प्रकार के वृक्षों की छाल- बड़,
पीपर, ऊमर, प्लक्ष और वेतस की छाल। पञ्चविंश (वि०) पच्चीसवां। पञ्चविंशतिः (वि०) पच्चीस। पञ्चविंशतिका (स्त्री०) पच्चीस का संग्रह। पञ्चविध (वि०) पांच प्रकार का, (वीरो० १३/५) छेत्तुं जना
जन्मनगं कलित्रं नमामि तत्पञ्चविधं चरित्रम्।। (भक्ति०७) पञ्चशत (वि०) पांच सौ। (वीरो० १५/२७) पञ्चशतीद्वयं (नपुं०) पांच-पांच सौ-सहस्त्र। न हि पञ्चशतीद्वयं
दृशां क्षममित्यत्र किलेति विस्मयात्। (वीरो० ७/४) पञ्चशरी (स्त्री०) पांच बाण। 'कामदेवस्य पञ्चशरी' (जयो०७०
११/४६) पञ्चशाखः (पुं०) ०हस्त, हाथ।
०हस्ति, हाथी। पञ्चशिखः (पुं०) सिंह। पञ्चशून्याक्षरं (नपुं०) पांच शून्य अक्षर-हाँ ह्रीं हूँ है ह्रः
(जयो०वृ० १९/५५)
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पञ्चष
५९२
पट्
समूह।
पञ्चष (वि०) पांच-छह।
अर्हन्नथो सिद्ध इतो गणेश साध्यापकः साधुरनन्यवेशः। पञ्चषष्ठ (वि०) पैंसठवां।
पञ्चाश्रया ये परमेष्ठितायास्ते सन्तु नित्यं गुरवः सहाया:।। पञ्चषष्ठिः (स्त्री०) पैंसठ।
(भक्ति०१७) पञ्चसप्तत (वि०) पचहत्तरवां।
पञ्चाश (वि०) पचासवां। पञ्चसप्ततिः (स्त्री०) पचहत्तर।
पञ्चाशत् (स्त्री०) पचास। पञ्चसहस्रं (नपुं०) पांच हजार। (समु० ६/१८)
पञ्चाशति (स्त्री०) पचास। पञ्चसालीधान्यं (नपुं०) पांच साली धान्य।
पञ्चाशितका (स्त्री०) [पञ्चाश+क+टाप्] पचास श्लोक का पञ्चहायन (वि०) पांच वर्ष की वय का। पञ्चाकारः (पुं०) पांच प्रकार की आकृति।
पञ्चाश्चर्यः (पुं०) पांच आश्चर्य (जयो००६/१३२) पुष्पवृटि पञ्चाक्षं (नपुं०) पांच इन्द्रियां। (जयो० २८/७०) स्पर्शन, आदि। रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण।
पञ्चेन्द्रियं (नपुं०) पांच इन्द्रियां (वीरो० १९/३५) (सुद० पञ्चाङ्गः (पुं०) ग्रोचर ग्रह। (दयो० ४)
१२७) 'पञ्च स्पर्शन-रसन-घ्राण-चक्षुः श्रोत्ररूपाणीन्द्रियाणि पञ्चाङ्गरूपः (पुं०) ज्योतिषशास्त्र के तिथि, वार, नक्षत्र, योग येषां ते पञ्चेन्द्रियाः' (जैन०ल० पृ० ६५७) और कारण ये पांच ग्रह गोचर रूप हैं।
पञ्चेन्द्रियपराधीनः (पुं०) पांचों इन्द्रियों के वशीभूत। हस्ती गोचर भूमि वाले ग्रामवासी कृषक-सादा भोजन, सादा स्पर्शन-सम्वशोभुवि वशामामाद्य सम्बद्ध्यते, मीनोऽसौ पहनावा, पशुपालन, कृषिकरण और सादा रहन-सहन। वडिशस्य मांसमुपयन्मृत्यु समापद्यते। पञ्चाङ्ग रूपा खलु यत्र निष्ठा सा गोचराधारतयोपविष्टा। अम्भोजान्तरितोऽलिरेवमधुना दीपे पतङ्गः पतन, भवानिनो वत्सलताभिलाषी स्पृशेदपीत्थं बहुधान्यराशिम्।। सङ्गीतैकवशङ्गतोऽहिरपि भो तिष्ठेत-करण्डं गतः।। एकै (सुद० १/२१)
काक्ष-वशेनामी विपत्ति प्राप्तुवन्ति चेत्। पश्चेन्द्रिय-पराधीन: पञ्चाचारः (पुं०) पांच प्रकार का चरित्र, ज्ञानाचार, दर्शनाचार, पुमाँस्तत्र किमुच्यताम्। (सुद०पृ० १२७)
चरित्राधार, तपाचार और वीर्याचार (भक्ति० ७) पञ्जरं (नपुं०) [पञ्। अरन्] पिंजरा, चिड़ियाघर। (वीरो० पञ्चाचारभक्तिः (स्त्री०) पांच प्रकार के आचार/चारित्र पर २/४०) पक्षीनिलयतित्तिर-लावक-हरिणादिधरणार्थं विरचितं भक्ति भाव। (भक्ति० ७)
ग्रन्थिविशेषकलित-रज्जुमयं जालं पञ्जरः। (जैन०ल० ६५७) पञ्चातप (वि०) पांच अग्नियों से तप, चारों ओर अग्नि एवं शरीर, कलियुग। सूर्य तपन रूप तप वाला तपस्वी। ०आतापना।
०कंकाल, ठठरी। पञ्चाननः (पुं०) सिंह, शेर। (दयो० ४४, वीरो. १७/३०) पञ्जरकः (पुं०) पिंजड़ा। (समु० ५/८)
आखुः प्रवत्तौ न कदापि तुल्य:। पञ्चाननेनानुशयैकमूल्यः। पंञ्जिः (स्त्री०) [पञ्ज+इन] ०रुई का गाला, पूनी। तथा मनुष्येषु न भाति भेदः मूकेऽथ तूलेन किमस्तु खेदः।। अभिलेख, बही, पंजिका। (वीरो० १७/३०)
जंत्री, पत्रक, पाना, पञ्चांग। पञ्चायतः (पुं०) पञ्चेन्द्रिय प्रवृत्ति। 'पञ्चानामिन्द्रियाणामाय आजीवनं पञ्जिका (स्त्री०) ०अभिलेख, सूची, लिपिबद्धता। तस्य।' (जयो०वृ० २७/६६)
विवेचन, निरूपण। पञ्चायतनं (नपुं०) पांच इन्द्रियां निजानि पञ्चायतनानि तर्पयन्नवाप व्याख्या, शब्द विश्लेषण। पापं मनागनाकुलः। (जयो० २३/६)
न्यन्त्रीपत्रक। पञ्चायुतः (पुं०) पांच हजार। 'वीरस्य पञ्चायुतबुद्धिमत्सु | पट् (सक०) फाड़ना, टुकड़े करना, विदीर्ण करना, विभक्त सकृत्प्रभावः समभून्महत्सु। (वीरो० १४/४६)
करना। पञ्चालिका (स्त्री०) पुत्तलिका, गुड़िया।
छेदना, घुसेड़ना, भेदना, चुभोना। पञ्चाली (स्त्री०) पुत्तलिका, गुड़िया।
०उन्मूलन करना, खोटना, उखाड़ना। पञ्चाश्रयः (पुं०) पांच का आधार, अरहंत, सिद्ध, आचार्य, ०खींचना, बाहर करना। उपाध्याय और साधु का आश्रय।
गूंथना, बुनना, लपेटना।
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पट:
५९३
पट्ट
पट: (पुं०) [पट् वेष्टने करणे घनर्थे कः] वस्त्र, कपड़ा, | पटानुझितवान् (पुं०) दिगम्बरी दीक्षा। विजनं स विरक्तात्मा
चिथड़ा, लता। (समु० ९/३) (जयो० २/२८) (सम्य० गत्वाऽप्यविजनाकुलम्। निष्कपटत्वमुद्धर्तुं पटानुज्झितवानपि।। १०९)
(वीरो० १०/२४) ०चूंघट, परदा।
पटालुका (स्त्री०) [पट+अल्+उक्टाप्] जौक। पट (नपुं०) छत, छप्पर, आवरण। ०वस्त्र।
पटिः (स्त्री०) [पट्+इन्] ०मत्र का परदा, रंगशाला का वस्त्र। पटकः (पुं०) पड़ाव, शिविर।
०कनाता पटकारः (पुं०) जुलाहा, तन्तुवाय।
पटिमन् (पुं०) [पटु+इमनिच्] निपुणता, दक्षता, चतुराई चित्रकार।
नैपुण्य, प्रचंडता, तीव्रता। ०बुद्धि कौशल। पटकुटी (स्त्री०) तम्बू, शामियाना, पाल।
पटीरः (पुं०) [पट्-ईरन्] ०खेलने की गेंद, चंदन लकड़ी। पटच्चरः (पुं०) [पटत् इति अव्यक्तशब्द चरति-पटत्+
०कामदेव। च+अच्] चोर।
पटीर (नपुं०) ०कथा, चलनी पेट, ०खेत, मेघ। पटच्चरं (नपुं०) जीर्णवस्त्र, चिथड़ा, लत्ता।
ऊँचाई। पटत्कः (पुं०) चोर।
पटीरजन्मन् (पुं०) चन्दन तरु। पटना (स्त्री०) पाटलीपुत्र, विहार की राजधानी। (सुद० हि०
पट (वि०) ०चतुर, कुशल, प्रवीण। दक्ष, होशियार, निपुण, ११६)
योग्य। पटपटा (अव्य०) अनुकरण मूलकध्वनि।
तीक्ष्ण, तीखा, चरपरा। पटबुद्धिः (स्त्री०) प्रचुर तन्तु युक्त वस्त्र की तरह बुद्धि,
कर्कश, कठोर।
०प्रवण, स्वस्थ। सूक्ष्मबुद्धि। पटभवनं (नपुं०) शिविर, तम्बू। 'रचितानि शिविराणि पटभवनानि'
०कठोर, क्रूर, पाषाणहृदय। (जयो०वृ० १३/६५)
चालाक, धूर्त।
०सक्रिय, व्यस्त। पटभागः (पुं०) वस्त्र का हिस्सा।
पटुक (वि०) मनोहर, सुखद। धयं विपाकपटुकं कटुकं पटमंडलः (पुं०) तम्बू।
विपश्चित्। (जयो० २७/६४) पटलं (नपुं०) छप्पर, छत।
पटुकल्पः (पुं०) तीक्ष्णबुद्धि, चतुरधी वाला। ०ढक्कन, आवरण, अवगुण्ठन, लेपन।
पटुत्व (वि०) चतुरता, तीक्ष्णता। 'मुखस्य सम्भाषणराशि, समुच्चय, समूह। (दयो० ८६)
पटुत्वादित्याशयः' चातुर्य। (वीरो०१/१८) (जयो०वृ० १/५५) पटवापः (पुं०) तम्बू, शिविर।
पटुदेशीय (वि०) तीक्ष्णबुद्धि वाला। पटवेश्मन् (नपुं०) तम्बू, शिविर।
पटुवाक्यता (वि०) तीक्ष्णता युक्त वचनावली, कर्कश शब्दावली। पटवासः (पुं०) तम्बू, सुगन्धित चूर्ण। ०घाघरा, पेटीकोट।
बोलने की अतुरता (दयो० ७०) औदार्य रूपमारोग्यं पटवासकः (पुं०) सुगन्धित चूर्ण।
दृढत्वं पटुवाक्यता। (दयो०७०) पटसंहारः (पुं०) कपड़े की कतरन। (समु० ९/२३)
पटोलः (पुं०) [पट् ओलच्] परमल, जो पान की पनवाड़ी पटहः (पुं०) [पटेन हन्यते-पर+हन्+ड] ०नगाड़ा, ठक्का , | में होता है। घोंसा, ढोल, नगारा, (जयोवृ० १०/२२) (जयो० १२/७८)
पटोल (नपुं०) ०एक प्रकार का वस्त्र। चमकदार वस्त्र। आवक, दुन्दुभी। (वीरो० ११/६३) आनकः पटहो ढक्का | पटोलका (स्त्री०) [पटोल+कै+क] शुक्ति, सीप, घोंघा। इत्यमरः। 'पटह आतोद्यविशेषः' (जयो०वृ० १८/१०)
पट्टः (पुं०) •पाट, शिला, गोल पत्थर। घायल करना, मारना।
पटें (नपुं०) [पट्+क्त] शिला, प्रस्तर, लोष्ठ। (जयो० ७/८५) पटहघोषकः (पुं०) ढिंढोरची. नगाड़ा पीडने वाला।
राजाज्ञा, राज अनुदान, राजकीय सहायता, पट्टलिखना। पटहशब्दं (नपुं०) दुन्दुभी शब्द।
मुकुट, आसन देना।
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पट्टनं
५९४
पण्डावत्
शिरोवेष्टन, पगड़ी, रंगीन रेशमी साफा। सिंहासन, गद्दी, कुर्सी, आसंदी। ०पार, चक्की का पाट। ०चौराहा, नगर का चहुंमार्ग के मिलन का स्थान। नगर, कस्बा ।
रेशमी वस्त्र। पट्टनं (नपुं०) [पट्ट+तनप्] नगर, जिस नगर में रत्नों का
उत्पादन होता है 'वररयणाणं जोणी, पट्टणणामं विणिद्दिट्ट्ठ।
(ति०प० ४/१३०/९) पट्टों (नपुं०) कपड़ा वस्त्र। पट्टदेविका (स्त्री०) पटरानी, प्रमुखरानी, राजरानी। पट्टदेवी (स्त्री०) पटरानी। (वीरो० १५/४६) पट्टमहिषी (स्त्री०) राजरानी। पट्टरानी (स्त्री०) प्रधानरानी, प्रमुख रानी (जयो०६/१०९) पट्टाजी (स्त्री०) पटरानी। महिलाप्रधानापट्टराज्ञी। (जयो०७०
११/८२) पट्टवस्त्रं (नपुं०) रेशमी वस्त्र। पट्टिका (स्त्री०) [पट्टी+कन्+टाप्] फलक, पट्टी, लिखने
की पाटी। प्रलेख, आलेख, दस्तावेज।
०बन्धनी, तनी, पट्टी बांधने वाली धज्जी, चिंदी। पट्टिशः (पुं०) वी। पट्टोलिका (स्त्री०) [पट्ट उल्+ण्वुल्+टाप्] पट्टा, कमरबन्ध। पठ् (सक०) पढ़ना, अभ्यास करना, (जयो० २/५७) पठेत्
(जयो० २/५३) ०दुहराना, बार-बार याद करना, सस्वर पाठ करना, अध्ययन करना। अनुशीलन करना, मनन करना। ०आवाहन करना, बुलाना। साक्षी देना, उद्धृत करना। घोषणा करना, अभिव्यक्त करना, प्रतिपादित करना। (जयो० २/१५) मंगले न पठितुं समर्हति०अध्यापन करना, शिक्षा देना पाठित, पाठयति।
(दयो० ५९) पठक (वि०) [पठ्+ण्वुल] पढ़ने वाला, अभ्यासी, अध्ययनशील, |
निरन्तर अभ्यासरत। पठनं (नपुं०) [पढ्+ल्युट्] पढ़ना, पाठ करना, उल्लेख
करना। ०अध्ययन, अनुशीलन, अभ्यास।
मनन, चिन्तन, स्मरण। 'पठन-चिन्तनादि कृत्वा' (जयो०
वृ० १/३४) पठिः (स्त्री०) [पठ्+इन्] पढ़ना, अध्ययन करना, अभ्यास
करना, अनुशीलन करना। पण (सक०) खरीदना, व्यापार करना, लेन-देन करना,
वाणिज्य करना, व्यवसाय करना। प्रशंसा करना, सम्मान करना। बेचना, आदान-प्रदान करना।
दांव लगाना। पणः (पुं०) [पण+अप्] ०दांव लगाना, पांसों से खेलना।
०जुआं, धूत।
शर्त, संविदा, समझौता। ०पारितोषिक, पुरस्कार। मूल्य-पणं-मूल्यम्। (जयो० १०/६५) प्रतिज्ञान, ०वचनबद्धता। (जयो० १२/९०)
विषय। (भक्ति० ४४) पणकः (पुं०) काई। (मुनि०६) पणजनः (पुं०) द्यूतजना पणग्रन्थिः (स्त्री०) मेला, मण्डी। पणनं (नपुं०) [पण ल्युट्] मूल्य, खरीद, लेन-देन, बिक्री। पणबन्धः (पुं०) सन्धि, सुलह। पणपणत्व (वि०) कौड़ी मूल्य वाला। कपर्द एव पणो
मूल्यं-कौड़ी मूल्यम्। (जयो० १/७) पणमापः (पुं०) मूल्य की प्रमाणिता। (सुद० १३६) पणयित (वि०) विक्रीत, बेचा हुआ। (जयो० २३/७५) पणवः (पुं०) [पणं स्तुति वाति-पण+वा+क] एक वाद्ययन्त्र। पणाया (स्त्री०) [पण्+आय्+अप्+टाप्] व्यवसाय, व्यापार,
लेन-देन, बिक्री। ०मण्डी वाणिज्यस्थल, जूंआ खेलना,
शर्त रखना। पणिः (स्त्री०) बाजार। पणिः (पुं०) कंजूस, लो भी, लालची। शर्त लगाया गया। पणित (वि०) ०क्रीत, खरीदा गया, मूल्य प्रदान कर लिया गया।
शर्त लगाया गया। पण्ड् (सक०) संग्रह करना, ढेर लगाना। जाना, हिलना-डुलना। पण्डः (पुं०) [पण्ड्+अच्] हिजड़ा, नपुंसक। पण्डा (स्त्री०) [पण्ड्+टाप्] बुद्धिमता, समझ। ज्ञान-विज्ञान। पण्डावत् (पुं०) [पण्डा+मतुप्] बुद्धिमान्, धीमान, ज्ञानी।
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पण्डित
५९५
पतञ्जल
पण्डित (वि०) पाप से रहित व्यक्ति। पण्डा, बुद्धिमान,
विद्वान्। 'पापात् डीन:-पलायितः पण्डितः अथवा पण्डा बुद्धिः सा संजाता अस्येति पण्डितः' (जैन०ल० ६५७) पण्डिताः सम्यग्ज्ञानवन्तः। सूक्ष्मबुद्धि, चतुर। ०प्रवीण, कुशल, दक्ष, निपुका ०पण्डा हि रत्नत्रयपरिणता बुद्धि संजाता यस्य स पण्डितः। ०परमसमाहि-परिट्ठियउ पंडिउ सो जि हवेइ-(परमात्म
प्रकाश, १४) ०ज्ञानी। (सम्य० ३) पण्डितः (पुं०) शास्त्रज्ञ, चतुर, विद्वान्, धीमंत, ज्ञाता। (जयोवृ०
३/२०) पण्डितजातीय (वि०) चतुर। पण्डित-पण्डितः (पुं०) पाडित्यपूर्ण, ०अतिशय पाण्डित्य
युक्त, ज्ञान दर्शन और चरित्रविषयक व्यक्ति। पाण्डित्यं यस्य ज्ञान दर्शन-चारित्रेषु स पण्डितपण्डित इत्युच्यते।
(भ०आन्टी०२६) पण्डितमरणं (नपुं०) संयत मरण, आत्मानुभूति रूप समाधि,
परमसमाधि पूर्वक मरण। पण्डितमानिक (वि०) विद्वान् समझने वाला, प्रवीणता युक्त,
कुशलता युक्त, शास्त्रज्ञा पण्डिता (स्त्री०) प्रज्ञाशीला, संयिता, शास्त्रप्रवीणा। (सुद०
१२) विदुषी। (सुद० ९०) पण्डितिमन् (पुं०) [पण्डित+इमनिच] ज्ञान, विद्वता, बुद्धिमत्ता। पण्य (वि०) [पण+यत्] क्रय-विक्रय-योग्य वस्तु।
(जयो०१३/८७)
लेन-देन योग्य। पण्य (पुं०) वस्तु, पात्र, भाजन।
०वाणिज्य, व्यवसाय, व्यापार।
मूल्य। पण्यदारं (नपुं०) वेश्यागमन, सप्त व्यसनों में पञ्चम व्यसन।
(जयो० २/१२५) पण्यदारा (स्त्री०) वेश्या, दारिका, पत्तननायिका। पण्ययतिः (पुं०) बड़ा व्यापारी। पण्यभूमिः (स्त्री०) मालगोदाम, अनाज संचयन केंद्र, संयचन
स्थान। पण्ययोषित् (स्त्री०) वेश्या। (सुद० १२५) पण्यललना (स्त्री०) वेश्या। (सुद० १३३) आर्यात्वं स्म समेति
पण्यललना दासीसमेतान्वितः। (सुद० १३३)
पण्य-वीथिका (स्त्री०) मण्डी, विक्रय केन्द्र। पण-वीथी (स्त्री०) दुकान, आपण। पण्य शाला (स्त्री०) ०दुकान, आपण। विक्रय केन्द्र। पण्यस्त्री (स्त्री०) वेश्या।
पण्यस्त्री तु प्रसिद्धा या वित्तार्थ सेवते नरम्। तन्नाम दारिका दासी वेश्या पत्तननायिका।।
(लाटीसंहिता २/१२९) पण्याङ्गना (स्त्री०) वेश्या। (दयो० ६३ पत् (अक०).गिरना, नीचे आना, पड़ना। (सुद० ३/२४)
* उतरना, घटित होना, डुबोना। पत्यु (सुद० ४/१८) शिखरतस्तु पतन्ति बृहत्तरोः पदसरोरुहयोश्च जगद्गरोः। (जयो० १/९३)
नमस्कार करना, पैरों में झुकना। पततो नृपतीन् पदयोरुदतोलयदेष पाणियुग्मेन। (सुद०६/५२) चरणयोर्मूले पततो नमस्कुर्वतो नृपतीन्। (जयो०पृ० ५२) 'दीपे पतङ्ग पतन्' (सुद० १२७) इत्येवं पदयोर्दयोदयवतो नूनं पतित्वाऽथ
सा। (सुद० १२४) पतः (पुं०) [पत्+अच्] उड़ान, जाना, गिरना, उतरना। पतङ्गः (पुं०) [पतन्-उत्प्लवन् गच्छति-गम्+ड] ०पतंग,
चार इन्द्रिय जीव, जो दीपक की लौ या तेज रोशनी में तेज की ओर खिंचा चला जाता है और उससे प्रणांत को प्राप्त हो जाता है। दीपे पतङ्गः पतन्। (सुद० १२७) शलभ, टिड्डीदल, टिड्डा। मधुमक्खी । ०सूर्य। (जयो० १५/२०)
०पक्षी। पतङ्गं (नपुं०) पारा। चंदन की लकड़ी। पतङ्ककः (पुं०) पतंग, चार इन्द्रिय जीव। पतङ्गसन्त्रायित (वि.) पतंग/पक्षी उड़ाने में संलग्न।
(वीरो०१२/२०) पतङ्गमः (पुं०) पक्षी, शलभ। पतनिका (स्त्री०) [पतंग+कन्+टाप्] मधुमक्खी, छोटी चिड़िया। पतङ्गवीथिका (स्त्री०) अनियत प्रवेश, अनियत गति से जाना,
साधुचर्या का एक दोष। पतङ्गावलिः (स्त्री०) शलभपंक्ति। (जयो० १०/११५) पतम्चिका (स्त्री०) [पतं शत्रु चिक्कयति पीडयति] धनुष की
डोरी। पतज्जल (वि०) भूतल पर गिरता जल। (जयो० १२/१३१)
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पतञ्जलिः
पतिसेवा
पतञ्जलिः (पुं०) महाभाष्यकार, पाणिनि व्याकरण के सूत्रों पर | पताकिक (वि०) [पताका+ठन्] ध्वजदण्डाधारी, ध्वज लहराने महाभाष्य लिखने वाले।
वाला। ०योगदर्शन के प्रवर्तक आचार्य। (वीरो० १९/१७) पताकिन् (वि०) [पताका+इनि] झण्डा ले जाने वाला। पतत् (वि०) [पत्+शतृ] उड़ने वाला, उतरने वाला, अवरोहण ध्वजावाहका करने वाला।
पताकिनी (स्त्री०) सेना। पतत् (पुं०) पक्षी, पतंगा (वीरो० ५/३८)
पतिः (पुं०) [पाति-रक्षति-पा+इति] पाति-रक्षति तामिति पति। पतत्ग्रहः (पुं०) पीकदान, थूकदान।
गृहपति, स्वामी, भर्ता। (सुद० २/५०) जिसकी पत्नी पतत्पतिः (पुं०) गरुड पक्षी। 'पततां पक्षिणां पतिर्गरुडः' हो, जो भार्या की रक्षा करता। (जयो०० ७/७५)
०मालिक, अधिपति, प्रभु। (जयो० १/८०) पतद्ग्रहः (पुं०) तद्प परिणमन।
शासक। पतत्रं (नपुं०) [पत्-करणे अत्रन्] ०बाजू, डैना।
प्राण-वल्लभ 'पतिशब्द-शस्त:-शस् प्रत्यये' (जयो०७० ०पंख, पर।
१६/७४)। पतिरपि प्राणवल्लभोऽपि शस्तः प्रशंसनीयोऽस्ति ०सवारी।
(जयो०वृ० १६/७४) यद्वा शस् प्रत्ययत आरम्भ पुनः पतत्रिः (स्त्री०) [पत्+अत्रिन्] पक्षी।
सखिशब्दवत् पतिशब्दोऽपि प्रवर्तत। (जयो०वृ० १६/७४) पतत्रिन् (पुं०) [पतत्र+इनि] पक्षी।
०पति-चन्द्रमा। (जयो०वृ० १५/५०)
पतिचरी (स्त्री०) पति का अनुगामिनी। ०बाण।
पतिदेवः (पुं०) पतिदेव, जो पत्नी अपने भर्ता को देव तुल्य ०अश्व।
समझती। पतनं (नपुं०) [पत्+ल्युट्] उतरना, गिरना, पड़ना, नीचे आता।
पतितत्व (वि०) पतितपना। (सुद० ८८) ०धर्मभ्रष्ट होना, च्युत होना।
पतिता (स्त्री०) तुच्छनारी। (सुद० ८८) अवपात, भ्रंश, नाश, ह्रास, निपत्ति।
पतितुज् (पुं०) चक्रवर्तिसुत। (जयो० ९/२) मृत्यु, मरण।
पतित/पतितत्व (वि०) गिरी हुई। (जयो० २/१६) पतनान्तरायः (पुं०) ०पतन का अन्तराय, ०पतन का दोष,
प्रतिबिम्बित। (जयो० १२/१२०) भूमि पर मूच्छित होकर गिरना। 'भूमौ मूर्छादिना पाते
पतितोद्धारकः (वि०) दलित उद्धार अपने वाला। (वीरो०१० पतनाख्यो'। (अनगार धर्मामृत० ५/५४)
५/६०) पतनीय (वि०) [पत्+अनीयद्] भ्रंशनीय, नाश योग्य।
पतिधर्मः (पुं०) अपने पति के प्रति कर्तव्य। ०पति का पतनीयं (नपुं०) पतित करने वाला, पाप करने वाला।
कर्तव्य। पाति रक्षति नामिति पतिः भार्यारक्षा पतिधर्म। पतनोन्मुख (वि०) गिरने वाला।
पतिपरायणा (स्त्री०) पातिव्रत्य पालिका। पतमः (पुं०) [पत्+अम] चन्द्र।
पतिपिणा (स्त्री०) सती स्त्री। ___०पक्षी, शलभ।
पतिप्रिया (स्त्री०) भर्ता का प्रियतमा। पतयालु (वि०) [पत्+णिच्+आलुच्] पतनोन्मुख।
पतिरहित (वि०) पति के बिना। (जयोवृ० १६/५२) पताका (स्त्री०) [पत्यते ज्ञायते कस्याचिद्भेदोऽनया पत्+ पतिलोकः (पुं०) प्रभु लोक।
आक्+टाप्] ०ध्वज, झण्डा, ०ध्वजा, वैजयन्ती। (जयो० पतिवियोगः (पुं०) भर्ता का वियोग, अपने प्रियतम का ३/३३) 'शृंङ्गोपात्त-पताकाभिरावयन्'। (जयो० ३/८६) विछोह। (जयोव० १६/५२) (जयो०७० ३/७४)
पतिविरह (पुं०) पति का विछोह। (जयो०वृ० १६/५२) पताकांशुक (नपुं०) झण्डा, ध्वजा।
पतिव्रता (स्त्री०) पतिपरायणा, पतिव्रतधारिणी। पताकाततिः (स्त्री०) ध्वजाली। (जयो०व० ३/८२)
पतिसंयोगः (पुं०) चन्द्रमा का सम्बंधी। (जयो० १५/५००) पताकास्थानं (नपुं०) प्रासंगिक कथा की सूचना, नाट्य प्रसंग पतिसेवा (स्त्री०) भर्ता के प्रति आदरभाव, प्रियतम के प्रति में आकस्मिक प्रदर्शन।
आस्था।
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पतेरः
५९७
पत्रिणीं
पतेरः (पुं०) [पत्+एरक्] ०पक्षी, शलभ, पतंगा।
छिद्र, विवर। पत्तनं (नपुं०) [पतति गच्छति जना यस्मिन्-पत्+तनन्] नगर,
कस्वा, पुर। (वीरो० २/४७) जलमार्ग या स्थलमार्ग युक्त प्रदेश-'नावा पादप्रचारेण च यत्र गमनं.तत्पत्तनं नाम।
(धव०१३/३३५) पत्ति (वि०) [पद्+ति] पैदल, पदाति पैदल चलने वाला।
पादचारी। (जयो० १२/११) 'पत्तिं पदाति रथिनं रथस्थः (जयोवृ० ८/११) पत्ति-पादचारी पदातिमाचक्रामः।
(जयो०वृ०८/११) पत्तिकायः (पुं०) पैदल सेना। पत्तिगणकः (पुं०) सेनाधिकारी, सेना की गणना करने वाला। पत्तिन् (पुं०) [पद्भ्यां तेलति पाद+तिल्+डिन्] पैदल सैनिक,
पदाति। (जयो० २१/११३) पत्तिसंहतिः (स्त्री०) पैदल सैनिकों का दल। पत्नी (स्त्री०) [पत्नी पाणिगृहीता स्यात् पति+ङीप-नुक्]
सहधर्मिणी, (जयो० १/११) भार्या, वल्लभा। __ (जयो०७०३/८८) पाणिग्रहणान्तर वल्लभा। पत्नीधर्मः (पुं०) पत्नी का कर्त्तव्य। पत्नीप्रियः (पुं०) वल्लभ, पति। पत्नी सन्नहनं (नपुं०) पत्नी का कंदौरा, करधनी, कटिसूत्र। पत्रं (नपुं०) [पत्+ष्ट्रन्] पत्ता, वृक्ष के पत्ते, कर्णिका।
(जयो० २४/७) सिद्धान्तशास्त्र (जयो०७० ३/३६) पन्ना। ०वाहन, यान-पत्रं छदनमाख्यातं पत्रो घोटक इत्यपि' (जयो०वृ० १७/४८) ०छदन। (जयो०वृ० १७/४८) चिट्ठी, समाचाराधार, दस्तावेज। (दयो० ६९) त्रायन्ते वा पदान्यस्मिन् परेभ्यो विजिगीषुणा। कुतश्चिदिति पत्रं स्याल्लोके शास्त्रे च रूढितः।। (जैन ल० पृ० ६५८)
विपत्रेऽपि करे राज्ञः पत्रमत्रेति सन्ददत्। (जयो० ३/३५) पत्रकं (नपुं०) [पत्र+कन्] पत्ता, चित्रकारी। (जयो०वृ०
९/६२)
०पत्र वाहक। (जयो० ९/६२) पत्रकसम्पदा (स्त्री०) पत्र/पत्ता।
वृक्षों के पत्रों की सम्पन्नता। (जयो०व० ९/६२) उत्तम पत्र का आधार, श्रेष्ठ समाचार से सम्पन्न। दूत उत्तमपत्रकसम्पदा श्रेष्ठदलसम्पत्त्या उपलक्षितः। (जयो०वृ० ९/६२)
पत्रकाहला (स्त्री०) पत्तों की खड़खड़ाहट। पत्रचारणं (नपुं०) पत्र चारण ऋद्धि, जिसके प्रभाव से मुनि
पत्रगत जीवों की विराधना न करके उनके ऊपर से गमन
करता। पत्रणा (स्त्री०) पत्ता, चित्रकारी, रेखांकन। पत्रणी (स्त्री०) पत्ती, छोटी पत्तियां। पत्रता (स्त्री०) दल परिणति। (जयो० ११/४१) पंख परिपूर्णता। पत्रत्व (वि०) पत्तेपना, पत्ता की प्रधानता। (सुद० १३२) पत्रदारकः (पुं०) आरा, लकड़ी चीरने का आरा। पत्रनाडिका (स्त्री०) पत्ते के रेशे, पत्तों की नशे। पत्रपः (पुं०) वाहन युक्त। पत्रं वाहनं पाति स पत्रप वाहन
युक्तः । (जयो०) पत्रपरशुः (स्त्री०) रेती, बालुका। पत्रपालः (पुं०) लम्बी छुरी, बड़ा चाकू, छुरिका।
बाण का पंख वाला हिस्सा। पत्रपाश्यः (स्त्री०) टीका, स्वर्ण निर्मित शिरोपधान। पत्रपुरं (नपुं०) दोना, पत्तों से निर्मित पात्र। पत्रभंगिः (स्त्री०) चित्रण सामग्री। पत्रयौवनं (नपुं०) कोंपल। पत्ररथः (पुं०) पक्षी। पत्र रहित (वि०) पत्र से हीन। (जयो० ३/३५) पत्रवल्लरी (स्त्री०) पत्रों की पंक्ति, पत्तों वाली लता। पत्रवल्ली (स्त्री०) पत्रतति, पत्रपंक्ति, पत्तों की श्रेणी। पत्रवाक् (नपुं०) पत्रवचन, पत्र का संदेश। (जयो०१० ८/३५) पत्रवाहः (पुं०) पक्षी, शकुनि।
०बाण, ०डाकिया। पत्रवाहकः (पुं०) डाकिया, चिट्टिरसा। पत्रविशेषकः (पुं०) चित्रांकन की रेखाएं। पत्रवेष्टः (पुं०) कर्णाभूषण, कर्णफूल। पत्रशाकः (पुं०) शाकभाजी, पत्तों वाली सब्जी। (सुद० १२९) पत्रश्रेष्ठः (पुं०) बेल पत्र। पत्रशुचिः (स्त्री०) कांटा। पत्रहिमं (नपुं०) पाला पड़ना, हिमपात। पत्रात्तः (पुं०) शुष्कवृक्षा (जयो० २९/२९) पत्रिका (स्त्री०) [पत्री+कन्+टाप्] चिट्ठी, लेख, निमंत्रण ___आदेश, अनुज्ञापत्र, जन्मपत्रिका, वैवाहिक पत्रिका। पत्रिणी (स्त्री०) पक्षी। (जयो० ५/७२)
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पत्रिन्
५९८
पदगः
|
पत्रिन् (वि०) पंखों युक्त, पत्र सहित।। पत्रिन् (वि०) पक्षी, पर्वत गिरि। ०रथ, वृक्षतरु। पत्सलः (पुं०) [पत्+सरन् रस्य ल:] मार्ग, पथ, रास्ता। पथः (पुं०) [पथ्क घञर्थे] पथ, रास्ता, मार्ग पंथा
(जयो० २/४८) (सम्य० ९४) ०प्रसार, किनारा। पथ कथनं (नपुं०) पन्थ कथन। (सुद० १३६) पथगत (वि०) मार्ग को प्राप्त। पथगामी (वि०) मार्गानुगामी। पथचर (वि०) मार्गानुसार चरण करने वाला। पथदर्शक (वि०) पथप्रदर्शक, मार्ग दर्शक। दिशा निर्देश
देने वाला। (वीरो० ४/५८) 'दिनेशवद्यः पथदर्शको भवेत'
(विरो० ४/५८) पथपद्धतिः (स्त्री०) मार्ग पदव्यय। (जयो० ११/२८) पथाग्रवर्तिन (वि०) पथानुगामी। (जयो० २/६२) पथानुवेशिनी (स्त्री०) आप्ताज्ञा प्रतिपादिनी, मार्गानुवेशिनी।
(जयो० २/१०) पथपथ्यः (पुं०) पदार्थ समूह। (पथो मार्गस्य पथ्यमन्न
वस्त्रादिकः। (जयो० १२/१३६) पथभृष्ट (वि०) मार्ग च्युत, अपने कर्तव्य से विहीन। (जयो०३४/ पथारूढः (पुं०) मार्ग युक्त। (मुनि० १३) पथापात (वि०) वृद्ध परम्परा सम्मत। (जयो० ३/२६) पथिकः (पुं०) [पथिन्+ष्कन्] यात्री, मुसाफिर, बटोही,
अध्वनीन। ०पान्थजन। (वीरो० २/१३, जयो० ९)
०पथदर्शक, ०पादचारिन्। (जयो० १३/६) पथिकतंतिः (स्त्री०) पथिक समूह। पथिक-संतति (स्त्री०) यात्री समुदाय। पथिसार्थः (पुं०) एक ही समूह में जाने वाले यात्री। पथिगतवार्ता (स्त्री०) मार्ग को प्राप्त। (जयोवृ० १३/४१) पथिन् (पुं०) [पथ आधारे इनि] ०पथ, रास्ता, मार्ग।
पर्यटन, यात्रा, परिभ्रमण। कार्यपद्धति, व्यवहार क्रम।
०सम्प्रदाय, सिद्धान्त। पथिलः (पुं०) [पथ्+इलच्] यात्री, पर्यटक, राहगीर, बटोही। पथिष्ठा (स्त्री०) मार्गस्थिता। (जयो० १३/१५) कर्त्तव्य
परायणा। पथ्य (वि०) [पथिन् यत्-इनो लोपः) स्वास्थ्यप्रद, कल्याणकारी,
(सुद० ८९) उपयोगी, हितकर, लाभदायक। योग्य, उचित, उपयुक्ता
पथ्यं (नपुं०) स्वास्थ्यवर्धक, पौष्टिक, लाभकारी। पथ्यवचनं (नपुं०) हितकर वचन। 'पथ्यं यदायती हितम्' पदः (पुं०) चरण, पैर, पाद। (जयो० २/११५)
जाना, चलना, फिरना। (सुद० ७१)
०पहुंचना, पास जाना। पद्ग (वि०) पदाति, पैदल चलने वाला। (जयो०७० २१/१२) पदं (नपुं०) ०जाना, पहुंचना, प्राप्त होना।
अनुगमन करना, पीछे चलना। सेवा करना, सहायता करना। विचारकरना, अवलोकन करना समझना।
अधिकार में लेना, ग्रस्त करना। धारण करना। ०सान्त्वना देना, अनुग्रह करना। निकट जाना। छल बहाना। (जयो० १२/८०) प्रविष्ट होना, घटित होना। सुवन्त और तिङत शब्द 'सुप्तिङ्गतं पदम्। (जयो० ६/७७) पद्यते गम्यते परिच्छिद्यते इति पदम्' (धव० ५/१९) पदां सुप्तिङ्गन्तानाम् (जयो०वृ० १/९) सुप्तिङ्गन्तात्मकानिपदम्' (जयो०वृ० २/५२) स्थान-पदे पदे पावनपल्लवलानि। (सुद० १/१८)
(सुद०८८) पदं व्यवसित स्थानत्राण लक्ष्मा िवस्तुषु' इत्यमरः। (जयो०वृ० १८८०)
पदवी, (सुद०४/१४) प्रतिष्ठा। (जयो० १/४५,जयो०६/८) ०काव्यचरण। (जयो० १/४५)
प्राक्त, प्रदेश। (जयो० ३/४५) ०वर्ण समुदाय, पदम्। ०वर्णानामन्योन्यापेक्षाणां निरपेक्षः समुदायः पदम्। अर्थ समाप्ति का नाम। पदं तु अर्थ समाप्तिः। अवयव। (जयो०५/४९) जो अपने योग्य अर्थ को ग्रहण करे। पद्यते गम्यते स्वयोग्योऽर्थोऽनेनेतिपदम्।
आपदाओं से रहित। पदकं (नपुं०) [पद्+कन्] पदवी, पदक। पदकः (पुं०) एक आभूषण, स्वर्णपदक, रजतपदक या
कांस्यपदका पदक (वि०) पद ज्ञाता, किसी सूत्र के अर्थ का ज्ञाता। पदक्रमः (पुं०) चलना, पैर रखना। पदगः (पुं०) पैदल सैनिक, पैदल अंगरक्षक, गमनशील।
(जयो० ९/११)
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पदच्युत
५९९
पदार्थ दोषः
सयम
पदच्युत (वि०) पद से हटाया गया, पद से मुक्त किया। पदवृत्तिः (स्त्री०) दो शब्दों के बीच का अन्तर/विराम। पदच्छेदः (पुं०) पदच्छेद करना, अलग अलग शब्द रखना। पदश्रुत ज्ञानं (नपुं०) अक्षरज्ञान की वृद्धि का ज्ञान। पदत्राणं (नपुं०) पादुका। (जयो०१० २/१६, ११/४१) पदश्रुत ज्ञानावरणीयः (पुं०) पदश्रुत के आवरण कर्म। पदतीरं (पुं०) चरणभाग। (जयो० ४/८)
पदसमं (नपुं०) सम स्वर वाला पद। पदन्यासः (पुं०) पद निक्षेप, (जयो० १/९७)
पदसमासः (पुं०) दो आदि पदों का समुदाय। ०पदचिह्न, पद संकेत। (जयो० ११/९७)
पदसरोरुह (नपुं०) चरण कमल। (जयो० १/९३) ०डग भरना, पैर रखना, गतिशील होना। (जयो० १/९२) पदस्थस्थानं (नपुं०) पदमेष्ठिपद का ध्यान। स्तुति में चित्त पद निक्षेप, चरण प्रदान। (जयो० १/९७)
की एकाग्रता का ध्यान। पदनिक्षेपः (पुं०) निश्चय करना, अनुयोगद्धार से पद रखना। पदस्खलनं (नपुं०) पदवी से च्युत होना। (जयो० १९) पदपा (नपुं०) चरण काल। (जयो० ३/रु)
पदस्फोटः (पुं०) विशिष्ट अर्थ का प्रकट होना। पद-पद्ममिलिन्द्रः (पुं०) चरणकमल रूप भ्रमर। (वीरो० पदांशः (पुं०) पद के भागा काव्यगत पद के अंश। २१/११)
(जयो०वृ०३/९) पदपङ्कजं (नपुं०) चरणारविंद। (जयो० १/९२)
पदांशरूपकः (पुं०) पल्लव प्रवाल। (जयो०वृ० १४/४२) पद पंक्तिः (स्त्री०) पदचिह्नों की श्रेणी, चरणतति।
पदागमगुणः (पुं०) समागमपरिणा। (जयो० १२/१४५) पदपाठः (पुं०) सूत्र उच्चारण, मन्त्र पाठ करना, मूल सूत्र का पदाग्रः (पुं०) चरणाग्र, चरणों के सम्मुख। (जयो० २४/७५) - पाठ करना।
समर्पणां प्राप्य मनस्विना परां सदक्षताः श्रीशपदाग्रतो धराम्। पदपातः (पुं०) कदम विशेष, चरणन्यास, पैद रखना, गति 'पदयोश्चरणयोः अग्रं प्रान्तभागमाप्त्वा' (जयो०१० १/५६) करना।
पदाङ्गष्ठः (पुं०) पैर का अंगूठा। (जयो०१० ११/१९) पदप्रयोगः (पुं०) पद का प्रयोग/उपयोग। (समु० ७/३३) पदाञ्चिः (स्त्री०) अधोवस्त्र का ऊपरी भाग। (जयो०) पदबद्ध (वि०) गेय पद युक्त रचना, विशिष्ट पद रचना। पदाति (नपुं०) पैदल सैनिक। पदबंधुरं (नपुं०) मनोहर शब्द। (जयो०६)
पदाधीनः (पुं०) वशवर्तिनी। (वीरो० १३/१६) पदभंजनं (नपुं०) शब्द विग्रह, निरुक्ति, व्युत्पत्ति, शब्द संघ पदाब्जु (नपुं०) चरण कमल। (जयो० ३/३१) 'पदाब्जयो __ का पृथकीकरण।
चरणकमलयोरधिकरणभूतयोरेवास्ति' (जयो० ३/३१) पदभंजिका (स्त्री०) पृथक्-पृथक् पदों पर लिखि गई व्याख्या, | पदाब्बुजरजः (पुं०) चरण-कमल की धूली। (जयो० २/२८) पद भाष्य।
पदाम्बुजाता (समु० १/४१) पदमाला (स्त्री०) जादू का गुण। गतिशीलता।
पदाम्बुरुहं (नपुं०) चरण-कमल। 'पदावेन अम्बुरुहे कमले' पदमीमांसा (स्त्री०) पदों का विचार, पद व्याख्या, अनुयोगद्वार (जयो०वृ० १/९९)
की रीति के अनुसार पदों का चिंतन-मनन। 'पदाणं पदाम्भोजः (पुं०) चरण कमल। (समु० ३/६६)
मीमंसा परिक्खा गवेसणा पदमीमंसा। (धव० १२/३) पदारविंद (नपुं०) चरण कमल। (जयो०वृ० १/२२) पदयुग्मः (पुं०) चरण युगल। (जयो० ६/३८)
पद्धतिः (स्त्री०) ०मार्ग, रीति। (जयो० १३/१५) ०मार्गतति पदरीतिः (स्त्री०) वर्णलोप पद्धति। (जयो० वृ० १/३) ०चरण (जयो० ४/१५) प्रसाद, शब्दसञ्चारण। (जयो०वृ० १/३१)
पद्धतिभेदः (पुं०) मार्ग भेद, रीति विचार। पदविः/पदवी (स्त्री०) प्रतिष्ठा, उपाधि, विशेष नामकरण, पदार्थः (पुं०) वस्तु, द्रव्य, चीज। (समु०८/२) जीवोऽप्य
०पद्धति (जयो० ११/९७) विशेष स्थान पद्धति, (जयो० जीवश्चस्तथा पदार्थः। पद्धति। (जयो० १/६) १३/४१) ०मार्ग, रथ्या, (जयो० १३/२५)
उपकरण। (जयो०१/६) ०माल-अन्नादेरिस्ततो। (जयो० पदविग्रहः (पुं०) पदों का छेद, पदविच्छेद, पदभंजन, २/१३) पदपृथक्करण, अभीष्ट अर्थ का नियमन।
पदार्थ दोषः (पुं०) १. पद के अर्थ का दोष। ०वस्तु में अन्य पदविभागी (स्त्री०) पद की आलोचना।
अर्थ की कल्पना।
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पदार्थभावः
६००
पद्मांगमुदं
|
पदार्थभावः (पुं०) पद्धति भाव। (जयो० १/६) पदिक (वि०) [पादेन चरति-पाद+ष्ठन्] पैदल चलने वाला। पदैकभूपः (पुं०) एकपद का अधिपति। (वीरो० २०/१)
पदयोर्मा येषु तानि पद्मानि इति व्युत्पत्या पद्यानि पद्याख्यानि
जातानिविद्यो न पद्योऽर्हति यत्र पाणेस्तुलां (जयो० ११/४२) पद्म (नपुं०) [पद्+मन्] (जयो० १/४७) (सुद० २/४५)
(जयो० १/५) रक्त कमल। (जयो० वृ०५/४७) पदोऽर्मा श्रीर्यस्य स पदम्। (जयोवृ०५/७९)
संख्या विशेष, चौरासी लाख वर्षों से गुणित पद्मांग प्रमाण। 'तं पि गुणिदव्वं' चदुसीति लक्खवासे पउमणाम
समुद्दिठें। (ति०प० ४/२९६) पद्मः (पुं०) राम, बलदेव, दशरथ पुत्र राम। ०इक्क्ष्वासु
वंशी राजा। (वीरो० १५/३३) पद्मकरः (पुं०) विष्णु। पद्मकर्णिका (स्त्री०) पद्म का बीजकोश, कमल गट्ठा। पद्मकलिका (स्त्री०) कमल कली। पद्मकेशरः (पुं०) कमल पराग। पद्मकोषः (पुं०) ०कमल संपुट।
अंगुलियों की एक आकृति।
०हथेली का कमल की तरह रखना। पद्मखण्डं (नपुं०) कमल समूह। पद्मगन्धं (नपुं०) कमल गन्ध। पद्मगन्धि (वि०) कमल की गन्ध वाला। पद्मगर्भः (पुं०) ब्रह्मा, विष्णु। पद्मगुणा (स्त्री०) लक्ष्मी। पद्मगृहा (स्त्री०) लक्ष्मी। पद्मजः (पुं०) ब्रह्मा। पद्मजातः (पुं०) ब्रह्मा। पद्मनन्दिः (पुं०) एक जैनाचार्य या पत्नीकदम्बराज-कीर्तिदेवस्य
मालला। श्रीपद्मनन्दिसिद्धान्तदेव-पादाभ्युपासिका।। (वीरो०
१५/४२) पद्मनाभः (पुं०) छठे तीर्थंकर पद्मप्रभु। पद्मनाभः (नपुं०) विष्णु। पदानालं (नपुं०) कमल डंठल। पद्मपाणि (पुं०) ब्रह्मा, विष्णु। पद्मपुराण: (पुं०) वैदिक पुराण। (जयो० २५) राम सम्बंधी
प्राचीन कथा। जैन पुराण। पद्मपुष्पः (पुं०) कनेर का पौधा, कर्णिकर पादप।
पद्मप्रभुः (पुं०) छठे तीर्थंकर का नाम। 'पद्मस्येव प्रभा यस्याऽसौ'।
(भक्ति० १८) पद्मबन्धः (पुं०) एक प्रकार की कृत्रिम रचना।
विभयेन मानहीनं विनष्टैनः पुनस्तु नः।
मुनये नमनस्थानं ज्ञानाध्यानधनं मनः।। (वीरो० २२/३९) पद्मबन्धुः (पुं०) सूर्य, रवि। (वीरो० १२।८) मधुमक्खी। पद्मभयः (पुं०) कमल के उत्पन्न। पद्मभूः (पुं०) ब्रह्मा। पद्ममुदा (स्त्री०) पद्मासन। पद्मयोनि (पुं०) ब्रह्मा। (जयो० २/२६) पद्मरागः (पुं०) अरुणमणि। (जयो० १/५६) (जयो०१०१०/८६)
कमल पराग, केशर। पद्मरागरुचिः (स्त्री०) पद्मराग की कान्ति। 'पद्मरागस्य तन्नाम
रत्नस्य रुचिरिव रुचिर्यस्य तत् करयोदयं' (जयो०वृ० १४/१२) पद्मराजः (पुं०) राजनेता, 'वल्लभभाई पटेल इति नाम्ना
प्रसिद्धो राजनेता' (जयोवृ० १८/८१) पद्ममेव राजेति पद्मराज उत पोषु राजेति पद्मराजः कमल प्रसन्नं मुखमग्रभाग
(जयो०वृ० १८८१) पद्यरुखं (नपुं०) कमल सदृशा स्त्रिया मुखं पद्यरुखं ब्रुवाणा
(सुद० १०२) पद्मरेखा (स्त्री०) हथेली की रेखाएं। पद्मलांछनं (नपुं०) पद्मचिह्न वाले पद्मप्रभु तीर्थकर। पद्मलेश्या (स्त्री०) ०एक शुभ लेश्या। ०भद्रपरिणाम वाली
एक लेश्या। पनवासा (स्त्री०) लक्ष्मी। पद्मविभवः (पुं०) कमल वैभव। (जयो०१० ३/१३) पाहृदः (पुं०) पद्मनामक तालाब। (सुद० ३/७) पद्या (स्त्री०) लक्ष्मी, कमलासिनी (वीरो० २/१०) धनदेवी।
अकम्पनसुता, सुलोचना। (जयो० ६/१३२) 'समाप पद्मा
हृदिनाभिकापि' (जयो० १/५८) पद्यांगः (पुं०) एक संख्या विशेष। कुमुदं चउसीदिहदं पउमंग
होदि। (ति०प० ४/२९६) चौरासी लाख से गुणित कुमुद
प्रमाण। पद्मांगं (नपुं०) लक्ष्मी रूप शरीर। पद्यांगमुदं (नपुं०) लक्ष्मी रूप अंग का हर्ष। 'पद्माया लक्ष्मीरूपाया
अङ्गं शरीरं तस्य मुदेन तदवलोकन हर्षेणाङ्कितः' (जयो०वृ० १०/५१) 'पद्मानां कमलानां अङ्गस्य मुदेन विकास रूपेणोपलक्षितः। (जयो०वृ० १०/५१)
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पद्यार्थ
६०१
पयोदपतिः
पद्यार्थ (वि०) लक्ष्मी के प्रयोगीजन। (जयो० १/४७) पद्यावली (स्त्री०) वृत्त, छंद, कृति। (जयो० २०/३०) पद्मानामाली (स्त्री०) पयोरुहाली। (जयो०वृ० २३/२५) पद्रः (पुं०) [पद्यतेऽस्मिन्-पद्+रक्] ग्राम।। पद्मानंददायिन् (पुं०) सूर्य। (जयो० ५/२८)
पद्वः (पुं०) [पद्+वन्] भूलोक, मर्त्य लोक, रथ, ०पथ, पद्याप्सरस् (पुं०) पद्म युक्त जल का सरोवर। (वीरो० २/१०) ०मार्ग। पद्माभिधा (स्त्री०) पद्या नाम युक्ता। पद्माभिधा विधाऽसौ तु पन् (अक०) प्रशंसा करना, स्तुति करना। मुधाऽहो प्रकृतेर्बुध। (जयो० ७/१०)
पनसः (पुं०) [पनाप्यते स्तूयतेऽनेन देवः पन्+असच्] कटहल पद्यालयः (पुं०) सरोवर। (जयो० ४/६८)
तरु। पद्मालया (स्त्री०) सरस्वती (जयो० १९/३३) ०पद्मालया नाम। पनसं (नपुं०) कटहल का फल। पद्यालयमालिनी (स्त्री०) सुलोचना के प्रासाद लोक की श्रेणी। पन्न (भू०क०कृ०) [पद्+क्त] अवतरित, गिरा हुआ, डूबा हुआ।
पद्याया+आलय+ पद्मालयो राजभवनं तस्य माला प्रसङ्गप्राप्त पन्नगः (पुं०) सर्प, सांप। (जयो० ७/७५) जनपंक्तिः । (जयो०वृ० १०/७८)
पन्नगः (पुं०) गरुड़ पक्षी।। पद्मावती (स्त्री०) पद्मावती नाम देवी, जो पार्श्वनाथ तीर्थंकर पन्नगसूत्री (वि०) गारुडी। पन्नगं नागं सूत्रयति सूचयतीति के समय जन रक्षिका थी।
पन्नगसूत्री सर्पसदृशाकृति। (जयो०वृ० ५/४१) चम्पानगरी के राजा दधिवाहन की रानी (वीरो० १५/१८) गारुडी। (जयो०वृ०५/४१) 'चम्पाया भूमिपालोऽपि नामतो दधिवाहनः। पद्मावती प्रिया पन्नगा (स्त्री०) सर्पिणी। (जयो० ३/५५) तस्य वीरमेतौ तु जम्पती।। (वीरो० १५/१८)
पपि (पुं०) चन्द्रमा। [पातिलोकम्-पिबति वा, पा+कि] पद्मासमनः (पुं०) राजा। (जयो० ६/२६)
पपीः (पुं०) चन्द्र, सूर्य। पद्मासनं (नपुं०) कमलासन। (दयो० २६)
पपु (वि०) [पा+कु] पालन करने वाला, रक्षा करने वाला। पद्मासनी भूयाङ्कः (पुं०) ध्यानमुद्रा की स्थिति। पदार्थनां स्वरूपं पंपा (स्त्री०) एक दक्षिण भारत की एक नदी।
मनसा चिन्त्यते, तदर्थं च पदासनीभूयाङ्के करधारणामिति पयस् (नपुं०) [पय्+अमुन्] [पा+असुन्] पानी, जल, वारि। ध्यानमुद्रा। (जयो०वृ० १९/२८) सरस्वती (जयो० १९/२८) (जयो० १/३४, १४/७९) ०लक्ष्मी।
दूध, (जयो० १/९) क्षीर, दुग्ध (जयो० २५) पद्मिन् (वि०) [पद्म+इनि] कमल रखने वाला।
०वीर्य (जयो० ३/२३) (सुद० ९१) पद्मिनी (स्त्री०) कमलिनी। (सुद० ७९)
पयःपानमय (वि०) दुग्धपान युक्त। (सुद० ३/१७) गुण शालिनी स्त्री। (जयो०१० २२/१३) 'पद्मिनी' शरदि पयस्डः (पुं०) ०ओला, टापू। सोऽन्वभूदवशी'
पयस्चयः (पुं०) जलाशय, सरोवर। नायिका का एक भेद। (जयो०वृ० २३/१३)
पयस्जन्मन् (पुं०) मेघ, बादल। पद्येशयः (पुं०) [पद्मशेते-शी+अच्] विष्णु।
पयस्य (वि०) दूध से युक्त। पोश्वरः (पुं०) सूर्य 'पद्यानां कमलानामीश्वरं विकासकरत्वात्' पयस्विनी (स्त्री०) दुग्धदात्री। (वीरो० १/१७, समु० १/९) (जयो०१० २०/४८)
पयोगी (स्त्री०) प्रयोगी। (सुद० ४/१०) पद्मोदयः (पुं०) कमला का उदय। 'पद्माया लक्ष्म्या उदयः पयोज (नपुं०) कमल, कुमुद। (वीरो० ४/३४) (समु० ३/९) संप्राप्तिः ' (जयो०वृ० १/५१)
पयोजातमुखी (वि०) कमलमुखी। (वीरो० २१/६) पद्मोदरः (पुं०) पद्म रूप उदर। (जयो० ११/९२)
पयोदः (पुं०) बादल, मेघ। (जयो०वृ० ७/२६, १२/१७) पद्य (वि०) [पद्यत्] पद वाला, पंक्तियों वाला, चरण या पयोदकालः (पुं०) वर्षाकाल। (भक्ति० १४) पाद वाला एक छंदोबद्ध रचना वाला।
पयोदमाला (स्त्री०) मेघमाला। न चातकीनां प्रहरेत् पियासां पद्यः (पुं०) शूद्र।
पयोदमाला किमु जन्मना सा। (वीरो० ५/२२) पद्यं (नपुं०) श्लोक, कविता, चरण/पाद युक्त रचना, कृति। | पयोदपतिः (पुं०) पयोदानां मेघानां पतिर्जयकुमारः। ०प्रशंसा, स्तुति।
(जयो०१३/१)
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पयोधरः
६०२
परक्षेत्रं
-
पयोधरः (पुं०) मेघ, बादल। (जयो०३/११३) दुग्ध धारक- | पर (वि०) भिन्न, दूसरा, अन्य, परेषाम् (सुद० १/४२) पृथक्। स्तन (वीरो० ४/१०, जयो० ३/४९)
'परा तु तं मोदकरं विचार्या। तालाब, सरोवर, जलाशय।
पर-प्रत्यय, उपसर्ग। (जयो० १/९८) (सम्य०६८) ०समुद्र।
०पश्चात्, उत्तरकाल। (जयो० ११) ०पयो दुग्धमिष्टरसं धरतीति (जयो० १२/१३६) '
दूरस्थित, हटाया गया, दूर। पयोधरदेशः (पुं०) ०वार्दरदल, मेघ समूह। (जयो० २०/३)
परे, आगे, दूसरी ओर। क्षयोपशान्तिप्रभृति परं यान् __ स्तनमण्डल, कुच भाग। (जयो०१० २०/३)
(सम्य० ७२) पयोधरभर (वि०) कुचभर, स्तन से युक्त, उभरे हुए स्तन। ०बाद का, पीछे का, आगे का। योग आत्मनि सम्पन्नो ___ (जयो० ५/५५)
दशमाद् गुणतः परं (सम्य० १४२) पयेधराङ्कः (पुं०) स्तनाङ्क, स्तनस्थल। 'पयो दुग्धं दधातीति उच्चतर, उत्तम, श्रेष्ठ, अच्छा, उन्नत। (जयो० ३/१०२) __पयोघरोऽङ्कः स्थान। (जयो० १२/१२६)
०पर-परिग्रह (सुद० ११५) आत्मनोऽस्तु परमोपयोगो पयोधराञ्चित (वि०) पयोधर मण्डल। (सुद० २/५०)
विश्ववस्तुवित्। (सम्य० १४९) देहमतीतो भूत्वा चिदयं पयोधरासारः (पुं०) पयोधर विस्तार, मेघ का फैलाव परमपरिणामिक भावमयः। (सम्य० १४९) ___ 'मेघानामासारः प्रकर्षणम्' (जयो०१० ६/२१)
उच्चतम, महत्त्वपूर्ण, श्रेष्ठतम्। वथैव बाबै क्रियते नरेण पयोधारालिंगनं (नपुं०) गो दोहन काल आलिंगन। पयोधरालिंगने कायोऽपि नायं मम किं परेण। (भक्ति० ५०) ____ गोदोहनकाले गोमय-गोमूत्रकरणम्' (जयो०वृ० १७/५७) ०अधिक, विशाल। पयोधिः (पुं०) समुद्र, सागर। (सुद० २/४२, समु० १/२)
तत्पर, तल्लीन। (जयो० २/१२३) यथा पयोधेरपि भान्ति नद्यस्तथा युवत्योऽवनिपस्य सद्यः। ०अतिरिक्त, बचा हुआ। (समु० ६/१९)
अन्तिम, आखिर का। (सुद० ८८) पयोधिमध्यः (पुं०) समुद्र के बीच, लवण समुद्र के बीच। ०प्रमुख, मुख्य, सर्वोत्तम।
(जयो० २४/७) समुद्रस्यान्त पतत समुद्रमध्य (जयो० उपसर्ग। (जयो०वृ० १६/४२) १५/६४)
परः (पुं०) उत्तर व्यक्ति, दूसरा व्यक्ति। एवं सदाचार पयोनिधः (पुं०) सागर, समुद्र (जयो०३/९०, समु० २/२७, परोऽप्यपापी। चारित्रमोहोदयतस्तथापि। (सम्य० ९८) सुद० २/१०) क्षीरसमुद्र। (जयो० १/९)
सुदृढ़-एकाग्रचिन्तानिरोधो। पयोनिधि (पुं०) देखें ऊपर।
०मूर्ख। (सुद० १०१) पयोन्धि (पुं०) कुच, स्तन। (जयो० १६/२८)
परकायक्रिया (स्त्री०) दूसरे का तिरस्कार स्वरूप प्रयत्न। पयोभू (स्त्री०) पानीस्थान, जलीयस्थान। (जयो० १७/६०) । परकायशस्वं (नपुं०) अग्नि आदि शस्त्रं, हिंसा के अन्य पयोनिकायः (पुं०) अम्बुप्रवाह। (जयो० २४/१२२)
उपकरण। पयोनिपीतः (पुं०) ०जल फूत्कार जलवमथु। (जयो० परकृतसंहरणं (नपुं०) एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में रखना। १३/१००)
परकलत्रं (पुं०) दूसरे की स्त्री। (सम्य० ११६) पयोमुचः (पुं०) मेघ, बादल। (सुद० २/४१) पिबन्तीक्ष्वादयो । परकोपलेखकः (पुं०) अन्य लेख (जयो० २/१३) वारि यथापात्रं पयोमुचः। (वीरो० १५/५)
परकीय (वि०) [परस्य+इदम्-पर+छ, छुक्] दूसरे से सम्बन्ध पयोरुहं (नपुं०) कमल, कुमुद, पद्मा (जयो० १/९६)
रखने वाला। पयोरुहाली (स्त्री०) पद्मानामाली। कमल पंक्ति। (जयो० | परकीयबल (पुं०) दूसरे की शक्ति। (जयो० ७/८१) २३/२५) 'पयोरुहाणां पद्मानामाली पंक्तिः ।
परकीया (स्त्री०) दूसरे की स्त्री। नायिका का एक भेद। पयोवाहः (पुं०) मेघ, बादल।
परकार्यकर (वि०) अन्य का कार्य करने वाला-परोपकारी पयोष्ठी (स्त्री०) एक नदी, जो विन्ध्यगिरि से निकलती है (दयो० २/१३) जिसे 'ताप्ती' भी कहते हैं।
परक्षेत्रं (नपुं०) अन्यक्षेत्र, दूसरा स्थान। .
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परक्षेत्रसंसार
६०३
परब्रह्मन्
परक्षेत्रसंसार (पुं०) जन्म-मरण रूप संसरण। यस्तद्ध्यानं
भावना परा। (सम्य०११६) परगामिन् (वि०) दूसरे से सम्बन्ध रखने वाला, दूसरे के लिए
लाभदायक। परघातक (वि०) दूसरे से नाशक। (जयो० १२/६) परचक्रं (नपुं०) शत्रु सेना, शत्रु बल। (जयो० २/१२१)
शत्रुसमूह, वैरिसमूह। पश्चात् भुवि क्व परचक्रकथास्तु
जातु। (जयो० १०/९८) परघातः (पुं०) दूसरे के शस्त्र से घात, शरीर पीड़ा, परप्रयुक्त
से घात। परेसिं घादो परघादो जस्स कम्मुद्रण सरीरं परपीडायरं
होदि तं परघादणाम। (धव० १३/३६४) परचरित्रचर (वि०) अपने चरित्र से भ्रष्ट होकर विचरण करने
वाला। परछंदः (पुं०) दूसरे की इच्छा। परत्राणं (नपुं०) अन्य की रक्षा। (हित० सं०८) परञ्ज (स्त्री०) फेन। (वीरो० ४/२४) परञ्जपुञ्जः (पुं०) फेन समूह (वीरो० ४/२४) परतल्पाः (स्त्री०) ०परशय्या, ०परस्त्री। (सुद० ८३) परतक्षक (वि०) शत्रुछेदका (जयो० ६/१०४) परछिदं (नपुं०) दूसरे की कमी, अन्य की कमियां। परजात (वि०) दूसरे से उत्पन्न, दूसरे पर आश्रित। परजातः (पुं०) सेवक, भृत्य, नौकर। परजित (वि०) दूसरे से जीता। परजितः (पुं०) कोकिल, कोयल। परतः (अव्य०) दूसरे से, अपेक्षाकृत। परतन्त्र (वि०) पराधीन, पराश्रित, अनुसेवी। (जयो० २७/४४) परतोद्धरणं (नपुं०) दूसरे का उदाहरण। (वीरो० २२/२१) परत्वः (वि०) दूरवर्ती। परत्वापरत्व (वि०) गुणों से रहित और गुणों से सहिता परत्र (अव्य०) आगे, बाद में। (सम्य० १५४) परथा (स्त्री०) उल्टा। (दयो० ७६) अल्पप्रवृत्ति। (जयो०
२३/८५) अन्यथा (२/११५) परदर्पलोपी (वि) मदमर्दन कर, दूसरे के दर्प का लोप करने
वाला। 'परेषां प्रतिपक्षिणां दर्पलोपी' (जयो० ११/२३) परदाभिदा (स्त्री०) परदा, यवनिका। (जयो० २३/११) परदारगमनं (नपुं०) अन्य की स्त्री का सेवन। 'परस्तस्य दाराः
कलत्रं परदारास्तस्मिन् गमनं परदारगमनम्। (जैन०ल० पृ०६६३)
| परदारक (वि०) परस्त्री गामी 'परेषां दारान् पश्यत्येवंभूतोऽपथ
उत्पथगामी भवन् कुपुरुषाः। (जयो०१० २/१३२) परदारिन् (पुं०) व्यभिचारी, परस्त्रीगामी। परदुःखं (नपुं०) दूसरे का दुःख, अन्य लोगों का कष्ट। परदेशः (पुं०) विदेश, अन्यदेश। (सुद०८८) परदेशिन् (पुं०) विदेशी। परदोहिन् (वि०) विरोधी, शत्रुतापूर्ण व्यवहार करने वाला।
परद्वेषिध् (वि०) विरोधी, शत्रुतापूर्ण व्यवहार करने वाला। | पर दृष्टिप्रशंसा (स्त्री०) सम्यग्दर्शन को मलिन करने वाली
प्रशंसा, यथार्थ को लुप्त करके किसी अन्य की प्रशंसा। परधनं (नपुं०) दूसरे की संपत्ति। परधर्मः (पुं०) दूसरे का धर्म, अपने धर्म से विमुख। परनिन्दा (स्त्री०) दूसरे के अविद्यमानदोषों को प्रकट करना।
'परेषां भूताभूत दूषण पुरस्सरवाक्यं परनिन्दा'। (जैन०ल.
पृ० ६६३) परनिपातः (पुं०) पश्चवर्तिता। परन्त्वत्र (अव्य०) फिर भी यहां (जयो० १/२९) परन्तु (अव्य०) लेकिन, फिर भी। (सम्य० १३१) परपक्षः (पुं०) शत्रुपक्ष। अन्यपक्ष। (जयो० ५/४) परपदं (नपुं०) उत्तम पद, प्रमुख स्थान। परप्राण-विपत्ति (स्त्री०) दूसरे के प्राणों का विनाश। (वीरो०९/३) परपिंडः (पुं०) परप्रदत्त भोजन। परपुरुषः (पुं०) अपरिचित। परपरिवादः (पुं०) दूसरे के गुण दोषों का कथन। परेषां
परिवादः परपरिवादो विकत्थनम्। परेषां गुण-दोषवचनम्'
(जैन०ल०० ६६९) परपुष्ट (वि.) दूसरे के द्वारा पाला गया। पोषण कारिता
(जयो० १४८६) ०पोषित। (सुद० ८१) परपुष्टः (पुं०) कोकिल, कोयल। परपुष्टा (स्त्री०) वेश्या। परपूर्वा (स्त्री०) दूसरे पति वाली स्त्री। परप्रणेयः (पुं०) दूसरे के कहने पर कोप। परप्रत्यवायकृत (वि०) बिगाड़, विनाश। (समु०७/५३) परप्राणातिपात: (पुं०) दूसरे के प्राणों का घात। परप्रेरणा (स्त्री०) दूसरे से प्रेरणा। (जयो०वृ० ३/५) परप्रेष्यः (पुं०) सेवक, भृत्य। परबन्धन (नपुं०) अपर बन्ध। (समु० १/१७) परब्रह्मन् (नपुं०) परमात्मा। (मुनि०८)
१)
(समु०७/५३)
3) दूसरे के प्रा
परप्रेरणा (
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परभक्षित
६०४
परमार्थलिप्सा
परभक्षित (वि०) अन्य द्वारा खाया गया। (वीरो० ८/१) परभागः (पुं०) अन्य का हिस्सा। परभाषा (स्त्री०) विभाषा, विदेशी भाषा। परभुक्त (वि०) अन्य से भोगा गया। परभूत (पुं०) कौवा। परभृतः (पुं०) कोयल। परंलूरः (पुं०) निर्गुन्ददेश का राजा। (वीरो० १५/३५) परम (वि०) [परं परत्वं माति-क] ०उत्कृष्ट, सर्वोत्तम,
प्रधान, मुख्य, उचित, सर्वोपरि। ०अत्यधिक, अन्तिम।
यथेष्ट, समीचीन। ०दूरतम, उच्चतमा
०प्रधानतया, पूर्णत: संलग्न। परमं (नपुं०) सर्वोच्चतम, उत्कृष्ट, श्रेष्ठ, समीचीन, यथार्थ।
चित्त के संतोष का कारण, अतिशय। (जयो० १/९७)
विशुद्ध ज्ञानात्मक दृष्टि। परमगतिः (स्त्री०) सिद्धगति, उत्तमगति। परमघमथनं (नपुं०) ०सम्पूर्ण पाप का मंथन, पाप का
विलोडन। (सुद० १३६) परमत्व (वि०) उत्कृष्टत्व। श्रद्धानमेवं दृढमात्मनस्तु गुणत्रयेऽतः
परमत्वमस्तु। (सम्य० १३१) समीचीनत्व। परमपदः (पुं०) उच्चपद, उत्कृष्ट स्थान। मोक्ष। (सुद० १३६) परमपदपथकथनं (नपुं०) परमपद के उपदेशक। (सुद०
१३६) ०मोक्ष मार्ग का कथन। ० परमेष्ठिपद का निरूपण। परमपुरुषः (पुं०) परमात्मा, परमब्रह्म। परमप्रख्य (वि०) अति प्रसिद्ध, अत्यधिक ख्याति प्राप्त। परमबन्धु (पुं०) स्नेहीजन। ०सम्मानीयपुरुष। (जयो० २०/२२) परमब्रह्मन् (नपुं०) परमात्मा, परमपुरुष। 'अहिंसा भूतानां
जगति विदितं ब्रह्म परमम्। (दयो० १) ०परमब्रह्मसंज्ञ-निजशुद्धात्मभावना।
अहिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्मपरमम्। परमभावः (पुं०) उत्कृष्ट भाव, समीचीन परिणाम। (समु० ७/२२) परमभावग्राहकः (पुं०) शुद्धभाव का ग्राहक, द्रव्यार्थिकनय
वस्तु के यथार्थ का विवेचक है। परममहिमा (स्त्री०) अत्यधिक विशेषता, अधिकवर्णन।
(जयो० १८/३) परमषि (पुं०) केवलज्ञानी, पूर्णज्ञानी। 'परमर्षयः केवल ज्ञानिनो
निगद्यन्ते। उत्तम साधु। (दयो० ३१)
परमवतं (नपुं०) शुद्धोपयाग रूप व्रत, चारित्र की प्रधानता
वाला व्रत। परमसमाधि (स्त्री०) निर्विकल्पक समाधि, आत्म की परम
समाधि। परमसारः (पुं०) उत्कृष्ट सार, आत्मसार। (जयो० २/१४) परमसुखं (नपुं०) अनुपम सुख, उत्कृष्टानन्तसार, परमसार।
परमात्म सुख, विशुद्ध सार। परमसुन्दरः (पुं०) सुरोचन। (जयो० ३/९१)०लावण्यपूर्ण। परमस्नेहवश (वि०) उत्तमप्रीति युक्त। (समु०६/२६) परमस्थितिः (स्त्री०) परमस्थान, उत्कृष्ट स्थिति। परमहंसः (पुं०) परमात्मा (दयो० ३०) परमा (स्त्री०) लक्ष्मी (जयो० २२/४३) परमागमः (पुं०) ०उत्कृष्ट आगम, सर्वज्ञ प्रणीतशास्त्र,
०अरहंतवचन, ०आहेत आगम। (जयो० २/८६) परमागमपारगामिन् (वि०) अर्हत वचन प्रवीण। (सुद० ३/३१) परमाणु (स्त्री०) अविभागी अंश, स्कन्धों का अन्तिम भाग।
अंतभाग। ०परमाणु चेव अविभागी। अत्तादि अत्तमज्झं अत्तंतं णेव इंदिए गेज्झं।
अविभागी जं दव्वं परमाणुं तं विआणाहि।। ०अनादिरमध्योऽप्रदेशोहि परमाणुः। न विद्यते द्वितीयादयः __ प्रदेशाः यस्मिनः सो ऽप्रदेशः परमाणुः। (धव० १४/५४)
०मूर्तमप्यप्रदेशं च परमाणुः प्रचक्षते। परमात्-अन्य रूप से। (सुद०४/२०) परमात्म-बुद्धिः (स्त्री०) सर्वज्ञत्व की बुद्धि। परमात्मनि बुद्धिः।
(वीरो० ५/२९) परमात्मन् (पुं०) परमात्मा, परम आत्मा। (समु० ९/२१) 'सम्बुद्ध्ये तु परमात्मनएव' (सम्य० १४७)
परमात्मा-'कम्पकलंकविमुक्को परमप्पा'। निर्विकल्प शुद्धात्मा (हित० ३, सुद० १२८) आत्मसिद्धि
संपन्न। अर्हत् (हित० सं० ५५) परमार्थवृत्तिः (स्त्री०) समीचीन वृत्ति। (जयो० २/१५८) परमार्थलिप्सा (स्त्री०) मोक्ष की आकांक्षा। (सुद० ४/४५)
साक्षात् सकृत् सर्वसतां। प्रभोग-प्रकारकः स्यात् परमोपयोगः। यदाश्रयः श्रीपरमात्मनामा, निर्दोषपूषेव स पूर्णधामा।। (समु० ८/२४) विशिष्टगुणोपेत आत्मा। निष्कल आत्मा। परो ह्यात्मा परमात्मेति भाषितः।
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परमात्मतत्त्वं
६०५
परलोकयात्राः
परमात्मतत्त्वं (नमुं०) परमात्मा का भाव, विशुद्धतत्त्व।
भरोसे रहना। यः स्यात् परमुखापेक्षी, श्वेव लोके विगर्हितः। देहं वदेत्स्वं बहिरात्मनामाऽन्तरात्मतामेति विवेकधामा। विभिद्य (समु० २/३४) देहात्परमात्मतत्त्वं प्राप्नोति सद्योऽस्तकलङ्कसत्वम्।। (सुद०
परमेश्वरः (पुं०) परमात्मा, महान् ऐश्वर्य युक्ता महत्त्वादी१३३)
श्वरत्वाच्च यो महेश्वरतां गतः। त्रैधातुक-विनिर्मुक्तस्तं परमात्मदशा (स्त्री०) नारायणता परम विशुद्ध परिणति।
वन्दे परमेश्वरम्।। (जैन०ल० पृ० ६६७) (वीरो० १४/३२) विशुद्ध आत्म परिणाम।
परमेष्ठिता (वि०) परमेष्ठिपना। (भक्ति० १७) परमात्मपथः (पुं०) सर्वज्ञ पथ, वीतराग मार्ग। (समु० ९/२५)
परमेष्ठिन् (पुं०) [परमेष्ठ इनि] जिनदेव। (जयो० १२/७) परमेहितकारके आत्मनः पथि। (जयो० २५/५२)
परमपदस्थित परमात्मा, शिव, अर्हत् जिनेश्वर, देवपद। परमात्म-बुद्धिः (स्त्री०) परमात्म मति, उत्कृष्टात्मबुद्धि।
(जयो० ३/९८) लभेत मुक्तिं परमात्मबुद्धिः समन्ततः सम्प्रतिपद्यशुद्धिम्।
परमेष्ठिपूजित (वि०) परमेष्ठियों द्वारा अर्चित। (जयो० २/२४) (वीरो० १४/२८)
'मङ्गलं तु परमेष्ठिपूजितम्' परमे पदे तिष्ठतीति परमेष्ठी।
परमे इन्दादीनां वन्द्ये पदे तिष्ठतीति परमेष्ठी। परमात्मबोध (पुं०) परमात्मा का ज्ञान। (मुनि० ३०)
परम्पर (वि०) एक दूसरे से आगे। (जयो० ४/५०) परमारः (पुं०) परमार वंश।
परम्परदृष्टान्तः (पुं०) अन्य दृष्टान्त की अपेक्षा। परमारान्वयः (पुं०) परमार वंश में उत्पन्न। 'परमारान्वयोत्थस्य
परम्परा (स्त्री०) तति, पंक्ति। (वीरो०२/१५) धरावंशस्य भामिनी। शृंगारदेवी आसीच्च जिनभक्ति सुतत्परा।।
परमेष्ठिपदसंस्पृष्ट (वि०) परमपद को स्पर्शित करने वाली। (वीरो० १५/५)
(जयो०वृ० १२/३७) परमार्थः (पुं०) मोक्ष। (सुद० ४/३४)
परमोदकः (पुं०) बहुत से लड्ड। 'परा समुत्कृष्टक मोदका। परमार्थसिन् (वि०) पदार्थ के प्रति श्रद्धा रखने वाला।
(जयो० १२/१३८) उत्तम मोदक। परमार्थसारः (पुं०) विशुद्ध आत्म स्वभाव का सार। स्वत्वं
परम्परागत (वि०) क्रमशः, एक के बाद प्राप्त हुआ। समालम्ब्य परोपकारान मनुष्यताऽसौ परमार्थसारा।
(दयो०१/७) (वीरो० १७/११)
परम्पराबन्धः (पुं०) परम्परा प्राप्ति रूप बन्ध। परमानन्दः (पुं०) उत्कृष्ट सुख। (जयो० ३/९५)
परम्परालब्धिः (स्त्री०) परम्परा लब्धि, परम्परा प्राप्ति की परमोपयोगः (पुं०) सम्पूर्ण पदार्थों का विषय करने वाला। प्ररूपणा। (समु०८/२४)
परम्परा वृद्धिः (स्त्री०) सन्तान वृद्धि, परम्परा तु संताने परमोपदेशकः (पुं०) सर्वज्ञ कथन कर्ता। (समु०८)
खड्ग कोशे परिच्छदे। परमोत्कर्षः (पुं०) महाविकास। (जयो०वृ० १/४२)
परम्परास्थापना (स्त्री०) उत्तरोत्तर प्रमाण स्थापना। परमार्थकाल: (पुं०) वर्तना का उपकारक, द्रव्य गति आदि का परम्परोनिधा (स्त्री०) परम्परा के अनुसार स्थानकों का उपकारक काल। वर्तनालक्षणश्च परमार्थकाल:।
अन्वेषण। जिस अधिकार में दुगुने एवं चौगुने आदि की परमार्थदात्री (वि०) कल्याणकारी। (वीरो० ३/१८)
परीक्षा की जाती है। परमार्थमाद्य (वि०) प्रार्थना। (सुद० २/३१)
परराट् (पुं०) शत्रुभूप। (जयो० ३/१०९) परमार्थ प्रत्याख्यानं (नपुं०) विकारी भावों का परित्याग।
परलोकः (पुं०) अन्यभव में जाना। परलोको भवान्तर लक्षणः। परमावगाढ रुचिः (स्त्री०) परम तत्त्वों के प्रति अति प्रसन्नता।
०परस्वरूप प्राप्त करना। परमावती (स्त्री०) एक गंगा का नाम।
निर्विकल्प स्वरूप का अवलोकन।
०स्वर्ग-अपवर्ग पाना। परमावधिज्ञानं (नपुं०) उत्कृष्ट मर्यादा सम्बंधी ज्ञान। परमा
परलोकभयः (पुं०) परभय के आश्रय का भय। विजातीय ओही मज्जाया जस्स णाणस्स तं परमोहिणाणं। (धव०
तिर्यंच देवादि पर्याय का भय। १३/३२३)
भद्रं चेज्जन्म स्वर्लोके माभून्मे जन्म दुर्गतौ। परमार्हत् (वि०) अर्हन्त मतानुयायी (वीरो० २२/१४)
मनुष्यस्य देवादेर्भयं परलोकभयम्॥ परमुखापेक्षी (वि०) दूसरे की अपेक्षा करने वाला, दूसरे के |
| परलोकयात्राः (स्त्री०) स्वर्ग यात्रा। (दयो० १०२)
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परलोकसंकथा
६०६
परा
परलोकसंकथा (पुं०) दूसरे लोकों की कथा। (वीरो० ९/११) परलोकसंजीवनीकथा (स्त्री०) परलोक के संवेदन की कथा। परलोकहेतु (नुपं०) अपरलोक का कारण। (वीरो० ३/७) परवादः (पुं०) अक्षवाद, दूषित निरूपण। परवाणिः (पुं०) धर्माध्यक्ष, संवत्सर। परविवाहकरणं (नपुं०) दूसरे के विवाह को करना।
सवेद्य-चरित्रमोहोदयात् विवह्र विवाहः, परविवराहस्य करणं
परविवाहकरणं। परव्यपदेशः (पुं०) अन्य दाता की देय वस्तु को देना।
अन्यदातृदेयार्पणं परव्यपदेश परस्प व्यपदाः कथनं
परव्यपदेशः। परशरीरः (पुं०) दूसरे की देह। परशुमुद्रा (स्त्री०) पताका सदृश ध्यान की मुद्रा। पताकावत्
हस्तं प्रसार्य अङ्गगुष्ठयोजनेन परशुमुद्रा। परसमयः (पुं०) ०परस्वरूप का मानना, रागादि भाव को
अपनाना, विभावदशा को स्वीकार करना। 'जीवो
सहावणियदो अणियदगुण-पज्जओ य परसमओ। परसमयरतः (पुं०) पर व्यापार में अनुरक्त। परसंग्रहः (पुं०) दूसरे के द्रव्य का ग्रहण। परसेवातत्परः (पुं०) आराधना कारक। (जयोवृ० २/१३१) परलोकः (पुं०) स्वर्ग-अपवर्ग। परया (अव्य०) कदाचित। (जयो० १०/६४) परवत् (वि०) [पर+मतुप मस्य वः] पराधीन, दूसरे के वश में। परवत्ता (स्त्री०) पराधीनता, दूसरे की आधीनता। परवशत्व (वि०) पराधीनता। (जयो० २/१२८९) परवक्तु (वि०) प्रतिवक्ता। परवर (वि०) भयनाशक। (जयो० २/३१) परवतनी (स्त्री०) अन्यथा वचन। परशः (पुं०) पारस पत्थर, वह पत्थर जिसके स्पर्श से लोहा
सोना बन जाता है। परशुः (स्त्री०) कुल्हाड़ी, कुठार। (भक्ति० ३०)
शस्त्र, हथियार। ०वज्र, घातक अस्त्र। परशुराम।
कुठारघाती सैनिक। परश्वधः (पुं०) कुठार, कुल्हाड़ी। परसत्त्वः (पुं०) अन्य प्राणी। (दयो० ३५)
परसार्थ (वि.) शत्रुसमूह। (जयो०६/२९) परस् (अव्य०) परे, आगे, पश्चात्, दूर, दूरी। परस्कृष्ण (वि०) अत्यन्त काल। परस्तात् (अव्य०) [पर+अस्ताति] इसके पश्चात्। परस्परः (वि०) [परः परः इति विग्रहे इक] एक दूसरे पर,
अन्योन्य। (जयो० ३/८७) परमपरम् (वि०) श्रेष्ठ या हीन। (जयो०६/८४) परस्परतः (वि०) एक दूसरे से। (वीरो० २१/२३) परस्पदानं (नपुं०) एक दूसरे का सम्मान। (जयो० ५/४९) परस्परप्रसादः (पुं०) एक दूसरे का दृष्टिदान, 'अन्योन्यस्य
दृष्टिदानम्' (जयो० १०/११६) परस्परप्रेमः (पुं०) एक दूसरे से प्रेम, मेल, प्रीति। (जयो०३०
६/१३०) नरश्च नारी च पशुश्च पक्षी देवोऽथवा दानव
आत्मलक्षी। तस्यैव तस्मिन्नुचितोऽधिकारः परस्परप्रेममयो विचार:।। (वीरो० १४/५०) परस्पर विरोधः (पुं०) आपस में वैमनस्य। (जयो०१० ३/१) परस्परस्नेहः (पुं०) एक-दूसरे से स्नेह, विरोधी स्वभाव वालों
के प्रति भी स्नेह। सिंहो गजेनाखुरथौतुके, न वृकेण चाजो नकुलोऽहिजेन। स्म स्नेहमासाद्य वसन्ति,
तत्र चात्मीय भावेन परेण सत्रा।। (वीरो० १४/५१) परस्पराधिकारिणी (वि०) एक-दूसरे पर अधिकार करने
वाला। (जयो० ३/३२) परस्पराविरोधः (पुं०) दूसरे से विरोध नहीं। (हित०सं०७) परस्मैपदः (पुं०) [परस्मै पदार्थ पदं भाषा वा] दूसरे के लिए
प्रयुक्त वाच्य क्रिया के दो रूपों में एक रूप। परहन्त (वि०) दूसरे का घातक। निहन्यते यो हि परस्य हन्ता
पातास्तु पूज्यो जगतां समन्तात्।। (वीरो० १६/७) परहरणं (नपुं०) परसंहारक। परेषा जीवानां हरणे संहारकरणे
(जयो० २३/६३) परहित (वि०) परोपकार। (समु०५/१) परा (वि०) [पृ+अच्+टाप्] दूर, पीछे, उलटे क्रम से, एक
ओर।
०अति उत्कृष्टा। (जयो० १/६१) उत्कृष्ट-परामुत्कृष्टाम्'। (जयो०१० २/५९) परायण। (जयो० ५/५९) ०पराक्रम, शक्ति सम्पन्न्ता।
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पराकरणं
६०७
परार्थः
पराघत, पराजिता आधिक्य, अधिकता। उद्धार, मुक्ति । आघात करना, सामाना करना, सम्मुख होना।
देखना, अवलोकन करना। पराकरणं (नपुं०) एक ओर रखना, तिरस्कार करना, अवहेलना
करना। पराकाष्ठा (वि०) बहुतायत। (जयो० १२/१३२, सुद० १३३) पराक्रमः (पुं०) [परा+क्रम्+घञ्] ०शूरवीरता, बहादुरी, सासह,
शौर्य, शक्तिसम्पन्नता। शीतस्य पश्यामि पराक्रमं जिन (वीरो० ९/१९)
प्रयत्न, कोशिश, उद्योग पराक्रमपरिणतिः (स्त्री०) शरीर शक्ति। (जयो०वृ० १/४०) परागः (पुं०) [परा+गम्+उ] पुष्परज, धूलि। (जयो० ८/२२)
उपराग-विख्यातावुपरागे च पराय इति वि। सुगन्धित चूर्ण।
चन्दन लेप।
०यश, कीर्ति, प्रसिद्धि। परागवत् (वि०) पुष्परज की तरह। (जयो०वृ० २२/४३) परांगवः (पुं०) [परांगं प्रचुर शरीरं वाति प्राप्नोति वा+क]
समुद्र, सागर। पराघातः (पुं०) दूसरे को कष्ट देना, दूसरे का घात करना।
प्रतिघात। 'परत्रास प्रतिघातादिजनकं पराघातनाम' (त०भा०
८/१२) 'परस्याभिभवनं पराघातः' परानाहस्ति पराघातनाम। पराङ्गना (स्त्री०) परस्त्रीगमन, परस्त्री, परस्त्री सेवन का
मन। (वीरो० १८/३५) सप्त व्यसन में एक व्यसन
पराङ्गना गमन। (जयो०वृ० २/१३१) पराङ्गनागमनं (नपुं०) वेश्यादिगमन। (जयो० २/१२५) पराङ्गनात्यागः (पुं०) परस्त्री का त्याग।
मातृवत्-परनारीणां परियागास्त्रिशुद्धितः। स स्यात् पराङ्गनात्यागो गृहिणां शुद्धचेतसाम्।
(जैन०ल.पृ० ६७२) पराङ्गनापरित्याग देखो ऊपर। परांच् (वि०) [परा+अच] परे, दूसरी ओर स्थित। 'जो |
अनुकूल न हो, प्रतिकूल हो। दूरस्थ, बाहर की ओर
निर्देशित। पराङ्मुख (वि०) प्रतिकूल, प्रतिमुख, (मुनि० १) उदासीन,
उपेक्षा करने वाला।
पराचीन (वि०) [पराच्+ख] विमुख, पराङ्मुख,
००अरुचि रखने वाला, चिन्ता न करने वाला, उपेक्षा करने वाला। पराज्ञापालनं (नपुं०) परानुज्ञान, दूसरे को आज्ञा शिरोधार्य
करना। (जयो० ७/३) पराजयः (पुं०) [परा+जि+अच्] विजय, परास्त करना, जीतना,
आधीन करना। (जयो० १२/३८) ०वादी या प्रतिवादी को अपने पक्षी की सिद्धि न कर पाना। ०हार, असफलता। ०असिद्धि, पराजय। ०पदच्युति, वंचना।
परित्याग। पराजित (भू०क०कृ०) [परा जि+क्त] जीता हुआ, वश में
किया हुआ, (दयो० २०) हराया हुआ। परात्मा (पुं०) परमात्मा। पराधिष्ठित (वि०) दूसरे पर अधिकार करने वाला, पर
वस्तु पर अधिकार। (वीरो० १६/२१) पराधिष्ठितस्यापहारः (पुं०) दूसरे की वस्तु का अपहरण। पराधीन (वि०) दूसरे के आधीन। (सम्य०८४) पश्चेन्द्रियपराधीनः
पुमाँस्तत्र किमुच्यताम्। परतन्त्र (जयो०१९/९१)
(सुद०१२७) परानपेक्ष (वि०) अन्य रूप से निरपेक्षा (भक्ति० ४) परानवकाङ्क्षक्रिया (स्त्री०) अनादर को प्राप्त होकर भी दूसरे
को भी नहीं चाहना। परानसा (स्त्री०) [परा+अन्+अस्+टाप्] औषधीय चिकित्सा। परापेक्षिता (वि०) दूसरे की अपेक्षा करने वाला। (वीरो०१०/२९) परापेक्षी (वि०) पराधीन, दूसरे की सहायता का इच्छुक। परापराब्धि (पुं०) पूर्वापर समुद्र (जयो० ८/१) परश्चाऽपरश्च
परापरौ यौ अब्धौ समुद्रौ किल। (जयो०वृ०८/१) परानुज्ञानं (नपुं०) पराज्ञापालन। (जयो० ७/३) परान्तरङ्गः (पुं०) आश्चर्य से व्याप्त अन्तरङ्ग। (वीरो० १३/२७) परापर (वि०) आगे-पीछे। (जयो० २/१४२) (वीरो० ५/१०) पराप्राप्तिः (स्त्री०) शुद्ध आत्म स्वरूप की प्राप्ति, उत्कृष्ट
उपलब्धि, अनुपम प्राप्ति। परायणः (पुं०) तल्लीन, निपुण, पारंगत। परायणायां भुवि
भूपतेः सः। (जयो० १/२५) परायणत्व (वि०) तल्लीनता, निपुणता। (सुद० १०८) परार्थः (पुं०) दूसरे का विरोध दूर करना। (समु० १/२२)
परोपकारी। (जयो० २७/२३) परविप्रतिपत्तिनिराकरण, परोपकार- (वीरो० २/४४)
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परार्थगुणः
६०८
परिकम्प
परार्थगुणः (पुं०) स्वात्म सम्बन्धी गुण रहित। ज्ञान के अतिरिक्त
गुण 'परार्थाः स्वात्मसम्बन्धि गुणाः शेषा सुखादयः।
(जैन०ल० ६७३) परार्थकरणं (नपुं०) परोपकरण। परार्थप्रत्यक्षः (पुं०) प्रत्यक्ष को अन्यथा करके प्रतिपादन
करना। प्रत्यक्ष-परिच्छिन्नार्थभिधायिवचनं परार्थप्रत्यक्षं
परप्रत्यक्षहेतुत्वात्। परार्थभिगमः (पुं०) शब्द रूप ज्ञान होना। 'परार्थाधिगमः
शब्दरूपः' (जैन०ल० ६७३) परार्थानुमान (नपुं०) साध्य के अविनाभावी हेतु का प्रतिपादक
वचन। 'पक्षहेतुवचनात्मकं परार्थानुमानमुपचारात्' ०यथोक्त साधनाभिधानजः परार्थम्' (प्रमाण मीमांसा २/२) ०साधनात्साध्यविज्ञानं परार्थानुमानमित्यर्थः। (न्यायदीपिका
पृ०७३) पराभवः (पुं०) [परा+भू+अप्] ०पराजय, परास्त होना,
हारना। विकार। (जयो०वृ० ५/१) ०मानभंग, प्रतिष्ठहानि। विनाश, घात, वियोग।
घृणा, अवहेलना, तिरस्कार। पराभिजित् (वि०) शत्रुओं को जीतने वाला। (सुद० १/२९) पराभूत (वि०) विनिर्जित, परास्त, हारने वाला। (जयो०१०१/२५) पराभूतिः (स्त्री०) [परा+भू+क्तिन्] पराभावि, ०पराजय,
०परास्त होना, ०हारना। विपत्ति, विनाश। (वीरो०
१९/१६) परामर्शः (पुं०) [परा+मृश्+घञ्] विचार-विमर्श, चिन्तन।
निर्णय, पक्ष निश्चय करना। विषय पर विचार।
झुकना। ०पकड़ लेना, खींचना।
हिंसा, आक्रमण, हमला।
०ध्यान करना, प्रत्यास्मरण। परामृश् (अक०) चूमना, चुम्बन करना। (दयो० ५३) परामृश् (अक०) (भू०क०कृ०) विचार करना। परामृष्ट (वि०) [परा+मृश्+क्त] छुआ हुआ, स्पर्शित किया
गया, पकड़ा गया, दबोचा गया, तोला गया, "विचार
विमर्श किया गया। परारि (अव्य०) [पूर्वतरे वत्सरे इत्यर्थे परभावः आदि च |
संवत्सरे] पूर्वतर वर्ष में, विगतवर्ष में, परिपाल वर्ष में,
पुराकाल में। परावर्तः (पुं०) [परा+वृत्+घञ्] प्रत्यावर्तन, वापस आना।
विनिमय, पुनः प्राप्ति, अदला-बदली।
एक प्रमाण विशेष। 'परावर्तः पुद्गलपरावर्तः' परावर्तदोषः (पुं०) संयत दोष, बदले में देना। परावर्तनं (नपुं०) पुनः पुनः अभ्यास। ग्रन्थस्य पुनः पुनरभ्यसनं __परावर्तनम्। (जैन०ल० ६७४) ०परिवर्तन। परावर्तमानः (पुं०) बन्ध और उदय की प्राप्ति। परावर्तित (वि०) एक वस्तु के बदले दूसरी देने वाला। पराशरः (वि०) [परान् आ शृणाति-शृ+अच्] एक ऋषि
विशेष। पराशर नामक वानप्रस्थ। (जयो० १/६१) परासम् (नपुं०) [परा+अस्+घञ्] रांगा, टीन। परासनम् (नपुं०) [परा+अस्+ल्युट्] वध, हत्या, घात, विघात,
हनन। परासु (वि०) [परागताः असवो यस्य] निर्जीव, मृतक।
(जयो० २/१२८) पराहक (वि०) दूसरे में रक्त में दूसरे का खून। (वीरो०९/३) परास्त (भू०क०कृ०) [परा+अस्+क्त] विजयाभाव। परासुत्व (वि०) प्राण रहितत्व। (वीरो० ६/२१)
०पराजित, पराभूत, पराभव। फेंका गया, डाला गया। निष्कासित, निकाला हुआ।
अस्वीकृत। ०ध्वस्त, धराशायी। (जयो० १३/११०)
निराकृत, त्यक्त। पराहत (भू०क०कृ०) [परा+ह्र+क्त] परास्त किया गया, पछाड़ा
गया, पीछे हटाया गया। पराहतं (नपुं०) प्रहार, आघात, नाश, विधाता परि (अव्य०) [पृ+इन्] यह उपसर्ग धातु एवं संज्ञाओं के पूर्व
लगता है। ०पृथक्करण, अलग। ०चारों ओर, इधर-उधर। ०क्रमशः, एक के बाद।
बिना, सिवाया परिकथा (स्त्री०) काल्पनिक कथा, साहसिक कार्यों को
व्यक्त करने वाली कथा। परिकम्प (वि०) थरथराहट, कपकपी।
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परिकरः
६०९
परिखेदः
०कृताचार।
करना।
परिकरः (पुं०) परिजन, अनुचरवर्ग, अनुयायी वर्ग। पुरिपरीतमुपेत्य | परिक्रमणं (नपुं०) [परि+की+ल्युट्] विनिमय, अदला-बदली। निजोचितं, परिकरं परमत्र सुसंहितम्। (समु०७/१३)
भाड़ा, मजदूरी। संग्रह, समुच्चय, समूह, परिग्रह। (जयो० २६/१३) परिक्रमा (पुं०) प्रदक्षिणा। (जयो० १२/७३) आरंभ, उपक्रम।
परिक्रया (स्त्री०) बाढ़ लगाना, घेरना। परिधि, कटिबन्ध, कटिवस्त्र।
परिक्रान्त (वि०) प्रदक्षिणीकृत्। (जयो०वृ० १२/७५) परिकर्तृ (पुं०) सुगन्धित करना, संस्कारित करना।
परिकृत् (वि०) अनुगृहीत। (जयो० ९/३१) परिकर्मन् (पुं०) [परि+कृ+मनिक्] ०सेवक, भृत्य।
परिक्लांत (भू०क०कृ०) [परि+क्लम्+क्त] परिश्रांत, थका सुगन्धित करना, प्रसाधन, सजावट, अलंकरण।
हुआ। सज्जा, तैयारी।
परिक्लेदः (पुं०) [परि+क्लिद्+घञ्] कष्ट, दु:ख, बाधा,
कठिनाई, अड़चन, थकावट। पूजा, अर्चना।
परिक्षयः (पुं०) [परि+क्षि+अच] विनाश, ह्रास, बर्बादी। ०द्रव्य के गुण विशेष का परिणाम। परिकर्म द्रव्यस्य
___०अन्तर्धान होना, समाप्त होना। गुणविशेष परिणामकरणम्।
असफलता। गणितविषयक सूत्र।
परिक्षरः (पुं०) चूता रहना, निकलना, बहना। (जयो० १४/९०)
परिक्षाम (स्त्री०) [परि++क्त] कृश, क्षीण, दुर्बल, कमजोर, योग्यता उत्पन्न करना। परिकर्मनिबन्धनं (नपुं०) अनुकरणीय दृष्टान्त। (जयो० ९/५१)
परिश्रांत, थका हुआ। परिकर्ता (वि०) समुत्पादक। (जयो०वृ० २३/४८)
परिक्षालनं (नपुं०) [परि+क्षल्+णिच् ल्युट्] मार्जन, प्रक्षालन, परिकर्षः (पुं०) [परि कृष्+घञ्] निकालना, उखाड़ना, बाहर
प्रमार्जन, धोना। ०साफ करना, स्वच्छ करना।
परिक्षिप्त (भू०क०कृ०) [परि+क्षिप्+क्त] * प्रसृत, बिखेरा परिकर्षणं (नपुं०) [परि कृष्+ ल्युट्] निकालना, उखाड़ना।
हुआ। परिकलित (वि०) सम्बंधित। (सुद० १/४४)
परिवेष्टित, घेरा हुआ। परिकल्कनं (नपुं०) [परि+कल्क ल्युट्] धोखा, ठगी,
•फैलाया हुआ, परित्यक्त। छलभाव।
परिक्षीण (भू०क०कृ०) [परि+क्षि+क्त] ०अन्तर्हित, लुप्त, परिकल्पनं (नपुं०) [परि+कृप+ल्युट] निर्णय करना, स्थिर
आच्छादित। करना, निर्धारण करना।
०ह्रास युक्त, क्षीण हुआ। उपाय निकालना, अविष्कार करना।
कृश, घिसा हुआ, पका हुआ। वितरण करना।
दरिद्र किया हुआ, खोया हुआ, विनष्ट किया। परिकांक्षित (वि०) [परि+कांक्ष्+क्त] पूर्ण आकांक्षाशीला
०कम किया हुआ, घटाया हुआ। परिकांक्षितः (पुं०) साधु, मुनि।
परिक्षीव (वि०) [परि+क्षीव्क्त ] नशे में धुत, मदहोश, उन्मत्त। परिकीर्ण (वि०) प्रसृत, फैलाया हुआ। ०घिरा हुआ, आवृत। परिक्षेपः (पुं०) [परि+क्षिप्+घञ्] ०फेंकना, विक्षेप करना, परिकूट (नपुं०) अवरोध, रोक, घेरा, आड़।
बिखेरना, इधर-उधर डालना। परिकोपः (पुं०) [परि+कुप्+घञ्] ०अधिक गुस्सा, विशेष घेरना, परिवेष्टित करना।
क्रोध, तीव्र कोप, असह्य क्रोध, सहिष्णुता का अभाव। घेरे की सीमा, नियत सीमा। परिक्रमः (पुं०) भ्रमण, घूमना, टहलना।
परिखा (स्त्री०) [परितः खन्यते खन् ड+टाप्] * खाई, खातिका प्रदक्षिणा, परिक्रमण।
(वीरो०२/२४) (सुद०१/२३) * प्रतिकूप। लीक खूड। ०इधर-उधर भटकना।
परिखातं (नपुं०) खाई, प्रतिकूप। परिक्रयः (पुं०) [परि+की+घञ्] भाड़ा, मजदूरी, रोजी। परिखेदः (पुं०) [परितः खेदः] परिश्रांत थकावट, थकान, काम में लगना, मोल लेना।
क्लान्त, परिश्रम से उत्पन्न खेद।
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परिखोपचारी
परिग्रह-परिमाणुव्रतः
परिखोपचारी (वि०) परिखा के बहाने। (वीरो०२/२५) परिख्यातिः (स्त्री०) [परि+ख्या+क्तिन] यश, ख्याति। परिगणनं (नपुं०) [परि+गण+ ल्युट] गिनती, गणना।
हिसाब, वर्णन।
०श्रेणीभूता। परिगत (भू०क०कृ०) [परि गम्+क्त] ०घेरा हुआ, आवेष्टित।
(जयो० ५/२०) ०प्रसृत, चारों ओर फैला हुआ। (जयो०वृ० ३/२)
ज्ञात, समझा गया। ०भरा हुआ, परिपूर्ण, सम्पन्न।
०प्राप्त, उपलब्ध। परिगत्वरी (वि०) भागने वाली, धावनशीला। (जयो० २४/१४२) परिगलित (भू०क०कृ०) [परि+गल+क्त] पिघला हुआ,
गलता हुआ। लुप्त, क्षय, विगलित, क्षीण।
उथला हुआ, पिघला हुआ, बहता हुआ, झरता हुआ। परिगहणं (नपुं०) [परि+गह ल्युट] अत्यधिक निन्दनीय, अपमान
जनका परिगूढ (भू०क०कृ०) [परि-गुह्+क्त] अतिगूढ, रहस्यपूर्ण,
पूर्णलुप्त।
छिपा हुआ, अबोध्य। परिग्रह (सक०) ग्रहण करना, लेना। (वीरो० ८/३४) परिगृहीत (भू०क०कृ०) [परि+ग्रह्+क्त] ०अपनाया, ग्रहण किया, पकड़ा हुआ।
घेरा हुआ, आलिंगित। ०स्वीकृत, अंगीकृत, प्राप्त किया हुआ। संरक्षित, अनुग्रह युक्त। आज्ञापित, आदेश युक्त।
विरोधित, विरोध किया हुआ। परिगृहीता (स्त्री०) एक पतिव्रता नारी, एक पुरुषभर्तृका स्त्री।
'या एक पुरुषभर्तृका सा परिगृहीता।' (स०सि० ७/२८) एकपुरुषभर्तृका या स्त्री भवति सधवा विधवा वा सा
परिगृहीत। संबद्धा। परिगृह्या (स्त्री०) [परि+ग्रह+क्यप्+टाप्] विवाहित स्त्री।
परिगृहीता स्त्री. एकपुरुषभर्तृका। परिग्रहः (पुं०) ग्रहण करना, लेना, पकड़ना, थामना, स्वीकार
करना। शंका करना।
संग (जयो० १/१०७)। ०घेरना, बन्द करना, बाड़ लगाना।
पाणिग्रहण। (समु० २/२६), ०पहनना, धारण करना।
वैभव, सम्पत्ति, धन-दौलत रूप-पैसा। ०मिथ्यात्व अन्तरंग परिग्रह है। (समु० ८/११) ०अनुचर, सेवक, परिजन। अव्रत। (सुद० १२७), ममकार (समु०८/११) सुधामापरिग्रहोऽन्यो ममकारनामा, * मूर्छा भाव, ममत्व परिणाम। मूर्छा परिग्रहः। (सू० ७/१७)
संकल्प, इच्छा, आसक्ति, 'ममेदमिति संकल्पः परिग्रहः' (त०वा० ६/१५) बाह्य परिग्रह-चारित्र मोह से। (समु०८/११) मोहोदयज। ०पापादानोपकरणकांक्षा।
संग-लोभकषाय 'परिगृह्यते परिग्रहः। परिग्रहक्रिया (स्त्री०) मूर्छा भाव। पारिग्राहिकी क्रिया।
बहू पायार्जन-रक्षण-मूर्छा-लक्षणा परिग्रहक्रिया।
(त०भा०६/६) परिग्रहत्यागप्रतिमा (स्त्री०) परिग्रह से रहित, बाह्य-आभ्यन्तर
परिग्रह त्याग का धारक। परिग्रह विनिवृत्त नवीं प्रतिमाधारक व्रती, जो क्षेत्र-वस्तु आदि दश प्रकार के बाह्य परिग्रह में ममत्व को छोड़कर निर्मम होता हुआ स्वस्थ होकर संतोष धारण करता है। जो परिवज्जइ गंथं अब्भंतर-बाहिरं च साणंदो। पावं ति मण्णमाणो गिग्गंथो सो हवे णाणी।।
(कार्तिकेयानुप्रेक्षा ३८६) परिग्रहत्यागममहाव्रतः (पुं०) समस्त परिग्रह का त्याग, पंचम
परिग्रह त्याग महाव्रत, श्रमण/साधु सम्पूर्ण परिग्रह से रहित होता है। सव्वेसिं गंथाणं चागो णिरवेक्ख भावणापुव्व। दश ग्रन्था मता बाह्या अन्तरङ्गाश्चतुर्दश। तान् मुक्त्वा भव
नि:संगो भावशुद्ध्या भृशं मुने।। (ज्ञानार्णन पृ० १७६) परिग्रह-परिमाणुव्रतः (पुं०) परिग्रह त्याग का अणुव्रत परिग्रह
परिमाणाणुव्रत, परिग्रह और आरंभ का प्रमाण करना।
परिच्छिन्न-धन-धान्य-क्षेत्राद्यवधिही। ०परिगाहारंभ-परिमाणं।
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परिग्रहव्यापारः
६११
परिच्छेदद्य
-
०अनन्तायाश्च गर्धायाः विरतिः।
०इच्छापरिमाण, वाञ्छा परिमाण। परिग्रहव्यापारः (पुं०) ग्रंथारंभ। (जयो०वृ० १/११०) परिग्रहानन्दी (स्त्री०) रौद्रध्यान का एक भेद। (मुनि २०) परिघः (पुं०) [परि+ह्न+अप्] लोहे की छड़, मूसल, अर्गला,
सांकल।
रोक, अवरोध। परिघट्टनं (नपुं०) [परि+घट्ट ल्युट्] घोटना, पीसना, कलछी
चलाना, विलोना। परिघोषः (पुं०) [परि+घुष्+घञ्] उद्घोषणा, चारों ओर
मिनादी पिटवाना, कोलाहल करना गर्जना। परिचयः (पुं०) [परि+चि+अप्] ०एकत्र करना, संग्रह करना,
जोड़ना, ढेर लगाना।
घनिष्टता, मित्रता, जान-पहचान। (जयो० ९/५५)
०अभ्यास, अध्ययन, आवृत्ति, बार-बार चिन्तन। परिचरः (पुं०) [परि+चर+अच्] अनुचर, सेवक, भृत्य, अनुयायी
वर्ग। रक्षक, प्रतिपालक, संरक्षक।
० श्रद्धाञ्जली, सेवा। परिचरणं (नपुं०) [परि+च+ल्युट्] अनुचर, सेवक, संरक्षक। परिचरणः (पुं०) सहायक। परिचरितुं (तुमुन्) परिचर्या करने के लिए। परिचर्या (स्त्री०) [परि+चर+क्यप्+टाप्] ०सेवा, वैयावृत्य,
(जयो०वृ० १२/१०४) ०पूजा, अर्चना, भक्तिभाव।
सहायता, सहयोग। परिचारयः (पुं०) [परि+चि+ण्यत्] यज्ञाग्नि। परिचारः (पुं०) सेवा, सुश्रूषा, परिभ्रमण स्थल। परिचारकः (पुं०) [परि+च+ण्वुल्] सेवक, भृत्य, नौकर। |
(जयो०१० २०/६, २०/१९) परिचारिका (स्त्री०) सेविका, सहायिका, सुजनी।
(जयो०वृ० १२/११३) परिचारिणी (स्त्री०) सेविका, सहायिका, सुजनी। (सुद०३/२) परिचित (भू०क०कृ०) [परि+चि+क्त] जाना पहचाना, सगा
सम्बंधी, जानकार, जान-पहचान वाला। ०भावागम विशेष,
इकत्रित किया हुआ। परिचितिः (भू०क०कृ०) [परिचि+क्तिन्] जान-पहचान,
परिचय, सम्बन्ध, घनिष्ठता।
परिचिन्तनं (नपुं०) पुनः चिन्तन, यथार्थ चिन्तन। (सुद०१३४) परिचुम्ब (अक०) चुम्बन करना, आलिंगन करना, मुंह चूमना। परिचुम्बकः (पुं०) समास्वादन। (जयो०१२/७८) चुम्बन-सदसीह
वंशजो हरेणुरदवासः परिचुम्बको नु वेणुः। (जयो० १२/७८) परिचुम्बती (वि०) चुम्बन करती हुई। (जयो० १३/४३) परिचुम्बित (वि०) अधरादिष्वास्वादितापि। परिच्युत (वि०) गिरा हुआ, भ्रंश, पतित, परिस्खलित। निर्मोकस्य
परिच्युतावहिपते संजयतां का क्षतिः। (मुनि० १८) परिच्छद् (स्त्री०) [परि+छद्+क्विप्] ०परिजन, कुटुम्बीजन,
अनुचरवर्ग, अनुयायीसमूह।
साज-समान। परिच्छदः (पुं०) [परि+छद्+णि+प]०आवरण, चादर।
परिधान, पोशाक, वेष-भूषा वस्त्र। परिभ्रमण। (मुनि० २५)
छत्र, चामर, छतरी। ०आवश्यक वस्तुएं। परिच्छंदः (पुं०) [परि+छन्द्+कन्] परिजन, कुटुम्बीजन,
०सेवक, अनुचर, भृत्य।
०अनुयायी, अनुगामी। परिच्छन्नं (भू०क०कृ०) [परि+छद्+क्त] ०आवरण/
आच्छादन/वेष्टित किया हुआ। बिछाया हुआ, फैलाया हुआ।
गुप्त, छिपा हुआ। परिच्छित्तिः (स्त्री०) [परि+छिद्+किन्] आच्छादन,
विभाजन, अलग अलग करना।
० यथार्थ परिभाषा, सीमित करना। परिच्छिन्न (भू०क०कृ०) विभक्त, विभाजित किया गया, ०सीमित, सीमाबद्ध, परिसीमित।
परिभाषा युक्त, निर्धारित, निश्चयीकृत। परिच्छियान्वित (वि०) निज परिजन सहित। (जयो० १३/१३) परिच्छेदः (पुं०) [परि+छिद्र+घञ्] विभक्त करना, विभाजित
करना। ०अंश। निर्धारण करना, सीमित करना, निश्चय करना। विवेक, निर्णय, सूक्ष्मदृष्टि।
०सीमा, हद, मर्यादा, स्थिर करना, हदबन्दी। परिच्छेदद्य (वि०) [परि+छिद्+ण्यत्] परिभाषा योग्य, मापने
योग्य। अनुमान लगाने योग्य। प्रतिपादन करने योग्य, कहने योग्य।
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परिच्युत
६१२
परिणामयोगस्थानं
परिच्युत (वि०) पतित, गिरा हुआ। (जयो० ३८)
परिणयनं (नपुं०) [परि+नी+ल्युट्] पाणिग्रहण, विवाह, शादी। परिजनः (पुं०) कुटुम्बीजन, परिवार के लोग। ०अनुचर, (दयो० १०८) सेवक, भृत्य, दास-दासी।
परिणहनं (नपुं०) [परि+न+ ल्युट्] ०कमर कसना, अग्रसर ०अनुयायीवर्ग।
होना, कपड़ा बांधना, वस्त्र लपेटना, तैयार होना। परिजल्पित (वि.) [परि+जल्प्+क्त] परिकथित, दोषारोपण, | परिणामः (पुं०) [परि+नम्+घञ्] ०प्रसार, विस्तार। 'लोकलोनिन्दित, दोष प्रकट।
पिलवणापरिणामः' (जयो०० ५/२०) परिणामः प्रसारो परिज्ञप्तिः (स्त्री०) [परि+ज्ञप्+क्तिन्] ०वार्तालाप, संवाद यत्र (जयोवृ०५/२६) कथोपकथन, संलाप।
* विचार, चिन्तन-'अपवर्ग-परिणाम-पण्डिते'। (जयो० परिज्ञ (स्त्री०) सभी तरह का ज्ञान। 'परिः समन्ताज्ज्ञानं पाप
३/२०) परित्यागेन परिज्ञासामायिकमिति' (जैन०ल.पृ० ६७९)
स्वभाव, आत्मभाव। (जयो० २२/६९) परिज्ञातकर्म (पुं०) त्रैकालिक अवस्था का जानने वाला।
परिवर्तन, रूपान्तरण। परिज्ञानं (नपुं०) [परि+ज्ञा+ल्युट्] प्रतीति, जानकारी। पूर्ण निष्पत्ति, परिणति, फल। ज्ञान, पूरी जानकारी। (जयो०वृ० २७/६१)
पूर्ण विकास, परिपक्वता। परिज्ञानसहित (वि०) यथार्थ ज्ञान युक्त। (सुद० १३३)
०अन्त, समाप्ति, अवसान, ह्रास। परिज्ञायक (वि०) परिज्ञाता, यथार्थ ज्ञाता। (जयो०वृ० १७/५५) द्रव्यात्मलाहेतु। परिडीनं (नपुं०) [परि+डी+क्त] ०पक्षियों की उड़ान, गोलाकार निर्दिष्ट।
रूप उड़ने की प्रवृत्ति, पक्षियों की समूहात्मक गमन आगामीकाल। (सुद० १२४) क्रिया।
०अर्थान्तरगमन-परिणामो ह्यर्थान्तरगमनं न तु सर्वथा परिणत (वि०) कल्पित, दूरीभूत, हटना। (जयो० ९/२) व्यवस्थापनम्। (जैन०ल० ६७९) विनत, (जयो०वृ० ११/३०) नम्र, झुका हुआ।
गुणों का स्वभाव। पक्का, परिपक्व, पूर्ण।
०स्वतत्त्व भाव। ०वृद्ध, ढलता हुआ।
०द्रव्य का सद्भाव। ०रूपान्तरित, परिवर्तित।
०स्वकार्य पर्यालोचन। ०पचा हुआ, पकाया हुआ।
परिणमनं परिणामः। (सुद० ४/२९) परिणत (वि०) [परि+नम्+क्त] नम्रीभूत।
०परि समन्तान्नमनं यथावस्थितवस्तनुसारितया गमनं परिणतिः (स्त्री०) शुभाशुभ परिवर्तन। (जयो० २/४७)
परिणामः। (जैन०ल० ६८०) सौभाग्यवती। (जयो० ५/७४) 'सदसमवाप मनोहरगात्री ०द्रव्य परिणति। परिणतिमेति यया खलु धात्री।
परिणामक (वि०) परिणमन/परिवर्तन कराने वाला। झुकना, नम्र होना, विनम्र होना, विनत भाव, विनीत परिणामकोमल: (पुं०) सरस स्वभाव, मृदुभाव। (जयो० २२/६९)
परिणामदर्शिन् (वि०) बुद्धिमान्। स्वभाव दी। ०परिपक्व, रूपानन्तरण।
परिणामदृष्टिः (स्त्री०) स्वभावदर्शी। परिणाम, फल, नतीजा।
परिणामधामः (पुं०) विकास स्थल। (जयो० ७/८३) अन्त, उपसंहार, समाप्ति, अवसान।
परिणामपथ्य (वि०) स्वास्थ्य प्रद कारण। ०अन्तिम स्थिति।
परिणाम-निर्मल (वि०) स्वच्छ भाव वाला। वर्णेन निर्मला परिणद्ध (भूक०कृ०) [परि+नह+क्त] लिपटा हुआ, ०बंधा स्वच्छ। (जयो० १३/५७) हुआ, विस्तृत, विपुल, विशाल, विस्तीर्ण।
परिणामभावः (पुं०) स्वभाव, आत्म भाव। (समु०७/२२) परिणमनं (नपुं०) परिवर्तन। (जयो०७ १/८३)
परिणामयोगस्थानं (नपुं०) योग का स्वभाव, बना रहना, परिणयः (पुं०) [परि+नी+अप्] विवाह, शादी, परिणीतभाव, पर्याप्त होने के समय से लेकर आगे सर्वत्र परिणामयोग पाणिग्रहणसंस्कार।
का होना।
गुण।
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परिणामवत्
६१३
परित्यागः
परिणामवत् (वि०) स्वभाव की तरह, वस्तु परिणति की
तरह। (सुद० १०५) परिणामविशुद्धप्रत्याख्यानं (नपुं०) विशुद्ध भाव का प्रत्याख्यान।
रागेण व दोसेण व सगपरिणामेण सिदं जं तु। तं पुण पच्चक्खाणं भावविशुद्धं तु णादव्वं ।। (मूला० ।
७/१४६) परिणामसुरम्य (वि०) योग्य भाव। विशुद्ध भाव। (जयो०
३/६०) परिणामित (वि०) शुद्धिपूर्वक। (मुनि० ९) परिणायः (पुं०) [परि+णी+घञ्] चाल चलना, मुहरें बदलना। परिणायकः (पुं०) [परि+णी+ण्वुत्] नेता, अधिकारी (जयो० ___३/२०) पति, स्वामी। परिणाययितुं (हेत्वर्थ) [परि+णी+तुमुन्] विवाहयितुं विवाह
के लिए। परणाने के लिए, (जयो०८) परिणाहः (पुं०) [परि+न+घञ्] परिधि, वृत्त, विस्तार, चौड़ाई। |
(जयो० १७/५३) परिणाहवत् (वि०) [परिणाह+मतुप] परिधि की तरह, विस्तृत,
फैला हुआ। परिणाहिन् (वि०) [परिणाह्+इनि] वृत्त, परिधि युक्त,
०फैला हुआ, विशालतम। परिणाहिनी (स्त्री०) गामिनी। (जयो० २/११९) परिणिंसक (वि०) [परि+निस्+ण्वुल्] स्वाद चखने वाला,
खाने वाला। परिणिष्टा (स्त्री०) [परि+निष्टा] पूर्ण विश्वास, पूर्ण कौशल। परिणीत (भू०क०कृ०) [परि+नी+क्त] विवाहित, अंगीकृत,
स्वीकृत। परिणीतगाथा (स्त्री०) स्तुतिकथा। (जयो० २६/७१) परिणय
संबंधी विचार। परिणीता (स्त्री०) विवाहिता स्त्री, परिणय युक्त स्त्री। अंगीकृता।
(दयो० ५/३१) परिणेतृ (पुं०) [परि+नी+तृच्] पति, भर्ता। परिणेतुं (तुमुन्) अंगीकार करने के लिए, विवाह करने के |
लिए-शिवश्रियं य, परिणेतुमिहः। (वीरो० २१/१) परिणेत्री (स्त्री०) सेविका, दासी, परिचारिका। (जयो० १२/१६) परितर्पणं (नपुं०) [परि+तृप्+ ल्युट्] संतुष्ट करना, तृप्त
करना, इच्छा पूर्ण करना। परितस् (अव्य०) [परि+तस्] सर्वत्र, इधर-उधर घूमना,
चारों ओर, सभी ओर। 'परितोऽप्यधिगच्छति' (जयो०९/३१)
'परितः प्रचलज्ज्वलच्छलान्निखिलाश्चा पि दिशः समुज्जलाः।' (वीरो०७/३२) 'दीपावली च परितः समपादि एतैः' (वीरो० २१/२३) परितः समन्ततः (जयो० १२/७४)
परित:-इतस्ततः (जयो० ८/२९) परितापः (पुं०) संताप, दु:ख, कष्ट वेदना, पीड़ा, व्यथा,
शोक। विलाप, पीड़ा, व्यथा, शोक।
०अत्यधिक गर्मी। परितापनं (नपुं०) प्राणियों के लिए सन्ताप, परितापस्य शारीरिकस्य
मानसिकस्य च सन्ताप:। (जयो० १२/५८) प्राणिनः
सन्तापकरणं परितापनं व्याह्रियते'। परितापनाशिनी (वि०) संताप ध्वंसनी। (जयो० १३/५८) परितुष् (अक०) संतुष्ट होना-परितुष्यति (वीरो० ९/४) परितापनिकी (स्त्री०) खड्गादि से पीड़ा पहुंचना। परितापनं
परितापः, पीडाकरणमित्यर्थः। परितुष्ट (भू०क०कृ०) [परि+तुष्+क्त] अति संतोष, चूर्ण
संतोष, अधिक संतुष्टि। परितुष्टिः (स्त्री०) [परि+तुष्+क्तिन्] •तुप्ति, संतुष्टि।
हर्ष, आनन्द, खुशी। परितोषः (पुं०) [परि+तुष्+घञ्] ०संतोष, हर्ष, आनन्द,
खुशी।
तृप्ति, संतुष्टि, संतोषदायक। (जयो० ४/४८) परितोषयन् (वि०) संतोषयन, सुंष्टियुक्त। परितोष संस्कृतिः (स्त्री०) परितृप्ति भाव। 'परितोषस्य संतोषस्य
संस्कृतिः' (जयो० १३/५६) परितोषिक (वि०) अति संतुष्टि वाला। उपानय।
(जयो० ९/२१) परित्यज् (सक०) छोड़ना, त्याग करना, विसर्जित करना,
बहाना। (जयो०१/१०१) 'पिताऽपि तावत्तनयं परित्यजेत्'
(वीरो० ५/८) परित्यक्त (भू०क०कृ०) [परि+त्युक्त] छोड़ा हुआ, उत्सृष्ट,
सर्वथा त्यागा गया, मुक्त। (जयो०० ५/८८) ०अभाव
ग्रस्त, वञ्चित, रहित। परित्यजनं (नपुं०) त्यक्त, छोटित। (जयो० १८/१६) परित्यागः (पुं०) [परित्यज्+घञ्] उत्सर्ग करना, छोड़ना,
फेकना, ०बहाना, विसर्जित करना। उज्झन। (जयो०वृ० ५/८)
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परित्राणं
६१४
परिपक्व
परित्राणं (नपुं०) [परि+त्रै+ल्युट्] संरक्षण, बचाना, प्रतिरक्षा, | परिधिः (स्त्री०) [परि+धा+कि] ०बाड़, घेरा, मेंड, बांध। ___मुक्ति, छुटकारा।
वृत्त, गोलाकार आकृति, समान गोल क्षेत्र। परित्रासः (पुं०) [परि त्रस्+घञ्] त्रास, भय, डर, भीति।
०व्यास, एक प्रमाण विशेष, समान गोल क्षेत्र के विस्तार परिदंशित (वि०) [परि+दंश्+क्त] सुसज्जित, आवृत्त, ढका का वर्ग करके उसे दस से गुणित करने पर जो प्राप्त होता हुआ, आच्छादित, कवच से घिरा।
है। विस्तार को सोलह से गुणा करके उसमें सोलह जोड़ परिदानं (नपुं०) [परि+दा+ल्युट्] विनिमय, आदान-प्रदान, दें, तत्पश्चात् उन्हें तीन, एक और एक (११३) अर्थात् लेन-देन, क्रय-विक्रय वस्तु प्रदान।
एक सौ तेरह से भाजित करके लब्ध में तिगुने विस्तार के परिदायिन् (वि०) विनिमय किया गया।
जोड़ देने पर सूक्ष्म से सूक्ष्म परिधि का प्रमाण प्राप्त होता है। परिदाहः (पुं०) [परि+दह्+घञ्]०जलन, परिवेदन। वेदना, क्षितिज। कष्ट, दु:ख।
०पहिये का घेरा। शोक, आकुलता, ईर्ष्या।
परिधूपित (वि०) [परि+धूप्+क्त] सुगन्धित किया गया, सुवासित। परिदेवः (पुं०) [परि+दिव्+घञ्] विलाप, ०मातम मनाना, परिधूसर (वि०) [परितः सर्वतो भावेन धूसर:] धूल से दुःख प्रकट करना, ०व्यथित होना।
परिपूर्ण, अधिक रज युक्त।। परिदेवनं (नपुं०) संक्लेश परिणाम।
परिधृत (वि०) पकड़े हुए, ग्रहण किए हुए। (समु० ७/६) विलाप, खेद, दुःख, पीड़ा।
परिधेयं (नपुं०) [परि+धा+यत्] अधोवस्त्र, नीचे का वस्त्र, विलखना, रुदन करना।
चड्डी, कच्छ, लंगोट, धोती, परदनी, पजामा, पेंट। ०दयार्द्र होना।
परिध्वंसः (पुं०) [परि+ध्वंस्+घञ्] ०विनाश, क्षय, हानि, परिदेव्यते परिदेवनं संक्लेशपरिणाम-विहितावलम्बनं घात, नष्ट। स्व-परोपकार-कांक्षालिंग अनुकम्पाभूयिष्ठ रोदनमित्यर्थः। संहार, विघाता (जैन०ल० ६८१)
परिध्वंसिन् (वि०) [परि+ध्वंस्+णिनि] पतित, गिरकर नष्ट परिदेविनि (स्त्री०) विलापवती । विलापः परिवेदनं इत्यमरः' होने वाला, विनष्टगत। (जयो० २६/३९)
परिनिर्वाणं (नपुं०) परिमुक्ति, परिमृति, महाप्रयाण, अन्तिम परिद्रष्टु (वि०) [परि+दृश्+तुच्] दर्शक, देखने वाला।
प्रयाण अधिष्ठान। (जयो०वृ० २४/३१) परिधर्षणं (नपुं०) [परि+घृष्+ल्युट्] ०आक्रमण, बलात्कार। परिनिर्वाणत्व (वि०) मुक्तिदशा। (जयो० १२/७३) ०अपमान, निरादर, तिरस्कार।
परिनिर्वाप्य (वि०) समस्त विशेषताओं को प्राप्त। परीति दुर्व्यवहार।
सर्वप्रकारं निर्वापयितः। परिधानं (नपुं०) [परि+धा+ल्युट्] अधोवस्त्र। (जयो० १५/१००) | परिनिर्वृततः (पुं०) विकार रहित, दोष रहित। (समु० ४/१३) पोशाक, वस्त्रधारण करना। (जयो०१० ६/१२६)
'परिनिर्वृत्तः कर्मकृतविकार विरहात् स्वस्थीभूतः' परिधानीयं (नपुं०) [परि+धा+अनीयर] अधोवस्त्र, नीचे का | परिनिर्वृतिः (स्त्री०) बन्धनमुक्त, मुक्ति। भवबन्धनमुक्तस्य पहनावा।
याऽवस्था परमात्मनः परिनिर्वृतिरिष्टा सा परं निर्वाणमिष्यते। परिधायः (पुं०) [परि+धा+घञ्] नितम्ब, चूतड़। (जयो० परिनिर्वाण, परममुक्ति। (महापुराण ३९/२०६) पूर्णमुक्ति, वृ० ११/६)
जन्म-मरण रहित अवस्था। जलस्थान। (जयो०वृ० ११/६)
परिनिष्ठा (स्त्री०) ययार्थ ज्ञान के प्रति विश्वास, पूर्ण श्रद्धा। परिच्छेद। (जयो०वृ० ११/६)
परिनिष्ठत (भू०क०कृ०) [परि+नि स्था+क्त] पूर्ण कुशल, ०अनुचर, भृत्य। 'परिधायो जलस्थाने नितम्बे च परिच्छेद' सुनिश्चित। इति विश्वलोचनः। (जयो० ११/६)
परिनिस्वत् (वि०) श्रमजनित, स्वेदपरिपूर्ण। (जयो० १३/७१) परिधारणीय (वि०) [परि+धृ+अनीयर] धारण करने योग्य। । परिपक्व (भू०क०कृ०) [परि+पच्+क्त] पूर्ण पका हुआ, 'यः क्षत्रियेश्वरवरैः परिधारणीयः' (वीरो० २२/२६)
भली भांति सेंका हुआ।
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परिपणं
६१५
पिरिप्लव
प्रौढ़, सिद्ध, पूर्णता प्राप्त। (दयो० ५३)
परिपुटनं (नपुं०) [परि+पुट ल्युट] ०छाल उतारना, वल्कट जानकर, ज्ञानी।
हटाना। परिपणं (नपुं०) [परि+पण्+घ] मूलधन, पूंजी, अपना धन। ०अलग करना। परिपणनन् (नपुं०) [परि+पण ल्युट] प्रतिज्ञा करना, नियम लेना। परिपुष्ट (वि०) उत्तरोत्तर उन्नत, पूर्ण भरा हुआ। (जयो०१०/६०) परिपणित (भू०क०कृ०) [परि+पण्+क्त] प्रतिज्ञायुक्त, नियम परिपूजनं (नपुं०) [परि+पूज्+ल्युट्] पूजा करना, सम्मान युक्त।
करना, अर्चना करना, विशेष स्थान देना। 'यक्षादिकम्य परिपंथकः (पुं०) [परि+पंथ्+ण्वुल्] शत्रु, विरोधी, दुश्मन। परिपूजनमप्यनेनः' (वीरो० २२/१६) परिपंथिन् (वि०) [परि+पंथ+णिनि] विरोध करने वाला। परिपूणकः (पुं०) ०घी की छननी, ०भरना, पूरा करना। अन्यमतानुयामी।
सुधरी नामक पक्षी का घोंसला। 'परिपूणको नाम परिपठ् (सक०) मानना, (जयो० २/८०) परिपठ्यते ०प्रयोग घृत-क्षीर-गालनम्' (जैन०ल० ६८२)
करना। देवतां परिपठति सैनसः' (जयो० २/२६)। परिपूर्ण (भू०क०कृ०) [परि+पूर+क्त] अभिवृद्ध पूर्णता (भक्ति० परिपाकः (पुं०) [परि+पच्+घञ्] *पकाया गया, पचना, ७) युक्त, भरा हुआ। (जयो०वृ० १/२२) पकाना।
परिपूर्णेन्द्रियः (पुं०) पूर्ण इन्द्रियां। ०परिणाम, फल, नतीजा।
परिपूत (भू०क०कृ०) पवित्र, विशुद्ध किया, शोधा गया। ०कुशलता, दूरदर्शिता।
(जयो० १२/१३७) ०फटका गया, साफ किया गया। परिपक्वन, विकास, पूर्णता।
परिपूर (सक०) पूर्ण करना, भरना, परिमार्जन करना, परिपाकभर्ता (वि०) कर्मों के परिपाक को भोगने वाला। स्वच्छ करना। (मुनि० १२) (वीरो०१६/४०)
पिच्छात: परिपूरयेत्तनुमिमां पूर्णप्रयत्नात्सदा। (मुनि० १२) परिपाटल (वि०) पीला लाल।
परिपूरणं (नपुं०) भरण पोषण। (जयो० ५/८२) परिपाटल (वि०) परम्परा, रीति, प्रणाली, पद्धति। परिपूरित (वि.) खचित, भरा हुआ। (जयो०वृ० १२/१३०) व्यवस्था, क्रम, उत्तराधिकार।
परिपूर्तिः (स्त्री०) [परि+पूर+क्तिन्] पूर्णता, बिताना, पूर्ण परिपाठः (पुं०) विवरण, निर्देशन, परिगणना, पुनर्निरीक्षण। करना, संपूर्ति। 'श्री त्रिवर्गसहकारिणो जनानाश्रिकेष्टिपरिपार्श्व (वि०) निकट, पास।
परिपूर्तितन्मनाः' (जयो० २/९८) परिपालनं (नपुं०) [परि+पल्+णिच् ल्युट्] रक्षा करना, | परिपृच्छा (स्त्री०) [परि+प्रच्छ्+अ+टाप्] प्रश्न, पूछताछ,
संभालना, धारण करना, जीवित रखना, सुरक्षित करना। पूछने की भावना। ०भरण-पोषण, संवर्धन। (जयो० १८)
परिपेलव (वि०) सूक्ष्म, अत्यन्त मृदु अतिकोमल। परिपालित (वि०) संवर्द्धित। (सुद० ३/४)
परिपोटः (पुं०) [परि+पूट+घञ्] कर्ण रोग। परिपिण्डित (वि०) अव्यक्त वन्दन, सूत्रोच्चारण वन्दन। परिपोषणं (नपुं०) [परि+पुष्+ ल्युट] भरण-पोषण, परिपिष्टकं (नपुं०) [परि+पिष्+क्त कन्] सीसा।
खिलाना-पिलाना, पालन करना, पुष्ट करना। (जयो० परिपीडनं (नपुं०) [परि+पीड्+ल्युट] ०मसलना, मर्दन करना, २/११) 'नान्नतो हि परिपोषणं गवाम्'। रक्षण (जयो० दबाना, दबोचना।
२/११३) निचोड़ना, भींचना।
परिप्रश्नः (पुं०) पूछताछ, प्रश्न करना, सवाल करना, जानने ०क्षति पहुंचना, चोट लगाना।
की इच्छा रखना। परिपीडितदोषः (पुं०) कृतिकर्म का दोष, साधुवन्दना का परिप्राप्तिः (स्त्री०) उपलब्धि, अधिग्रहण।
दोष। दोनों हाथों से अपने जानु का स्पर्श करते हुए वन्दना परिप्रेष्यः (पुं०) भृत्य, सेवक, अनुचर। करना कृतिकर्म के बत्तीस दोषों में चतुर्थ दोष-'हस्ताभ्यां | परिप्लव (वि०) [परि+प्लु+अच्] ० भरे हुए, परिपूर्ण
जानुनो स्वस्य संस्पर्शः परिपीडितम्' (जैन०ल० ६८२) (सुद० १००) परिपीता (स्त्री०) अवलोकिता (जयो० ५/३३)
० अस्थिर, चंचल, चपल।
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परिप्लव:
६१६
परिभ्रमः
०भ्रमणशील, घुमक्कड़।
परिभागपर्यन्तः (पुं०) विभाग पर्यन्त। (दयो० १२/१०८) ०कांपता हुआ, थरथराता।
परिभावः (पुं०) [परि+भू+घञ्] ०अपमान, तिरस्कार, घृणा। परिप्लवः (पुं०) जलप्लावन, जल में डुबोना, गीला करना। प्रतिष्ठा हानि, निरादर। ___उत्पीडन, अत्याचार। (वीरो० १२/२९)
परिभाविन् (वि०) [परि+भू+णिनि] तिरस्कार करने वाला, परिप्लावनं (नपुं०) अनर्थ, अत्याचार, उत्पीडन। कामुकी- अपमान करने वाला, लज्जित करने वाला।
नामन्यथापि, परिप्लावन-दर्शनात्। (हित० सं० १६) परिभाषणं (नपुं०) [परि+भाष्--ल्युट] प्रवचन, निरूपण, परिप्लुत (भू०क०कृ०) [परि+प्लु+क्त] जलप्लावि, बाढ ग्रस्त। प्रतिपादन। ०व्याकुलित, घबड़ाया हुआ।
०वार्तालाप, बातचीत करना। आद्रीभूत, क्लान्त, दु:खी।
परिभाषा। स्नात।
अपशब्द करना, धिक्कारना। परिप्लुतं (नपुं०) छलांग।
परिभाषा (स्त्री०) [परि+भाष्+अ+टाप्] ०व्याख्यान, कथन, परिप्लुता (स्त्री०) मद्य, मदिरा।
निरूपण, प्रवचन। परिप्लुष्ट (भू०क०कृ०) [परि+प्लुष्+क्त] झुलसा हुआ, भन ०कलंक, जिड़की, गाली। भनाया हुआ, जला हुआ।
लक्षण, स्वरूप, विवेचन निर्वचन। परिफुल्ल (वि०) पुष्पित, खिला हुआ। (जयो० १४/२६) नियम, विधि, सर्वत्र घटित होने वाली विवेचना। ०पूर्ण विकसित, विकासशील, अलंकृत।
परिभिन्नमर्मः (पुं०) शरीरधारी से भिन्न निगोदिका जीव। परिफुल्लगण्डः (पुं०) फूले हुए गाल (सुद० )
(सम्य० ४१) परिफुल्लद्देहः (पुं०) सम्पुष्पित काया, समलंकृत शरीर। | परिभुक्त (भू०क०कृ०) [परि+भुज्+क्त] ० जित, खाया,
(जयो० १०/११९) कलामुखीमयमात्मरश्मिभिः हुआ, उपयुक्त। श्रीपरिफुल्लद्देहाम्' (जयो० १०/११९)
प्रयोग में लाया हुआ। परिफुल्लवदनः (पुं०) विकास शील शरीर। (जयो० १४/६) | परिभुग्न (वि०) [परि+भुज+क्त] विनत, नम्रीभूत, झुका परिपुल्लोलपः (पुं०) पुष्पित लताग्र। 'परिफुल्लं च तदुलपं हुआ। ०वक्रीकृत। लताग्रम्' (जयो० १४/२६)
परिभूतिः (स्त्री०) [परि+भू+क्तिन्] तिरस्कार, अपमान, परिबर्हः (पुं०) [परि+बह+घञ्] भृत्य, सेवक, अनुचर। अनादर। निन्दा। उपस्कर, गृह वस्तु।
परभूषणः (पुं०) [परि+भूष्+ल्युट्] श्रृंगार युक्त। ० सम्पत्ति, वैभव, धन-दौलत।
परिभोगः (पुं०) [परित्यज्य भुज्यत इति] ० भोगकर छोड़ा परिबृंहणं (नपुं०) [परि+वृह्ह ल्युट्] ०समृद्धि, कल्याण। गया, फिर से भोगा जाता। सम्पूरक, परिशिष्ट।
उपभोग, पुन: धारण करने योग्य। 'परिभोगः समाख्यातो परिबंहित (भू०क०कृ०) आवर्धित, बढ़ा हुआ, समृद्ध हुआ। भुज्यते यत पुनः' यथा योषिदलंकार-वस्त्रागार-गजादिकम्।। परिबोधनं (नपुं०) यथार्थ ज्ञान। (जयो० २/३०)
(लाटी० सं०६/१४७) परिभर्सित (वि०) भर्त्सना युक्त। (सुद० ९८)
परिभोगान्तरायः (पुं०) परिभोग में बांधा, उपभोग में विघ्न। परिभवः (पुं०) [परि+भू+अप्] ०अपमान, निन्दा, तिरस्कार। 'जस्स कम्मस्स उदएण परिभोगस्स विग्घं होदि तं (जयो० ९/४)
परिभोगान्तराइयं। (धव० ६/७८) प्रतिष्ठा हानि, निरादर, पराक्रम।
परिभ्रंशः (पुं०) [परि+भ्रंश्+घञ्] ०छूटना, गिरना। परिभवपदं (नपुं०) घृणा का पात्र, अपमान स्थान।
बच निकलना। परिभवविधिः (स्त्री०) प्रतिष्ठा भंग।
परिभ्रमः (पुं०) [परि+भ्रम+घञ्] ०घूमना, टहलना, परिभ्रमण परिभविन् (वि०) [परि+भू+इनि] तुच्छ, अनादर, अपमान, करना। वाग्जाल, घुमा-फिराकर कहना। तिरस्कार, पीड़ित, दु:खित।
०भूल, भ्रमा
फलना।
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परिभ्रमणं
६१७
परिमुग्ध
परिभ्रमणं (नपुं०) [परि+भ्रम ल्युट्] घूमना, हिंडन करना, परिमार्जनं (नपुं०) [परि+मृज्+णिच्+ ल्युट्] ०मांजना, साफ टहना।
करना, स्वच्छ करना। (मुनि० १२) ०झाड़ना, पोंछना, ०पर्यटन, चक्कर लगाना।
प्रच्छालन करना। परिभ्रष्ट (भू०क०कृ०) [परि+भ्रश्+क्त) स्खलित, पतिता | परिमार्जनी (स्त्री०) बुहारी, झाडू। इतस्ततो भो परिमार्ज०वञ्चित, अभावग्रस्त।
नीवाऽविदग्धनुः सावगुणार्जिनी वाक्। (जयो० २७/९) अवहेलना करने वाला।
परिमार्जयन्ती (शतृ०) प्रक्षालयन्ती, साफ करने वाली, प्रच्छालन परिमण्डलं (नपुं०) ०पिण्ड, गोलक, ०गेंद, वृत्त, गोला, करने वाली। (जयो० १८/१००) बाला जलेन वदनं चक्र। (जयो०१० ११/२२)
परिमार्जयन्ती। परिमण्डल (वि०) गोलाकार, वर्तुलाकार।
परिमार्जित (वि०) प्रमाष्टि, प्रक्षालित, बुहारित। परिमंथर (वि०) अत्यन्त मंद।
परिमार्जितुं (तुमुन्) साफ करने के लिए। प्रक्षालयितुं परिमंद (वि०) धुंधला, बहुत ही अस्पष्ट, नहीं दिखाई देने वाले।
'परिमार्जितुमादृता शची व्यतरत्सस्वथसस्मितां रुचिम्। ०थका हुआ।
(वीरो० ७/३६) ०बहुत कम, अल्पतम।
परिमित (भू०क०कृ०) [परि-मा+क्त] सीमित, नपा तुला, परिमदः (पुं०) [परि+मृ+अप्] ०अविनाश, घात।
विनिमित, समंजित, पूर्ण (जयो० ३/२९) ०अल्प (जयो० परिमर्दः (पुं०) [परि+मृद्+घञ्] रंगड़ना, पीसना, चूर्ण
वृ० ५/५८) मध्यम, मितव्ययी। करना, मसलना।
परिमितकालं (पुं०) सीमित समय। कुचलना, क्षति पहुंचाना।
परिमितकालसामायिकः (पुं०) सीमित समय की सामायिक। परिमर्दनं (नपुं०) [परि+मृद्+ ल्युट्] ०रगड़ना, पीसना, चूर्ण
___ 'स्वाध्यायादौ सामायिकग्रहणं परिमितकालम्। करना।
परिमित-कथा (वि०) अल्पभाषी, थोड़ा बोलने वाला। ०कुचलना, मर्दन करना, मसलना। परिमर्शनं (नपुं०) स्पर्श करना, हाथ से छुना। 'परिमर्शनं
परिमित-कथा (स्त्री०) लघुकथा। सर्वगात्रस्पर्शनम्' (भ०आ० ६४९)
परिमित-भोजनं (नपुं०) स्वल्प भोजन, कम भोजन। परिमर्षः (पुं०) [परि+मृष्+घञ्] ०अरुचि, ईर्ष्या।
परिमिताभरणं (नपुं०) स्वल्प आभूषण। ०क्रोध, गुस्सा।
परिमितायुस् (पुं०) अल्पायु। परिमल: (पुं०) [परि+मल्+अच्] सुगन्ध, सुवास, सुरभि,
परिमिताहार (पुं०) स्वल्प भोजन। सौरभ, गन्ध, महक।
परिमिति (स्त्री०) [परि+आ+क्तिन्] ०माप, परिमाण। सुगन्धित पदार्थों का पीसना।
०सीमाकरण, सीमाबन्धन। विद्वत्सभा।
परिमिलनं (नपुं०) [परि+मिल्+ल्युट्] स्पर्श, संपर्क। ०कलंक, धब्बा।
आलिंगन गले लगाना। परिमलित (वि०) [परि+मल्+क्त] सुगन्धित, सुरभित,
सम्मिश्रण, मेल। सुवासित। ०कुलुषित मुहुर्मर्दित। (जयो० १४/४१)
परिमुक्त (वि०) [परि+मुच्+क्त] ०अलंकृत किया, विभूषित ०बार-बार मर्दित। प्रिय-परिमलित गुरुपरिणामौ कलभ- किया। निकुम्भविभाभिरामौ। (जयो० १४/४१)
रहित, अभाव, शून्य। (दयो० ३०) परिमाणं (नपुं०) [परि+मा+ल्युट्] ०मापना, माप, प्रमाण, परिमुखम् (अव्य०) मुंह के सामने, चारों ओर। तोल, संख्या, मूल्य।
परिमुग (वि०) छोड़ते हुए, विकासशील। 'परिमुञ्चतीति परिमुग्' परिमार्गः (पुं०) [परि+मार्ग+घञ्] ०खोजना, अन्वेषण करना, (जयो०वृ० ३/१३) स्पर्श, सम्पर्क।
परिमुग्ध (वि०) [परि+मुह्+क्त] प्रिय, मनोहर, रमणीय, परिमार्गणं (नपुं०) [परि+मा+ल्युट] ०खोजना, अन्वेषण करना। सुन्दर। स्पर्श, सम्पर्क।
०सरल, मृदु।
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परिमुग्धमित
६१८
परिवर्जनं
भोला-भाला।
०क्षीण, कान्तिहीन, हतप्रभ, तेज रहित। अति आकर्षण।
०मूर्छित, व्यामोहित। परिमुग्धमित (वि०) मीठी-मीठी बात। (सुद० ३/४२)
मुर्छाया हुआ, कुम्हलाया हुआ। परिमुञ्च (सक्०) छोड़ना, त्याग करना ।
कलंकित, म्लान। परिमुच्यता (वि०) छोड़ने वाला। परिच्युतेनेत्यर्थ साधु सङ्गमा- | परिया (अक०) प्राप्त होना। परियातु। (सुद० ३/९) दुपागता किं परिमुच्यतां किं क्षमा।
परिरक्षु (सक०) रक्षा करना, बचाना। परिमुषित (वि०) लुटे हुए। (दयो० २०) (दयो० ३८) परिरक्षकः (पुं०) [परि रक्ष्+ण्वुल]०प्रतिरक्षक, अंगरक्षक। परिमूढता (वि०) अतिमुग्धता, अत्यधिक आसक्ति। (जयो०
अभिभावक। १५/९५)
परिरक्षणं (नपुं०) [परि+रक्ष ल्युट्] ०रक्षा, संरक्षण, विशेष परिमृज् (सक०) साफ करना, मांजना, प्रक्षालन करना। देखभाल। परिमृदित (भू०क०कृ०) [परि+मुद्+क्त] ०पददलित, कुचला ०ध्यान रखना, पालन-पोषण करना, बनाये रखना। हुआ, मर्दित, रोंधा गया।
०संधारण, सम्भालना। आलिंगित।
परिरक्षा (स्त्री०) [परिरक्ष्। अङ्कटाप्] ०रक्षा, देख-भाल, ०व्यवहारग्रस्त।
सम्हाल। परिमृष्ट (भू०क०कृ०) [परि+मृज्+क्त] प्रक्षालित किया, ०ध्यान केंद्रित करना, पोषण करना। स्वच्छ किया, साफ किया गया।
परिरथ्या (स्त्री०) गली, छोटा रास्ता। ०स्पर्शित, आलिंगित।
परिरब्धः (वि०) धारण किए हुए। परितः समन्ता द्रव्यः। ०व्याप्त, हुआ, भरा हुआ।
परिरंभः (पुं०) [परि+र+घञ्] ०आलिंगन करना, गले परिमेय (वि०) [परि+मा+यत्] थोड़े, सीमित, अल्प।
लगाना। समालिगेन। (जयो० १०/६४) मापा जा सके।
परिरभणं (नपुं०) आलिंगन करना। परस्परा समालिंग। ०सान्त, समापिका।
(जयो० १७/८६) परिमोक्षः (पुं०) [परि+मोक्ष्+घञ्] मुक्त करना, स्वतन्त्र परिरम्भित (वि०) समालिंगित। (जयो० २४/५९) करना।
परिराटिन (वि०) [परि+रट्+धिनुण] रट लगाने वाला, चिल्लाने ०छुड़ाना, हटाना, दूर करना।
वाला। मोक्ष, मुक्ति, निर्वाण।
परिलघु (वि०) ०बहुत छोटा। परिमोक्षणं (नपुं०) [परि+मोक्ष ल्युट्] मुक्ति, मोक्ष, निर्वाण। ०बहुत हल्का । छूटना, छुटकारा मिलना।
०शीघ्र पचनशील। ०परित्याग करना।
परिलुप्त (भू०क०कृ०) [परि+लुप्+क्त] नष्ट, विलुप्त, परिमोषः (पुं०) [परि+मुष्+घञ्] चोरी, स्तेय।
विछिन्न। लूटना, चुराना, हरण करना, खींच लेना।
०अन्तर्बाधित, सबाध। परिमोषिन् (पुं०) [परि+मुष्+घञ्] ०चोर लुटेरा।
परिलेखः (पुं०) [परि+लिख+घञ] ०आलेखन, चित्रण, परिमोहनं (नपुं०) प्रलोभन देना।
विवेचन। लुभाना, आसक्त करना, खींचना।
०रूपरेखा, पूर्वचित्रण। ०मन्त्रमुग्ध करना, मोहित करना मुग्ध करना, आकर्षित | परिलोपः (पुं०) [परि+लुप्+घञ्] ०क्षति, हानि, विलुप्ति। करना, प्रेमासक्त करना।
उपेक्षा, अभाव, शून्य, रहित। परिमोहिन् (वि०) आलस्यकारी। (जयो०७/१०५)
परिवत्सरः (पुं०) वर्ष, एक वर्ष, वर्ष पर्यन्त। परिम्लान (भू०क०कृ०) [परिम्ला+क्त]० श्रान्त, शिथिल, | परिवर्जनं (नपुं०) [परि+वृज्+ल्युट्] ०त्यागना, छोड़ना। थका हुआ।
विसर्जन करना, बहाना।
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परिवर्तः
६१९
परिवार-सहित
तिलाञ्जलि देना।
०वध, हत्या। परिवर्तः (पुं०) [परि+वृत्+घञ्] ०घूमना, परिभ्रमण करना,
चक्कर लगाना। ०परावर्तन, आवतन, परिवर्तन। (सम्य० ४७)
०कालचक्र, कालगति। परिवर्तक (वि०) [परि+वृत्+क्त] परिवर्तन करने वाले।
(जयो० २/७९) ० घुमाने वाला, चक्कर देने वाला।
०वापिस लेने वाला। परिवर्तनं (नपुं०) पर्यटन, परिभ्रमण,
हिंडन, इधर-उधर जाना, घूमना। ०अभ्यसन, गुणन, परिशीलन। ०चक्कर काटना, चकराना।
क्रान्तिकाल, चक्र का अन्त।
०अदला-बदली, विनिमय। परिवर्तमान (वि०) ०बदला हुआ। परिभ्रमण करता हुआ। परिवर्तिका (स्त्री०) रूपान्तरित। परिवर्तिता (स्त्री०) रूपान्तरिता। (जयो० २४/११) परिवर्तिन् (वि०) [परि+वृत्+णिनि] प्रत्यावर्ती, परिवर्तन, चक्कर
लगाने वाला। ०परिभ्रमण करने वाला।
०अदला-बदली। परिवर्धनं (नपुं०) [परि+वृध्+ल्युट्] ०संवर्धन, बढ़ना।
पालन-पोषण करना। ०प्रत्यावर्ती, पलायन।
विस्तृत होना। बड़ा होना। परिवर्धिष्णु (वि०) वर्धनशीलता। (जयो० २६/९) परिवर्द्धक (वि०) बढ़ाने वाला। (समु० ३/३) विधुः कलाभिः |
परिवर्द्धकः सन्। परिवर्द्धनं (नपुं०) बढ़ाना। (जयो०वृ०१२/५१) परिवर्द्धमान (वि०) जृम्भित, बढ़ते हुए। (जयो०वृ० १४/१८) परिसद् (अक०) निन्दा करना। (जयो० ९/१०) परिवसथः (पुं०) [परितो वसन्ति अत्र परि+वस्+अथ] गांव,
परिवादकः (पुं०) [परि+वद्+णिच् ल्युट] ०वादी, प्रतिवादी,
प्रतिपक्षी।
दोषारोपक। परिवादघाटी (वि.) लोकापवाद को घटित करने वाला।
परिवादस्तस्य घाटी घटयित्री। (जयो० १५/२७) परिवादसमा युक्त (वि०) लोकापवाद युक्त। परिवादहर (वि०) निन्दापहरणकर। (जयो० १२/१४५) परिवादिन् (वि०) [परि+वद्+णिनि] निन्दा करने वाला, गाली
देने वाला, दोषारोपण करने वाला। चिल्लाने वाला, चीखने वाला।
निन्दित, अपमामित, कलंकित। परिवाद्यक (वि०) वाद्यवादन। (जयो० ५/७०) परिवापः (पुं०) [परि+वप्+घञ्] मुंडन, बाल काटना।
बोना, बीज डालना। जलाशय, पल्वल, पोखर, जोहड़। ०सामान।
०भृत्यवर्ग, अनुचर समूह। परिवापित (वि०) [परि+वप्+घञ्] मुंडित, बाल कटा
हुआ।
०बोया हुआ। परिवारः (पुं०) [परिव्रियते अनेन-परि+व+घञ्]
० भृत्य वर्ग, अनुचर वर्ग। ०अनुयायी, अनुगामी। ०ढक्कन, चादर, आवरण।
म्यात, कोष, खजाना। ०सजाति समूह (जयो० ५/३)
परिजन, कुटुम्बीजन। (जयो० ६/२७) परिवारणं (नपुं०) [परि+वृ+णिच्+ ल्युट्] ०आवरण,
०चादर। ०अनुचरवर्ग।
०कुटुम्बी जन, परिजन, परिवार के सदस्य। परिवारिणी (वि०) ले जाने वाली। 'परिगतं वारि नयति
धारयतीति' (जयो० ३/८)
०दूर करना, अलग करना, पृथक् करना। परिवारपूर्णः (पुं०) परिजनों से परिपूर्ण। (वीरो० ९/३१) परिवारसमायुक्त (वि०) परिवार के त्यागी जनों से युक्त।
(सुद० ४/३) परिवार-सहित (वि०) परिवार सहित, परिजन सहित। (जयो०
१२/४२) सुकुटुम्ब युक्त।
ग्राम।
|
परिवहः (पुं०) [परिवह्+अच्] बहना, प्रवाहित होना। परिवादः (पुं०) [परि वद्+घञ्] * गाली, निंदा, अपमान, कलंक।
विपरीत प्रवर्तना। दोषारोपण करना, दोषी ठहराना।
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परिवारि
६२०
परिवेष्टित
परिवारि (वि०) कुटुम्बी, परिवार के सदस्य गण। (जयो०१२/३३) परिवारिसम्पदा (स्त्री०) कुटुम्बियों का सम्पर्क। परिवारिणां
पितृ-पुत्रादीनां सम्पत् संपर्क: परिचयो वा। (जयो०१०२१/६८) परिवारित (भू०क०कृ०) [परि+वृ+णिच्+क्त] अभियुक्त।
(जयो०वृ० ५/५८) ०परिवेष्टित, घेरा हुआ, लपेटा हुआ। (वीरो० ७/२२) ०अभिसिंचित। प्रभुरेष गभीरताविधेः स च तन्वा परिवारितोऽब्निधेः।। (वीरो० ७/२२) ० लिटाना, उठाना-सोपाहरत्तं शयने तु
राज्ञया यथा तदीया परिवारिताऽऽज्ञा।। (सुद० ९९) परिवारिलोकः (पुं०) परिजन, परिवार के सदस्य। (दयो०
३७) सम्पूर्ण गृहीजन। परिवासः (पुं०) [परि+वस्+घञ्] आवास स्थान, निवास
स्थान, पड़ाव, प्रवास, बसेरा, टिकना, रहना। परिवाहः (पुं०) [परि+व+घञ्] सरोवर, झील। परिवाह्नि (वि०) [परि+व+णिनि] तरंगित, हिलोरित, उछलता
हुआ। परिविण्णः (पुं०) [परि+विद्+क्त] अविवाहित भाई। परिविद्धः (पुं०) [परि+व्यध्+क्त] कुबेर। परिविंदकः (पुं०) [परि+विद्+ण्वुल] अविवाहित भाई। परिविशुद्धिः (स्त्री०) अति पवित्रता। भस्म-वह्रि -समयाम्बु
गोमयानैर्जुगुटस्य-सुसमीरणाशयाः। ऐहिकव्यवहतै तु
संविधाकारिणी परि विशुद्धिरष्टधा।। (जयो० २/७६) परिविहारः (पुं०) [परितो विहार:] हिंडन, परिभ्रमण, इधर-उधर
पर्यटन। परिविह्वल (वि०) अत्यन्त व्याकुल, क्षुब्ध, घबड़ाया हुआ। परिवूढः (पुं०) [परि+वृंह+क्त] प्रभु. स्वामी प्रमुख, प्रधान,
मुख्य। परिवृत (भू०क०कृ०) [परि+वृ+क्त] घिरा हुआ, परिवेष्टित,
सेवित। ०प्रच्छन्न, गुप्त व्याप्त, फैला हुआ।
०ज्ञात, परिज्ञात, जानता हुआ। परिवृत्त (भू०क०कृ०) [परि+वृत्+क्त] प्रत्यावर्तित, पीछे
मुड़ा हुआ। ०घुमा हुआ, मोड़ा हुआ। विनिमय किया हुआ, अदला-बदली युक्त।
अन्त को प्राप्त हुआ, समाप्त हुआ। परिवृत्तिः (स्त्री०) [परि वृत्+क्तिन्] ०लौटना, वापस आना। |
विनिमय, अदला-बदली। अन्त, समाप्ति। घेरा, परिधि।
रहना, बसना। परिवृत्त्यलङ्कारः (पुं०) एक अलंकार, जिसमें दो की जगह
चार को लौटाया जाता। हारं हृदोऽनुकूलं स समवाप्य महाशयः। जयः समादरात्त स्मायुपहारं वितीर्णवान्।। (जयो० ३/९४) लघुनोपहारीकृतं वस्तुजातमेव वर्धयित्वा प्रत्युपहरन्ति महान्त इति रीतिस्तथैव जयोऽपि हारमवाप्य उपहारं
दत्तवानित्याशयः। (जयो०वृ० ३/९४) परिवद्धिः (स्त्री०) संवर्धन, उन्नति, विकास। द्विगुणीकृत।
(जयो० १४/९२) परिवद्धिमितो दरा हि ता
सुलसद्धारपयोधराञ्चिताम्। (सुद० २/५०) परिवेत्तु (पुं०) परिवेदक, विवाहित छोटा भाई। परिवेदनं (नपुं०) [परि+विद्+ल्युट्] ०अधिग्रहण, उपलब्धि। ०सर्वव्याप्ति, विश्वव्यापी।
विवाह, पाणिग्रहण। परिवेदना (स्त्री०) बुद्धिमानी, समझदारी, बुद्धिमत्ता, दूरदर्शिता। परिवेदनीया (स्त्री०) [परि+विद्+अनीयर्+टाप्] बुद्धिमत्ता,
दूरदर्शिता। परिवेशः (पुं०) [परि+विश्+घञ्] मण्डल, चक्र वृत्त।
प्रतिबिम्ब, प्रति रक्षा।
भोजन परोसना। परिवेषकः (पुं०) भोजन परोसने वाला। परिवेषणं (नपुं०) भोजन परोसना, प्रस्तुत रहना, वितरण करना। ०लपेटना, घेरना।
सूर्यमण्डल, चन्द्रमण्डल।
०परिधि, वृत्त। परिवेषता (वि०) प्रतिबिम्बित। (दयो०४) परिवेषिक (वि०) कहने वाली। (जयो० १२/१३०) परिवेषिका (स्त्री०) युवती, यौवना। 'कयापि परिवेषिकया'
(जयो० ७१/१३४) परिवेष्ट् (सक०) घेरना, लपेटना। नो चेत्तत्परिवेष्टियेदपि पुनः
स्वाध्यायनाम्नाऽमुना। (मुनि० २७) परिवेष्टनं (नपुं०) [परि+वेष्ट्+ल्युट] घेरना, लपेटना।
०परिधि, वृत्त, घेरा, बाढ़।
०ढक्कन, आवरण। परिवेष्टित (वि०) घिरे हुए, लिपटे हए। उद्गारैः परिवेष्टितोऽवनि
रुहेपूर्णायुवत्स्वावशे'। (मुनि० २०)
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परिवेष्ट्ठः
६२१
परिष्वक्त
परिवेष्ट्ठः (पुं०) [परि+वेष्ट्+तृच्] सेवा करना, परोसना। परिव्ययः (पुं०) मूल्य, कीमत, लागत। परिव्याधः (पुं०) [परि+व्यध्+ण] एक जाति, नरकुल। परिव्रज् (सक०) जाना, प्रवृत्ति करना। परिव्रजत्व (वि०) वैराग्य भाव। परिव्रज्या (स्त्री०) [परि+व्रज+क्यप्+टाप्] दीक्षा लेना, वैराग्य
धारण करना, संयमित होना, ०साधु बनना, साधना
करना। परिव्राजकः (पुं०) [परिव्रज्+ण्वुल्] परि समन्तात् पापवर्जनेन
व्रजति गच्छतीति परिव्राजकः। (जयो० ल० ६८४) परित्यज्य सर्वान् विषयभोगान् व्रजति। तपस्वी, त्यागी,
व्रती, सन्यासी। परिव्राजकता (वि०) सन्यासीपना। स्वर्ग गतोऽप्येत्य पुनर्द्विजत्वं
धृत्वा परिव्राजकतामतत्त्वम्। (वीरो० ११/९) परिव्रजेत -परिगमन करे। (सम्य० २२) परिव्याप्त (वि०) पांसुल, अधिक व्याप्त। (जयो० ३/४१) परिशातनाकृतिः (स्त्री०) संचय बिना निर्जरा करना। परिशाश्वत (वि०) उसी रूप बना रहना। परिशिष्टं (वि०) [परि+शिष्+क्त] छोड़ा हुआ, बचाया हुआ। परिशिष्टं (नपुं०) [परि+शील+ल्युट] अध्ययन, मनन,
अनुचिन्तन अनुशीलन। परिशुद्धिः (स्त्री०) पूर्ण विशुद्धि, दोष रहित। परिशुष्क (भू०क०कृ०) [परि+शुष्+क्त] सुखाया हुआ, तपाया
हुआ। परिशुष्कं (नपुं०) सूखा, रुक्ष। परिशुद्धिः (स्त्री०) शोधन। (जयो० २/१२२) परिशून्य (वि०) पूर्ण रिक्त, खाली।
०सर्वथा स्वतंत्र, नितान्त शून्य। परिशेष (वि०) अर्थापत्ति काल, अर्थ से, व्याज से, छल के
कारण। (जयो० २२/३४) परिशिष्ट। 'परिशेषान्न्यायात्
परोपकरणादेव' (जयो०० २४/१३२) परिशोध् (अक०) स्नान करना, नहाना, झटकारना। (जयो०
२१/६७, जयो० ४/८) परिशोधकारिणी (वि०) पाप हरण करने वाली। (जयो०७०
१३/५८) परिशोधनं (नपुं०) मलापहरण। (जयो० २।८१) परिशोषः (पुं०) [परि+शुष्+घञ्] सूखा, रुक्ष, रुखा। परिश्रमः (पुं०) [परि+श्रम्+घञ्] ०थकान, कष्ट, पीड़ा।
उद्योग, यत्न, प्रयत्न। (जयो० २/६१) ०परिभ्रान्त (जयो० ७०/३२)
०चेष्टा, गहन अध्ययन। परिश्रमस्पृक (पुं०) परिश्रान्त, थकान, उद्योग। (जयो० ११/७) परिश्रयः (पुं०) [परि+श्रि+अच्] ०सम्मिलन, सभा।
०शरण, आश्रय, आधार। परिश्रान्तः (पुं०) परिश्रम, उद्योग। परिश्रान्ति (स्त्री०) [परि+श्रम् क्तिन्] थकान, कष्ट, पीड़ा।
उद्योग, प्रयत्न, परिश्रम। परिश्लेषः (पुं०) [परि+श्लिष्+घञ्] आलिंगन, गले लगाना। परिषद् (स्त्री०) [परितः सीदति, परि+सद्+क्विप्] सभा,
सम्मिलन। (जयो० ५/३३) परिषदः (पुं०) [परि+सद्अच्] ०सदस्य, अधिकारी। परिषेकः (पुं०) [परि+सिच्+घञ्] छिड़कना, उड़ेलना, गीला
करना। परिषेचनं (नपुं०) [परि+सिच+ल्युट्]०छिड़कना, उड़ेलना,
गीला करना। ०अभिषेक करना।
आद्रीकरण। (जयो० २/९३) परिष्कण्ण (वि०) [परिस्किन्द्+क्त, णत्वं वा] परिपालित,
दूसरे द्वारा पाला। परिष्कंद (वि०) [परि+स्कन्द्+घञ्] परिपालित। परिष्कारः (पुं०) [परि कृ+घञ्] ०आभूषण, अलंकरण,
सजावट।
०दीक्षा संस्कार, पवित्रक्रिया। परिष्कृत (भू०क०कृ०) [परि+कृत्+क्त, सुट् षत्वम्] संसृष्ट,
संस्कारिता
अलंकृत, श्रृंगार, सजावट। परिष्टोमः (पुं०) [परि+स्तु+मन्] हाथी की झूल। आवरण,
आच्छादन। परिष्ठापनासंयमः (पुं०) वस्त्रादि के रखने में संयम रखना। परिष्पंदः (पुं०) [परि+स्पंद्+घञ्] ०अनुचर, भृत्य, नौकर
चाकर।
शृंगार, अलंकरण। धड़कन, स्पंदन।
संवर्धन, खाद्य सामग्री। परिष्वक्त (भू०क०कृ०) [परि+स्वं+क्त] ०परिरब्ध, आलिंगित,
समालिंगित।
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परिष्वंगः
परिष्वंगः (पुं० ) [ परिष्वंञ्+घञ्] ०स्पर्श, सम्पर्क, मेल। ० आलिंगन |
परिसंवत्सर (वि०) एक वर्ष का परिसंवत्सरः (पुं०) पूर्ण वर्ष ।
परिसंख्या (स्त्री०) [परि+सम्+ख्या-अब+टाप्] गणना, गिनती। ० योगफल, जोड़।
० विशेष विधि, विवरण स्पष्ट योग ।
० एक अलंकार विशेष यत्र साधारणं किशिदेकत्र प्रतिपाद्यते। अन्यत्र तन्निवृत्यै सा परिसंख्योच्यते यथा। (वाग्भट्टालंकार ११ / १४१ ) जिस अलंकार में किसी साधारण वस्तु का एक स्थान के अतिरिक्त अन्य स्थानों में निषेध करने के लिए उसी एक स्थान में ही वर्णन किया जाता है वह परिसंख्या अलंकार होता है।
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परिसंख्यात (भू०क० कृ० ) [ परिसंख्या ल्युट् ] ० गिना हुआ, योगकृत, ० निर्दिष्ट ।
परिसंख्यानं (नपुं० ) [ परि + संख्या + ल्युट् ] ०पूर्ण योग, गणना, गिनती।
० सही निर्देश |
परिसंचर (अक० ) प्रतिभासित होना (जयो० २६/१८) परिसंचर: (पुं० ) [परि+सम्+चर्+अच्] विश्व प्रलय का समय, पूर्ण संचरण, उचित संचार ।
परिसमापनं (नपुं० ) [ परि + सम् +अप् + ल्युट् ] समाप्त करना, पूर्ण करना, परिपूर्ण करना।
परिममाप्तिः (स्त्री० ) [ परि + सम् + आप् + क्तिन् ] पूर्ण करना,
समाप्त करना ।
परिसमूहनं (नपुं० ) [ परि + सम् + ऊह + ल्युट् ] एकत्र करना, संग्रह करना, एक जगह लाना, ढेर लगाना।
परिसर (पुं०) [परि+सु+घ] तट, किनारा, सामीप्य, आसपास, पड़ौस
० पर्यावरण।
०स्थिति, स्थल, स्थान।
० चौड़ाई।
० मृत्यु, मरण।
० नियम विधि।
2
परिसरणं (नपुं०) [परिसृल्युट्] परिभ्रमण, परिहिंडन, घूमना,
डोलना, मंडराना ।
● अनुसरण करना। ० फेरना।
६२२
परिहत
परिसर्प: (पुं० ) [परि+सृप+घञ् ] इधर-उधर घूमना, अनुसरण
करना।
परिसर्पणं (नपुं० ) [परि+सृप् + ल्युट् ] ० चलना, रेंगना, मंडराना, ०उड़ना, भागना, दौड़ना ।
परिसर्या (स्त्री०) [परि+सुयक्-टाप्] प्रदक्षिणा फेरी, घूमना,
फिरना।
परिस्थल (अक० ) परिस्तरणं (नपुं० ) बखेरना ।
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,
०
गिरना, व्यतीत होना। (वीरो० ९/२) [परिस्तृ+ ल्युट् ] ०फैलाना, बिछाना,
० आवरण, ढक्कन ।
परिस्पृश (वि०) छूना। (सुद०२ / ३२) परिस्फुट (वि०) व्यक्त, दृष्टिगोचर, झूला हुआ, बढ़ा हुआ। परिस्फुर् (अक० ) कपकपाना, थर्राना। फैलाना (जयो०१४/१५) परिस्फुरत्तारकता (वि०) कपकपाहट, थरथराहटता (बौरो० २१/२)
परिस्फुरणं (नपुं० ) [परि+स्फुर् + ल्युट् ] कंपकंपी, थरथराना । परिस्यंदः (पुं० ) [ परि + स्यन्द्+घञ् ] ०रिसना, ०टपकना, ० बूंद-बूंद गिरना ।
०धारा, प्रवाह, बहाव |
परिस्थितिः (स्त्री० ) प्रशंसा, गुणगान । अहो दानमहो दाताऽहो पात्रस्य परिस्थिति (दयो० ११७)
परिस्रवः (पुं० ) [ परिसु+अप्] ०बहना, बहाव, रिसना। ● झरना, निर्झर
०
।
०नदी, सरिता
० सरकना ।
परिस्राव (पुं०) [परि+खु णिच्+अच्] निकास निस्राव,
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० आरक्षण, गुप्त रखना।
०छूट छुटकारा,
० तिरस्कार, अनादर ।
० आपत्ति, परिवर्जन, विवर्जन
बहाव |
परिस्रुत् (स्त्री०) [परिस्रु क्विप् तुक् ] ०रिसना, बहना, टपकना ।
परिस्रुताश्रु (वि०) विनिर्गता, निकले हुए आंसू (दयो० १३ / १०) परिस्रुतैर्विनिर्गतैरश्रुभिः सार्धम्'
परिहत ( वि० ) [ परि + ह्र+घञ् ] ०त्यागना, निवारण करना, छोड़ना (समु० १ / १० )
० तिलाञ्जलि करना, निराकरण करना।
J
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परिहारनीति
६२३
परुः
परिहारनीति (स्त्री०) हीनता, कमी, क्षीण होना। परिहार्य (वि०) [परि+ह+घञ्] निधारित, रोका गया, बचने योग्य। परिहर्ता (वि०) परिवर्जन करने वाला। (जयो० २३/४५) परिहारविशुद्धिः (स्त्री०) प्राणिवध निवृत्ति, अनुपम त्याग
प्रवृत्ति। परिहारेण विशिष्टा शुद्धिर्यस्मिह तत्परिहार विशुद्धि चारित्रम्' (त०वा० ५/१८) परिहार प्रधानः शुद्धि संयतः
परिहार विशुद्धि संयतः। परिहारिक (वि०) परिहार करने वाला, त्याग करने वाला। परिहासः (पुं०) [परि+हस्+घञ्] हंसी, मखौल, उपहास।
(जयो० १६/५२) परिहासवच् (नपुं०) श्लिष्ट शब्दोच्चारण। (जयो० १२/११०) परिहासिहिन् (वि०) हंसी उड़ाने वाला। (जयो० २/१०२) नैव
वर्त्मपरिहासिणे ददात्युद्धताय तु कदात्मने कदा। (जयो०
२/१०२) परिह (सक०) छोड़ना, त्यागना, विसर्जन, करना, निवारण करना।
इटानिष्टविकल्पानां परिहरेच्चकिञ्चनत्वाप्तये। (मुनि० ४) प्राणाधार भवांस्तु मां परिहरेत्सम्वाञ्छया निर्वृत्तेः। (सुद०
११३) परिहृत (भू०क०कृ०) धुत, नष्ट किया, छोड़ा गया, परित्यक्त
(जयो०वृ० १/९५) निराकृत, अपास्त, पकड़ा हुआ। परिहीणः (पुं०) तुच्छ, पपित, गिरा हुआ। ०कमजोर। (समु०
परीक्षित् (पुं०) [परि+क्षि+क्विप्] परीक्षण। परीक्षित (भू०क०कृ०) [परि+ईश्+क्त] जांच किया गया
जांचा गया, परखा गया। सम्बोधित। परीक्षितुं (सं०कृ०) परीक्षा करके, जांच करके। परीत (भू०क०कृ०) [परि। इ+क्त] ०वेष्टित, परिवेष्टित (जयो०
५३१) घिरा हुआ, पर्यावृत आच्छादित। •समाप्त हुआ, बीता हुआ। विगत, व्यतीत। पकड़ा गया, धारण किया गया। 'परि समन्तादितं वेष्टितं'
(जयो०७० २४) परीतसंसारः (पुं०) परिमित संसार। परीतत् (स्त्री०) आंत, अन्न। विपिनस्य परीतदुत्करा इव
वृद्धस्य विनिर्गता, इतः। (जयो० १३/४५) परीतापः (पुं०) परिताप, सन्ताप। परीतिः (स्त्री०) पराजय। जीतिरेव च परीतिरेव वा तस्य ते च
तुलना कुतोऽथवा। (जयो० ७/६८) परीतिकृत् (वि०) प्राणहारक। (जयो० ७/७८) परीत्य (सं०कृ०) प्रदक्षिणकृत्य, प्रदक्षिणा करके। (जयो० १/१) परीप्सा (स्त्री०) [परि+आप+सन्+अ+टाप] प्राप्त करने की
इच्छा, वाञ्छा, चाह।
०शीघ्र। परीरं (नपुं०) [पृ+ईरन्] एक पल। परीरणं (नपुं०) [परि+ई+ल्युट] ०कच्छप, कूर्म, कछुवा।
०छड़ी।
०वेशभूषा। परीरभ्य (वि०) समालिंगन। परी सर्वोत्तमसुन्दरी तस्याः परीरभ्भे
समालिंगने परः संलग्नः (जयो०वृ० २४/५९) परीरम्भपर (वि०) आलिंगन में संलग्न। 'परीरम्भपरे आलिंगन
संलग्ने (जयो १७/७५) परीरम्भे समालिंगने परः संलग्नः। परीषहः (०) पीड़ा, कष्ट, बाधा, उपसर्ग। परीति समन्तात्
स्वहेतुभिरुदीरिता मार्गच्यवननिर्जरार्थं साध्वादिभिः सह्यन्त
इति परीषहाः' (जैन०ल०६८४) परीषहजयः (पुं०) परीषहों को जीतना। 'मार्गाच्यवन निर्जरार्थं
परिसोढव्याः परीषहाः' (त०सू० ९/८) परुः (पुं०) [पृ+उ] जोड़, ग्रन्थि, गांठ, सन्धि, मेल।
०अवयव, अंग। समुद्र, स्वर्ग, पर्वत।
परी (स्त्री०) परी, अत्यन्त सुन्दर स्त्री।
मितामरीभिर्मधुराधरीभिर्या वागयावा सदने परीभिः। (जयो०
२७/१९) सर्वोत्तमसुन्दरी (जयो० २४/५९) परीक्ष (अक०) [परि+ईक्ष] परीक्षा करना, निरीक्षण करने
करना, परीक्षण करना।
न्याय करना। परीक्षक (वि०) [परि+ईश्+ण्वुल] परीक्षा लेने वाल, निरीक्षण
करने वाला। न्याय करने वाला। परीक्षणं (नपुं०) पान करना। (समु० ४/१०) 'परस्परप्रेम
सुधापरीक्षण:' समावभौ दाशरथिः सलक्ष्मणः। (समु० ४/१०)
परीक्षा करना, मान करना। देवदानव-बलायितकस्य
स्यात्परीक्षणमहो किल कस्य। (जयो० ४/८) परीक्षा (स्त्री०) परीक्षा, जांच, परख, मान, सम्मान, वीक्षा।
(वीरो० ५/४) प्रर्वमनो विचार: परीक्षा। परीक्षामुखः (पुं०) माणिक्यनन्दि विरचित सूत्र शैली बद्ध
न्यायशास्त्र।
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परुत
६२४
पर्णखंडः
परुत (अव्य०) [पूर्वस्मिन वत्सरे इति पूर्वस्य परभावः उल् । परोक्षः (पुं०) सन्यासी। च] गर्त वर्ष, पिछला साल।
परोक्षं (नपुं०) अगोचर। परुद्धारः (पुं०) अश्व, घोड़ा।
परोक्षदृष्टि (स्त्री०) मूर्त-अमूर्त, चेतन-अचेतन को भली परुषः (पुं०) [पृ+उषन्] कठोर, कठिन, रुखा, सख्त, कड़ा। प्रकार न देखना, अस्पष्ट दृष्टि, अगोचर दृष्टि, अविशद् (जयो० ६/६७)
दृष्टि। ०खुरदुरा, कर्कश।
परोक्षवृत्तिः (स्त्री०) अज्ञात जीवन, अदृष्ट जीवन। गुप्त चर्या। तीक्ष्ण, प्रचण्ड।
परोद्धर्तयितुं (तुमुन्०) उपटन करने के लिए। (वीरो० ५/१०) ०ठोस, गाढा।
परोत्कर्षः (पुं०) दूरे का उत्कर्ष, अन्य लोगों का विकास। मलिन, मैला।
परोत्कर्षसहिष्णुत्वं। (सुद० ४/४२) परुषं (नपुं०) अपभाषण, दुर्वचन, कुवाणी। परुषं वृक्षं स्नेहरहितं | परोत्सृष्ट (वि०) त्यागने वाला, देने वाला द्वित्रैर्भक्त्या परोत्सृष्टं, निष्ठुरं पर पीडाकारी।
दिनै रन्वेषिने यथा। (समु० ९/१०) परुषदोषः (पुं०) पर गण में जाना। अतिदोष।
परोपकृत् (पुं०) परोपकार, दूसरे की भलाई। परुषवचनं (नपुं०) अपभाषण, दुर्वचन। ०कठोर/कर्कशवाणी। परोपकरण (वि०) परोपकारी। (सुद० १००) परुस् (नपुं०) [पृ+उस्] सन्धि, ग्रन्थि, जोड़, गांठ।
परोपकारः (पुं०) दूसरे का उपकार, दूसरे पर अनुग्रहबुद्धि, अवयव
अन्य के प्रति भलाई का भाव। (जयो० २/९९) परेत् (भू०क०कृ०) [पर+इ+त] दिवंगत, मृत।
परेषां सर्वसाधारणानामुपकारो हितसाधनं तस्यैकः। परेतभतृ (पुं०) यमराज, यमदेव।
(जयो०वृ० १/८६) परेतभूमिः (स्त्री०) श्मशान, मशान, मृत्यु स्थल।
०परेषां प्राणिनामनुग्रह एव। (जयो० वृ० १/१२) परेतरपान्तः (पुं०) शव शिविका। (जयो० २५/४७)
परस्यायनुग्रहबुद्धिः । (वीरो० १/३३) परेराज (पुं०) यमराज, यमदेव।
परोपकारेण सुरश्रियः स। (वीरो० १४/२७) परेतवासः (पुं०) श्मशान, मशान।
परोपरोधकरणं (नपुं०) दूसरे के ठहरने में बाधक न होना। परेद्यवि (अव्य०) [परस्मिन् अहनि] दूसरे दिन, अन्य दिन। परेषामुपरोधाकरणम्। परेयुः (अव्य०) अन्य दिवस।
०सूत्र विशारद, स्वामी की आज्ञा बिना वहां न ठहरना। परेष्टुः (पुं०) [पर+इष्+तु] कई बार ब्याई हुई गाय, अनेक परोष्टिः (स्त्री०) [पर+उप्+क्तिन्] तिलचट्टा। बार वत्स देने वाली गाय।
पर्जन्यः (पुं०) [पृष्+शन्य नि-षकारस्य जकार:] ०बरसने परोक्ष (वि०) [अक्ष्णः परम] अगोचर
वाले मेघ, गरजने वाले बादल। गुप्त, अज्ञाप्त, अपरिचित।
०बारिश, बरसात। नहीं दिखाई देने वाला।
०इन्द्र। इन्द्रिय और मन का कारण-'इन्द्रिय-मनोनिमित्तं विज्ञानं | पर्ण (सक०) पत्रों के युक्त करना, हराभरा करना। परोक्षम्'
पण (नपुं०) [पर्ण+अच्] वृक्ष के पत्र। ०इन्द्रिय से सम्बन्धित ज्ञान। परैः इन्द्रियैरक्षा-सम्बन्धनं ०पंख। यस्य ज्ञानस्य तत्परोक्षम्'
बाण का पंख। ०पराणीन्द्रियाणि आलोकादिश्च परेषामायत्तं ज्ञानं परोक्षम्'
पत्ता, पत्र। (जयो० ८/४१) (धव १३/२१२)
पर्णः (पुं०) ढाक का वृक्ष। ०अविशद प्रतिभास, अस्पष्ट आभास। 'अविशद प्रतिभासं पर्णकुटिका (स्त्री०) पत्तों से निर्मित कुटिया, झोपड़ी। परोक्षम् (न्याय दी० ५१) अविशदं परोक्षम् अस्पष्टं पर्णकुटी (स्त्री०) झोपड़ी, घास-फूस की झोपड़ी। परोक्षम्। यदिन्द्रियाद्यैरूपजायमानं परोक्षमर्थाद्भवतीह मानम्। पर्णकृच्छः (पुं०) प्रायश्चित का साधन। (वीरो० २०/२१)
पर्णखंडः (पुं०) पत्तों का ढेर।
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पर्णचोरकः
६२५
पर्यश्रु
पर्णचोरकः (पुं०) सुगन्धित द्रव्य। पर्णभोजनः (पुं०) बकरी। पर्णमेदिनी (स्त्री०) प्रियंगुलता। पर्णमुच् (पुं०) शिशिर ऋतु, सर्दी का समय। पर्णमृगः (पुं०) जंगली पशु, वृक्ष की शाखाओं पर रहने
वाला पशु। पर्णल (वि०) [पर्ण+लच्] पत्तों वाला, पत्तों से युक्त। पर्णलता (स्त्री०) पान की बेल। पर्णरुह् (पुं०) बसंत ऋतु, पान की बेल। पर्णवीटिका (स्त्री०) पान का बीड़ा, पान की गिलोड़ी। पर्णशाला (स्त्री०) झोंपड़ी, पत्तों से निर्मित झोंपड़ी। पर्णसिः (नपुं०) जल भवन, ग्रीष्म भवन, कमल,
शाक-भाजी। ०सजावट, प्रसाधन, श्रृंगार साधन। पर्णिन् (पुं०) [पर्ण इनि] रुख, वृक्ष, पेड़, पादप। पर्णिल (वि०) [पर्ण+इलच्] पत्तों से युक्त, पत्रावली से
परिपूर्ण। पर्द (सक०) पैर मारना, अपान, करना, वायु छोड़ना। पर्दः (पुं०) [प। अच्] केश समूह, घने बाल।
०पाद, अपान वायु। पर्पः (पृ+प) पंगु गाड़ी, पंगु पीठ। घर, गृह। पर्परीकः (पुं०) [पृ+ईकन] सूर्य,
अग्नि, आग, तेज।
०जलाशय, तालाब। पर्यक् (अव्य०) [परि+अंच्+क्विप्] चारों ओर, सभी दिशाओं में। पर्यंकः (पुं०) [परिगत, अंकम्] ०पलंग, खाट, शय्या, आसन।
(दयो०८९)
योगासन, वीरासन, विशेष। पर्यङ्कासनं (नपुं०) वीरासन, दोनों जंघाओं के नीचे के भाग
को पांवों के ऊपर करके नाभि के पास वाम हथेली के
ऊपर दक्षिण हथेली के रखने पर पर्यंकासन होता है। पर्यंकबन्धः (पुं०) पद्मासन पर बैठना। पर्यकभोगिन् (पुं०) सर्प विशेष। पर्यट (अक०) घूमना, परिभ्रमण करना। पर्यटः (पुं०) विहार, भ्रमण। (वीरो० १५/१) पर्यटनं (नपुं०) [परि+अट्+ल्युट्] ०परिभ्रमण, देशाटन, यात्रा।
भ्रम, भ्रमण। (जयो० ३/११३) हिंडन, इधर-उधर, गमन।
पर्यटनार्थ (वि०) भ्रमणार्थ, देशाटनार्थ। (समु० २/२१, २७) पर्यटन्त (वि०) भ्रमण करने वाला, घूमने वला। (जयो०
११/७४) पर्यटन्तो पर्यटन्ती। (जयो०वृ० १/२०) पर्यनुयोगः (पुं०) [परि+अनु+युज्+घञ्] पर्यालोचन, दूषणार्थ
जिज्ञासा। पर्यंत (वि०) सीमा तक फैला हुआ। अंगीकृता अप्यमुना
शुभेन पर्यन्तसम्पत्तरुणोत्तमेन। (सुद० १/१८)
प्रान्त भाग। (जयो० ३/४७) पर्यन्ततः (अव्य०) चारों ओर। अभितः (जयो० १/५८) पर्यन्तता (अव्य०) समीपवर्ती। (सुद० २/२६) पर्यंतदेशः (पुं०) जुड़ी ही सीमा, सीमा से लगा हुआ देश। पर्यंतभू (स्त्री०) सीमा वाला प्रदेश, सीमापर्ती भू-भाग। पर्यंतिका (स्त्री०) भ्रष्टाचार। पर्ययः (पुं०) पतन, निःश्वास। ०बदला, समय समाप्त होना।
परिवर्तन, अनियमितता। ०अव्यवस्था।
अतिक्रमण, अवहेलना। विरोध। ०पर्याय-भवान्तर, संज्ञान्तर-'परिभेदमेति गच्छतीति पर्यायः'।
उत्पाद और व्यय रूप अवस्था (वीरो० १९/१८) द्रव्यं तदेतद् सामान्य गुणपर्ययाभ्यां यद्वाऽत्र सामान्य
विशेषताऽऽभ्याम्। (वीरो० १९/१८) पर्ययणं (नपुं०) [परि+अय्+ल्युट्] प्रदक्षिणा, परिवर्तन,
परिभ्रमण, चक्कर, एक से दूसरी ओर गमन।
घोड़े की जीन। पर्यवदात (वि०) पूरी तरह शुद्ध, पवित्र। पर्यवरोधः (पुं०) विघ्न, बाधा, कठिनाई। पर्यवसानं (नपुं०) अन्त, समाप्ति।
उपसंहार।
निर्धारण, निश्चय करना। पर्यवसित (भू०क०कृ०) [परि+अव्+सो+क्त] समाप्त किया
गण, नष्ट किया गया। निर्धारित, उपसंहरित, समेटा गया।
नष्ट, क्षय, नाश, समाप्त। पर्यवस्था (स्त्री०) [परि+अव्+स्था+अड्+टाप्] ०विरोध, विघ्न,
बाधा, प्रतिरोध। पर्यश्रु (वि०) अश्रुपरिपूरित, अश्रुयुक्त, आंसुओं से भरा हुआ।
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पर्यसनं
६२६
पर्यायरूपः
पर्यसनं (नपुं०) [परि+अस्+ल्युट्] ०फेंकना, छोड़ना, बाहर
करना। निकालना, भेजना करना।
०भेज देना, स्थगित करना। पर्यस्त (भू०क०कृ०) [परि+अस्+क्त] फेंका गया, विकीर्ण
किया गया। ०पदच्युत।
०प्रहार किया गया। पर्यस्तिः (स्त्री०) [परि+अस्+क्तिन्] ०पर्यंकासन, ०वीरासन
०शय्या, आसन, पलंग। पर्याकुल (वि.) मैल, गंदा, दूषित।
अव्यवस्थित, उद्विग्न। ०भयभीत, भयाक्रान्त, आकुलता युक्त।
उत्तेजित, घबराया हुआ, क्षुब्ध। पर्याणं (नपुं०) [परि+या+ल्युट्] जीन, काठी। पर्याय: (पुं०) ग्राहक, क्रेता। (जयो० १३/८७) पर्यापतति (स्त्री०) ग्राहक, क्रेता समूह। (जयो० १३/७८) पर्याप्त (भू०क०कृ०) [परि+अप्+क्त] ०परिपूर्ण, सम्पन्न,
भरा हुआ, पूर्ण, समस्त, पारा, समग्र। योग्य, सक्षम, यथेष्ट, यथोचित।
प्राप्त किया हुआ, उपलब्ध। पर्याप्तं (अव्य०) ०तत्परता से, स्वेच्छापूर्वक, संतोष, यथेष्ट,
पूरी तरह सक्षमता के साथ। पर्याप्तः (पुं०) अपनी जाति के योग्य पर्याप्तियों को प्राप्त।
०कर्मोदय से युक्त 'पज्जत्तणामकम्मोदयवंतो जीवा पज्जत्ता'। (धव० ३/४/९)
स्व जात्युचितपर्याप्तिलब्धि योग्याः। ०पर्याप्त कर्मोदयवन्तः पर्याप्तः। पर्याप्तकः (पुं०) कर्मोदय युक्त, पर्याप्तियों को प्राप्त। 'प्रर्याप्तनाम
कर्मोदयवर्तिनः पर्याप्ताः ये हि चतनः स्व पर्याप्ती पूरयन्तीति
(जैन०ल० ६८९) पर्याप्तनामः (पुं०) इन्द्रियादि की उत्पत्ति। जिसके उदय से
एकेन्द्रिय विलेन्द्रिय और संज्ञी पंचेद्रिय जीवों के यथायोग्य
पर्याप्तियां होती हैं। पर्याप्ताभाषा (स्त्री०) व्यवहार की साधन भूत भाषा, वाक्शुद्धि
पूर्ण भाषा। पज्जत्तिगा णाम जा अववहारेतुं सक्कइ जहा
सच्चा मोसा वा एसा पज्जत्तिगा। (जै०ल० ६८९) पर्याप्तिः (स्त्री०) [परि+आप+क्तिन्] ०प्राप्त करना, स्वीकार
करना, अधिग्रहण करना।
अन्त, उपसंहार, समाप्ति। ०पूर्णता, यथेष्टता। तृप्ति, संतोष। साधारण। ०सक्षमता, उपयुक्तता। क्रिया परिसमाप्ति। अपनी क्रिया की समाप्ति। उपचय से उत्पन्न स्थिति। शक्तियों की उत्पत्ति का कारण। 'यतो हि शरीरेन्द्रियादि निष्पत्तिः सा पर्याप्तिः' (न्यायकुमुदचन्द्र पृ० ८५२)
आहारकादि की सम्पूर्णता-पर्याप्तीराहरादिकारणसम्पूर्णताः (मूला०वृ० १२/१) ०सम्पूर्णता का कारण। ०स्व विषय ग्रहण का सामर्थ्य।
आत्मशक्ति विशेष। पर्याप्तिनामकर्मः (पुं०) पर्याप्तियों का उत्पादक कर्म
आहारादि पर्याप्तियों की रचना। पर्याप्तोच्च (वि०) अमितोन्नत। (जयो० १३/६५) पूर्ण विकसित। पर्यायः (पुं०) [परि+३+घञ्] ०परिवर्तन, परावर्तन, परिभ्रमण।
एक अवस्था से दूसरी अवस्था को प्राप्त होना। परिभेदमेति गच्छतीति पर्यायः' ०हिंडन, चक्कर काटना, इधर-उधर घूमना। समाप्ति, पूर्णता, समग्रता। प्रणाली, व्यवस्था, पद्धति, दशा।
सृष्टि, निर्माण, रचना, उत्पत्ति। ०वस्तु गुण। ०अंश, भाग, हिस्सा।
उत्पाद-विनाशादि होना पर्याय 'पर्येत्युत्पाद विनाशौ प्राप्नोति पर्यायः' परि समन्तात् परिप्राप्नुवन्ति परिंगच्छन्ति ये ते पर्यायाः' (त०७० ५.५८)
गुणविकार। ०अनेकान्तात्मक वस्तु।
उत्पादहेतुक।
* अभिधान। (जयो०वृ०११/१४) क्रम भुवो विवर्ताः पर्यायाः। पर्यायच्छेदः (पुं०) पर्याय का उच्छेद, प्रायश्चित्त की क्रिया। पर्यायज्ञानं (नपुं०) वस्तु स्वभाव का ज्ञान।
समग्रता का बोध।
उत्पत्ति-विनाशादि का परिज्ञान। पर्यायरूपः (पुं०) वस्तु के प्रति समय बदलना। (वीरो०१९/२०)
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पर्यायलोकः
६२७
पलं
पर्यायलोकः (पुं०) द्रव्य, गुणादि रूप लोक। पर्यायसमासः (पुं०) अनन्त भाग लोक पर्यायसमास है। पर्यायार्थिकः (पुं०) पर्यायार्थिक नय, जिस नय में केवल
पर्याय ही है, पर्यायार्थिक को पर्यायास्तिक भी कहा जाता है। 'पर्यायोऽर्थः प्रयोजनमस्येत्यसौ पर्यायार्थिकः। (स०सि०
१/६) प्राधान्येन पर्यायमात्र ग्राही पर्यायार्थिकः। पर्युपासनं (नपुं०) [परि+उप्+आस्+ल्युट] पूजा, सम्मान,
आराधना। ०पूर्ण/यथेष्ट उपासना। पर्युषणं (नपुं०) पर्व विशेष, भाद्र मास में मनाया जाने वाला,
आत्मोन्नति का पर्व। आराधना पर्व। जिनोपासकों में
मनाया जाने वाला आत्म-साधना का पर्व। पर्युषणकल्पः (पुं०) स्थितिकल्प, वर्षावास का कल्प। पर्वः (पुं०) एक प्रमाण विशेष। पर्वांग को पूर्वांग से गुणित
करने पर पर्व का प्रमाण प्राप्त होता है। एक पूर्व वर्ष को एक लाख से गुणित चौरासी के वर्ग से गुणा करने पर
पर्व का प्रमाण होता है। पर्वकं (नपुं०) [पर्वणा ग्रन्थिना कायति] घुटने का जोड़। पर्वणी (स्त्री०) [पर्व ल्युट् स्त्रीयां ङीप्] पूर्णिमा, शुक्ल
प्रतिपदा।
उत्सव, महोत्सव। पर्वण्युपवासकृत् (वि०) पर्व पर उपवास करने वाला।
(वीरो०१४/२९) पर्वतः (पुं०) [प+अचच्] गिरि, पर्वत, पहाड़। चट्टान,
पर्वतमुनि (जयो०वृ० २/१२७) ०पर्वत नाम विद्वान् (वीरो० १८/५१) तीर्थंकर सुब्रतनाथ के समय में एक ही गुरु से पढ़े हुए पर्वत और नारद नामक दो विद्वान् थे। जो 'अज' शब्द का अलग अलग अर्थ करते थे। पर्वत 'अज' का अर्थ छाग (बकरा) करता था और नारद नहीं उगने योग्य धान्य कहता था। समस्ति यष्टव्यमजैरमुष्य छागैरियत्पर्वत आह दूष्यम्। पुराण-धान्यैरिति नारदस्तु तयोर भूत्सङ्गरसाध्यवस्तु।। (वीरो०
१८/५०) पर्वतजा (स्त्री०) नदी। सरिता, प्रवाहिणी। पर्वतपक्षकीय (वि०) पर्वत का पक्ष लेने वाला। निवार्यमाणा
अपि गीतवन्तः सत्यान्वितैरागभिभिर्हदन्तः। वाक्यावली?र
गुणोदरीर्यास्ते ये पुनः पर्वपक्षकीया:।। (वीरो० १९/५३) पर्वतपतिः (पुं०) हिमालय। हिमगिरि। पर्वतभेदी (वि०) गोत्रभिद। (जयोवृ० १/४१)
पर्वतमोचा (स्त्री०) पहाड़ी पर्वत। हिमालय पर्वत। पर्वतस्थ (वि०) पर्वत पर स्थित। पवर्तावतारः (पुं०) पर्वत का अवतार। (जयो० २४/१८) पर्वन् (पुं०) [पृ+वनिप्] ग्रन्थि, गांठ, जोड़। (जयो०११/४६)
अवयव, अंग, अंश। (सुद० ४/४३) पर्वेति अवयवसन्धिर्ग्रन्थिर्वा (समु० ३/४०)
काव्य का एक अध्याय, पुराण काव्यों में प्रायः पर्व का प्रयोग अध्याय के लिए किया जाता है।
अवधि, सीमा, निश्चित समय। विशेष तिथि विशेष, पर्वदिन। अष्टमी, चतुर्दशी, पूर्णिमादि तिथियां। (सुद० १३०, पृ० ९२) (जयो० २/३८) 'पर्वाणि चाष्टायादितिथयः पूरणात्पर्व धर्मोपचयहेतुादेति-आहारादिनिवृत्तिनिमित्तं धर्मपूरणं पर्वेति भावना। (जै०ल० ६९५) तिथि, त्योहार, उत्सव। (जयो० ६/१९)
सामान्य अवसर। पर्वकालः (पुं०) पूर्व समय, उत्सव का अवसर। पर्वकारिन् (वि०) पर्व सम्बन्धी कार्य करने वाला। पर्वगामिन् (वि०) पर्व/तिथि पर गमन करने वाला। पर्वधिः (पुं०) चन्द्र, योनि।
बेंत, नरकुल। पर्वरुह (पुं०) अनार का वृक्ष। पर्वव्रतधारणं (नपुं०) पर्व सम्बन्धी व्रत का पालन। (सुद०९६) पर्वसन्धिः (स्त्री०) पूर्णिमा, अमावस्या की समाप्ति का काल। पर्वोपवासः (पुं०) पर्व-अष्टमीआदि का उपवास। (सुद० ९६) पर्शः (पुं०) [पर शत्रु शृणति] [पर+१+कु+स च डित् वा
स्पृशति शत्रून्, स्पृश्+शुन्] ०कुठार, कुल्हाड़ी, फरसा। शस्त्र, हथियार। परशुराम।
गणपति, गणेश। पशुका (स्त्री०) [पशु+क+राप्] पसली। पर्षद (स्त्री०) सभा, समति, सम्मिलन। पलः (पुं०) [पल्+अच्] पुआल, घास! पलं (नपुं०) मांस, आमिष। (मुनि० ९) (सुद० १२७)
समय मापने का माप। 'करिसा चत्तारि पलं' चार कर्षों का एक पल।
चत्वारः कंसाः पलम्'। (त०वा० ३/३८) ०पले च दश गद्याणाः। दश गाद्याणों का एक पल। ०क्षणभर, थोड़ा समय। (वीरो० १८/५८) न स्यात्फलं
यदि पलप्रतिकूलताऽऽपि।
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पलक:
६२८
पल्लक:
।
पलकः (पुं०) अक्षिपलक। (जयो० १८/१०) पलङ्कयत्व (वि०) मांस भक्षणत्व। (वीरो० ९/१५) पलंकर (वि.) [पलं मासं कटति-पल+कट्+खच्] भीरु, ___ डरा हुआ, भयभीत। पलंकर (वि०) [पलं मासं करोति पलम्+कृ+अच्] पित्त। पलंकषः (पुं०) [पलं कषति-पलं कष्+अच्] राक्षस, पिशाच,
दानव। पलंकषं (नपुं०) ०मांस, कीचड़, दलदल। पलकांशः (पुं०) पक्षपात लव, पलक गिरना। (जयो० १८/१०) पलवः (पुं०) [पल+वा+क] जाल, मछलियां पकड़ने का जाल। पलांडु (पुं०) [पलस्य मांसस्य अंडमिव पल+अंड्+कु] प्याज। पलापः (पुं०) [पलं मासं आप्यते बाहुल्येन अत्र-पल+
आप्+घञ्] ०हाथी की पुटपुडी। ०पगहा, रज्जू, रस्सी। पलाय (अक०) भागना, उड़ना। (जयो०११/१२, १३/८६) पलायते। पलायनं (नपुं०) [परा+अय्+ल्युट रस्य लः] भागना, लौटना,
बच निकलना। पलायमास (वि०) भाग गई। (सुद० पृ०६९) पलायित (भू०क०कृ०) [परा+अप्+क्त] भागा हुआ, लौटा
हुआ, घांस विशेष। भयभीत हुआ। (सुद० २/२७) पलाल: (पुं०) पुआल, भूसी, घांस विशेष। पलालसमूहः (पुं०) तृणोत्कर। (जयो०वृ० २/३) पलालि: (स्त्री०) [पल+अल्-इन्] मांस समूह। पलाशः (पुं०) [पल+अश्+अण्] पलमश्नाति मांस खादतीति
(वीरो० ६/२७) (सुद० १/३३)
पलाश वृक्ष, छेवला, ढाक तरु। किंशुक। (सुद०१/३३) पलाश (नपुं०) पत्ता, पंखुड़ी।
हरा रंग। पलाशप्रकरः (पुं०) कोंपल, मांसभक्षी। (सुद० २/२७) पलाशित (वि०) किंशुकता। (सुद० १/३३) २. मांसभक्षी।
(सु० १/३३) पलाशिन् (पुं०) [पलाश वृक्ष, ढाक तरु] मांसभक्षक।
(जयो०२४/४५) पलिक्नी (स्त्री०) [पलित+अच, तस्य कन्-डीप्]० बूढ़ी स्त्री। ___०बालगर्भिणी। पलियः (पुं०) [परि+ह्र+अप्-घादेशः रस्य ल] ०शीशे का
पात्र, घड़ा, मर्तवान। ०परकोटा, ०लोहे की गदा। गोशाला, गोकुल, गोगृह।
पलित (वि०) [पल+क्त] भूरा, धवल। (समु० ७/३) पलितं (नपुं०) पल्य, एक प्रमाण विशेष। 'असंख्येययुगात्मक
पलितम्' असंख्यात युग प्रमाण काल। पलितंकरण (वि०) [अपलितः पलितं क्रियतेऽनेन पलित+
कृ+ख्युन् मुम्] सफेद करने वाला। स्वच्छता करने वाला। पलितंभविष्णु (वि०) धवल होने वाला। पलिसोज्ज्वलः (पुं०) धवल, शुभ्र। (जयो० २/३६) पलितत्व (वि०) सफेदी, धवलता। श्वेत्य (जयो० १३/५३)
जनी जनं त्युक्तुमिवाभिवाञ्छति यदा स शीर्षे पलितत्वमञ्चति
(वीरो० ९/११) पलितप्रभ (वि०) श्वेतकेशत्व की भांति वाला। (जयो० १८/४१)
क्षणिक भाव। 'संघूर्ण्यमानशिरसः पलितप्रभस्य' (जयो० १८/४१) 'पलितप्रभस्य पलभावं क्षणिकतामिता पलिता प्रभा यस्य', 'श्वेतकेशत्वं तस्य प्रभा यस्य' (जयो०वृ०
१८/४१) पल्यः (पुं०) ०प्रमाण विशेष, प्रमाणांगुल के प्रमाण से एक
योजन विस्तार, आयाम और अवगाह वाले गोल गर्त का नाम पल्य है।
एक योजन विस्तृत और एक योजन ऊँचे गोल गर्त का नाम पल्य है। 'प्रमाणांगुल-परिमित-योजनविष्कम्भायामावगाहनानि त्रीणि पल्यानि, कुशूला इत्यर्थः (स०सि० ३/३८)
योजनविस्तीर्ण योजनोच्छायं वृत्तं पल्यम्। (त०भा०४/१५) पल्यङ्कः (पुं०) [परितः अक्यतेऽत्र-परि+अक्+घञ्, रस्य
लः] पलंग, आसन, खटिया। पल्ययनं (नपुं०) [परि+अच्+ ल्युट्, रस्य ल:]०जीन, काठी,
पलान, झूल।
रास, लगाम। पल्यङ्कासनं (नपुं०) वीरासन। (सुद०७०) पल्योपमः (पुं०) एक प्रमाण विशेष। एक योजन विस्तीर्ण एवं
गहरे गर्त को एक दिन के उत्पन्न बालक के बालाग्रकोटियों से भरकर सौ सौ वर्ष में एक बालान से निकालने में जो काल लगता है, उतने काल का पल्योयम होता है।
'असंखेन्जेहि वस्सेहि पलिदोवमं होदि' (धव० १३/३००) पल्लः (पुं०) [पल्ल+अच्] कोठा, भण्डारन, खत्ती, अनाज
संचयनी। पल्लकः (पुं०) कोठा, अनाज संचयनी, भण्डारन, खत्ती।
पल्लको नाम लाटदेशे धान्याधारविशेषः। (जैन०ल० ६७९)
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पल्लव्
पल्लव् (अक० ) बुद्धि को प्राप्त होना, बढ़ना, विकास करना, अंकुरित होना। स च पल्लवतान्मनोरथाङ्करस्त्वच्चरणोदकैस्तथा' (जयो० १०/६)
पल्लव: (पुं० ) [ पलू क्विप् पल् लू अप्लव, पल चासौ लवश्च ] अंकुर, कोंपल, टहनी, पत्र, विटप, श्रृंग, किसलय । (जयो० १/४७) (सुद० ८२) पल्लवाणां पत्राणां पक्षे विटपानां यद्वा शृङ्गाराणां कुलैः समूहैः । (जयो०वृ० २४ / ११५) पल्लो विस्तरे खङ्गे शृङ्गारेऽलक्तकरागयो । चलेऽप्यस्त्री तु किसले विटपेऽपि च पल्लवः । (विश्वलोचन) (जयो०वृ० २४/११५)
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०कली, मंजरी ।
• लाल रंग, महावर, अलस्त । श्रृंगार (श्रृंगारेऽपि दले पुनरिति जयो० ३/९)
० सामर्थ्य, शक्ति, विस्तार। पल्लवः शब्दविस्तारे । (जयो ०३ / ९)
०घास के अंकुरण |
०जल (सुद० १ / १८ )
०कंकण, बावजूद।
० प्रेम, केलि, क्रीड़ा।
० पदांश (जयो० ५/९५)
० चपलता, वाचालता ।
० विस्तार, अभिवृद्धि, अभिस्तुति (जयो० ४/४)
पल्लवलेश: (पुं०) चपल स्वभाव चलेऽप्यस्त्री तु किसले विटपेऽपि च पल्लवः । इति विश्वलोचनः' (जयो०वृ० ४/४) पल्लवकः (पुं०) स्वेच्छाचारी ।
०गांडू, लौडा, रंडीप्रिय । ● अशोक तरु
पल्लदेश: (पुं०) पल्लव राज्य (वीरो० १५ / ३५ ) पल्लवराट् (पुं०) पल्वव राजा । (वीरो० १७ / ४३) पल्लवतार (वि०) कोंपलता, किसलयता । पदोर्लव एकदेश पल्लवः इति तद्भावं व्यनक्ति प्रकटीकरोति किसलयः (जयो० १२ / ३)
पल्लविकः (पुं० ) [ पल्लव:, श्रृंगारो रसः अस्ति अस्य पल्लव+ठन् ] स्वेच्छाचारी, गांडू, लौंडा, छैला । पल्लवित (वि० ) [ पल्लव + इतच् ] ० अंकुरित होने वाला, कोंपल युक्त (जयो० १/९१)
० विस्तृत ०कुसुमित, प्रफुल्लित, ०विकसित ० शृंगारित, सुसज्जित |
६२९
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पल्लवितः (पुं०) लाख का रंग।
पल्लविन् (वि० ) [ पल्लव + इनि] कोंपल युक्त, अंकुरित, विकसित।
पवि:
पल्लविन् (पुं०) वृक्ष, तरु ।
पल्लि / पल्ली (स्त्री० ) [ पल्ल+इन् पल्लि ङीष्] छोटा गांव, घास-फूस की झोंपड़ी वाला गांव, पर्वतीय गांव। ०घर, पड़ाव, बस्ती। (दयो० ५६)
०नगर, कस्बा |
० छिपकली ।
पल्लिका (स्त्री०) (पल्लि कन्+टाप्] छोटा गांव, ०पड़ाव,
+
० छिपकली।
*
पल्लकं (नपुं०) [पल्+ववच्] छोटा तलाबा, पोखर, जोहड़ । पल्वकपंकः (पुं०) छप्पड़ का कीचड़, पोखर का गारा । पल्ल्वकावासः (पुं०) कच्छप, कछुवा । पवः (पुं०) [पू. अप्] हवा, पवन पवित्रीकरण, धान्य शोधन। पव ( अक० ) पवित्र करना, स्वच्छ करना, शोध करना । ( पवमान एष सुद० ११८) पलं (नपुं०) गोबर ।
पवनं (नपुं०) [पू+ ल्युट् ] हवा, वायु, तिर्यक् बाही।
० पवित्रीकरण, फटकना, शोधना चालना, साफ करना।
०झरना ।
०जल, बारि, नीर
० कुम्हार का आवा।
पवनदेवः (पुं०) वायुदेव । (दयो० २८ ) पवननाशः (पुं० ) ०गरुड़ ।
० मयूर, मोर
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पवनतनयः (पुं०) हनुमान ।
"
।
पवनसुत (पुं०) पवनपुत्र हनुमंत पवनाशः (पुं०) सर्प, अहि, सांप पवनाशन: (पुं०) सर्प, अहि । (वीरो० १२/२८) पवनात्मजः (पुं०) हनुमान । पवमानः (पुं०) हवा, वायु ।
पवर्गः (पुं०) पवर्ग अक्षर (जयो० १/२४ ) पवर्गज्ञातृता (वि०) पवर्ग का ज्ञान वाला पञ्चवर्णात्मकपवर्गज्ञातृताभावश्च (जयो०वृ० १/२४)
पवर्गपरिणामः (पुं०) पवर्ग समूह का भाव। (जयो०वृ०३/२०) पवाका (स्त्री०) [पू. आप्] बवंडर, आंधी, झंझावत पवि: (पुं० ) [ पू+ इ] इन्द्र का वज्र । ०विद्युत, बिजली। (जयो० २४/४१ )
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पवित
६३०
पश्चात्तापशील
पवित (वि०) [पू+क्त] पवित्र किया हुआ, शोधा हुआ। पशु (स्त्री०) मवेशी, जानवर। (जयो०१० २२०) जंगली, पवितं (नपुं०) काली मिर्च।
नृशंस। 'सरोमन्थाः पशवः' (धव० ४३/३९१) पवित्र (पुं०) [पू+इत्र] शुद्ध, उत्तम। सुदर्शनं नाम परं पवित्रम। | पशुक्रिया (स्त्री०) क्रूर क्रिया, घातकक्रिया।
(भक्ति० ७) श्रेष्ठ, पावन, पूत। गंगापगासिन्धुनदान्तरत्र, | पशुगेहं (नपुं०) पशुशाला, वार, जहां पशुओं को बांधा पवित्रयेकं प्रतिभाति तत्र। (सुद० १/१४)
जाता है। शार। पवित्रीकृत, निष्पाप।
पशुचर (वि०) पशु की तरह चर्या करने वाला। वज्रधारी। (जयो०
पशुचर्या (स्त्री०) सहवास, स्त्रीप्रसंग, निम्न प्रवृत्ति। पवित्रं (नपुं०) चलनी, झाननी।
पशुजातिः (स्त्री०) जंगली जाति। विचार ही जाति। पवित्रकं (नपुं०) [पवित्र+कै+क] जाल, रस्सा।
पशुता (वि०) नीचता। पवित्रकटीमण्डलं (नपुं०) पविर्वज्र। सूक्ष्म कटी वाली। पशुधर्मः (पुं०) पशुप्रकृति। (जयो० ६/९)
पशुनाथः (पुं०) शिव। पवित्रता (वि०) शुद्धता, स्वच्छता। सद्भिरादरणीयस्योद् भवतोऽपि पशुपः (पुं०) ग्वाला, अहीर। पवित्रता। (वीरो० ६/४२)
पशुपतिः (पुं०) महादेव, शिव। उमामवाप्य महादेवोऽपि च पवित्रदूर्वा (स्त्री०) परमेष्ठि-पद-संस्पृष्ट दूर्वा, मंत्रित दूर्वा। गत्वाऽपत्रपतायाम्। किमिह पुनर्न बभूव विषादी स्थानं
(जयो० १२/९७) गुरवोऽभिधूवरं ददुर्वा शुभसम्वादकरी पशुपतितायाः। (सुद० ११२) पवित्रदूर्वाः। (जयो० १२/९७)
पशुपालः (पुं०) ग्वाला, पशु पालन करने वाला। पवित्रपाणि: (स्त्री०) धुले हुए हाथ।
पशुपालकः (पुं०) गोपालक, ग्वाला। पवित्रभावः (पुं०) उन्नतभाव, विशुद्धभाव।
पशुपालनं (नपुं०) पशुरक्षण। पवित्ररूप (वि०) उत्कृष्ट सौंदर्य युक्त, चरम रमणीय। पशुपुरीषः (पुं०) पाशविक विट, पशु की विष्टा, गाय का (सुद० २/४)
गोबर। (जयो० २/७८) पवित्ररूपिणी (स्त्री०) पवित्र रूपवाली, सौंदर्य से परिपूर्ण। | पशप्रेरकः (पुं०) पशुओं को हांकना, जंगल ले जाना। (समु० २/१३)
पशुबलिः (स्त्री०) पशुओं की आहूति। (वीरो० २२/१७) पवित्रात्मक (वि०) सुमन स्थल वाला, शुद्धात्मक स्वरूप | पशुभक्षणीय (वि०) पशु सम्बंधी भोजन, बांटा। (जयो०१० वाला। (जयो०वृ० १/९७)
२/१०९) पशु सम्बंधी आहार। पवित्रात्मत्व (वि०) पवित्रात्मरूपवती, विशदाक्षवती, सुलोचना। पशुभावः (पुं०) जड़भाव, मूर्तभाव। (जयो० १०/४१) (जयो० ३/८४)
पशुभोजनं (नपुं०) वाण्ट, बांटा। 'गृहस्था जना वाण्टं पशुभोजनं पवित्रारोपणं (नपुं०) उन्नत संस्कार। उत्तम भावना। ___ तद्वद् वृषं धर्ममपेक्ष्य'। पवित्रारोहरणं (नपुं०) उपनयनादि संस्कार। * संस्कारित दृष्टि। पशुमारं (अव्य०) पशुवध की रीति के अनुसार। पवित्राप्सारस् (स्त्री०) स्वर्ग सदृश। अप्सरा। ग्रामान् पवित्रा- पशुयोनिः (स्त्री०) पशु पर्याय। (समु० ५/४)
प्सरसोऽप्यनेककल्पांघ्रिपान्यत्र सतां विवेकः। (सुद० १२०) पशुरज्जू (स्त्री०) पशुधन की रस्सी। पवित्राशयवती (वि०) उदर अभिप्राय वाली। (जयो० १५/३७) पश्चात् (अव्य०) [अपर+अति-पश्चभाव:] पीछे से, पिछली पवित्रतार्थ (वि०) संहितार्थ। (जयो०० ९/९०)
ओर से। पश्चात्-पुनः। (जयो० १/४७) नि:सङ्गोऽनिलवद्यपवित्री (स्त्री०) शुद्धि, स्वच्छता।
तिर्विचरतात्सर्वत्र पश्चादयम्। (मुनि० ७) पवित्रीकृतावनिः (स्त्री०) स्वच्छ की गई, पृथ्वी, शुद्धता युक्त पश्चात्कृत (वि०) पीछे छोड़ हुआ।
घटा। (पवित्रीकृताऽवनिः यथा सा (जयो० ११/७३) पश्चात्तत्वं (नपुं०) इसके अनंतर की संतप्ति। (वीरो० १६/२६) पवित्रीभूत् (वि०) पवित्र की गई, शुद्ध हुई। (जयो० पश्चात्तापः (पुं०) पछताना, संतप्त होना। १९/५,१४/३)
पश्चात्तापशील (वि०) उपतापी। (जयो० १५/५८) पुनः पशव्य (वि०) [पशु+यत्] पशु सम्बंधी, पशुतापूर्ण।
पुनः विचार कर, पश्चात्ताप युक्त।
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पश्चादपि
६३१
पाखण्डः
पश्चादपि (अव्य०) पुनरपि, फिर भी, पीछे से भी, 'बभूव
पश्चादपि पूर्णचन्द्र' (समु० ४/१०) पश्चार्ध (वि०) पश्चिमी, पश्चिमी भाग। पश्चार्धः (पुं०) उत्तरार्ध। पश्चिम (वि०) पूर्व के विपरीत दिशा। पश्चिमदिवसमुद्रः (पुं०) अन्तिम समुद्र। (जयो० १५/१६) पश्चिमदिशा (स्त्री०) प्रतीचीय। (दयो० १८) 'जत्तो अ
अस्थमेइ उ अवरदिसा उ णायव्वा' पश्चिमा (स्त्री०) पश्चिम दिशा, प्रतीचीय। पश्यत् (वि०) [दृश्+शतृ] देखने वाला, साक्षात् कुर्वतः
(जयो०वृ० १/४६) पा (सक०) पाना, ग्रहण करना। (जयो० ११/९)
आनन्द-सन्दोह-समुल्लसद्वपुस्तया तदास्येन्दुमदो दृशः पपुः। (वीरो० ८४६) ०पीना, आचमन करना, पान करना 'पिबेन्नु मातापि सुतस्य शोणितमहो निशायामपि' (वीरो० ९/४) पिबन्ति। (जयो० १/८७) चिन्तन करना, मनन करना, ध्यान देना, अच्छी तरह सुनना। पिलाना, पान कराना। ०सींचना। पा (वि०) पीने वाला, आचमन करने वाला। रक्षक, (जयो००
५/८६) पांस (वि०) दुष्ट, अत्याचारी, अपराधी, पतित। पांस (वि०) धूल धूसरित, धूल से भरा हुआ। पांशु (स्त्री०) धूल, रज, गर्द, रेणु। पांसुः (स्त्री०) धूल, रज, गर्द, रेणु, धूली।
गोबर, खाद। पांशुकुली (स्त्री०) राजपथ, राजमार्ग। पांसुकुली (स्त्री०) राजमार्ग। पांशुकूल/पासुकूलं (नपुं०) रजसमूह, धूल कर ढेर। पांशुकृत्/पांसुकृत (वि०) धूल से सना हुआ। पांशुक्षर/पांसुक्षारं (नपुं०) लोन, लवण। पांशुजालिक (वि०) धूल समूह। पांशुयुत (वि०) धूली युक्त। पांसुल (वि.) कलंकित, मर्दित, दूषित। परिव्याप्त।
(जयो० ३/१११) पांसुजं (नपुं०) नमक।
पांसुलः (पुं०) दुश्चरित्र, लम्पट। पाकः (पुं०) [पच्+घञ्] पकाना। (सम्य० १२१)
पकाना, सेकना, उबालना। न शाकस्य पाके पलस्येव पूतिन। (वीरो० १६/२५) परिपाक (जयो० ५/८६, वीरो० २/१९) परिपूर्ण, सम्पन्न, परिपक्वता। ०पूर्णविकास, भरा हुआ।
परिणाम। (जयो० ३/१७)
०जरा युक्त। (जयो० ५/१५ पाकजं (नपुं०) काला नमक। पाकपात्रं (नपुं०) पकाने का बर्तन। पाककुटी (स्त्री०) कुम्हार का आबा। पाकलः (पुं०) आग। पाकशाला (स्त्री०) रसोईघर। पाकलि (स्त्री०) विपाक-नवपाके तु पाकली दूतिविश्व-लोचनः।
(वीरो० २८/२०) पाकशासन (पुं०) इन्द्र। पाकिम (वि०) पका हुआ। पाकिस्तानम् (नपुं०) एक देश का नाम, जो मुस्लिम बाहुल
क्षेत्र है। (जयो० १८४८३) पाकुः (पुं०) [पच्+उण] पाचक, रसोईया। पाक्य (वि०) [पच्+ण्यत्] पकाने योग्य, परिपक्व होने योग्य। पाक्ष (वि०) [पक्ष अण] पाक्षिक, पक्ष से सम्बंधित। पाक्षिक (वि०) [पक्ष ठक्] अर्धमासिक, पक्ष से सम्बंधि, पाक्ष।
०तर्क विषयक, पक्ष प्रस्तुत करने योग्य।
०ऐच्छिक, वैकल्पिक, अनुमत। पाक्षिकः (पुं०) चिड़ियामार, बहेलिया। पाक्षिक श्रावक,
एकदेशहिंसादिविरति रूप श्रावक। पाक्षिकश्रावकः (पुं०) एक देशहिंसादि विरति व्रत पालक।
(जयो०१० २/१३) सम्यग्दृष्टिः सातिचारमूलाणुव्रतपालकः। अर्चादिनिरतस्त्वग्रपदं कांक्षीह पाक्षिकः।।
(धर्म सं० धा०५/४) पाक्षिकापाक्षिक (वि०) पक्ष और अपक्ष वाला ऐच्छिकानैच्छिक। पाखण्डः (पुं०) [पातीति-पा+क्विप् पाः वयोधर्मः तं खण्डयति
पा+खण्ड+अच्] विधर्मी, नास्तिक।
चाण्डाल, दुरात्मन्। ०आचरण विहीन मनुष्य। ०पाप जन्य।
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पाखण्डिन्
६३२
पाटवं
पाखण्डिन् (वि०) पापी, दुराचारी। पाखण्डिमूढता (स्त्री०) कुगुरु आदि के प्रति श्रद्धा, सांसारिक
कार्यों से घिरे हुए साधु के प्रति श्रद्धा। बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहवतां पाखण्डिनां कुगुरूणां नमस्कारादि करणम्।(कार्तिकेयानुप्रेक्षा टी० ३२६) सग्रन्थारम्भहिंसाना संसारावर्तवर्तिनाम्। पाखण्डिनां पुरस्कारो
ज्ञेयं पाखण्डिमोहनाम्। (श्राव०) पाखण्डिमोहनः (पुं०) पापाचारी के प्रति श्रद्धा। पागल (वि०) [पारक्षणम् तस्मात् गलति विच्युतो भवति-पा+
गल+अच्] विक्षिप्त, मन्दबुद्धि वाला। पांक्तेय (वि०) [पंक्ति+ढक्] पंक्ति बद्धता। पाचक (वि०) [पच्+ण्वुल] पचाने वाला, सेंकने वाला।
(दयो० १७) पाचकः (पुं०) रसोइया। अग्नि। पाचकं (नपुं०) पित्त। पाचनं (नपुं०) [पच्+णिच् ल्युट्] पकाने की क्रिया। पाचनः (पुं०) ०अग्नि, आग।
०खटास, अम्लता। पाचन (वि०) पकाने वाला, पचाने वाला। (वीरो० १९/४०) पाचनः (पुं०) तपस्या, प्रायश्चित्त। पाचलः (पुं०) [पच्+णिच्+कलच्] रसोइया, पाचक।
०अग्नि, आग। पाचलं (नपुं०) पचाना, परिपक्व करना। पांचजन्यः (पुं०) [पंचजन+ञ्य]०शंख। एक शंख नाद, ___* कृष्ण के शंख की ध्वनि। पांचजन्यधरः (पुं०) कृष्ण। पांचदश (वि०) [पंचदशी+अण] पन्दरस, पाक्षिक की अंतिम
दिवस की तिथि। पूनम या अमावस्या का दिन। पांचदश्यं (नपुं०) [पंचदशन्+ष्यञ्] पन्द्रह का समुच्चय। पांचनद् (वि.) [पंचवद+अण्] पांच नदियों के समूह वाला
स्थान पंजाब। पांचभौतिक (वि०) [पंचभूत+ठक्] पांच तत्त्वों से निर्मित
भौतिक वातावरण। पांचवाषिक (वि०) [पंचवर्ष+ठक] पांचवर्ष का। पांचशब्दिक (नपुं०) [पंचशब्द+ठक्] वाद्ययन्त्र। पाचा (स्त्री०) पकाना। पांचाल (वि०) [पंचाल+अण] पंचाल से सम्बंधित। पांचालः (पुं०) पांचालदेश।
पांचालिका (स्त्री०) [पांचाली+कप्+टाप] पुत्तलिका, गुड़िया। पांचाली: (स्त्री०) [पांचाल+अण्डीप्] पांचालदेश की
राजकुमारी। ०द्रोपदी, पाण्डुप्रिया। ०गुड़िया, पुत्तलिका, पुतली। ०पांचाली रीति-जहां प्रसाद गुण की रचना होती है, वहां
पांचाली रीति होती है। पाट् (अव्य०) आहूतार्थ में इस अव्यय का प्रयोग होता है। पाटकः (पुं०) [पट्+णिच्+ण्वुल्] विदारक, विभाजक।
ग्रामीण अंचल। संगीत का उपकरण। ०पर्यन्त, तक, सीमा, किनारा, ०भाग, पाडे, स्थल। 'वेश्यानां पाटकं प्राप्तं ब्राह्मिणी निन्द्यते'
वित्था, वालिस्त। (हित० १९)
०पांसे फेंकना। पाटच्चरः (पुं०) [पाटयन् छिन्दन् चरति-चर+अच्]
'पाटच्चरश्चोरो वन्दिकरो', चोर, लुटेरा, पाड़ लगाने वाला
बन्दीकर। पाटनं (नपुं०) [पट्+णिच्+ल्युट्] तोड़ना, ध्वंस करना, गिराना,
विदीर्ण करना, नष्ट करना, फाड़ना। पाटल (वि०) [पट्+णिच्+कलच्] गुलाबी रंग, पीतरक्त
वर्ण। पाटलं (नपुं०) गुलाब पुष्प। ०पाटलवृक्ष का पुष्प। पाटलः (पुं०) एक औषधी। (जयो० २४/२६) पाटलपुष्पं (नपुं०) भूपद्म। (जयो०१/८३) पृथ्वी का कमल। पाटलरजं (नपुं०) गुलाब की पराग। ०गुलाब रंग की धूल। पाटला (स्त्री०) [पाटल+अच्+टाप्] ०लोन, लोध, ०पादर
तरु, गुलाब। पाटलाञ्चित (वि०) गुलाबी वर्णवाला। (जयो० २४/२६) पाटलिः (स्त्री०) [पाटल+इनि] गुलाब का पुष्प। पाटलिकः (पुं०) छात्र, विद्यार्थी। पाटलिपुत्रं (नपुं०) पटना, एक प्राचीन नगर, जो मागध देश
की राजधानी के रूप में प्रचलित था। (सुद० ११९) 'प्रसञ्चरन् वात इवाप्यपापः क्रमादसौ पाटलिपुत्रमाप।
(सुद० ११९) पाटलिमन् (पुं०) [पाटल+इमनिच्] पीतरंग, पीलावर्ग। पाटल्या (स्त्री०) [पाटल+यत्+टाप्] गुलाब के पुष्पों का गुच्छा। पाटवं (नपुं०) [पटु+अण] चातुर्य, चतुराई, निपुणता। (जयो०
५/२०) 'पाटताभरणविभ्रमसर्गः'।
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पाटविक
६३३
पाणिसप्तलः
०दाक्ष्य, नैपुण्य, तीक्ष्णता। (जयो० १६/८५)
०खेल, दांव, ०व्यवहार। कौशल, दक्षता।
०करार, प्रशंसा, हस्त। ऊर्जा, स्फूर्ति, शक्ति।
पाणिः (स्त्री०) [पण इण्] हस्त, हाथ। पाटविक (वि०) [पाटव ठन्] ०तीक्ष्ण, चतुर, कुशल। पाणिग्रहः (पुं०) पाणिग्रहण। (दयो० ७) (जयो० १०/४३) ०धूर्त, ठग, छली, कपटी।
पाणिग्रहणः (नपुं०) शादी-ब्याह संस्कार, करोपलब्धि। पाटित (भू०क०कृ०) [पट्+णिच्+क्त] फाड़ा हुआ, (जयो०वृ० १२/५७) विदारित/खण्डित किया गया।
पाणिग्रहणपूर्वक्षणः (पुं०) विवाहके पूर्व का समय। (जयो०३० विद्ध, छिद्रित।
१०/११६) पाटी (स्त्री०) [पट्+णिच्+इन् ङीष्] अंकगणित।
पाणिग्रहणात्मिक (वि०) पाणिग्रहणवाला। (जयो०७० १/६७) पाटीरः (पुं०) [पटीर+अण्] चन्दन।
पाणिग्रहणाभिलाषिणी (वि०) पाणिग्रहण की इच्छा करने रांगा, मेघ, चलनी।
__वाली। (जयो०वृ० १/६४) पाठः (पुं०) [पठ्+घञ्] पाठ, पठन, आवृत्ति, घोकना, याद पाणिग्राहः (पुं०) दूल्हा, पति। करना, स्मरण करना।
पाणिघः (पुं०) ढोलवादक। ०पढ़ना, वाचन, अध्ययन, 'पठनं पाठः, पढ्यते वा तदिति पाणिघातः (पुं०) चूंसा, प्रहार। पाठः, पठ्यते वाऽनेनास्मादस्मिन्निति वा अभिधेयमिति पाणिजः (पुं०) नख, नाखून।
पाठः, व्यक्तिक्रियत इति भावार्थः। (जै०ल०पृ० ६९८) पाणिजन्तुवधः (पुं०) आहार ग्रहण करते समय जीव का पाठकः (पुं०) [पठ्+णिच्+ण्वुल] आध्यात्मिक।
____ आकर मर जाना। जीव घात। अध्यापक, गुरु, उपाध्याय। (वीरो० २/७) भो पाठक पाणितलं (नपुं०) हथेली, हाथ का भाग। ज्ञानधरा (सम्य० १९)
पाणिनिः (पुं०) एक प्रसिद्ध व्याकरणकार। उपाध्याय परमेष्ठि। अज्झावयगुणजुत्तो धम्मोवदेसयारि पाणिपरीतयष्टिक (वि०) चाबुकधारी। 'पाणिना पाणौ वा चरियट्ठो।
परीता स्वीकृता यष्टिर्येन यस्य वा' (जयो०वृ० १३/१६) णिस्सेसागमकुसलो परमेट्ठी पाठओ झाओ।।
पाणिनीयः (पुं०) ०आचार्य पाणिनि। ०एक व्याकरणकार। (भाव सं०३७८)
पाणिनि-सम्बंधी। (जयो०वृ० ४/१६) ०स्वाध्यायकारिन् (जयो० १९/१५)
पाणिपरिग्रहः (पुं०) विवहनयोग्य। (जयो० १२/८१) (समु० पाठकगणः (पुं०) उपाध्याय समूह।
४/२७) ०पढ़ने वाले। (वीरो० २२/३४)
पाणिपीडनं (नपुं०) विवाह, पाणिग्रहण संस्कार। ०करपीडन। पाठक-परमेष्ठिन् (पुं०) उपाध्याय परमेष्ठि, पांच परमेष्ठियों (समु० ५/२२)
में चतुर्थ परमेष्ठि, उपध्याय परमेष्ठि, जो स्वयं पढ़ते और पाणिप्रणयिनी (स्त्री०) पत्नी, भार्या। दूसरों को पढ़ाते हैं।
पाणिबंधः (पुं०) वटवृक्ष; गूलर तरु। पाठनं (नपुं०) [पठ्+णिच्+ ल्युट्] अध्यापन, व्याख्यान देना, पाणिमुक्तं (नपुं०) एक आयुध जो हाथ से फेंका जाता। प्रवचन।
पाणिमुक्ता (स्त्री०) विग्रहगति। 'पाणिमुक्तेव पाणिमुक्ता' निरूपण, प्ररूपण, विवेचन।
यथा पाणिना तिर्यक् प्रक्षिप्तस्य द्रव्यस्य गतिरेक विग्रहाः पाठित (भू०क०कृ०) [पठ्+णिच्+क्त] अध्यापित, व्याख्यापित, गतिः तथा संसारिणामेक विग्रहागतिः पाणिमुक्ता द्वैसमयिकी। कथित, निरूपित, पढ़ाया हुआ, शिक्षित।
(धव० १/२९९, ३००) पाठिन् (वि०) [पठ्+णिनि] अध्ययन किया गया, परिचित। | पाणिधम (वि०) [पाणि+मा+खश्] हाथ से धोंकने वाला, पाठिन् (पुं०) एक मछली का नाम। (दयो० ४२)
हाथ से हवा करने वाला। पाठीनः (पुं०) [पठ्+ईनण्] पुराण सम्बंधी कथा।
पाणिलेशः (पुं०) हस्ताग्रभाग। (जयो० १४/३७) पाणः (पुं०) [पण्+घञ्] ०व्यापार, व्यवसाय।
पाणिसप्तलः (पुं०) बन्धुजन। (सुद० ३/२४)
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पाणिसंकेतः
६३४
पात्रं
पाणिसंकेतः (पुं०) हाथ द्वारा इंगित। (जयो० ६/६) पातङ्गि (पुं०) [पतङ्ग+इञ्] * यम, शनि, कर्म, सुग्रीव। पाणिसमस्याण (स्त्री०) हाथ की समस्या। (जयो० ६/६) पातञ्जल (वि०) पतञ्जलि द्वारा रचित भाष्य। पाण्डर (वि०) [पाण्डर+अच्] धवल, स्वच्छ, गेरु रंग का। | पातञ्जलं (नपुं०) पतञ्जलि का योगदर्शन। ___ चमेली पुष्प।
पातनं (नपुं०) [पत्+णिच् ल्युट्] गिराना, धक्का देना, धकेड़ना। पाण्डपुत्रः (पुं०) पाण्डु पुत्र। (दयो०८)
०फेंकना, पछाड़ना, डालना। पाण्डवः (पुं०) [पाण्डोः अपत्यम्, पाण्डु+अण] पाण्डवानां ०हीन करना, नीचा दिखाना।
तथा भीष्म पितामह इति। (वीरो० ८/४०) ०पाण्डुपुत्र, पातालं (नपुं०) [पतत्यास्मिन्नधर्मेणपत्+आल] अतल, वितल, ०पाण्डु की सन्तान। (सम्य० ६५) युधिष्ठिर, भीम, रसातल, भूगर्भीय ,निम्नस्थल। 'स्वर्गाप्यतिरमणीयानि
अर्जुन, नकुल और सहदेव। (जयो० १८/५१) (वीरो०) पतालानि' (जयो० हि० ११/७३) पाण्डवमय (वि०) पाण्डव युक्त। (जयो०वृ० १/१८) पातालंगत (वि०) नीचे की ओर झुके हुए। (जयो० २२/१९) पाण्डवश्रेष्ठः (पुं०) युधिष्ठिर।
पातालगंगा (स्त्री०) नीचे बहने वाली गंगा। पाण्डवाभीलः (पुं०) कृष्ण।
पातालनिलयः (पुं०) नागलोक। पाण्डवीय (वि०) पाण्डव से सम्बन्धित।
पातालनिवासः (पुं०) नाग लोक। पाण्डित्यं (नपुं०) [पण्डित+ष्यञ्] विद्वता, प्रज्ञाशील, अधिगम पातयेत् (भू०क०कृ०) गिराया। (मुनि० २०) विद्येश्वर।
पातालमूलं (नपुं०) पातालतल। (सुद० १/३६) ०कुशलता, प्रवीणता, तीक्ष्णता दक्षता।
पातिकः (पुं०) [पात+ठन्] सूंस, शिंशुमार। गंगा नदी में पाया पाण्डु (वि०) [पण्ड्+कु] पीतधवल, सफेद सा, पीलापन। जाने वाला जलचरजीवा पाण्डुः (पुं०) स्वच्छ, शुभ्रा
पातिक (वि०) संयम घातक। (मुनि० २९) ०पाण्डु-पाण्डवों के पिताश्री।
पातित् (भू०क०कृ०) [पत्+णिच्+क्त] गिराया गया, पटका पाण्डुकः (पुं०) पाण्डुकशिला।
गया, पछाड़ा गया, परास्त किया गया। पाण्डुनि (वि०) पाण्डुवर्ण वाली। (जयो० १४/६०) स्वच्छ पातित्यं (नपुं०) [पतित+ष्यञ्] पदच्युति, जाति से हीन, आकार वाली।
जातिभ्रंश। पाण्डुनिधिः (स्त्री०) नैसर्गनिधि, एक प्रामाणिक निधि। पातिन् (वि०) [पत्+णिनि] ०अवतरण करने वाला, उतरने पाण्डुर (वि०) [पाण्डु+र] सफेद सा, पीत-धवल।
वाला, गिरने वाला। पण्डुरं (नपुं०) पाण्डुर रोग, श्वेत कुष्ट।
०त्यागने वाला, परित्यक्त करने वाला, छोड़ने वाला। पाण्डुरत्व (वि०) पीतिमान। (जयो०वृ० ५/८)
०ध्वंस करने वाला, धकेलने वाला। पाण्डुरिमन् (पुं०) [पाण्डुर इमनिच्] पीलापन, सफेदी युक्त। | पातिली (स्त्री०) [पातिः संपातिः पक्षियूथं लीयतेऽत्रपाण्डुवपु (नपुं०) श्वेतप्रायशरीर। (जयो० १८/२१)
पानि+ली+डाङीष्] ०जाल, फंदा, ०हांडी, पतेली। पाण्डुशिला (स्त्री०) पाण्डुकशिला। (जयो० १९/२)
पातिव्रत्य (वि०) पति धर्म का पालन करने वाली। (सुद०८८) पाण्ड्या (स्त्री०) देश विशेष।
पातुक (वि०) [पत्+उकञ्] पतनशील, गिरने वाला। पात (वि०) [पा+क्न] रक्षित, संधारित।
पातुकः (पुं०) चट्टान, शिंशुमार। पातः (पुं०) [पत्+घञ्] उड़ना, उतरना, अवतरण करना। पात्रं (नपुं०) [पाति रक्षति-पिबन्नि अनेन वा-पा+ष्टन्] भाण्ड, ०बहना, छूटना, फेंकना।
बर्तन, पानी, सकोरा, पानी भरने का घटादि। ०पतन, उतार।
०वस्तु का आधार। (सुद०) ०पराजय, आक्रमण
०जलाशय, सरोवर। ०दोष, त्रुटि।
०अभिनेता, नायक, नायिका आदि। पातकः (पुं०) [पत्+णिच्+ण्वुल्] ०पाप, अपराध, दुरित योग्यता, श्रेष्ठता, उन्नतता। (जयो०वृ० १६/११५) (समु०८/३३)
ज्ञानाध्यान परायण।
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पात्रदत्ति
० ज्ञान, दर्शन चरित्र तपादि युक्त संयत ।
• संतुष्टशील, शुचिता युक्त, विनीत । ०गुण प्रकर्ष युक्त |
० संयम लीन, जितेन्द्रिय, धीर व्यक्ति ।
० राग-द्वेषादि से रहित मनुज। 'आपदुद्भ्यः पाति यस्तस्मात् पात्रमित्यभिधीयते' (जैन०ल० ६३९)
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पात्रदत्ति (नपुं० ) ०पात्रदान, ०योग्य दान, ०भक्तिपूर्वक श्रमणों को दान। ०साधनरत के लिए यथोचित दान। महातपोधनेभ्यः प्रतिग्रहर्चनादिपूर्वक निरवद्याहारदानं ज्ञानसंयमोषकरणादिदानं च पात्रदत्तिः । ( कार्तिकेया० टी० ३९१) पात्रदानं (नपुं०) पात्रदत्ति, पूजा / प्रतिग्रहपूर्वक दान पात्रपाल (पुं०) चम्पू, डांड, नांव खेने को पतवार । पात्रविशेष: (पुं०) तपादि से सम्पन्न व्यक्ति विशेष । 'मोक्षकारणगुण संयोग: विशेष:' (त०वा० ७/३९) पात्रस्थित (वि०) भाण्डमर्जन।
पात्री (वि०) उकर्षगुणवाली (सुद०३७) ०हस्तबाली (सुद०२/१०) ० धीरोदात्तगुणयुक्ता ।
पात्रोचित (वि०) योग्यपात्रानुसार । पात्रोपकरणं (नपुं०) उचित पात्र के लिए पुस्तकादि उपकरण । पाथोजमुखी (वि०) (पाथोजं कमलेवमुखं) कमलमुखी। (जयो० १४/४७)
पाथः (पुं० ) ० अग्नि, ०सूर्य ।
पार्थं (नपुं०) जल, नीर, पानी।
पाथस् (नपुं०) [पा+असुथुन्] जल, वारि, नीर
।
पाथेयं (नपुं० ) [ पथिन् + ढञ् ] मार्ग का कलेबा, रास्ते का भोजन (वीरो० २/२) सम्बल, आधार (जयो० १२/९५) ० कन्याराशि।
पाथोधि (स्त्री०) समुद्र सागर (जयो० १०/८२) पाथोनिधि (पुं०) समुद्र, जलराशि। (जयो०२० / २७, समु०३ / ५) पान्वाङ्गिन् (वि) पथिक, राहगीर (वीरो० ६/२१ ) पादः (पुं०) [पद्+घन्] पैर, चरण, पांव (जयो०वृ० ३/४५) (सुद० ५/३) तत्पादयोर्विनीताभ्यामोच्चारणपूर्वकम् (सुद० ४/४६) ०पेड़ की जड़।
० गिरिभाग, तलहटी।
० चौथाई, चौथाई भाषा ।
छह अंगुल प्रमाण पाद।
० श्लोक का एक चरण, एक पंक्ति 'सा तनुस्तानि चाङ्गानि ' (जयो० ३/४३)
६३५
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० किरण सूर्यस्य पादैः। (जयो०वृ० १५/७२) ० स्तम्भ खंभा ।
पादकं (नपुं०) नूपुर, पायल |
पादकटकः (पुं०) पायल, नूपुर।
पादपालिका
पादकीलिका (स्त्री०) पायल, नूपुर, पैरों के पायजेब । पादक्षेप (पुं०) कदम, पग, पांव रखना (जयो० २४/६१६ ) पादग्रन्थिः (स्त्री०) टखना, घुटना ।
पादग्रहणं (नपुं० ) ०मुनि का अन्तराय, ०पैरों द्वारा रत्न आदि ग्रहण करना।
पादग्रहणं (नपुं०) आदर युक्त अभिवादन, पैर लगना, चरणस्पर्श
करना।
पादचतुरः (पुं०) मिथ्यानिन्दक, बकरा, रेतीला तट । पाटचत्वरः देखो ऊपर।
पादचम्पन (नपुं०) सम्वाहन, दबाना, पैर मसलना (जयो०वृ० १७/४०)
पादचार ( नपुं०) कोमल चरण । अश्वा धरित्रीं मृदुपारचारैर्जिघ्रन्त एते स्म च पर्यटन्ति । (जयो० १३ / ८८ पादचारिन् (पुं०) पथिक (जयो०वृ० १३/६) ० पैदल सैनिक, पत्ति। (जयो० १३ / ११ )
पादचारिन् (वि० ) पैदल चलने वाला, फेरी लगाने वाला। पादजः (पुं०) शूद्र, निम्न।
पादजाहं (नपुं०) पपोटा, टखने की हड्डी । पादतलं (नपुं० ) पैर का तलवा ।
पादत्र: (पुं०) उपानह, जूता ।
पादत्राणं (नपुं०) उपानह, जूता, पदरक्षक।
पादपतनं (नपुं०) अभिवादन, विनम्रता, चरणस्पर्श । 'पादपतनं प्रमाणदिगौरवम्' (जैन०ल० ७०० )
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पादपः (पुं०) वृक्ष, तरु । (सुद० ३/१४) पादपकोटर: (पुं०) वृक्ष की खोह । (मुनि० ३ ) पादपद्मरुचिः (स्त्री०) चरण कमल के प्रति रुचि। (जयो० ४/१८) पादपोपगमनं (नपुं०) निश्चलपूर्वक अनशन करना ।
० शरीर को वृक्ष की तरह स्थिर रखना । पादस्योपगमनंअस्पन्दतयाऽवस्थानम्' (जैन०ल० ७०१ ) पादपोगमनमरणं (नपुं०) अनशन, अत्यन्त निश्चलता पूर्वक मरण । पादपो वृक्षः, तस्येव छिन्नपतितस्योपगमनम् अत्यन्त' निश्चेष्टतयाऽवस्थानं यस्मिन् तत् पादपोगमनम्। (जैन०ल० ७०१ )
पादपालिका (स्त्री०) पायजेब, पायल |
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पादपाशः
पानवणिज्
पादपाशः (पुं०) चरणधूली का स्पर्श। (जयो० १/१०४) पादपूरकं (नपुं०) चरणपूर्ति, श्लोक के पादों की पूर्ति। पादपूरण (नपुं०) चरणपूर्ति, श्लोक बद्ध रचना करना। पादप्रक्षालनं (नपुं०) चरण धोना, पादप्रमार्जन। पादप्रतिष्ठान (नपुं०) पैरों की चौकी, पादपीठ। पादप्रहारः (पुं०) ठोकर। (जयो० १/८४) पादबन्धनं (नपुं०) बेड़ी, पैरों की श्रृंखला। पादभू (स्त्री०) चरण प्रान्त, चरणभाग। (जयो० १२/१०४) पादमुदा (स्त्री०) चिह्न, चरण-संकेत। पादमूलं (नपुं०) पपोटा, तलवा, एडी। पादरक्षिकः (पुं०) पादत्राण, उपानह। (जयो० २१/६४) पादरसस् (नपुं०) चरणधूली। पादरज्जुः (स्त्री०) पैरों की रस्सी। पादरथी (स्त्री०) उपानह, जूता। पादरोहः (पुं०) वट वृक्षा पादरोहणः (पुं०) वट वृक्ष। पादलग्न (वि०) पैरों में नत। छाया तु मा यात्विति पादलग्ना
प्रियाऽध्वनीनस्य गतिश्च भग्नाः। (वीरो० १२/१७) पादवन्दनं (नपुं०) चरणस्पर्श, विनम्र अभिवादन। पादविक्षेषः (पुं०) पग रखना, पैर बढ़ाना, पगचाल।
(जयो०८/४२) पादविरजस् (नपुं०) उपानह, जूता। पादशाखा (स्त्री०) पैरों की अंगुलियां। पादशैलः (पुं०) गिरिपाद। पादशोधः (पुं०) पैरों की सूजन। पादशौचं (नपुं०) चरणों की स्वच्छता। पाद-समन्वयः (पुं०) चरण स्पर्श, चरणों में नतभाव, चरण
सम्पर्क। (जयो० २४/४७) पादसम्पर्कः (पुं०) पादसमन्वय, चरणस्पर्श। (जयो०१/१०५,
जयो०७० ५/१००) पादसरोजं (नपुं०) चरण कमल। (सुद० २/३२) 'सम्प्रेरितः
श्रीमुनिराजपाद-सरोजयोः तावसरं जगाद। (सुद० २/३२) पादसेवनं (नपुं०) चरण स्पर्श। पादसेवा (स्त्री०) चरणों की सेवा, कैययावृत्ति भावा०सेवा भाव। पादस्फोटः (पुं०) विमाई, पैर फटना। पादहत (वि०) पैरों से ठुकराना। पादात् (पुं०) [पादाभ्यामतति-पाद+अत+क्विप्] प्यादा, पदाति,
पैदल सिपाही।
पादातः (पुं०) [पदातीनो समूहः-पदाति+अण] पैदल सिपाही। पादानः (पुं०) पैरों का अग्रभाग। पादांकः (पुं०) पदचिह्न। पादांगदः (पुं०) पैर का आभूषण, नूपुर, पायल। पादांगुष्ठः (पुं०) पैर का अंगूठा। पादांतरं (नपुं०) पग अन्तराल। पादाम्बुजं (नपुं०) चरण कमल। पादाब्जराजि (स्त्री०) चरणपृष्टदेश। 'पादावेवाब्जानां राजानौ
तौ विशुद्धौ निर्दोषो (जयो०वृ० ११/१७) पादानलोक्तर (वि०) किरण समूह। (भक्ति० २०) पादारविंदं (नपुं०) चरण कमल। पादार्दित (वि०) चरणाघातपीड़ित। (जयो० १५/७२) पादि (स्त्री०) पदाति, पैदल। (जयो० २१/१२) पादिक (वि०) चौथा भाग, चतुर्थांश। पादिन् (वि०) [पाद्+इनि] सपाद, पैरों वाला। पादुकः (वि०) [पद्-उकञ्] पैदल चलने वाला। पादुका (स्त्री०) खड़ाऊँ, पदत्राण, पादरक्षिक। (जयो० २/१६) पादुकारः (पुं०) मोची, जूता, बनाने वाला। पादू (स्त्री०) [पद्+ऊ] पादत्राण, उपानह। पादूकृत् (स्त्री०) मोची। पादोदकं (नपुं०) चरणोदक। (जयो० १४८६) पादैकदेश: (पुं०) चरणों का आंशिक भाग। (जयो० ११/१३) पाद्य (वि०) [पाद+यत्] पैरों से सम्बन्ध रखने वाला। पानं (नपुं०) [पा+ल्युट्] पीना, चढ़ा जाना।
चुम्बन, आलिंगन। ०पान करना। (सुद० ३/१६)
०बचाना, रक्षा करना। पानः (पुं०) शराब/मद्य खींचने वाला। पानकं (नपुं०) [पान कन्] पानीय, पेय पदार्थ, चूंट लेना।
चषक। पानकपात्रं (नपुं०) मधुमृत चषक। (जयो० १६/२९) पानपात्रं (नपुं०) पानपात्र, प्याला, चषक। (जयो०वृ० १२/२०) पानभाजनं (नपुं०) चषक। पानभू (स्त्री०) मधुशाला। पानभूमि (स्त्री०) सुरालय, मद्यालय। पानमण्डलं (नपुं०) मद्यपान-समूह। पानरत (वि०) मद्यपान में लीन सुरापायी। पानवणिज् (पुं०) मद्य विक्रेता, शराब बेचने वाला।
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पानविभ्रमः
६३७
पापप्राय
पानविभ्रमः (पुं०) उन्मत्त दशा, नशा, मदहोश। पानागारः (पुं०) मद्यशाला, मदिरालय। पानान्तरः (पुं०) पान का आस्वाद, मद्य का अस्वाद। (जयो०
१६/३७) पानिकः (पुं०) [पान+ठक्] कलाल, मद्य विक्रेता। पानिलं (नपुं०) [पान+इलच्] प्याला, चषक। पानीयं (नपुं०) [पा+अनीयर] ०जल, वारि।
पेय पदार्थ, पातुमिच्छतीति। पानीय (वि०) पिया गया। (दयो० ८४) (जयोवृ० १२/११९) पानीयनकुलः (पुं०) ऊदविलाव।। पानीय-वर्णिका (स्त्री०) रेती, धूली। (वीरो०२/१९) पानीयशाला (स्त्री०) प्याऊ, प्रपा। पानीयस्थानं (नपुं०) पयोभू। (जयोवृ० १७/६०) पानीयापत्तिः (स्त्री०) पानी से होने वाली आपत्ति। (दयो०४२)
जल व्याधि। पान्थः (पुं०) [पन्थानं नित्यं गच्छति-पथिन् अण] पथिक,
बटोही, यात्री। (वीरो०) (दयो० २०) विग्रह-ग्रहसमुत्थित
व्यथः पान्थः उच्चलित किं कदा पथः। (जयो० ७/५५) पान्थजनः (पुं०) पथिक। (दयो० ९) पान्थनृपालन (वि०) पथिकपालनार्थ। (वीरो० १२/२७) पान्थोपरोधः (पुं०) पथिकवारण, प्रेषितजनगमन वारण। (वीरो०
६/२६) पाप (वि०) [पाति रक्षति आत्मानम्, अस्मात्-पा+प]
अहितकर, अनिष्टकर, हानिकारक, दुष्ट, निम्न, नीच, हीन। विनाशक, घातक, अभिशप्त। ०अधम, पतित, गिरा हुआ।
दुर्भाग्य। पापं (नपुं०) पाप, अशुभ प्रवृत्ति। 'पाति रक्षति आत्मानं
शुभादिति पापम्' पापं तु देहात्मतया क्रियेत। (सम्य०४०) ०एन। (जयो० १/२१) (स०सि० ६/२) ० प्रतिद्वन्दि, दुष्कृत। (जयो० १/८२) दुर्व्यसन, नीच प्रवृत्ति। दुष्कर्म। पापं दुष्कर्म पुद्गला। ०कम्लष (जयो०वृ० ४/५१, मुनि० ३०) ०दु:ख। दु:खं जनोऽभ्येति कुतोऽथ पापात्। पापे कुतो धीरविवेकतापात्' (वीरो०५/२८)
दुरित, अघ। (जयो० २।८३) पापकर (वि०) पाप करने वाला, अनिष्टकर्ता।
पापकर्म (पुं०) अशुभ कर्म, अशुभ प्रकृति। असुहपयडीओ
पावं। पापकर्मोपदेशः (पुं०) निष्प्रयोजन अशुभ कर्म का कथन। पापकारक (वि०) पाप उत्पादक। (जयोवृ० २/१०३)
अनिष्टकारण, घातक, अहितकर। पापकारिन् (वि०) पापी, अधम, नीच व्यक्ति। पापकृत् (वि०) पापकारी, दुष्कर करने वाला। पापकारक
(जयो० २/१०३) पापक्षयः (पुं०) पाप का नाश, अशुभ प्रवृत्ति का अन्त। पापगत (वि०) अशुभ अवस्था को प्राप्त। पापग्रहः (पुं०) अनिष्टस्थान, घातक ग्रह। पापघ्न (वि०) पापकरी क्रियाओं को रोकने वाला, प्रायश्चित्तकारी। पापचर (वि०) अशुभ चर्या। पापचर्यः (पुं०) राक्षस, पापी। पापजुगुप्सा (स्त्री०) पाप से ग्लानि, पाप से उद्विग्न रहना,
पापोद्वेग। पापदृष्टि (स्त्री०) अशुभ दृष्टि, नीच व्यवहार। पापधी (स्त्री०) ०अधमबुद्धि। नीच प्रवृत्ति। पापद्धिः (स्त्री०) आखेट, शिकार। पापनाशन (वि०) मलापहरण, प्रायश्चित्तकारी। (जयो०वृ०
३/१०) पापपः (पुं०) पापी। पापपतिः (पुं०) यार, दूसरा व्यक्ति जार, पर पुरुष। पापपथः (पुं०) पाखण्डमार्ग, दुरितस्थान। (जयो० २/११६) पापपवि (नपुं०) पापवज्र वाला। अघवज्र (जयो० २/१५७) पापपाखण्डः (पुं०) पापमार्ग, अधमपथ। (जयो०वृ० २/११६) पापपुरुष (पुं०) नीच पुरुष, अधम व्यक्ति, दुराचारी, अपराधी,
अत्याचारी। पापप्रकृति (स्त्री०) अशुभप्रकृति। पापप्रकृतयः कटुकरसा,
अशुभा उच्यन्ते' (जैन०ल० ७०३) पापप्रचयः (पुं०) पाप समूह। (वीरो० १४/२४) पापप्रतिवर्जनं (नपुं०) अशुभ से बचना, मलापहरण, अघनाश,
(समु० ३/४) पापप्रतीय (वि०) शत्रसंहारक, दुष्परिणाम घातक। (जयो०
१/८५) पापप्रलोप (वि०) दुरितावहानी दुरिताधीरण। (जयो० २।८३) पापप्रवृत्तिः (स्त्री०) नीच भाव। (वीरो० १७/२२) पापप्राय (वि०) पापों की बहुलता। (सुद० ५/१)
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पापफल
पापफल (वि०) अनिष्टकर, घातकपरिणाम।
पापबुद्धिः (स्त्री०) निम्नबुद्धि, नीचमति । पापभाव: (पुं०) पाप परिणाम
पापमति: (स्त्री०) निम्नबुद्धि, दुष्टहृदय । पापमुक्त (वि०) अशुभ से हटा हुआ। पापमोचनं (नपुं०) पापनाशन, पाप का अभाव। पापयोनि (स्त्री०) पाप स्थान
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पापरोगः (पुं०) निम्नरोग, घातक बीमारी । पापल (वि०) पाप अर्जित करने वाला । पापवर्जित (वि०) अघनाशक, अघोन (जयो०वृ० ३/३२) पापवृत्तिपरान्मुखः (पुं०) पाप वृति की ओर (सुद० १२८) पापश्रमण (पुं०) एकाकी विचरण करने वाला श्रमण। ० श्रमणाचार विमुक्त साधु।
पापशील (वि०) दुष्ट प्रकृति वाला। पाप संकल्प (वि०) दुरात्मन् ।
पापहापनं (नपुं०) पापनाशक । 'पापस्य हापनं पापनाशकमेव '
(जयो०वृ०२/२२)
पापहीन (वि०) अधमतारहित निरेना (जयो०० २२ / ९ ) पापहृत् (वि०) दुरितनाशक । (जयो० २४/५५) पापाचार (पुं०) पाप प्रवृत्ति । (जयो० १२ / ३) दुर्व्यसनी, दुष्ट । पापात्मक (वि०) हिंसात्मक। (जयो०वृ० ३/५४) पापानुबन्धिन् (वि०) पाप करने वाला। (दयो० २ / २३) पाप की ओर प्रवृत्त हुआ।
पापापकृत् (वि०) दुरितापहारक, पापापहारी, अशुभहर्ता । (जयो०वृ० १ / ११३)
पापारोपः (पुं०) अशुभ का आरोप, दुष्टता का कथन । (जयो०वृ० १/८२)
पापाशय: (पुं०) अशुभोपयोग। (समु० ११५ ) पापाह: (पुं०) दुर्भाग्यपूर्ण दिवस ।
पापाहारिम् (वि०) पापों का अपहारक । पापापहारीति वयं वदामः सम्विघ्नबाधामपि संहरामः । (सुद०२/२३) पापिन् ( वि० ) [ पाप + इनि] पाप पूर्ण, दुष्टात्मन् । (जयो० १५/५८) परमार्थाञ्च यो भ्रष्टः पापीयान्स पुनः पुमान्। (हित०सं० ५)
पापवर्ग: (पुं०) दुश्चरित्रात्माओं का समूह। पापं विमुच्यैव भवेत्पुनीतः स्वर्णं च किट्टप्रतिपाति हीतः पापाद् घृणा किन्तु न पापिवर्गान् मनुष्यतैवं प्रभवेन्निसर्गात् ।। (वीरो० १७/७)
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पापिष्ठ (वि० ) [ अतिशयेन पापी-पाप- इष्ठन् ] अधम, नीचवृत्ति युक्त दुष्टतम्। (मुनि० १८ )
+
पापीयस् (वि० ) [ पाप ईयसुन्, अयमनयोरतिशयेन पापी ] महापापी, अतिशय दुष्कर्मी। (दयो० १२)
पाप्मन् (पुं० ) ( पा+मानिन्, पुगागमः] दुष्ट, नीच, अधम,
अपराध
पामन् (पुं०) [पा+मनिन् ] चर्मरोग, खुजली ।
पामन (वि०) [पामन्+र] खुजली से पीड़ित, चर्मरोग से दुःखी । पामर (वि०) [पामन्+न, न लोपः] खुजली से ० पीड़ित, कण्डू वाला।
पारक
०दुष्ट, नीच, अधम, गंवार, दीन (वीरो० १७/३७) ० मूर्ख, मूढ, विसम्मूढ । * ० निर्धन, असहाय ।
पामर (पुं०) मूढ, मूर्ख। ०दुष्ट, नीच पुरुष | पामरत्व (वि०) शूद्रवर्णत्व। (जयो० १८/५०) प्रविरलानामेव लोकानां पामरत्वं शूद्रवर्णत्वं (जयो० १८/५०)
पाय: (पुं०) उपाय, प्रयत्न । इह सत्याशंसा पायात्। (सुद०११२) पायना (स्त्री०) [पाणिच् युच्+टाप्] सिंचित करना, छिटकना, पिलाना, तर करना।
०तेज करना, पैना करना, तीक्ष्ण करना। पायस ( वि० ) [ पयस्+अण्] दूध से निर्मित । पायस (पुं०) ०पिपासा, तृष्ण खीर, दूध निर्मित चावल (जयो० २२/५)
० |
पायसं (नपुं०) दूध, क्षीर।
पायसस्मित (वि०) क्षीर सदृश। (जयो० १२ / १२३ ) पायिकः (पुं० ) पैदल सिपाही
पायित (वि०) पिलाई गई (सुद० ३ / २६ ) पायुः (स्त्री०) [पाउण्+युक्] गुदा, मलद्वार। पायुवायु (स्त्री०) अपान वायु। (सुद० ९० ) पाय्यं (नपुं०) (पाण्यत्] ०नोर, जल, पानी।
०पेय पदार्थ, क्षीर, दूध
० प्ररक्षण, परिमाण।
पार: (पुं०) [पृ+घञ्] किनारा, तट, दूसरा भाग । (जयो०
५/१००)
० अन्तिम सीमा, अन्तिम भाग।
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o निष्पन्न, बना हुआ, निर्मित किया ।
पारक (वि०) पार करने वाला, आगे बढ़ने वाला, अग्रगामी, विकाशशील।
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पारकम्म
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पारकम्म (वि०) दूसरे पार पाने की इच्छा करने वाला। पारक्य (वि०) पराया, दूसरे का ।
० विरोधी ।
पारक्यं (नपुं०) परलोक का साधन, पवित्र आचरण । पारङ्गत ( वि० ) पार को प्राप्त हुआ। (दयो० ९१ ) पारग (वि०) पार जाने वाला, नाव से पार होने वाला । पारगत (वि०) पार पहुंचा हुआ ।
पारगामिन् (वि०) पार जाने वाला ।
पारगामी (वि०) उस पार होने वाला। (सुद० ३/३१) पारग्रामिक (वि०) [पारग्राम ठक] ०अनात्मीय पराया, विरोधी, शत्रुतापूर्ण
पारचिकः (पुं०) अनुपस्थान, प्रायश्चित्त का कथन। पारज् (पुं०) [पार्+ णिच्+अजि] स्वर्ण, सोना। पारजाविक (वि०) [परजाया गच्छति परजाया ठक्] व्यभिचारी, परस्त्रीगामी ।
पारटीट: (वि०) प्रस्तर, पत्थर । ०पाषाण । पारण (वि०) पार ले जाने वाला, उद्धार करने वाला । पारण: (पुं०) मेघ, बादल ।
पारणं (नपुं०) निष्पन्न करना, पूरा करना ।
• व्रत के भोजन करना, उपवास के बाद दूसरे दिन आहर लेना।
०व्रत खोलना। (सुद० ९४ )
पारणा (स्त्री०) उपवास के बाद की जाने वाली दूसरे दिन की आहार क्रिया ।
*
पारत: (पुं० ) [ पारं तनोति पार तन्ड] पारा, धातु विशेष पारद सारद (वि०) पारदानुकरणकारी, पार के सार वाले (जयो० ९/५० )
पारतन्त्र्य (नपुं०) [परतन्त्र+ष्यम् ] पराधीनता, पराश्रयता, अनुसेवा ।
पारत्रिक (वि० ) [ परत्र+ठक्] परलोक सम्बन्धी, आगामी लोक सम्बंधी।
पात्र्यं (नपुं० ) [ परत्र+ ष्यञ् ] आगमी काल में प्राप्त होने वाला फल, भावी परिणाम ।
पारदः (पुं०) (पारं ददाति पार+दा+क] पारा, एक धातु
विशेष, रस विशेष। (जयो० १६ / १८, १२/७) 'रसोऽगदः नागिव पारदेन' (वीरो० १४/४४) रसः स्वादेऽपि तिक्तादौ शृङ्गारादौ द्रवे विषे ।
पारदे धातु वीर्याम्बु- रागे गन्धरसे तनौ इति विश्वलोचन । (जयो०वृ० १२/७ )
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पारंपरोपदेशः
पारदर्शक (वि०) निर्मल, आर-पार दिखाई देने वाला। (जयो० १० / ५ )
पारदर्शकप्रस्तर (पुं०) संगमरमर ग्रेनाइट ०पारा पारदारिकः (पुं० ) [ परदारा+ठक्] व्यभिचारी, परस्त्रीगमनी । पारदार्य (नपुं०) (परदार+ष्यम्] व्यभिचार, परस्त्रीगमन। [ पारदेशिक (वि०) [परदेश+ठक्] विदेशी, बाहर के देश का । पारदेशिकः (पुं०) परदेशी, यात्री ।
पारदेश्य (वि०) (परदेश ष्यञ्] विदेशी, परदेश से सम्बंध रखने वाला।
पारभृतं (नपुं०) उपहार भेंट, प्राभृत।
पारमहंस्यं (नपुं० ) [ परमहंस् + ष्यञ् ] परमहंस वृत्ति । परमार्थ (पुं०) परम प्रयोजन ( हित० ५) पारमार्थिकः (पुं०) आत्मा की अपेक्षा, मोक्ष सम्बंधी परम
अर्थ की दृष्टि (हित० ३)
,
पारमार्थिक प्रत्यक्षं (नपुं०) इन्द्रियादि कारणों की अपेक्षा नहीं करने वाला प्रत्यक्ष परमार्थे भवं पारमार्थिक मुख्यम्, आत्मसन्निधिमात्रापेक्षम्' अवध्यादि प्रत्क्षमित्यर्थः '
० सभी प्रकार से स्पष्ट प्रत्यक्ष। 'सर्वतो विशदं पारमार्थिक प्रत्यक्षम् (न्यायदीपिका ३४ )
० अध्याम से सम्बन्ध रखने वाला।
० यथार्थ ज्ञान रखने वाला।
० सत्यार्थ निरूपण करने वाला प्रत्यक्ष
पारमिक (वि० ) [ परम+ठक्] ०सर्वोपरि, सर्वोत्तम । ० मुख्य, प्रधान।
परमित (वि०) तट पर गया हुआ, पार प्राप्त। (जयो० ५ / ९३ ) अन्य किनारे पर गया हुआ ।
पारमेतुं (तुमुन् ) गन्तुम् - जाने के लिए, पार होने के लिए (जयो० १७/५३)
पारमेष्ठ्य (नपुं० ) [ परमेष्ठिन् + ष्यञ् ] सर्वोपरिता, उत्तमता,
उच्चतम ।
पारंपरीण (वि०) [ परंपरा व्यञ्] परंपरा प्राप्त, आनुवंशिक,
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क्रमागत ।
पारंपरीय (वि०) [परम्परा छ] आनुवंशिक, क्रमागत । पारंपर्यं (नपुं०) [परम्परा ष्यञ् ] ० आनुवांशिक, अविच्छन्न, ० परंपरा से प्राप्त शिक्षा ।
पारंपरोपदेशः (पुं०) [पार+ णिच् + इष्णुच] तृप्तिकारक, संतोषजनक |
० पार जाने में समर्थ ।
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पारलौकिक
६४०
पारिप्लाब्यः
पारलौकिक (वि०) [परलोकाय हितं पर+लोक+ठक] परलोक | पारिणामिकत्व (वि०) अवस्थान्तर की प्राप्ति-भवान्तरोपादानं
से सम्बन्ध रखने वाला, उत्तर सुख युक्त (वीरो०वृ०२/१०) पारिणामिकत्वमुच्यते' (त०वृ० ५/३७) परिणामयतीति पारवत: (पुं०) [पार+आ+ पत्+अच्] कबूतर, कपोत।
पारिणामिकः, परिणामिक इव पारिणामिकः। (त०वृ०५/३७) पारवश्य (नपुं०) [परवेश+ष्यञ्] आधीनता, पराश्रयता। | पारिणामिक भावः (पुं०) द्रव्यात्मलाभमात्र का कारण। पारवश्यकविचारवेशिनी (वि०) सर्व साधारण विचार प्रवेश 'सकल-कर्मोपाधिविनिर्मुक्तः परिणामे भव: पारिणामिक वाली (२/४)
भावः। (निय०सा०वृ० ४१) पारशव (वि०) [परशु+अण] लोहे से निर्मित।
० दूसरी अवस्था को प्राप्त भाव। पारशकः (पुं०) लोहा, शूद्र पुत्र।
पारिणामिकी (वि०) हितकारी। (दयो० १०४) पारस (वि०) [पारस्यदेशे भव:] फारसी, फारस देशवासी। पारिणामिकी (स्त्री०) पारिणामिकी बुद्धि, अपने अपने अभीष्ट पारसिकः (वि०) फारस देश।
की साधक बुद्धि। पारसी (स्त्री०) फारसी भाषा।
अभ्युदय या निःश्रेयस् कारक बुद्धि। 'णिय-णिय-जादिपारसीकः (पुं०) पारस देश।
विसेसे उप्पण्णा पारिणामिकी णामा। (ति०प०४/१०२०) पारस्परिक (वि०) एक दूसरे से सम्बन्धित। (दयो०वृ० ११/४८) | पारिणाम्य (वि०) [परिणय+ष्यञ्] विवाह से सम्बंध रखने पारा (स्त्री०) एक नदी का नाम।
वाला। पारापतः (पुं०) [पार+आ+पत्] कपोत, कबूतर।
पारिणाम्यं (नपुं०) वैवाहिक सम्पत्ति। पारायणं (नपुं०) पारगमन, पूर्ण अध्ययनकर्ता। 'पारायणं नाम पारितथ्या (स्त्री०) [परितथ्य+ष्यञ्] मोतियों की लड़ी, बेड़ी ___ सूत्रार्थ-तदुभयानां पारगमनम्' (जैन०ल० ७०५) ___ में गूंथी जाने वाली लड़ी। पारायणिकः (पुं०) [पारायण+ठक्] व्याख्यानदाता। पारितोषिक (वि०) [परितोष्+ठञ्] सुखकर, संतुष्टि युक्त, शिष्य, छात्र।
हितकर, सान्त्वना से परिपूर्ण। पारारुकः (पुं०) [पार+ऋ+उकञ्] प्रस्तर, चट्टान। पारितोषिकः (पुं०) उपहार, भेंट, प्राभृत, पुरस्कार। (दयो०६१) पारावतः (पुं०) कपोत, कबूतर। (जयो० १५/४५) ०वानर, | पारिध्वजिकः (पुं०) [परिता ध्वजा-परिध्वजा+ठक्] झण्डा पर्वत।
से चलने वाला, झण्डा युक्त। पारावारः (पुं०) समुद्र, उदधि। (सुद० ९८)
पारिन्दः (पुं०) सिंह, केसरी। पारावारीण (वि०) दोनों ओर तक जाने वाला।
पारिपंथिकः (पुं०) [परिपंथ+ठक्] डाकू, लुटेरा। पाराशरः (पुं०) व्यास ऋषि।
पारिपाट्यं (नपुं०) [परिपाटी+ष्यञ्] ०पद्धति, रीति, प्रणाली, पाराशरिका (स्त्री०) शाण्डिल्य ब्राह्मण की पत्नी। (वीरो० ११/१०)
नियमितता। पाराशरिन् (पुं०) [पाराशन्-इनि] साधु, मुनि, अध्येता, सूत्र । पारिपार्वं (नपुं०) [पारिपार्श्व+अण्] अनुचर, सेवक, अनुयायी। कंठस्थकर्ता।
पारिपार्श्वकः (पुं०) [पारिपार्श्व+कन्] ०अनुचर, सेवक, भृत्य। पारिक्षितः (वि०) [परिक्षित्+अण] अर्जुन का प्रपौत्र।
सूत्रधार, अन्तर्वादी, पीछे से बोलने वाला, उद्घोषक। पारिखेय (वि०) [परिखा+द] परिखा से घिरा हुआ, खाई से पारिपाश्विका (स्त्री०) सेविका, अनुचारी। परिपूर्ण।
पारिप्लव (वि०) [परिप्लव+अण] ०इधर उधर, घूमने वाला। पारिग्राहिणी (वि०) परिग्रह से होने वाली क्रिया।
०चंचल, अस्थिर, कम्पायमान। पारिजातः (पुं०) [पारमस्य अस्ति इति पारी समुद्रः तस्माज्जातः ०क्षुब्ध, उद्विग्न, परेशान।
पारिजात+कन्] परिजात नामक तरु, स्वर्ग के देवेन्द्र के ०व्याकुल, घबराया हुआ। उद्यान का एक वृक्ष।
पारिप्लवः (पुं०) नाव। पारिणामिक (वि०) अवस्थान की प्राप्ति। परिणामः पारिप्लवं (नपुं०) बेचैनी, व्याकुलता। प्रयोजनमस्येति पारिणामिक। (स०सि० २/१)
पारिप्लाब्यः (पुं०) हंस।
ढंग।
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पारिप्लाव्यं
पारिप्लव्यं (नपुं०) क्षोभ, बेचेनी, परेशानी, कंपकंपी, थरथराहट। पारिबर्हः (पुं०) [परिवर्त अण्] वैवाहिक उपहार । पारिभद्रः (पुं० ) [ परिभद्र+अण्] ०मूंगे का वृक्ष, देवदारु तरु ।
+
० सरल वृक्ष।
० नीम तरु ।
।
पारिभाष्यं (नपुं० ) [ परिभू+ ष्यञ् ] ०प्रतिभूति, ०जमानत । ०धरोहर, ०न्यास, निक्षेप पारिभाषिक (वि०) [परिभाषा+ठक् ] ०सामान्य स्वरूप वाला। o किसी विशेष अर्थ वाला स्वाभाविक अर्थ युक्त । • लाक्षणिक, लक्षण युक्त । ० स्वरूप युक्त । पारिमांडल्यं (नपुं० ) [ परिमण्डल + ष्यञ् ] ०अणु, सूर्य किरण
रज ।
पारिमुखिक (वि०) [परिमुख ठक) मुंह के सामने, निकटवर्ती,
+
पास का।
पारिमुख्यं (नपुं० ) [ परिमुख+ ष्यञ् ] उपस्थिति, समीप होना, पार्श्ववर्ती
पारियात्रः (पुं०) पर्वत श्रृंखला। पारियात्रिक (वि०) पर्वतवासी ।
पारियानिकः (पुं० ) [ परियान + ठक् ] यात्री सम्बंधी गाड़ी । पारिरक्षकः (पुं० ) [ परिरक्षति आत्मानं परि + रक्ष् + ण्वुल्+अण्] ० मुनि, साधु सन्यासी ।
-
पारिव्राजक (नपुं०) [परिव्राजक+अण्] परिभ्रमण शील जीवन वाला सन्यासी ।
पारिवत्त्वं (नपुं० ) [ परिवृत्त+ ष्यञ् परिवेतृ + ष्यञ् ] ताऊ का अविवाहित होना, बड़े भाई का परिणय न होना । पारिशीलः (पुं० ) [ परिशील+अण्] रोटी, पूआ, मालपुआं । अपूप।
"
पारिशेष्यं (नपुं० ) [ परिशेष+ ष्यञ् ] शेष बचा हुआ अवशिष्ट । पारिषद (वि०) [ परिषद् +अण्] सभा करने वाला, सभा से सम्बंध रखने वाला।
पारिषदः (पुं०) उपस्थित व्यक्ति, देवमित्र । परिषदि भवा पारिषदाः । (स०सि० ४/४) परिषदि सभायां भवाः पारिषदाः पीठमर्दमित्रतुल्याः
पारिषद्यः (पुं० ) [ परिषद्-यत्] दर्शक, सभा में उपस्थित जन समूह, श्रोतागण |
पारिहारिकी (स्त्री० ) [ परिहर + ठक् + ङीप् ] प्रहेलिका, रहस्यमयी पहेली बुझौवल
पारिहार्य : (पुं०) कंगन, वलय, कड़ा।
3
६४१
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पारिहार्यं ( नपुं०) ग्रहण करना, स्वीकार करना लेना। पारिहास्यं (नपुं० ) [ परिहास + ष्यञ् ] हंसी उड़ाना। पारी (स्त्री० ) [ पृ + णिच+घञ् + ङीष् ] ०हस्बिंधन का रास्सा
० जल का परिमाण ।
|
०प्याला, सकोरा कटोरा ० सुराही ।
पारीण (वि०) दूसरे पार जाने वाला। ०सुविज्ञ, सुपरिचित, जानकारी।
पारीणह्यं (नपुं०) घर का सामान।
पारीन्द्रः (पुं०) [पारिपशुः तस्येन्द्रः] ०सिंह, ० अजगर । पारीरण: (पुं०) [पायां जलपूरे रण यस्य ] ०कच्छप, कूर्म,
पार्यंतिक
कछुवा ।
०छड़ी, यष्टि, लाठी।
पारु: (पुं०) [पिबति रसान् पारु] ०सूर्य, दिनकर । ० अग्नि, आग।
पारुष्य (वि० ) [ परुष + ष्यञ् ] ०खुरदुरापन, कठोरता युक्त,
कड़ापन ।
० क्रूरता, निर्दयता ।
• अपलाप, अपभाषा, बुरा-भला, अश्लील।
०
० इन्द्र का आराम।
● अगर रोष युक्त।
पारुष्यः (पुं०) बृहस्पति ।
पारोवर्यं (नपुं०) [परोवर + ष्यञ् ] परम्परा, क्रम।
पार्घटं (नपुं०) [पादे घटते इति अच्] ०धूल, रज, राख। पार्जन्य (वि०) [पर्जन्य+अण्] वृष्टि से सम्बन्ध रखने वाला। पार्ण (वि०) [पर्ण+अण्] पत्तों से सम्बन्धित ।
पार्थः (पुं० ) [ पृथा+अण्] ०युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन के मातृकुलसूचक सम्बोधन।
० अर्जुन |
पार्थक्यं (नपुं०) पृथक्ता, अलग अलग। पार्थसारथिः (पुं०) कृष्ण।
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पार्थवं (नपुं०) विस्तार, फैलाव, चौड़ाई । पार्थिव (वि०) [पृथिवी+अण्] भू सम्बन्धी |
पार्थिवः (पुं०) राजा, पृथ्वीपालक। (जयो० ११/७०, ६ / ९९ ) पार्थिवसुता (स्त्री०) राजकुमारी ।
पार्पर (पुं०) मुट्ठीभर चावल ०क्षयरोग, तपेदिक । पार्यंतिक (वि० ) [ पर्यन्त + ठक् ] ०अन्तिम, आखरी । ० निर्णायक ।
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पावर्ण
६४२
पाणिग्राहणं
पावर्ण (वि.) [पर्वन्+अण] पर्व सम्बंधी।
पार्श्वपरिवर्तनं (नपुं०) बिस्तर पर करवट बदलना, भाद्रशुक्लपक्ष। ०वृद्धि को प्राप्त होना।
पार्श्वप्रदेशः (पुं०) निकटवर्ती भाग। (जयो०वृ० ६/५८) पार्वणं (नपुं०) पर्व का समय। उत्सवकाल।
पाशवप्रभु (पुं०) पार्श्वनाथ। (वीरो० १/१४) पार्वत (वि०) [पर्वत+अण] पर्वतवासी, गिरि निवासी। पार्श्वभागः (पुं०) सन्निकटता, समीपवर्त प्रदेश (जयो० ०पहाड़ी, पर्वतीय।
१३/५६) पार्वतिकं (नपुं०) [पर्वत+ठन्] पर्वतमाला, गिरि श्रृंखला। ०कोख, पांसू। पार्वती (स्त्री०) [पर्वतभवां सुकन्दरां श्रितात्] उमा, गौरी, | पार्श्वमुद्रा (स्त्री०) ध्यान की एक अवस्था, जिसमें उल्टे हाथों
पर्वत पुत्री, शिव भार्या। (जयो०६/४४) पर्वतसम्बन्धिनी से वेणीबन्ध करके सामने करते हुए दोनों तर्जनियों के तटों तामेव वा पार्वती। (जयो० २४/६)
मिलाने और शेष अंगुलियों के मध्य में दोनों अंगूठों के पार्वतीय (वि०) पर्वत पर रहने वाला, गिरि निवासी।
रखने पर पार्श्वमुद्रा होती है। पार्वतीयः (पुं०) पहाड़ी, एक जाति। पार्वतीय नामक राजा पार्श्ववर्तिन् (वि०) समीपवर्ती, निकटवर्ती। (दयो० ९५)
न्यायाधिपः प्राह च पार्वतीयं वचो वसुर्वाग्विवशो महीयम्। (जयो०वृ०६/४७) (वीरो० १८/५१)
पार्श्ववर्तिनी (वि०) सन्निकटस्था (जयो० १०/९३) पार्वतेय (वि०) [पार्वती+ठक्] पर्वत पर उत्पन्न।
पार्श्वशय (वि०) समीप शयन करने वाला। पार्वतेयं (नपुं०) अंजन, सुरमा।
पावशूल: (पुं०) उदर शूल, कोख की पीड़ा। पार्शवः (पुं०) [पशु+अण] कुठार युक्त योद्धा। *फरसा वाला पार्श्वसङ्गत (वि०) पार्श्वगत, समीप गया हुआ। (वीरो० ४/३२) सैनिक।
पार्श्वसूत्रकः (पुं०) एक प्रकार का आभूषण। पार्श्वः (पुं०) [पशूनां समूहः] पांसू, कांख।
पार्श्वस्थ (वि०) समीपवर्ती, निकटवर्ती। पार्श्व (वि०) निकट, समीप। (जयो० १३/६५) ०पीछे। | पार्श्वस्थः (पुं०) सहचर, सूत्रधार।
(मुनि० १२) (जयो० २/१५६) 'पृतनापतिपार्श्वमागतः' पाशवमुनि, जो आत्महितकर दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप कथमप्यर्थिगणोऽथं रागतः'
और प्रवचन के पार्श्व में विहार करता है-उनके पालन ०पक्ष भाग (जयो० ३/१०३) पतन् पार्वे मुहुर्यस्य चामराणां में पूर्णतया प्रयत्नशील नहीं रहता है वह पार्श्वस्थ मुनि चयो बभौ। ०पदन्तिक (जयो० २४/९)
पार्श्वस्थ सङ्गवशः (पुं०) समीपवर्ती साधुओं की संगति के पश्यति सर्वभावानिति निरुक्तात् पार्श्वः।
वशीभूत। पार्श्वस्थसङ्गमवशेन दिगम्बरेषु शैथल्यमापतितमाशु पावः (पुं०) पार्श्वनाथ, तेइसवें तीर्थंकर का नाम, जिनका तपः परेषु (वीरो० २२/९) चिह्न सर्प है। पार्श्वप्रभु (समु० ११/३६)
पाश्विक (वि०) [पार्श्व+ठक्] कोख से सम्बंध रखने वाला। पार्श्वकुमारः (पुं०) पार्श्वनाथ, वामादेवी का सुत, बनारस के उदर सम्बन्धित।।
राजा अश्वसेन का पुत्र, जिसने जिनशासन के तीर्थमार्ग पार्षत (वि०) [पृषत्+अण्] चितकबरे हिरण से सम्बधित। का प्रवर्तन किया।
पार्वती (स्त्री०) [पार्षत ङीप्] ०द्रोपदी, दुर्गा। पार्श्वकेकड़ा (स्त्री०) सेवक, अनुचर। भृत्य।
पार्षद् (स्त्री०) सभा, परिषद्। पार्श्वगः (पुं०) अनुचर।
पार्षद्यः (पुं०) पार्षद्य नामक देव, जो मित्र सादृश होते हैं। पार्श्वगत (वि०) पास ही स्थित, पार्श्ववर्ती, शरणागत।
'वयस्यप्रायाः पार्षद्याः''पर्षदिसाधवः पार्षद्याः' 'पर्षदो ण्यणौ' पार्श्वचरः (पुं०) सेवक, अनुचर।
इति ण्य प्रत्ययः ते च वयस्थस्थानीयाः मित्रासदृशा देवराजापार्श्वजिनः (पुं०) पार्श्वप्रभु, तेइसवें तीर्थकर पार्श्वनाथ स्वामी। नामिति भावः (जैन०ल० ७०८) राभासद, सदस्य। पार्श्वदेशः (पुं०) कोख, पांसू।
पाष्णि (पुं०) ०एडी, सेना की पिछाड़ी। पार्श्वनाथः (पुं०) पार्श्वनाथ स्वामी। (भक्ति० २०)
०ठोकर। पार्श्वनाथ जिनालयः (पुं०) पार्श्वनाथ स्वामी का मंदिर। पाणिग्रहः (पुं०) अनुचर, अनुयायी। (दयो० १०)
पाणिग्राहणं (नपुं०) शत्रु की पीठ पर प्रहार करना।
कहलाताश: (पुं०) समीपताम्बरेषु शैथल्यमापति
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पाणिग्राहः
६४३
पाशः
पाणिग्राहः (पुं०) पृष्ठवर्ती शत्रु। पृष्ठवर्ती सेनापति, विजय
के लिए, प्रस्थान गत।
प्रस्थान के समय पीछे क्रोध करने वाला। पाष्णिघातः (पुं०) ठोकर। पाणित्रं (नपुं०) पृष्ठरक्षक। पाष्णिवाहः (पुं०) बाह्यवर्ती अश्व। पाल: (पुं०) [पाल+अच्] अभिभावक, संरक्षक, पालक।
(वीरो० २/१३) पालने पालके त: स्यात् इति वि (जयो० १८/१६)
ग्वाला, राजा, पीकदान। पालकः (पुं०) [पाल्+ण्वुल्] संरक्षक, अभिभावक।
राजा शासक, प्रभु।
घोड़ा, चित्रकवृक्ष। पालकाप्यः (पुं०) हस्तिविज्ञान। पालंकः (पुं०) पालक का साग।
०बाजपक्षी। पालंक्यः (पुं०) एक सुगन्धित द्रव्य। पालनं (पुं०) [पाल ल्युट्] संरक्षक, अभिभावक। पालन (वि०) पालन करने वाला। (सुद० ३/२३) पालनक (वि०) भरण-पोषण करने वाला। पालनकरिन (वि०) रक्षा कारक। (वीरो० ३/३३) रक्षा करने
वाला, संरक्षण देने वाला। पालननिमित्तं (नपुं०) प्रजाहितार्थ (जयो० १८/१६) पालयित (पुं०) [पाल्+णिच्+तृच्] संरक्षक, अभिभावक,
__पालन-पोषण कर्ता। पालाश (वि०) ढाक से उत्पन्न। पालाशखण्डः (पुं०) मगध देश। पालित (वि०) रक्षित, सुरक्षित, पाला गया। 'पुनः
पुनरूपयोगप्रतिजागरणेन रक्षितम्' (जैन०ल० ७०८) पालिः (स्त्री०) कान का सिरा। परम्परा (जयो० १४/१०)
भाषा विशेष, मगध में प्रचलित भाषा। पालिका (स्त्री०) कान का सिरा। पालिभेदः (पुं०) संयम में स्थित होकर संरक्षण करना,
उपाश्रय की रक्षा करने वाली साध्वी। पाली (स्त्री०) एक स्थान का नाम, मगध का एक क्षेत्र।
जिसका अर्थ रक्षण अर्थ में भी होता है, बुद्धवचन को
जिसमें रक्षण प्राप्त हुआ वह भाषा भी पाली है। पालित्यं (नपुं०) [पलित+ष्यञ्] बालों में धवलता, वृद्धापन
की द्योतकता।
पाल्वल्ल (वि०) [पल्वल+अण] पोखर में उत्पन्न, तलैया से
प्राप्त। पावकः (पुं०) [पू+ण्वुल] अग्नि, आग, ज्वाला।
चित्रक वृक्षा पावकातिग (वि०) दूरवर्तिनी। (जयो० १२/५३) पावकात्मजः (पुं०) सुदर्शन ऋषि। कार्तिकेय। पावकिः (पुं०) [पावक+इञ्] कार्तिकेय। पावकेकिलः (पुं०) अग्नि, आग। समेत्यमन्त्रोत्थित-पावकेकिल,
प्रवेष्टुमन्यः परिनिर्वृतोऽखिलः। (समु० ४/१३) पावन (वि०) [पू+णिच्+ल्युट्] विशुद्ध, पवित्र, निर्मल, परिष्कृत,
अच्छा, पूत, पुनीत, श्रेष्ठ। 'पकारस्यावनं परिरक्षणं यस्यैवं शीलोऽमरपोमघवासन्' (जयो०वृ० १७) 'स्मासाद्य तत्पावनमिङ्गितञ्च' (सुद० २/२८)
पावनया पवित्रया श्रिया (जयो० १/६४) पावनपल्लवं (नपुं०) स्वच्छ जल, पवित्र जल। 'पदे पदे
पावनपल्लवानि सदाम्रजम्बूज्ज्वलम्भलानि' (सुद० १/१९) पावनमनं (नपुं०) पवित्रमन। (वीरो० १६/२७) पावनी (स्त्री०) [पावन ङीप्] ०पूत स्वभाविनी
(जयो० ५/९५) गंगा, गाय, तुलसी। पावमानी (स्त्री०) [पचमानं अधिकृत्य प्रवृत्तम् पवमान्+"
अण्+ङीप्] विशिष्ट ऋचा।
पवित्र करने वाली। पावरः (पुं०) पांसे का विशेष लक्षण। पावा (स्त्री०) पावापुरी, प्रसिद्ध सिद्ध क्षेत्र, महावीर स्वामी की
निर्वाणस्थली जो विहार में स्थित है। पावानगरं (नपुं०) पावापुर। अपि मृदुभावाधिष्ठशरीरः सिद्धि
श्रियमनुसत् वीरः। कार्तिककृष्णाब्धीन्दुनुमायास्तिथे र्निशायां विजनमथाऽयात। (वीरो० २१/२०) पावानगरोपवने मुक्तिश्रियमनुगतो महावीरः। तस्या वानुसरन् गतोऽभवत् सर्वथा धीरः।।
(वीरो० २१/२१) पाशः (पुं०) [पश्यते वध्यतेऽनेन. 'पश करणे घञ] डोरी.
रज्जू, रस्सी। ०श्रृंखला, बेड़ी।
जाल, फंदा। •पांसा, खेलने की गोटी। (जयो० २०/७७) ०बुनी हुई वस्तु की किनारी। तिरस्कार, अपमान, हीनता। निन्दा।
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पाशक:
६४४
पिंगल
पाशकः (पुं०) [पाश्यति पीडयति-पश्+णिच्+ण्वुल्] अक्ष, | पाषण्डिमूढता (स्त्री०) पाखण्डिमूढता, श्रमण होकर भी पांसा।
मंत्रादि शक्तियों की उपासना करना। पाशकला (स्त्री०) पाशक्षेपण, द्यूतक्रीड़ा, जुआ खेलना। (जयो० पाषाणः (पुं०) [पिनष्टि पिष् संचूर्णेन आनच्] प्रस्तर,
२०/७७) द्यूतक्रीडां पाशक्षेपणक्रियां करोति। (जयोवृ० पत्थर। (जयो०२/१२) (वीरो० २/१३) २०/७७)
पाषाण-कणं (नपुं०) पत्थर के टुकड़े, पत्थर के कण। पाशक्षेपणं (नपुं०) द्यूतक्रीड़ा। (जयो०७० २०/२७)
पाषाण दारकः (पुं०) छैनी, टॉकी। पाशनं (नपुं०) [पश्+णिच् ल्युट्] ०बंधन, जाल, फंदा, पत्थर काटने का औजार। पिंजरा।
पाषाणदारणः (पुं०) छैनी, टॉकी। डोरी, रज्जू, रस्सी।
पाषाण सन्धिः (स्त्री०) पत्थर की दरार। पाशपीशुं (नपुं०) जुआं का पाया, द्यूतक्रीडा का पाटा। पाषाणहृदय (वि०) कठोर हृदय, क्रूरहृदय, पत्थर की तरह पाशबंधः (पुं०) बन्धन, जाल।
कठोर हृदय। पाशबंधकः (पुं०) बन्धन, जाल।
पि (सक०) प्राप्त होना, परिभ्रमण करना, हिलना-जुलना। पाशबन्धनं (नपुं०) जाल।
पिकः (पुं०) [अपि कायति शब्दायते अपि+कै+क-अकारलोपः] पाशमुद्रा (स्त्री०) ध्यान की मुद्रा।
____ अलिपक। (जयो० २१/२६) (दयो० १२०) कोकिक, कोयला पाशवद्ध (वि०) जाल में फंसा हुआ। (जयो० ७/७७) पिकद्विजातिः (स्त्री०) कोयल पक्षियों का समूह। (वीरो० पाशरज्जु (स्त्री०) जाल, रस्सी, बेड़ी।
६/१९) कुहूः करोतीह पिकद्विजातिः स एष संखध्वपाशस्थ (वि०) बन्धन युक्त।
निराविभातिः। (वीरो० ६/१९) पाश हस्तः (पुं०) वरुण।
पिकबांधवः (पुं०) वसन्तऋतु। पाशविक (वि०) पशु सम्बंधी प्रवृत्ति वाला। (जयो० १२/१८९) पिकबन्धु (स्त्री०) कोयल की राग। पाशित (वि०) [पश्+णिच्+क्त] बेड़ियों से आबद्ध। पिकम कठिन् (वि०) मधुर कण्ठ वाली। पिष्कस्य कोकिलस्य पाशिन् (पुं०) [पाश इनि] वरुण, यम, बहेलिया।
मञ्जु मधुरं कण्ठ यस्याः सा। (जयो० १७/१८) पाशिन् (वि०) जाल में फंसाने वाला, पाशबद्ध। (जयो० पिकखः (पुं०) कोकिक कूक। (सुद० ८१)
२/७७) रज्जु बद्ध, पाश युक्त। (वीरो० १४/२२) पिकरागः (पुं०) कोयल की कूक। पाशुपत (वि०) [पशुपति+अण्] पाशुपत दर्शन से संबंधित। पिकस्वनः (पुं०) कोकिल शब्द। (वीरो०६/२२) जनीस्वनीतिः पाशपतं (नपुं०) पाशुपत सिद्धान्त।
स्मरमाणवेशः पिकस्वनः पञ्चम एष शेषः। (वीरो० ६/२२) पाशुपाल्यं (नपुं०) पशुपालक, ग्वाला की वृत्ति।
पिकवल्लभः (पुं०) आम्रवृक्षा पाश्चात्य (वि०) [पश्चात्+त्यक्] पश्चिमी संस्कृति वाला। पिकाङ्गना (पुं०) पिकी, कोकिला। (जयो० १०/११७) ०पश्चवर्ती।
पिकाननं (नपुं०) कोयलमुख। (जयो० ९/६९) पाश्चात्यं (नपुं०) पिछला भाग।
पिकानन्दः (पुं०) वसंत ऋतु। पाश्या (वि०) [पाश+य+टाप्] ०जाल, पिंजरा।
पिकी (स्त्री०) कोकिला। (दयो० २०) पाषण्डः (पुं०) [पात्रयोधर्मः, तं षंडयति-पा+षण्ड्+अच्] पिक्कः (पुं०) [पिकइत्यव्यक्तशब्देन कायति-पिक+कै+क] पाखण्ड।
हस्ति शवक। २० वर्ष का हस्तिशावक। पाषण्डकः (पुं०) [पाषण्ड+कन् पा+षड्+णिनि] धर्मभ्रष्ट | पिंगल (वि०) [पिंगं लाति ला+क] पीताभ, लालिमा। धर्मच्युता
पिंगल (पुं०) ०खाकी रंग, अग्नि, आग। पाषण्डस्थापना (स्त्री०) पाखण्ड की स्थापना। समणे य ०वानर, नेवला, उल्लू। पुंडुरंगे भिक्खू कावलिए अ तावसए। परिवायगे से तं
सर्प विशेष। पासंड णामे।। (जैन०ल. ७०८)
पिंगल नामक छन्दशास्त्र प्रणेता, प्राकृत-पैंगलं के पाषण्डिन् (वि.) पाखण्डता करने वाला। (सु० १०८)
रचनाकार।
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पिंगलं
६४५
पिंजा
पिंगलं (नपुं०) पीतल।
पिच्छलग (वि०) लड़खड़ाता। (समु० ७/४ पिंगलगान्धारः (पुं०) रत्नपुर के राजा का नाम। (जयो० पिच्छलत्वच् (पुं०) संतरे का पेड़, नारंगी का वृक्ष। २४/१०४)
छिलका। पिंगलनिधि: (स्त्री०) आभरणविधि, अलंकरण की पद्धति। | पिच्छि (स्त्री०) पिच्छी, मयूर पंख से निर्मित दिगम्बर साधु पिंगला (स्त्री०) शीशम तरु। उल्लू। एक धातु विशेष।
का एक उपकरण। संशोध्य तिष्ठेद्धवमात्मनीनं देहं च पिंगलाक्षः (पुं०) शिव, महादेव।
सम्पिच्छिकया यतात्मा। (वीरो० १८/२८) पिंगलिका (स्त्री०) [पिंगल+ठन्+टाप्] ०सारस, उल्लू विशेष। | पिच्छिका (स्त्री०) पिच्छी, प्रमार्जनी। पिंगाशः (पुं०) [पिंग+आश्+अण] गांव का मुखिया, सरपंच। पिच्छिलतम (वि०) अतिस्निग्ध (जयो० १०/१०५) पिगत् (अक०) गलना, बहना। (जयो० १७/१०१)
पिंज् (सक०) ०पुट देना, रंगना। पिचण्डः (पुं०) पेट, उदर।
०खजाना, अलंकृत करना। पिचण्डकः (पुं०) [पिचण्ड कन्] पेट्र, औदरिक।
०देना, लेना। पिचिंडिका (स्त्री०) [पिचिण्ड+ठन्+टाप्] पिंडली।
०चमकना। पिचुः (स्त्री०) रुई, एक तोल विशेष।
शक्तिशाली होना। पिचुका (स्त्री०) इत्र की फुइया गंध प्रदतूलांश।(जयो० २६/१५) रहना, वसना। पिचुतलं (नपुं०) रुई।।
० चोट पहुंचाना, क्षति पहुंचाना। पिचुमन्दः (पुं०) निम्ब तरु।
०मार डालना। पिचुलः (पुं०) [पिचु+ला+क] रुई, समुद्री काका पिंजः (पुं०) [पिं+घञ्] चन्द्रमा, शशि। पिच्चट (वि०) [पिच्च्+अटन्] चिपटा किया।
०कपूर। पिच्चटः (पुं०) नेत्र सूजन।
०वध, घात। पिच्चट (नपुं०) रांगा, जस्ता।
समूह, ढेर। पिच्चा (स्त्री०) [पिच्च+अच्+टाप्] मोतियों की लड़। पिंजं (नपुं०) शक्ति, सामर्थ्य। पिच्छं (नपुं०) मयूर पंख, पिच्छी। (मुनि० १२)
पिंजट: (पुं०) [पिंज्+अटन्] आंख का मैल, दीद। ०बाण के पंख, ०बाजू, ०कलगी शिखा।
पिंजनं (नपुं०) [पिं+ल्युट्] धुनकी, तकुआ, धुनने का पिच्छः (पुं०) पूंछ परिहार, त्याग, प्रायश्चित्त करना। 'पिच्छ साधन।
परिहारः, यतः परिहार-प्रायश्चित्त विदधानः अहं पिंजर (वि०) [पिंज्+अरच्] लड़ाई का भूरा रंग, सुनहरा रंग। परिहारप्रायश्चित्तीति ज्ञापन-निमित्तमग्रतः पिच्छं प्रतिदर्शयति धूल। (सुद० १/२२)
तत परिहारः पिच्छमित्युच्यते। (जैन०ल० ७०३) पिंजरः (पुं०) भूरा रंग। पिच्छा (स्त्री०) म्यान, कोष, भण्डार। ०मांड, ०पंक्ति, | पिंजरं (नपुं०) सोना।
श्रेणी-'पिच्छां वाचां पंक्तिं' पिच्छा पंक्तौ च पूगे च इति ०हड़ताल, अस्थिर पंजर। विश्व (जयो०पृ० २४/४२)
पिंजड़ा। ०ढेर, समूह, समुच्चय।
पिंजरकं (नपुं०) हडताल। कवच, सुपारी।
पिंजरित (वि०) [पिंजर+इतच्] पीले रंग का. भूरे रंग का। विषधर की लार।
__०धूसरीकृत। (वीरो० ३/१) पिच्छल (वि०) [पिच्छ+लच्] चिपचिपा, चिकना, | पिंजल (वि.) [पिं+कलच्] ०शोकाकुल, व्याकुल, पीडित। फिसलनपना।
०भयाक्रान्त, आतंकित। पूंछ वाला।
पिंजलं (नपुं०) ०हडताल, कुश का पत्ती। पिच्छल (नपुं०) मांड, चावल की कांजी।
पिंजा (स्त्री०) क्षति, हानि, घात। ०मलाई युक्त दही।
हल्दी, कपास
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पिंजालं
६४६
पिंडिः
पिंजालं (नपुं०) स्वर्ग, सोना। पिंजिका (स्त्री०) [पिंज्+ण्वुल्+टाप्] पूनी, रुई का गोल
गल्हा। सूत कातने के लिए बनाई जाने वाली पोनी। पिंजूषः (पुं०) [पिंज+ऊषण] कान का मैल, कनेऊ। पिंजोटः (पुं०) आंख का कीचड़, दीद। पिंजोला (स्त्री०) [पिंज+ओल+टाप्] पत्तों की खड़खड़ाहट।
खरखर। पिटः (पुं०) [पिट्+क] सन्दूक, करण्ड, टोकरी। पिटं (नपुं०) कुटी, कुटिया। छप्पर, छत। पिटकः (पुं०) संदूक, करण्ड। पिटकं (नपुं०) ०संदूक, करण्ड ०खत्ती, नासूर, फोड़ा।
०एक आभूषण विशेष। पिटक्या (स्त्री०) [पिटक+य+टाप्] संदूकों का समूह, पेटियों
का समुदाय। पिटाकः (पुं०) [पिट+काक] सन्दूक, पिटारी, टोकरा। पिट्टकं (नपुं०) दांतों का मैल। पिठरः (पुं०) [पिठ्+करन्] बर्तन, तसला, बघौना, बटलोई। पिठरं (नपुं०) बघौना, बटलोई, तसला, लगारी। पिठरकः (पुं०) [पिठर+कन्] ०तगारी, बघौनी, तसला,
बटलोई। पिठरकं (नपुं०) खप्पर, ठीकरा, खपड़ी। पिंडकः (पुं०) छोटा फोड़ा, फुसी, फफोला। पिंड् (सक०) ०जोड़ना, मिलाना, ०ढेर लगाना, ०इकट्ठा
करना। पिंड (वि०) [पिण्ड्+अच्] ठोस, सघन, सटा हुआ। पिंडः (पुं०) ०पिंडी, गोला, लौंदा।
०ढेला, ०कौर, ग्रास, कबल।
जीविका, वृत्ति, निर्वाह। ०दान, उपहार। गर्भ धारण करने की प्रारम्भिक अवस्था।
शरीर। पिण्डो देहांसयोरस्त्री इति विश्व। (भक्ति० २८) ०ढेर, संग्रह, समुदाय, समुच्चय।
टांग की पिंडली। ०हस्तिकुंभस्थल।
गृह के आगे निकला हुआ छज्जा। पिंडं (नपुं०) शक्ति, सामर्थ्य।
भोजन, आहार। पिंडकः (पुं०) गोला, लोंदा।
०ग्रास, कबल, कौर।
०टांग की पिंडली, गाजर। पिंडकं (नपुं०) गोला, समूह, लोंदा।
गूम पड़ना, सूज जाना। पिंडकल्पिकः (पुं०) अशुद्ध आहार ग्रहण नहीं करना। पिंडखजूरः (पुं०) एक खाद्य खजूर का फल। मधुरसयुक्तोऽधर
ओष्ठ एव पिण्डखजूरं यस्याः सा। (जयो० ६/१०) पिंडगोसः (पुं०) रसगन्ध, सुगन्धित द्रव्य। पिंडतैलकः (पुं०) लोबान। पिंडद (वि०) आहार देने वाला। पिंडदः (पुं०) पिण्डदान, आहारदान। पिंडदानं (नपुं०) आहारदान। पिंडनं (नपुं०) [पिंड+ल्युट्] गोले बनाना। पिंडनिर्वपणं (नपुं०) आहार दान देना। पिंडपातः (पुं०) पिण्डदान, आहार दान। पिंडतातिक (वि०) भिक्षा से जीविका चलाने वाला। पिंडपादः (पुं०) हस्तिपाद, पिंडपुष्पः (पुं०) अशोक वृक्षा
०अनार।
०कमलपुष्प। पिंडभाज् (वि०) आहार का पात्र। पिंडभूतिः (स्त्री०) जीविका, जीवन निर्वाह। पिंडमूलं (नपुं०) गाजर। पिंडलः (पुं०) [पिंड्+कलच्] पुल, बांध, सेतु।
०टीला, ऊर्ध्वभूमि।
शैल शिला। पिंडलेपः (पुं०) गूम या लेप। पिंडलोपः (पुं०) आहार में विघ्न, अन्तराय। पिंडशुद्धि (स्त्री०) कुलादि की पवित्रता। (हित० २४) पिंडसः (पुं०) [पिंड+सन+3] पिंडशुद्धि। पिंडस्थित (वि०) शरीरगत, देहस्थित (भक्ति० २८) पिंडातः (पुं०) लोबान, गन्ध द्रव्य। पिंडार (पुं०) [पिंड+ऋ+अण] भिक्षक, साधक।
ग्वाला, गोपाल। पिंडिः (स्त्री०) [पिंड्+इनि] गोला, लोंदा, पिंडी।
लौकी, घिया। घर। ०ताड़ वृक्षा
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पिंडिका
पिंडिका (स्त्री०) धूम, गोलाकार गूम, सूजन। पिंडिलेप: (पुं०) उपटन।
पिंडित (वि०) (पिंड+क्त] दवा ० पिण्ड गोला । पिंडिन् (वि० ) [ पिंड + इनि] आहार प्राप्त करने वाला । पिंडिल (पुं०) [पिण्ड इलच्] ०सेतु पुल, बांध, घेरा। ०ज्योतिषी, गणक
पिंडीर (वि० ) [ पिण्ड्+ईर् + णिच्] ०रसहीन, फीका, नीरस, रुक्ष, रुखा ।
पिंडीर (पुं०) अनार का वृक्ष
२० समुद्रफेन।
पिंडोलि (स्त्री० ) [ पिण्ड्+ओलि] जूठन गिरना उच्छिष्ट पितामह: (पुं० ) [ पितृ+डामहच्] दादा, बाबा । (जयो० ९ / ३० ) (जयो०वृ० १२/१४५) दत्तं येनाभयं दानं सत्त्वानां स पितामह: '
"
०ब्रह्मा पितामह - ऋषभप्रभुस्तु स्रष्टा । पितामहो ब्रह्मासर्जकः (जयो०वृ० ८/३८)
पितुप्रयोग (वि०) पिता द्वारा कमाया गया। (समु० १/३१) पितुपार्श्व (पुं०) पिता के समीप (वीरो० ८/९) पित्सत् (पुं०) पक्षी । (जयो० ८/३९ )
पितृ (पुं० ) [ पाति रक्षति पा+तुच्] [पाति रक्षत्यपत्यमिति ] पिता, जनक ०पूर्वपुरुष, पूर्वज (सुद० ३/४२) (सुद०१०२ ) पितृक (वि०) [पितुः आगतम् पितृ+कन्] पैतृक, क्रमागत, आनुवंशिक
पितृकर्मन (नपुं०) पिता सम्बन्धी कर्त्तव्य । पितृकार्यं (नपुं०) पिता के कार्य ।
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पितृकाननं (नपुं०) मशान, श्मशान पितृगण: (पुं०) वंश प्रवर्तक । पितृगृहं (नपुं०) पीहर । (जयो०वृ० ३ / ५६) पितृघातकः (पुं०) पिता की हत्या करने वाला । पितृतर्पणं (नपुं०) पितृदान।
पितृतीर्थ (नपुं०) प्रयाग स्थान
पितृपक्षः (पुं० ) पैतृक सम्बंध, पिता का कुल । पितृपतिः (पुं०) यमराज ।
पितृपदं (नपुं०) पितर लोक ।
पितृबन्धु (नपुं०) पिता के रिश्तेदार ।
पितृभक्त (वि०) पिता का परायण, पिता की सेवा करने वाला। पितृभक्ति (स्त्री०) पिता की सेवा। पितृमन्दिर (नपुं०) पितृगृह ।
६४७
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पितृराजः (पुं०) यमराज
पितृवंश: (पुं०) पिता का कुल ।
पितृवनान्त: (पुं०) श्मशान पर्यन्त, अरथी तक। (जयो०२५/४७) पितृव्यः (पुं०) [पितृ+व्यत्] पिता का भाई, चाचा, (जयो० २ / १५२)
काका ।
पितृव्यजनः (पुं०) चाचा, काका । (जयो० ९/८२) पित्तं (नपुं०) पित्तदोष ।
पिधायक
पित्तकोषः (पुं०) पित्ताशय ।
पित्तक्षोभ (पुं०) पित्तप्रकोप ।
पित्तज्वरः (पुं०) पित्त के प्रकोप से होने वाली व्याधि । पित्तज्वरातुरः (पुं०) पित्त ज्वर से पीड़ित पयः पित्तज्वरातुरः ' (जयो० ७/४४ )
पित्तप्रकृति: (स्त्री०) क्रोध स्वभाव । पित्तप्रकोप : (पुं०) पित्त में व्याधि । पित्त भाव: (पुं०) पित्त के प्रकोप का भाव। पित्तरक्तं (नपुं०) रक्तपित्त नामक रोग।
पित्तलं (नपुं० ) ०पीतल (जयो०वृ० ११ / ८८) ०भोजपत्र का
वृक्ष |
पित्तवायुः (पुं०) पेट में वायु विकार । पित्तल (वि०) पित्त बहुलता।
पित्तलपात्रम् (नपुं०) पीतल का पात्र । (जयो० १६ / २६ ) पित्तविदग्ध (वि०) पित्त की व्याधि से आक्रान्त |
पित्तशमन (वि०) पित्त को शान्त करने वाला।
पित्तातीसार: (पुं०) दस्त।
पित्र्य (वि० ) [ पितुः इदम्-पितृ यत्] पैतृक, आनुवंशिक,
पुश्तैनी ।
पित्र्यः (पुं०) ज्येष्ठ भाई।
० माघ मास ।
पित्र्या (स्त्री) ० मघा नक्षत्रपुंज, ०पूर्णिमा या अमावस्या का
दिन ।
पित्सत् (पुं०) पक्षी ।
पित्सल: (पुं० ) [ पत्+सल् इत् ] मार्ग, पथ, रास्ता। पिधानं (पुं० ) [ अपि था ल्युट् अपे अकार लोपः] ढक्कन, आवरण | ०म्यान, ० चादर, ०छिपाना, आच्छादन करना। ० चोटी |
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पिधायक (वि० ) [ अपि+धा + ण्वुल् अपे आच्छादन करने वाला, ढकने वाला,
अकार लोपः ] छिपाने वाला।
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पिनद्ध
६४८
पिशाचकिन्
पिनद्ध (भू०क०कृ.) [अपि+न+क्त] प्रच्छन्न, आवृत्त, | पिपीलकः (पुं०) [पिपील+कन्] मकोड़ा, चींटी। ढका हुआ, आच्छादित।
पिपीलिकः (पुं०) चींटा। ०आवेष्टित, लपेटा हुआ।
पिपीलिकं (नपुं०) स्वर्ण विशेष। सुसज्जित, अलंकृत।
पिपीलिका (स्त्री०) चींटी, चींटा, मकोड़ा। (दयो०५०) ०चुभाया हुआ।
पिपीलिकाली (स्त्री०) चीटियों की पंक्ति। पिपीलिकालीक्रमकृत् पिनाकः (पुं०) [पा रक्षणे आकान् नुट् धातोरात इत्वस्] प्रशस्तिर्विनिर्गता नाभिबिलात्समस्ति। (जयो० ११/३३) शिवधनुष, त्रिशूल। ०छड़ी।
पिपीलिकानामाली सन्ततिपिपीलिकानिर्गममिति निसर्गः पिनाकं (नपुं०) शिवधनुष, त्रिशूल।
(जयो०वृ० ११/३३) पिनाकगोप्तृ (पुं०) शिव। महादेव।
पिप्पलः (पुं०) पीपल का पेड़। चुचूक (जयो० १२/१०६) पिनाकपाणिः (पुं०) शिव।
(हित०सं० ४७) पिनाकित् (पुं०) [पिनाक+इनि] शिव, महादेव। (जयो० १/८) | पिप्पलं (नपुं०) पीपल की बरबंटा। पिपतिषत् (पुं०) [पत्+सन्+शत] पक्षी, खग।
पिप्पलकुपलं (नपुं०) पीपल की कोपल। पिप्पलकुंपलकुलौ पिपतिषु (वि०) ०पतनशील, गिरने की इच्छा करने वाला। मृदुलाणी विलसत एतौ सुदृशः पाणी। (जयो० १२/१०६) पिपतिषुः (पुं०) खग, पक्षी।
पिप्पलिः (स्त्री०) पीपर, एक औषधि, काली पीपर, गांठ पिपासा (स्त्री०) [पा+सन्+अ+टाप्] प्यास, तृष्णा। | पीपर। __(जयो०१० २२/६६)
पिप्पिका (स्त्री०) दाँतों के ऊपर जमी हुई पपड़ी, दंत-मल। पिपासाकुलित (वि०) अभिलाषावान्, तृष्णावान्। (जयो० पिप्लुः (स्त्री०) निशान, तिल, मस्सा। ११/५९)
पियालः (पुं०) एक वृक्ष विशेष चारौली वृक्ष। पिपासापहारक (वि०) तृष्णा शान्त करने वाला, प्यास बुझाने पियालं (नपुं०) चारौली, चिरौंजी। वाला।
पिल् (सक०) भेजना, फेकना डालना। पिपासापरीषहजयः (पुं०) एक परीषह का भेद।
०चलना फिरना। पिपासित (वि). [पा+सन्+क्त] प्यासा, सतृष, सतृप, तृष्णा उत्तेजित करना, उकसाना।
(जयो०वृ० ११/५) 'सतृषः पिपातितस्य तव खलु पिल्ल (वि.) आंखों में अंधेरा छाना, चौंधयाने वाला। सर्वतोमुखमुदकञ्च' (जयो०वृ० ११२/१११)
पिल्लका (स्त्री०) [पिल्ल+कै+क+टाप्] हथिनी। पिपासिन् (वि०) [पिपासा+इनि] ०प्यासा, तृष्णावान्, पिश (अक०) ०रूप देना, ०बनाना, निर्माण करना। ०वाञ्छायुक्त।
०संगठित होना। पिपासु (वि०) [पि पा+सन्+3] ०पीने की इच्छा करने ०प्रकाश करना। वाला-पातुमिच्छु (जयो० २/१२८)
पिशंग (वि०) [पिश्+अंगच्+किच्च] खाकी रंग का, भूरे रंग ०आस्वादन के इच्छुक-आस्वादयितुमिच्छु (जयो०वृ० वाला। १२/११९) तव सम्मुखमसम्यहं पिपासुः सुदतीत्थं गदितापि पिशंगकः (पुं०) [पिशंग+कन्] विष्णु। मुग्धिकाशु। (जयो० १२/११९) गत्वा प्रतोली शिखरान पिशनिता (वि०) पीतता, पीलापन। 'मकरन्दरजः पिशङ्गिताः लग्नेदु-कान्तनिर्यज्जलमापिपासुः (वीरो० २/३४) 'सुधा स्मरधूमेन्द्रकणा उदिङ्गिताः। (जयो० १३/६२) मिवेत्थं सपिपासुरस्तु' (सम्य० ४३) 'जलपानेच्छा पिशाचः (पुं०) व्यन्तरदेव। पिशाचाः सुरूपाः सौम्यदर्शना पातुमिच्छति पिपासति पिपासतीति पिपासुः' (जयो० हस्तग्रीवासु मणिरत्नविभूषणाः कदम्बवृक्षध्वजाः' (त०भा० १३/९३)
४/१२) पिपिप्रिया (स्त्री०) अस्पष्ट वाणी। वध्वा ददेदेहि पिपिप्रियेति पिशाचः (पुं०) [पिशिताचमतिआ+चम्] भूत, बैताल, प्रेत, मदोक्तिरेषालि मुदे निरेतिः। (जयो० १६/५०)
दुष्टात्मा। (मुनि० ३) पिपीलः (पुं०) चिंटा, चींटी। (मुनि० १३)
पिशाचकिन् (पुं०) [पिशाच इनि कुक्] कुबेर।
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पिशाचबाधा
६४९
पीडा
पिशाचबाधा (स्त्री०) भूतव्याधि।
पिष्याकः (पुं०) [पिष्+याक] ०खल, ०एक गन्ध द्रव्य। पिशाचभाषा (स्त्री०) पैशाची भाषा, प्राकृत भाषा का एक रूप। लोभान, केशर, ०हींग। पिशाचसंचारः (पुं०) भूतबाधा।
पिसृ (अक०) चलना, गमन करना। पिशाचसभं (नपुं०) भूतग्रह, पिशाच आवास।
रहना, चोट पहुंचाना। पिशाचाक्रान्तः (पुं०) भूतगृहीत, भूतबाधा से घिरा। | पिहित (भू०क०कृ०) [अपि+धा+क्त] अवरुद्ध, ढका हुआ, (जयो०वृ० २५/७१)
रुका हुआ। पिशाचान्वित (वि०) भूतपीड़ा से बाधित, प्रेतात्मा से घिरा ०गुप्त, आच्छादित। हुआ। (मुनि० ११)
पिहितदोषः (पुं०) आच्छादन सम्बंधी दोष, मुनिचर्या करने पिशाचिका (स्त्री०) [पिशाच+ङीप+कन+टाप] भूतनी, चुडौल, वाला साधक। सचित्त आदि से ढके हुए अचित्त (प्रासुक) डाकिनी।
वस्तु को दोष युक्त मानता है। पिशाची (नपुं०) [पिश्+क्त] मांस। (जयोवृ० ३८, सच्चित्तेण व पिहिदं । __ (सुद० १२९)
अहवा अचित्तगुरुगपिहिदं च। (मूला० ६/४७) 'सचित्तेन पिशिताशः (पुं०) मांसपक्षी। बैताल, भूत, पिशाच।
पद्मपत्रादिना यत्पिहितं तदन्नं पिहितम्। (भा०पाल्टी० ९९) पिशुन (वि०) [पिश्+उनच्] ०दगाबाज (दयो०६१) ०चुगल | पिहिता (स्त्री०) दूषिता।
खोर, मिथ्यानिन्दक। 'पिशुनं प्रीतिविच्छेदकारिः द्वयोर्बहूनां पी (सक०) पीना, आचमन करना। वा सत्यासत्य दोषाख्यानात्' (त०भा० ९/६)
पीठ (नपुं०) [पेठन्ति उपविशन्ति अत्र-पि+घञ्] ०आसन, पिशुनजनः (पुं०) चुगल खोर व्यक्ति।
शय्या, पीठा, पादपीठ, वेदी। पिशुनता (वि०) चुगलखोरी वाला।
पीठकेलिः (स्त्री०) पीठमर्द। (जयो० १४/९५) पिशुनवचनं (नपुं०) तुच्छ वचन, निन्दकवचन।
पीठगर्भः (पुं०) मूर्ति का आधार। पिशुनवाच्यं (नपुं०) निन्दक वचन।
पीठतलः (पुं०) सिंहासन का भाग। (वीरो० १३/१७) पिशुलुः (पुं०) एक प्रमाण विशेष।
पीठभु (स्त्री०) आधार, नींव, भूगृह। पिष् (सक०) कूटना, पीसना।
पीठमर्दः (पुं०) सहचर, परोपजीवी। ०चूर्ण करना। (जयो० )
पीठिका (स्त्री०) [पीठ+ङीष्+क+टाप्] ०पीडा, आधार, ०चोट पहुंचाना, मसलना।
आसन। चौकी, तिपाई। ०नष्ट करना, घात करना, क्षति पहुंचा।
पीड् (सक०) ०पीड़ित करना, ०सताना, घायल करना, पिष्ट (भू०क०कृ०) [पिष्+क्त] पिसा हुआ, चूर्ण किया गया, ०क्षति पहुंचाना। रगड़ा हुआ, मिलाया हुआ।
तंग करना, परेशान करना। पिष्टं (नपुं०) आटा, चून, बेसन। (मुनि० ११)
विरोध करना, सामना करना। पिष्टक (पुं०) वाटी।
०दबाना, भींचना, नष्ट करना। पिष्टपचनं (नपुं०) कड़ाही, पतेली, तबेली, बटलोई।
०अवहेलना करना, निचोड़ना। पीडयित्वा (जयो० २/१३०) पिष्टपशुः (पुं०) पुतला।
पीडक (वि०) अत्याचारी, विनाशक, घातक। पिष्टपिण्डः (पुं०) वाटी, आटे की पेड़ी।
पीडनं (नपुं०) [पीड्+ल्युट्] ०पीड़ित करना, ०कष्ट देना, पिष्टपेयः (पुं०) पिसे का पीसना।
दुःख, पीड़ा, कष्ट। पिष्टमेहः (पुं०) मधुमेह।
०अत्याचार, क्षति, हानि। (जयो० १ ३/ ८) पिष्टशर्करा (स्त्री०) स्वादिष्ट। (जयो० १०/१२)
०दबाना, लेना, थामना। पिष्टातः (पुं०) [पिष्ट+अत+अण] सुगन्धित चूर्ण।
पीडा (स्त्री०) दुःख, कष्ट, वेदना, बाधा। पिष्टिक (वि०) [पिष्ट+ठन्] आटे की पेड़ी, आटे की टिकिया। ० भोगना, सताना, लाठी या चाबुक से मारना। 'पीडा पिष्टोपात्त (वि०) पिट्ठी को प्राप्त हुए। (सुद० १०३)
दण्ड-कशायभिघात:'
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पीडाकर
६५०
पीन
०उजाड़ना। ० अतिक्रमण, प्रतिबन्ध।
०दया, करुणा। पीडाकर (वि०) कष्टदायी। (समु० १/२५) पीडाकरी (वि०) अत्याचारी, कष्ट देने वाला। (जयो०वृ०
१/५२) पीडित (भू०क०कृ०) ०दु:खित, व्याकुलित, सताया हुआ।
अतिक्रान्त, उजाड़ा हुआ। पीडितं (नपुं०) रतिबन्ध, मैथुन वासना, कामना। पीत (वि०) [पा+क्त] पीतवर्ण वाला, पीला रंग वाला।
(जयो०वृ० ३/८०) ०परिव्याप्त, सिक्त, संतृप्त।
साभिलाषा। (जयो०वृ० १२/१२४) पीतः (पुं०) पीतवर्ण।
पुखराज, ०कुसुम्भ। पीतं (नपुं०) स्वर्ण सोना। पीतकं (नपुं०) ०हरताल, पीतल, चंदन। पीतकदली (स्त्री०) पीला केला, पका हुआ केला। पीतकंद (नपुं०) गाजर। पीतकाबेर (नपुं०) केसर। पीतकाष्ठं (नपुं०) पीला चन्दन। पीतगंधं (नपुं०) पीला चन्दन। पीतचंदनं (नपुं०) ०पीला चन्दन।
__०केसर, ०हल्दी। पीतचम्पकः (पुं०) दीपक, दिया। पीततं (नपुं०) पीतवर्ण। (जयो०वृ० १५/३४) पीततमः (पुं०) प्रवष्टान्धकार जिसने अन्धकार में समाविष्ट
कर लिया है। 'पीततमा पीतमुदरसात्कृतं तमो यया सा
पीततमा।' पीतरं (नपुं०) केसर। (जयो० ६/७३) पीतनाञ्चना (स्त्री०) कुमकुम का अंगराग। (जयो०वृ० ६/२३)
पीतनस्य केशरस्याञ्चनावत् कुङ्कुमरचित लेपपरिणतिवत् (जयो०व० ६/२३) प्रणष्टान्धकारेति यद्वा पीततमात्यन्त
पीतवर्णा' (जयो०वृ० १५/३४) पीततुण्डः (पुं०) कारंडव पक्षी। पीतदारु (नपुं०) सरलवृक्ष, चीड वृक्ष। पीतदुग्धा (स्त्री०) दुधारु गाय। पीतदुः (पुं०) सरल वृक्षा
पीतनः (पुं०) गूलर की जाति का वृक्ष। पीतपादा (स्त्री०) मैना। पीतपटं (नपुं०) पीला कपड़ा। पीतपटः (पुं०) कृष्ण। (जयो० १/९) पीतमणिः (स्त्री०) पुखराज। पीतमाक्षिकं (नपुं०) सोनामक्खी। पीतमूलकं (नपुं०) गाजर। पीतरक्त (वि०) संतरे का रंग। पीतरागः (पुं०) मोम, पीला रंग। पद्म केसर। पीतलेश्या (स्त्री०) चतुर्थलेश्या, पीतवर्णद्रव्यावष्टम्भाल,
पीतलेश्या' पीतल (वि०) पीले रंग का। पीतवालुका (स्त्री०) हल्दी। पीतसर्षपः (पुं०) पीला सरसों। (जयो० २६/९) पीतसारः (पुं०) पुखराज मणि।
चन्दन तरु। पीतसारि (नपुं०) अंजन, सुरमा। पीतस्कंधः (पुं०) सूकर। पीतस्फटिकः (पुं०) पुखराज। पीतहरित (वि०) पीलापन युक्त हरारंग। पीताम्बरः (पुं०) विष्णु, कृष्ण। (जयो० २४/५) पीताम्बरधामः (पुं०) उन्नत धाम। पीतमालीढमम्बरं गगनं
यैस्तानि धामानि। (वीरो० ) पितिः (पुं०) [पा+क्तिच्] घूट पीना।
अश्व, घोड़ा। मदिरालय। पीतिका (स्त्री०) [पीत+ठन्-टाप्] ०केसर, हल्दी।
सोनजूही, चमेली। पीतिभान (वि.) पाण्डुरत्व। (जयो०५/८) पीतुः (पुं०) [पा+क्तुन्] ०सूर्य, ०अग्नि, आग।
०यूथपति, हस्तियूथ। पीथः (पुं०) [पा+थक्] सूर्य, ०अग्नि, ०काल, पेय,
जल। पीथिः (पुं०) अश्व, घोड़ा। पीन (वि०) [प्याय+क्त] पुष्ट, शक्तिशाली, मांसल,
अतिशयितामापन्न। (जयो० १/३८) विशाल, स्थूल, मोटा। पूर्ण, गोलमटोला ०प्रभूत, अधिक।
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पीनतमपयोधरः
६५१
पुंजः
पीनतमपयोधरः (नपुं०) ०उच्चैः स्तन, उभरे हुए कुच,
उठे हुए स्तन। (जयो० ११/३) पीनता (वि०) परिपुष्टता। (जयो० ६/१०६) पीनपयोधरः (नपुं०) (पीनौ पुष्टौ पयोधरः) उन्नत स्तन।
(जयो० १५/३३) पीनवक्षस् (वि०) विशाल वक्षस्थल वाला। पीनसः (पुं०) जुकाम, खांसी। पीनोरुकस्तम्भः (पुं०) स्थूल स्तम्भ। (जयो० १७/६८) पीयुः (पुं०) सूर्य, अग्नि। ___०काक, ०उल्लू, ०सोना। पीयूषः (पुं०) ०अमृत, सुधा। पीयूषं (नपुं०) जल, अमृत। (वीरो० १/२२) पीयूषं नहि
निःशेष पिबन्नेव सुखायते। (दयो० १/२५)
०दुग्ध, दूध। पीयूषकुम्भः (पुं०) अमृत कलश। (सुद० १०२) पीयूषमहस् (पुं०) चन्द्रमा। पीयूषमयूख (पुं०) चट्टान। (जयो० १७/२) पीयूषरुचिः (स्त्री०) शशि, चन्द्र। पीयूषलवः (पुं०) अमृतांश। (जयो० ११/६३) पीयूषवर्षा (स्त्री०) अमृतवर्षा। पीयूषपादः (पुं०) अमृत कुम्भ। पीयूषपात्र (नपुं०) अमृत कलश। (जयो० १५/७०)
अमृतभाजन।
०चन्द्र (जयो०वृ० १५/७०, (जयो० १६/) पीयूषमधुरशिरा (स्त्री०) अमृतधारा। (जयो० ११/९६)
०चन्द्रमा, ०कपूर। पीलकः (पुं०) मकौड़ा, कीट। पीलनं (नपुं०) पेलना, रस निकालना। (सुद० १/७६) पीलु (पुं०) [पील+उ] ०हस्ति, कीट, बाण।
ताडवृक्ष का तना। पीव् (अक०) पुष्ट होना, स्थूल होना। पीवन् (वि०) स्थूल, मोटा।
हस्ट-पुष्ट, शक्तिमान। पीवर (वि०) [प्यै+ष्वरच्] ०उन्नत, विशाल। यथोत्तरं
पीवरसत्कुचोरः स्थलं त्वगाद्गर्भवती स्वतोऽरम्। (सुद० २/४६) पुष्ट। (जयो०६) मांसल, शरीर से तंदुरुस्त। स्थूल-'पीवर-स्तनतटेऽथ संसजन्' यत्र मौक्तिक सुमण्डलश्रियः। (जयो०वृ० २१/५५)
पीवरः (पुं०) कच्छप, कछुवा। पीवरी (स्त्री०) तरुणी, युवती।
गौ, गाय, धेनु। पुंस् (सक०) कुचलना, पीसना।
पीड़ा, देना, कष्ट देना, दण्ड देना। पुंस् (पुं०) पुरुष, नर, मनुष्य। (जयो० २/६१, सुद० १२५)
मानव, मनुष्य जाति।
पुंलिंग शब्द। ०आत्मा। पुंस्कटिः (स्त्री०) पुरुष की कमर। पुंस्कामा (स्त्री०) पति की कामना, पुरुष की इच्छा। पुंस्कोकिलः (पु०) नरकोयल। पुस्केतुः (पुं०) शिव। पुस्खेटः (पुं०) नरग्रह। पुंखः (पुं०) [पुमांसं खनति-पुम्+खन्ड ] पंख, बाण के
अग्रभाग, मूठ। (जयो० २४/१०८) संहेमपुङ्खा बहुपर्व
सत्त्वाऽनङ्गस्य वै पञ्चशरीति तत्त्वात्। (जयो० ११/४६) पुंखित (वि०) [पुंख्+इतच्] पंखों से युक्त। पुंगः (पुं०) ढेर, समूह, समुच्चय, राशि। पुंगं (नपुं०) ढेर, राशि। पुंगलः (पुं०) [पुंग+ला+क] आत्मा। पुंगवः (पुं०) ० बलिवर्द, सांड,
सर्वोत्कृष्ट, सर्वोत्तम, प्रधान, प्रमुख, नायक।
०पूज्य, वन्दनीय, प्रणमनीय।। पुंप्रवरः (पुं०) उत्तम पुरुष, श्रेष्ठ व्यक्ति। (सुद० २/१०) पुंश्चली (स्त्री०) व्यभिचारिणी स्त्री। (दयो० ९) पुच्छः (पुं०) [पुच्छ्+अच्] पुंछ, पिच्छ। पुच्छं (नपुं०) पूंछ। (जयो० ६/८५) पिछला भाग। ०पीछे
का हिस्सा।
किसी वस्तु का किनारा। पुच्छटिः (स्त्री०) [पुच्छ्+अट् इन्] अंगुलियां चांटना। पुच्छकंटकः (पुं०) वृश्चिक, बिच्छु। पुच्छजाहं (नपुं०) पूंछ की जड़। पुच्छमूकं (नपुं०) पूंछ का सिरा। पुच्छाग्रं (नपुं०) पूंछ का सिरा। पुच्छिन् (पुं०) [पुच्छ्+इनि] मुर्गा। पुंजः (पुं०) [पुस्+जि ड] पूजा/अर्चना के लिए ले जाने
वाला अक्षत समूह। (सुद० ७१) ०ढेर, समूह, यात्रा, राशि, संग्रह।
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पुंजि
६५२
पुण्यकीर्तिः
पुंजि (स्त्री०) [पुंजि+ कन्] ओला। पुंजित (वि०) [पुञ्च+इतच्] संग्रहीत, एकत्रित, एक जगह
किया गया। पुञ्जीभूत (वि०) समूह युक्त। (जयो०वृ० १/२३) पुद् (सक०) आलिंगन करना, गले लगाना।
०बांटना, गूंथना। ०बांधना, जकड़ना।
०पीसना, चूर्ण करना, मसलना। पुटः (पुं०) विवर, खोह, छिद्र।
०दोना, हस्तपुट, अञ्चलिपुट।
०म्यान, ढकना। पुटं (नपुं०) अंजलि पुट। ०खोह, विवर, छिद्र।
दोना, पत्तों की तह।
०जायफल। पुटकं (नपुं०) [पुट्+कन्] तह।
०उथला, कम गहरा। ०कमल, जायफल।
०प्याला, सकोरा, दोना। पुटकिनी (स्त्री०) [पुटक+इनि+ङीप्] ०कमल,* कमल समूह। । पुटग्रीवः (पुं०) बर्तन, भाण्ड, कलश। पुटपाकः (पुं०) औषधि पकाने की विधि। पुटभेदः (पुं०) पुर, नगर।
वाद्य यन्त्र विशेष, आतोद्य।
जलावर्त, भंवर। पुटभेदनं (नपुं०) पुर, नगर, कस्बा । पुटिका (स्त्री०) [पुट्+ण्वुल्+टाप्] इलायची, एला। ___०पुट दी गई। पुटित (वि०) [पुट्+क्त] पुट दिया गया, अनेक बार तपाया
पुण्डरीक (नपुं०) [पुण्ड् ईकन] ०श्वेतकमल. श्वेतसरोज
(जयो० १३/६३)
सफेद छत्र। ०श्वेत छत्र। पुण्डरीकः (पुं०) ०श्वेत रंग, दक्षिणपूर्व या आग्नेयी दिशा
का अधिष्ठात् दिक्पाल। ०व्याघ्र, सर्प विशेष। ०एक आमवृक्ष विशेष। ० अग्नि, आग। घड़ा, जलाशय। छहों कालों के आश्रय से निरूपण करने वाला, एक शास्त्र विशेष। ०पुण्डरीकं नाम शास्त्र। 'देवपद प्राप्ति पुण्यनिरूपक
पुण्डरीकम्' (जैन०ल०पृ० ७११) पुण्डरीकसारः (पुं०) श्वेतकमल। (जयो० १६/४१) पुण्डरीकणी (स्त्री०) पुण्यनरेश की नगरी। (वीरो० ११/३२)
श्री पुण्डरीकिण्यथ पू सुभागी। (जयो० २३/४३) सुमित्र
राजा सुव्रताऽस्य राज्ञी। पुंडः (पुं०) पोडा, गन्ना, मोटी बराई। ०श्वेतकमल। पुंड्राः (स्त्री०) एक देश का नाम। पुण्य (वि०) [पू+यण, णुक्-हस्व] ०पुनीत, पवित्र, पूत,
निर्मल। स्वच्छ, शुभ्र, अच्छा, भला। रुचिकर, सुहावना, रमणीय।
शुभ, कल्याणकारी, मंगलमय, भाग्यशाली, उत्तम, श्रेष्ठ। पुण्यं (नपुं०) सद्गुण, नैतिक गुण, धार्मिक गुण।
(सम्य० ८४)
शुभपरिणाम, धर्मयुक्त। (सम्य०६८) ०परोपकार को लेकर प्रवृत्त होने वाला योग। (त०सू० ६/३) ०सत्कर्म, पुनीतक्रिया। (जयो० १/१०) पुण्यं सत्कर्मपुद्गलाः। सुहपयडीओ पुण्णं (धव० १३/३५२) पुनात्यात्मानं पूयतेऽनेनेति वा पुण्यम्। (त०वा० ६/३)
०शुभकर्मप्रकृतिलक्षणम्। पुण्यकथा (वि०) अच्छी कथा। (जयो० १२/१०९) पुण्यकतृ (पुं०) गुणवान् पुरुष, पुण्यवान् व्यक्ति। पुण्यकर्मन् (वि०) शुभ कार्य करने वाला। पुण्यकालः (पुं०) उचित समय। पुण्यकीर्तिः (स्त्री०) प्रसिद्ध यश, शुभ भाव, प्रशंसनीय गुण।
गया।
पीसा गया. मसला गया।
०सीया हुआ। पुटी (स्त्री०) पुट, तह, विवर, छिद्र। पुड् (सक०) छोड़ना, त्याग करना, तिलाञ्चलि देना।
पदच्युत करना, निकालना, विदा करना। ०खोजना, अन्वेषण करना। पुंड् (सक०) पीसना, चूर्ण करना। पुंडः (पुं०) चिह्न, निशान।
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पुण्यनिधीश्वरः
६५३
पुत्रिका
पुण्यसम्पादिनी (वि०) पुण्य प्रकट करने वाली। (दयो० १११) पुण्यस्थानं (नपुं०) तीर्थस्थान, पवित्रस्थल। पुण्या (स्त्री०) तुलसी। पुण्यात्मन् (वि०) धन्य, सौभाग्यशाली। (जयो०० ५/१३) पुण्याधिकारिणी (वि०) भाग्यवती, सौभाग्यशालिनी। (जयो०७०
६/७४)
पुण्यनिधीश्वरः (पुं०) धनपति। (समु० ४/२२) पुण्यक्षेत्रं (नपुं०) तीर्थस्थान, पवित्र स्थल, धार्मिक क्षेत्र,
पुण्यभूमि। पुण्यगृहं (नपुं०) शुभस्थलं, धर्मस्थल, देवगृह, देवालय। पुण्यजनः (पुं०) सज्जन, गुणीजन। पुण्यजित् (वि०) पुण्यात्मा। पुण्यतीर्थं (नपुं०) पवित्र तीर्थ, शुभ यात्रा। पुण्यदर्शन (वि०) शुभ दर्शन, परमश्रद्धान। पुण्यदानं (नपुं०) समुचित दान। पुण्यपयोभि (पुं०) पुण्य रूप समुद्र। (सुद० २/४२) पुण्यपरिपाकः (पुं०) अभ्यदुय। (जयो०वृ० १/१११) पुण्यपरिणामः (पुं०) भाग्योदय। (जयो० १/१००) पुण्यपाकः (पुं०) परम शुभोदय। (जयो० २६/६८) पुण्यपातकः (पुं०) सुकृतोदय। (जयो० ३/५६) पुण्यधनं (नपुं०) सुकृत निधि। (जयो०८/६) पुण्यपुरुषः (पुं०) सज्जन, गुणीजन। महाभागज। (जयो०१४/५) पुण्य-प्रकृतिः (स्त्री०) शुभ प्रकृति। 'पुण्यप्रकृतयो
जीवाह्लादजनका: शुभा उच्यन्ते' (जैन०ल० ७१२) पुण्यप्रतापः (पुं०) नैतिक प्रभाव, श्रेष्ठकीर्ति, उत्तम यश। पुण्यफलं (स्त्री०) शुभ परिणाम, उचित परिपाक, शुभ परिपाक। पुण्यभाज् (वि०) धर्मात्मा, पुण्यशाली, सौभाग्यशील। पुण्यभावः (पुं०) शुभपरिणाम, शुभ विपाक। पुण्यभ् (स्त्री०) पुण्यधरा। पुण्यभूमि (स्त्री०) तीर्थस्थान, पवित्र स्थान। पुण्यमय (वि०) पुण्य युक्त, अच्छे कार्य सहित। (सुद०३/१) पुष्यवंत (वि०) पुण्यात्मा। (समु० १/१५) पुण्ययोगः (पुं०) शुभोपयोण। (सुद० ४/२९) पुण्यरात्रः (पुं०) शुभरात्रि। पुण्यलोकः (पुं०) तीर्थस्थल, स्वर्ग, शुभ स्थल। पुण्यविधि (स्त्री०) शुभ कर्म। (जयो० ५/८६) पुण्यविधेरुपासिका (स्त्री०) आराधयित्री। (जयो० १०/७६) पुण्यशकुनं (नपुं०) शुभ शकुन। पुण्यशील (वि०) सुजन, सज्जन, अच्छे कर्म करने वाला।
(जयो०वृ० १२/३४) पुण्यश्लोक (वि०) शुभकीर्ति वाला, शुभ परिणाम वाला,
सुविख्यात, उचित वर्णन वाला। पुण्यसत्व (वि०) पुण्य की प्रमुखता। (सुद० १/३५) पुण्यसम्पत् (स्त्री०) पुण्य रूपी वैभव। (सुद० ४/४७)
पुण्याहवाचनं (नपुं०) स्वस्तीत्यादिदिसमुच्चारण, कल्याणकारी
उच्चारण। (जयो० १८/७१) पुत् (नपुं०) [पृ+डुति] नरकस्थान। पुत्तलः (पुं०) [पुत्त+घञ्-पुत्तं गमनं ज्ञाति-पुत्त ला+क] पुतला।
प्रतिमा, मूर्ति, पुतली (सुद० ९२) बुत, पुतला। (सुद०९९) पुत्तलव्रतं (नपुं०) प्रतिमावत, देवदर्शनव्रत। (द० ९५) पुत्तली (स्त्री०) पुत्तलिका, गुड़िया।
मूर्ति, प्रतिमा, पुतली, बुत। पुत्तलकः (पुं०) गुड़िया, प्रतिमा, मूर्ति। (सुद० ९४)
पुत्तलिका (स्त्री०) गुड़िया, पुतली।
०बुत, पुतला। पुत्तिका (स्त्री०) [पुत्त+ठन्+टाप्] ०दीमक, ०एक प्रकार
की मधुमक्खी । पुत्रः (पुं०) [युत्+त्रैक] सुत, जाय, बेटा, लड़का। (सुद० ४/९)
बच्चा, शिशु। प्रिय, वत्स। व्यः उत्पन्नः पुनीते वंशं स पुत्रः। (नीति ५/११) 'पुनाति
पितुराचारवर्तितयाऽऽत्मानमिति पुत्रः' (जैन०ल० ७१२) पुत्रकः (पुं०) [पुत्र कन्] छोटा पुत्र, शिशु, बालक, बच्चा।
वत्स।
गुड़िया, कठपुतली। ०धूर्त, ठग।
पतंग, शरभ। पुत्रका (स्त्री०) [पुत्र+टाप्] पुत्री, बेटी, लड़की, सुता,
दुहिता। पुत्रत्व (वि०) पुत्रपना। (सुद० ४/९) पुत्रप्रेमः (पुं०) पुत्रस्नेह। (वीरो० ८/२७) पुत्ररत्नः (पुं०) सुपुत्र। (सुद० २/४०) पुत्रिका (स्त्री०) [पुत्र कन्+टाप्] पुत्री, सुता, दुहिता।
(समु० ५/१९) गुड़िया, पुतली।
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पुत्री
पुत्री (स्त्री०) सुता, लड़की। (वीरो० १५/३५) पुत्रीपुत्रः (पुं०) बेटी का बेटा, दौहित्र । पुत्रीसुतः (पुं०) दौहित्र, लड़की का लड़का । पुत्रीभर्तृ (पुं०) जामाता, जमाई।
पुत्रीया ( स्त्री० ) [ पुत्र+क्यच् + अ+टाप्] पुत्र प्राप्ति की इच्छा । पुत्रोत्पत्तिकरणं (नपुं०) सुतक्रम। (जयो० १७ / १२२) पुद्गलः (पुं०) रूपवान्, अजीवद्रव्य रूपादिमान् पुद् गल एव चेति - (वीरो० १९ / ३६)
० अचेतन द्रव्य (वीरो० १९ / ३६ )
० मूर्त द्रव्य- 'पूरण-गलनस्वभावत्वात् पुद्गलः' ( वृ० द्रव्यसंग्रह १३) 'पूर्यन्ते गलन्ति च पुद्गलाः '
० मुत्तापुर्ण, पोग्गला गेया'?
० पूरण- गलण-सहावा पोग्गला णाम । ( धव० १४/३३) • वर्णादिमान् नटति पुद्गल एव नान्यः ( समय० पा०टी० २/१२)
० रूपिण: पुद्गला। (त०सू० ५/५ )
o स्पर्श रस- गन्ध-वर्णवन्तः पुद्गलाः (त०सू० ५ / २३) पुद्गलक्षेप: (पुं०) पत्थरादि का प्रक्षेप, ०लक्ष्य करके पत्थरादि फेंकना। 'लोष्ठादिनिपातः पुद्गलक्षेप:' (त०७/३१) पुद्गलक्षेपणं (नपुं०) पत्थरादि मूर्त वस्तुओं का फेंकना। पुद्गलगतिः (स्त्री०) पुद्गलगमन की प्रवृत्ति | पुद्गलपरावर्तः (पुं०) औदारिकादि शरीर रूप पुद्गल ग्रहण
करना।
पुद्गलबन्धः (पुं०) स्पर्श रूप बन्ध । 'फासेहिं पोग्गलाणं बंधो' (प्रव०ला० २/८५)
ofस्निग्ध और रुक्ष स्पर्श विशेष के आश्रय से परिणमन । पुद्गलयुतिः (स्त्री०) पुद्गलों का मिलाप । एक्कम्हि देसे
पोग्गलाणं मेलणं पोग्गलजुदी णाम ( धव० १३ / ३४८ ) पुद्गलविपाकः (पुं०) पुद्गलों की फल देने की अभिमुखता । पुद्गलार्द्ध (वि०) अर्ध पुद्गल । (सम्य० ४२ )
पुन् ( सक०) पवित्र करना, स्वच्छ करना - पुनातु (सुद० ३/४०) पुनातु पवित्रयत्येव (जयो०वृ० १/४९) पुनर् ( अव्य० ) [ पन्+अर्+उत्वम् ] ०फिर, तो भी, एक बार, फिर से ।
नए रूप में। (सुद०५/२)
० तथा (जयो० १/४)
०बाद में (जयो० २/१४)
० अर्थात् (सुद० २/ ) किलानकोऽप्येष पुनः प्रवीण: (सुद०
२/२)
६५४
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पुनर्गमनं (नपुं०) वापसी, फिर से आना।
पुनर्जन्मन् (नपुं०) बार बार जन्म लेना। एनां हेतुचतुष्टयीं मुनितया लब्ध्या पुनर्जन्मन्। (मुनि० ३०२) पुनर्जात (वि०) फिर से उत्पन्न हुआ। पुनर्जीवन (वि०) नव जीवन। (सुद० ११७) पुनर्णवः (पुं०) बार-बार उगना ।
पुनरोत्पत्तिः
० नाखून बढ़ना ।
पुनर्दारक्रिया (स्त्री०) पुनर्विवाह करना ।
पुनर्नकिमिति (अव्य०) और क्या नहीं। ( सुद० १०० ) पुनर्प्रत्युपकारः (पुं०) उपकार का बदला - चुकाना ।
० जन्म होना, फिर से उत्पन्न होना । ०नाखून।
पुनर्भवः (पुं०) पुनर्जन्म |
पुनर्धू (स्त्री०) विधवा का विवाह ।
पुनर्यात्रा ( स्त्री०) फिर से गमन करना, पुनः यात्रा करना । पुनरपि (अव्य०) फिर भी । (समु० ४ / ३५) पुनरप्येव (अव्य०) फिर भी ऐसा (सुद० ९० ) पुनरिदं (अव्य० ) फिर भी यह । ( सुद० ८९ ) पुनरीदृशी (अव्य० ) पुनः ऐसा ही, (समु० ७/१९) पुनरुक्त (वि०) फिर से कहा गया। (जयो० १६/५० ) पुनर्विवाह: (पुं०) दूसरा विवाह ।
पुनश्च (अव्य०) अनन्तर, पश्चात्, फिर से (जयो० ११ / ५) पुनश्चेतन (वि०) संवेदन कर, बार-बार चैतन्यता को प्राप्त । (जयो० ७ / २९ )
पुनर्संस्कार : ( पुं० ) फिर से संस्कार ।
पुनर्संगम: (पुं०) पुनर्मिलन, फिर से मिलना।
पुनर्संसाधनं (नपुं०) पुनर्मिलन |
पुनर्संभव: (पुं०) फिर से जन्म लेना, पुनर्भव, पुनर्जन्मन् । पुनरार्थिता ( स्त्री०) बार- बार की गई प्रार्थना । पुनरागत ( वि०) फिर से आया हुआ । पुनराधानं (नपुं० ) पुनः स्थापित । पुनराधेयं (नपुं०) पुनः स्थापित । पुनरावर्त: (पुं०) पुनरागमन, पुनर्जन्म |
पुनरावृत्तिः (स्त्री०) दोहराना, बार-बार स्मरण करना ।
पुनरोक्त (वि०) फिर से कथित ।
पुरोक्तिः (स्त्री०) दोहराना ।
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पुनरोत्थानं (नपुं०) पुनर्जीवित करना ।
पुनरोत्पत्तिः (स्त्री०) देहान्तर गमन, पुनर्जन्म, फिर से जन्म होना।
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पुनरोपगमः
६५५
पुररक्षः
पुनरोपगमः (पुं०) वापसी, फिर से आना।
पुरम् (नपुं०) [पृ+क] पुर, नगर, शुहर। अलकापुरसम्भवो। पुनल्लिग्रामः (पुं०) एक ग्राम।
(समु० २/२२) कारयामासतुलॊकतिलकाख्यजिनालयम्।
दुर्ग, किला, गढ़। यद्वयवस्थार्थमादिष्टं पुनल्लिग्रामनामकम्।।
निवास, गृह, आवास। (सुद० १/२७) (वीरो० १५/३६)
शरीर। पुनाति (वर्त०) पवित्रीकरोतीत्यर्थः (जयो० २/२४)
०अन्त:पुर। पुनातु (विधि) पवित्र करें।
रनिवास। पुनीतः (पुं०) ०पूत, पवित्र, उत्तम, श्रेष्ठ। (जयो० १/१०) पाटलिपुत्र।
प्रिय, मनोरम, रमणीय, पावन। क्षन्तव्यं तदहो पुनीत ०पुष्पकोष, फूलों की टोकरी। भवता।
०चमड़ा। देयां च सूक्तामृतम्। (सुद० १२४) पापं विमुच्यैष भवैत् गुग्गुला पुनीतः (वीरो० १७/७)
पुरकोर्ट्स (नपुं०) नगर का परकोटा, चारदीवारी, नगर सुरक्षा पुनीतकेशी (स्त्री०) ललितालका। (जयो० १७/८१)
के लिए बनाया गया घेरा, दुर्ग। पुनीतचरणं (नपुं०) पवित्र पाद। ०रमणीय/सुंदर चरण। पुरग (वि०) नगर को जाने वाला। पुनीतपक्षिन् (पुं०) न्याय सम्मत विरोध। (जयो० ७/९०) ___ अनुकूल। पुनीतपुराण-पंथा (स्त्री०) पवित्र प्राचीन मार्ग। (वीरो० २२/२) पुरजित् (पुं०) शिव। पुनीतभास (वि०) श्रेष्ठ कथन। (वीरो० ६/१०)
पुरटं (नपुं०) [पुर+अटन्] स्वर्ण, सोना। पुनीतवाक् (नपुं०) शुचिवाणी। (जयो० १२/३२)
पुरणः (पुं०) समुद्र, सागर, उदधि। पुनीतराशि: (स्त्री०) पवित्रराशि, श्रेष्ठराशि। (समु० १/२९) पुरत् (अव्य०) [पुर+तस्] सामने, आगे, समीप। (समु०७/२०) पुनीतसर्गा (स्त्री०) पावनरचना। स्वर्गान्निसर्गात् सुकृतैक- तन्निवेदिपुरतः परिश्रमात् साधयेदवविराधये पुमान्।
वर्गादवाप्यते किन्न पुनीतसर्गा। (जयो० २३/७४) पुनीतः (जयो० २/६१)
पावनः सर्गो रचना वा स्वभावो यस्यास्सा (जयो०० २३/७४) पुरतएव (अव्य०) सम्मुख ही। (जयो० १/१००) पुनीतसारः (पुं०) पवित्रसार। पुनीतेन पवित्रेण सारेण मधुरा पुरतटी (स्त्री०) छोटी पेंठ, छोटा गांव की पेंठ। मधुदात्री। (जयोवृ० ४/६८)
पुरतोरणं (नपुं०) नगर का प्रवेश भाग। पुनीता (स्त्री०) पवित्रा, पूता। (सुद० ३/४५)
पुरतःस्थ (वि०) सम्मुख, सम्मते। (जयो० ३/४०) पुन्नाग (वि०) उत्तम नाग। (वीरो० २/२३)
पुरंदरः (पुं०) [पुरं दारयति इति दृ+णिच्+खच्] 'पुरमिदं पुन्नागः (पुं०) पुन्नाग वृक्ष, नाग केशर। (सुद०८३) पुन्नाग नगरं तच्चोदयिना पुरन्दरेण' ० इन्द्र, शिव। ०बाढ।
का पादप। पुन्नाग एव भो मुग्धे दुग्धेषु भुवि गव्यवत्। (जयो० ५/८९) (सुद०८५)
पुरद्वार (पुं०) नगर का प्रवेश द्वार, गोपुर। (जयो० ९/१०७) पुन्नाग-पुत्री (स्त्री०) श्रेष्ठ व्यक्ति की पुत्री। 'पुन्सु नागस्य पुरद्विष् (पुं०) शिव। पुरुषश्रेष्ठस्य पुत्रीति' (जयो०वृ० ११/७३)
पुरंधिः (स्त्री०) [पुरं गेहस्थजनं धारयति-धृ+खच्+ङीप्] पुष्फुलः (पुं०) उदरवायु, अफारा।
प्रौढ स्त्री, विवाहिता स्त्री, मातृका। पुप्फुसः (पुं०) [पुप्फुस्+अच्] ०फेफड़ा, कमल का बीज पुरन्ध्रीजनी (स्त्री०) प्रौढ नारी समूह। (जयो० ३/१०७) कोष।
पुरपालः (पुं०) नगर शासक, दुर्ग रक्षक, सेनापति। पुमान् (वि०) पुरुष, मानव, मनुष्य, सत्त्व, जीव। पुंवेदोदयात् पुरप्रबोधः (पुं०) नगर सम्बंधी जानकारी। (सुद० ११७) सूते जनयत्यपत्यमिति (स०सि० २/५२)
पुरमथनः (पुं०) शिव। पुर (स्त्री०) [पृ+क्वित्] नगर। (जयो०१४/६७) (सम्य०१४०) । पुरमार्गः (पुं०) नगर का रास्ता, नगर पथ-सड़क।
शहर (जयो० १/९) (सुद० १/२६) ०दीवार, ०बुद्धि। । पुररक्षः (पुं०) सिपाही, नगर प्रहरी। नगर रक्षक।
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पुररक्षकः / पुररक्षिन्
पुररक्षकः / पुररक्षिन् (पुं०) नरग रक्षक, अंगरक्षक । पुरला (स्त्री० ) [ पुर+ला+क+टाप्] दुर्गा देवी । पुरवर्तिनी (वि०) नगर वासी। (जयो० १२ / ८) पुरस् (अव्य० ) [ पूर्व + असि पुर् आदेश ] समीप, सामने आगे, प्रत्यक्ष, आंखों के सामने।
पुरसन्दिदृक्ष (वि०) नगरावलोकन (समु० २ / २२ ) पुरस्करणं (नपुं०) सामने करना, आगे रखना ।
०सम्मान, आदर, अनुरोध । ० पूजा, अर्चना ।
० आरक्षित, पूजित, सम्मानित |
० संयुक्त, तैयार, संलग्न ।
० अभिमंत्रित ।
० दोषारोपित, कलंकित । ० प्रत्याशित |
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पुरस्कारः (पुं०) सम्मान, पारितोषित । सद्भूतगुणोत्कीर्तन दत्वा पुरस्कारमथेष्टमस्मै, जगाद भद्रो भवतामहन्तु । (समु० ३ / २५)
पुरस्क्रिया ( स्त्री०) सम्मानित करना, आदर प्रदर्शित करना । पुरस्ग (वि०) मुख्य, प्रधान, अग्रणी, समीपवर्ती । पुरस्गम (वि०) देखो ऊपर।
पुरस्गति: (स्त्री०) पूर्ववर्तिता ।
पुरस्गंत (वि०) आगे चलने वाला, नेतृत्व करने वाला, मुखिया, नेता, नायक, प्रधान, मुख्य । पुरस्गामिन् (वि०) देखो ऊपर।
पुरस्गामिन् (पुं०) श्वान, कुत्ता।
पुरस्वरणं (नपुं०) प्रव्रज्या की ओर चलना, दीक्षा के लिए तैयार होना । ०सम्मान की ओर अग्रसर होना।
पुरस्छः (पुं०) चुचूक ।
पुरस्जन्मन् (वि०) पहले जन्म लेने वाला।
पुरस्डाश् (पुं०) यज्ञ की आहूति ।
पुरस्तात् (अव्य० ) [ पूर्व+अस्ताति पुर् + आदेशः ] आगे, सामने।
o पहले, पूर्व में, पहले स्थान पर ।
० पूर्व की ओर, बाद में, अन्त में।
पुरस्थाक (वि०) पूरा होने के निकट, पूरा होने वाला । पुरस्थायिन् (वि०) सामने खड़े रहने वाला । पुरस्प्रहर्तृ (पुं०) अग्रिम पंक्ति का सैनिक। पुरस्फल (वि०) सन्निकट फल वाला। अनधिकार प्रवेशी, छिद्रान्वेषण करने वाला, स्पृहाशील ।
६५६
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पुराणकथा
पुरस्भागिन् (वि०) आगे रहने वाली, अग्रगामी, अग्रगण्य । ० नटखट, स्वेच्छाचारी ।
पुरस्मारुतः (पुं०) अग्र वायु ।
पुरस्वात: (पुं०) आगे की हवा, सामने की पवन। पुरस्सर : (पुं०) अग्रेसर, आगे वाला, अग्रगामी, युक्त। (जयो० १० / ५२ )
पुरस्सर : (पुं०) अनुचर, अनुगामी, अनुयायी । (जयो० ५/२७) ० सेवक, भृत्य ।
० नेता, मुखिया, प्रमुख ।
पुरस्सार: (पुं०) सम्मुख । (जयो० २४ / ३८ )
पुरस्ति (वि०) सामने रक्खा हुआ, नियुक्त | ० अभिकर्ता ।
पुरस्हितः (पुं०) दूत, संदेशवाहक ।
पुरा (अव्य० ) [ पुर्+का] पूर्व काल का, ०आज तक। (जयो० ४/४६) ०प्राचीन समय का, ०पहले का। (जयो०५/२४) (सुद० ४ / ३६) अस्या हि सर्गाय पुरा प्रयासः परः प्रणामाय विधेर्विलासः । ० पुरा- पूर्व काले। (जयो० ११ / ८४)
० प्राग् भाग। (जयो०वृ० १/५ )
पुरा ( स्त्री० ) ०पूर्व दिशा, ०किला गंगा । पुराकथा ( स्त्री०) प्राचीनकथा, उपाख्यान |
पुराकल्प: (पुं०) पूर्व सृष्टि, अतीत युग, पूर्ववर्ती कल्प।
प्रथम युग ।
पुराकृत (वि०) पहले किया हुआ । (जयो० २५/७७) पुराख्यानं (नपुं०) राजधानी वर्णन । पुरागत ( वि०) पूर्व में आया हुआ ।
पुरागेहं (नपुं०) प्राचीन घर, पहले का घर ।
पुराचर (वि०) पूर्व से विचरण करने वाला।
पुराजनुरागः (पुं०) जन्म जन्मातर प्रीति । (जयो० २३/४७) पुराजन्मन् (वि०) पूर्वजन्म वाला ।
पुराजाति: (स्त्री०) पूर्व उत्पत्ति, पूर्वजन्म । (जयो० २३/८३) पुराण (स्त्री०) पुराना, प्राचीन, पूर्व काल सम्बन्धी । ०व्योवृद्ध, पुरातन।
पुराणं (नपुं०) अतीत की घटना। (जयो०वृ० १ / ३६) पुराणकाव्य । पूर्व की कहानी, उपाख्यान, पुरातन कथा, पौराणिक इतिहास | (जयो० ११ / ६)
० त्रिषष्ठिशलाका पुरुषाश्रिता कथा पुराणम्' पुराणकथा ( स्त्री०) पुरातन कथा, त्रिषष्ठिशलाका पुरुषों की कहानियां ।
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पुराणकोषः
६५७
पुरुषः
पुराणकोषः (पुं०) पुराण संग्रह।
पुरीषभः (पुं०) मलत्याग। पुराणगः (पुं०) पुराण पाठक।
पुरु (वि०) [पृ पालनपोषणयोः कु] प्रधान, उत्कृट बहुत, पुराणग्रंथं (नपुं०) पुरातन ग्रन्थ, पौराणिक ग्रन्थ, पुराण पुरुषों प्रबल, प्रचुर, अत्यधिक। सम्बंधी काव्य। (दयो०२५)
पुरु (पुं०) पुरुवंश, आदि ब्रह्मा, ऋषभ। (जयो० १२/८९) पुराणधान्यं (नपुं०) पुराना धान्य।
आदिनाथ (जयो० ४/८३) ऋषभदेव को पुरु कहा जाता पुराणपथाश्रित (वि०) ग्रन्थ अनुयोग (वीरो० १८/५०, ६/८०)
पुराणं पन्थानं श्रयन्तीति पुराण पथाश्रितास्तादृशा प्रथमानुयोग फूलों की पराग। पुराण सम्बंधी। (जयो०वृ० १६/८०)
स्वर्ग, देवलोक। पूज्य पुरुष। (जयो० २।८९) पुराणपुरुषः (पुं०) पौराणिक पुरुष, ऋषभदेव। (समु०१/१) कौरव और पाण्डवों का पूर्व पुरुष पुरु। त्रिषष्ठि शलाका पुरुष।
पुरुज (वि०) पुरुवंशी। (जयो०वृ० ९/६३) पुराधिराज (पुं०) नायक, राजा (जयो० १/५) पुराण ग्रंथा पुरुजित् (पुं०) ऋषदेव, ब्रह्मा। पुराणभावः (पुं०) प्राचीनता का भाव। (जयो०वृ० १५/१८) ___ राजा कुन्तीभोज। पुराणशास्त्र (नपुं०) पुराण काव्य। (सुद० १/५)
पुरुदं (नपुं०) स्वर्ण, सोना। पुराणस्कंध: (पुं०) पुराण अवयव, पुराण पुरुषों के तिरेसठ पुरुनिभः (पुं०) ऋषभदेवतुल्य। (जयो० ९/८३) अधिकार।
पुरुदशकः (पुं०) हंस। पुराणसंवादः (पुं०) उचित सम्वाद, प्रथमानुयोग की कथाएं। । पुरुदेव (पुं०) भगवद्ऋषभ। (जयो० ७/४२) (जयो०१९/३८)
पुरुपर्वः (पुं०) ऋषभदेव, पुरुदेव। पुरोरादिदेवस्य पर्षाभिनयात् पुराणान्तः (पुं०) यम।
कृपानुभावात् पुरुदेव ऋषभदेव। (जयो० १२/४८) पुराणोक्त (वि०) पुराणों में कथित, पुराणों में प्रतिपादित/निर्दिष्ट। पुरुपर्वतः (पुं०) कैलाश गिरि। (जयो० २१/१६) पुरातन (वि०) [पुरा+ट्यु+तुटु] ०प्राचीन, पुराना, पूर्ववर्ती। पुरुरव (पुं०) पुरुरवा नामक भील। स आह भो भव्य! (जयो० २/११८)
पुरुरवाङ्ग भिल्लोऽपि सहमेवशादिहाङ्कः (वीरो० ११/२१) ०वयोवृद्ध, प्राक्कालीन।
प्ररुरवाङ्गः (पुं०) पुरुरवा भील। पुराभवः (पुं०) पुनर्जन्म सम्बन्धी। (जयो० २४/२९) पुरुराट् (पुं०) ऋषभदेव, नाभेय। (जयो० २५/३१) पुरुवरस्य पुराभिगाधः (पुं०) प्रथम ग्रहण। (जयो० १४/५८)
श्री ऋषभदेववरस्य तीर्थकरस्य पुण्यकथाभि शोभना' पुराभूतलं (नपुं०) प्राचीन स्थल। (वीरो० ११/२)
(जयो०वृ० १२/१०९) पुरिः (स्त्री०) [पृ+३] नगरी, शहर। नदी। (समु० २/२४) |
| पुरुषः (पुं०) [पुरि देहे शेते-शीन्द्र] ०मानव, मनुष्य, नर। पुरिशय (वि०) [पुरि+शी+अच्] शरीर में विश्राम करने पुरिशयनाद्वा पुरुष इति। _ वाला।
०पूर्ण:सुख-दुःखानामिति पुरुष। पुरी (स्त्री०) [पुरि ङीष्] नगरी, नगर। (जयो० ३/३०) आध्यात्मिक दृष्टि के पुरुष का अर्थ है, जो परमपद में 'धनदस्य पुरी परीक्ष्यते' (समु० २/१०)
स्थित परमेष्ठि के गुणों को चाहता है वह पुरुष है-पुरौ गढ, किला।
उत्तमे परमेष्ठिपदे च शेते तिष्ठति च तस्मात् कारणात् स शरीर, देह।
जीव पुरुष इति वर्णितः। (गो० जी० २७३) पुरीतत् (पुं०/नपुं०) [पुरी देहं तनोति-तन्+क्विप्] अंतड़ी, जो उत्तम कर्म को करता है वह पुरुष है-'पुरुकर्मणि हृदय के समीपस्थ रहने वाली आंत।
शेते, प्रमादयतीति पुरुषः। (धव० ६/४८) पुरीषं (नपुं०) [पृ+ ईषन्] मल, विष्टा, गूथ, गोमय, गोबर। पुरुगुणेषु, पुरुभोगेषु च शेते स्वपितीति पुरुषः। (धव ___कूड़ाकरकट, गंदगी।
१/३४१) पुरीषणः (पुं०) [पुरी+इष्+ल्युट्] विष्ठा, मल।
अधिकारी, कार्यकर्ता, अभिकर्ता। पुरीषणं (नपुं०) मल त्याग करना, विष्टा उत्सृजन।
अनुचर, सेवक।
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पुरुषक:
६५८
पुरोपवसनादिविधिः
०पुरुष तत्त्व-प्रकृतेः प्रधानपुरुषस्य मन्त्रिण:
(जयो०वृ० १/३१) पुरुषकः (पुं०) [पुरुष कन्] पुरुष की भांति खड़ा होने वाला। पुरुषकुणपः (पुं०) मनुष्यशव। पुरुषकेसरिन् (पुं०) नरसिंह। ___ सिंह की तरह शक्ति शाली पुरुष ज्ञान। पुरुषकारः (पुं०) पुरुषार्थ। पुरुषज्ञानं (नपुं०) पुरुष सम्बंधी।
मानवजाति का बोध। ०पुरुष तत्त्व की सांख्य के पुरुष तत्त्व की जानकारी।
०पुरुष की विशेषताओं का परिबोध। पुरुषत्व (वि०) मनुष्यत्व। पुरुषदन (वि०) पुरुष सम्बंधी ऊंचाई। पुरुषङ्गिष् (पुं०) विष्णु। पुरुापशुः (पुं०) नरपशु, क्रूर। दुष्ट पुरुष, ०अधम व्यक्ति। पुरुष पुंडरीकः (पुं०) श्रेष्ठ पुरुष, प्रमुख व्यक्ति। पुरुषपुंगः (पुं०) ०सज्जन, पुरुषोत्तम। पुरुषपुंगवः (पुं०) उत्तम पुरुष, श्रेष्ठपुरुष। नरोत्तम, पुरुषोत्तम
(जयो०वृ० ९/८) पुरुषबहुमानः (पुं०) मनुष्य जाति की प्रतिष्ठा। पुरुषपरिस्खलनं (नपुं०) सामुद्रिक लक्षण। (जयो० २२/४३) पुरुषमेधः (पुं०) नरमेध यज्ञ। पुरुषराजन् (पुं०) राजा, नरपति। (वीरो० १५/३७) पुरुषलिंगः (पुं०) पुंवेद, पुमान्। पुरुषवरः (पुं०) आदिदेव, ऋषभदेव। (मुनि० ३२) विष्णु। पुरुषवाहः (पुं०) गरुड़। कुबेर। पुरुषवेदः (पुं०) पुमान्, पुंवेद, पुंल्लिग। पुरुषव्याघ्रः (पुं०) पूज्यप्रतिष्ठित व्यक्ति। पुरुषशार्दूलः (पुं०) सम्मानित व्यक्ति, पूज्य पुरुष, उत्तम व्यक्ति। पुरुषसिंह (पुं०) पूज्य पुरुष, सज्जन, शक्तिमान् व्यक्ति।
पुरुषश्रेष्ठ। (दयो० ३२) नरोत्तम। पुरुषसमवायः (पुं०) मानव समूह। पुरुषसूक्तं (नपुं०) पुरुष सम्बंधी, सूक्त, ऋग्वेद के दसवें
मण्डल का भाग। पुरुषांगं (नपुं०) पुरुषलिंग, मनुष्य की जननेन्द्रिय। पुरुषादः (पुं०) नरभक्ष, पिशाच। पुरुषाधमः (पुं०) अत्यन्त नीच पुरुष, अधम व्यक्ति। पुरुषाधिकारः (पुं०) पुरुष कर्त्तव्य, मानवाधिकार।
पुरुषानुरज्जनकारिन् (वि०) पुरुष को प्रिय लगाने वाला।
(जयो० १/९२) पुरुषान्तरं (नपुं०) दूसरा मनुष्य। मानवीय भेद। पुरुषार्थः (पुं०) पुरुषार्थ, पुरुष के प्रयोजन भूत कार्य। (समु०
४/४०) धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। ०फल की सिद्धि,
पुरुष का प्रयत्न। पुरुष व्यवसाय। पुरुषार्थचतुष्टय (पुं०) चार पुरुषार्थ। पुरुषास्थिमालिन् (पुं०) शिव। पुरुषाद्य (पुं०) विष्णु। पुरुषायित (वि०) रतिविशेषाकृति, नरायित। (जयो०वृ० १४/२६)
मनुष्य की तरह अभिनय करने वाला। पुरुषायुषं (नपुं०) मानव जाति की अवस्था। पुरुषायुस् (नपुं०) मनुष्यायु। पुरुषाशिन् (पुं०) नरभक्षी, राक्षस। पुरुषार्थसिद्धयुपायः (पुं०) आत्म पुरुषार्थ की सिद्धि का उपाय।
०एक ग्रंथ विशेष। पुरुषोत्तमः (पुं०) श्रेष्ठ पुरुष, परमात्मा। (सुद०८४) (जयो०
११/४४) समालोक्य युक्तमिति लसति (जयो० ६/७९) पुरुषोत्तमस्य-नृपनरस्य। पुरुषोत्तमस्य-गोविन्दस्य। (जयो०वृ० ६/७९) सर्वोत्तमगुणैर्युक्तं प्राप्तं सर्वोत्तमपदम्। सर्वभूतहितो यस्मात्तेनाऽसौ पुरुषोत्तमः।।
(जैन०ल० ७१७) पुरुषोत्तम-योग्यः (पुं०) श्रेष्ठ पुरुष के योग्य।
विष्णु। (जयो० ६/६३) पुरूदित (वि०) ऋषभ प्रतिपादित, पुरुवंश के प्रमुख ऋषभदेव
द्वारा कथित। पुरूदितं नाम पुनः प्रसाद्यामुष्मिंस्तु धर्माधिभुवोऽजिताधाः।
(वीरो० १८/४५) पुरूरवस् (पुं०) [पुरू प्रवरं यथास्तस्मात्तयारोति- पुरु+रु+असि]
पुरुवंश का श्रेष्ठ पुरुष। पुरोगत (वि०) सम्मुख स्थित। (जयो० ८/३१) पुरोटिः (स्त्री०) [पुरस्+अट+इन] नदी प्रवाह, पत्रों की
सरसराहट, पत्रावली ध्वनि। पुरोडास (स्त्री०) यज्ञ की आहूति। पुरोदृक् (वि०) प्रकाश के फैलने पर। पुरोधस् (पुं०) पुरोहित (जयो० १२/१००) (वीरो०१८/२६) पुरोपवसनादिविधिः (स्त्री०) नगर में रहने की विधि/पद्धति।
(वीरो० २२/५)
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पुरोभागः
६५९
पुष्कर
पुरोभागः (पुं०) पश्चिमांश, पार्श्व, पक्षभाग। (जयो०वृ०
३/१०३) (जयो० २६/७७) पुरोवर्तिन् (वि०) पश्चिम भाग वाली, पूर्ववर्ती (जयो० १५/५९) पुरोहितः (पुं०) यागगुरु राट्, पुरस्ताद हित (जयो० ७/८१)
शान्तिजनक अनुष्ठान कराने वाला। (जयो०वृ० १२/२७) 'पुरुष पुरोधा स' (जयो० २६/१०) पुरोहितः शान्तिकर्मकारी।
०धर्मकर्माध्याक्ष (जयो० ३/१४) पुर्व (अक०) रहना, बसना। पुर्व (सक०) झरना, नियन्त्रित करना। पुल (वि०) [पुल+क] विशिष्ट, योग्य, महान, उत्तम।
०व्यापक, विस्तृत। पुलकः (पुं०) [पुल+कन्] रोमाञ्च, हर्ष, प्रसन्नता खशी।
एक विशेष रत्न। ०हरताल। ०सकोरा, शराबपात्र।
०सरसों, राई। पुलकांचित (वि०) दूषित, आनंदित। (समु० ७/२५) पुलकालयः (पुं०) कुबेर। पुलकावली (स्त्री०) रोमराजि। (जयो० १०/५४) पुलकोदगमः (पुं०) रोमांच होना, रोम-रोम खड़े हो जाना। पुलकित (वि०) [पुलका इतच्] रोमांचित, हर्षित, गद्गद,
विकासी, आनन्दित, (जयो० ४/६०) प्रसन्नचित्त, प्रसन्नभाव।
(जयो० १८/४२) पुलकिन् (वि.) [पुलक+इनि] रोमांचित, हर्षित। पुलवि (नपुं०) निगोद जीवों का स्थान, निगोद जीवों के आवास। पुलस्ति (पुं०) एक ऋषि। पुला (स्त्री०) [पुल+टाप्] मृदुतालु, गले का काक। पुलाकः (पुं०) पुलाक मुनि, जिन मुनियों का मन उत्तर गुणों
की भावनाओं में संलग्न नहीं और व्रतों में भी कहीं व किसी समय परिपूर्णता रहित होते हैं।
अपरिपूर्णव्रता उत्तरगुणहीना पुलाकाः। (त०वा० ९/४६) ०पुलाका भावनाहीना ये गुणेषूत्तरेषु से। न्यूनाः क्वचित् कदाच्चि पुलाकामा व्रतेष्वपि।।
(हरिवंश पु० ६४/५९) पुलाको नि:सार इति प्ररूढं लोके-तन्दुलकणशून्या
पुलाकः। (जैन०ल० ७१७) मूलगुण में आंशिक दोष वाला साधु। (सम्य० १४१) ०कणशून्य अन्न।
मुरझाया हुआ धान्य संक्षेप, संग्रह, संक्षिप्तता संहति। क्षिप्रता, त्वरा।
०चांवलों का माड, नि:सार भूमि। पुलाकिन् (पुं०) [पुलाक+इनि] वृक्ष, तरु। पुलायितं (नपुं०) घोड़े की चाल, अश्व की सपाट गति। पुलिनः (पुं०) नदीतट, किनारा, नदीतीर, तटभाग। (जयो०
१३/५६) (जयो० १३/६३) रेतीला टापू, छोटा टापू।
पार्श्व भाग। (जयो० १३/३६) पुलिनं (नपुं०) नदी तट, टापू। पुलिनवती (स्त्री०) [पुलिन+मतुप्+वत्वम् ङीप्] सरिता, नदी।
(दयो० २२) पुलिंदकः (पुं०) [पुल+किंदच कन्] एक आदिवासी जाति, ___अरण्यवासी लोग। बर्बर, शबर, भीलादि। पुल्लिङ्गः (पुं०) पुमान्, पुरुषलिंग। पुल्लिङ्गसिद्धः (पुं०) पुरुष शरीर में अवस्थित होते हुए मुक्ति
को प्राप्त। पुलोमजा (स्त्री०) शची, इन्द्राणी। (समु० ४/२७) (जयो० . १२/९९) पुलोमा की पुत्री, इन्द्र की पत्नी। पुलोमन् (पुं०) एक राक्षस, इन्द्र। (जयो० ५/८९) पुलोमनरि (पुं०) इन्द्र।। पुलोमा (स्त्री०) इन्द्राणी की मां। पुवर्णः (पुं०) पु वर्ण, पवर्ग। (जयो०वृ० १/२४) पुष् (सक०) ०पोषण करना। (जयो०वृ० ११/५२)
दूध पिलाना, पालना, पुष्ट करना। (जयो० ६/२७) शिक्षित करना। सहारा देना, बढ़ाना। (जयो० २२/३२) प्राप्त करना, रखना, उपभोग करना।
प्रशंसा करना, स्तुति करना। पुष् (वि०) पुष्प करने वाला। (भक्ति० १२) पुष्करं (पुं०) [पुष्कं पुष्टिं राति-रा+क] नीलकमल।
पुष्कर झील, पवित्रस्थान। द्वीप। ०ढोल का चमड़ा।
तलवार का फलक, म्यान। ०वायु, आकाश, अंतरिक्ष ०बाण, पिंजर।
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पुष्करतीर्थः
६६०
पुष्पचारणा
०जल,०मादकता। नृत्यकला, व्युद्ध, संग्राम। एकता। सूर्य, तालाब, आकाश, जलाशय। पुष्करं व्योम्निं पानीय
इति विश्व (जयो०वृ० १५/३२) पुष्करतीर्थः (पुं०) पवित्र तीर्थ स्थान, अजमेर के समीप
स्थित। एक तीर्थ स्थान। पुष्करद्वीपगत (वि०) पुष्कर द्वीपवर्ती। (वीरो० ३/८) पुष्करपत्र (नपुं०) कमलपत्र। पुष्करप्रियः (पुं०) मोम। पुष्करबीजं (नपुं०) कमलगट्टा। पुष्करवरः (पुं०) पुष्करवर द्वीप। पुष्करवरद्वीपः (पुं०) पुष्करवर द्वीप। पुष्करव्याघ्रः (पुं०) घड़ियाल। पुष्करशिखा (स्त्री०) कमलनाल। कमल की जड़। पुष्करस्थपतिः (पुं०) शिव। पुष्करसृज् (स्त्री०) कमलमाला, पद्म समूह की माला। पुष्करिणी (स्त्री०) [पुष्करिन् ङीप्] ०एक भील।
कमल सरोवर, जलाशय, तालाब। पद्य पादप।
०हथिनी। पुष्करिन् (वि०) [पुष्कर+इनि] पद्मों से परिपूर्ण स्थल। पुष्करिन् (पुं०) हस्ति, हाथी, करि। पुष्कल (वि०) [पुष्+कलच्] ०प्रचुर, अधिक, बहुत। ०पूर्ण, समग्र, सम्पूर्ण, समस्त।
उज्ज्वल, श्रेष्ठ। निकटवर्ती, समीपस्था समृद्धशाली।
प्रतिध्वनित, निर्घोषमय। पुष्कलः (पुं०) ढोल, मेरुपर्वत। पुष्कलं (नपुं०) एक माप विशेष, थोड़ा। (दयो० २३) पुष्कलकः (पुं०) [पुष्कल+कन] ०धातकी खण्ड का एक
द्वीप। (वीरो० ११/३२) ०कस्तूरी मुंग।
०कुंडी, चटखनी, पन्नी, सांकल। पुष्ट (भू०क०कृ०) [पुष्+क्त] ०शक्तिमान, बलवान, प्रबली।
हृष्ट-पुष्ट। ०समृद्ध, समुन्नत।
०पूर्ण, समस्त, समग्र।
०प्रमुख, प्रधान। पुष्टतरता (वि०) शक्ति सम्पन्नता, लम्बी। (जयो० ४/६०) पुष्टतम (वि०) शक्ति सम्पन्न, वज्रमयी। (वीरो० २।८१) पुष्टवपुस् (नपुं०) हृस्टपुष्ट देह। (मुनि० ४) पुष्टिः (स्त्री०) [पुष्ट्+क्तिन्] प्रबलता। (जयो०० २३/५९)
संवर्धन, पालन-पोषण। हर्षिताङ्ग (जयो० १/८५) प्रगति, वृद्धि, सिद्धि। (जयो० २/९३) पराक्रम, शक्ति, शालीनता स्थूलता। सम्पत्ति, सुख-साधन, वैभव।
०पुण्योपचय, पुण्यसंचय। पुष्टिकर (वि०) ०पौष्टिक, शक्तिशाली, बल प्रदान करने
वाला, संतुष्टिकारक, संतोषप्रद। पुष्टिकर्मन् (नपुं०) अनुष्ठान कार्य, धार्मिककार्य। पुष्टिद (वि०) संवर्धनशील, वृद्धिकारक, पोषण युक्त। पुष्टिवर्धनः (पुं०) कुक्कुट, मुर्गा। पुष्टिविषयः (पुं०) पोषणावसर। (जयो० २/१२३) पुष्प (अक०) खिलना, फूलना, विकसित होना, बढ़ना। पुष्पं (नपुं०) [पुष्प+अच्] ०फूल, कुसुम। (सम्य० १०६)
सुमन। रजःस्राव, पुष्पवती नारी। पुखराज। अक्षिरोग विशेष। पुष्पक विमान।
०शौर्य, नम्रता। पुष्पकं (नपुं०) ०पुष्पक विमान। फूल, सुमन। पुष्पकालः (पुं०) वसन्त समय, ०रजोधर्म का समय। पुष्पकालीसं (नपुं०) कसीस। पुष्पकीट: (पुं०) भ्रमर, भौंरा। पुष्पकेतनः (पुं०) कामदेव। पुष्पकेतु (पुं०) कामदेव। पुष्पगत्थः (पुं०) पुष्पनिकय, पुष्प गुच्छक। (वीरो० २/३६) पुष्पगृहं (नपुं०) ०उद्यान, उपवन, ०पुष्पसंधारक। पुष्पघातकः (पुं०) बांस। पुष्पचयः (पुं०) पुष्पसंचय, फूलों का चुनना, कुसुम संग्रहण। पुष्पचापः (पुं०) कामदेव। पुष्पचामरः (पुं०) एक वेंत विशेष। पुष्पचारणा (स्त्री०) पुष्पचारण ऋद्धि, जिस ऋद्धि के प्रभाव
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पुष्प
६६१
पुष्पितादिक
से साधु नाना प्रकार के पुष्पों पर स्थित जीवों की विराधना पुष्यरेणुः (स्त्री०) पराग, मकरंद। न करके चलता। 'पुष्पमस्पृश्य पुष्योपरि गमनं पुष्प- पुष्परोचन् (पुं०) नागकेसर का वृक्षा चारणत्वम्' (त०वृ० ३/३६)
पुष्पलकः (पुं०) खूटी, नागदंती। पुष्पजं (नपुं०) पुष्प रस।
पुष्पलावा (स्त्री०) मालिन, फूल चुनने वाली। पुष्पणीय (वि०) खिले हुए, पुष्पित। (वीरो० २१/१८) पुष्पलिक्षः (पुं०) भ्रमर, भौरा, अलि। पुष्पदः (पुं०) वृक्ष।
पुष्पलिह (पुं०) देखो ऊपर। पुष्पतल्योपरि (स्त्री०) पुष्प शय्या पर। (जयो० २७/१२)
पुष्पवटुक (पुं०) छैल-छबीला, रंगीला। पुष्पदन्तः (पुं०) नवें तीर्थंकर का नाम। (भक्ति० १८) पुष्पवर्षः (पुं०) सुमनों की बरसात। आचार्य पुष्प दंत, शौरसेनी साहित्य का प्रारम्भिक कवि
पुष्पवर्षणं (नपुं०) सुमनवृष्टि। षट्खण्डागम के रचनाकार।
पुष्पवाटिका (स्त्री०) फुलवाड़ी, पुष्पबगिया। पुष्पदामन् (नपुं०) पुष्पमाला, फूलमाला।
पुष्पवृक्षः (पुं०) पुष्पप्रधान तरु, फूलों की विशेषता वाला पुष्पद्रवः (पुं०) पुष्परस, पुष्पासव।
वृक्ष। पुष्पद्रुमः (पुं०) पुष्पयुक्त वृक्ष, अधिक फूलों वाला तरु।
पुष्पशकटी (स्त्री०) आकाशवाणी। पुष्पधर (वि०) रजस्वला को धारण करने वाली।
पुष्पशय्या (स्त्री०) फूलों की सेज। पुष्पधनुष् (पुं०) कामदेव।
पुष्पशरः (पुं०) कामदेव। (दयो० ११/१२) पुष्पधवन् (पुं०) कामदेव।
पुष्पशरायनः (पुं०) कामदेव।
पुष्पसायकः (पुं०) कामदेव। पुष्पध्वज् (पुं०) कामदेव, रतिप्रिय।
पुष्पसमयः (पुं०) वसंत ऋतु। पुष्पनिक्षः (पुं०) भ्रमर, भौंरा।
पुष्पसम्यदा (स्त्री०) कुसुमाश्रिया। (जयो० २१/७२) पुष्पनिचयः (पुं०) पुष्पसमूह।
पुष्पसारः (पुं०) पुष्परस, मकरंद, पराग। पुष्पनिर्यामः (पुं०) पुष्परस, मकरंद, पराग।
पुष्पस्तवकः (पुं०) पुष्प गुच्छ। (जयो०वृ० १/९३) पुष्पनिर्यासकः (पुं०) मकरंद, पराग।
पुष्पस्वेदः (पुं०) पुष्परस। पुष्पनेत्रं (नपुं०) कामदेव।
पुष्पा (स्त्री०) [पुष्प्+अच्+टाप्] चम्पा नगरी। पुष्पपथः (पुं०) योनि, उत्पत्ति स्थान।
पुष्पाम (वि०) कामयुक्त। (जयो० ३/५३) पुष्पपुरं (नपुं०) पाटलिपुत्र।
पुष्पाञ्जलि (स्त्री०) नम्रभावाञ्जलि। (सुद० २/१२) पुष्पप्रचयः (पुं०) पुष्प संचयन, फूलों का चुनना।
पुष्याम (वि०) कामयुक्त। (जयो० ३/५३) पुष्प प्रचायिका (स्त्री०) पुष्प संचयन।
पुष्पागमः (पुं०) वसंत ऋतु। पुष्पप्रस्तारः (पुं०) पुष्पशयन, फूलों की शय्या।
पुष्मासवः (पुं०) पुष्परस (जयो०१० २७/१५) ०फुलेल पुष्पबलिः (पुं०) पुष्प चढ़ाना।
(जयो०वृ० २७/१५) पुष्पभवः (पुं०) पराग, मकरंद।
पुष्पिका (स्त्री०) [पुष्प्+ण्वुल्+टाप् इत्वं] ग्रन्थ के पश्चात् पुष्पमंजरिका (स्त्री०) ०नीलकमल। पुष्पमाला पुष्पमाल्य, दी जाने वाली सूचना। फूलमाला, कुसुमदाम। (जयो०१० २७/१५)
दांत की परत, मैल। पुष्पमाल्य (पुं०) फूलमाला। (जयो० १२/१४)
पुष्पिणी (स्त्री०) [पुष्पिन्+ङीप] रजस्वला स्त्री। पुष्पमासः (पुं०) चैत्रमास, वसंत ऋतु।
(जयो० १८/२६) पुष्परजस् (नपुं०) पराग, मकरंद।
कुसुसोपेता। (जयो०वृ० १८/२६) पुष्परदः (पुं०) पुष्पदंत तीर्थंकर का नाम। (भक्ति० १८) | पुष्पित (वि०) [पुष्प्+क्त] प्रफुल्लित, विकसित। पुष्परधः (पुं०) मन बहलाने वाला रथ, मनोप्रभावी रथ। (जयो० २७/१५) पुष्परागः (पुं०) पुखराज, पौष्यरज। (जयो० ६/२९)
फूलों से परिपूर्ण, फूल युक्त। पुष्पराज (पुं०) देखो ऊपर।
पुष्पितादिक (वि०) फफूंदयुक्त। (मुनि० ९)
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पुष्पिन्
६६२
पूजाह
A
पुष्पिन् (वि०) [पुष्प् इनि] प्रफुल्लित, हर्षित, खिला हुआ। पूगपात्रं (नपुं०) थूकदान, पीकदान। फूलों से परिपूर्ण, पुष्प समृद्ध।
०पानदान, ताम्बूल मचला। पुष्पोपकंठित (वि०) हर्षित। (जयो० २१/७२)
पूगपीट (नपुं०) पीकदान। पुष्पोपहित (वि०) पुष्पसमूह से बने।
पीकपीडं (नपुं०) पीकदान। पुष्पोपगः (पुं०) फूलों की शय्या। (जयो० २७/१२) पूगफल (नपुं०) सुपारी। पुष्पोपत्तिः (स्त्री०) सुमनोद्गम। (वीरो०६/२२)
पूगवैरं (नपुं०) बहुत से लोगों से शत्रुता। पुष्यः (पुं०) [पुष्+क्यप्] कलियुग
पूगी (स्त्री०) सुपारी। ताम्बूल। (जयो० १२/१३६) ०पौष का महिना।
पूगीफलं (नपुं०) सुपारी, ताम्बूल। (जयो०वृ० १२/१३६) ०पुष्य नक्षत्र। (सुद० १/२९)
पूज् (अक०) पूजना, अर्चना करना। पुष्यन् (कि०वि०) पुष्ट करता हुआ। 'पुष्यत् स एव शान्ति सम्मान करना, सत्कार करना। लभते मनुष्यः' (वीरो० १४/३१)
पूज् (सक०) उपहार देना। पुष्यरथः (पुं०) पुष्यरथ, कामदेव का रथ।
भेंट चढ़ाना। पुष्यलकः (पुं०) [पुष्य लक्+अच्] ०स्थान, खूटी, कील, पूजक (वि०) [पूज्+ण्वुल्] ०अर्चक, आराधक, उपहारक। फन्नी।
०सम्मान देने वाला, आदर करने वाला, पुजारी। (दयो०७७) पुस्त् (सक०) लेप करना, बनाना।
० पूजा का अधिकारी-भव्यात्मा पूजकः शान्तो पुस्तं (नपुं०) [पुस्त्+घञ्] लेप करना।
वेश्यादिव्यसनोज्झितः। (जैन०ल० ७/९) खिलौने बनाना, शिल्पकार्य करना।
पूजकाचार्यः (पुं०) प्रतिष्ठाचार्य श्रावकाचारपूतात्मा, लिखना, हस्तलेखन करना।
दीक्षाशिक्षागुणान्बित:। क्रियाषोडशभिः पूतो, पुस्तकं (नपुं०) [पुस्त्+कन्] ०पोथी, ग्रन्थ, शास्त्र। (जयो० ब्रह्मसूत्रादिसंस्कृतः।। न हीनाङ्गो नाधिकाङ्गो, न प्रलम्बो न १३/२४)
वामनः। न कुरूपो न मूढात्मा, न वृद्धो नातिबालकः।। ०हस्तलिखित रचना।
(जैन०ल० २२९) पुस्ती (स्त्री०) [पुस्त+डीप्] पोथी।
पूजता (वि०) सम्मानीयता। (मुनि० १४) पुस्सर (वि०) पूर्वक। (जयो० २/१२)
पूजनं (नपुं०) अर्चन, आराधन (सुद० १४०) गुणन, चिन्तन, पू (सक०) पवित्र करना, शुद्ध करना, साफ करना।
स्मरण। ०परिमार्जन करना, प्रायश्चित्त करना 'दशाऽपरेऽपिप्रति- पूजनपरिस्थितिः (स्त्री०) पूजन सामग्री। (दयो० )०पूजना, बोधमापुस्तेषामथाख्याऽथ कथा तथा पू:'। (वीरो० १४/१) सम्मान करना। ०पहचानना, सोध करना।
पूजनार्थ (वि०) अर्चनार्थ। (सुद० ११४) ०सोचना, विवेक करना।
पूजनीयत्व (वि०) सम्मान युक्तता। (जयो० २/२४) ०अविष्कार करना।
पूजा (स्त्री०) [पूज्+अ+टाप्] अर्चना, भक्ति, स्तुति, आरती पूगः (पुं०) [पू+गन्, कित] समुच्चय ढेर, समूह, संग्रह, इष्टि (जयोवृ० २/२७) मात्रा।
आराधना, श्रद्धार्चना। (जयो० ५/६३) ०संघ, समाज, निगम।
विनती, गीति, उपासना। 'पूजनं गन्ध-माल्यादिभिः प्रकृति, गुण, स्वभाव।
समभ्यर्चनम्' (जैन०ल० ७१९) सुपारी, पूगी।
पूजातत्परः (पुं०) सपर्यापर, पूजा में लीन। (वीरो० ५/६) ०ताम्बूल। (जयो० २७/४७)
पूजावाक्यं (नपुं०) पूजापाठ। पूर्ग (नपुं०) सुपारी, ताम्बूल।
पूजाविधानं (नपुं०) अर्चना पद्धति। (सुद० ७२) समिष्टिवद पूगदलं (नपुं०) ताम्बूल। (जयो०वृ० २७/४७) 'ताम्बूलस्य अर्चना। (जयो० २/२९)
पूगदलस्य सचर्बणतः'। (जयो०७० २७/४७) | पूजार्ह (वि०) पूजा के योग्य, पूज्य। श्रद्धेय, पूजनीय, अर्चनीय।
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पूजित
६६३
पूयरक्तः
पूजित (भू०क०कृ०) [पूज्+क्त] ०अर्चित, भजित, आराधित। पूतभावः (पुं०) पवित्र भाव। ०अनुशासित, प्रशंसित, सम्मानित।
पूतवेष: (पुं०) मञ्जुलवेष, स्वच्छपरिधान। (जयो० १२/१२१) आहृत, प्रतिष्ठित।
समुञ्चवलाम्बर। पूजा जाने वाला।
पूता (स्त्री०) सती, श्रेष्ठ स्त्री। 'पूता सती इहलोके' (जयो० पूजिल (वि०) [पूज+इलच्] ०अर्जित, आराधित।
वृ० ३/५६) ०सम्मानित, समादरणीय।
सुन्दरी, श्रेष्ठ स्त्री। (सुद० ३/२१) पूज्यपादः (पुं०) जैनेन्द्र व्याकरणकार। (वीरो० ३/७) आचार्य | पूति (वि०) [पूय+क्तिच्] दुर्गन्ध युक्त, खड़ी हुई, अपवित्री
पूज्यपादकृत-पाणिनीय काशिका वृत्ति। (जयो० ४/१६) भूत, दुर्गन्धित। (सुद० १०१) पैरों की पूज्यता। (दयो० ११२)
पूतिः (स्त्री०) दुर्गंध, फोड़ा। (जयो० २/५) पूज्यकीर्ति (स्त्री०) महनीय। (जयो०वृ० ४/९) पूजनीय। पूतिकृतिः (स्त्री०) रोने में तत्पर। 'पूत्कृतौ रोदने तत्परम्' पूजिल: (पुं०) अर्हत्-देव।
(जयो०वृ० १६/८१) पूज्य (वि०) [पूज्+ण्यच्] आदर का अधिकारी, सम्माननीय पूतिकर्म (पुं०) साधुओं के लिए अग्राह्य आहार कर्म।
सम्मान योग्य, पूजनीय। जनकी जनकौ पूज्यौ। (हित०११) | पूतिकाष्ठं (नपुं०) देवदारु वृक्ष। पूजा के योग्य, पूज्य। पितुस्तवाप्येषोऽकम्पन: पूतिकाष्ठकः (पुं०) सरल वृक्ष। (जयो० ७/४) पूज्योऽर्हन् केवलज्ञान-दृग्वीर्य-सुखधारकः। पूतिगंधः (वि०) दुर्गंध युक्त, बदबूदार, सड़ा हुआ। (जैन०ल० ७२०)
पूतिगन्धि (वि०) दुर्गन्धित, दुर्गन्ध देने वाला। पूज्यता (वि०) पूजनीयता, पूजा की योग्यता। (सुद०५) पूतिदोस (पुं०) साधु के आहार में लगने वाला दोष। पूज्यपूजा (स्त्री०) पूजनीय की प्रशंसा। (जयो० १३/५) पूतिनासिक (वि०) दुर्गन्धमय नाक वाला। ___ पूज्यानां गुरुस्थानीयानां श्वसुरादीनां पूजा।
पूतिक्तु (स्त्री०) फोड़े फुसी। (समु० ९/२९) पूण (सक०) चुनना, संग्रह करना, एकत्रित करना। पूतिपर (वि०) दुर्गन्ध युक्त। (जयो० २५/२०) 'अपितु पूतिपरं पूत् (अव्य०) फूत्कार सूचक ध्वनि, अनुकृति युक्त ध्वनि। वनिताव्रणम्' पूत्कृ (सक०) [पूत्+कृ] पुकारना, पुच्चकारना, बुलाना, पूतिभेदनं (नपुं०) फोड़े का भेदना। 'पूते स्फोटकस्य भेदनं
हवा करना। पूच्चकारेव भयानक कोलाहलं चकारेत्यर्थः। विदारणम्' (जयो०३० २/५) (जयो०वृ०८/६)
पूतिमूलं (नपुं०) दुर्गन्ध सहित। (सुद० १०२) पूत (भू०क०कृ०) [पू+क्त] पवित्र, शुद्ध, स्वच्छ, निर्मल। पूतिमूलक (पुं०) दुर्गध युक्त। पित्रोश्च मूत्रेन्द्रियपूतिमूलं ०धोया हुआ, साफ किया हुआ।
घृणास्पदंकेवलस्य तूलम्। (सुद० १०२) परिमार्जित किया हुआ।
पून (वि०) [पू+क्त तस्य न:] नष्ट किया गया, समाप्त किया प्रायश्चित्त किया हुआ।
गया, विध्वंस किया गया। दुर्गन्ध युक्त, सड़ने वाला।
पूपः (पुं०) [पू+किप्पा +क] पूजा, अर्चना, स्तुति। पूतः (पुं०) पुत्र। (सुद० १/४१) ०शंख, सफेद कुश/घास। पूपला (स्त्री०) [पूप+ला+क+टाप्] [पूपाय अलनिपूतं (नपुं०) सत्य, सच्चा, पवित्र। स्वच्छ, साफ। (सुद० ८४, पूप+अल+अच्+टाप्] मालपुआ, मीठा पुआ। मुनि० १/४)
पूयः (पुं०) पुआ, माल पुआ। (जयो० ७०/१२) पूतकरणं (नपुं०) दु:खभरी आवाज। (जयो० ११/४७) पुकार पूयः (पुं०) [पूय् अच्] पीप, घाव में से निकलने वाला (सुद० १०५)
नाव। पूतना (स्त्री०) एक राक्षसी, जो कृष्ण का वध करने आई थी। | पूर्य (नपुं०) पीप, दुर्गंध युक्त स्राव।
(सुद० १/४१, दयो० २/१) (वीरो० ९/९) । पूयरक्तः (पुं०) नाक का रोग। 'पूतनादिकृतोपद्रवः'। (जयो०वृ०)
०पीप से युक्त रक्त, मवाद। पूतनाहन: (पुं०) कृष्णा
नथुओं में रक्त आना।
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पूयनं
६६४
पूर्णा
पूयनं (नपुं०) [पूय+ल्युट] पीप, मवाद। पूर (सक०) भरना, पूर्ण करना, (सुद० २/४७)
०ढकना, आच्छादित करना।
घेरना, परिधि करना। ०प्रसन्न करना, सन्तुष्ट करना। बोझ लादना। पिरोना, गूंथना।
डालना, उड़ेलना-अपूरयत् (जयो० ९/९४) पूरः (पुं०) [पूर+क] झरना, पूर्ण करना।
चढ़ना, पानी बढ़ना, जलप्रवाह। (जयो० १३/६४) ०प्रसन्न करना, तृप्त करना।
०पूर-जलखण्ड, सरोवर, तालाब। पूरक (वि०) [पूर+ण्वुल्] पूर्ण करने वाला, पूर्ति करने वाला,
तृप्त करने वाला।
०संतुष्ट करने वाला, प्रसन्न करने वाला। पूरकः (पुं०) नींबू पादप।
गुणक। पूरग (वि०) तृप्त करने वाला। (समु०७/२७) पूरण (वि०) [पूर+ ल्युट्] भरना, पूरा करना,
संतुष्ट कारक, प्रसन्नता देने वाला। पूरण: (पुं०) सेतु, बांध, पुल। समुद्र, उदधि, सागर। पूरणं (नपुं०) पूर्ण करना, भरना सम्पन्न करना, स्वीकरण (जयो० १२/९०)
पूरण पुरी, मीठी पुरी। वृष्टि, बरसात। ०ऐंठन, मरोड़, पेट की गड़बड़।
गुणका पूरय् (अक०) कुशल करना। (जयो० ४/४५) पूरयन्। (सुद०
३/६) पूरयामासु (लि०वि०) पूर्ण किया गया। पूरणप्रत्ययः (पुं०) क्रम सूचक प्रत्यय। पूरिका (स्त्री०) [पूर ङीप्कन्टाप्] पूरी, कचौरी। पूरित (भू०क०कृ०) भरा हुआ. पूरा हुआ। (जयो० ३/९३,
सुद० २/४३) आच्छादित, बिछाया हुआ।
संतोष युक्त, प्रसन्नता युक्त। पुरुषः (पुं०) [पुर+कुषन्] मानव, नर। पूर्ण (भू०क०कृ०) [पुर्+क्त] परिपूर्ण, भरा हुआ।
०व्याप्त-पूर्ण व्याप्तं प्रघणमलिंदम्' (जयो०१० ३/२५) |
समग्र, सम्पूर्ण समूचा 'स्वतोऽधरं पूर्णमिदं सुयोगैः' (सुद० १/३०)
अतीत, बीता हुआ, समाप्त हुआ। यस्मिञ्जन: संक्रियता च तूर्णं योऽभूदनेकाथतया प्रपूर्ण:। (सुद०, १/३२) ०संतुष्ट, तृप्त।
शक्तिशाली, बलिष्ट। पूर्णककुद् (वि०) समग्र ककुद कंधे युक्त, परे हुए कंधे वाला। पूर्णकामः (वि०) संतृष्ट, तृप्त, काम से युक्त। पूर्णकंभुः (पुं०) भरा हुआ कलश। युद्धरीति विशेष। पूर्णक्षण (वि०) क्षण की पूर्णता। पूर्णगेयः (पुं०) परिपूर्ण गीत, स्वर रहित गान। पूर्णचन्द्रः (पुं०) सिंहसेन का कुंवर, रानी शमदत्ता का पुत्र।
बभूव पश्चादपि पूर्णचन्द्रवाक्सहोदरस्तेन समन्वितः स वा। परस्परप्रेमसुधारपरीक्षणः समावभौ दाशरथि सलक्ष्मणः।। (समु० ४/१०) सिंहचंद्र और पूर्णचन्द्र दोनों राजपुत्र थे, दोनों का स्नेह श्री राम और लक्ष्मण की तरह था।
०पूणिमासी का चन्द्र। (जयो०वृ० ११/६४) पूर्णता (वि०) सम्पन्नता। (भक्ति० २६) पूर्णतया (वि०) पूर्ण रूप से। (समु०७/२३) पूर्णदिनं (नपुं०) पूरे दिन, समग्र दिन। 'पादैः खरैः पूर्ण दिन
जगुर्विद्वर्या' (वीरो० १२/२१) पूर्णधर (वि०) पूर्णता को धारण करने वाला। पूर्णधामः (पुं०) पूर्ण स्थान।
परम स्थान, परमात्मा। यदाश्रयः श्री परमात्मनामा, निर्दोषपूषेव स पूर्णधामा। (समु० १८/२४) पूर्णपरित्यागः (पुं०) परिपूर्ण त्याग। एकदेशपरित्यागात्, सुगति
श्रयते पुमान्। अपि पूर्णरित्यागादपुनर्भवतामहो।। (दयो०
१२१) पूर्णप्रयत्नः (पुं०) सम्पूर्ण यत्न। (मुनि० १२) पूर्णमासि (स्त्री०) [पूर्णि+मास्+ङीप्] पूर्णिमा का दिन, पूर्णचन्द्र
वाला इन्द्र। 'पूर्णमास्यां भवति स पौर्णमास्यो' (वीरो०
पूर्णमासी देखो ऊपर। पूर्णविधु (पुं०) पूर्णविधु नामक मुनि अलका नगरी के
सिंहसेन के राज्य में सिंह चंद्र और पूर्ण चन्द्र के युवराज
पर प्रतिष्ठित होने पर समागत मुनि (समु० ४/१७) पूर्णा (स्त्री०) पूर्णातिथि, पूर्णिमा की तिथि। पंचमतिथि नन्दा,
भद्रा, विजया, लक्ष्मी और पूर्णा ये ज्योतिर्विद् तिथियां हैं,
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पूर्णाङ्कः
पूर्वपदं
उनमें पूर्णा तिथि-मनोरथ को पूर्ण करने वाली तिथि माना चौरासी लाख पूर्वाह्न का एक वर्ष। प्रमाण विशेष। गया है। 'पूर्णा अस्य वाञ्छापूर्तिकरी पूर्णानाम तिथिरिवाऽ- ०पुव्वं गसयसहस्सा चुलसीइ गुणं हवइ पुव्वं। सीत्यर्थ'। (जयो० ६/८८)
पूर्वग्रंथ, चौदह पूर्वग्रंथ। पूर्णाङ्कः (पुं०) पूर्ण अंक, पूर्ण संख्या।
पूर्वः (पुं०) पूर्वज, पुरखा, बाप-दादा, पूर्वपरम्परा के लोग। पूर्णाङ्गः (पुं०) सुन्दर शरीर, परमसुन्दर देह, हृष्ट-पुष्ट __ पूर्व दिशा। (जयो० १०/११६) देह।
पूर्वक (वि०) पिछला, पूर्व का। (सम्य०१२१) (सुद० ४/२६) सर्वाङ्ग-परिपूर्ण अंग युक्त। 'परिपूर्णभङ्ग यस्य स, परमसुन्दर | पूर्वकर्मन् (नपुं०) पिछला कार्य, पूर्व के कर्म। (दयो० ८) इत्यर्थः' (जयो०वृ० ६/५१)
पूर्वकल्पः (पुं०) पूर्वकाल, पहले का समय, कल्पयुग का पूर्णानकं (नपुं०) ०ढोल, बर्तन।
समय। चन्द्र किरण।
पूर्वकायः (पुं०) पूर्वजन्म का शरीर, पूर्वपर्याय का शरीर, पूर्णाभिलाष (वि०) संतुष्ट, तृप्त।
पूर्वकाल की अवस्था। पूर्णिमा (स्त्री०) पूर्णिमासी, पूर्णचन्द्र की तिथि। (जयो० पूर्वकालः (पुं०) प्राचीन समय, पूरा काल।
१/५५) 'सिन्धोः शिशुः पश्यन्तु पूर्णिमास्यं चन्द्रोऽधिगन्तुं पूर्वकालिक (वि०) प्राचीन समय वाला। ___ मुहुरेव भाष्यम्' (जयो० १/५५)
पूर्वकालिन (वि०) पुरा काल सम्बन्धी। पूर्णेन्दु (स्त्री०) पूर्णचन्द्र। (समु० ४/३८)
पूर्वकाष्ठा (स्त्री०) पूर्वदिशा। पूर्णोदरः (पुं०) संभृतोदर। (जयो० १८)
पूर्वकृत् (पुं०) पूर्वश्रुत। पूर्णोदरिणी (स्त्री०) गर्भधारण करने वाली। पूर्णमुदरं यस्या सा पूर्वकोटिः (स्त्री०) पूर्वपक्ष। (वीरो० ६/२)
पूर्वज (वि०) पितर, पूर्व के लोग। स्वर्गतोऽपि समुपेत्य पूर्त (वि०) [पूर+क्त] पूर्ण, पूरा।
धरायामन्नमत्ति यदि पूर्वजमाया। (जयो० ४/६४) ०पोषित, रक्षित।
पूर्वजनन् (वि०) अग्र भगिनी, बड़ी बहिन। ०ढका हुआ, आच्छादित।
पूर्वजातिः (स्त्री०) पूर्वजन्म। पूर्त (नपुं०) ०पोषण, पालन,
पूर्वज्ञानं (नपुं०) पूर्व जन्म संबंधी ज्ञान। पुरस्कार, सम्मान, उपहार, भेंट।
पूर्वत्र (अव्य०) [पूर्वत्रल] पूर्ववर्ती भाग में। ०पावन , उदारता।
पूर्वतः (अव्य०) [पूर्व+तस्] पूर्व में पूर्व की ओर। पूर्तिः (स्त्री०) [पूर+क्तिन्] पूर्ण, पूरा भरा हुआ, पूर्णता | पूर्वदक्षिण (वि०) दक्षिणपूर्वी।
भरना पूरक। (जयो० २७/४६) समस्ति शाकैरपियस्य पूर्व दिक्पति (पुं०) इन्द्र। पूर्तिर्दग्धोदरार्थे कथमस्तु जूर्तिः। (दयो०पृ० ३८) पूर्वदिनं (नपुं०) दिन का पूर्व भाग दोपहर से पहले का दिन।
तृप्ति, संतुष्टि। प्रवादस्य किल प्रपूर्ति। (सुद० १/३५) पूर्वदिश् (स्त्री०) पूर्वदिशा। पूर्तिकी (वि०) तृप्त करने वाली। (जयो० १२/९२) पूर्वदिष्टं (नपुं०) भाग्याहीन, भाग्य में लिखा। पूर्तिगत (वि०) पूर्णता को प्राप्त हुआ।
पूर्वदेवः (पुं०) प्रथम देव, तीर्थंकर ऋषभदेव। पूर्तित (वि०) संतुष्टि वाला। (समु०८/४७)
पूर्वपुरुष, पूर्वज। पूर्तिधामः (पुं०) पूरक स्थान। (सम्य० ५७) संस्मर्यतां पूर्वदेशः (पुं०) पूर्वी देश, पूर्वदिशा का प्रान्त।
श्रीजिनराजनाम तदेव नश्चेच्छितपूर्तिधाम। (सुद० १/२५) पूर्वनिपातः (पुं०) समास पद की अनियमित प्राथमिकता। ०पहले का, पूर्व काल का, सूर्योदयात्वपूर्वमिव प्रभातः पूर्वपक्षः (पुं०) कृष्ण पक्षा (सम्य० ४९)
०पार्श्वभाग, अगला हिस्सा। पुराना, प्राचीन, पूर्ववर्ती।
०वादी की प्रतिज्ञा, ०अभियोग। प्राथमिका सूचना। पूर्वोक्त, विगत, पिछला।
०वादी का पक्ष। (जयो०५/४८) ०पूर्वगामी। (सम्य० ४१)
पूर्वपदं (नपुं०) पूर्ववाक्य, पूर्व अक्षरात्मक वर्णन।
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पूर्वपरिचितः
६६६
पृषक:
पूर्वसंस्तुतिः (स्त्री०) पूर्व प्रशंसा। पूर्वाभिमुख (वि०) पूर्व की ओर उन्मुख। पूर्वाङ्ग (नपुं०) पूर्व अंग ग्रंथा पूर्वार्जित (वि०) पूर्वोपार्जित कर्म। पूर्वाङ्ग (नपुं०) चौरासी लाख वर्ष का एक पूर्वाङ्ग। वर्षलक्ष
चतुरशीतिरूपगुणितं पूर्वांग भवति (मूला०वृ० १२/८९) पूर्वातिपूर्वश्रुतज्ञानं (नपुं०) बहुत पूर्व वस्तुओं में यह ज्ञान
अत्यन्त प्राचीन है, इसलिए यह पूर्वतिपूर्व श्रुतज्ञान है। पूर्वानुज्ञा (स्त्री०) प्राचीन श्रमणों की आज्ञा। पूर्वानुपूर्वी (स्त्री०) मूल से जो प्ररूपणा की जाती है।
जं मूलादो परिवाडीए उच्चदे सा पुव्वाणुपुव्वी।
(धव० १/७३) पूर्वापर्वविचारः (पुं०) आदि और अन्त पर विचार। (जयो०
२३/२३)
पूर्वपरिचितः (पुं०) पहले से परिचित। (दयो० ५७) पूर्वपर्वतः (पुं०) उदयाचल पर्वत। पूर्वसंचालक (वि०) पूर्वी पंचालों से सम्बन्ध रखने वाला। पूर्वपापवश (वि०) पहले के पाप के कारण। (दयो० १/२४) पूर्वपुरुषः (पुं०) आदिपुरुष, आदिब्रह्म, ऋषभदेव, आद्य
तीर्थंकर ऋषभदेव। ब्रह्मा। पूर्वभव (वि०) पहले उत्पन्न होने वाला। पूर्वभवः (पुं०) बृहस्पति ग्रह। पूर्वभागः (पुं०) प्रथम हिस्सा, अगला भाग। पूर्वभाद्रपदा (स्त्री०) पच्चीसवां नक्षत्र। पूर्वभूक्तिः (स्त्री०) प्रथम आहार। पूर्वभूत (वि०) पूर्ववर्ती। पूर्वमीमांसा (स्त्री०) मीमांसक दर्शन की प्रारंभिक धारा,
वेदान्त की प्रथम विचार पद्धति।। पूर्वरागः (पुं०) प्रारम्भिक अनुराग, प्रथम प्रेमभाव। पूर्वरात्रः (पुं०) रात्रि का पहला प्रहर। पूर्वरूपं (पुं०) पूर्व रूप नामक सन्धि दो सहवर्ती स्वर या व्यञ्जनों में से प्रथम जो स्थिर रहे।
रोग होने का लक्षण। पूर्ववत् (वि०) पहले की तरह। (जयो०वृ० १/१७) पूर्ववयस् (वि०) वय की प्रारंभिक अवस्था, बालपन की
अवस्था। पूर्ववर्तिन् (वि०) पहले से विद्यमान्। पूर्ववादः (पुं०) प्रथम पक्ष, प्रारंभिक अभियोग की सूचना। पूर्वगदिन् (पुं०) अभियोक्ता, प्रथमवादी, पहला सूचना कर्ता। पूर्वविदेहः (पुं०) मेरु पर्वत की पूर्व दिशा का भाग। पूर्वेतर (वि०) पश्चिमी भाग। पूर्ववृत्तं (नपुं०) प्रथम घटना, प्रारंभिक आचरण। पूर्वश्रुतज्ञानं (नपुं०) श्रुतज्ञान के ऊपर एक अक्षर की वृद्धि। पूर्वशारद् (वि०) शरद ऋतु का पूर्वार्द्ध। पूर्वशैल (पुं०) उदयाचल पर्वत। पूर्वशैल शृंगः (पुं०) प्रासाद स्थानीय शिखर। (जयो० १५/४७) पूर्वसक्थं (नपुं०) जंघा का ऊपरी भाग। पूर्वसन्ध्या (स्त्री०) प्रभातकाल, पौ फटना। पूर्वसंस्तवः (पुं०) पूर्व परिचय पूर्वक प्रंशसा। पूर्वसर (वि०) अग्रेसर। पूर्वसागरः (पुं०) पूर्वी समुद्रा पूर्वसाहसः (पुं०) प्रारंभिक अवस्था।
पूर्वापर्वस्पर्शः (पुं०) आदि और अंत का स्पर्श। पूर्वाचल (पुं०) पूर्वदिशा। (जयो० १८/८८) पूर्वाह्वः (पुं०) मध्याह्न से पूर्व। (मुनि० ८) पूर्वाह्नः (पुं०) मध्याह्न से पूर्व, दोपहर से पूर्व। पूर्वाषाढा (स्त्री०) एक नक्षत्र, बाईसवां नक्षत्र। पूर्वोपार्जित (वि०) पूर्व समय से एकत्रित। (हि० १६) पूर्व
उपात्त-(समु० ६/३२) पूर्विका (स्त्री०) पूर्व, पूरा, प्राचीन, पहली। वार्ताऽप्यदृष्ट
श्रुतपूर्विका वः यस्या न केनापि रहस्यभावः। (सुद० २/२१) पूर्वित् (वि०) [पूर्व+इनि] पुरातन, प्राचीन, पैतृक। पूर्वेधुः (अव्य०) [पूर्वस्मिन अहनि पूर्व-एद्युस्] गत दिवस,
पहले दिन का।
दिन के प्रथम भाग में। पूर्वोक्त (वि०) पूर्व कथित, पहले से प्रतिपादित।
(जयो०वृ० १/२२) पूल (अक०) ढेर लगाना, संचय करना, एकत्रित करना। पूल: (पुं०) गठरी, पूला, गट्ठर, घास का समूह, बंधा हुआ
घास का ढेर। पूलकः (पुं०) ०पूला, गट्ठर, ०गठरी, बंधा हुआ। घूला (स्त्री०) देखो ऊपर। पूलाकः (पुं०) पुलाक मुनि। पूषः (पुं०) शहतूत वृक्षा सूर्य पूषारुणिमान-सूर्य की लालिमा।
(जयो० १५/१) पूषकः (पुं०) देखो ऊपर।
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पूषन्
६६७
पृथिवीकायिकः
पूषन् (पुं०) [पूष्+कनिन्] रवि, सूर्य, दिनकर। (दयो० २९) पूषात्मजः (पुं०) ०मेघ, बादल। ०इन्द्र। पृ (अक०) व्यक्त होना, सक्रिय होना, उद्यमशील होना।
०सौंपना, नियत करना। निश्चित करना, निर्देश देना। रक्षा करना, जीवित रखना। उन्नति करना, प्रगति करना। ०पार उतारना। ०सम्पन्न करना, समर्थ होना।
प्रसन्न करना, आनन्दित करना। पृक्त (भू०क०कृ०) [पृच्+क्त] मिश्रित, संयुक्त। पृक्तं (नपुं०) संपत्ति, वैभव। पृक्तिः (स्त्री०) स्पर्श, छूना, संपर्क, संयोग। पृकथं (नपुं०) धन, वैभव, सम्पत्ति, पृच् (अक०) सम्पर्क में आना, संयोग होना, मिलना।
सम्मिलित होना, मिल जाना। मिलाना, मिश्रण करना। स्पर्श करना, संपर्क करना।
०संतुष्ट करना, पूर्ण करना, भरना। पृच्छ (वि०) पूछना। (वीरो० ५/२१) पृच्छक (वि०) [प्रच्छ्+ण्वुल्] पूछने वाला, गवेषणा करने
वाला। ०अनुचिंतन करने वाला। पृच्छनं (नपुं०) [प्रच्छ ल्युट्] पूछना, पूछताछ करना। पृच्छना (स्त्री०) स्वाध्याय का एक भेद, समाधान के लिए
सवाल करना (त०सू० ९/२५) पृच्छना प्रश्नः, अनुयोगः, शास्त्रार्थं जानन्नपि गुरु पृच्छति। (त०वृ० ९/२५)
संशयच्छेदाय निश्चितबलाधानाय वा परानुयोगः पृच्छनम् (त०वा० ९/२५)
सूत्रादौ शङ्कित प्रश्नो गुरुणां पृच्छना मता। पृच्छनी भाषा (स्त्री०) परिज्ञानार्थ, जिस भाषा में पूछा गया,
वह पृच्छनी भाषा है। पृच्छा (स्त्री०) [पृच्छ्+अङ्कः+टाप्] प्रश्न करना. पूछना, जिज्ञासा। (जयो० ३/२६)
पूछे गए अर्थ का नाम-पृष्टोऽर्थः पृच्छा। पृच्छाविधिः (स्त्री०) पूछने की विधि, जिस श्रुत से पुछा गया
उसका विधान/निरूपण। 'पृष्टोऽर्थः पृच्छा, सा विधीयते निरूप्यतेऽ स्मिन्निति पृच्छाविधि श्रुतम् (धव० १३/२८५)
पूज् (अक०) स्पर्श करना, संपर्क करना। पुत् (स्त्री०) [पृ+क्विप्] सेना। सैन्य समूह-हस्ति, अश्व, रथ
एवं पदाति। पृतना (स्त्री०) देखें ऊपर। सैन्य यूथ। पृतनापतिः (स्त्री०) सेनापति। (जयो० १३/६९) पृथ् (अक०) विस्तार करना, फैलाना।
फेंकना, डालना।
०भेजना। पृथक् (अव्य०) [पृथ्-अज् कित्-संप्रसरण] अलग-अलग,
पृथक्-पृथक्, भिन्न-भिन्न, जुदे-जुदे। (समु० ७/२०) एक एक करके। (जयो० ३/२१) गगनाञ्चानां कोटिह्येषा येषां पृथक्कथा मोटी। (जयो०६/७) सच्चिदानंदमात्मानं
ज्ञानी ज्ञात्वाऽङ्गतः पृथक्। (सुद० ४/११) पृथक्कथा (स्त्री०) अलग अलग वर्णन। 'येषां पृथक् पृथक्
कथा-वार्ता' (जयो०वृ० ६/७) पृथक्करणं (नपुं०) अलग करना, भेद करना, विभाजित करना। पृथक्क्रिया (स्त्री०) भिन्न-भिन्न विश्लेषण, अलग-अलग
विभाजन। पृथक्कुल (नपुं०) भिन्न-भिन्न कुल से सम्बंधित। पृथक्त्व (वि०) पृथक्करणार्थ, भेद वाला। भिन्नता करने
वाला, नानात्व 'पृथक्त्वाय वितर्कस्तु' (सम्य० १४८) तीनों योगों में प्रवृत्त होना-'तिहि वि जोगेसु पवत्त इत्ति' शुक्लध्यान की अवस्था-प्रथमं शुक्लं ध्यानम्
पढमं सुक्कज्झाणं अनितखापरसोवमं भणिय। (जैन०ल०७२५) विस्तार- ०ध्यान क्रिया में प्रवृत्ति की व्यापकता।
०अनेक पर्यायों के आश्रय से ध्यान। पृथरोमकताभृत (वि.) पक्वकेशवत् (जयो० ९/१४) पृथा (स्त्री०) पद्धति, रीति। पृथिका (स्त्री०) कनखजूरा। पृथिवी (स्त्री०) [पृथ्+पवन्, सम्प्रसारण] भूमि, धरा, भू,
धरण, धारित्री। कौ (जयोवृ० १/३८) (जयो० १/२१)
तत्राध्वादिस्थिता धूलिः पृथिवी (त०वृ० २/१३) पृथिवीकायः (पुं०) पृथिवीकाय के द्वारा छोड़ा गया शरीर
'कायः शरीरम् पृथिवीकायजीवपरित्यक्तः' पृथिवीकायः।
(स०सि० २/१३, त०वा० २/१३) पृथिवीकायिकः (पुं०) पृथ्वी रूप शरीर का ग्रहण। पृथिवी ही
जिनका शरीर है। (वीरो० १५/२८०)
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पृथिवीदेवी
पृथिवीदेवी (स्त्री०) मगध देशान्तरर्गत गोबर ग्राम निवासी वसभूति ब्राह्मण की पत्नी । (वीरो० ) पृथिवीधर : (पुं०) राजा, अधिपति । पृथिवीपालः (पुं०) नृपति, राजा । पृथिवीपालक : (पुं०) राजा, नृप, भूपालक । पृथिवीभुजः (पुं०) नृप, राजा, अधिपति । पृथिवीमण्डल (पुं०) भू-मण्डल, भूभाग, पृथिवीरुहः (पुं०) वृक्ष, तरु । पृथिवीलोकः (पुं०) भूलोक, भूधरा पृथिवीश (पुं०) राजा, नृपति । पृथिवीशर: देखो ऊपर। पृथु (वि० ) ० विस्तृत, चौड़ा, प्रशस्त ।
० विस्तीर्ण, फैला हुआ। (सम्य० १५२)
० लम्बी । (समु० २ / ३)
० विशाल । (सुद० ३/७ )
० महत्। (वीरो० ३ / २१ )
• विवरणयुक्त, अतिसंख्यक ।
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भौममण्डल।
पृथुकः (पुं०) [पृथु+कै+क] चौले, चिवड़े। पृथुकं (नपुं०) चौले, चिवड़े।
पृथुर्तुज: (पुं०) पुत्र, लड़का। (समु० ७/२२) पृथुदानवारि (नपुं०) महादान रूपी जल। (सुद० १ / ३९ ) पृथुताश्रित (वि०) महत्त्वरूपार्थ (जयो० २ / २४ ) पृथुल (वि० ) [ पृत्यु+लच् ] प्रशस्त, चौड़ा, विस्तृत । (वीरो० ४ / ३७)
पृथुल-कथनं (नपुं०) विस्तृत प्रतिपादन। (वीरो० ) पृथुलराज : (पुं०) विशद राज, विस्तृत राज। (जयो० ४ / ३९ ) पृथुलस्तनी (वि०) उन्नत स्तन वाली, पृथुलौपीनामाप्तो स्तनौ यस्याः सा (जयो० १२ / ११४)
पृथुलोमतः (पुं०) वृषलोमत, गूढ़ रहस्य। (जयो०वृ० १ / ४० ) पृथुवेणी (स्त्री०) लम्बी चोटी । (समु० २/३ ) पृथुसानु (पुं०) समुन्नत गिरि । (जयो० ४ / ३३) पृथुस्तनी (वि०) विशालकुची। (जयो० १०/६१) पृथ्वी (स्त्री० ) [ पृथु + ङीष् ] धरा, भूमि, भू, सन्दलिता। (जयो०वृ० ७३ / १०८) मही
० पृथ्वी नामक स्त्री पृथ्वीमती। (जयो० १२ / ८८ ) पृथ्वीका ( स्त्री० ) [ पृथ्वी+कन्+टाप्] बड़ी इलायची, छोटी
इलायची एला ।
पृथ्वीखातं (नपुं०) गुफा, गुहा, कंदरा ।
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पृथ्वीगृहं (नपुं०) गुफा, गुहा, कंदर । कृत्रिम खोह पृथ्वीज: (पुं०) वृक्ष, रुह, तरु, पादप ।
० मंगल ग्रह |
पृथ्वीतलं (नपुं०) भू भाग। मृत्युं पुनर्जीवनमीक्षमाणः पृथ्वीतलेऽसौ
जयतादकाण: । (सुद० ११७ )
पृथ्वीतत्त्वं (नपुं०) भूमण्डल।
पृथ्वीतिलकः (पुं०) भू भाग का अलंकरण, भू शोभा, धरा सौन्दर्य । (समु० )
● पृथ्वी तिलक नामक नगर ।
० पृथ्वीतिलक नामक राजा । रामात्र पृथ्वीतिलकाधिपस्य नाम्राऽतिवेगस्य खगेश्वरस्य (समु० ८ / २५ ) पृथ्वीदर्शक (वि०) महीक्षित, भू देखने वाला। (जयो० १० / ५६ ) पृथ्वीनाथ (पुं०) नृप, राजा । 'पृथ्वीनाथः सिद्धार्थ : ' (वीरो०वृ० ४ / ३७)
पृथ्वीपतिः (पुं०) राजा, नृप, अधिपति । 'पृथ्वीपतिं परमपूततनुः शुभायाम्' (वीरो० ४/२९)
पृथ्वीभृत् (पुं०) राजा, भूपति, नृप। (जयो० १/१३) पृथ्वीविकारः (पुं०) पार्थिव। (जयो० २४/९९) पृथ्वीविभवं (नपुं०) भूसम्पत्ति, भू धन। (जयो० १ / ३८ ) ०धात्रीफल, आंवला ।
पृषताज्यं
पृदाकु: (पुं० ) [ पर्द+काकु] ०विच्छ, ०सर्प, वृक्ष, ० हस्ति, ० व्याघ्र, चीता ।
पृदाकुवर्ग: (पुं०) सर्प समूह। (समु० ४ / १३) पृश्नि (स्त्री०) ०छोटा, बौना, ठिगना।
पृषत्कः (पुं०) उद्भट योग्य। पृषत्पति (पुं०) पवन, वायु ।
० सुकुमार, क्षीणकाय ।
● पृथ्वी भू, धरा । ०जल ।
पृश्निीका ( स्त्री० ) [ पृश्नौ जले कायति शोभते पृश्निकै+क+टाप्] जलकुंभ, जल में पैदा होने वाली घास । पृषत् (नपुं०) [पृष्+अति] जलबिन्दु, मृग, बारहसिंहा (जयो०
१७/५१)
० उत्तमबाण । (जयो० ८/५४)
पृषत्बल: (पुं०) पवन अश्व, तीव्रगति वाला घोड़ा। पृषतिः (स्त्री०) जल बिन्दु ।
पृषतांशः (पुं०) पवन, वायु ।
पृषताश्वः (पुं०) पवन, वायु । पृषताज्यं (नपुं०) दहि में मिला हुआ घी ।
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पृषदकः
६६९
पेशल
पृषदङ्ककः (पुं०) शशक। (सुद० ८७) पृषाकरा (स्त्री०) [पृष्+क्विप्+पृषे सेचनाय आकीर्यते-पृष्+
आ+ कृ+अप्+टाप्] छोटा पत्थर। पृषातकं (नपुं०) [पृषत्+आ+तक+अच्] दहि और घी का
मिश्रण। पृषोदरः (पुं०) [पृषत् उदरं यस्य] जलोदर। पृष्ट (भू०क०कृ०) [प्रच्छ+क्त] पूछा। (सुद० ३/३६) ०प्रश्नित,
पूछा गया, प्रश्न किया गया। पृष्टवान् (वि०) पूछा गया। (समु०५/२) पृष्टायनः (पुं०) धान्य विशेष।
हस्ति । पृष्टिः (स्त्री०) [प्रच्छ+क्तिन्] प्रश्न पूछना, प्रश्न करना। पृष्ठं (नपुं०) [पृष+स्पृश् वा थक्] ०पीठ, पिछला, पीछे का (दयो० १७)
सतह, ऊपरी भाग, पुस्तक का पृष्ठ। पृष्ठक (नपुं०) [पृष्+कन्+ल्युट] पीठ पिछला, पीछे का। पृष्ठग (वि०) पृष्ठोपरि (जयो०७/१०८) पृष्ठगोपः (पुं०) पीठ की रक्षा। पृष्ठग्रन्थि (वि०) कूबड़ा युक्त, ककुद्वान। पृष्ठचक्षुस् (पुं०) केकड़ा। पृष्ठतल्पनं (नपुं०) हस्ति की मांसपेशिया। पृष्ठतस् (अव्य०) पीछे पीछे। पृष्ठदृष्टि (स्त्री०) ०केकड़ा, ०भालू। पृष्ठफलं (नपुं०) पिछला परिणाम। पृष्ठभागः (पुं०) पिछला हिस्सा। पृष्ठमांसं (नपुं०) पीठ का मांस, पीठ की गूमड़ी। पृष्ठयानं (नपुं०) सवारी, वाहन, यान, बोझा ढोने का साधन,
जिसकी पीठ पर लादकर सामान ले जाया जाता है। पृष्ठरक्षः (पुं०) पीठ की रक्षा, योद्धा की रक्षा करना। पृष्ठलग्न (वि०) पीछे संलग्न। (जयो० १६/११) पृष्ठवंशः (पुं०) रीढ़ की हड्डी। पृष्ठवास्तु (नपुं०) मकान का ऊपरी भाग, अग्गासिया, छज्जा। पृष्ठवाह् (पुं०) अड़ियल बैल। ____जिस पर सामान ढोकर ले जाया जाता है ऐसा बैल। पृष्ठबाह्यः (पुं०) यान वाला बैल, भारवाहक बैल। पृष्ठाशृंगः (पुं०) जंगली बकरा। पृष्ठशृंगिन् (पुं०) मेंढा, भैंसा।
०भूमि-पाण्डुपुत्र भीम।
पृष्ठसन (नपुं०) पलान, कश्यकुश। (जयो० २१/२) पृष्णि: (स्त्री०) एडी। पृ (सक०) संतुष्ट करना, प्रसन्न करना,
०भरना, हवा करना।
पूरा करना, तृप्त करना। पेचकः (पुं०) [पच्+वुन्] उल्लू।
०शय्या, पलंग।
मेघ, नँ। पेचकिन् (पुं०) हस्ति, हाथी। पेंजूषः (पुं०) कान का मैल। पेटः (पुं०) [पिट् अच्] पेटं (नपुं०) टोकरी, पेटी, संदूक, थैला। पेटकः (पुं०) टोकरी, संदूक, पेटी। थैला। पेटकं (नपुं०) पेटी, संदूक। पेटा (स्त्री०) पेटी, संदूक! पेटाकः (पुं०) टोकरी, संदूक, पेटी। पेटिका (स्त्री०) [पिट्+ण्वुल्+टाप्] पेटी, टोकरी, संदूक। पेटी (स्त्री०) [पिट्-पेट्-ङीप्] टोकरी, संदूक, पेटी। पेडा (स्त्री०) बड़ा थैला, बड़ी टोकरी। पेय (वि०) [पा+ण्यत्] पीने योग्य, पान करने योग्य। पेयं (नपुं०) पानीय, पेय पदार्थ, शर्बत, रस, मद्य। पेयजल (नपुं०) पीने योग्य जल। (हि०ल० ४८) पेयुः (पुं०) समुद्र, उदधि, सागर।
०अग्नि, आग।
०दिनकर, भानु, सूर्य। पेयूषः (पुं०) [पीय ऊषन्] ०पीयूष, अमृत, सुधा।
___०घृत। पेरा (स्त्री०) एक वाद्ययन्त्र। पेल् (अक०) हिलना, कांपना।
भ्रमण करना। पेलं (नपुं०) अण्डकोष। पेलकः (पुं०) अण्डकोष। पेलव (वि०) [पेल+वा+क] सुकुमार, मृदु, मुलायम।
दुर्बल, क्षीण, हीन। पेलविलः (पुं०) भिक्षा का नियम, वृत्तिपरिसंख्यान। पेलिः (पुं०) [पेल+इन, पेल इनि] अल्प, किंचित् थोड़ा। पेलिन् (पुं०) अव्य, किंचित्, थोड़ा। पेशल (वि०) [पिश्+अलच्] •सुकुमार, मृदु, कोमल। (जयो०
७/७५)
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पेशिः
६७०
पोतः
दुर्बल, क्षीण। ० मनोहर, सुन्दर।
चतुर, कुशल, प्रवीण, प्रज्ञ, ज्ञ। पेशिः (स्त्री०) [पेश् इन्] मांस पेशी।
०मांस पिण्ड, मांस समूह। ०अण्डा, पुट्ठा।
गर्भपिण्ड। पेषः (पुं०) [पिष्+घञ्] पीसना, चूर्ण करना, मसलना। पेषणं (नपुं०) [पिष्+ ल्युट्] ०पीसना, मसलना, चूर्ण करना।
__ सिल, लोढी, घरघट्टी। पेषणिः (स्त्री०) पेषणी, निमंत्रण देने वाली। ___०चक्की , सिल, खरल। पेस्वर (वि०) [पेस्+वरच्] जाने वाला, घूमने वाला।
नाशकारी, विनश्वर। पै (अक०) सूखना, मुरझाना, शुष्क होना। पैजूषः (पुं०) [पिंजूष+अण] कान। पैठर (वि.) [पिठर+अण] उबाला हुआ, गरम किया गया। पैठीनसिः (पुं०) धर्मशास्त्र का रचनाकार ऋषि। पैडिक्यं (नपुं०) भिक्षावृत्ति। पैडिन्यम् (नपुं०) भिक्षाचार्य। पैतामह (वि०) [पितामह+अण्] दादा। पैतामहाः (पुं०) पूर्वपुरुष, पुरखा, दादा। पैतामहिक (वि०) [पितामह ठक] पितामह से सम्बन्ध रखने
वाला। पैतृक (वि०) [पितृ+ठञ्] पिता से सम्बन्ध रखने वाला।
पिता से प्राप्त, पिता से आगत। पैतृकं (नपुं०) पितरों के प्रति श्रद्धा। पैतृमत्यः (पुं०) [पितृमसी+ण्य] अविवाहित स्त्री का पुत्र। पैतृष्वसेयः (पुं०) [पितृष्वसृ+ढक्] बुआ का लड़का, फूफी
का पुत्र। पैत्त (वि.) [पित्त+अण] पिता सम्बंधी। पैत्र (वि०) [पितृ अण] पैतृक, पुश्तैनी। पैत्रं (नपुं०) तर्जनी। पैत्रिकी (वि०) पितृ सम्बन्धिनी। (जयोवृ० १/७) पैलव (वि.) [पीलु+अण] पीलु वृक्ष की लकड़ी से निर्मित। पैशल्य (वि०) सुकुमारता, मृदुता। पैशाच (वि०) [पिशाच+अण] राक्षसी, नारकीय। पैशाचः (पुं०) पिशाच, राक्षस।
पैशाचविवाहः (पुं०) प्रमादयुक्त, पागल कन्या से विवाह।
'सुप्त प्रमसकन्याग्रहणात् पैशाचः' (जैन०ल० ७८) पैशाचिक (वि०) [पिशाच+अक्] राक्षसी, नारकीय। पैशाची (स्त्री०) पैशाची प्राकृत गुणाढ्य की वृहत्कथा की
प्राकृत। जो अनुपलब्ध है। पैशाच्य (वि०) राक्षसीय वृत्ति वाला। (वीरो० १/३२) पैशुनम् (नपुं०) [पिशुन+ष्यञ्] चुगली, बदनामी। इधर-उधर
भिड़ाना, आपस में लड़ाना। पैशून्यं/पैशुन्यः (नपुं०) अविद्यमान दोषों को प्रकट करना,
इधर-उधर की करना।
दोष लगाना, दोषाविर्भाव। ०पीठ पीछे दोष प्रकट करना। 'पृष्ठतो दोषाविष्करणं
पैशून्यम्' (त०वा० १/२०) पैष्ट (वि०) [पिष्ट+अण] आटे की पीठी। पैष्टिक (वि०) [पिष्ट+ठञ्] पीठी से बना हुआ। पैष्टिकं (नपुं०) कचौड़ियों का समूह। पैष्टी (स्त्री०) [पैष्ट+ङीष्] धान्य की सड़ांस से निर्मित शराब। पोगंड (वि०) [पौशुद्धो गंड-एकदेशो यस्य] ०शिशु, बालक,
अवयस्क।
क्कृित अंग वाला। पोगंडः (पुं०) छोटा बालक। पोटः (पुं०) [पुट्+घञ्] घर की नींव।
कास, मछली विशेष। पोटकः (पुं०) [पुट्+ण्वुल्] भृत्य, नौकर। पोटा (स्त्री०) [पुट्+अच्+टाप्] पोटली, पुलिंदा, गठरी। पोटी (स्त्री०) स्थूलकाय मगरमच्छ। पोट्टल्लिका (स्त्री०) [पोट्टली+कन्+टाप्] ०पोटली, पुलिंदा,
गठरी। पोतः (पुं०) [पू+तन्] पशु शावक, जानवर का बच्चा।
जो योनि से निकलते ही चलने फिरने लगता है, ऐसा शावका
पूर्ण अवयवों से युक्त पशुशावक। 'सम्पूर्णावयवः परिस्पन्दादिसामोपलक्षितः पोतः'। (त०वा० २/३३) जो जन्मते ही कूदने फांदने योग्य परिपूर्ण अङ्गोपांग युक्त हो, ऐसे सिंह विडाल वगैरह जीव पोत कहलाते हैं। (त०सू० २/३३पृ० ४३) जहाज, जलयान, बेड़ा, किश्ती। (जयो० १३/३४)
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पोतकः
६७१
पौद्गलिक
-
०आर्शीवाद। (जयो० २७/२१) ०संधारण, ग्रहण। ०संवर्धन, वृद्धि, प्रगति।
०समृद्धि, प्राचुर्य, बाहुल्य। पोषणं (नपुं०) [पुष्+णिच् ल्युट्] पालन-पोषण, भरण,
रक्षण।
०संधारण, संवर्धन। पोषणकारि (वि०) पुष्ट करने वाली। (जयो० १४८६) पोषयित्नुः (पुं०) कोकिल, कोयल। पोषधः (पुं०) पर्व, अष्ठमी, चतुर्दशी आदि। पोषधव्रतं (नपुं०) पूर्व सम्बंधी व्रत। पोषापेशी (वि०) स्वोदर पोषण। (जयो०६/२४) पोषित (वि०) [पुष्प णिच् तृच] पालन-पोषण करने वाला।
(समु० १/२६) दूध पिलाने वाला। पोषिन् (वि०) पालन-पोषण करने वाला, पालक, पोषक, ___ रक्षक, संवर्धक। (जयो० १२/१८) पोष्य (वि०) [पुष्+ण्यत्] पालने योग्य, संवर्धन करने योग्य। पौंश्चलीय (वि०) [पुंश्चली+छण्] वेश्याओं से सम्बंध रखने
वाला।
पोतकः (पुं०) [पोत-कन्] पशुशावक। ०छोटा पादप।
घर का भूखण्ड। पोतधारिन् (पुं०) जहाज का मालिक। पोतभंगः (पुं०) जलयान का टूटना। पोतरक्षः (पुं०) नाव की चम्पू, किश्ती की डांड। पोतवणिज् (पुं०) सार्थवाह, समुद्र में व्यापार करने वाला। पोतवाहः (पुं०) नाविक, यान चालक। पोतासः (पुं०) [पोत+अस्+अच्] कपूर। पोतृ (पुं०) यज्ञकर्ता। पोताच्छादनं (नपुं०) तम्बु, पाल नौका का आवरण। पोताधानं (नपुं०) मत्स्य समूह, लघु मछलियों का झुण्ड। पोतायिकः (पुं०) जहाज, जलयान। (दयो०१/५) 'मार्जारादिगर्भ
विशेषः पोतः, तत्र कर्मविशेषादुत्पत्यर्थमाय आगमनं पोतायः। पोतायो विद्यते येषां ते पोतायिकः। (त०वृ० १/१४) 'यैः शास्त्राम्बुनिधेः पारं समुत्तर्तुं महात्मभिः। पोतायित मितस्तेभ्यः
श्री गुरुभ्यो नमो नमः।।(दयो० १/५) पोतायितः (पुं०) जलयान, जहाज। (दयो० १/५) पोतोपम (वि०) जल यान तुल्य। (जयो० २०/८९) पोत्या (स्त्री०) [पोत+य+टाप्] जलयान का बेड़ा। पोत्रः (पुं०) पोता (हित० १०) पोत्रं (नपुं०) [पू+ष्टुन्] ०वस्त्र, सूअर की थूथन।
नौका, जहाज, जलयान।
०हल की फाल। ०बजु। पोत्रायुधः (पुं०) सूअर, सूकर, बराह। पोदनपुरी (स्त्री०) बाहुवली की नगरी। (वीरो० ११/१७) पोत्रिन् (पुं०) सूकर, बराह। पोतकर्मन् (नपुं०) वस्त्र से निर्मित हस्ति, घोड़ा।
०वस्त्र की प्रतिमा, वस्त्र की गुड़िया, कपड़े की गुड़िया। 'पोत्तं वस्थं तेण कदाओ पडिमाओ पोत्तकम्म (धव० ४/२४९) 'हय हत्थि-णर णारि-वय-वग्घादिपडिमाओ
वत्थविसेसेसु उद्दाओ पोत्तकम्माणि णाम। (धव० १३/९) पोदनपुर (नपुं०) पोदनपुर नगर बाहुबली का स्थान।
(समु० ४/२७) पोलः (पुं०) [पुल्+ण] राशि, ढेर, समूह, विस्तार। पोलिका (स्त्री०) [पोली+कन्+टाप्] पूरी, गेहूं के आटे की
पीठी से तलकर बनाई गई पूड़ी। पोलिंदः (पुं०) [पोतस्य अजिंद इव] जलयान का मस्तूल। पोषः (पुं०) [पुष+घञ्] पोषण, संपालन, रक्षण, लालन।।
पौंश्चल्य (वि.) कुटलापन, वेश्यापन। पौंसवनं (नपुं०) पुमान्। पौंस्न (वि०) [पुंस+स्नब] पुरुषोचित, पौरुषेय। पौंस्नं (नपुं०) पौरुष, पुरुषत्व द्योतक। पौगंड (वि०) शिशुपन, बालकपन। पौगडं (नपुं०) बाल्यावस्था, बचपन। पौंडः (पुं०) एक देश का नाम।
गन्ना, मोटी ईख। पौंड्रकः (पुं०) [पुंड+कन्] पौंडा, ईख विशेष। पौड्रिकः (पुं०) पौंडा, ईख विशेष। पौंड्रनिषयः (पुं०) पौंड़ों का समूह। (वीरो० ) पौंड्रविपिकः (पुं०) इक्षु की यष्टि। (जयो०वृ० ३/४०) पौतवं (नपुं०) एक तोल विशेष। पौत्तिकं (नपुं०) शहद विशेष। पौत्र (वि०) [पुत्रस्यापत्यम्-अण] पुत्र से प्राप्त, पुत्र से
सम्बन्धी पौत्रः (पुं०) पोता, पुत्र का लड़का। पौत्रिकेयः (पुं०) [पुत्रिका ढक्] लड़की का पुत्र। पौद्गलिक (वि०) पुद्गल संबंधी। (सम्य० ३१)
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पौनः
६७२
पौषी
पौनः (पुन पुन ष्यत्र) बार-बार आवृत्ति।
पौरुषेयः (पुं०) मनुष्य वधा पौनरुक्तं (नपुं०) [पुनरुक्त+अण] आवृत्ति, दुहराना, बार-बार मानव समूह। कहना, शब्दार्थ पुनर्वचन।
पौरुषोऽर्थ (वि०) पुरुष सम्बंधी अर्थ। (जयो० २/२२) आधिक्य, अनावश्यकता, निरर्थकता।
पौरुष्यं (नपुं०) [पुरुष+ष्यञ्] साहस, शौर्य। पौनः पुण्येन (अव्य०) पुनः पुनः मुहुर्मुहु। (जयो० १२/१४६) पौरोगवः (पुं०) [पुरोऽग्रगौः नेत्रं यस्य पुरोगु+अण] पौनर्भव (वि०) [पुनर्भू+अञ्] विधवा से सम्बन्ध रखने राजभवन का अधीक्षक। वाला। दुहराया।
राजा का सचिव, नृप अधीक्षक। पौनर्भवः (पुं०) पुनः उत्पत्ति।
पौरोभाग्यं (नपुं०) [पुरोभागिन् ष्यञ्छिद्रान्वेषण, दोषदर्शन। पौर (वि०) [पुर+अण] किसी नगर से सम्बन्ध रखने वाला। ०दुर्भावना, ईर्ष्या। पौरः (पुं०) शहरी नागरिक।
पौरोहित्यं (नपुं०) [पुरोहित ष्यञ्] कुल पौरोहित। पौरकं (नपुं०) [पौर+कै+क्] निकटवर्ती उद्यान, गृह के पौर्णमास (वि०) [पूर्णमासी अण] पूर्णिमा से सम्बन्धित। समीवर्ती उपवन।
पौर्णमासः (पुं०) अनुष्ठित संस्कार। पौरगणः (पुं०) पुरवासी समूह। (जयो० २१/७५)
पौर्णमासी (स्त्री०) [पौर्णमास+ङीप्] पूर्णिमा। पूर्णो मासो पौरजानपद (वि०) शहर से सम्बन्ध रखने वाला।
यस्यां सा पूर्णो मा चन्द्रमा अस्यामिति। पौरंदर (वि०) [पुरंदर+अण] इन्द्र से प्राप्त।
पौर्णिमा (स्त्री०) [पूर्णिमा+अल्+टाप्] पूर्णिमा का दिन। पौरंदरं (नपुं०) ज्येष्ठा नक्षत्र।।
पौर्तिक (वि०) [पूर्त+ठक्] पुण्य से सम्बन्धित पवित्र भाव से पौरनारी (नपुं०) पुरन्ध्रीजनी। (जयो० ३/१०७)
सम्बन्ध रखने वाला। पौरव (वि०) [पुरु+अण्] पुरु के वंश में उत्पन्न।
पौर्व (वि०) [पूर्व+अण] ० भूतकाल सम्बन्धी। पौरवर्गः (पुं०) प्रजा। (समु० ६/८५)
पूर्व दिशा से सम्बन्ध रखने वाला। पौरवीय (वि०) पौरव का भक्त।
पौर्वदेहिक (वि०) [पूर्वदेह+ठक्] पूर्व जन्म से सम्बन्धित। पौरवृद्धः (पुं०) नगर का ज्येष्ठ व्यक्ति।
पौर्वपदिक (वि०) [पूर्वपद+ठञ्] पूर्व पद से सम्बन्धित रखने ___०उपनगरपाल, प्रमुख नागरिक।
वाला। पौरवस्तुक् (पुं०) ऋषभ पुत्र भरत। (वीरो० १८/२४६) पौर्वापर्य (नपुं०) [पूर्वापर व्यञ्] पूर्ववर्ती-पश्चिमवर्ती से पौरस्त्य (वि०) [पुरस्+त्यक्] पूर्वी, पूर्ववर्ती, प्रथम।
युक्त पूर्वापर से सम्बन्ध रखने वाला। पौराण (वि०) [पुराण+अण] प्राचीन, पुरा, प्राक्कालीन।
अनुक्रम, क्रम, उचित। पौराणिक (वि०) [पुराण ठक्] प्राचीन, पुराण सम्बंधी (हित० पोर्वाहिक (वि०) [पूर्वाह्न ठञ्] मध्याह्न से पूर्व का सम्बन्ध। ३१) अतीतकाल के उपाख्यान का ज्ञाता।
पौर्विक (वि०) [पूर्व+ठञ्] पूर्वकालीन, पैतृक। पौराणिकः (पुं०) पुराण विज्ञ, पुराण विद।
०पुराना, प्राचीन। पौरुष (वि०) [पुरुष+अण] पुरुष सम्बंधी, पुरुषोचित, मानवी, | पौलस्त्यः (पुं०) [पुलस्ते अपत्यम्-पुलस्ति यञ्] रावण। पुरुषार्थ। (जयो० २/१०)
___०कुबेर, विभीषण। पौरुषः (पुं०) मनुष्य द्वारा ढोया जाने वाला बोझ। पौरुषणि पौलिः (पुं०) [पोल इब] पूडी, पुरी। पुरुषार्थादि। (जयो० ६/९७)
प्रान्तभाग। (वीरो० ३/१) पौरुषं (नपुं०) काम, चेष्टा, प्रयत्न, पौरुष, पुनरिह, चेष्टितं पौलोमी (स्त्री०) [पुलोमन्+अण+ङीप] शची, इन्द्राणी। ___दृष्टम्। (दयो० १२) उद्यम, परिश्रम।
पौलोमीशः (पुं०) इन्द्र. देव। (सुद० ४/४७) पौरुषथः (पुं०) संयोग। (दयो० ५७)
पौलोमीसंभवः (पुं०) जयन्त। पौरुषा (स्त्री०) स्त्री, नारी।
पौषः (पुं०) [पौषी+अण्] युद्ध (जयो० ८/३४) पुष्य नक्षत्र पोरुषेय (वि०) [पुरुष ढञ्] मनुष्यकृत, मानवीय कृत।
में रहने वाला नक्षत्र। पौषमुत्सवयुद्ध योरिति विश्वलोचन:आध्यात्मिक, पुरुषोचित।
| पौषी (स्त्री०) पौष महिने को पूर्णिमा।
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पौष्कर
६७३
प्रकरणं
विकसित।
पौष्कर (वि०) [पुष्कर+अण] नील कमल से सम्बंध रखने संज्ञाओं में लगने वाला उपसर्ग-तीव्रता, आधिक्य। वाला।
पूर्णता, पूर्ति, तृप्ति। पौष्करिणी (स्त्री०) [पुष्कराणां समूहः, पौष्कर इनि ङीप्] ०अभाव, वियोग। सरोवर, द्रह, तालाब जो कमलों से परिपूर्ण हो।
विराम, रोका पौष्कल्यं (नपुं०) [पुष्कल+ष्यञ्] परिपक्वता, पूर्वता, पूर्ण प्रमुखता।
प्रकट (वि.) [प्राकट्+अच्] स्पष्ट, साफ, स्वच्छ। पौष्टिक (वि०) [पुष्टि+ठञ्] वृद्धि करने वाला, कल्याण कारक। प्रत्यक्ष, खुला हुआ। पोषक, बलवर्धक।
०दृश्यमान। पौषधः (पुं०) पर्व सम्बन्धी व्रत।
प्रकटं (अव्य०) प्रत्यक्षत, स्पष्ट रूप सार्वजनिक रूप से। पौषधप्रतिमा (स्त्री०) श्रावक की बारह प्रतिमाओं में चतुर्थ प्रकटनं (नपुं०) [प्र+कट्+ल्युट] ०खोलना, उद्घाटन करना। प्रतिमा।
०खोलने की पद्धति, व्यक्त करने की पद्धति। परिपूर्ण कायोत्सर्ग का परिपालन।
प्रकटित (भू०क०कृ०) [प्रकट्+क्त] व्यक्त, प्रदर्शित, अनावृत। देह के प्रति ममत्व त्यागकर अष्टमी, चतुर्दशी आदि (जयो०७० २/२५) पों में आहारत्याग करना।
प्रणदित (जयोवृ० २/२५) पौषधव्रतं (नपुं०) अष्टमी आदि पर किया जाने वाला उपवास। | प्रकप (अक०) [प्र+कम्म्] कांपना, थर्राना, हिलना। प्रकम्पयति पौषधोपवासः (पुं०) पर्वादि के दिन उपवास करना- (जयो० ६/५३)
सप्रोषधोपवासीस्यात् स्वाध्यायध्यान चेतसा। अष्टम्यां च ०भयभीत होना।
चतुर्दश्या त्यक्तमुक्तिः स्वशक्तितः। (त०सू०पृ० ११६) प्रकंपः (पुं०) [प्र+कम्प। घञ्] ०कांपना, हिलना, थरथराना। पौष्णकाल: (पुं०) मृत्यु का निश्चायक काल, जन्म नक्षत्र में 'प्रकम्पन्ते दरवारीधारा' (वीरो० ३/३४)
चन्द्रमा के होने पर तथा सूर्य के सम। सातवें में प्राप्त होने | प्रकंपन (वि०) [प्र+कम्प+ल्युट] हिलाने वाला, थरथराने पर पौष्णकाल होता है।
वाला। पौष्प्यसमयः (पुं०) पुष्पप्रसवकाल (वीरो०६/१६)
भयभीत होने वाला। पौष्यचयः (वि०) पुष्पवाटिका। (वीरो० १३/४)
प्रकंपनं (नपुं०) तीव्र कम्पन। पौष्प्याजः (पुं०) पुष्पराग। (वीरो० ६/२५)
प्रकरः (पुं०) [प्र+कृ+अप] ०ढेर, समूह, समुच्चय। पौष्ठिक (वि०) कामोत्तेजक (मुनि० ३)
(सुद० २/२७) प्याट् (अव्य०) [प्याय+डाटि] हो, अहो, अरे।
०संग्रह, संकलन, मात्रा। प्याप् (अक०) बढ़ना, फूलना।
सामान, वस्तुएं (जयो० १३/८३) निक्षिप्तकिञ्चित्प्रकरं प्यायनं (नपुं०) [प्याय्+ल्युट्] वर्धन, बढ़ना, वृद्धि, विकास। निवासं विस्मृत्य गच्छन्नितरेतरेषु। (जयो० १३/८३) प्यायित (वि०) [प्याय्+क्त] वर्धित, वृद्धि को प्राप्त होता।
रीति-रिवाज, प्रचलन। विश्रान्त, सशक्त किया हुआ।
आदर। प्यै (अक०) बढ़ना, वृद्धि को प्राप्त होना।
सतीत्वहरण, अपहरण। समृद्ध होना।
प्रकरणं (नपुं०) [प्राकृ+ल्युट] विषय, प्रसंग, विभाग, अंश। प्र (अव्य०) [प्रथ्+ड] धातुओं से पूर्व लगने वाला उपसर्ग निर्णय, निष्कर्ष, आमुख, प्रस्तावना। (जयो०वृ० ३/१२) धातुगतोऽर्थो वाच्यादि स उपसर्ग पदेन।
अथ-प्रकरणे। (जयो०वृ० १/७९) आगे, सामने का। (जयो० १६/४२)
कल्प:-प्रकरणवद्भवति (जयो० ५/४२) विशेषण से पूर्व लगने वाला उपसर्ग-बहुत, अधिक, ०अनुभाग, अनुच्छेद, परिच्छेद, प्रभाग। अत्यन्त, उत्कर्ष, प्रकृष्ट, श्रेष्ठ। (जयो० २३/२) प्रभयान्वित ०अवसर, समय। प्रजा (जयो० २३/२)
नाटक का एक भेद, जिसकी कथावस्तु कृत्रिम हो।
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प्रकरणचिन्ता
६७४
प्रकाशनं
प्रकरणचिन्ता (स्त्री०) वादी-प्रतिवादी के द्वारा साधर्म्य होने | प्रकारः (पुं०) [प्र+कृ+घञ्] रीति, ढंग, तरीका, पद्धति
से उसकी नित्यता सिद्ध करने का प्रयत्ना प्रक्रियते विधि। (सुद० १०७) साध्यत्वेनाभिधिक्रियेते अनिश्चतौ पक्ष-प्रतिपक्षौ यौ प्रकरणं, शैली। (जयो० १/१) तस्य चिन्ता' (जैन०ल० ७२९)
भेद, विविध रूपा प्रकरणिका (स्त्री०) [प्रकरणी कन्+टाप्] नाटक के लक्षणों विशेषता, विविधता। से युक्त।
मात्रक। (जयो० ११/४३) प्रकरिका (स्त्री०) [प्रकरी+कन्+टाप्] विष्कंभ, उपकथा। प्रकाश् (सक०) प्रकट करना, व्यक्त करना, स्पष्ट करना प्रकरी (स्त्री०) [प्रकट+ङीष्] नाटक में आगे आने वाली 'प्रकाशि यावत्तु तया' (सुद० १०१) कथा।
दीप्त करना, चमकाना। ०नटों की वेशभूषा।
प्रकाशन करना। रंगस्थली, चौराहा।
प्रदर्शन करना। एक गीत।
विस्तार करना, फैलावा विकास करना। प्रकर्म (वि०) कार्य का अतिक्रमण। (वीरो० १६/१५)
खिलाना। प्रकर्षः (पुं०) [प्र+कृष्+घञ्] उत्कृष्टता, श्रेष्ठता, सर्वोच्चता, प्रकाशः (पुं०) ०दीप्ति, प्रभा, कान्ति, चमकीला, उज्ज्वल। विशालता। (जयो०वृ० १)
०साफ, स्पष्ट, सुन्दर, देदीप्यमान। तीव्रता, प्रबलता, आधिक्य।
विख्यात, प्रसिद्ध, विश्रुत। प्रकर्षणं (नपुं०) [प्र+कृष्+ल्युट] आकर्षण, खींचने की विस्तरित। प्रक्रिया।
प्रदर्शन, स्पष्टीकरण। घटादि प्रकटयतीति प्रकाशः। विस्तार, लम्बाई, अवधि।
प्रकाश (वि०) कान्तिवान्, प्रभायुक्त, खिला हुआ, विकसित, ० श्रेष्ठता, सर्वोपरिता।
विस्तरित। ०ध्यान हटाना।
प्रकाशक (वि०) [प्र.काश् णिच्+ण्वुल] व्यक्त करने वाला, प्रकला (स्त्री०) अत्यंत सूक्ष्म अंश।
प्रतिपादित करने वाला। प्रकल्पः (पुं०) ०प्रकट, निश्चित, नियत, ०वास्तव। (जयो०
प्रकट करने वाला, खोजने वाला। २/१५९)
सूचित करने वाला, संकेत करने वाला। प्रकल्पना (स्त्री०) [प्र.क्लृप्+णिच्+युच्+टाप्] स्थिर करना, उज्ज्वल, प्रभावान्। नियत करना, निश्चय करना।
प्रसिद्ध, विख्यात, ख्यात। प्रकल्पित (भू०क०कृ०) [प्र+क्लप्+णिच्+क्त] ०कृत, बना | प्रकाशकः (पुं०) सूर्य, दिनकर। हुआ, निर्मित।
प्रकाशकी (वि०) दीप्ति करने वाली। (जयो० २०/८३) निश्चित किया हुआ, नियत किया हुआ।
प्रकाशक्रयः (पुं०) समान खरीदना। ०अङ्गित। (जयो०वृ०२/१५४)
प्रकाशन (वि०) प्रकाश करने वाला, प्रकट करने वाला, प्रकांडः (पुं०) [प्रकष्टः कांड:] शाखा, किसलय।
व्यक्त करने वाला। छापने वाला। प्रकांडकः (पुं०) शाखा, किसलय।
प्रकाशनं (नपुं०) प्रदर्शन, स्पष्टीकरण। प्रकांडर (पुं०) वृक्ष, तरु।
०स्पष्ट, स्वच्छ, प्रभा, कान्ति। प्रकाम (वि०) ०अत्यन्त, अति, तीव्र, विशेष, अधिक। प्रकाश में लाना। ०आनन्द, उत्साह।
० अन्तिम आहार को प्रकट करना। पगासणा चरमाहार प्रकामः (पुं०) इच्छा, वाञ्छा, चाह, कामना, संतोष।
प्रकाशनम्। (भ०आ०टी० ६९) पयासणाचरणं आहारप्रकामं (अव्य०) अत्यधिक, अत्यन्त।
प्रकटनम् (भ०आ०टी०६९) प्रकामभुज् (वि०) भूख से अधिक खाना, पेट भर खाना।
भक्त प्रत्याख्यानमरण के अादिभावों के अंतर्गत है।
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प्रकाशनारी
६७५
प्रकृतिः
हुआ।
समस्या।
प्रकाशनारी (स्त्री०) वरांगना, वेश्या।
प्रकुपित (भू०क०कृ०) [प्र+कुप+क्त] क्रोधित, गुस्सा युक्त, प्रकाशनीय (वि.) अभिव्यक्तनीय, प्रकट करने योग्य। (दयो० अतिक्रोध वाला। ७८)
प्रकुलं (नपुं०) [प्र+कुल+क] स्वस्थ काय, सुडौल, रम्यदेह। प्रकाशित (भू०क०कृ०) [प्रकाश् णिच्+क्त]०विहित | प्रक् (सक०) करना, बनाना, निष्पन्न करना। (सुद० ११४) (जयो०१० ४/१६)
प्रकृत (भू०क०कृ०) [प्र+कृ+क्त] ०कृत, निष्पन्न, बना प्रदर्शित, प्रकृटीकृत। (सुद० ३/११) प्रकाशिन् (वि०) [प्रकाश इनि] ०प्रसन्न करने वाले, हर्षित ०आरंभ किया हुआ, नियुक्त किया गया।
करने वाले। 'भास्वत: समुदयप्रकाशिनः' (जयो० ३३/१३) महत्त्वपूर्ण, मनोरंजक। प्रभावान्, कान्तियुक्त।
प्रकृतं (नपुं०) मूल विषय, प्रस्तुत विषय। स्वच्छ, साफ-सुथरा।
प्रकृत शास्त्रविधिः (स्त्री०) प्रसिद्ध आम रचना। (वीरो० प्रकिरणं (नपुं०) [प्र+कृ+ल्युट्] इधर-उधर बिखेरना।
२२/६) क: कामबाणादतिवर्तितः स्यादित्थं परेण प्रकृता प्रकीर्ण (भू०क०कृ०) [प्रकृ+क्त] बिखरा हुआ, फैला हुआ, छितराया।
प्रकृतकार्यः (पुं०) स्वयंवर विधि। (जयो० ९/८२) (सुद०८/२) प्रकाशित, प्रविस्तरित।
प्रकृतप्रसाद (वि०) कृपाशील, स्वभाव से प्रसन्न रहने वाला। अस्त व्यस्त, शिथिल।
स्वमिन्दुकान्तत्वमहो जगाद मुखं मृगाक्ष्याः प्रकृतप्रसाद। ०अव्यवस्थित, असम्बद्ध।
(जयो० २४/१२२) ०क्षुब्ध, उत्तेजित।
प्रकृतविभूतिः (स्त्री०) भस्म। (सुद०११२) (वीरो०१४/४१) विविध रूप वाला।
प्रकृतात्मशुद्धिः (पुं०) स्वभाविक रुचि, मूल रुचि। प्रकृतः प्रकीर्णः (पुं०) प्रकीर्णक देव। प्रकीर्णा ग्राम्य पौरवत्।
सम्पादित आदरो रुचिः। (जयो० १६/२७) प्रकीर्णं (नपुं०) विविध, नाना समुदाय, समुच्चय।
प्रकृतानुरक्ति (स्त्री०) स्वाभाविक अनुराग। (वीरो० /३६) प्रकीर्णक (वि०) [प्रकीर्ण+कन्] बिखरे हुए, अस्त-व्यस्त, प्रकृतानुरागः (पुं०) मूल रूप में अनुराग, स्वाभाविक अनुराग, शिथिल।
विशेष अनुराग। लालिमा, रक्तिमा सतां प्रवृत्ति प्रकृतानुरागा छितराए हुए, इधर उधर बिखरे हुए।
सन्ध्येव बन्ध्येव विभूतिभागात्। (सुद० १११) प्रकीर्णकं (नपुं०) चमर, मोरपुंखा
प्रकृतिः (स्त्री०) चेष्टा, स्वभाव (जयो० १६/५८) नैसर्गिक प्रकीर्णकः (पुं०) प्रकीर्णक देव, जो पौर और जनपद निवासी स्थिति, स्वाभाविक रूप मनुष्यों की तरह होते हैं वे प्रकीर्णक देव हैं। 'प्रकीर्णकाः
आकृति, बनावट। पौरजनपदकल्पाः ' (महा०पु० २२/२९)
०अनुक्रम, परंपरा प्रकीर्णक काव्य, सूक्त काव्य, विविध प्रकार की सूक्तियों मूल, स्रोत, मौलिक कारण। से युक्त काव्य-'समुद्र इव प्रकीर्णक सूक्तरत्नविन्यास ०आदर्श, नमूना। निबंधनं प्रकीर्णकम्' (नीति वा० २२/१)
योनि, लिङ्ग प्रकीर्तनं (नपुं०) [प्र+कृ+ल्युट्] प्रशंसा, श्लाघा, स्तवन। ०व्याकरण में प्रसिद्ध शब्द प्रकृति या धातु मूल प्रत्यय कीर्तन, भक्ति, गुणगान।
विशेष। प्रकृति-प्रत्ययादिविरुक्तया शोधयन् (जयो०१० कथन, प्रतिपादन, गुणन
२/५२) प्रकीर्तिः (स्त्री०) प्रसिद्धि, प्रशंसा।
प्रकृति तत्त्व-सांख्यमत में प्रचलित शब्द। यश, ख्याति।
वातावरण, पर्यावरण। उत्कृष्ट हर्ष होना।
प्रकृति, शील, स्वभाव, भेद 'प्रकृतिशब्देन स्वभावो प्रकीर्तित (वि०) ख्याति युक्त। (सम्य० ११५)
भेदश्चाभिधीयते' (जैन०ल० ७३०) 'पयडी सीलं सहावो प्रकुंचः (पुं०) [प्र+कुञ्+घञ्] विशेष माप।
इच्चेयट्ठो' (धव० १२/४७८) प्रकुप् (अक०) [प्र+कुप्] क्रोधित होना, क्रोध करना।
०सत्त्व, रस और तमस् रूप प्रकृति।
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प्रकृतिकृपण
प्रक्षर
प्रकृतिकृपण (वि०) स्वभाव से हीन, मंदबुद्धि वाला। प्रकृतितरल (वि०) चंचल स्वभाव वाला। प्रकृतिबन्धः (पुं०) अनुभाव के स्वभाव का बन्ध, ज्ञानावरणादि
कर्मों का बन्धन, ज्ञान पर आवरण होना। ज्ञानावरणाद्यष्टकर्मणां तत्तद्योग्यपुद्गलद्रव्यस्वीकारः प्रकृतिबन्धः। (निय०
सं०वृ० ११/४०) प्रकृतिमरणं (नपुं०) आयुकर्म का गलन में प्राप्त होना। प्रकृतिमोक्षः (पुं०) प्रकृति का अन्य रूप परिणमन होना,
प्रकृति का निजीर्ण होना। प्रकृतिसंक्रमः (पुं०) प्रकृति का अन्य रूप होना। 'जा पयडी ___ अण्णपयडि णिज्जदि एसो पयडिसकमो।' (धव० १६/३४०) प्रकृतिस्थानं (नपुं०) दो-तीन प्रकृतियों का समुदाय। प्रकृत्यनुकूलः (पुं०) प्रकृतानुरक्ति। (वीरो० ५/३५) सहज
नुराग। प्रकृत्याश्रितः (पुं०) स्वभावाश्रित। (मुनि० २३) प्रकृष्ट (भू०क०कृ०) [प्र+कृष्+क्त] ० श्रेष्ठ, उत्तम, उत्कृष्ट,
पूज्य। ०मुख्य, प्रधान।
सुदीर्घ, लम्बा।
विक्षिप्त, अशान्त। प्रकृष्टज्ञानं (नपुं०) उत्कृष्ट ज्ञान। प्रकृष्टकर्मन् (नपुं०) अशान्त कर्म। प्रकृष्टजन्मन् (नपुं०) उत्तम जन्म। प्रकृष्टकालः (पुं०) लम्बा समय। प्रकृष्ट गति (स्त्री०) उत्तम गति, सिद्धगति। प्रकृष्टगीतः (पुं०) मुख्य गाथन। प्रकृष्टतपः (पुं०) दीर्घ तप, लम्बा तप। प्रकृष्टदव्यं (नपुं०) विशाल वैभव। प्रकृष्टदानं (नपुं०) उत्तमधर्म। प्रकृष्टपुरुषः (पुं०) पूज्य व्यक्ति। प्रकृष्टफलं (नपुं०) श्रेष्ठ फल। प्रकृष्टबोध (पुं०) सम्प्रबुद्ध। (जयो० १८/२७) प्रकृष्टमतिः (स्त्री०) उत्तमबुद्धि। प्रकृष्टरात्रिः (स्त्री०) दीर्घ रात्रि। प्रकृष्टरूपः (पुं०) अच्छी विशेषता। (जयो० २/२३) प्रक्लृप्त (भू०क०कृ०) [प्र+क्लृप्+क्त] व्यवस्थित।
सुसज्जीकृत, प्रद्यत। प्रक्लृप्ति (स्त्री०) सुसज्जा, उद्यम, उद्योग।
जन्म-मरण, बाधा, दु:ख। कुरु तृप्ति प्रक्लृप्ति हर
स्वामिन तव देवाधिसेवां सदा यामि। (७१) प्रकोथः (पुं०) [प्र+कुथ्+घञ्] सडांध, बदबू। प्रकोष्ठः (पुं०) [प्र+कुष्+स्थन्] कुहनी के नीचे की भुजा। ०घांगन, चौकोर आंगन।
कक्ष, कमरा। प्रकोष्ठकः (पुं०) [प्रकोष्ठ कण] फाटक का समीपवर्ती कक्ष। प्रक्खरः (पुं०) कवच रक्षात्राण, ०श्वान, ०खच्चर। प्रक्रम (सक०) [प्रक्रिम] पूरा करना, उपक्रम करना। (वीरो०
८/२२) मापना (जयो० ३/७०) कन्यासमितिमन्वेष्टुं प्रचकाम प्रभोः पिता। (वीरो० ८/१२) समारंभ करना
(जयो०वृ० ३/६७) प्रक्रमः (पुं०) कार्यारम्भ, प्रणाली, (जयो० ३/१४) पद्धति, रीति।
०पग, कदम, दूरी करना। ०अवकाश, अवसर, समय, मर्यादा।
मात्रा, अनुपात, माप। प्रक्रमचर (वि०) अनुक्रम से गमन करने वाला।
अनुगामी। प्रक्रमभंगः (पुं०) क्रम का टूटना, काव्य दोष होना। प्रक्रमशील (वि.) गमनशील। प्रक्रान्त (भू०क०कृ०) [प्रक्रिम्+क्त] ०गत, प्रगत।
आरंभ किया गया। ०प्रस्तुत। प्रक्रिया (स्त्री०) [प्र+कृ+श+टाप्] प्रणाली, पद्धति, रीति,
पद्धति। (जयो० २/२९) उच्चपद, समुन्नति।
अध्याय, अनुभाग, परिच्छेद। प्रक्रियावतरणं (नपुं०) नर्तनकार्य। (जयो० २/२९) प्रक्रीड् (अक०) ०खेलना, मनोरंजन करना। •आमोद
प्रमोद करना। प्रक्रीडः (पुं०) क्रीड़ा, खेल, मनोरंजन, आमोद-प्रमोद। प्रक्लिन्न (भू०क०कृ०) [प्र+क्लिद्+क्त] तर, गीला,
नमी प्राप्त।
तृप्त, पसीजा हुआ। प्रक्वणः (पुं०) [प्र+क्वण+अप] वीणा की झंकार, वीणा की
ध्वनि, क्वण-क्वण शब्द। प्रक्षयः (पुं०) [प्र+क्षि+अप्] विध्वंस, नाश, घात, बरबादी
हानि। पापस्य प्रक्षयं कर्तुं पुनर्न च पार्यते। (हित० २२) प्रक्षर (अक०) स्राव होना, बहना।
०मन्द होना।
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प्रक्षरणं
६७७
प्रगुणित
प्रक्षरणं (नपुं०) बहाव, स्राव, रिसना।
प्रत्यातिभी (स्त्री०) विधायिका। (जयो००० १२/३७) ०कम होना, मन्द, क्षीण, नुकसान हानि।
प्रगंडः (पुं०) [प्रकृष्टः गंडो यस्य] कोहनी के ऊपर कंधे तक प्रक्षल् (सक०) धोना, साफ करना, प्रमार्जन करना, स्वच्छ की भुजा। करना।
प्रगंडी (स्त्री०) [प्रगंड ङीष] परकोटा, बाहरी दीवार, प्राकार। प्रक्षालनं (नपुं०) [प्र+क्षल+कि+ल्युट] प्रमार्जन, साफ प्रगत (भू०क०कृ०) [प्र+गम्+क्त] आगे निकला हुआ, नि,सृत।
करना, स्वच्छ करना। (दयो० ११६) (जयो०वृ० २४/६५) पृथक्, अलग। प्रक्षालित (भू०क०कृ०) [प्र+क्षल्+णिच्+क्त] ०प्रमार्जित,
प्रगच्छत (वि०) चला। (वीरो० २०/२३) साफ किया गया, ०मांजागया। निपूत। (जयो०वृ०
प्रगतजानु (वि०) धनुष्पदी, घुटने पर मुड़ी हुई टांगों वाला। २४/६५)
प्रगमः (पुं०) [प्र+गम्+अप्] प्रगति, अभिव्यक्ति। प्रायश्चित्त किया गया।
प्रगमनं (नपुं०) [प्र+गम्+ल्युट्] प्रगति, आगे बढ़ना, अग्रसर प्रक्षिप् (सक०) फेंकना, निकालना, बहाना।
होना। प्रक्षिप्त (भू०क०कृ०) [प्रक्षिप्+क्त] फेंका गया, बहाया गया।
प्रग' (अक०) [प्र+गर्जु] अधिक दहाड़ना, गरजना। (दयो० १४) प्रवाहित किया गया, निकाला गया।
प्रगर्जनं (नपुं०) [प्र+ग+ल्युट्] दहाड़ना, गरजना, चिंघाड़ना। प्रक्षीण (भूक०कृ०) [प्र+क्षिप्+क्त] प्रहीन, प्रक्षय, क्षयगत,
प्रगल्भ (वि०) [प्रगल्भ+अच्] ०साहसी, उत्साही।
परिपक्व, विकसित, पूरा बढ़ा हुआ। नष्ट हुआ। लुप्त, ओझल, समाप्त।
कुशल, निपुण, प्रवीण।
उद्भार। (जयो०वृ० १/७८) प्रक्षुण्ण (वि० ) कुचला, दबाया, दबोचा।
०चारु, रमणीय। (जयो० १६/४४) प्रक्षेपः (पुं०) [प्र+क्षप्+घञ्] फेंकना, डालना, बखेरना,
०वाक्पटु, चतुर, निपुण। उभारना।
गौरवशाली। ०धनराशि।
घमण्डी, अहंकारी। प्रक्षेपकः (पुं०) प्रवेशन, रखना, निक्षेप करना।
प्रगल्भता (वि०) विदग्धत्व, चातुर्य। (जयो० १६/५१) मधुनाप प्रक्षेपणं (नपुं०) [प्र+क्षिप्+णिच ल्युट्] निक्षेपण, रखना,
च रमणी यत्प्रगल्भतां वक्रवाक्यरमणीयः। (जयो० १६/५२) डालना, उड़ेलना।
प्रगाढ (भू०क०कृ०) [प्र+गा+क्त] ०दृढ़, मजबूत। प्रक्षेपाहारः (पुं०) कवल या ग्रास लेना।
०कठोर, कठिन प्रक्षोभणं (नपुं०) [प्र-क्षुभ् ल्युट्] क्षोभ, उत्तेजना, व्याकुलता।
०तीक्ष्ण। प्रक्ष्वेडनः (पुं०) [प्र+क्ष्विड्+णिच्+क्त] अयस्क बाण।
०अत्यधिक, अति। __०हल्लागुल्ला, कोलाहल।
प्रगातृ (पुं०) [प्र+गै+तृच्] सुगीतज्ञ, गायक। प्रखर (वि०) [प्रकृष्टः खर] ०अत्यन्त कठोर, कठिन, ठोस। प्रगुण (वि०) [प्रकर्षण गुणो यत्र] ०खरा, स्पष्ट, सीधा, सरल। ____ तीक्ष्ण, गन्ध युक्त।
उत्तम गुण युक्त। प्रख्य (वि०) [प्र+ख्या+क] प्रत्यक्ष, स्पष्ट, स्वच्छ साफ, विशद। ०कुशल, प्रवीण, चतुर, परिपक्व। प्रख्या (स्त्री०) [प्र+ख्या+अङ+टाप्] ०विख्यात, प्रसिद्धि, प्रगुण-प्रणीति (स्त्री०) टेढ़ी-मेढ़ी कुटिलता। भद्रे त्वमद्रेरिव यश, कीर्ति।
मार्गेरीतिं प्राप्ता किलास्य प्रगुणप्रणीतिम्। (सुद० १२०) प्रत्यक्षता, दृश्यता।
प्रगुण प्रश्रय (वि०) प्रकृष्ट गुणों का आधार। 'प्रगुणानामुत्तमानां उखाड़ना।
गुणानां प्रश्रयः समाश्रयोः यद्वा प्रगुणेषु महापुरुषेषु प्रश्रयः ०समानता, समरूपता, सादृश्यता।
प्रेमभावः। (जयो० १९/६५) प्रख्यात (भू०क०कृ०) [प्र+ख्या+क्त] ०प्रसिद्ध, विख्यात, | प्रगुणित (वि०) [प्र+गुण+क्त] सीधा किया हुआ, समतल विश्रुत। ०आनन्द, सुख, हर्ष।
किया हुआ। प्रख्याति: (स्त्री०) [प्र+ख्या+क्तिन्] कीर्ति, यश, प्रसिद्धि। चिकना किया हुआ।
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प्रगृहीत
६७८
प्रचल
प्रगृहीत (भू०क०कृ०) [प्र+ग्रह+क्त] स्वीकृत, अंगीकृत,
पकड़ा गया।
प्राप्त, संभाला हुआ। प्रगृह्यं (नपुं०) [प्र+ग्रह+क्यप्] स्वीकृत किया, सन्धि का नियम। प्रगे (अव्य०) [प्रकर्षेण गीयतेऽत्र] प्रभात। (जयो० ७/३०)
[प्र+गै+के] भोर होते ही, प्रभात काल, प्रभातबेला में, सुबह-सुबह। (जयो० १८/२६) परिपालितातम्रचूडवाग्
रविणा कोठजनः प्रगे स वा। (सुद० ३/४) प्रगोपनं (नपुं०) [प्र+गुप् ल्युट्] रक्षण, संधारण। प्रग्रथनं (नपुं०) [प्र+ग्रन्थ् ल्युट्] गूंथना, बुनना। प्रग्रहः (पुं०) [प्र+ग्रह अप्] फैलाना, थामना।
पकड़ना, ग्रहण करना। रास, लगाम। रोकथाम, पाबन्दी। ०बन्धन, कैद। प्रकाश किरण, प्रभा, कान्ति।
ग्रहण का आरम्भ। प्रग्रहणं (नपुं०) [प्र+ग्रह+ल्युट्] ०पकड़ना, लेना, ग्रहण करना।
०धरना। ०रास, लगाम।
रोकथाम, पाबन्दी। प्रग्राहः (पुं०) [प्र+ग्रह+घञ्] प्रकड़ना, लेना, ले जाना। प्रग्रीवः (पुं०) [प्रकृष्टा ग्रीवा यस्य] वृक्ष का ऊपरी भाग।
०मकान का ऊपरी हिस्सा, बुर्ज। प्रघटकः (पुं०) [प्र+घट्+णिच्+ण्वुल] नियम, सिद्धान्त, विधि,
आदेश। प्रघटा (स्त्री०) विज्ञान का मूल तत्त्व। प्रघणः (पुं०) [प्र+ह्र+अप] ०ड्योढी, पौली।
०कठोर। (जयो० ३/२५)
लोहे की गदा। प्रघणस्पृक् (पुं०) ड्योढी स्पर्श, देहली स्पर्श। (जयो०३/८९) प्रघस (वि०) खाऊ, पेटू। प्रघसः (पुं०) राक्षस, पेटुपन। प्रघसणवः (पुं०) देहली। (जयो० २१/६०) प्रघातः (पुं०) [प्र+ह्र+घञ्] ०विध्वंस, विनाश।
घात, हानि। ०हत्या। संषर्ण, युक्ता
प्रघुणः (पुं०) [प्र+घुण+क] अतिथि, मेहमान। प्रघूर्णः (पुं०) [प्र+घूर्ण+अच] अतिथि, मेहमान। प्रघोषः (पुं०) [प्र+घुष्+घञ्] शोर, कोलाहल, होहल्ला। पृघृत (वि०) चढ़ते हुए। (समु० २/२५) प्रघर्ष (सक०) मांजना, प्रमार्जन करना। (मुनि० २०) प्रचक्रं (नपुं) प्रयाणोन्मुख फौज। प्रचकामं (पुं०) चला, आगे आया। (सुद०८९) प्रचक्षस् (पुं०) बृहस्पति ग्रह। प्रचण्ड (वि०) [प्रकर्षण चण्ड:] उत्कृष्ट, तीव्र, तेज, उग्र। ०भीषण।
अत्यधिक उष्ण। क्रुद्ध, कोपाविष्ट।
भयंकर, असहिष्णु। प्रचण्डकरः (पुं०) सूर्य। प्रचण्डकर्मन् (वि०) साहसिक कर्म वाला। प्रचण्डगत (वि०) असहिष्णुता युक्त। प्रचण्ड गर्मी (वि०) तीव्र उष्णता। प्रचण्ड-घोण (वि०) लम्बी नाक गला। प्रचण्डतपः (पुं०) उग्रतप, कठोर तपस्या। प्रचण्डदानं (नपुं०) उत्कृष्ट दान। प्रचण्डधनं (नपुं०) अत्यधिक धन। प्रचण्ड नारी (स्त्री०) कोपाविष्ट नारी। प्रचण्डनरः (वि०) क्रुद्ध प्राणी। प्रचण्डशक्तिः (स्त्री०) प्रबलशक्ति, अत्यधिक बल। प्रचण्डांशु (पुं०) दिनकर, सूर्य। (भक्ति० १४) प्रचयः (पुं०) [प्र+चि+अच्] संग्रह, समूह, समुच्चय, राशि,
वृद्धि, वर्धन।
साधारण मेलजोला प्रचयनं (नपुं०) [प्र+चि+ल्युट] संग्रह करना, एकत्रित करना। प्रचर् (अक०) चलना, जाना। (सुद० ८१) स्वं वरं प्रचरितुं
धृतसत्तां गन्तुमेष च सभामभवत्ताम्। (जयो० ४/१४) प्रचरः (पुं०) [प्र+च+अप्] पथ, रास्ता, मार्ग,
रीति रिवाज।
०प्रथा। प्रचल (वि०) [प्र+चल्+अच्] ०चलता हुआ। (समु०२/२३)
०कांपता हुआ, थरथराता हुआ।
प्रचलित, प्रथानुकूल। प्रचलत -चलरहा (सुद० ३७)
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प्रचलाक:
६७९
प्रच्छन्नं
प्रचलाकः (पुं०) [प्र+चल्+आकन] धनुर्विद्या, मयूर पिंछ।
०सर्प। प्रचलाकिन् (पुं०) [प्रचलिक+इनि] मयूर, मोर, शिखी। प्रचलायिक (वि०) [प्रचल+क्यङ्+क्त] चलायमान, करवट
बदलने वाला।
हिलने-डुलने वाला, लुड़कने वाला। प्रचायिक (स्त्री०) [प्र+चि+णिच्+ण्वुल्+टाप्] संचालिका।
क्रमशः चयन की गई स्त्री। चयनित नारी। प्रचारः (पुं०) [प्र+च+घञ्] विचरण करना, परिभ्रमण करना,
घूमना, प्रसार। (जयो०वृ० १/१३) ०संचार, विस्तार, फैलाव। (जयो० १/१३)
आचरण, व्यवहार। प्रथा, रीति-रिवाज। प्रचलन। (जयो०वृ० १/६) ०प्रचलन, प्रसिद्धि, व्यवहार, प्रयोग। (सुद० ५/२) खंगभावस्य च पुनः प्रचारो भवति दृष्टिपथमेष गतः। (सुद०५/२)
गोचर भूमि, चारागाह। प्रचारक (वि०) प्रचार करने वाला। (जयो०वृ० १/१२) प्रचारणं (नपुं०) प्रकटीकरण, प्रचलन चारणा गुणगणप्रचारणास्ते
कुविन्दवदुदारधारणाः। (जयो० ३/१७) प्रसारण। (जयोवृ० ३/१७)
प्रचारण बुद्धि की विशेषता। (जयो०१० ४/१६) प्रचालः (पुं०) [प्रकृष्टश्चाल:] वीणा की गरदन। प्रचालनं (नपुं०) [प्र+चल्+णिच्+ल्युट्] ०प्रचार, प्रसारण।
oहिलाना, विलोडन करना, हलचल। प्रचालयन्ती [प्र+चल+णिच्+शत ङीप्] संचालन करने वाली।
(जयो० ८/५२) प्रचित (भू०क०कृ०) [प्र+चि+क्त] संचित किया, एकत्रित
किया हुआ, तोड़ा हुआ।
० ढका गया, आच्छादित किया गया। प्रचुर (वि०) [प्र+चु+क] अधिक, विशिष्ट, यथेष्ट, बहुल,
पुष्कल, विशाला, बृहत्, विस्तृता
परिपूर्ण, भरा हुआ, बहुत अधिक। प्रचुरः (पुं०) चोर। प्रचुरजनः (पुं०) विशिष्ट लोग। प्रचुरधनं (नपुं०) पर्याप्त धन।
प्रचुरतपः (पुं०) विशिष्ट तप, उत्कृष्ट तप। प्रचुरता (वि०) प्रमुखता। (दयो० ३५) प्रचुरमात्रा (स्त्री०) अधिकमात्रा। प्रचुरमोहः (पुं०) मोह की व्यापकता। प्रचुरयशः (पुं०) यथेष्ट कीर्ति। प्रचुर-रजनी (स्त्री०) प्रगाढ़ रात्रि, अन्धकारमयी रात्रि। प्रचुरशब्द (वि०) अधिक शब्द, शब्द की व्यापकता। प्रचेतस् (पुं०) [प्र+चित्+असुन्] वरुण। प्रचेत (पुं०) [प्र+चि तृच्] सारथि, रथवाहक। (वीरो० १८/३४) प्रचेलं (नपुं०) [प्र+चेल्+अच्] चन्दन की पीली लकड़ी। प्रचेलकः (पुं०) [प्र+चेल्+ण्वुल्] अश्व, घोड़ा। प्रचेलिमा (वि०) परिपाक प्राप्त। (जयो० २४/५८) प्रचोदः (पुं०) [प्र+चुद्+घञ्] आगे हांकना, बलपूर्वक चलाना।
भड़काना, प्रेरित करना। प्रचोदनं (नपुं०) [प्र+चुद्+ल्युट्] ०बलपूर्वक चलाना, हांकना।
उकसाना, भड़काना। आदेश देना, निर्देश करना।
नियम, विधि, समादेश। प्रचोदित (भू०क०कृ०) [प्र+चुद्+क्त] उकसाया हुआ,
भड़काया हुआ। निदेशित, आदेशित।
नियमित, आदिष्ट नियत किया हुआ। प्रच्छ (अक०) पूछना, प्रश्न करना।
०ढूढना, खोजना।
० अन्वेषण करना। प्रच्छदः (पुं०) [प्राच्छद्। णिच्+घ] ०आवरण, आच्छादन।
चादर, ओढ़नी, बिछावन। प्रच्छदपटः (पुं०) बिछावन, चादर। प्रच्छनं (नपुं०) [प्रच्छ+ल्युट्] परिपृच्छा, प्रश्न करना। प्रच्छना (स्त्री०) परिपृच्छा, प्रश्न करना। प्रच्छन्न (भू०क०कृ०) [प्र+च्छद्+क्त]०वस्त्राच्छादित, लपेटा
हुआ, बन्द किया हुआ। गुप्त, छिपा हुआ, रहस्यमय।
गोपनीय, निजी, स्वकीय। प्रच्छन्नतप (वि०) गुप्त, गोपनीय, छिपा हुआ।
'द्रतुव तत्र गत्वा प्रच्छन्मतया'। (दयो० ८१) प्रच्छन्नं (नपुं०) द्वार, झरोखा।
जाली, खिड़की।
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प्रच्छन्न
६८०
प्रजादानं
प्रच्छन्न (अव्य०) गुप्त रूप से, चुपचाप।
प्रजनः (पुं०) [प्र+जत्+घञ्] गर्भाधान करना, पैदा करना। प्रच्छन्नतस्करः (पुं०) गुप्तचर।
उत्पादन, उत्पन्न करना। प्रच्छन्नवस्तु (वि०) गुप्त वस्तु, छिपी हुई वस्तु। (वीरो० २/१८) प्रजननं (नपुं०) [प्र+जन्+ ल्युट्] ०प्रसृजन, जनन, योनि गत। प्रच्छन्नी भावः (पुं०) लय, छिपा, गुप्तभाव। (जयो० वृ० जन्म, प्रसव। २६/४५)
०वीर्य, जनेनन्द्रिय। प्रच्छर्द (अक०) वमन होना, उल्टी होना
०सन्तान। प्रच्छर्दनं (नपुं०) [प्र+छ+ ल्युट्] वमन, कै,
प्रजनिका (स्त्री०) [प्र+जन्+णिच्वु ल+टाप्] माता, माँ, ०बाहर निकालना, फेंकना।
जननी। प्रच्छर्दिका (स्त्री०) [प्र+छर्ट्+ण्वुल-टाप] उल्टी होना, वमन प्रजनुकः (पुं०) [प्र+जन+उक] काया, शरीर देह। के करना।
प्रजल्प (अक०) कहना, बखान करना। (वीरो० ९/२६) प्रच्छादनं (नपुं०) [प्र-छद्णिच् ल्युट्] ०ढकना, छिपाना। प्रजल्पः (पुं०) [प्र. जल्प+ल्युट्] मुखरी वचन, बकवास, ओढ़नी, चादर, उत्तरीय।
व्यर्थकथन, कहना (सुद० ९४) प्रलाप! ०ऊट पटांग प्रच्छादनपट: (पुं०) लटेपटन, चादर, ढकना।
शब्द। प्रच्छादित (भू०क०कृ०) [प्र+छद्+णिच्+क्त] ढका हुआ। प्रजल्पनं (नपुं०) [प्र+जल्प् ल्युट्] ०बोलना, कहना, लपेटा हुआ।
०बातचीत करना। गुप्त, छिपा।
गपशप, मुखरी वचन। प्रच्छायं (नपुं०) [प्रकृष्टा छाया यत्र] सघन छाया, छाया प्रजविन् (वि०) [प्र+जु+इनि] आशु, द्रुतगामी, वेगवान्। युक्त प्रदेश।
प्रजविन् (पुं०) दूत, संदेशवाहक। प्रच्छिल (वि०) [प्रच्छ+इलच्] शुष्क, निर्जल, सूखा। प्रजा (स्त्री०) [प्र+जन्+ड+टाप्] ०जनसमूह, जनसमुदाय। प्रच्यवः (पुं०) [प्र+च्यु+अच्] आना, एक जन्म से दूसरे ०लोग, मानव, मनुष्य, प्रज्ञासु-लोकेषु (जयो०१० २/५९) जन्म को प्राप्त होना।
सन्तति, सन्तान। ०पतन।
प्रसृजन, प्रसूति, प्रसव। प्रगति, विकासाप्र
०जन्म, उत्पादन। •पुनरागमन।
प्रजाकम्म (वि०) सन्तान की चाह, सन्तति की वाञ्छा। प्रच्यवनं (नपुं०) [प्र+च्यु+ल्युट] आगमन, आना। (जयो० प्रजाकृतिः (स्त्री०) जनता का कर्तव्य। 'प्रज्ञायाः प्रजायाः २७/५८)
चतुर्वणार्मिकाया जनतायाः कृतिः कर्त्तव्यम्। (जयो० ३/३) विदा होना, मुड़ना।
प्रजागरः (पुं०) [प्र+जागृ+अप्] ० जागरण करना, सोना नहीं। ०हानि, क्षति।
सावधानी, चौकसी। रिसना, झरना।
०अभिभावाक, संरक्षक। प्रच्युत (भू०क०कृ०) गिरा हुआ, च्युत हुआ, पुनरागमन को प्रजाननः (पुं०) प्रजासमूह। (जयो० १/२२) प्राप्त हुआ।
प्रजात (भू०क०कृ०) उत्पन्न, प्रजनन, प्रसूति। ० भटका हुआ, विचलिता
०पैदा हुआ, उत्पन्न हुआ। स्थान पतित, भ्रष्ट, गिरा हुआ।
प्रजातिः (स्त्री०) [प्र+जन्+क्तिन्] विस्थापित।
०प्रसूति, उत्पादन, प्रजनन। प्रच्युति (स्त्री०) [प्र+च्यु+क्तिन्] ०हानि, क्षति, अधः स्तन। ०पीडाकारी। (जयो० १/५२)
पुनरागमन, एक जन्म से दूसरे जन्म को प्राप्त होना। प्रसववेदना, प्रसवपीड़ा। ०वापसी।
प्रजादानं (नपुं०) चांदी। प्रजः (पुं०) [प्रविश्य जायायां जायते-जन्+ड] पति, स्वामी। १. प्रजा कल्याण, प्रजाहित।
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प्रजादुरीह
६८१
प्रज्वलनं
प्रजादुरीह (वि०) प्रजा की दुर्वृत्तिया। (वीरो० १८/९५) प्रजानाथ (पुं०) राजा, प्रजापालक। प्रजानिषेकः (पुं०) गर्भाधान। प्रजापः (पुं०) राजा, नृप। प्रजापतिः (पुं०) राजा, नृप।
विधाता, सृष्टि सम्पादक। (दयो० १/२२) सृष्टिकर्ता (जयो० ११/१२) प्रजापतेः सृष्टिसम्पादकच्छिशुभावम् (जयो० ११/१२) •पोदनपुर का राजा। (वीरो० ११/१७)
जामाता, जमाई। ०सूर्य, दिनकर।
पिता, जनक। प्रजापाल: (पुं०) नृप, राजा। प्रजापालकः (पुं०) नृप, राजा, अधिपति। (दयो० ९१) प्रजाप्रिय (वि०) प्रजा का हितकारी। 'प्रजायाः प्रियो हितकरः'
(जयो० २३/१) प्रजाबन्धुः (पुं०) राजा, नृप। प्रजामयी (वि०) प्रजा युक्त। (जयोवृ० १/५) प्रजामोहः (पुं०) लोगों का मोह। प्रजायश: (वि०) राजा, स्वामी, प्रभु। प्रजावर्गः (पुं०) जनता, जनसमूह, जनसमुदाय। (जयो० ५/३४) प्रजावृद्धिः (स्त्री०) संतति की वृद्धि। प्रजासृज् (पुं०) विधाता, ब्रह्मा। प्रजासेवा (स्त्री०) प्रजाहित। 'प्रजायाः सेवया तु सा'।
(वीरो०८/४३) प्रजाहित (वि०) लोक कल्याण, जनहित। (दयो० १/१२,
जयो० २२/३७) प्रजिनः (पुं०) [प्र+जि+नक्] पवन, वायु। प्रजिप (सक०) भेजना, लौटाना, वापिस करना। (जयो० ) प्रजीप्सु (वि०) संतान की इच्छा। प्रजीवनं (नपुं०) [प्र+जी+ल्युट्] जीविका, जीवनर्वािह का
साधन, व्यापार। प्रजीश्वरः (पुं०) राजा, प्रभु। प्रजुष्ण (वि०) [प्र+जुष्+क्त] अनुरक्त, भक्त, जुटा हुआ। प्रजोत्पत्तिः (स्त्री०) सन्तानोत्पत्ति।। प्रजोत्पादनं (नपुं०) संतान उत्पन्न करना। प्रज्ञ (वि०) [प्र+ज्ञा+क] बुद्धिमान् ज्ञानी, मेधावी, विद्वान्। प्रज्ञप्तिः (स्त्री०) [प्र-ज्ञा+णिच+क्तिन] प्रतिज्ञा, सहमति।
शिक्षा, सूचना, संदेश, समाचार होना।
सिद्धान्त। प्रज्ञा (स्त्री०) [प्र+ज्ञा+अ+टाप] प्रज्ञायते अनया प्रज्ञा, प्रगता
ज्ञा प्रज्ञा। ०बुद्धि, मेधा, मति, ज्ञान। (जयो० १/९६) विवेक, जागृति, प्रकर्ष प्राप्त।
ज्ञान के उत्पादन की योग्यता, ऊहा: अपोह दृष्टि। प्रज्ञात (भू०क०कृ०) [प्र+ज्ञा+क्त] समझा हुआ, बोध प्राप्त
हुआ।
०प्रसिद्ध, प्रख्यात। प्रज्ञानं (नपुं०) [प्र+ज्ञा+ल्युट्] ०बुद्धि, प्रज्ञा, ज्ञान, मति, धी।
समझ, जानकारी।
चिह्न, पहचान, प्रतीक। प्रज्ञापकः (पुं०) चारित्र का प्रवर्तक। 'चारित्रस्य प्रवर्तकः
प्रज्ञापक उच्यते।' प्रज्ञापना (स्त्री०) उपांग ग्रंथ।
जीवादि पदार्थों का ज्ञापना। 'प्रज्ञाप्यते प्ररूप्यन्ते जीवादयो भावा अनया शब्दसंहत्या इति प्रज्ञापना।' (जै०ल० ७३३)
प्रकर्ष अभिव्यक्ति। प्रज्ञापनी भाषा (स्त्री०) विनम्र शिष्य के लिए गुरु उपदेश की
भाषा। विज्ञान युक्त भाषा।
०धर्मकथात्मक भाषा। प्रज्ञापरीषहः (पुं०) प्रकर्ष ज्ञान होने पर अभिमान। ज्ञानमद। प्रज्ञापरीषहजयः (पुं०) ज्ञानविषयक अभिमान न होना, बुद्धि
की अतिशयता होने पर अहंकार न होना। 'प्रज्ञा प्रकर्षावलेपनिरासः प्रज्ञाविजयः। (त०वा० ९/९) 'प्रज्ञायतेऽनयेति प्रज्ञा
बुद्ध्यतिशयः तत्प्राप्तौ न गर्वमुद्वहत' (त०भा०वृ० ९/९) प्रज्ञापारमितः (पुं०) दूसरों को प्रतिबोधित करने वाले पुरुष। प्रज्ञाभावच्छेदना (स्त्री०) मति आदि ज्ञान से छह द्रव्यों का
जानना। प्रज्ञावत् (वि०) [प्रज्ञा+मतुप्] बुद्धिमान्, समझदार। प्रज्ञावशार्तमरणं (नपुं०) प्रज्ञामद पूर्वक मरण। प्रज्ञाल (वि०) बुद्धिमान, प्रज्ञाशील। प्रज्ञाश्रमणः (पुं०) श्रुतज्ञायक श्रमण। प्रज्ञिन् (वि०) बुद्धिमान, निपुण, मेधावी। प्रज्वलनं (नपुं०) वह्नि, अग्नि, आग। (जयो०वृ० १६/२३)
देदीप्यमान होना, जलना, दहकना।
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प्रज्वाल
६८२
प्रणष्टिः
प्रज्वाल् (सक०) लाना, प्रज्वलित करना। (सुद० ७१) प्रज्वाल्य (वि०) भस्मी सात् करना, भस्म करना, जलाना।
(जयो० १५/२५) प्रज्वलित (वि०) जलता हुआ, देदीप्यमान हुआ। प्रडीनं (नपुं०) [प्र+डी+क्त] हर दिशा में उड़ना, आगे दौड़ना। प्रण (वि०) [पुरा+भव:-प्र+न] पुराना, प्राचीन। ०परोपकार,
नियम। (जयो० २०/७४) प्रणखः (पुं०) [प्रकृष्टः नख:] कील का सिरा। प्रणत (भू०क०कृ०) [प्र+नम्+क्त] झुका हुआ, नमनशील,
प्रणाम करता हुआ।
विनम्र, विनीत, कुशल, चतुर। प्रणनाम (वि०) प्रणतवान। प्रणप्रायत (वि०) प्रीति बाहुल्य। (जयो० १२/५२)
०पाणिग्रहण करने वाला। (जयो० १२/५२) प्रणतवान् (वि०) प्रणनाम, अगवानी। (जयो० ४/१७) प्रणतारिन् (वि०) शत्रुओं को झकाने वाला। 'प्रणताः प्रणम्रा
अरयो यस्य यस्मै वा तेन प्रणतारिणा। (जयो०वृ० १२/८७) प्रणति (स्त्री०) [प्र+नम्+क्तिन्] प्रणाम, नमस्कार,
अभिवादन। विनयभाव, विनम्रशीलता। ०शिष्टाचार, विशेष आदर।
नम्रशील, नमक। प्रणति प्रवण: (पुं०) नमन के कुशल, नम्रशील, अभिवादन
प्रवीण। (जयो० १६/६१) 'रमणे चरणप्रान्ते प्रणतिप्रवणेऽप्यन्यशरणे वा' (जयो० १६/६१) 'प्रणतौ नमनकरणे
प्रवण: कुशलो दत्तचित्तः' (जयो०वृ० १६/६१) प्रणदनं (नपुं०) [प्र+नद्+ ल्युट्] शब्द करना, ध्वनि करना। प्रणदित (वि०) ध्वनित, प्रगटित, बतलाने वाला। 'साम्प्रतं
प्रणदितानघानकं देवशब्दमिममुत्तमार्थकम्' (जयो० २/२५) पणम् (सक०) [प्र+नम्] नमन करना, प्रणाम करना। प्रणोमि
(समु० १/९) (जयो०१/२) प्रणमन्ति। (जयो० २१/७४)
प्रणम्य (वीरो० ५/६) प्रणयः (पुं०) [प्र.नी+अच्] •पाणिग्रहण करना, विवाह करना।
प्रेम, प्रीति, स्नेह, अनुराग। (जयो० ५/९८) (जयो० १०/९१)
अभिलाषा, वाञ्छा। चाह, लालसा। परिचय, विश्वास। (जयो० २/१३३) अनुग्रह, कृपा, सौजन्य।
अनुरोध, प्रार्थना, निवेदन। ०श्रद्धा, भक्ति। प्रणयकुपित (वि०) प्रेम से क्रोधित। प्रणयकुद्ध (वि०) प्रणय सम्बंधी क्रोधा प्रणयनं (नपुं०) [प्र+नी ल्युट्] संचालन करना, पहुंचाना,
ले जाना। प्रापण। (जयो० २३/८४) लिखना, निर्णय देना।
०पालन करना, अनुष्ठान करना। प्रणयनकारिन् (वि०) नीतिविद। 'प्रणीतेः अधिपः नीतिविदः
प्रणयनकारिणश्चं (जयोवृ० १/२०) प्रणयप्रकर्ष (पुं०) अत्यधिक प्रेम, तीव्र अनुराग। प्रणयप्रणीतिः (स्त्री०) अनुरागाधीन। (वीरो० ३/१५) प्रणयभंग (पुं०) प्रीतिभंग, हीनप्रेम। प्रणयप्रमातु (वि०) स्नेहभाव को प्राप्त। (वीरो० १७/१३) प्रणयभावः (पुं०) मित्रता का भाव। प्रणयमतिः (स्त्री०) निर्णयात्मक बुद्धि। प्रणयवचनं (नपुं०) प्रेमाभिव्यक्ति, प्रीतिवचन। प्रणयविमुख (वि०) प्रेम से हटाया हुआ, प्रेम में अनासक्त,
आसक्ति रहित प्रेम वाला। प्रणयविहतिः (स्त्री०) प्रार्थना न मानना, अनुरोध ठुकराना। प्रणयातिशयः (पुं०) प्रेम बाहुल्य, सन्मार्गातिशय। (जयो०२०/४) प्रणयाधीन (वि०) प्रीतिपूर्वक। (जयो० १२/५०) प्रणयिन् (वि०) [प्रणय इनि] ०स्नेही, कृपालु, अनुरक्त।
प्रिय, अत्यंत प्यारा। ०इच्छुक, लालायित, उत्कण्ठित।
०सुपरिचित, घनिष्ट। प्रणयिन् (पुं०) मित्र, साथी, सहचर।
०पति, प्रेमी।
०कृताञ्जलि, प्रार्थी, निवेदक। प्रणयिनी (स्त्री०) गृहिणी, पत्नी।
०सखी, सहेली, प्रेमिका। प्रणयेश्वरः (पुं०) प्रेम का ईश्वर पति। 'प्रणयस्य प्रेम्ण __ईश्वरायाधिकारिणे' (जयो० १२/८३) प्रणवः (पुं०) [प्र+नू+अप्ण त्वम्] पवित्र अक्षर। वाद्ययन्त्र। पणष्ट (वि०) विनाश। प्रणष्टवस्तुज्ञानं (नपुं०) चरण ऋद्धि से नष्ट हुई वस्तु का
ज्ञान। (जयो० १९/६९) प्रणष्टिः (स्त्री०) दंडविहीन, डंडविहीन। प्रणष्टा दण्डा येषां
तानि (जयो० ८/३६)
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प्रणस
६८३
प्रणीतिः
प्रणस (वि०) [प्रगता-नासिका यस्य सादेशः अच् णत्वम्] ०महान् प्रयत्ल (हित० १६) 'प्रणिधानं विशिष्टश्चेतोधर्मः' बड़ी नाक वाला, लम्बी नाक वाला।
प्रणिधानं चेतः स्वास्थ्यम्। (जैन०ल० ७३६) प्रणहानि: (स्त्री०) प्रतिज्ञा हानि। (दयो० १३)
प्रणिधानयोगः (पुं०) एकाग्रचित्त का योग। प्रणिधानं चेतः प्रणाडी (स्त्री०) माध्यम, अन्तरायण।
स्वास्थ्यम्, तत्प्रधानयोगाः प्रणिधानयोगाः। (जैन०ल० ७३६) प्रणादः (पुं०) [प्र+नद्+घञ्] चीत्कार, क्रन्दन, तीव्र ध्वनि, | प्रणिधिः (स्त्री०) आसक्ति, अरुचि, ०अनुचर, गुप्तचर, (जयो०८/२३)
सचेत, प्रार्थना। ०दहाड़, गर्जना, चिंघाड़ा
व्रतों की अपरिणति (अनुरोध) 'प्रणिधिः व्रतापरिणतावाहर्षातिरेक की ध्वनि।
सक्तिः प्रणिधानम्' (जैन०ल० ७३६) ०कान का रोगा
प्रणिधिमाया (स्त्री०) नाप-तौल में कमी रखना, हीनाधिक दुहाई देना।
रखना। प्रणामः (पुं०) [प्र+नम्+घञ्] नमस्कार करना, अभिवादन
प्रणिधृ (सक०) रखना, निक्षेपण करना, प्रणिधाय। (जयो० करना, झुकना, नम्र होना, वन्दन। (जयो० ११/८४)
१२/११६) प्रणति, साष्टांग नति।
प्रणिनादः (पुं०) [प्र+नि+न+घञ्] तीव्र ध्वनि। प्रणायकः (पुं०) [प्र+नी+ण्वुल्] ०नायक, नेता। अधिनायक।
प्रणिपतनं (नपुं०) [प्र+नि+पत्+ल्युट] अभिवादन, नमन,
प्रणाम, विनति, साष्टांग प्रणाम। (जयो० १२/४६) सेनापति।
०वस्तु में अन्य वस्तु मिलाना।
०छल करना। प्रथप्रदर्शक, प्रधान, मुख्य।
प्रणिपातमुद्रा (स्त्री०) जानु, हाथ और सिर को झुकाना, प्रणाम्य (वि०) [प्र+नी+ण्यत्] प्रिय, प्यारा।
विनम्र होना, नत होना। 'जानु-हस्तोत्तमाङ्गादिसंप्रणिपातेन ०खरा, स्पष्टवादी।
प्रणिपातमुद्रा। (जैन० ७३६) आवेश, शून्य, विरक्ति।
प्रणिसित (वि.) [प्र+निश्+क्त] चुम्बन किया गया। प्रणालः (०) [प्रा नल्+घञ्] नाली. पनाले, नहर मार्ग।
प्रणिहित (भू०क०कृ०) [प्र+नि+धा+क्त] ०व्यवहत, रक्खा ०परम्परा, अविच्छिन्न धारा।
गया। प्रणालिका (स्त्री०) [प्र+नल+कन्+टाप्] पनाले, नाली,
न्यस्त, समर्पित। नहर मार्ग।
०एकाग्रचित्त, निश्चित। प्रणाली (स्त्री०) पद्धति, रीति। (वीरो० २०/५)
सावधान, सचेत। प्रणाशः (पुं०) [प्र+नश्+घञ्] ०नाश, हानि, क्षय, घात।
उपलब्ध, प्राप्त। (सम्य० १३६) (सुद० १२९)
प्रणीत (भूक०कृ०) [प्र+नी+क्त] ०उपस्थित. उद्यत हुआ। विराम, मृत्यु।
०लाया हुआ, कम किया गया। प्रणाशगत (वि०) विनाश को प्राप्त। (मुनि० २४)
कार्यान्वित, अनुष्ठित, कार्यगत। प्रणाशन् (वि०) [प्र+नश्+णिच्+ल्युट्] विनाश करने वाला, सिखाया गया, नियत, प्रदत्त। (जयो०८/७९) हानि पहुंचाने वाला।
०भेजा गया, सेवा निवृत्ता ०हटाने वाला, अलग करने वाला।
प्रणीतः (पुं०) गीत, गान, प्रस्तुति। (जयो०वृ० १२/७० प्रणाशनं (नपुं०) समुच्छेदन, उन्मूलन, विनाश, विघात। प्रणीतहेति प्रसङ्गः (पुं०) प्रदत्तशस्त्रसमागम। प्रणिगद् (सक०) बोलना, कहना। सर्वानवगुणांल्लातीत्य- ०प्रणीताग्निसम्बन्धी
बलाप्रणगद्यते। फांसना (समु० ५/५) (जयो २/१४५) । प्रणीतिः (स्त्री०) प्रणयन, विवाह। प्रणिधानं (नपुं०) [प्र+नि+धा+ल्युट्] चित्त की एकाग्रता। ०पराधीन जीवन। (जयो० २७/६१) पर के आधीन। स्वास्थ्य चित्त।
सुरचना। (वीरो० २/२६) उचितनीति। (जयो० १/३५) प्रयोग करना, व्यवहार, उपयोग।
'जनस्य नीति: परतः प्रणीतिः' (जयो० २७/६१)
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प्रणुत
६८४
प्रतापनं
प्रणुत (भू०क०कृ०) [प्र+नु+क्त] ०श्लाघा किया गया।
हर्षव्यक्त किया गया।
प्रशंसा की गई। प्रणुत्त (भू०क०कृ०) [प्र+नुद्+क्त] ०भगाया हुआ, खदेड़ा हुआ।
दूर किया गया। प्रणुन (भू०क०कृ०) [प्रद+नुद+क्त] नत्वम्। भगाया गया,
गतिशील किया गया।
०कांपता हुआ। प्रणेतृ (पुं०) [प्र+नी+तृच्] नेता, नायक।
निर्माता, स्रष्टा, व्याख्याता, अध्यापक। प्रणेय (वि०) [प्र+नी+य] नेतृत्व करने योग्य, शिक्षा योग,
ज्ञातत्व, वर्णन करने योग्य। (वीरो० २०/१९) विनीत, विनम्र, आज्ञाकारी। ०कार्यान्वित किए जाने योग्य।
स्थिर किए जाने योग्य। प्रणोदः (पुं०) [प्रानुद+घञ्] ०हांकना, निर्देश देना। प्रतत (भू०क०कृ०) [प्र+तन्+क्त] ०आच्छादित किया गया,
ढका गया, प्रवारिता प्रसारित, फैलाया गया, पसारा हुआ। बिछाया गया। प्रकाशमान्। केशपूरक कोमलकुटिलं चन्द्रमसः प्रततं
व्रज रुचिरात्। (सुद० १००) प्रततिः (स्त्री०) [प्र+तन्+क्तिन्] ०प्रसार, विस्तार, फैलाव।
०लता। प्रतन् (सक०) [प्र+तन्] फैलाना, प्रकाशित करना। (वीरो०७/८) प्रतन (वि०) [प्र+तन्+अच्] ०पुराना, प्राचीन। प्रतनु (वि०) [प्रकृष्टः तनुः] ०पतला शरीर, क्षीणकाय,
कृशदेह। ०सूक्ष्म, सुकुमार। ०अत्यल्प, सीमित।
नगण्य, मामूली, थोड़ा। प्रतनुकर्मा (स्त्री०) अतिशय हीनता को प्राप्त होना। प्रकृति,
प्रदेश, स्थित और अनुभाग से कर्म का अतिशय हीनता
को प्राप्त होना। प्रतपनं (नपुं०) [प्र+तप्+ल्युट्] गरम, उष्ण, तेज। ___ज्वाला, अग्नि, जलना। प्रतप्त (भूक०कृ०) [प्र+तप्+क्त] ०गर्म, उष्ण।
०संतप्त हुआ, तपाया हुआ। ०पीड़ित, व्याकुल, दु:खित।
प्रतर् (सक०) [प्र+त्] पार जाना। लज्जासागर प्रतरेत तरीतुं
शक्नुयादित्यर्थः प्रतरंति (मुनि० ३४) (वीरो० ५/२१) प्रतरः (पुं०) [प्र+तृ+अप्] ०पार जाना, पार करना।
मेघ पटल का विघटन/भेद। सूचि रूप श्रेणि, एक एक आकाश प्रदेशात्मक पंक्ति का वर्ग।
०प्रतरोऽभ्रपटलादीनाम् (स०सि० ५/२४) प्रतरगतकेवलिक्षेत्रं (नपुं०) समुघातगत केवली का क्षेत्र। प्रतरभेदः (पुं०) एक प्रकार का घास भेद।
०मेयपटल, बांस, बेंत, नटया केला का भेद। प्रतरलोक (पुं०) एक प्रमाण विशेष, जग श्रेणी को दूसरी
जगश्रेणी से गुणित करना। प्रतरसमुदायः (पुं०) सम्पूर्ण लोक को व्याप्त करने वाला
क्षेत्र, केवली के आत्मप्रदेश वातवलयों के द्वारा रोके गए
क्षेत्र को छोड़कर जो शेष सम्पूर्ण लोक। प्रतरांगुलं (नपुं०) एक प्रमाण विशेष, सूच्यंगुल को दूसरे
सूच्यंगुल से गुणित करना। प्रतर्कः (पुं०) [प्र+त+अप्] ०अपमान, कल्पना, अटकल।
विचार विमर्श। प्रत (सक०) [प्र+त] डराना, कंपाना। (जयो० २/१४०) प्रतलं (नपुं०) [प्रकृष्टं तलम्] निम्न लोक का भाग, नीचे का
हिस्सा। प्रतस्थ (वि०) प्रस्थान करना। (समु० ३/१६) प्रताडित (वि०) समाहत, दु:खी करना। (वीरो०९/३६) प्रतानः (पुं०) [प्र+तन्+घञ्] ०अंकुर, तन्तु।
०लता, नीचे की ओर फैलने वाली लता। शाखा-प्रशाखा, शाखा, संविभाग। धानुर्वात रोग।
० मिरगी रोग। प्रतानिन् (वि०) [प्रतान+इनि] फैलाने वाला, अंकुर, तन्तु वाला। प्रतानी (स्त्री०) प्रतापवान्, प्रतापशाली, प्रभावयुक्त।
(दयो०१/११) प्रतापः (पुं०) [प्र+तप्+घञ्] गर्मी, उष्णता, तेज।
दीप्ति, दाहकता, उज्ज्वलता। (दयो० ३५)
०ताप, पराक्रम, बल, शक्ति, शौर्य। प्रतापनं (नपुं०) [प्र+तप्+णिच्+ल्युट्] ०तपाना, जलाना, गर्माना। सताना, दण्ड देना।
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प्रताप सम्पादित
प्रताप - सम्पादित (वि०) प्रभावशील । (जयो०वृ०१/८ ) ०तेजस्वी, शक्तिशाली, प्रभाव युक्ता ० प्रभा युक्त, कान्तिशील।
प्रतापवत् (वि०) [प्रताप मतुप् ]
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प्रताप - व्यथित (वि०) तेज से व्याकुल। (जयो० १/८ ) प्रतापवह्नि (स्त्री०) तेजस्वी अग्नि। (जयो० ६ / ३६ ) प्रतापिन् (वि०) तेजस्वी, प्रभावयुक्त। (सुद० ८७)
प्रतार (पुं०) (प्र.पिञ्] ०पार ले जाने वाला। छल धोखा
प्रतारणं (नपुं०) [प्र+सृ+ णिच् + ल्युट् ] ०पार ले जाना । ० प्रवञ्चना, ठगना, ०पाखंड, ०धोखा, ०छलना, ०दम्भ, ० दर्प । (जयो०वृ० ११/२९) ०सताना, दुःख देना।
प्रतारयन्ती (सक०) प्रतारण करने वाली। (वीरो० २१/९) प्रतारणार्थ (वि०) प्रवचनार्थ (जयो० २७/२२)
प्रतारित (वि० ) [ प्र+तृ + णिच+क्त] ठगा हुआ, छला हुआ, प्रवञ्चित, तिरस्कृत। ( वोरो० ४/१५)
प्रति (अव्य० ) [ प्रथ्+इति ] यह प्रति उपसर्ग धातु, संज्ञाओं एवं विशेषण से पूर्व लगता है। जिसके कई अर्थ हो जाते हैं-की ओर, तरह, ऊपर, उस दिशा की ओर।
०] सादृश्य, समानता, प्रतिस्पर्धा
● तुलना, अनुपात में।
० निकट, आसपास में नगरं कुण्डनामक प्रति। (वीरो०७/७) ०पक्ष में।
o के विषय में, सम्बन्ध में।
०के एवज में, बदले में। ० प्रत्येक में।
प्रतिक (वि० ) [ कार्षापण ठिठन्] कार्षापण में खरीदा हुआ। प्रतिकंचुकः (पं०) शत्रु ।
प्रतिकंठं (अव्य०) अलग-अलग एक-एक करके, गले के निकट |
प्रतिकर (पुं०) [प्रति+कृ+ तृच्] प्रतिशोध लेने वाला, क्षतिपूर्ति करने वाला।
+
प्रतिकर्तुं (पुं०) विरोधी, विपक्षी। प्रतिकर्मन् (नपुं०) [प्रति+कृ+ मनिन् ] ०प्रतिशोध, प्रतिहिंसा । ० उपचार, प्रतिकार।
० प्रसाधन, शारीरिक शृंगार । (जयो० १० / ३२ ) ० विरोध, शत्रुता
६८५
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प्रतिकर्ष: (पुं० ) [ प्रति + कृष्+घञ् ] संयोजन, एकत्रीकरण । प्रतिकर्षिक (वि०) संयोजन युक्त। (वीरो०६/४१) प्रतिकश (वि०) उद्दण्ड, अत्याचारी । प्रतिकषः (पुं०) [प्रति+कष्+अच्] नायक, प्रतिकृ ( अक० ) उद्यत होना, तैयार होना। (वीरो० ७/१७) प्रतिकृतिः (स्त्री०) मूर्ति, पुतला। (सुद० १२३ ) प्रतिकाय: (पुं०) मूर्ति, प्रतिमा, पुतला
नेता, सहायक ।
प्रतिक्रमणं
० शत्रु |
० लक्ष्य, चिह्न, निशान।
प्रतिकारः (पुं०) [प्रति+कृ+घञ् ] ०प्रतिशोध, प्रतिपाद, पुरस्कार।
०सम्मान, आदर।
० प्रतिहिंसा, बदला, प्रतिफल । ०प्रतिविधान, निवारण।
० चिकित्सा |
० विरोध |
प्रतिकारकर्मन् (नपुं०) जीर्णोद्धार करना, सुधार करना । प्रतिकारविधानं (नपुं०) निदान, चिकित्सा करना । प्रतिकारिणी (वि०) निवारणकर्त्री (जयो० १२ / ९१ ) अपलापिका - 'रजनीव जनी महीभुजः शशिनाऽसौ प्रतिकारिणी रुजः। (वीरो० ६/४०) प्रतिकितवः (पुं०) जूएं का प्रतिद्वन्द्वी । प्रतिकुंजरः (पुं०) प्रतिविरोधी हाथी ।
प्रतिकुचनमाया (स्त्री०) आलोचना करते हुए दोष छिपाना। प्रतिकूपः (पुं०) परिवार खाई, परिखा। प्रतिकूल (वि०) विरुद्ध । (जयो० १२ / ९२ ) ० विरोधी, प्रतिपक्षी
०अप्रिय, अरुचिकर, हानिकारक ।
० अशुभ, अरुचिकर, हानिकारक। ०उलटा, व्युत्क्रान्त | ०कठोर, कठिन।
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प्रतिकूलं (अव्य०) विरोधी रूप से, उलटे रूप से, विपरीत भाव से।
प्रतिकूलभावः (पुं०) विरोधी भाव (दयो० ८१ ) प्रतिक्रमणं (नपुं०) प्रतिकार प्रकट करना, दुष्टकृत्य से दूर होना, असंयम स्थान से हटना । ( भक्ति० ३७ ) ० प्राश्यचित्त ।
० अशुभ योग से निवृत्ति वृत्ते निजे दूषणमाप्यते यत्
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प्रतिक्राम्
६८६
प्रतिदानं
प्रतिक्रिया तस्य भवेत्सदेयम्। अग्रक्षणायाकरणप्रतिज्ञा, स्वनिन्दयेत्थं निगदन्त्यभिज्ञा।। (भक्ति० ३७)
भविष्य में दोषों का न करना। पापिष्ठेन दुरात्मना जडधिया माया विना लोभिना राग-द्वेषमलीमसेनमनसा श्रीधर्मभावाद् विना। दुष्कर्मार्जितमहंतामधिपते! त्वत्पादमूलेऽत्र तन्निंदापूर्वकमुज्जहानि सुपथे वर्वतिषु साम्प्रतम्।। (मुनि०१८) अतीतदोषपरिहरार्थं यत्प्रायश्चित्तं क्रियते तत्प्रतिक्रमणम्। (निय०सा०वृ० ८२)
प्रतिक्रमणं व्रतातिचारनिर्हरणम्। (मूला०वृ० ११/१६) प्रतिक्राम् (सक०) आकर्षित करना, अपनी ओर खींचना
'निर्गच्छच्च कुतोऽपि तत्पुनरितः सद्यः प्रतिक्रामयेत्।
(मुनि०१७) प्रतिक्रिया (स्त्री०) जन भावना, जनचेतना, जनता का विचार।
(हित० १) प्रतिक्षणं (अव्य०) हरपल, प्रतिसमय। (दयो० ११०) प्रतिक्षपः (पुं०) अंगरक्षक, अनुचर। प्रतिक्षुतं (नपुं०) छींक। प्रतिक्षेप (पुं०) [प्रति+शिप्+घञ्] प्राप्ति, स्वीकार। प्रतिख्याति (स्त्री०) प्रसिद्धि, विश्रुति। प्रतिगजः (पुं०) आक्रमणकारी हाथी। प्रतिगत (भू०क०कृ०) उड़ान भरना। प्रतिगमनं (नपुं०) लौटना, वापिस जाना। प्रतिगात्रं (अव्य०) प्रत्येक शरीर में। प्रतिगिरिः (पुं०) पर्वत के समक्ष, पर्वत के सामने।
छोटा पर्वत। प्रतिग्रहं (नपुं०) स्वीकार करना, साधु को पडगाहन स्वागत। प्रतिग्रहं (अव्य०) प्रत्येक घर में, घर-घर में। गेहं गेहं प्रतीति
प्रतिग्रहम् (जयो० १५/२२) प्रतिगेहं देखो ऊपर। प्रतिग्राम (अव्य०) हर एक गांव में। प्रतिघातः (पुं०) द्रव्य व्याघात, रुकावट। प्रतिघातिन् (वि०) द्रव्य व्याघात करने वाला, दान ग्रहण।
(जयो० २/५) प्रतिचरण (अव्य०) प्रत्येक सिद्धान्त में।
प्रत्येक पग पर, हर एक स्थान पर। प्रतिच्छवि (स्त्री०) मूर्ति, प्रतिमा, पुतला। (जयो० १६/४८) प्रतिच्छन्न (भू०क०कृ०) [प्रति+छद्+क्त] आच्छादित, ढका
पूर्वसंचित, एकत्रित।
०गुप्त, छिपाया हुआ। प्रतिच्छेदः (पुं०) विरोध। प्रतिजल्पः (पुं०) [प्रति+जल्प्+घञ्] उत्तर, समाधान। प्रतिजल्पकः (पुं०) [प्रति+जल्प्+कन्] सादर सहमति। प्रतिजंघा (स्त्री०) टांग का अगला भाग। प्रतिजागरः (पुं०) [प्रति जागृ+घञ्] सावधानी, जागृत रहना। प्रतिजिह्वा (स्त्री०) कोमलतालु, कलघंटी। प्रतिजीवनं (नपुं०) [प्रति+जी+ल्युट्] पुनर्जीवन, सजीवनता। प्रतिज्ञा (स्त्री०) [प्रति ज्ञा+अङ्कटाप्] व्रत, वचन, घोषणा।
जानकारी (जयो० ७/११३) प्रस्थापना-'प्राणहानावपि प्रणहानिर्न भवतुमर्हतीतियतः खलु। (दयो०१३) उक्ति, प्रकथन। ०साध्यनिर्देश। ०धर्म-धर्मिसमुदाय। ०व्याप्ति वचन।
'व्याप्तिवचनं प्रतिज्ञा अतिशेते, तद्वचनं प्रतिज्ञेव स्यात्
इत्यभिप्रायः। (सिद्धि वि० ५/१५) प्रतिज्ञात (भू०क०कृ०) [प्रति+ज्ञा+क] उद्घोषित, वचन
बद्धता, दृढ़ प्रतिज्ञ होना। (जयोवृ० १२/९०) ०दृढोक्ति, प्रकथन।
मानना, स्वीकार करना। प्रतिज्ञावती (स्त्री०) दृढ़वचनवती। (जयो०६/८५) प्रतिज्ञार्थ (वि०) साध्यधर्म और धर्मी के समुदायार्थ। प्रतिज्ञाविरोधः (पुं०) हेतु से प्रतिज्ञा का विरोध प्रतीति होना। प्रतिज्ञाहानि (स्त्री०) पक्षपरिच्युति। (जयो०१० २६/८२) प्रतितन्त्रं (अव्य०) प्रत्येक तन्त्र, सम्मति अनुसार। प्रतितन्त्रसिद्धान्तः (पुं०) एक ही पक्ष के लिए मान्य सिद्धान्त। प्रतितरः (पुं०) नाविक, मल्लाह। प्रतित्र्यहं (अव्य०) तीन दिन तक क्रमशः। प्रतिताली (स्त्री०) [प्रतिगता तालम्] कुंजी, चाबी। प्रतिदन्तशतः (पुं०) प्रतिरदाङ्क। (जयो०वृ० १८/९९) प्रतिदर्शनं (नपुं०) [प्रति+दृश ल्युट्] ०देखना, अवलोकन करना।
प्रत्यक्ष करना। प्रतिदानं (नपुं०) [प्रति+दा+ल्युट्] विनिमय, क्रय, विक्रय।
पुनरावृत्ति। ० प्रत्यर्पण, वापिस, पलटाना, अर्पण। (जयो० १२/९०)
हुआ।
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प्रतिदारं
६८७
प्रतिपत्तार
प्रतिदारं (नपुं०) [प्रति दृ+णिच्+ ल्युट] ०लड़ाई, युद्ध। प्रतिनादः (पुं०) दहाड़, चीख, चिल्लाहट। (दयो० ४७) विदारण, फाड़ना।
गूंज, प्रतिध्वनि। प्रतिदिनं (अव्य०) प्रत्येक दिवस, हर रोज।
प्रतिनारायण: (पुं०) अश्वग्रीव की पूर्व पर्याय। (वीरो०१२/१९) प्रतिदिवन् (पुं०) [प्रति दिव्+कनिन] सूर्य, दिवस, दिन। । प्रतिनाहः (पुं०) [प्रति+नह+घञ्] पताका, ध्वज, झण्डा। प्रतिदिशं (अव्य०) चारों ओर सर्वत्र, सभी दिशाओं में। प्रतिनिधिः (स्त्री०) [प्रति+नि+धा+कि] सहायक, अपना प्रतिदिश (वि०) प्रत्यवयव। (जयो० १०/४९) प्रत्येक अंग। उत्तराधिकारी। प्रतिदेशं (अव्य०) प्रत्येक देश में।
स्थानापन्न, एवजी। प्रतिदेशः (पुं०) प्रत्यवयव, प्रत्यङ्गः। (जयो० १/६२)
दूसरे के स्थान पर नियुक्त व्यक्ति। प्रतिदेह (अव्य०) प्रत्येक शरीर में।
कुबेर-प्रतिनिधिः श्रीमान् कुबेरोऽग्रणी। (वीरो० १२/५३) प्रतिदैवतं (अव्य०) प्रत्येक देव के लिए।
प्रतिमा, पुतला, चित्र। प्रतिद्वन्द्वः (पुं०) प्रतिस्पर्धी, विरोधी, प्रतिवादी, प्रतिपक्षी, शत्रु। | प्रतिनियमः (पुं०) सामान्य नियम। प्रतिद्वंद्विन् (वि०) विरोधी, प्रतिपक्षी। ..
प्रतिनिर्जित (भूक०कृ०) [प्रति+नि+जि+क्त] पराजित, ___ प्रतिकूल, शत्रुतापूर्ण।
परास्त। प्रतिद्वन्द्विन् (वि०) विरोधी, प्रतिपक्षी, प्रतिस्पर्धी। (जयो० निराकृत, निरस्त।
१३/९५) प्रतिवीर। (जयो०८/११) (जयो०८/४९) प्रतिनिर्देश (वि०) संकेत, दिशा निर्देश। प्रतिद्वारं (अव्य०) प्रत्येक दरवाजे पर। (वीरो० १३/१२) 'द्वारं | प्रतिनिर्देश्य (वि०) दुहराने वाला। द्वार प्रति आराधनाकारकम्' (जयो०७० २/१३१)
प्रतिनिर्यातनं (नपुं०) [प्रति+निर+यत+णिच+ल्युट] प्रतिशोध, प्रतिदृष्ट (भू०क०कृ०) [प्रति दृश्क्त ] दृश्यमान्, देखा हुआ, प्रतिहिंसा। दृष्टि गोचर।
प्रतिनिविष्ट (वि०) [प्रति+नि+विश्+क्त] दुराग्रही, हठी, प्रतिधाम (अव्य०) घर में, प्रत्येक गृह में-'धाम धाम प्रतीति - पक्का, जिद्दी। प्रतिधाम। (जयो० १५/३३)
प्रतिनिविष्टमूर्खः (पुं०) दुराग्रही व्यक्ति, संमूढ जन। प्रतिधावनं (नपुं०) [प्रति+धाव+ल्युट्] आक्रमण करना, धावा । प्रतिनिवर्तनं (नपुं०) [प्रति+नि वृत्+ ल्युट्] ०लौटना, वापिस बोलना।
करना। प्रतिधुरः (पुं०) दूसरे से संलग्न अश्व।
मुड़ना, पुनरागमन। प्रतिधृत (वि०) पकड़ा, गृहीत। (जयो० ९/३०)
प्रतिनिषेधिनी (वि०) विनाश करने वाली। (सुद० १२२) प्रतिध्वनि (स्त्री०) [प्रति+ध्वन्+इ] गूंज, शब्द की तीव्रता, प्रतिनिष्कास् (सक०) निकालना, तिरस्कार करना। गर्जना।
प्रतिनिष्किासते तिरस्कुर्वते। (जयो० १२/१७) प्रतिध्वस्त (भू०क०कृ०) [प्रति+ध्वंस्+क्त] खिन्न, व्याकुल, प्रतिनोदः (पुं०) [प्रति+नुद्+घञ्] पीछे ढकेलना, पीछे हटाना। ध्वंस, पतित किया, धराशायी किया।
प्रतिपक्षः (पुं०) प्रत्येक पक्ष। (सुद० ९६) अष्ठमी-चतुर्दशी प्रतिनखखक्षतः (पुं०) प्रत्येक नखक्षत। (जयो० १८/९९) ___का पक्ष। चतुर्दश्यष्ठमी चापि प्रतिपक्षमिति द्वयम्। (सुद०९६) प्रतिनगं (अव्य०) प्रत्येक पर्वत पर, प्रत्येक वृक्ष पर। 'नगं नगं | प्रतिपक्षनाशिन् (वि०) प्रत्येक पक्ष का नाशक, विरुद्ध भाव।
प्रति प्रतिनगं प्रत्येकवृक्षमभिव्याप्तं' (जयो०वृ० १४/१४) प्रतिपक्षहर (वि०) प्रत्येक पक्ष का घातक। प्रतिनन्दनं (नपुं०) [प्रति+नन्द्+ल्युट] स्वागत करना, बधाई प्रतिपक्षित (वि०) विरोध से युक्त। (जयो० ६/३१) देना, धन्यवाद करना, अभिनन्दन करना।
प्रतिपक्षिन् (वि०) विरोधी शत्रु। प्रतिनप्त (पुं०) प्रपौत्र, पौत्र का पुत्र, पड़ पोता।
प्रतिपततितिक्षितः (पुं०) भेदविज्ञान की दृष्टि स्वीकृत। 'प्रतिपदा प्रतिनव (वि०) ०युवा, नूतन, ताजा।
भेद विज्ञानदृष्टया तितिक्षितः स्वीकृतः' (जयो० २८/६८) प्रतिनागः (पुं०) अन्य गज, दूसरा हाथी। (जयो० १३/९८) । प्रतिपत्तक (वि०) उत्पन्न। (जयो० १२/४२) प्रतिनाडी (स्त्री०) उपनाड़ी, प्रशिरा।
प्रतिपत्तार (वि०) धारक। (वीरो० १५/५९)
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प्रतिपत्तिः
६८८
प्रतिपादित
प्रतिपत्तिः (स्त्री०) [प्रति+पद्+क्तिन्] उपलब्धि, प्राप्ति,
स्वीकृति ०व्युत्पत्ति (वीरो० )
सम्मानयोग्य, विश्वास योग्य। समवाक समवाप योगिभिः प्रतिपत्तिं प्रतिपत्तितिक्षितः। (जयो०वृ० २८/६८) ०लालन-पालन। (दयो० ३८) कर्तव्य निर्धारण। (जयो०१० ३/६६) स्पष्टीकरण। (समु० २/१) ज्ञप्ति, जानकारी। (जयो० ४/३४) ०प्राप्त करना। प्रत्यक्षज्ञान, अवेक्षण, चेतना। यथार्थ ज्ञान। ०दृढोक्ति।
समारंभ, उपक्रम, प्रारंभ। ०पूजनीयता का चिह्न, आदर युक्त व्यवहार। ०प्रणाली, उपाय। •बुद्धि, प्रज्ञा। ०कान लगाकर सावधानीपूर्वक उपदेश ग्रहण करना। हितरूप शिक्षा देना, अन्न-पानादि प्रदान करना। निश्चयात्मक बोध।
उन्नति, तरक्की, उच्चपद प्राप्ति। व्यश, प्रसिद्धि, ख्याति।
साहस, शक्ति, दृढ़ विश्वास।
०प्रमाण, सम्प्रत्यय। प्रतिपत्तिदक्ष (वि०) कार्य का ज्ञाता। प्रतिपत्तिपूर्वक (वि०) स्पष्टीकरण पूर्वक। (समु० २/१) प्रतिपथं (अव्य०) मार्ग के साथ-साथ, प्रतिमार्ग की ओर। प्रतिपद् (स्त्री०) [प्रति+पद्+क्विप] पद् पद् प्रतीतिः प्रतिपद्
पडिवा, प्रतिपदा (जयो० २०/१२) मार्ग, पथ, रास्ता।
आरंभ, गुरु, प्रतिपदा तिथि। (जयो० ५/४९) प्रतिपद्चन्द्र (पुं०) प्रतिपदा का चांद। प्रतिपद्तूर्यं (नपुं०) एक नगाड़ा। प्रतिपदा (स्त्री०) [प्रतिपद्+टाप्] शुक्लपक्ष का प्रथम दिन। प्रतिपद्यमान (वि०) अंगीकार करने वाला। (सुद० ११५) प्रतिपन्न (भू०क०कृ०) [प्रति+पद्+क्त] उपलब्ध, प्राप्त।
निष्पन्न, अनुष्ठित, कार्यान्वित। ०हस्तगत, आरब्ध। ०सहमत, स्वीकार किया गया।
ज्ञात, समझा हुआ। स्वीकार किया गया, सहमति प्राप्त हुआ। उत्तरित। प्रमाणित।
प्रदर्शित। प्रतिफल (पुं०) प्रत्येक समय। (मुनि० २५) प्रतिपल्ल्वः (पुं०) प्रत्येक पत्र। पल्लवं पल्लवं प्रति पत्रं पत्रं
(जयो० १८/६४) प्रतिपर्वः (०) पर्व पर्व इति प्रतिपर्व, प्रत्येक पर्व। (जयो०३/४०) प्रतिपातः (पुं०) पतन, संयम च्युत होना।
संयमात्प्रच्यवनं प्रतिपातः। (त०वृ० १/२४) प्रतिपाति (स्त्री०) अधः स्तन प्रवृत्ति। प्रतिपाद् (सक०) [प्रति+पद्] ०बतलाना, समझाना।
(सुद०१२७) उद्बोधन देना। प्रदान करना, स्वीकार करना। (दयो० ६१)
समर्पित करना। प्रतिपादं (अव्य०) प्रत्येक चरण में। प्रतिपादक (वि०) [प्रति+पद्+णिच्+ण्वुल्] प्रस्तुतकर्ता, स्वीकार
करने वाला, प्रदान करने वाला। प्रमाणित करने वाला। विचार करने वाला। निरूपण करने वाला, प्ररूपण करने वाला। उन्नत करने वाला, आगे बढ़ाने वाला।
प्रभावशाली। प्रतिपादनं (नपुं०) [प्रति+पद्+णिच्+ल्युट्] ०कथन, निरूपण।
आवृत्ति, अभ्यास। प्रदर्शन, प्रमाणन, स्थापन। ०अनुशीलन, अनुचिन्तन।
आरम्भ, प्रारंभ। प्रतिपादपं (अव्य०) प्रत्येक वृक्ष में। प्रतिपादतीय (वि०) कथनीय। (वीरो० २०/७) प्रतिपादित (भू०क०कृ०) [प्रति+पद्+णिच्+क्त] प्रस्तुत,
निरूपित, कथित। प्रदत्त, प्रदान किया गया।
स्थापित, प्रमाणित, प्रदर्शित। ०व्याख्यायित, सोदाहरण निरूपित। उक्त, व्यक्त। जन्म दिया; पैदा किया।
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प्रतिपाद्य
६८९
प्रतिबंधकः
प्रतिपाद्य (वि०) समझाया गया। (सुद० ११०)
प्रतिप्रयाणं (नपुं०) [प्रति+प्र+या+ल्युट्] प्रत्यावर्तन, विवेचित, निरूपित।
पुनरागमन, वापसी। प्रतिपाल (सक०) बचाना, संरक्षण करना, भरण-पोषण करना। प्रतिप्रश्न: (पुं०) [प्रति+प्रच्छ+नङ्] ०समाधान, उत्तर, (जयो० )
प्रतिपृच्छा। प्रतिपालः (पुं०) प्रतिपालन, संरक्षण। यद्यपि चक्र समाहृयवस्तु प्रतिप्रसवः (पुं०) [प्रति+प्र+सू+अप] प्रत्यपवाद। अपवाद पर भवति सतां प्रतिपाल इतस्तु।" (जयो०वृ० ९/८८)
अपवाद। प्रतिपालकः [प्रति+पाल्+णिच्+ण्वुल्] संरक्षक, अभिभावक।
प्रतिहारः (पुं०) [प्रति+प्र+ह+घञ्] ०मारना, जड़ना, थप्पड़ प्रतिपालन (नपुं०) [प्रति+पाल+णि ल्युट्] ०संरक्षण, बचाना।
मारना। रक्षा करना।
०बदले में प्रहार करना। ०अभ्यास करना।
प्रतिपातः (अव्य०) प्रतिदिन (सम० ३/३३) प्रतिपालित (वि०) संरक्षित (दयो० ५५) ग्रहण किया गया।
प्रतिप्लवनं (नपुं०) [प्रति+प्लु+ल्युट्] ०पीछे की ओर कूदना, समुल्लासित, वचनों से सुशोभित। हृदयसिन्धुरभूदुपलालित
पीछे को भागना। इति सदीशगवा प्रतिपालितः। (जयो० ९/६६) प्रतिपालिन् (वि०) संरक्षण देने वाला। (सुद० १/३८)
प्रतिफलः (पुं०) [प्रति+फल्+अच्] मूर्ति, प्रतिमा। प्रतिपीडनं (नपुं०) [प्रति+पीड्+णिच् ल्युट्] अत्याचार करना,
बिम्ब, प्रतिबिम्ब, छाया।
पारश्रमिक, प्रतिदान, पुरस्कार। सताना, डराना, धमकाना, भयभीत करना। प्रतिपुरुषः (पुं०) सदृश पुरुष, समान व्यक्ति, एक सा व्यक्ति।
०सम्मान, आदर। स्थापन्न, प्रतिनिधि।
प्रतिफलनं (नपुं०) [प्रति+फल्+ल्युट्] ०परछाई, प्रतिबिम्ब, प्रतिमा, मूर्ति,
छाया, प्रतिमूर्ति। प्रतिपूजनं (नपुं०) [प्रति+पूज्+ल्युट्] ०सम्मान करना, आदर
प्रतिदान, पुरस्कार, सम्मान, सत्कार, पारश्रमिक। करना।
प्रतिशोध, प्रतिघात। ० श्रद्धान्त होना, श्रद्धाञ्जलि देना।
प्रतिफुल्लक (वि०) [प्रति+फुल्ल्+ण्वुल्] पूरा खिला हुआ, ०अभिवादन, नमस्कार।
पूर्ण विकसित। प्रतिपूजा (स्त्री०) [प्रति+पूज्+अ+टाप्] ०श्रद्धाञ्जलि, नमन | प्रतिबंध (सक०) बांधना, कसना, जकड़ना, रोकना। नतभाव।
प्रतिबद्ध (भू०क०कृ०) [प्रति+बंध+क्त] ०बांधा गया, कसा गया। विशेष श्रद्धा, सम्मान भाव।
०अवरुद्ध, जोड़ा गया। प्रतिपूरणं (नपुं०) [प्रति+पूर+ल्युट्] पूरा करना, भरना।
बाधित। प्रतिपूर्वाह्न (अव्य०) प्रत्येक दोपहर में पहले।
प्रतिबद्धशय्या (स्त्री०) गृहस्थ गृह युक्त शय्या, श्रमण की प्रतिपृच्छा (स्त्री०) पुनः पूछना।
प्रतिश्रय शय्या, निर्गन्थ के लिए निषेध की गई गृहस्थ के प्रतिप्रभातं (अव्य०) प्रत्येक सुबह, प्रात:काल में।
समीप वर्ती शय्या। प्रतिप्रणामः (पुं०) [प्रति+प्र+नम्+घञ्] अभिनन्दन, नमन।
प्रतिबंधः (पुं०) [प्रति+बंध+घञ्] ०बंधन, बांधना, जकड़ना। प्रतिप्रतीकः (पुं०) प्रत्येक अवयव। प्रतीकं प्रतीकं प्रति प्रतीक
अवरोध, रुकावट, विघ्न। सर्वेष्ववेवयवेषु (जयो० १९/८) एक दूरों को किया गया
आवरण, आच्छादन, घेरा। अभिवादन।
०अनिवार्य तथा अविच्छिन्न संयोग। प्रतिपादनं (नपुं०) [प्रति+प्र+दा+ल्युट] लौटाना, पुनः वापिस
प्रतिबंधक (वि०) [प्रति+बंध+ण्वुल्] ०बांधने वाला, विरोध करना। ०वस्तु दान।
करने वाला। प्रतिप्रया (सक०) [प्रति+प्र+या] ०धारण करना।
विघ्न कारक, अवरोधक। प्रत्यावर्तन, वापसी। लौटाना। पुनरागमन। प्रतिप्रयाति-प्रतिगच्छति। (जयो० १२/६१)
प्रतिबंधकः (पुं०) शाखा, अंकुर।
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प्रतिबंधनं
६९०
प्रतिभामय
प्रतिबंधनं (नपुं०) [प्रति+वंध् ल्युट्] ०बांधना, कसना, जकड़ना। ज्ञान, विशेष जानकारी। ०कैद, बन्धन।
अनुदेश, शिक्षण। ०अवरोध, रुकावट।
तर्क, मनःशक्ति, ऊहा-पोह का विचार। प्रतिबन्धभावः (पुं०) विरोधभाव। (वीरो० २०/२५) प्रतिबोधनं (नपुं०) [प्रति+बुध+णिच् ल्युट्] जगाना, सचेत प्रतिबंधिः (स्त्री०) [प्रति+बंध+इति] ०आक्षेप, दोष।
करना। विरोध सूचक तर्क।
ज्ञान देना, शिक्षण, अनुदेश। प्रतिबन्धु (वि०) समानता युक्त। मित्र योग्य व्यक्तित्व प्रतिबोधनता (वि०) शील, व्रतादि को निर्मल करने वाला। वाला मित्र।
प्रतिबोधित (वि०) [प्रति+बुध+णिच्+क्त] ०अनुदेशित। प्रतिबल (वि०) शक्ति में समान, सदृश बल युक्त।
जागृत किया गया। ०एक दूसरे में समान शक्ति।
शिक्षित, उपदेशित। (समु० ४/१६) प्रतिबाधक (वि०) [प्रति वाध्+ण्वुल्] ०हटाने वाला, दूर | प्रतिबोधिन् (वि०) पूर्ण रूप से ग्रहण करने वाला। 'यत् करने वाला।
कथ्यते अभिधीयते तत्सर्वं यः प्रतिबुध्यते स प्रतिबोधी। रोकने वाला, अवरुद्ध करने वाला।
(जैन०ल० ७४३) प्रतिवाधनं (नपुं०) [प्रति+व+ ल्युट्] ०हटाना, दूर करना। प्रतिभा (अक०) [प्रति+भा] शोभित होना, रुचिकर होना। न रोकना, अवरुद्ध करना।
काचिदन्या प्रतिभातिभिक्षा (वीरो० ५/४) प्रतिबाहुः (पुं०) भुजा का अगला भाग, कोहनी से नीचे का | प्रतिभा (स्त्री०) [प्रति+भ+क+टाप्] ०प्रज्ञा, बुद्धि, प्रखरधी। भाग।
प्रतिभा नव-नवोल्लेखशालिनी प्रज्ञा। प्रतिबिम्बः (पुं०) प्रतिमूर्ति, परछाई।
यद्विज्ञानमुत्पद्यते सा प्रतिभा। प्रतिमा, चित्र, पुतला।
०दर्शन, दृष्टि। (दयो० १२/३६) प्रतिबिम्बभट् (वि०) प्रतिस्पर्धी, प्रतिद्वन्द्वी, प्रतिपक्षी।
प्रकाश, प्रभा। शत्रुपक्ष का योद्धा।
चातुरी। (जयो० १६/८४) प्रतिबिम्बनं (नपुं०) [प्रतिबिम्ब क्विप्+ल्युट] परछाई, प्रतिमूर्ति, बुद्धि, समझ। प्रतिमा।
०प्रतिबिम्ब, परछाई, छाया। तुलना, समानता।
प्रतिभा (अक०) प्रतिभाषित होना, प्रतिभाति प्रतिभातु। (सुद० प्रतिबिम्बित (वि०) [प्रतिबिम्ब+क्विप्+क्त] प्रतिफलित, १/१४) चमकना, (सुद० १२९)
परछाई युक्त। (जयो०वृ० १२/११६) निपपौ चषकार्पित प्रतिभात (भू०क०कृ०) [प्रति+आ+क्त] उज्ज्वल, प्रकाशयुक्त।
न नीरं जलदायाः प्रतिबिम्बितं शरीरम्। (जयो० १२/१२०) ०ज्ञान। प्रतिबुध् (अक०) जागना, सचेत होना। (जयो० २/१५६) ०अध्याहत, अवगत। प्रतिबुद्ध (भू०क०कृ०) [प्रति+बुध्+क्त] जागृत, सचेत, प्रतिभागत (वि०) बुद्धिमान्। प्रख्यात, प्रसिद्ध।
प्रतिभादः (पुं०) बुद्धिमान्-प्रतिभा ददतीति (जयो० ५/५५) ०पहचाना हुआ, देखा हुआ।
प्रतिभा (नपुं०) [प्रति+भा ल्युट्] प्रकाश, प्रभा, कान्ति, प्रतिबुद्धः (पुं०) सम्यक्त्व के विकास को प्राप्त, मिथ्यात्वाभाव वाला व्यक्ति। ०ज्ञान गुण युक्त व्यक्ति।
प्रतिभारतः (पुं०) भारतदेश। (मुनि० ३४/ ) प्रतिबुद्धजीवी (वि०) जितेन्द्रिय, संयमप्रधान व्यक्ति। प्रतिभान्वित (वि०) मेधावी, प्रज्ञावान, बुद्धिमान्, प्रतिभा प्रतिबुद्धिः (स्त्री०) जागरण, सचेत।
सम्पन्न। विरोधी अभिप्राय।
प्रतिभाप्राप्त (वि०) प्रभा प्राप्त, विकास को प्राप्त, कान्ति को प्रतिबोधः (पुं०) [प्रति+बुध+घञ्] जागरण, सचेत, प्राप्त हुआ। कर्तव्याभास। (जयो० १४/४५)
प्रतिभामय (वि०) स्फूर्तिजन्य। (जयो० ९/२४)
दीप्ति।
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प्रतिभामुख
६९१
प्रतियातना
प्रतिभामुख (वि०) साहसी, शक्तिशाली, बलवान्।
प्रतिमामुक्त (वि०) [प्रति+मुच्+क्त] प्रतिमा रहित प्रतिभावः (पुं०) अनुकूल वृत्ति।
प्रतिमावतारः (पुं०) प्रतिबिम्ब, छवि। (जयो० ६/४०) प्रतिमायाः प्रतिभावान् (वि०) बुद्धिशाली, प्रखरधी वाला।
प्रतिबिम्बस्यावतारा:। (जयो० १६/३३) प्रतिभासा (स्त्री०) [प्रति+भाष्+अ+टाप्] समाधान, उत्तर। प्रतिमामोक्षः (पुं०) प्रतिशोध, प्रतिहिंसा। प्रतिभा सम्पन्न (वि०) धीगत, बुद्धिसम्पन्न, प्रज्ञवंत। प्रतिमावलोक (नपुं०) मूर्ति दर्शन। प्रतिभासनं (नपुं०) [प्रति+भास+ल्युट्] झलक, चमक, दीप्ति, प्रतिमावान् (वि०) प्रतिमा युक्त, प्रतिज्ञा युक्त, नियम सहित। प्रभा।
(जयो०वृ० ६/९३) प्रतिभिन्न (भूक०कृ०) [प्रति+भिद्+क्त] विभक्त, विभाजित, | प्रतिमुक्त (वि०) [प्रति+मुच्+क्त] ०धारण किया हुआ, पहना प्रज्ञक।
हुआ। ०पारविद्ध।
०प्रयुक्त किया हुआ। ०सटा हुआ, जुड़ा हुआ।
कसा हुआ, बांधा हुआ, जकड़ा हुआ। प्रतिभू (अक०) समर्थ होना। प्रतिभवामि (जयो० ४/२९) ०शस्त्र सुसज्जित, हथियार युक्त। प्रतिभवेत् (मुनि० २९)
०लौटाया हुआ, वापिस किया हुआ। प्रतिभू (स्त्री०) [प्रति+भू+क्विप्] प्रतिभूति, जमानत।
० फेंका हुआ, उछाला हुआ। उत्तरदायी का प्रमाण पत्र।
प्रतिमूर्तिः (स्त्री०) प्रतिबिम्ब, प्रतिमा, पुतला, बुत। (दयो० प्रतिभूषा (स्त्री०) अलंकार, आभूषण। (समु० २/१०)
४०) (जयो०१० ३/८१) प्रतिभेदनं (नपुं०) [प्रति+भिद्+ल्युट] ०फाड़ना, विदीर्ण करना, छवि, शोभा। (जयो०७० ३/८१) खण्ड-खण्ड करना।
प्रतिमोचनं (नपुं०) [प्रति+मुच्+ल्युट] ०प्रतिशोध, प्रतिहिंसा। काटना, छिन्न करना, भेद करना।
मुक्ति, छुटकारा। निकाल लेना, पृथक् कर देना।
प्रतियत्तिमत्व (वि०) प्रतिशोध युक्त। (जयो० १/२४) विभक्त, विभाजन, भेद।
प्रतियत्नः (पुं०) [प्रति+यन्+न] ०उद्योग, चेष्टा, उद्यम, प्रतिभोगः (पुं०) [प्रति+भुज+घञ्] उपभोग, भोगना।
परिश्रम। प्रतिम (वि०) सदृश, समान, सरीखा। (समु० २/३)
•पूर्ण, सम्पूर्ण, पूरा। प्रतिमा (स्त्री०) [प्रति+मा+अङ्+टाप्] प्रतिबिम्ब, प्रतिमूर्ति, अभिलाषा, इच्छा, वाञ्छा। प्रतिरूप। (जयो०वृ० ६/४०)
विरोध। प्रतिच्छवि। (जयो० १६/४८)
प्रतियच्छ् (सक०) प्रदान करना, देना। प्रतियच्छन्तु (जयो० छाया, परछाई। कुतः पुनमें प्रतिमेति कृत्वा निश्छायतामाप १२/१११) वपुर्हितत्त्वात्। (वीरो० १२/४४)
प्रतिया (सक०) [प्रति+या] लौटना, वापिस आना। प्रतियाति आकृति, पुतला, बुत।
(जयो० १३/१८), प्रतियात् (सुद० १/३६) एक प्रतिज्ञा, व्रती श्रावक द्वारा लिया जाने वाला व्रत का प्रतिहिंसा, प्रतिशोध। नियम। 'प्रतिमा यावज्जीवं नियमस्य स्थिरीकरण की प्रतिज्ञा। बन्दी बनाना, कैद करना। (जैन०ल०७४४)
अनुग्रह। प्रतिमागत (वि०) प्रतिज्ञा शील, स्थिरीकरण युक्त।
प्रतियातनं (नपुं०) [प्रति+यत्+णिच् ल्युट] ०प्रतिशोध, प्रतिमागृहं (नपुं०) देवालय, देवघर।
प्रतिहिंसा, विशेष कष्ट। प्रतिमाजोतिः (स्त्री०) ज्योति की परछाई। ज्योति की छाया। वैरी के प्रति वैरभाव। प्रतिमानं (नपुं०) सम्मान। (जयो० ५/४९०)
प्रतियातना (स्त्री०) [प्रति+यत्-णिच्+युच्+टाप्] ०प्रतिबिम्ब, ०द्रव्य प्रमाण।
प्रतिमूर्ति, प्रतिमा, मूर्ति। प्रतिमापरिचारकः (पुं०) पुजारी, सेवक।
परस्पर में वैरभाव।
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प्रतियानं
६९२
प्रतिवसथः
17मा
प्रतियानं (नपुं०) [प्रति+या+ल्युट] लौटना, प्रत्यावर्तन, वापसी, | प्रतिरोधकः (पुं०) [प्रति+रुध्+ण्वुल] विरोधी, विपक्षी, शत्रु। पुनरागमन।
चोर, लुटेरा, तस्कर। प्रतियोगः (पुं०) [प्रति+युज्+घञ्] बनाना, योजना तैयार । प्रतिरोधनं (नपुं०) [प्रति रुध्+ ल्युट्] ०विरोधी, विपक्षी, शत्रु। करना।
चोर, लुटेरा। अन्तर्विरोध, वचनविरोध।
प्रतिरोधिन् (पुं०) [प्रति+रुध+णिनि] विरोधी, विपक्षी, शत्रु। सहयोग।
०चोर, लुटेरा, तस्कर। विष निवारक औषधि।
०रुकावट, बाधा, विघ्न। उपचार।
प्रतिलंभः (पुं०) [प्रति+लम्भ+घञ्] ०उपालम्भ, निन्दा, प्रतियोगिन (वि०) विरोधभाव युक्त। (जयो० ९/३)
अपमान। प्रतियोगिन् (वि०) [प्रति+युज घिनुण] विरोध करने वाला, ग्रहण करना, हासिल करना। प्रतीकारक, बाधक। (जयो० १२/४)
०वापिस लेना। सहयोग करने वाला। प्रतिपक्ष स्वरूप। योगिनं योगिनं प्रतिलेखकः (पुं०) पुनरीक्षक, आगमानुसार निरीक्षण करने प्रति
वाला साधु। प्रतियोगिन् (पुं०) विरोधी, विपक्षी, शत्रु।
'प्रतिलेखतीति प्रतिलेखकः,प्रवचनानुसारेण प्रतियोद्ध (पुं०) [प्रति+युध्+तुच्+घञ्] विरोधी, शत्रु प्रतिपक्षी। स्थानादिनिरीक्षकः, साधुरित्यर्थः। (जैन०ल० ७४५) प्रतिरक्षणं (नपुं०) [प्रति+र+ ल्युट्] ०रक्षा, बचाव, संधारण। लिपिकार।
०परस्पर में उपकार करना, एक दूसरे को बचाना। प्रतिलेखना (स्त्री०) क्षेत्रादि की प्ररूपणा, निरीक्षण, अवलोकन। प्रतिरराङ्कः (पुं०) प्रतिदन्तक्षत्, वृद्ध। (जयो० १८/९९)
'प्रतिलेखानं, प्रतिलेखना, प्रति प्रत्यागमानुसारेण प्रतिरंभः (पुं०) [प्रति+र+घञ्] ०कोप, रोष, क्रोध।
निरूपणमित्यर्थः' (जैन०ल० ७४५) आरम्भ, हिंसा।
प्रतिलेखा (स्त्री०) विचार करना, आराधना में हिताहित का प्रतिरवः (पुं०) [प्रति-रु+अच्] ०कलह, झगड़ा।
ध्यान रखना। 'आराधनानिर्विघ्नसिद्ध्यर्थ देवतोपदेष्टांगगूंज, प्रतिध्वनि।
निमित्तादिगगवेषणम्। (भ०आ०टी०६८) प्रतिरूपकः (पुं०) सोने चांदी में धोखा देना, कृत्रिम हिरण्यादि । प्रतिलोमः (पुं०) अनभिप्रेत, अभीष्टता का अभाव। लोमं लोमं करण।
प्रति लोम-प्रतिक्षण (जयो० २८/४३) वञ्चनापूर्ण व्यवहार।
प्रतिलोम-विचारः (पुं०) अनभिप्रेत विचार। (जयो० २८/४३) प्रतिरूपकव्यवहारः (पुं०) मेल-सम्मेल का व्यापार, मिलावटी प्रतिलोक (सक०) देखना, अवलोकन करना, ध्यान देना। वस्तु का व्यापार।
(मुनि० १३) ०ब्याजीकरण, धोखाधड़ी। 'कृत्रिमहिरण्यादिकरणं प्रतिरूपक | प्रतिवचनं (नपुं०) [प्रति+व+ल्युट] पुनरुक्त, प्रतिवाद, उत्तम, व्यवहारः' (त०व० ७/२१)
समाधान। प्रतिरुद्ध (भू०क०कृ०) [प्रति+रुध्+क्त] अवरुद्ध, वाधित, प्रतिवचस् (नपुं०) उत्तर, समाधान। व्यवधान युक्त।
प्रतिवद् (सक०) उत्तर देना, समाधान करना। (समु० ३/५) अन्तरित, रुका हुआ।
प्रतिवर्तिनि (स्त्री०) विद्यमाना। (जयो० १३/५७) ०क्षतियुक्त, खण्डित।
प्रतिवदत् (वि०) अनुसरण करने वाला। (जयो० १२/१०८) वेष्टित, घेरा युक्त।
प्रतिवर्जनं (नपुं०) छोड़ना, त्यागना। (समु० ३/४) प्रतिरोधः (पुं०) [प्रति+रुध्+घञ्] विरोध, प्रतिहिंसा, प्रतिशोध। प्रतिवर्तनं (नपुं०) [प्रति• वृत्+ ल्युट्] लौटाना, वापिस करना। विघ्न, बाधा, अवरोध। (जयो० ९/७५)
__०आना। (जयो० २७/५०) ०रुकावट, अटकाव, शत्रु, प्रतिपक्षी।
प्रतिवषित (वि.) बरसाए गए। (जयो०वृ० १२/१३३) छिपाना, रोकना।
प्रतिवसथः (पुं०) [प्रति+वस्+अथच्] ०ग्राम, गांव। अपहरण करना, चोरी, ढकैती।
उपनगर।
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प्रतिव
६९३
प्रतिश्रुत्
प्रतिवह (सक०) ले जाना, नेतृत्व करना। भैक्ष्यस्यापि विशुद्धये । प्रतिवेष्टित (भू०क०कृ०) [प्रति वेष्ट+क्त] पीछे की ओर प्रतिवहेत् बुद्धिं भवादुन्मनाः। (मुनि० ३)
मुड़ा हुआ। प्रतिवहनं (नपुं०) [प्रति+व+ ल्युट्] वापिस ले जाना, नेतृत्व | प्रतिव्यूढ (भू०क०कृ०) [प्रति+वि+ऊह+क्त] संग्रामरचना, करना।
युद्ध में परास्त। प्रतिवाक्यः (पुं०) प्रतिध्वनि। (जयो० ५/३५)
प्रतिव्यूहः (पुं०) [प्रति+वि+ऊ घञ्] युद्ध रचना, युद्ध में प्रतिवादः (पुं०) [प्रति+वद्+घञ्] समाधान, उत्तर।
नाकाबंदी, शत्रु को घेरने की प्रक्रिया। ___०अस्वीकृति, इंकार करना।
०समुच्चय, संग्रह। प्रतिवादलोप (वि०) इंकार करने वाला। (वीरो० १४/५२)
प्रतिशब्दायित (वि०) प्रतिध्वनि युक्त। (जयो० १२/४९) प्रतिवादिन् (पुं०) [प्रति+वद्णिनि] विरोधी, प्रतिपक्षी, विपक्षी।
प्रतिशमः (पुं०) [प्रति+शम्+घञ्] विश्राम, विराम। __०बोलने वाला। (समु०४/१) (जयो० ३/१२)
__उपशमन, शान्त। प्रतिवारः (पुं) [प्रतिवृ+घञ्] दूर रखना, अलग-थलग करना।
प्रतिशयनं (नपुं०) [प्रति+शी+ल्युट] प्रदर्शन करना, धरना देना।
प्रतिशयित (वि०) [प्रति+शी+क्त] अभीष्ट इच्छा के लिए प्रतिवारणं (नपुं०) [प्रति+वृ+ल्युट्] निवारण, दूर करना।
धरना देने वाला। प्रतिवारिडिम्बः (पुं०) जल में अवस्थित। (सुद० १११)
प्रतिशापः (पुं०) [प्रति+शप्+घञ्] शाप के बदले शाप। प्रतिवार्ता (स्त्री०) सूचना, संदेश, प्रसारण, प्रचार, संवाद,
प्रतिशासनं (नपुं०) [प्रति+शास्+ल्युट्] ०आदेश देना, दूत समाचार।
भेजना, संदेश देना, आज्ञा देना, इंगित करना। वार्तालाप।
विरोधी आदेश, अधिकृत वचन। प्रतिवासिन् (वि.) [प्रति+वस्+णिनि] निकटवर्ती, पड़ौसी,
वापस बुलाना। समीपस्थ रहने वाला।
प्रतिशिष्ट (भू०क०कृ०) [प्रति+शास्+क्त] ०आदिष्ट, प्रेषित। प्रतिविघातः (पुं०) [प्रति वि+ह्र+घञ्] संहार, बदला लेना।
विसर्जित किया हुआ, भेजा गया। ०आपस में भिड़ना।
०अस्वीकृत किया हुआ। प्रतिविध (अक०) विरोध करना।
विख्यात, प्रसिद्ध। प्रतिविधानं (नपुं०) [प्रति+वि+धा+ल्युट] प्रतिकार करना, प्रतिश्या (स्त्री०) [प्रति+श्यै+क+टाप्] सर्दी, जुकाम। विरोध करना, विरुद्ध कार्य करना।
प्रतिश्रयः (पुं०) [प्रति+श्रि+अच्] आश्रम, आराम गृह। ०व्यवस्था, क्रम।
शरणस्थल, विश्राम गृह। स्थापन्न, सहकारी संस्कार।
घर, आवास, निवासस्थल। प्रतिविधातुं (तुमुन्) विरोध करने के लिए। (समु०७/२२)
सभा, परिषद-स्थान। प्रतिविधायि (वि०) [प्रति+विधा+कि] प्रतिशोध, प्रतिहिंसा, प्रतिज्ञा। प्रतिघात।
सहायता। उपचार, निदान, चिकित्सा।
प्रतिश्रवः (पुं०) [प्रति+श्रु+अप्] ०स्वीकृति, सहमति। प्रतिक्रिया के उपाय।
प्रतिज्ञा, नियम। प्रतिविशिष्ट (वि०) [प्रति+वि+शास्+क्त] अत्यन्त श्रेष्ठ।
गूंज, ध्वनि। प्रतिवीथि (स्त्री०) प्रत्येक पथ-वीथिं विथिं प्रति प्रतिवीथि।
प्रतिश्रवणं (नपुं०) [प्रति+श्रु+ल्युट] ०ध्यानपूर्वक श्रवण करना। प्रतिवेशिन् (वि.) [प्रतिवेश्+इनि] पड़ौसी, पड़ोस में रहने वाला।
०वचन देना, स्वीकृति देना। प्रतिवेशदानं (नपुं०) सभी दान, चारों प्रकार के दान।
प्रतिज्ञा वचन। (वीरो० १३/१०)
साधु वचन। प्रतिवेश्यः (पुं०) [प्रति विश्+ण्यत्] पड़ौसी, निकटवर्ती,
०साधु की क्रिया का दोष।
प्रतिश्रुत् (स्त्री०) [प्रति श्रु+क्विप्] प्रतिज्ञा। समीपस्थ।
गूंज, प्रतिध्वनि।
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प्रतिश्रुत
६९४
प्रतिष्ठित
प्रतिश्रुत (भू०क०कृ०) [प्रति+श्रुत्+क्त] ०वचनबद्ध, सहमत। प्रतिषिद्ध (भू०क०कृ०) [प्रति+सिध्+क्त] वर्जित, निषिद्ध,
अस्वीकृत।
०खण्डित, प्रत्युक्त। प्रतिषेधः (पुं०) [प्रति+सिध्+घञ्] ०असत् अंश का परित्याग
प्रतिषेधोऽसदंशः। दूर रखना, अलग करना।
निकाल देना। मुकरना, अस्वीकृति। निषेध करना।
विरुद्ध कथन। प्रतिषेधक (वि.) [प्रति+सिध्+ण्वुल] निषेध करने वाला,
हटाने वाला।
रोकने वाला, मना करने वाला। प्रतिषेधकः (पुं०) निवारक, विघ्नकारक। प्रतिषेधनं (नपुं०) [प्रति+सिध्+ल्युट्] ०दूर रखना, अलग
करना। निवारण करना, रोकना। निषेध करना।
०अस्वीकृत, मना करना। प्रतिषेवक (वि०) ज्ञान, तपादि का आश्रय वाला। प्रतिषेवणा (स्त्री०) अकल्पना का आचरण। प्रतिष्कः (पुं०) [प्रति+स्कंद+ड] ०दूत, संदेशवाहक।
गुप्तचर, जासूस। प्रतिष्कशः (पुं०) [प्रति+कश्+अच्] ०दूत, संदेशवाहक।
गुप्तचर, जासूस।
०हंटर, चाबूक। प्रतिष्कषः (पुं०) [प्रति+कष्+अच्] ०चाबुक, हंटर, चमड़े
का कोड़ा। प्रतिष्टंभः (पुं०) [प्रति+स्तम्भ+घञ्] विरोध, अवरोध,
रुकावट।
विघ्न, बाधा, मुकाबला। प्रतिष्ठा (स्त्री०) [प्रति स्था+अ+टाप्] ०इज्जत, (समु०१/८) ०ख्याति, यश, कीर्ति, प्रसिद्धि।
पद, पदवी, स्थान (जयो० २/५९) 'परामुत्कृष्टां पदवीञ्च व्रजेत्' (जयो० २/५९) 'पदं प्रतिष्ठा बबन्ध। (जयो०वृ०१/४५) रहना, स्थित होना, ठहरना।
अवस्था, स्थिति। (जयो० २/३१) ०आवास स्थान, घर, जन्मभूमि। ०न्यास, स्थापना।
दृढ़ता, धीरता, स्थिरता, दृढ़ाधार, स्थैर्य। ०पाया, टेक, सहारा। कीर्तिभाजन, विश्रुत अलंकार। उच्चपद, प्रमुखता, उच्च अधिकार। संस्थापन, प्रतिष्ठापन। निष्पत्ति, प्राप्ति।
शान्ति, विश्राम, विश्रान्ति। ०आधार, आश्रय। किसी प्रतिमा की स्थापना। ०प्रतिष्ठापन समिति। ०धारणा ज्ञान। 'प्रतिष्ठन्ति विनाशेन विना अस्या अर्था इति प्रतिष्ठा'
(धव० १३/२४३) प्रतिष्ठाचार्यः (पुं०) वास्तुशास्त्रादि का वेत्ता।
व्याजक।
विधि-विधान वेत्ता। प्रतिष्ठान (नपुं०) [प्रति स्था+ल्युट्] ०अवस्था,
आधार, नींव।
स्थिति, ठिकाना। प्रतिष्ठापक (वि०) प्रतिष्ठा कराने वाला। प्रतिष्ठापनः (पुं०) समिति विशेष। (वीरो० ६/३७) प्रतिष्ठापनशुद्धिः (स्त्री०) मल-मूत्र आदि में त्याग भाव। प्रतिष्ठापनसमितिः (स्त्री०) उच्चार-प्रस्रवणसमिति,
उत्सर्गसमिति, मल, मूत्रादि के विसर्जन पर प्राणिपीडा परिहारक भावना। विष्ठादिप्रविलोक्य विस्मितमितः साधो त्वया भो! यथा त्वत्तुल्या अपरेऽपि सन्ति मनुजास्तेनैव यान्तः पथा। इत्यात्मीयमलोत्करं च भवतैकान्ते तथा त्यज्यतां। कस्मै जनमभृतेऽप्युपद्रवकरं न स्यात् प्रभुज्यतां।।
(मुनि०पृ०१३) प्रतिष्ठाप्रदा (वि०) वीक्षा कारिणी, विधि प्रदान करने वाली।
(जयो० २३/४) प्रतिष्ठाप्रदायिनी (वि०) आदररदा, प्रतिष्ठा देने वाली।
(जयो०वृ० २०/२६) प्रतिष्ठित (भू०क०कृ०) [प्रति स्था+क्त] ०मर्यादित।
०संस्थापित, अभिमंत्रित।
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प्रतिष्ठितिः
६९५
प्रतिसेवा
विख्यात, प्रसिद्ध (जयो० २/१०५) कल्प्यतां भविषु | प्रतिसमाधानं (नपुं०) [प्रति सम्+आ+धा+ल्युट्] ०समाधान, भावनोच्छ्रिति स्तावतैव हि पथः प्रतिष्ठितः। (जयो० २/१०५) उपचार, निदान। स्थगित किया गया।
चिकित्सा। उपाय। ०अवस्थित, रखा गया।
प्रतिसमासनं (नपुं०) [प्रति+सम्+आ+अस्+ल्युट्] सामना होना, प्रतिष्ठितिः (स्त्री०) स्थापना (जयो० ३/८)
०एक सा होना, जोड़ी युक्त। मर्यादा। (जयो०१० २/१०५)
मुकाबला करना, विरोध करना, टक्कर लेना। प्रतिसंविद् (स्त्री०) [प्रति सम्+विद्+क्विप्] यथार्थ ज्ञान, | प्रतिसरः (पुं०) [प्रति+स+अच्] ०कलाई। ___ वस्तु स्थिति का ज्ञान।
०अनुचर, भृत्य, सेवक। प्रतिसंहारः (पुं०) [प्रति+सम्+ह+घञ्] ०पीछे ले जाना, ०करकंकण। वापिस हटाना।
प्रतिसम्मति (स्त्री०) समर्थक। (जयो० २३/४४) अल्पता, संपीडन।
प्रतिसर्गः (पुं०) [प्रति+सृज्+घञ्] ०गौण रचना ०धारणा शक्ति, समावेश।
पूर्ति-'त्रिवर्गप्रतिसर्गोधर्मार्थकाम-निर्माणमपिकृतम्' परित्यक्त करना, छोड़ना।
(जयो०वृ० १२/८५) प्रतिसंहृत (भू०क०कृ०) [प्रति+सम्+ह+क्त] वापिस लिया
विघटन, प्रलय। हुआ, पीछे खींचा हुआ।
प्रथम इकाई, अध्याय का प्रथम अंश, प्रारम्भिक अंश। सम्मिलित करना, अंतर्गत करना, मिलाना।
प्रतिसांधानिकः (पुं०) [प्रतिसंधान+ठक] ०भाट, चारण। ०संपीडित।
०बंदी। प्रतिसंक्रमः (पुं०) [प्रति सम्+क्रम्+घञ्] प्रति चलायमान
प्रतिसारः (पुं०) [प्रति+सृ+घञ्] समारम्भ। (जयो० १०/१) ____०परछाई, प्रतिबिम्ब, प्रतिच्छाया।
प्रतिसारणं (नपुं०) [प्रति+सृ+णिच्+ ल्युट्] घाव भरने का प्रतिसंख्या (स्त्री०) [प्रति+सम्+ख्या+अ+टाप्]
__उपक्रम, मल्हम पट्टी करना। ०चेतना, जागृति।
प्रतिसारी (स्त्री०) प्रतिसारीबुद्धि, ऋद्धि विशेष, जिससे गुरु के प्रतिसंचरः (पुं०) [प्रति+सम्+च+ट] ०पीछे मुड़ना,
किसी भी बीजपद को ग्रहण करने की ऋद्धि। अनुसरण करना।
प्रतिसीरा (स्त्री०) [प्रति+सि+न+टाप] ०परदा, कनात, चिक। प्रतिसंदेशः (पुं०) [प्रति+सम्+दिश्+घञ्] ०प्रत्युत्तर, उत्तरित
आवरण। जवनिका, ०चूंघट। करना।
प्रतिसूर्यगमनं (नपुं०) कायक्लेश की अवस्था, सूर्याभिमुख संदेश का संदेश देना।
हो कर तप करना। आदित्याभिमुखां गमनम्। प्रतिसंधानं (नपुं०) [प्रति+सम्+ध्या+ल्युट] एकत्रित होना,
(भ०आ०टी० २२२) एक स्थान पर मिलना।
प्रतिसृष्ट (भू०क०कृ०) [प्रति-सृज्+क्त] ०प्रेषित, भेजा गया। ०उपाय, उपचार।
०अग्रसर किया गया। आत्मनियंत्रण, आत्मदमन।
प्रसिद्ध, विख्यात, पुनर्रचना। प्रशंसा। समाधान, प्रत्युत्तर।
अस्वीकृत। प्रतिसंधि (स्त्री०) [प्रति+सम्+धा+कि] पुनर्मिलन।
प्रतिसेवना (स्त्री०) इन्द्रिय विषयों के प्रति अनुराग, मुनिधर्म ०संक्रमण काल।
पालन के समय में भी अनुराग। विराम, उपरम।
प्रतिसेवनाकुशीलः (पुं०) इन्द्रियों के विषयों में आसक्ति, प्रतिसत्ता (स्त्री०) सत्ता युक्त।
अनासक्त होकर भी उत्तरगुणों की विराधना। प्रतिसमर्थ (वि०) समर्थन करने वाला। 'प्रतिसमर्थयता,
प्रतिसेवनानुमतिः (स्त्री०) किए गए पाप की प्रशंसा करना। निजलक्षणामितिनिशम्य स बुद्धि विचक्षणः।
प्रतिसेवा (स्त्री०) सेवा के प्रति सेवा। (समु० १/३६)
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प्रतिसेवित
६९६
प्रतीत
प्रतिसेवित (वि०) पांचों इन्द्रियों का उपयोग।
प्रतिहित (भू०क०कृ०) [प्रति+धा+क्त] साथ जड़ा गया, साथ प्रतिस्नात (भू०क०कृ०) [प्रति+स्ना+क्त] स्नान किया हुआ। सटा दिया गया। प्रतिस्नेहः (पुं०) परस्पर स्नेहभाव।
प्रतीक (वि०) [प्रति+कन्] की ओर मुड़ा हुआ। प्रतिस्पंदनं (नपुं०) हृदय का कम्पन।
विपर्यस्त, उलटा। प्रतिस्पर्धिन् (वि०) प्रतिद्वन्द्विता युक्त। (जयो०८/६१)
_ विरुद्ध, प्रतिकूल, विपरीत। प्रतिस्वनः (पुं०) प्रतिध्वनि, गूंज।
प्रतीकः (पुं०) अवयव, अङ्ग। अपाणकैः प्राणभृतां प्रतीकैरमानि प्रतिहत (भू०क०कृ०) [प्रति+ह्र+क्त] ०पछाड़ा हुआ, मारा चाजिः प्रतता, सतीकैः (जयो ८/३७) हुआ। हनन किया हुआ। विघात किया गया।
प्रतीकं (नपुं०) प्रतिमा, प्रतिमूर्ति। ०पीछे खदेड़ा हुआ।
चिह्न। विरोध किया गया, अवरुद्ध।
०मुंह, चेहरा। प्रेषित।
प्रतीकारः (पुं०) विरुद्ध, प्रतिकूल, विपरीत। घृणित, निन्दनीय।
निराकरण। (दयो० ८८) ग्रहण नहीं किए जाने योग्य।
प्रतीक्ष (अक०) प्रतीक्षा करना, इंतजार करना। (सुद० ९४) प्रतिहतमति (वि०) घृणा करने वाली बुद्धि।
प्रतीक्षाञ्चके (जयो०१०/८) प्रतिहति (स्त्री०) [प्रति+हन्+क्तिन्] प्रपञ्चवृत्ति छल कपट | प्रतीक्षणं (नपुं०) [प्रति ईक्ष् ल्युट्] ०इंतजार करना। भाव। (जयो० २५/१५)
अपेक्षा, आशा। उलटकर मारा गया, पछाड़ा गया, पलटा गया।
०ख्याल, विचार, ध्यान। ०परावर्त।
प्रतीक्षा (स्त्री०) [प्रति+ईश्+अङ्ग+टाप] ०अपेक्षा, आशा। ०भग्नाशा।
०ख्याल, विचार, ध्यान। क्रोध।
०इंतजार, बाट जोहना। उम्मीद नहीं। ०क्षमादि का अभाव।
प्रतीक्षित (भू०क०कृ०) [प्रति+अस+क्त] अपेक्षा की गई। प्रतिहननं (नपुं०) [प्रति हन्+ ल्युट्] ०प्रहार, ०करना, पछाड़ विचार किया गया। देना, पलटना।
प्रतीक्ष्य (संकृ०) [प्रति ईक्ष+ष्यत्] प्रतीक्षा करने योग्य। विघात करना।
विचार करने योग्य। ०समारम्भ करना।
० श्रद्धेय, आदरणीय। ०हनन करना।
अनुसरणी, प्रतिपालनीय, परिपूरणीय। प्रतिहत (पुं०) [प्रति+ह+तृच्] ०पछाड़ने वाला, धकेलने । प्रतीची (स्त्री०) [प्रति+अ+क्विन्+ङीप्] पश्चिम दिशा। वाला।
प्रतीचीन (वि०) पश्चिमी। ०हरण करने वाला।
भावी, परवर्ती, अनुवर्ती। प्रतिहारः (पुं०) [प्रति+ह+घञ्] द्वारपाल, प्रतिहारी, दरवान। पश्चिमी दिशा का नियम, देशावकाशिकव्रत विशेष। (जयो० ३/२१) (सुद० ९४)
प्रतीचीय (स्त्री०) पश्चिमदिशा (जयो०१८) दरवाजा, फाटक।
प्रतीच्छ (वि०) प्रतीक्षा करने वाला। (दयो० २/२) ग्रहण ०प्रहार करना।
करने वाला। जादूगर, ऐन्द्रजालिका
प्रतीच्छक (वि०) प्रतीक्षा करने वाला। प्रतिहारकः (पुं०) [प्रति+ह+ण्वुल] ०जादूगर, ऐन्द्रजालिक। प्रतीच्छना (स्त्री०) अर्थ का निश्चय करना। प्रतिहारक (वि०) क्रीडन कारक। (जयो० २५/१५) । प्रतीच्य (वि०) [प्रतीची+यत्] पश्चिम दिशावर्ती। प्रतिहासः (पुं०) [प्रति+हस्+घञ्] परस्पर हंसी, एक दूसरे । प्रतीत (भू०क०कृ०) [प्रति+इ+क्त] ०स्वीकृत, अंगीकृत,
की हंसी, हंसने पर हंसना।
गृहीत।
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प्रतीतिः
६९७
प्रत्त
सभी
ज्ञात, जाना गया।
प्रतीपं (अव्य०) इसके विपरीत, विपरीत क्रमानुसार। के विख्यात, विश्रुत, प्रसिद्ध।
विरुद्ध, के विरोध में। दृढ़संकल्पयुक्त, विश्वास करने वाला।
प्रतीपग (वि०) विरुद्ध चलने वाला, विपरीत, प्रतिकूल, प्रसन्न, खुश, आनंदित।
विरोधी। प्रस्थित, प्रयात।
प्रतीपगतिः (स्त्री०) उलटी गति, विपरीत चाल। गुजरा हुआ, बीता हुआ।
प्रतीपगमनं (नपुं०) विपरीत गमन। प्रमाणित, संस्थापित।
प्रतीपतरणं (नपुं०) धार के विरुद्ध जाना। ०चतुर, बुद्धिमान्।
नाव चलाना। प्रतीतिः (स्त्री०) [प्रति ई+क्तिन] विश्वास. प्रसक्ति | प्रतीपपत्नी (स्त्री०) सौत, दूसरी पत्नी। प्रतीपत्न्यास्तदेव किन्न (जयो० १४/६) सुसमये भाग्यप्रतीति प्रजाः (जयो० ८/८५)
समभूत्स्विदसीमशोकचिह्नम्। (जयो० १४/३०) प्रति इति-गमन होना। (जयो०वृ० १४/६)
प्रतीपवचनं (नपुं०) ०खण्डन। ०परिज्ञान, ज्ञान। (जयो० २७/६१) (सुद० २/२४) जनस्य
प्रतिपक्षीवचन, प्रतिकूल वाणी। नीतिः परत प्रणीतिः। समीतिरास्ते विकलप्रतीतिः।
प्रतीपवर्शिनी (स्त्री०) खण्डन। (जयो० २७/६१)
दुराग्रह पूर्व बोलने वाला।
प्रतीपविपाकिन् (वि०) विपरीत फलदायक। निश्चय, स्पष्ट ज्ञान, प्रत्यक्षज्ञान।
प्रतीम (वि०) प्रतीति करने योग्य। विरागमेकान्तया प्रतीमः यश, कीर्ति।
सिद्धौ रतः किन्तु भवान् सुपीम। (जयो० २६/७५) 'प्रतीमः आदर, सम्मान।
प्रतीतिं कुर्मः' (जयो०वृ० २६/२५) ०हर्ष, खुशी, आनन्द।
प्रतीय (वि०) पर्यटन, भ्रमण। (जयो०१/२०) प्रतीयन्तु (जयो० प्रतीतिदूती (स्त्री०) प्रेषित दूती, भेजी गई दूती। प्रति समीपं
१/२०) प्रियस्येतिप्रेषितादूती। (जयो०वृ० १५/८९)
प्रतीरं (नपुं०) [प्र.तीर्क ] तट, किनारा। प्रतीत्त (वि०) [प्रति+दा+क्त] लौटाया हुआ। वाघिस किया
प्रतीवापः (पुं०) [प्रति+वप्+घञ्] ०भस्म बनाना, धातु हुआ।
पिघलाना। प्रतीत्य (वि०) अन्य वस्तु की अपेक्षा वाला, विवक्षित।
०महामारी, छूत की बीमारी। (सम्य०८९)
प्रतिवेशः (पुं०) [प्रति विश्+ह-हस्+घञ्] द्वारपाल। प्रतीत्यसत्यं (नपुं०) अन्य वस्तु की अपेक्षा करके बोला जाने
प्रतिवेशिन् (वि०) [प्रतिवेश+इनि] प्रतिवेश वाला। वाला सत्य।
प्रतिहारता (वि०) द्वारपालपना। (वीरो० १३/९) प्रतीत्या (स्त्री०) पश्चिम दिशा। (जयो० १५/४)
प्रतीहारी (स्त्री०) [प्रतीहार+अच्+ङीष] द्वारपालिन। प्रतीन्धकः (पुं०) एक देश का नाम।
प्रतुदः (पुं०) [प्र+तुद्+क] पक्षियों की एक जाति तोता, काक प्रतीप (वि०) [प्रतिगता आपो यत्र, प्रति+अप्+अच्] प्रतिकूल, विशेष। विरुद्ध, विपरीत,
०चुभोने का उपकरण, अंकुश, भाला। विरोधी, शत्रु बैरी। (जयो० १/४६)(जयो० १/११) प्रतुष्टिः (स्त्री०) [प्र+तुष्+क्तिन्] तृप्ति, संतोष, हर्ष, खुशी। उलटा, विपरीत।
०प्रसन्न भाव। ०आनन्द। ०आशुतोष। प्रतिगामी (भक्ति० ३) ०अनुसरण शील।
प्रतोदः (पुं०) [प्र+तुद्+घञ्] ०अंकुश, भाला। चाबुक। अरुचिकर, अप्रिया
प्रतूर्ण (वि०) [प्रात्वर्+क्त] ०त्वरित, क्षिप्रगामी, शीघ्रगामी। ०हठी, दुराग्रही, अडियल। दिवस दीप।
___ ०तेज, तीव्रगति वाला, फुर्तीला। प्रतीपः (पुं०) सूर्य (सुद० २/३३)
प्रतोली (स्त्री०) [प्र+तुल्+घञ्+ङीष्] गली, नगर के मध्य प्रतीपं (नपुं०) एक अलंकार जिसमें उपमान की उपमेय से की सड़क। द्वार का ऊपरी भाग, द्वारोपरिप्राङ्गणभाग प्रतोली तुलना करते हैं।
कथ्यते। (वीरो० २/३४) उपमा से विपरीत।
प्रत्त (भू०क०कृ०) [प्र+दा+क्त] ०प्रदत्त, दिया गया।
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प्रत्न
६९८
प्रत्यदनं
वक्ता ।
प्रस्तुत किया गया। सृष्टये प्रत्तं दत्तमेव किलं। (जयो०वृ० प्रत्यक्षफल (वि०) स्पष्ट दर्शित, दृश्य फलों का रखने वाला। २/९३)
प्रत्यक्ष-वादिन् (पुं०) प्रत्यक्ष का कथन, प्रत्यक्ष प्रमाण का प्रत्न (वि०) [प्र+लप्] ०पुराना, पुरातन, प्राचीन। ०प्रथम, पुराणगत।
प्रत्यक्षविहित (वि०) स्पष्ट विधान किया हुआ, सीधा कथन परम्परागत, प्रथागत।
किया हुआ। प्रत्नपदं (नपुं०) पुराण प्रतिष्ठा, पुराण पुरुष सम्मत। 'प्रत्लानां प्रत्यक्षस्थित (वि०) सामने स्थित, चित, समझदार, साक्षास्थित। पुराणपुरुषाणां पदं प्रतिष्ठा यस्मिंस्तत्' (जयो० २)
(जयो०वृ०३/२२) प्रत्यक् (अव्य०) [प्रति अञ्च्+क्विन्] विरुद्ध दिशा में, पीछे प्रत्यक्षाभासः (पुं०) प्रत्यक्ष का आभास होना, अविशदता के की ओर।
होते हुए प्रत्यक्ष माना जाना, अकस्मात् धूम के देखने से से पश्चिम में, भीतर की ओर।
जो अग्नि का ज्ञान होता है, वह प्रत्यक्ष नहीं, किन्तु अन्तर की ओर।
प्रत्यक्षाभास है। ०पहले समय में।
प्रत्यक्षिन् (पुं०) विशद दृष्टा, साक्षात् दर्शक। प्रत्यक्ष (वि०) समक्षा (जयो० १/२३) इन्द्रिय गोचर। प्रत्यक्षोपचारविनयः (पुं०) आचार्य, उपाध्याय, गुरु जनादि ०दृष्टिगोचर।
के प्रति आदर रखना। ०उपस्थित, दृष्टिगता
प्रत्यग्र (वि०) [प्रतिगतं अग्रं श्रेष्ठं यस्य] ०नूतन, अभिनव, ०इन्द्रियग्राह्य, इन्द्रियज्ञेय।
नया, ताजा। ०स्पष्ट, विशद, साफ, सरल, व्यधान शून्य।
विशुद्ध, स्वच्छ, साफ। सुस्पष्ट, सुव्यक्त।
प्रत्यनवयस् (वि०) अल्पवयस्क, तरुण। प्रत्यक्षं (नपुं०) विशद प्रतिभास, स्पष्टाभास।
प्रत्यग्रहं (नपुं०) पडिगाहन, साधु को आहार के निमित्त साक्षात् रूप से जानना, (वीरो० २०/२१)
प्रतिवेदन। (सुद० ११९) स्वयं दृष्ट, विशद निर्भासन।
प्रत्यग्रमृष्ट (वि०) कोमलाग्रभाग। उदग्रशाखा नवपल्लवानि आत्मनियत। आत्म ज्ञान से प्रतीति होना।
__प्रत्यग्रमृष्टानि मुदा जघास। (जयो० १३/१११) ०स्वार्थ संवेदन, स्वार्थव्यवसाय।
प्रत्यंच् (वि०) [प्रति+अञ्च+क्विन्] पश्चवर्ती, अनुवर्ती, भावी। आत्मज्ञान, केवलज्ञान। ०देखें विशेष-प्रत्यक्षज्ञान।
पश्चिम दिशा का। प्रत्यक्षज्ञानं (नपुं०) विशद ज्ञान, स्पष्ट ज्ञान। (वीरो० २०/१८) ०हटाया हुआ, निवारिता स्व-पर व्यवसायात्मक ज्ञान।
प्रत्यंचक्षं (नपुं०) आन्तरिक अवयव। ०इन्द्रियानिन्द्रियानपेक्षमतीत व्यभिचारं साकारग्रहणं प्रत्यक्षम्। प्रत्यंचदक्षिणत: (अव्य०) दक्षिण-पश्चिम की ओर। (त०वा० १/१२) 'अक्ष्णेति व्याप्नोति जानातीत्यक्ष आत्मा, प्रत्यंचदृश् (स्त्री०) अन्तर्दृष्टि, आभ्यान्तर दृष्टि। तमेव प्राप्तक्षयोपशमं प्रक्षीणावरणं वा प्रतिनियतं प्रत्यक्षम्। प्रत्यंचमुख (वि०) पश्चिमाभिमुखी, विपरीत स्थिति को प्राप्त (स०सि० १/१२)
हुआ। मुंह मोड़े हुए (जयो० ७/१९) प्रत्यङ् मुखे सखे प्रत्यक्षदर्शनं (नपुं०) विशद दर्शन, स्पष्ट दर्शन।
स्यन्दे रोषो में प्रागिहोदितः। (जयो०७/१९) साक्षात् दर्शन। आत्म दृष्टि।
प्रत्यङ्मुख (वि०) देखो ऊपर। प्रत्यक्षदर्शन (वि०) अक्षि से दृश्यमान्, दृष्टिगत।
प्रत्यंचस्रोत (वि०) पश्चिम की ओर बहने वाला। प्रत्यक्षदर्शिन् (वि०) दृष्टिगत, आंखों की साक्षी, अभिप्रमाण। | प्रत्यञ्चा (स्त्री०) बाण। (जयो०वृ० १/८८) प्रत्यक्षदृष्ट (वि.) साक्षात् दर्शित। अक्षि से देखा गया। प्रत्यञ्चापरिणामः (पुं०) गुण। (वीरो० २७) प्रत्यक्षप्रमा (स्त्री०) ज्ञानेन्द्रिय से जानकारी।
प्रत्यचित् (वि०) [प्रति+अञ्च+क्त] पूजित, सम्मानित, अर्चित। प्रत्यक्षप्रमाणं (नपुं०) विशद प्रमाण, स्पष्ट प्रमाण।
प्रत्यथिन् (पुं०) शत्रु, प्रत्याशाधारी। (जयो० ८/५४) प्रत्यक्षप्रमाणं (नपुं०) ०अक्षि प्रमाण। नेत्रेन्द्रिय द्वारा दृष्ट का | प्रत्यदनं (नपुं०) [प्रति+अद्+ ल्युट्] ०भोजन करना, आहार प्रमाण। ०आत्मजन्य प्रमाण।
लेना।
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प्रत्यनीकः
६९९
प्रत्यर्थिन्
प्रत्यनीकः (पुं०) प्रत्यनीक दोष, आहार-नीहार आदि के विश्वास, श्रद्धा-प्रत्ययो न पुनः कार्यः कुलीनानामपि
समय गुरुजनों की वन्दना करना। कृतिकर्म के दोषों में स्त्रियाम्। प्रत्ययो विश्वासो न कार्यः (जयो० २/१५१) सत्तरवां दोष। आहारस्स उकाले नीहारस्सावि होइ पडिणीयं' ०संबोध, विचार, भाव, सम्मति। (जैन०ल० ७५२)
जानकारी, अनुभव, संज्ञान। प्रत्यभिज्ञा (स्त्री०) [प्रति+अभि+ज्ञा+अङ्+टाप्] जानना, ०कारण, आधार, निमित्त, साधन। पहचानना।
०प्रसिद्धि, यश, कीर्ति, ख्याति। यह वही है, इस प्रकार का ज्ञान।
पदार्थ प्रतीति, आभास प्रतीयतेऽनेनार्थ इति प्रत्ययः'प्रत्यभिज्ञा स एवायमिति ज्ञानम्' प्रत्यभिज्ञा। तदेवेदं तत्सदृशं ज्ञानकारणं घटादि (जैन०ल० ७५३) इति वा। (जैन०ल० ७५२)
विरुद्धगमक-प्रत्ययो विरुद्धगमनम्। (जयो० १/३१) प्रत्यभिज्ञात (भू०क०कृ०) पहचाना हुआ।
०व्याकरण प्रसिद्ध। प्रत्यभिज्ञानं (नपुं०) [प्रति+अभि+ज्ञा+ल्युट्] ०दर्शन और तिङत प्रत्यय सुप् आदि प्रत्यय, क्रियात्मक तिप, तस्
स्मरण के निमित्त से होने वाला संकल्पनात्मक ज्ञान। आदि प्रत्यय, संज्ञात्मक सुप् और जसादि प्रत्यय (जयो०७० २६/८९) 'दर्शन-स्मरण-कारणकं सङ्कलनं (जयो० २/५२) प्रत्यभिज्ञानं तदेवेदं तत्सदृशं तद्विलक्षणं तत्प्रतियोगीत्यादि। प्रचलन, अभ्यास। (परीक्षामुख ३/५)
शपथ, सौगन्ध उठाना। साक्षी लेना। अनुभवस्मृतिहेतुकं सङ्कलनात्मकं ज्ञानं प्रत्यभिज्ञानम्।' प्रत्यय-कषायः (पुं०) कर्म रूप बन्ध का कारण, कषाय का (न्यायदीपिका ५६)
आधार, कषाय का आश्रया क्रोध वेदनीय कर्म के उदय वस्तु का पूर्वापर काल की व्याप्ति का ज्ञान।
से जीव क्रोध रूप परिणत होता है। जानना, पहचानना।
'पच्चय-कसाओ णाम कोहवेयणीयस्स कम्मस्स उदएण प्रत्यभिज्ञानाभासः (पुं०) सदृश वस्तु में 'वह यही है' इस जीवो कोहो होदि, तम्हा तं पच्चयकसाएण कोहो'
प्रकार के ज्ञान को तथा उसी पदार्थ में यह उसके सदृश (कसाय पा०पृ० २१) है' इस प्रकार के ज्ञान को प्रत्यभिज्ञानाभास कहते हैं। प्रत्ययकारक (वि०) विश्वास पैदा करने वाला। 'सदृशे तदेवेदं तस्मिन्नेव तेन सदृशं, यमलकवदित्यादि प्रत्यय-कारिन् (वि०) विश्वास उत्पन्न करने वाला, श्रद्धाशील, प्रत्यभिज्ञानाभासः'1 (परीक्षा ६/९)
विचारवान्। प्रत्यभिभूत (भू०क०कृ०) [प्रति+अभि+भू+क्त] पराजित, | प्रत्ययक्रिया (स्त्री०) अपूर्व अधिकरण की कल्पना, पापासव जीता हुआ।
रूप क्रिया। प्रत्यभियुक्त (भू०क०कृ०) [प्रति+अभि+युज्+क्त] अभियोग प्रत्ययवत् (वि०) प्रत्ययों की तरह। ०धारणा/विचार के समान। लगाया हुआ।
___०अनुभव युक्त। ०साधन संपन्नता युक्त। प्रत्यभियोगः (पुं०) [प्रति+अभि+युज्+घञ्] अभियोक्ता के प्रत्ययवती (वि०) प्रत्ययों वाली 'ति' आदि प्रत्यय वाली। प्रति दोषारोपण करना, दोष लगाना।
(जयो०वृ० १/३१) श्रद्धेय, विश्वासी। प्रत्यभिवादः (पुं०) [प्रति+अभि+वद् णिच्+घञ्] आपस में प्रत्ययिन् (वि०) [प्रत्यय इनि] विश्वास करने वाला, श्रद्धा नमन करना, परस्पर में अभिवादन।
करने वाला। प्रत्यभिवादनं (नपुं०) परस्पर नमन, नमन करने वाले के प्रति प्रत्यर्थ (वि०) [प्रति+अर्थ+ अच्] उपयोगी, युक्तिसंगत। प्रणम्यभाव।
प्रत्यर्थक (वि०) [प्रति+अर्थ+ण्वुल] विरोधी, प्रतिपक्षी। प्रत्यभिस्कंदनं (नपुं०) [प्रति+भि+स्कन्द्+ ल्युट्] प्रत्यारोप, प्रत्यर्थिन् (वि०) [प्रति+अर्थ+णिनि] प्रतिपथी, विरोधी, शत्रुतापूर्ण। दोषारोपण।
प्रत्यर्थिन् (पुं०) शत्रु, विरोधी, विपक्षी। प्रत्ययः (पुं०) [प्रति इ. अच्] प्रतिनिवृत्तो भवति (वीरो० २/३४) प्रतिद्वन्द्वी, सम, समानता युक्त, जोड़ी का। ०धारणा, निश्चित विश्वास।
प्रतिवादी।
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प्रत्यर्पणं
७००
प्रत्यागालः
देना।
प्रत्यर्पणं (नपुं०) [प्रति+ऋ+णिच्+ल्युट्] वापिस देना, लौटा प्रत्यवेक्षित (वि०) [प्रति+अव ईक्षाक्त] निरीक्षित, अवलोकित।
प्रत्यस्नमयः (पुं०) [प्रति+अस्तम्+अय्+अच्] छिपना, प्रत्यर्पित (भू०क०कृ०) [प्रति+ऋ+णिच्+क्त] लौटाया, वापस अस्त होना। किया।
०अन्त, समाप्ति। प्रत्यवमर्शः (पुं०) [प्रति+अव+मृश्+घञ्] गम्भीर | प्रत्याक्षेपक (वि०) [प्रति+आ+क्षिप्+ण्वुल्] उपहास करने चिन्तन, मनन।
वाला, हंसी उड़ाने वाला, व्यंग्यपूर्ण व्यवहार। ०परामर्श, सीख, उचित शिक्षा।
प्रत्याख्यात (भूक०कृ०) [प्रति+आ+ख्या+क्त] ०प्रतिषिद्ध, प्रत्युपसंहार।
निषिद्ध। प्रत्यवरोधनं (नपुं०) [प्रति+अव्+रुध्+ल्युट्] विघ्न, बाधा, अस्वीकृत, मना की गई। रुकावट, अवरोध, विराम।
प्रख्यातसेवा (स्त्री०) निषिद्ध वस्तु का सेवन। प्रत्यवसानं (नपुं०) [प्रति+अव्+रु ल्युट्] ०भोजन करना, oमुनि के आहार का अन्तराय, देव या गुरु की साक्षी खाना, पान करना।
पूर्वक छोड़ी गई वस्तु का सेवन अन्तराय। प्रत्यवसित (वि०) [प्रति+अव+सी+क्त] खाया हुआ, पीया हुआ। प्रत्याख्यानं (नपुं०) [प्रति+आ+ख्या ल्युट्] ०अस्वीकार करना, प्रत्यवस्कंदः [प्रति+अव+स्कन्द्+घञ्] विशेष तर्क, प्रतिवादी ग्रहण नहीं करना। के खण्डन योग्य तर्क।
निराकरण, अवहेलना, भर्त्सना। प्रत्यवस्थानं (नपुं०) [प्रति+अव+स्था ल्युट्+] अपाकरण, ०मुकरना, मना करना। निर्दोष करना।
०परित्याग, आगन्तुक दोषों का त्याग। 'प्रत्याख्यानं ०शत्रुता, विरोध।
सर्वविरतिलक्षणम्' 'प्रत्याख्यान मुरीकरोतु अशनस्यान्तेऽन्ययथास्थिति, पूर्वस्थित।
घस्त्रावधिः। (मुनि० १०) प्रत्यवस्थापनं (पुं०) [प्रति+अव स्थाप+ल्युट्] ० युक्तिपूर्वक, प्रत्याख्यानकषायः (पुं०) सकल संयम घातक कषाय। निराकरण, दोषों का निराकरण।
प्रत्याख्यानकुशलः (पुं०) त्याग कुशल। निर्दोष करना।
प्रत्याख्यानपूर्वः (पुं०) प्रत्याख्यान का निरूपण। ०परिमित प्रत्यवहारः (पुं०) [प्रति+अव+ह+घञ्] ०वापिस खींचना, अपरिमित द्रव्यभाव का प्रत्याख्यान। ०प्रलय, विनाश, विध्वंस।
प्रत्याख्यानप्रवादः (पुं०) पूर्वगत श्रुत, समस्त प्रत्याख्यान प्रत्यवायः (पुं०) [प्रति+अव+अय्+घञ्] ०अवरोध, गतिरोध, निरूपण करने वाला ग्रंथा विराम, रुकावट।
प्रत्याख्यानावरणं (नपुं०) प्रत्याख्यान कषाय, सकल संयम ०ह्रास, न्यूनता, अल्पता।
को आच्छादित करने वाला कारण। विरुद्ध, विपरीत मार्ग।
प्रत्याख्यानी भाषा (स्त्री०) परित्याग वचन की भाषा, दोषजनक ०पाप, अपराधा
भाषा का त्याग। प्रत्यवर्तमान (वि०) परिभ्रमण करने वाला। (वीरो० १९/२७) प्रत्यागत (वि०) लौटा हुआ। (वीरो० २१/२२) प्रत्यवेक्षणं (नपुं०) [प्रति+अव ईक्ष ल्युट्] ध्यान रखना, प्रत्यागतिः (स्त्री०) [प्रति+आ+गम्+क्तिन्] लौटना, वापिस देखरेख करना।
आना। ०चक्षु-व्यापार, निरीक्षण। 'प्रत्यवेक्षणं चक्षुषो व्यापारः' | प्रत्यागमः (पुं०) [प्रति+आ+गम्+अव] लौटाना, वापस आना। (तन्वा० ७/३४) 'अत्र, प्राणिनो विद्यन्त न वा विद्यन्त प्रत्यागमनं (नपुं०) [प्रति+आ+गम्+ल्युट्] लौटना, वापस इति निजबुद्धया निजचक्षुषा पुनर्निराक्षणं प्रत्यवेक्षितमुच्यते।
आना। (त०वृ०७/३४)
प्रत्यागालः (पुं०) द्वितीय स्थिति में गमन। 'प्रथमस्थिति प्रत्यवेक्षा (स्त्री०) [प्रति+अव ईक्ष+अ+टाप्] निरीक्षण, द्रव्यस्योत्कर्षणवशात् द्वितीयस्थितौ गमनं प्रत्यागाल:' अवलोकन, दृष्टि व्यापार।
(जैन०ल० ७५६)
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प्रत्यात्मवेद्य
७०१
प्रत्युक्त
प्रत्यात्मवेद्य (वि०) आत्म ज्ञाता। (मुनि० ८४) प्रत्यादानं (नपुं०) [प्रति+आ+दा+ल्युट्] पुनर्ग्रहण, वापस लेना,
पुनः प्राप्ति। प्रत्यादिष्ट (भू०क०कृ०) [प्रति+आ+दिश्+क्त] सूचित,
ज्ञापित, नियत।
अस्वीकृत, पीछे की गई। ०तिरोहित।
चेताया हुआ, सावधान किया गया। प्रत्यादेशः (पुं०) [प्रति+आ+दिश्+घञ्] सूचना, आज्ञा, आदेश,
घोषणा। ०अस्वीकृति, मना करना। मुकरना, मेटना। निराकरण। तिरोहित करना, ग्रस्त करना।
सावधानी, चेतावनी। प्रत्यानयनं (नपुं०) [प्रति+आ+नी+ल्युट्] वापिस लाना, लौटा |
जाना।
प्रत्यापत्तिः (स्त्री०) [प्रति+आ+ पद्+क्तिन्] ०अरुचि।
विषयों से विरक्ति, विराग, वैराग्य।
वापसी। प्रत्यामुण्डा (स्त्री०) अवाय का नामान्तर, संकोच किया
जाना। 'प्रत्यर्थमामुण्ड्यते सङ्कोच्यते मीमांसितोऽर्थः अनयेति
प्रत्यामुण्डा।' (धव० १३/२४३) प्रत्यायः (पुं०) [प्रति+अय्+घञ्] चुंगी, कर। प्रत्यायक (वि०) [प्रति+आ+इ+णिच्+ण्वुल] प्रमाणित करने
वाला।
विश्वास दिलाने वाला। प्रत्यायनं (नपुं०) [प्रति+आ+इ+णिच् ल्युट्] ०घर ले जाना,
विवाह करना। प्रत्यालीढं (नपुं०) [प्रति+आ+लिह्+क्त] एक निशाना लगाने
की पद्धति, जिसमें बायें पांव को आगे की ओर करके
दाहिने पांव को पीछे की ओर रखा जाता है। प्रत्यालीढस्थानं (नपुं०) निशाता लगाने की स्थिति का स्थान। प्रत्यावर्तनं (नपुं०) [प्रति+आ+वृत् ल्युट] लौटाना, वापिस
आना। प्रत्यावज् (अक०) जाना, पहुंचना। (सुद० ४/२३) प्रत्याव्रजन (भू०) गया। प्रत्याशाधारी (पुं०) शत्रु। (जयो० ८/५४)
प्रत्याश्वस्त (भू०क०कृ०) [प्रति+आ+श्वस्+क्त] सान्त्वना
दिया हुआ, आश्वस्त किया गया। प्रत्याश्वासः (पुं०) [प्रति+आ+श्वस्+घञ्] फिर से सांस
लेना, लौट आना, चलने लगना। प्रत्याश्वासनं (नपुं०) [प्रति+आ+श्वास्णिच्+ल्युट्] ढाढस
बंधाना, सान्त्वना देना। प्रत्यासक्तिः (स्त्री०) [प्रति+आ+सद्+क्नि] ०अत्यन्त सामीप्य,
संसक्ति। (हित०६/४)
घनिष्ट संपर्क।
०सादृश्य, समानता। प्रत्यासन्न (भू०क०कृ०) [प्रति+आ+सद्+क्त] समीप, निकट,
संसक्त।
०सटा हुआ। प्रत्यासरः (पुं०) [प्रति+आ+सृ+अप्] सेना का पृष्ठ भाग,
व्यूह रचना। प्रत्याहरणं (नपुं०) [प्रति+आ+ह+ ल्युट्] वापिस होना, पुनः
ग्रहण करना। रोकना, अवरोध उत्पन्न करना।
नियंत्रण करना। प्रत्याहारः (पुं०) [प्रति+आ+ह+घञ्] ०पीछे हटाना, लौटाना,
प्रत्यावर्तन। पीछे रखना, रोकना। इन्द्रिय दमन करना। एक ही ध्वनि में कई अक्षरों का बोध। व्याकरणोक्त-संकोच व्याकरण में आदि और अन्तिम अक्षर और मध्यपाती अक्षरों को लेकर प्रत्याहार बनता है। 'अ इ उण' यहां अन्तिम 'ण' इत्संज्ञक है। आदि अक्षर 'अ' है और मध्य में इ, उ आते हैं। इस प्रकार 'अण्' प्रत्याहार में 'अ इ उ' इन तीन अक्षरों का समावेश हैं। (जयो० हि० २८/३१) 'प्रत्याहारं नाम भ्रवोर्मध्यदेशादिषु यथेच्छ मनोनयनमुपेतः' (जयो०७० २८/३१) ०इन्द्रिय निग्रह'समाकृष्येन्द्रियार्थेभ्यः साक्षं चेतः प्रशान्तधी:' यत्र यत्रेच्छया धत्ते स प्रत्याहार उच्यते। (ज्ञानार्णव ३०/१)
'प्रत्याहारस्त्विन्द्रियाणां विषयेभ्यः समाहृति' (जैन०ल० ७५७) प्रत्याहृत् (वि०) प्रत्याहारीकृत। (जयो० ११/८९) प्रत्युक्त (भू०क०कृ०) [प्रति+वच्+क्त] उत्तर दिया गया,
बदले में कहा गया, समाधान किया गया।
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प्रत्युक्तिः
७०२
प्रत्यूषस्
प्रत्युक्तिः (स्त्री०) [प्रति+वच्+क्तिन्] उत्तर, समाधान।
(सुद० ८४) प्रत्युच्चारः (पुं०) [प्रति+उद्+चर्+णिच्+घञ्] आवृत्ति,
अभ्यास।
पुनर्चिन्तन। प्रत्युच्चारणं (नपुं०) [प्रति+उद्+च+णिच्+ल्युट्] ०आवृत्ति,
दोहराना, पुनः पुनः घोकना, याद करना। प्रत्युज्जीवनं (नपुं०) [प्रति उद्+जी+ल्युट्] पुनर्जीवन होना,
फिर से जन्म लेना, फिर से जी उठना। प्रत्युत (अव्य०) इसके विपरीत, इससे भिन्ना
०अधिक। भवेत् प्रत्युत दारुणा। (सुद० १२६) ०बल्कि, जो भी, दूसरी ओर तथा तथा प्रत्युत सम्विरागं।
(सुद० १०१) प्रत्युत्क्रमः (पुं०) [प्रति+उद्+क्रम्+घञ्] ०उद्यत होना, तैयार
होना।
कार्यशीलता युक्त होना। ०प्रयाण करना, प्रस्थान करना।
०व्यवसाय का प्रारम्भ करना। प्रत्युत्क्षेपः (पुं०) पद प्रक्षेप, नृत्यांगना का पद संचालन।
०वाद्ययंत्रों की ध्वनि। प्रत्युत्तरः (पुं०) बदले में कहना, जवाब देना। (सुद० ७८) प्रत्युत्थानं (पुं०) [प्रति+उद्+स्था ल्युट्] किसी के विरुद्ध
उठना, युद्ध की तैयारी करना, अभ्यागत के स्वागत के
लिए उठना। प्रत्युत्थित (भू०क०कृ०) [प्रति+उद्+स्था+क्त] ०उद्यत, तत्पर,
तैयार, संलग्न हुआ।
फिर से उत्पन्न। प्रत्युत्पन्न (भू०क०कृ०) [प्रति+उद्+स्था+क्त] उद्यत, तत्पर,
तैयार, संलग्न। प्रत्युदाहरणं (नपुं०) [प्रति+उद्+आ+ह+ल्युट्] विपक्ष का
उदाहरण, दृष्टान्त देना।। प्रत्युद्गत (भू०क०कृ०) [प्रति उद्+गम्+क्त] ०अभ्यागत के
स्वागत हेतु उद्यता
०आगे बढ़ा हुआ। प्रत्युद्गतिः (स्त्री०) [प्रति+उद्+गम्+क्तिन्] अभ्यागत हेतु उद्यत।
आगे आना, स्वागत के लिए तैयार होना। प्रत्युद्गमनीयं (नपुं०) [प्रति उद्+गम्+अनीयर] स्वच्छ वस्त्र
का जोड़ा।
प्रत्युद्धरणं (नपुं०) [प्रति+उद्+ह+ल्युट्] पुनः प्राप्त करना,
दी गई वस्तु को वापिस लेना।
०पुनः धारण करना, ग्रहण करना। प्रत्युद्यमः (पुं०) [प्रति+उद्+यम्+अप्] प्रति संतुलन, समतोल।
प्रतिक्रिया, रोकथाम। प्रत्युद्यात (वि०) [प्रति+उद्+या+क्त] प्रतिक्रिया युक्त, आदर
हेतु बाहर आना। प्रत्युत्नमनं (नपुं०) [प्रति+उद्+नम्+ ल्युट्] उछलना, पलट
कर आना, पुनः उठना। प्रत्युपकारः (पुं०) [प्रति+उप्+कृ+घञ्] उपकार चुकाना,
प्रतिदान, सेवा करना। (जयो०३० १६/४४) प्रत्युपकारशून्य (वि०) उपकार रहित, सेवा के बदले सेवा से
रहित। 'मतङ्गजेन्द्रैर्निजदानवारि न वंशिनः प्रत्युपकार शून्याः।
(जयो० १३/१०५) प्रत्युपक्रिया (स्त्री०) प्रत्यर्पण की भावना, सेवा का प्रतिफल।
(जयो० १४/३४) प्रत्युपदेशः (पुं०) [प्रति+उप्+दिश्+घञ्] ०प्ररूपणा, निरूपण,
कथन, उपदेश। सुझाव। प्रत्युपदेशः (पुं०) [प्रति+उप्+दिश् णिच्+घञ्] ०घेराव करना,
बात मनवाने का आग्रह करना।
०कार्य करवाना। प्रत्युपदेशनं (नपुं०) [प्रति+उप्+दिश्+णिच्+ ल्युट] घेराव
करना, बात मनवाना।
कार्य की ओर उन्मुख करना। प्रत्युपपन्न (वि०) [प्रति+उप्+पद्+क्त] उद्यत, तत्पर, तैयार।
फिर से उत्पन्न। प्रत्युपमानं (नपुं०) [प्रति+उप्+मा+ल्युट] ०आदर्श, समरूपता,
तुलना। प्रत्युपलब्ध (भू०क०कृ०) [प्रति उप्+लभ्+क्त] वापिस प्राप्त
फिर से गृहीत, पुनः प्राप्त हुआ। प्रत्युपस्थानं (नपुं०) [प्रति+उप्+स्था ल्युट] समीपवर्ती स्थान। प्रत्युप्त (भू०क०कृ०) [प्रति+उप्+क्त] ०जटित, भरा हुआ,
बोया हुआ, स्थिर किया हुआ।
०दृढ़तापूर्वक टिकाया हुआ। प्रत्युवाच (वि०) समाधान दिया हुआ, पुनः समझाया गया। प्रत्युषः (पुं०) प्रभात, प्रात:काल, सुबह, भोर, तड़का। प्रत्यूषं (नपुं०) [प्रति+ऊष्+क] प्रभात, प्रात:काल, भोर। प्रत्यूषस् (नपुं०) [प्रति+ऊह्+घञ्] बाधा, विघ्न।
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प्रत्येक
७०३
प्रथा
.
..
प्रत्येक (वि०) सभी, प्रत्येक। 'एकमेकं प्रति'
प्रथमजन्मन् (नपुं०) प्रारंभिक अवस्था। प्रत्येककायः (पुं०) सभी अंग।
प्रथम-तत्त्वं (नपुं०) जीव तत्त्व। प्रत्येकजीवः (पुं०) पत्र, पुष्प, मूल, फल और स्कन्ध आदि प्रथमता (वि०) अग्रगामिता (जयो० ५/९)
के आश्रित जो एक जीव है। 'एगसरीरे एगो जीवो जेसिं प्रथम-तीर्थंकरः (पु) आदिब्रह्म, (जयो० ५/२४) नाभेय, तु ते य पत्तेया।
ऋषभदेव, जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव, आदिनाथ, प्रत्येकनामा (पुं०) एक शरीर की रचना। 'एक एक प्रति
नाभेय। प्रत्येक, यस्योदये प्रत्येक जीवो भवति पृथग्जीवो भवति प्रथमदर्शनं (नपुं०) आदि दर्शन, प्रारंभिक श्रद्धा। तत्प्रत्येकनामा' (जैन०ल० ७५७)
प्रथमदिवसः (पुं०) प्रथम दिन, पहला दिन, कार्य करने का प्रत्येकबुद्धः (पुं०) बाह्य प्रत्यय युक्त बुद्ध।
प्रारम्भिक समय। प्रत्येकबुद्धसिद्ध (वि०) सिद्धि/मुक्ति को प्राप्त हुए प्रत्येक बुद्ध। प्रथम द्रव्यं (नपुं०) जीव द्रव्य। प्रत्येकबुद्धिऋद्धि (स्त्री०) स्वयं शक्ति को प्राप्त होना, बिना प्रथमधर्मन् (नपुं०) प्रारंभिक धर्म, पहला धर्म, उत्तम क्षमाधर्म।
उपदेश ज्ञान, तपादि की अतिशयता को प्राप्त होना। प्रथमपुरु (पुं०) तीर्थंकर आदिनाथ, प्रथमादरणीय पुरुष। प्रत्येकवनस्पतिः (स्त्री०) पृथक् पृथक् वनस्पतियां। (वीरो० प्रथमपुरुषः (पुं०) अन्य पुरुष, आदिदेव तीर्थंकर ऋषभ। १९/३१)
प्रथममूलगुणं (नपुं०) मुनि का प्रथम अहिंसामहाव्रत, प्रत्येकविशेषणं (नपुं०) प्रति विशेषण। (जयो०वृ० १/६३) प्राणातिपातविरमण। प्रत्येकशरीरः (पुं०) प्रत्येक जीव, प्रत्येक अंग, पृथक्-पृथक् प्रथमयौवनं (नपुं०) किशोरावस्था, युवावस्था।
शरीर 'एकमेकं प्रति प्रत्येक, प्रत्येकं शरीरं येषां ते प्रथमवयस् (नपुं०) बचपन, शैशव। प्रत्येकशरीराः। (धव० ३/३३१)
प्रथमवार (वि०) पहली पहली बार। (दयो० २३) प्रत्येकाकं (नपुं०) जिस एक जीव का एक शरीर होता है, | प्रथमविरहः (पुं०) प्रारम्भिक वियोग।
प्रत्येक शरीर, पृथिवी आदि। 'एकमेकं प्रति प्रत्येक प्रथमसर्गः (पुं०) पहला सर्ग, काव्य का प्रथम अध्याय। पृथक्कादयः शरीरं येषां ते' (मूला० ५/१६)
(वीरो० १/१) प्रथ् (सक०) बढ़ाना, फैलाना, खोलना, विस्तृत करना, प्रथमसम्यक्त्वं (नपुं०) सम्यक्त्व प्राप्ति का समय, कर्मों की दिखलाना।
अन्तः कोडाकोडिप्रमाण स्थिति बांधने के बाद प्रथम प्रथ् (अक०) प्रकट होना, उदय होना। उद्घोषणा करना। सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है। प्रथनं (नपुं०) [प्रथ्+ ल्युट्] फैलाना, विस्तार करना, बतलाना। प्रथमसुकृतं (नपुं०) पुण्य, सेवा। प्रकाशित करना, प्रदर्शन करना।
प्रथमा (स्त्री०) प्रथमा विभक्ति, कर्ताकारक। सूचित करना।
प्रथमाकारकः (पुं०) कर्ताकारक। प्रथम (वि०) [प्रथ्+अमच्] ०पहला, आदि, आगे का (जयो० प्रथमाधिपः (पुं०) महादेव। आदिनाथ। (जयो० ७/३३) २/४५, जयो० ३/६८)
प्रथमानुयोगः (पुं०) विशिष्ट पुरुष (जयो० १९/२५) शलाका प्रमुख, मुख्य, प्रधान, श्रेष्ठ, अनुपम। (जयो० २/४५) पुरुष का चरित्र। पुराणं चरितं चाख्यानं बोधिसमाधिदम्। (सम्य०५६)
तत्त्वप्राथार्थी प्रथमानुयोगं प्रथयेत्तराम्।। (अन००० ३/९) ०प्राचीन, पुरातन, प्रथमानुयोग। (जयो०वृ० १/६) प्रथमाप्रतिमा (स्त्री०) दर्शन प्रतिमा। प्रथम पुरुष, अन्य पुरुष।
प्रथमाभिधा (स्त्री०) प्रथम भुजा, प्रथमानुयोग। (जयो० १९/२५) प्रथमं (अव्य०) पहले, प्रमथतः, सबसे पहले का, पूर्वकाल प्रथमास्थितिः (स्त्री०) अन्त:करण से नीचे की स्थिति। का, पूर्व समय में।
प्रथमोशमः (पुं०) प्रथम उपशम भाव। (सम्य० ५६) प्रथमकल्पः (पुं०) ०आदिकल्प। प्रारम्भिक विधान। प्रथा (स्त्री०) [प्रथ्+अ+टाप्] परम्परा (मुनि० १२) रीति। प्रमुख नियम, पहला विधान।
(वीरो० १८/४८) प्रथमकल्पित (वि०) पहले सोचा गया, सर्वोच्च विचार वाला। पद्धति, ख्याति, प्रसिद्धि। (जयो० २७/७)
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प्रथित
७०४
प्रदिश
प्रथित (भू०क०कृ०) [प्रथ्+क्त] प्रकाशित, उद्घोषित, | प्रदर्पः (पुं०) अहंकार, अभिमान, घमण्ड। प्रतिपादिन।
प्रदर्शः (पुं०) [प्र+दृश्+घञ्] ०दृष्टि, दर्शन। ०सेवित। (सुद० ८२)
निदेश, आज्ञा। दिखाया गया, प्रदर्शित किया गया। (सुद० १/११) युक्त प्रदर्शक (वि०) [प्र+दृश्+ण्वुल्] दिखाने वाला, प्रकट करने (जयो० ३/१०८)
वाला। विख्यात, विश्रुत सुप्रसिद्ध।
प्रदर्शनं (नपुं०) [प्र+दृश्+ल्युट्] ०दृष्टि, दर्शन, अवलोकन। प्रथिता (वि०) मीठी, मधुर। (सुद० १/२२) (जयो० ११/६०)
दिखावा, प्रदर्शनी। प्रथिमन् (पुं०) [पृथोर्भावः, प्रथु+इमनिच्] विस्तार, चौड़ाई
प्रकट होना। विशालता।
० अध्यापन, व्याख्यान, उपदेश। प्रथिवि (स्त्री०) धरती, धरा, भूमि।
०दृष्टान्त, उदाहरण। प्रथिष्ठ (वि०) [पृथु+इष्ठन्] सबसे बड़ा, सबसे चौडा, अत्यंत | प्रदर्शित (भू०क०कृ०) [प्र+दृश्+णिच् क्त] प्रकाशित, विशाल।
दिखलाया गया। प्रथीयस् (वि०) [पृथु ईयसुन्] चौड़ा, विशाल, व्यापक,
०व्याख्यायित, प्रतिपादित।
सिखाया गया, उद्घोषित किया गया। विस्तार युक्त, फैला हुआ।
प्रदलः (पुं०) [प्र+दल्+अच्] ०बाण, तीर। प्रथु (वि०) [प्रथ्+उण] व्यापक, विशाल, विस्तीर्ण, फैला हुआ। प्रथुकः (पुं०) [प्रथ् उक्] चौले, चउले।
प्रदवः (पुं०) [प्र+दु+अच्] ०जलना, ज्वाला उठना।
प्रदा (सक०) [प्र+दा] ०प्रदान करना, देना, समर्पित करना, प्रदक्षिण (वि०) दाँई ओर रखा गया, दाँई ओर घूमने वाला।
अर्पण करना। सम्मानपूर्वक, श्रद्धालु।
प्रदा (वि०) प्रदान करने वाला। (जयो० २३/१४) प्रदक्षिण: (पुं०) श्रद्धापूर्ण, सम्मानजनक।
प्रदातृ (पुं०) [प्र+दा+तृप्] ०उदार व्यक्ति, दानी। प्रदक्षिणं (अव्य०) दाईं ओर को, दाईं ओर प्रदक्षिणा की गई
प्रदातृ (वि०) देने वाला, अर्पित करने वाला। परावर्तन की एक स्थिति को।
प्रदात्री (वि०) देने वाली, समर्पित करने वाली। (समु०१/२६) ०दक्षिण दिशा की ओर।
'वाक्कामधेनुः खलशीलनेनाऽमृतप्रदात्री सुतरा मनेनाः। प्रदक्षिणा (स्त्री०) परिक्रमा, परावर्तन, गुरु, देव, गमन,
(समु० १/२६) जिनालय की परिक्रमा। (जयो० १२/७३)
प्रदानं (नपुं०) [प्र+दा+ल्युट्] ०देना, समर्पित करना, प्रस्तुत दाईं ओर से परिक्रमा करना।
करना। प्रदक्षिणीकृत् (वि०) परिक्रान्त। (जयो० १२/१७५)
शिक्षा देना, सीख देना। प्रदक्षिणीकृत्य (वि०) परीत्य, परिक्रमा करके। (जयो०७०
विद्यादान, भेंट उपहार, प्राभृत। १/१००)
प्रदानकं (नपुं०) भेंट, उपहार, पुरस्कार। प्रदग्ध (भू०क०कृ०) [प्र+दह्+क्त] भस्म किया गया, जलाया
प्रदानदक्ष (वि०) देने में कुशल। (दयो० १०) गया।
प्रदाय (नपुं०) [प्र+दा+घञ्] उपहार, भेंट, पुरस्कार, सम्मान। प्रदत्त (भू०क०कृ०) [प्र+दा+क्त] दिया गया, प्रदान किया प्रदिः (स्त्री०) उपहार, भेंट।
गया। (जयो० १२/१२४) 'तद्वैशिष्टयमिदन्तु साम्प्रतमभूदैव प्रदिग्ध (भू०क०कृ०) [प्र+दिह्+क्त] चुपड़ी हुई, मालिश प्रदत्तात्पदात्' (मुनि० १४)
युक्त, स्निग्ध युक्त, चिक्कण सहित हुई। प्रदरः (पुं०) [प्र+दृ+अप्] तोड़ना, फाड़ना।
प्रदिग्धं (नपुं०) तला हुआ। ०अस्थिभंग होना।
प्रदिश (सक०) संकेत करना, सूचित करना। दरार, छिद्र, विवर, छेद, सुराग।
प्रदिश (स्त्री०) [प्रगता दिग्भ्य, प्र+दिश्+क्विप्] .आज्ञा, तीर।
आदेश, दिशा निर्देश। प्रदर रोग, उदर पीड़ा, स्त्री जाति में होने वाली पीड़ा। संकेत, सूचना।
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प्रदिष्ट
७०५
प्रद्योतनं
प्रदिष्ट (भू.क.कृ०) [प्र+दिश्+क्त] ०संकेतित, आज्ञापित, |
| प्रदेशः (पुं०) [प्र+दिश्+घञ्] स्थान, स्थल, जगह, मण्डल आदेश दिया गया।
क्षेत्र, मैदान। आदिष्ट, निर्दिष्ट, स्थिर किया हुआ नियोजित देश, हिस्सा, भाग, प्रान्त। किया गया।
०कण्ठ तातु आदि स्थान। प्रदीप (सक०) [प्र+दीप्] प्रकाशित करना, आलोकित करना। जितने प्रदेश में परमाणु रहता है। ___ जलाना, उद्योत करना।
निरंश अवयव प्रदीपः (०) [प्रदीप णिच्+क] ०दीपक, दिया, दीवा, चिराग। सबसे सूक्ष्म अवगाह। 'सन्नहं अणोः परमाणाोरिवास्मात् प्रदीपन (वि०) जलाना, प्रकाश करना आलोकित करना।
प्रदेश स्वरूपम्। (जयो०वृ० १५/४१) प्रदीपभू (स्त्री०) दीपक स्थान, प्रकाश स्थान। (जयो०१८/६४) प्रकृष्टो देशः प्रदेशः, परमनिरुद्धो निरवयव इति यावत्। प्रदीपयुक्त (वि०) ०ह्रस्व-दीर्घ-प्लुत संज्ञा सहित।
प्रदेशबन्धः (पुं०) जीव प्रदेशों और कर्म प्रदेशों का सम्बन्ध। अनेक दीपकों सहित। (जयोवृ० १५/३५) 'प्रदीपैर्दी- प्रदेशपर्यन्तः (पुं०) सम्पूर्ण स्थान तक। (जयो०वृ० १२/१०८) पकैर्युता सन्ध्या'
प्रदेशस्थितः (पुं०) देश में स्थित। 'श्रीमङ्गलावत्यभिधप्रदेशस्थिते प्रदीपसंज्ञा (स्त्री०) हस्व-दीर्घ-प्लुत संज्ञा-'हस्व-दीर्घ- प्लुतानां पुरे श्रीकनकाभिधे सन्। क्रमशः प्रदीपसंज्ञा' (जयोवृ० १५/३५)
प्रदेशवती (वि०) अनुवेशिनी। (जयो०वृ०३/१०) प्रदीपोत्सवः (पुं०) दीपावली। वीरो० २/२७)
प्रदेशनं (नपुं०) [प्र+दिश्+ल्युट्] ०भेंट, उपहार, प्राभृत, प्रदीप्त (भू०क०कृ०) [प्र+दीप्+क्त] ०प्रज्ज्वलित, प्रकाशित। उपदेश, अनुदेश।
० देदीप्यमान, जाज्वल्यमान, प्रकाशमान, द्युतिमान, ०संकेत करना। कान्तियुक्त।
प्रदेशिनी (स्त्री०) [प्र+दिश्+णिनि+ङीप्] तर्जनी अंगुली, प्रदीप्त गेह (वि०) जलता हुआ घर।
अभिसूचक अंगुली। प्रदीप्तगेहं (नपुं०) दीपघर, दीपस्थान।
प्रदेहः (पुं०) [प्र+दिह्+घञ्] लेप करना, मालिश करना। प्रदीप्त-बह्नि (स्त्री०) प्रज्ज्वलित आग, धधकती हुई अग्नि। ०लेप, मिट्टी या तेल का घोल चढ़ाना। प्रदीप्तसूर्यः (पुं०) तेजस्वी सूर्य।
प्रदोष (वि०) [प्रकृष्टः दोषो यस्य] ०बुरा समय, भ्रष्ट। प्रदीप्त-हिरण्यं (नपुं०) देदीप्यमान सोना, चमकता हुआ स्वर्ण। प्रदोषः (पुं०) संध्याकाल, रात्रि का प्रारंभ। प्रदीप्ताग्निः (स्त्री०) द्युतिदान, सदर्चिष, तेजयुक्त अग्नि। मत्सरभाव, दुष्ट परिणाम। (जयो० २/१०३)
दोष, त्रुटि, पाप, अपराध। प्रदीप्तिः (स्त्री०) द्युति, कान्ति, प्रभा, तेज।
अव्यवस्थित स्थिति, विद्रोह, बगावत। प्रदीप्तिसम्पादनं (नपुं०) द्युतिदान, कान्तिमय, प्रभायुक्त। प्रदोषकालः (पुं०) सन्ध्याकाल, रात्रि का समारंभ। (जयो०वृ० १७/६६) दीपदान।
प्रदोषतिमिरं (नपुं०) सन्ध्याकालीन अंधकार, निशातम, प्रदुष्ट (भू०क०कृ०) [प्र+दुष्+क्त] ०दूषित, मलिन, पापमय, रजनीतिमिर। घृणित।
प्रदोषभाव: (पुं०) रात्रि समय। (जयो० १५/२१) लम्पट, स्वेच्छाचारी।
प्रदोहः (पुं०) [प्र+दुह्+घञ्] दुहना, दूध निकालना। ०भ्रष्ट, पवित्र।
प्रद्युम्नः (पुं०) प्रद्युम्नकुमार, प्रसिद्ध कामदेव, कृष्णपुत्र। प्रदूषित (भू०क०कृ०) [प्रदूष-णिच्+क्त] विकृत, विषाक्त। । प्रद्योतः (पुं०) [प्रकृष्टौ द्योतः] ०आभा, कान्ति, प्रभा, प्रकाश, ०भ्रष्ट, पतित, गिरा हुआ, हीन।
रेशमी। (वीरो० १५/२३) अपवित्र, मलिन। (दयो० ९)
०एक नृप, उज्जयिनी राजा। प्रदेयः (सं०कृ०) [प्र+दा+यत्] प्रदान करने योग, दिए जाने | प्रद्योतनं (नपुं०) [प्र+द्युत ल्युट्] ०जगमगाना, चमकना। योग्य।
भास्वरित होना। संवहन किए जाने योग्य।
०प्रकाश, आभा।
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प्रद्योतमः
७०६
प्रनष्ट
प्रद्योतमः (पुं०) दिवाकर, सूर्य, भानु।
प्रधानभूत (वि०) मुख्यभूत। (जयो० १/२) (जयो० १/३१) प्रदवः (पुं०) [प्र+द्रु+अप्] दौड़ना, पलायन।
प्रधानमन्त्रिन् (पुं०) सबसे उत्तम मंत्री, प्रथम प्रधान मंत्री प्रदावः (पुं०) [प्र+2+घञ्] पलायन, भागना, पीछे आना। नेहरु। 'नेहरुचयो जवाहरलालनेहरुपरिवार: सत्सु सज्जनेषु प्रत्यावर्तन, द्रुतगमन, तेजी से जाना।
वृहदुत्सवाय प्रधानमन्त्रित्वेन महोत्सवाय एति' (जयो०वृ० प्रद्वारः (पुं०) [प्रगतं द्वारं-प्रद्वारं] दरवाजे के सामने का भाग। १८/८४) प्रद्वार (नपुं०) ०द्वार भाग, ०द्वार का हिस्सा।
प्रधानभावशुद्धिः (स्त्री०) ज्ञान, दर्शन आदि की शुद्धि की प्रद्वेषः (पुं०) [प्र+द्विष्+घञ्] ०घृणा, अरुचि, कोप प्रधानता। इष्ट-हाट-वित्त-हरण-निमित्त: कोपः प्रद्वेषः।
प्रधानवासस् (नपुं०) मुख्य वस्त्र। द्वेष, द्वोह, ईर्ष्या।
प्रधानवृष्टि (स्त्री०) वर्षा की प्रारंभिकी, प्रारंभिक बरसात। प्रद्वेषणं (नपुं०) [प्र+द्विष्+ल्युट] घृणा, अरुचि।
प्रधावनः (पुं०) [प्र+धाव्+घञ्] ०पवन, वायु, हवा। ___ द्वेष, द्रोह, ईर्ष्या।
प्रधावनं (नपुं०) [प्र+धाव+ ल्युट्] रगड़ देना, धो देना। प्रधनं (नपुं०) [प्र+धा+क्यु] ०संग्राम, युद्ध, लड़ाई, संघर्ष। प्रधि (स्त्री०) [प्र+धा+कि] पहिए की नाभि। विनाश, विध्वंस, विघात, हानि।
कूप, कुआं ०फाड़ना, तोड़ना, चीरना।
प्रधी (स्त्री०) [प्र+धा+ङीप्] कुशाग्रबुद्धि, प्रज्ञा, तीव्रबुद्धि, प्रधमनं (नपुं०) [प्र+धम्ल्यु ट] लम्बा सांस लेना।
उत्कृष्टबुद्धि, सुप्रज्ञा। __सुंघनी, नासिका, नास्य, छींकनी।
प्रधूपित (भू०क०कृ०) [प्र+धूप+क्त] तिरस्कार किया गया। प्रधर्ष (पुं०) [प्र+धृष्+घञ्] आक्रमण, हमला।
अहंकार किया गया। ०बलात्कार।
प्रधृ (सक०) धारण करना, ग्रहण करना, अंगीकार करना। प्रधर्षणं (नपुं०) [प्र+धृष्+ल्युट्] ०आक्रमण, हमला।
एका मृदङ्ग प्रदधार वीणामत्या (वीरो० ५/७) बलात्कार, दुर्व्यवहार, अपमान।
प्रधृत (वि०) धारण किया, ग्रहण किया। (समु०७/१७) प्रधषित (भू०क०कृ०) [प्र+धृष्+णिच्+क्त] आक्रान्त, हमला | प्रधृष्ट (भू०क०कृ०) [प्र+धृष्+क्त] अहंकार किया गया, किया गया।
अभिमान किया गया। ०क्षतिग्रस्त, चोट पहुंचाया हुआ।
प्रधानं (नपुं०) [प्र+ध्यै+ल्युट्] ०परम ध्यान, उत्कृष्ट ध्यान। घमण्डी, अहंकारी।
उचित चिन्तन, समीचीन विचार। प्रधान (वि०) [प्र+धा+ल्युट्] ०मुख्य, प्रमुख, उत्तम, श्रेष्ठ, गहन विचार-विमर्श उत्कृष्ट। (दयो०८१)
प्रध्वंसः (पुं०) [प्र+ध्वंस्+घञ्] विनाश, पूर्णक्षत, विनष्ट। प्रधानं (नपुं०) मुख्य पदार्थ, महत्त्वपूर्ण वस्तु, अधिष्ठाता। प्रध्वंसाभावः (पुं०) चार प्रकारों के अभाव में एक, जिससे ०बुद्धियुक्त, परमात्मन्, क्षेत्रधी, महामात्र-'प्रधान परमात्मनि विनाश से अभाव की उत्पत्ति होती है। (जयो०वृ० २६/८७) क्षेत्रज्ञधी महामात्रेऽप्येकत्वेतृत्तमे सदा' इति वि (भक्ति०
आगामी काल से-अगली पर्याय से विशिष्ट जो कार्य है २०)
वह प्रध्वंसाभाव है। दही में दूध का अभाव प्रध्वंसाभाव है सांख्यमत द्वारा प्रतिपादित प्रकृति और पुरुष तत्त्व। 'यदुत्पत्तौ कार्यस्यावश्यं विपत्तिः सोऽस्य प्रध्वंसा भावः' (जयो०वृ० १/३१)
(जैन०ल० ७६५) ०प्रधान-आमात्य, प्रमुख मंत्री, सचिव। (जयो०वृ० १/३१) वर्तमान पर्याय का नष्ट होना। (जयो०१० २६/८७) महानुभाव, सभासद।
प्रध्वस्त (वि०) [प्र+ध्वंस्+क्त] विनष्ट किया हुआ, विघात प्रधानता (वि०) प्रधानता युक्त, प्रमुखता युक्त।
किया हुआ। प्रधानधातुः (पुं०) शरीर का मूल तत्त्व, शुक्र, वीर्य। प्रनप्त (पुं०) [प्रगतौ नप्तारं जनकतया] प्रपौत्र, पौत्र का पुत्र, प्रधानपदं (नपुं०) प्रमुख पद, उत्तम पद।
पोते का लड़का। प्रधानपुरुषः (पुं०) प्रमुख व्यक्ति, राजसत्ता का प्रमुख अधिकारी। | प्रनष्ट (भू०क०कृ०) [प्र+नश्+क्त] ०लुप्त, विनष्ट, विघात।
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प्रनायक
७०७
प्रपातनकुशील:
अदृश्य, अन्तर्धान। ०खोया हुआ, मिटा हुआ, मृत।
उन्मूलित, उच्छिन्न। प्रनायक (वि०) [प्रगतो नायको यस्मात्] जिसका नायक न |
हो, पथप्रदर्शक रहित। प्रनालः (पुं०) प्रणाली, पद्धति, परम्परा। प्रनाली (स्त्री०) पद्धति, परम्परा। प्रनिघातनं (नपुं०) [प्र+नि+ह+णिच्+ ल्युट्] वध, हत्या।
विध्वंस, विनाश। प्रनृत्त (वि०) [प्र+नृत+क्त] नाचने वाला। प्रनृत्तं (नपुं०) नृत्य, नाच। प्रपक्षः (पुं०) पंख का अंतिम छोर। प्रपञ्चः (पुं०) प्रदर्शन, प्रकटीकरण।
संकल्प (जयो०वृ० १२/५) विस्तार, फैलाव, विकास। विशद व्याख्या, विवरण। ०ढेर, प्राचुर्य, बाहुल्य। ०दर्शन, दृश्यवस्तु।
संसार, बाधा, मनश्चेष्टा। (जयो०१० ६/९०) विभाग, भेद। (सुद० १३२) प्रतारणा। (जयो० २४/८५)
माया, छल, जालसाजी, धोखाधड़ी। प्रपञ्चबुद्धि (स्त्री०) धूर्तबुद्धि, छलधी। प्रपञ्चबुद्धि (वि०) धूर्त, कपटी। ०छल-कपट वाला। प्रपञ्चयति-दिखलाना, प्रदर्शन करना, प्रसार करना। प्रपञ्चवचनं (नपुं०) विकासशील वचन।
विस्तृत वचन, प्रसार युक्त वाणी।
गम्भीरवार्ता, विचारविमर्श। प्रपञ्चवृत्तिः (स्त्री०) प्रतिहति, प्रतिहारक। (जयोवृ० २५/१५) प्रपञ्चशाखा (स्त्री०) [प्रकृष्टाः पञ्च पञ्च शाखा] अंगुलियाँ।
(जयो० २४/८५) प्रपञ्चित (भू०क०कृ०) [प्र+पञ्च्+क्त] विस्तारित, प्रसारित।
प्रदर्शित, फैलाया हुआ। विशदीकृत, व्याख्यायित।
भूल जाने वाला, भटका हुआ। प्रपठ् (अक०) पढ़ना, गंभीर अध्ययन करना। (सुद० १३५)
प्रपाठोऽस्ति मौढ्यस्य कार्यम् (वीरो० १६/१८) प्रयतनं (नपुं०) [प्र+यत्+ल्युट्] ०उड़ जाना, गिराना, अवपात।
०अवतरण, उतार।
मृत्यु, मरण, विनाश। प्रपद् (सक०) पाना, प्राप्त करना। (सुद० ) प्रपदं (नपुं०) पैर का अग्रभाग। प्रपदीन (वि०) [प्रपद+ख] तौर के अग्रभाग से सम्बद्ध। प्रपन्न (भू०क०कृ०) [प्र+पद्+क्त] ०सम्प्राप्त।
(जयो० १२/१०३) 'उचितामिति कामनां प्रपन्नौ' पहुंचने वाला, जाने वाला। आश्रय ग्रहण करने वाला, अपनाने वाला। आश्रय देने वाला, संरक्षण देने वाला। प्रार्थी, दीन, याचक। सुसज्जित, सन्निहित, उद्यत, तत्पर। ०हासिल, प्राप्त।
बेचारा, कष्टग्रस्त। प्रपन्नाडः (पुं०) [प्रपन्न+अल्+अण्] चक्रमर्द वृक्ष, चकवंड। प्रपर्ण (वि०) [प्रपतितानि पर्णानि यस्य] पत्तों रहित। प्रपर्णं (नपुं०) गिरा हुआ पत्ता, पतित पत्र। प्रपलायनं (नपुं०) [प्र+परा+अय्+ल्युट] प्रत्यावर्तन, भाग खड़ा
हुआ, पलायन कर गया। प्रपा (सक०) पाना, प्राप्त करना। (समु० २/३२) प्रपा (स्त्री०) [प्र+पा+अ+टाप्] प्याऊ, जलदायिनी।
पानीयशाला। (वीरो० २/१९) ०कुआं, कुण्ड।
पानी का भण्डार, जलसंधारण केंद्र। प्रपाठ (भू०) पढ़ाया। (वीरो०१६/१८) प्रपाठकः (पुं०) [प्रकृष्टः पाठोऽत्र] ०पाठ, व्याख्यान।
___०अध्याय, भाग, अंश। प्रवचन। ०स्वाध्याय। प्रपाणि (स्त्री०) [प्रकृष्टः पाणि] हस्ताग्र भाग, कौंचा। प्रपातः (पुं०) [प्र+पत्+घञ्] ०झरना, प्रवाह, जलप्रवाह।
नीचे गिरना, अवपात। आकस्मिक आक्रमण। तट, बेला। ०खड़ी चट्टान।
उत्सर्जन, प्रस्रवण, स्खलन। प्रपातनं (नपुं०) [प्र.पत्+णिच ल्युट्] गिराना, अभिसरण
क्रिया। प्रपातनकुशीलः (पुं०) अभिसरण क्रिया में दोष, त्रस जीवों
के गर्भ का विनाश।
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प्रपादिकः
७०८
प्रबाल:
प्रपादिकः (पुं०) मयूर, मोर, कलापी। प्रपानं (नपुं०) [प्र+पा+ल्युट्] पेय पदार्थ, पानी पीन। प्रपानकं (नपुं०) [प्रपान+कन्] एक प्रकार का पेय। प्रपालक (वि०) पालन करने वाला। (दयो०८८) प्रपास्थापनं (नपुं०) पेय पदार्थ। प्रपितामहः (पुं०) [प्रकर्षेण पितामहः] पड़दादा, कृष्ण,
ब्रह्मा। प्रपितृव्य (पुं०) ताऊ। प्रपीडनं (नपुं०) [प्र+पीड्+णिच् ल्युट्] ०भींचना, निचोड़ना।
रक्त स्रावावरोधक औषधि। प्रपीतृ (वि०) [प्रपा+क्त] सूजा हुआ, फूला हुआ। प्रपुनाटः (पुं०) [प्रकर्षेण पुंमांसं नाटयति-प्र+पुम्। |
नट्+णिच्+अण] चक्रमर्द नामक वृक्ष, चकवंड। प्रपुष्प (वि०) पोषित हुआ। (सम्य० ७५) प्रपूर (सक०) पूरा करना, पूर्ण करना। प्रपूरयामास।
(वीरो० १३/२५) प्रपूरणं (नपुं०) [प्र+पूर+ल्युट्] ०पूरा करना, भरना, पूर्ति करना।
०सन्निविष्ट करना।
सुई लगाना। ०संतुष्ट करना, तृप्त करना।
०संबद्ध करना। प्रपृष्ठ (वि०) विशिष्ट पीठ वाला। प्रपूर्ण (वि०) भरा हुआ, पूरित। प्रपूर्णास्थिति (स्त्री०) परिपूर्णस्थिति। भूयात्ते खलु वैभवेनं
परमानन्दप्रपूर्णास्थितिः। (मुनि० २३) प्रपूर्ति (स्त्री०) पूर्ति, पूर्णता, पूरा करना, संतुष्ट करना।
(सम्य० १२५)
'प्रवादस्य किल प्रपूर्तिः' (सुद० १/३५) प्रपौत्रः (पुं०) पड़पोता। प्रपौत्री (स्त्री०) पड़पोती। प्रफुल्ल (भू०क०कृ०) खिला हुआ, पूर्ण विकसित।
मंजरित, मुकलित।
प्रमुदित, हर्षित, उल्लसित। (वीरो० २/१२) प्रफुल्ल-कमल (वि.) खिले हुए कमल। प्रफुल्लजन (वि०) हर्षित लोग। प्रफुल्लनयन (वि०) फैले हुए नेत्र, रमणीय नेत्र, हर्षित नेत्र। प्रफुल्लपा (वि०) खिले हुए पद्म। प्रफुल्लभाव (वि०) हर्षित भाव। (दयो० ५४)
प्रफुल्ललोचन (वि०) विकास युक्त नयन, विस्तीर्ण नेत्र। प्रफुल्लवदन (वि०) हंसमुख चेहरा, प्रसन्नचित्त मुख।
अम्भोजमुखी। (जयो०० ६/१४) प्रफुल्लिः (स्त्री०) [प्र+फुल+क्तिन्] खिलना, विस्तरण।
पुष्पित होना। प्रफुल्लित (वि०) हर्षित, रोमाञ्चित, विकसित, खिला हुआ। प्रफुल्लितशरीर (वि०) समुदङ्ग, (जयो०वृ० ३/१०९) उन्नत
देह, हृष्ट-पुष्ट काय। प्रबद्ध (भू०क०कृ०) [प्र+बन्ध्+क्त] ०बंधा हुआ, कसा हुआ।
___०आबद्ध, अवरुद्ध, रोका गया। प्रबद्ध (पुं०) [प्र+बन्ध तृच्] प्रणेता, ग्रंथकार। प्रबन्धः (पुं०) [प्र+बन्ध्+घञ्] ०अभ्युपाय। (जयो०वृ० ३/८७)
०वाक्यप्रयोग। (वीरो० १९/१४) ०बन्धन, जोड़, गांठ। ०अविच्छिन्नता, सातत्य, नैरंतर्य।
साहित्यिक कृति, अनुसंधानात्मक आलेख। 'सर्वाङ्ग सुन्दरत्वेनोदितस्य प्रबन्धस्य' (वीरो० १/१६)
वाणिज्य व्यवस्था। प्रबन्धक (वि०) नियामक। (वीरो० १९/४३) प्रबन्धकल्पना (स्त्री०) तथ्यात्मक प्रस्तुति, कल्पना युक्त कृति। प्रबन्धनं (नपुं०) [प्र+बन्ध+ ल्युट्] बंधन, जोड़, गांठ, बांधना।
(जयो०वृ० १९/७६) प्रबन्धनीतिः (स्त्री०) अविच्छिन्न नीति। प्रबन्धरचना (स्त्री०) काव्य रचना (वीरो० २२/३४) प्रबन्धशास्त्र (नपुं०) काव्यशास्त्र। प्रबन्ध सेतु (पुं०) अच्छा बधा हुआ पुल। प्रबर्ह (वि०) [प्र+बह अच्] सर्वश्रेष्ठ, सर्वोत्तम। प्रबल (वि०) [प्रकृष्टं बलं यस्य] ०शक्तिसम्पन्न, बलशाली,
शूरवीर। प्रचण्ड, तीव्र, अत्यधिक, बहुत भारी। महत्त्वपूर्ण।
भयानक, विनाशकारी। प्रबलिका (स्त्री०) [प्र+बहू+ण्वुल्+टाप्] प्रहेलिका। प्रबाधनं (नपुं०) [प्र+बाध ल्युट] प्रत्याचार, प्रपीडन।
अस्वीकृति।
०दूर रखना। प्रबाल: (पुं०) [प्र+बल्+णिचि+अच्] कोंपल, किसलय
पल्लव, अंकुर।
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प्रबालफलं
७०९
प्रभातजन्मन्
मूंगा। 'बालको न भवन्तीति तेन नबालकेन तेन प्रवाले शिक्षण प्राप्त, सचेत हुआ। विद्रुमे पल्लवे च वा प्रकर्षेण बालकरूपे तस्मिन्न
प्राप्त हुआ, सूचना दिया हुआ। धरोष्ठरूपता।' (जयो०वृ० ११/७९)
प्रभञ्जनं (नपुं०) [प्र+भञ्ज ल्युट्] तोड़ना, खण्ड-खण्ड करना। प्रबाल:-जन्तु, प्राणी।
प्रभञ्जनः (पुं०) हवा, पवन, झंझावात। शिष्य।
प्रभद्रः (पुं०) निम्बतरु, नीम वृक्ष। प्रबालफलं (नपुं०) लाल चंदन की लकड़ी।
प्रभय (वि०) भय युक्त। प्रबालभस्मन् (नपुं०) मूंगे की भस्म, आयुर्वेद में प्रसिद्ध | प्रभयान्वित (वि.) बहुत कष्ट सहित, अत्यधिक कष्टपूर्ण। प्रवाल भस्म।
(जयो० २३/२) प्रबालशुक्तिः (स्त्री०) मूंगे की शीप। प्रबालकृता प्रभवः (पुं०) [प्र+भुव-अप] स्रोत, मूल उद्गम स्थान। शुक्तिर्मुक्तास्फोटाभिव्यक्तिः। (जयो०वृ० ११/६०)
०जन्म, उत्पत्ति। प्रबाहुः (पुं०) [प्रकृष्टो बाहुः प्रबाहुः] भुजा का अग्रभाग, कौंचा। नदी का उद्गमस्थान। प्रबाहुकं (अव्य०) [प्रबाहु+कप्] ऊंचाई पर।
उत्पत्ति का कारण। उसी समय।
०देना, प्रदान करना-भूरानन्दमदीय। सकला प्रचरित शान्तेः प्रबुध् (अक०) जागृत होना-प्रबोधाय (सम्य० १५५)
प्रभवं तत्। (सुद०८१) प्रबुद्ध (भू०क०कृ०) [प्र+बुध+क्त] ०जागृत, जागा हुआ।
प्रणेता, रचयिता। (सुद० २/१८) दृष्टवा प्रबुद्धेः सुख सम्पदेवं श्रुतं उत्पत्ति स्थान, जन्म स्थल। तदेतद्भवतान्मुदे वा। (सुद० २/१८) 'ब्राह्मे मूहूर्त उत्थाय' शक्ति, सामर्थ्य, शौर्य, गरिमा, प्रताप, प्रभाव। इत्यादिसूक्तमाश्रित्य सूर्योदयात् पूर्वमुत्थानं सदाचारः' प्रभवितृ (पुं०) [प्र-भू+तृच्] शासक, महाप्रभु। (जयो०वृ० १९/१)
प्रभविष्णु (वि०) [प्र+भू+ इष्णुच्] शक्तिसम्पन्न, पराक्रमी। बुद्धिमान, मतिमान, प्रज्ञावंत।
प्रभविष्णुः (पुं०) प्रभु, स्वामी। चतुर, निपुण, ज्ञानी।
प्रभा (स्त्री०) [प्र+भा+अ+टाप्] ०दीप्ति, कान्ति, प्रकाश, ज्ञाता, जानकर, भिज्ञ।
चमक। ०पूर्ण जागृत, पूर्ण विकसित, खिला हुआ।
सूर्य किरण, शरीर निर्गत प्रभा। शरीरनिर्गतरश्मिकला प्रभा। फैला हुआ, विस्तृत, विकासशील।
प्रभाकरः (पुं०) सूर्य, ०शशि, ज्वाला। कार्यान्वित होने वाला, कार्यारंभ करने वाला।
समुद्र, मीमांसक दर्शन का विचारक। प्रबोधः (पुं०) [प्र+बुध+घञ्] जागृत अवस्था, जागना, प्रभाकीटः (पुं०) जुगनू, खद्योत। जागरण।
प्रभागः (पुं०) भाग, अंश, खण्ड। चेतना।
प्रभाचन्द्र (पुं०) ०आचार्य प्रभाचन्द्र, न्यायशास्त्र के प्रसिद्ध खिलना, फैलना।
जैनाचार्य, प्रमेयकमलमार्तण्ड के रचनकार। (वीरो०१/२५, जागरण, निन्द्राशून्य अवस्था।
जयो० २२/८३) सतर्कता, सावधानी।
प्रभाचंद्रसिद्धान्तदेवः (पुं०) आचार्य प्रभाचन्द्र। (वीरो० ज्ञान, ज्ञ, समझ, मेधा, बुद्धि।
१५/४६) प्रबोधन (वि०) [प्र+बुध+णिच्+ल्युट्] जागरण, जागना। प्रभातरल (वि०) जगमगाता हुआ। प्रबोधनं (नपुं०) जागना, सचेत होना।
प्रभात (वि०) प्रातःकाल। (सुद० २/१२) ज्ञान, बुद्धि, शिक्षण, उपदेश।
प्रभातकालीनरागः (पुं०) प्रात:काल की रागिमा। (सु० ५/१) प्रबोधनी (स्त्री०) [प्रबोधन+ङीप्] देव उठनी एकादशी। प्रभातकिरणं (नपुं०) अरुणोदय की रश्मि। ___०ज्ञान युक्ता, सचेता। उपदेशिनी।
प्रभातगेहं (नपुं०) प्रकाशघर, दीपगृह। प्रबोधित (भू०क०कृ०) [प्र+बुध+णिच्+क्त] जगाया हुआ। | प्रभातजन्मन् (नपुं०) अरुणोदय।
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प्रभातजातिः
७१०
प्रभूत
प्रभातजातिः (स्त्री०) प्रात:काल की उत्पत्ति। प्रभातचरणं (नपुं०) सुबह होना। प्रभातवर्णनं (नपुं०) प्रात:काल का चित्रण। (जयो० २०/८९) प्रभातवेला (स्त्री०) उषाकालागम। (वीरो० ५/२४) ०अरुणोदय,
प्रात:काल। प्रभातोदयः (पुं०) उषाकालागम। (वीरो० ५/२४) प्रभानं (नपुं०) [प्र+भा ल्युट्] प्रकाश, कान्ति। प्रभालेपिन् (वि०) कान्तियुक्त, प्रभा विस्तारक। प्रभाभर (वि०) प्रभायुक्त, कान्ति से परिपूर्ण। (जयो० २४/२२) प्रभामण्डलं (नपुं०) यश समूह, प्रभो प्रभामण्डलमत्युदात्तं
(वीरो० १३/२१) ०प्रकाशवृत्त, ०चक्राकार प्रकाश,
०तेजपुञ्ज। प्रभावः (पुं०) [प्र+भू+घञ्] ०प्रभुशक्ति। (जयो०१० २/१२१)
०तेज। (जयो०वृ० ११८)
यश, कीर्ति, भव्य कान्ति। (जयो० १/७९) ०प्रभा, प्रकाश, दीप्ति, कान्ति, तेज, प्रताप। (जयो०वृ० १/२३)
गरिमा, महिमा। ०धाक। (जयो०१० ५/८६) सामर्थ्य, शौर्य, शक्ति, अव्यर्थता।
राजोचित शक्ति, अलौकिक शक्ति। प्रभावक (वि०) शक्ति सम्पन्न। (वीरो० १९/४२) प्रभावज (वि०) राजशक्ति से उत्पन्न प्रभाव वाला। प्रभावना (स्त्री०) रत्नत्रय का प्रकाशन।
अष्ठांग भेदों में एक भेद जिसमें जिनशासन की प्रभावना को महत्त्व दिया जाता है। त्रिरत्नैरात्मनः सम्यग्भावनं स्यात् प्रभावन। सद्धर्मस्य प्रकाशो वा सम्यग्दर्शनादिभिर्गुणै।
(जैन०ल० ७६६) 'प्रभावना धर्मकथादिभिस्तीर्थस्थापना' प्रभावती (स्त्री०) रतिषेणा नामक कपोती का अपर नाम
(जयो० २२/५०) उद्दायन राजा की रानी वीतभयपुट के नरेश की रानी (वीरो० १५/२१)
पुण्डरीकिणी नगर के रामा वायुरथ, रानी स्वयंप्रभा की
पुत्री। (जयो० २३/५२) प्रभावभू (स्त्री०) प्रभावशाली। (समु० २/११) प्रभावभुच्छरीर (वि०) कान्ति युक्त शरीर (वीरो० १२/४१०)
(जैन०ल० ७६६) प्रभावान् (वि०) प्रभा युक्त। (सम्य० ५८)
प्रभावि (नपुं०) प्रभाव वाला, शक्ति युक्त। (समु०८/१४) प्रभाव्य (वि०) अपने आप उत्पन्न होने वाली। (वीरो० १९/४२) प्रभाषणं (नपुं०) [प्र+भाष्+ल्युट्] व्याख्या, विवरण, अर्थ
प्रस्तुतीकरण। प्रभासः (पुं०) [प्र+भासृ+घञ्] कान्ति, प्रभा, दीप्ति, सौंदर्य। प्रभासखण्डाध्यायः (पुं०) प्रभास खण्ड का अध्याय। (दयो० २६) प्रभासनं (नपुं०) [प्र+भास+ल्युट] प्रकाशित होना, चमकना,
दीप्तिमान होना, झलकना। प्रभास्वर (वि०) [प्र+भास+वरच] उज्ज्वल, चमकीला, प्रभावान। प्रभिन्न (भू०क०कृ०) [प्र+भिद्+क्त] ०खण्डित, विभक्त,
विभाजित। मुकुलित, विकसित। विरूपित, विकृत।
शिथिलित, ढीला। प्रभिन्नः (पुं०) उन्मत्त हस्ति। प्रभिन्नाञ्जनं (नपुं०) कज्जल, काजल। प्रभु (वि०) [प्र+भू+डु] शक्तिसम्पन्न, बलवान। प्रभुः (पुं०) स्वामी, अधिपति, *मालिक, *भगवान्, ईश्वर,
नाथ (सुद० १/४५) (सुद० १/१) 'लोको निन्दतु पूजाद्रुत ततस्ते का विशिष्टः प्रभोः। (मुनि० १३)
अरहंत देव, केवलज्ञानी। प्रभु-आच्छेद्य (वि०) स्वामी द्वारा बलपूर्वक देना। प्रभुता (स्त्री०) [प्रभुतल्टाप्] आधिपत्य, सर्वोपरिता स्वामित्व,
शासन, अधिकार। प्रभुभक्त (वि.) ईश्वर भक्त, भगवद्भक्त।
स्वामी की आज्ञा पालने वाला। प्रभुशक्तिः (स्त्री०) ईश्वर आराधना। (सुद० ३१५) प्रभू (अक०) [प्र+भू] उत्पन्न होना-प्रभवन्ति (जयो० २/१४४)
श्री चन्द्रनद्रोः प्रभवन्तु अन्ते। (वीरो० १४/४५) प्रभवन् (सुद० ३/२९) प्रभवति (सुद० ८२) उल्लसिन
होना, प्रसन्न होना। (जयो० २३/३१) प्रभूत (भू०क०कृ०) [प्र+भू+क्त] ०पर्याप्त, विपुल, प्रचुर,
अत्यधिक। ०अनेक, बहुत। उदभूत, उत्पन्न। परिपक्व, पूर्ण। उन्नत, ऊंचा, उत्तुंग। लम्बा, दीर्घ, विस्तृत।
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प्रभूतवयस्
७११
प्रमदासमूहः
हुआ।
प्रभूतवयस् (वि०) वयोवृद्ध, बूढ़ा।
प्रमत्तविरतः (पुं०) संयम के साथ प्रमाद। प्रभूतवित्त (नपुं०) विपुल धन। (जयो० ४९/ )
प्रमत्तसंयतः (पुं०) प्राप्त संयम में प्रमाद। 'प्रकर्षेण मत्ता प्रभूति (स्त्री०) [प्र+भू+क्तिन्] ०उद्गम, उद्भूत, उत्पत्ति। प्रमत्ताः, सं सम्यक् यताः विरताः, प्रमत्ताश्च ते संयताश्च शक्ति, सामर्थ्य।
प्रमत्तसंयताः' (धव० १/१७५) ०अधिकता, पर्याप्तता।
प्रमथः (पुं०) [प्र+म+अच्] अश्व, घोड़ा। प्रभूति (अव्य०) से लेकर, शुरू करके।
प्रमथनं (नपुं०) [प्र+मथ् ल्युट्] ०चोट पहुंचाना, क्षति करना, प्रभृतिः (स्त्री०) आरंभ, शुरु, आदि, इत्यादि। (जयो० ६/६) संतप्त करना। प्रभेदः (पुं०) [प्र+भिद्+घञ्] चीरना, फाड़ना। भेद करना, मंथन, मथना, विलोना। पृथक् करना।
०वध, हत्या। प्रभ्रंशः (पुं०) [प्र+भ्रंश्+घञ्] टूटना, पतित होना, गिरना। | प्रमथित (भूक०कृ०) [प्र+मथ्+क्त] प्रपीड़ित, कष्टजन्य। ०ध्वंस होना, क्षय होना, क्षीण होना।
विलोया गया, मथा गया। प्रभ्रंशथुः (पुं०) [ प्र+भ्रंश्+अथुच्] पीनस नाक का रोग।
वध किया गया। प्रभ्रंशित (भू०क०कृ०) [प्र+भ्रंश्+णि+क्त] ०खण्डित किया । प्रमद (वि०) [प्रकृष्टो मदो हर्षस्तेन] मंदोन्मत्त, नशे में धुत्त। गया, तोड़ा गया।
आवेशपूर्ण, स्वेच्छचारी। ०प्रमादी। आलसी। ० फेंक गया, नीचे पड़ा हुआ।
प्रमदः (पुं०) [प्रकृष्टो मदो हर्षस्तेन] हर्ष, आनंद, खुशी, ०वञ्चित।
प्रसन्नता। (सुद० ३/५) 'प्रकृष्टेन मदेन स्वगतेन वीर्येणेति प्रभ्रष्ट (भू०क०कृ०) [प्र+भ्रंश्+क्त] गिरा हुआ, नीचे पड़ा मदो मृगमदे मद्ये दानमुद्गर्वरेतसि इति विश्वलोचनः'
(जयो०वृ०५/४०) प्रभ्रष्टं (नपुं०) मुकुट, माला, शिरोपस्थित मुकुट।
प्रमदक (वि०) मद वाला, मद युक्त। प्रभ्रष्टकं (नपुं०) [प्र+भ्रष्ट+कन्] शिरोपस्थित मुकुट।
०लम्पट, कामुक। प्रमग्न (भू०क०कृ०) [प्र+मस्ज्+क्त] निमग्न, डूबा हुआ, प्रमदकाननं (नपुं०) प्रमोदवन, राजगृहोद्यान, भवन से जुड़ा डुबोआ हुआ।
हुआ उपवन। आनन्द वन। ०क्रीडोद्यान। प्रमत (भू०क०कृ०) [प्र+मन्+क्त] सम्मत, विचारा हुआ। प्रमदनं (नपुं०) [प्र+म+ल्युट] कामेच्छा, लम्पटता। प्रमत्त (भू०क०कृ०) [प्र+मद्+क्त] ०मन्दोमत्त, नशे में चूर, प्रमदा (स्त्री०) [प्रमद+अच्+टाप्] पुरिस सदा प्रमत्तं कुणदि उन्मादा
त्ति-य उच्चदे पमदा। प्रमत्त युक्ता। प्रमादिता। उन्मत्त, पागल।
०स्त्री०, पत्नी। (वीरो०८/३१, जयो० १३/९५) उपेक्षक, अनवधान, असावधान, अनपेक्षा
नवयौवना, रूपवती नारी। उन्मार्गगामी, भूल करने वाला।
नायिका का एक भेद। (जयो०वृ० १८४) स्वेच्छाचारी, लम्पट।
प्रमदाकाननं (नपुं०) प्रमोद वन, क्रीड़ावन, राजगृहोद्यान। ०प्रमाद परिणत व्यक्ति।
प्रमदाजनः (पुं०) नवयौवना, रूपवती नारी। कार्य-अकार्य से अनभिज्ञ।
प्रमदापादप्रहारः (पुं०) नवयौवना का पाद प्रहार। 'अशोकः मोहनीय कर्म के प्रभाव से युक्ता
प्रमदापादप्रहारेण विकसतीति' (जयोवृ० १/८४) संयम और योग से युक्त।
प्रमदाम्बुधिः (पुं०) आनन्दोदधि, हर्षरूपी सागर। (वीरो०७/१) विकथा, कषाय युक्त।
प्रमदावनं (नपुं०) अंतापुर उपवन, भवनोद्यान, केलिगृह का प्रमत्तगीत (वि०) उपेक्षा भाव से गाया गया गीत।
उपवना प्रमत्तचित्त (वि०) लापरवाह, असावधान।
प्रमदासमूहः (पुं०) जनीजन समूह, नवयौवना समूह। (जयो० प्रमत्तता (वि०) प्रमादता। (वीरो० १६/१५)
१०/५८) प्रमत्तभावः (पुं०) प्रमादभाव, उन्मत्त भाव।
कौतुकप्रिय। (जयो० १०/५८)
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प्रमद्वर
७१२
प्रमाणित
प्रमद्वर (वि०) [प्र+म+ष्वरच्] असावधान, लापरवाह, अनवधान। प्रमनस् (वि०) [प्रकृष्टं मनो यस्य) हर्षयुक्त, प्रसन्नचित्त,
आनन्दित। प्रमन्यता (वि०) मान लिया जाता। (सुद० ११९) प्रमन्यु (वि०) [प्रकृष्टो मन्यु यस्य] क्रोधाविष्ट, चिड़चिड़ा
हुआ।
कष्ट जन्य, शोकाकुलित। प्रमयः (पुं०) [प्र+मी+अच्] ०मरण, विनाश, मृत्यु।
निधन, ०बंध हत्या। प्रमर्दनं (नपुं०) [प्र+मृद्+ल्युट्] मसल डालना, कुचलना,
मीड़ना, मर्दन करना।
नष्ट करना, समाप्त करना। प्रमर्दनः (पुं०) विष्णु। प्रमा (स्त्री०) [प्र+मा+अङ्टाप्] ०प्रतिबोध, प्रबोध।
०प्रत्यक्षज्ञान।
०सही बोध, यथार्थज्ञान, सही जानकारी। प्रमाण (सक०) प्रमाण मानना, साक्ष्य देना। प्रमाणयतु
(सुद०४/४१) प्रमाणं (नपुं०) [प्र+मा+ल्युट] ०माप, पैमाना, मान, मानक।
०परिमाण, सीमा, आकार, विस्तार। ०साक्ष्य, शहादत। सत्य ज्ञान, यथार्थ ज्ञान। दार्शनिक तत्त्व को निरीक्षण करने का यथार्थ कारण। वस्तु का सम्पूर्ण ज्ञान, पूर्ण परीक्षण।
सम्यक् अर्थ का निर्णय। 'सम्यगर्थनिर्णयः प्रमाणम्' (प्रमाण स्त्री० १/२) ०स्व-पर का प्रकाशक ज्ञान, 'स्व-पर-व्यवसायिज्ञानं प्रमाणम्'
संशय, अनध्यवसाय आदि से रहित अर्थ की वास्तविक प्रतीति। निबोध-बोध-विशिष्टः आत्मा प्रमाणम्। (धव० ९/१४१)
०प्रमाण पदार्थ के पूरे हिस्से को ग्रहण करता है। प्रमाणकला (स्त्री०) प्रमाण विचारक सौगत। (दयो० ४१) प्रमाणकालः (पुं०) प्रमाण स्वरूप का काल, पल्योपम, |
सागरोपम, उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी, कल्प आदि के भेद से प्रमाणकाल नाना प्रकार का है। जिसके आश्रय से सौ वर्ष और पल्योपम आदि का | परिज्ञान होता है वह प्रमाण स्वरूप काल प्रमाणकाल है।
प्रमाणगम्य (वि०) प्रमाण से जानने योग्य। प्रमाणगव्यूतिः (स्त्री०) दो हजार धनुष प्रमाण माप। प्रमाणज्जनी (वि०) प्रमाण मानने वाला। (सुद० ११५) प्रमाणज्ञ (वि०) प्रमाण पद्धति का जानकार। प्रमाणदुष्ट (वि०) अधिकारी द्वारा स्वीकृत पत्र। प्रमाणदोषः (पुं०) प्रमाण का उल्लंघन करना। प्रमाणपत्रं (नपुं०) आट अक्षरों का एक प्रमाणपद, श्लोक
का एक चरण।
माप का पात्र। प्रमाणपुरुषः (पुं०) निर्णायक, समीक्षक, मध्यस्थ, विवाचक। प्रमाणप्राप्त (वि०) प्रमाण को प्राप्त हुआ। प्रमाणफलं (नपुं०) प्रमाण का साक्षात् परिणाम, स्व-पर का
निश्चयात्मक रूप। प्रमाणयन् (भू०) प्रमाण दिया। (सुद० ४/४१) प्रमाणयोजनं (नपुं०) चार गव्यूति प्रमाण मात्र। प्रमाणभू (वि०) प्रमाण युक्त। (जयो० १२/३७) प्रमाणभूतज्ञानं (नपुं०) निर्णयवेद, विशदीकरणयुक्त ज्ञान
(जयो०१० २/१३७) प्रमाण ज्ञान। प्रमाणवचनं (नपुं०) अधिकृत वाक्य, प्रमाणयुक्त वचन। प्रमाणवाक्यं (नपुं०) अधिकृत वक्तव्य। विशद कथन। प्रमाणशास्त्र (नपुं०) न्यायशास्त्र, तर्कशास्त्र। प्रमाणसप्तभंगी (स्त्री०) अनेकान्तात्मक वस्तु प्रतिपादक पद्धति,
सप्तंगी पद्धति। प्रमाणाङ्गलं (नपुं०) पांच सौ उत्सेधांगुण प्रमाण। एक हजार ___ से गुणित। प्रमाणातिक्रमः (पुं०) प्रमाण का उल्लंघन, परिग्रहप्रमाण का
अतिक्रम/उल्लंघन/सीमातिक्रम। प्रमाणाधिक (वि०) सामान्य से अधिक। प्रामाण से अधिक। प्रमाणान्तरं (नपुं०) प्रमाण की अन्य पद्धति। प्रमाणाभावः (पुं०) प्रमाण का अभाव। प्रमाणाभासः (पुं०) प्रमाण के समान प्रतीत होना, स्व को न
जानकर अन्य मतानुसार गृहीत ज्ञानार्थ या दर्शन की प्रतीति। प्रमाणिपदं (नपुं०) प्रमाणशास्त्र के पद, न्यायशास्त्र के सूत्र।
'प्रमाणं न्यायशास्त्रं तस्य पदानि प्रमाणिपदानि।
(जयो०२२८९) प्रमाणित (वि०) अभीष्ट, अधिकृत, संस्तुत। (जयो० ११/४१)
(जयो० ५/८९)
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प्रमाणिक
७१३
प्रमीला
प्रमाणिक (वि०) [प्रमाण ठन्] माप का अधिकार ग्रहण
करने वाला अधिकार रूप का धारक। प्रमाता (स्त्री०) प्रमिति क्रिया का कर्ता, चेतन या परिणमन
स्वभाव वाला जीव प्रमाता कहलाता हैं 'प्रमाता चेतनः परिणामी रक्ष्यमाणो जीव:' (सिद्धि वि० ९७) 'प्रमाता
प्रत्यक्षादिप्रसिद्ध आत्मा' प्रमातामहः (पुं०) परनाना। प्रमातामही (स्त्री०) पर नानी। प्रमातु (वि०) ज्ञाता। (सम्य० ११७) प्रमाथः (पुं०) [प्र+मथ्+घञ्] प्रपीडन, संताप, दुःख।
०क्षुब्ध करना, दुःखित करना।
मथना, बिलौना। ०वध, विनाश, घात, विध्वंस। हिंसा, अत्याचार।
०बलपूर्वक अपहरण। प्रमाथिन् (वि०) [प्र+मथ्+णिनि] ०प्रताड़ित करने वाला,
यातना देने वाला, सताने वाला, कष्ट देने वाला, दुःख पहुंचाने वाला। ०वध करने वाला, घात करने वाला विनाश करने वाला। फाड़ने वाला, विर्दीण करने वाला।
गिराने वाला, पछाड़ने वाला। प्रमादः (पुं०) [प्र+मद्+घञ्] ०अनादर करना, प्रताड़ना।
अवहेलना, असावधानी, लापरवाही। उन्मत्तता, पागलपन। गलती, त्रुटि। दुर्घटना, उत्पात, संकट, भय। योगों की दुष्प्रवृत्ति।
आगमोक्त क्रिया अनुष्ठानों में अनुत्साह। ०आलस्य, उदासीनता। प्रमादकलित (वि०) प्रमाद युक्त, अनादर करने वाला। प्रमादचरितं (नपुं०) प्रमाद से आचरण करना प्रमादचर्या।
अनर्थदण्डव्रत का भेद। प्रमादचर्या (स्त्री०) प्रमत्ताचरण। प्रमादभावः (पुं०) आलस्यभाव, उदासीनता का भाव। प्रमादवश (वि०) प्रमाद के वशीभूत। (समु०५/१३) 'मा स्म
कच्चिदपराधविहीनः स प्रमादवशतो भुवि दीनः।।
(समु०५/१३) प्रमादाचरितं (नपुं०) प्रमादचर्या। प्रमत्ताचरण।
प्रमादाप्रमादः (पुं०) प्रमाद और अप्रमाद का स्वरूप। प्रमादी (वि०) प्रमाद युक्त, आलस्य सहित। (समु० ९/२८) प्रमापणं (नपुं०) शस्त्र, वध, मारण। 'प्रमापणं मारणं प्रमाया:
प्रमाणास्य पणो व्यवहारः' (जयो०वृ० ८/४६) शास्त्र जहां प्रमापण/मरण में एक मात्र नियुक्त होता है, वहीं शास्त्र प्रमाकरण या प्रमाण के व्यवहार में कुशल होते हैं। (जयो हि० ८/४६)
समझदार। (जयो० ७/४७) प्रमार्जनं (नपुं०) [प्र+मृज्+णिच्ल्युट] ०साफ करना, स्वच्छ
बनाना। रगड़ना, झाड़ना। धोना, प्रक्षालन करना। मिटा देना। जीवों के संरक्षणार्थ मृदु उपकरणों के द्वारा झाड़ना।
'प्रमार्जनमुपकरणोपकारः'। प्रमार्जनासंयमः (पुं०) प्रमार्जन करके गमन करना। रजोहरण
आदि से स्वच्छ करके स्थान आदि ग्रहण करना। प्रमार्जित (वि०) स्वच्छ किया हुआ, झाड़ा हुआ। प्रमाष्टि (वि०) परिमार्जित, पोंछा गया। (दयो० ८/१०२) प्रमित (भू०क०कृ०) [प्र+मा+क्त] सीमित, मापा हुआ, तुला
हुआ।
०ज्ञात, समझा हुआ।
प्रमाणित, प्रदर्शित। प्रमितिः (स्त्री०) [प्र+मा+क्तिन्] ०माप, नाप।
सत्यार्थ का बोध, यथार्थज्ञान की प्रतीति। किसी प्रमाण या ज्ञान के स्रोत से प्राप्त जानकारी। संशय, विपर्यय आदि से रहित बोध। प्रमाण का फल। प्रमिति, स्वार्थविनिश्चयः अज्ञाननिवृत्तिः साक्षात् प्रमाणस्य
फलम्। (सिद्धिoहि० ३७) प्रमिल् (अक०) [प्र+मित्] मिलना, एकत्रित होना। (जयो०
१२/१०६) प्रमीढ़ (वि०) [प्र+मिह+क्त] सघन, प्रगाढ़, सटा हुआ, घन। प्रमीत (भू०क०कृ०) [प्र+मी+क्त] ०मृतक, मरा हुआ। प्रमीतः (पुं०) बलि चढ़ाया गया पशु। प्रमीति (स्त्री०) [प्र+मी+क्तिन्] मृत्यु, मरण, विनाश, निधन। प्रमीला (स्त्री०) [प्र+मील्+अ+टाप्] ०आलस्य, तन्द्रा, अनुत्साह।
स्त्री नाम विशेष।
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प्रतीलित
७१४
प्रमोहित
प्रतीलित (वि०भू०क०कृ०) [प्र+मोल+क्त] उन्मीलित, | प्रमेय (वि०) [प्र+मा+यत्] मापे जाने योग्य, प्रमाणित करने
उदासीनता युक्त आंखे, निद्रा से युक्त, आलस्यपूर्ण योग्य, सिद्ध करने योग्य। आंखें।
निश्चित। प्रमुक्त (भू०क०कृ०) [प्र+मुच्+क्त] ०छूटा हुआ, मुक्ति को प्रमेयता (वि०) सिद्ध करने योग्य। प्रमाणित करने योग्य।
प्राप्त हुआ। तदा प्रमुक्त एवेति श्रोतमेतद्वचोऽमृतम्। प्रमेयत्व (वि०) प्रमाणित करने योग्य, सिद्ध करने योग्य। (हित० ५९)
(जयो०वृ० २६/९८) ०फेंका हुआ, डाला गया।
प्रमेयकमलमार्तण्डं (नपुं०) आचार्य प्रभाचन्द्र कृत प्रसिद्ध ०स्वतंत्र हुआ, पराधीनता से छूटा हुआ।
न्यायशास्त्र। (वीरो० १९/४४) विरक्त, मुमुक्षु, विरागी।
प्रमेयताविरहित (वि०) सिद्धि से रहित, निश्चितता से रहित। प्रमुक्तकष्ठं (अव्य०) फूटफूटकर। स्वतन्त्र होकर।
प्रमेहः (पुं०) [प्र+मिह+घञ्] मूत्र रोग, धातुक्षीणता, मधुमेह, प्रमुक्तिः (स्त्री०) मुक्ति, निर्वाण, मोक्ष। प्रमुक्तये सारतयाभ्युदारं
मूत्र के साथ धातु/शर्करा क्षय होने वाला रोग। चरन्ति चाचारमिषुप्रकारम्। (भक्ति० १०)
प्रमोक्षः (पुं०) [प्र+मोक्ष्+घञ्] गिराना, छड़ाना, छोड़ना, प्रमुख (वि०) मुख्य, प्रधान, अग्रणी, प्रथम।
त्यागना, परित्याग करना। प्रभृति, आदि। (जयो० १/३८)
मुक्त करना, स्वतंत्र करना।
०बंध का वियोग करना। बंध विओगो पमोक्खो दु। प्रमुखं (नपुं०) अध्याय, पाठ, अंश, मुखभाग। प्रमुग्ध (वि०) [प्र+मुह्+क्त] ०मूर्छित, अचेत।
प्रमोक्षोपसंग्रही (वि०) पवन के छोड़ने योग्य रेचक क्रिया की मोहासक्त, वाञ्छाशील, इच्छायुक्त।
इच्छा करने वाला मोक्षज्ञ। (जयो० २८/५९)
प्रमोचनं (नपुं०) [प्र+मुच्+ल्युट] छोड़ना, परित्याग करना, प्रमुच् (सक०) छोड़ना, अलग रहना। प्रमुमोच (जयो० १२/१३)
मुक्त करना। प्रमुद् (स्त्री०) [प्र+मुद्+क्विप्] प्रमोद, आनन्द, हर्ष, खुशी।
उगलना, गिराना। प्रमुदित (भू०क०कृ०) [प्र+मुद्+क्त] हर्षित, उल्लसित,
प्रमोदः (पुं०) [प्र+मुद्+घञ्] आनन्द, हर्ष, खुशी, उल्लास कामोल्लसित, विकसित। वाहनैः प्रमुदितैस्ततमेतत् कं निशासु
प्रसन्नता। कुमुदैः समवेतस्। (जयो० ४/६३) आह्लादित, प्रसन्न, आनन्दित।
प्रमोदनं (नपुं०) [प्र+मुद्+णिच् ल्युट्] आह्लादित करना, आनंदित प्रमुषित (भू०क०कृ०) [प्र+मुष्+क्त] अपहृत, चुराया गया,
करना। हरण किया गया, छीना गया।
प्रसन्न करना। प्रमुषिता (स्त्री०) एक पहेलिका विशेष।
प्रमोदभावना (स्त्री०) व्रती जनों को देखकर खुश होना, प्रमूढ (भू०क०कृ०) [प्र+मुहक्त] विस्मित, उद्विग्न, व्याकुल।
वृद्धिगत गुणों से हर्षित होना। ०संमूढ, मूढ, मूर्ख।
तपः श्रुत-यमोधुक्तः चेतसां ज्ञानचक्षुषाम्। ०जड़, बुद्धि।
विजिताक्ष-कषायाणां स्वतत्त्वाभ्यासशालिनाम्।। प्रमुष्ट (भू०क०कृ०) रगड़ा गया, मिटा दिया।
प्रमोदित (भू०क०कृ०) [प्र+मुद्-णिच्+क्त] हर्षित, आनन्दित, प्रमेयं (नपुं०) प्रमाण का विषयभूत पदार्थ। 'प्रमाणेन परिच्छेद्यं । पसन्नचित्ता प्रमेयं प्रणिगद्यते' (जयो० २६/९८) (जैन०ल० ७७४) प्रमोदिन् (वि०) हर्षित होने वाला। अभीष्ट वस्तु (जयो० ३/८५) 'प्रमेयेऽभीष्टवस्तुनि विद्वान् ।
प्रमोदी (वि०) हर्ष सम्पन्न व्यक्ति। (जयो० २४/७९) विवेकशाली।' (जयो०वृ० ३/८५)
प्रमोहः (पुं०) [प्र+मुह घञ्] ०मूर्छा, बेहोशी, जड़ता। निश्चित ज्ञान की वस्तु।
मूर्छाभाव, मोहभाव, आसक्ति। प्रदर्शित, उपसंहार, साध्य।
०आकुलता, व्याकुलता। सिद्ध करने योग्य वस्तु।
प्रमोहित (भू.क.कृ०) [प्र+मुह+णिच्+क्त] ०मूर्छित, जो विषय प्रमाणित किया जाए।
आसक्ति जन्य।
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प्रयच्छनं
७१५
प्रयुक्त
•मुग्ध हो गया, आसक्त हो गया।
उद्विग्न, आकुलित। प्रयच्छनं (नपुं०) दान, उपहार, भेंट। (जयो० २/१०६) प्रयत (भू०क०कृ०) [प्र+यम्+क्त] •संयमित, जितेन्द्रिय, यम
युक्त। (वीरो०८/४५)
आत्मसंयमी।
उत्साहित, उल्लसित, हर्षित। प्रयतेत (विधि) प्रयत्न करता रहे। इष्टे प्रमेये प्रयतेत विद्वान्
विधेर्मनः सम्प्रति को नु विद्वान्। (जयो० ३/८५) प्रयत्नवान् (वि०) प्रयत्नशील। (सम्य० १२६) प्रयत्नः (पुं०) [प्रयत्+नङ] उद्यम, प्रयास, चेष्टा, उद्योग।
श्रम। (जयो०वृ० ३/८१) उच्चारण स्थान। ०प्रदेशों का हलन-चलन। (सम्य० १२६) ०पदार्थ के प्रति चित्त देना। ०कार्य में मन लगाना। 'प्रयत्नः परनिमित्तको भावः' परार्थेऽन्यकृते यो भावश्चित्तं मयास्यैतदवश्यं करणीयमिति स प्रयत्नः। (जैन०ल० ७७५) परस्य करणीये यश्चित्तं
निश्चित्य धार्यते। प्रयत्न स विज्ञेयो गर्गस्ये वचनं यथा। प्रयत्नपूर्वक (वि०) उद्यम युक्त। (हित०६) प्रयत्नी (वि०) प्रयत्नशाला। (जयो०८/६९) प्रयत्नशील (वि०) प्रयत्न करने वाला। (वीरो०६/२) प्रयत्नीवित (वि०) प्रयत्नशीला (वीरो०६८) प्रयय (अक०) चलना, गमन करना। (जयो० ३/१००) प्रयस्त (भू०क०कृ०) [प्र+यस्+क्त] अभ्यस्त, सिखाया हुआ।
स्वादिष्ट किया हुआ। प्रया (अक०) पिघलना, विगलित होना, प्रयत्नशील। (जयो०
२२/८६) प्रयागः (पुं०) [प्रकृष्टो यागफलं यत्र] गंगा-जमुना का संगम।
संगमतीर्थ-इलाहाबाद के पास गंगा-यमुना का मिलन स्थान। (जयो० ६/१०. तीर्थदेश स्थान। (जयो० ६/४३) 'परः परागः प्रकृतः प्रयागः (जयो० २७/४१) सुभरास्तयोः प्रयागे सुखाशया सन्निमज्जन्ति। (जयो० ६/४३) ०इन्द्र, व्यज्ञ, अश्व, घोटक, घोड़ा। प्रयागस्तीर्थ भेदेस्याता
घज्ञेवाहे विडोजसि इति । प्रयाचनं (नपुं०) [प्र+याच्+ ल्युट्] ०मांगना, प्रार्थना करना।
०अनुरोध करना, निवेदन करना। अनुनय करना।
प्रयाजः (पु०) [प्र+य+घञ्] यज्ञ सम्बंधी अनुष्ठान। प्रयाणं (नपुं०) [प्र+या+ल्युट्] ०प्रस्थान करना, गमन करना।
(जयोवृ० ५/५३) विदा, अन्यत्र जाना।
अभियान, मात्रा। (जयो०८/७०) ० प्रगति, अग्रगमन, निधान, प्रस्थान, विनिर्गमन। (जयो०१३/४) सत् पथ की ओर गमन। आक्रमण, चढ़ाई।
आरम्भ, शुरू। प्रयाणकं (नपुं०) [प्रयाण+कन्] यात्रा, प्रस्थान, गमन। प्रमाणभंगः (पुं०) चलते-चलते ठहरना, यात्रा विराम, प्रस्थान
में गतिरोध। प्रयाणवादित्रं (नपुं०) दिग्विजय के प्रस्थान का वाद्य, प्रगतिसूचक
__ वाद्य। (जयो० १/१९) प्रयाणवेला (स्त्री०) दिग्विजय अभियान, दिग्विजयसमय।
(जयो० १६/२) प्रयाणसमयः (स्त्री०) निर्गमक्षण, प्रयाणबेला। (जयो०वृ०२१/४) प्रयात (भू०क०कृ) [प्र+या+क्त] ०आगे बढ़ा हुआ, गया
हुआ। (समु० ३/८) गतानुगत्या कतिचित् प्रयाता (वीरो० १८/१७) विसर्जिता
०मृतक, मरा हुआ। प्रयातः (पुं०) आक्रमण, प्रहार।
०चट्टान, चेष्टा। (वीरो० ४/१७) प्रयापित (भू०क०कृ०) [प्र+या+णिच्+क्त] •आगे पहुंचा
हुआ, भेजा हुआ।
भगाया हुआ। प्रयामः (पुं०) [प्रायम्+घञ्] ०अभाव, रहित, शून्य, रिक्त।
मंहगाई। रोकथाम, नियंत्रण।
लम्बाई। प्रयासः (पुं०) [प्र+यस्+घञ्] प्रयत्न, चेष्टा, उद्योग।
(जयो० ११/८४) उद्यम, श्रम, परिश्रम। (जयो० ११/४५) अस्मत्प्रयासस्त
दुपार्जनाय। (समु० १/२७) प्रयुक्त (भू०क०कृ०) [प्र+युज्+क्त] ०प्रयोग में लाया हुआ,
नियत किया गया, मनोनीत।
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प्रयुक्ता
७१६
प्ररुद
संसक्त। (जयो० पृ० ६/५७) उदित, उद्गत, उत्पन्न। उपयुक्त। (जयो० १०/९) फलित, घटित, युक्त। (सुद० १०१) ०ध्यानमग्न, बेसुध। प्रेरित किया हुआ, उकसाया हुआ।
प्रचलित, व्यवहार में लाया हुआ। प्रयुक्ता (स्त्री०) स्वीकृति। (जयो० ५/१०३) प्रयक्तिः (स्त्री०) [प्रयुज+क्तिन] उपयोग, प्रयोग।
(समु० ३/२८) ०प्रयोजन, उद्देश्य, अभिप्राय। ०ध्येय, अवसर।
परिणाम, फल। प्रयुतं (नपुं०) एक संख्या विशेष, चौरासी लाख प्रयुतांग। प्रयुतांगं (नपुं०) चौरासी लाख अयुत। प्रयुद्धं (नपुं०) संग्राम, युद्ध, आक्रमण, लड़ाई। प्रयुयुत्सुः (पुं०) [प्र+युध+सन्+उ] ०योद्धा, मेंढा, हवा,
पवन।
संयासी, इन्द्रा प्रयोक्तव्यम् (वि०कृ०/तव्यत्) प्रयुक्त करने योग्य। (जयो०
१९/८२) ०व्यवहार करने योग्य। प्रयोक्त (वि०) [प्रायुज् तृच्] ०अनुष्ठाता, निदेशक, परिणायक।
(जयो० ११/९१) प्रेरक, उत्तेजक। प्रणेता, अभिकर्ता, अभिनय कर्ता। उपाय, प्रयोग करने वाला। (वीरो० १८/२६) उपयोग
करने वाला। प्रयोक्ता देखो ऊपर। प्रयोगः (पुं०) ०व्यवहार, उपयोग। [प्रकर्षेण मनोनिग्रहाख्यः]
(जयो० १/३४) प्रचलित रूप, सामान्य प्रचलन। गाङ्गस्य वै यामुनतः प्रयोगः (वीरो० १४/४७) ०फेंकना, विभक्तमंत्रम, प्रक्षेपण करना। प्रदर्शनी, अनुष्ठान्, अभिनयन। नाटक खेलना, प्रदर्शन करना। ०अभ्यास, अध्ययन। (सुद० ३/४७) योजना, साधन, युक्ति, उपकरण। (जयो० १/३१) । फल, परिणाम।
मन, वचन और काय का योग भी प्रयोग है। 'मण-वचिकायजोगा पओओ'
जीव की व्यापार। (धव० १२/२८६) प्रयोगकरणं (नपुं०) चेतन-अचेतन का निर्माण। 'प्रयोगः
जीवव्यापारः, तद्धेतुकं करणं प्रयोगकरणम्' (जैन०ल०
७७५) प्रयोगक्रिया (स्त्री०) आने-जाने प्रवृत्त होना, मन का व्यापार,
हिंसकजनक प्रवृत्ति, ईर्ष्या व्यापार। 'आत्माधिष्ठित कायादिव्यापारः प्रयोगः, तत्र योगत्रयकृता'
(जैन०ल० ७७६) प्रयोगगति (स्त्री०) आकृति विषयक गति, बाण चक्र आदि
की तरह जीव की गति। प्रयोगजपरिणामः (पुं०) प्रयोग में निमित्त वाला परिणाम,
प्रयोग के आश्रय से होने वाला भाव। प्रयोगजशब्द (नपुं०) प्रयोग से होने वाला शब्द। प्रयोगपरिणामः (पुं०) चेष्टा रूप परिणाम। प्रयोगबन्धः (पुं०) कर्म-नौकर्म रूप बन्ध। प्रयोगरसती (वि०) साधन रसवाली। (मुनि० ४) प्रयोजक (वि०) [प्रायुज्+ण्वुल्] नेतृत्व करने वाला, उद्दीपक
उकसाने वाला।
सम्पन्न करने वाला, कारण बनाने वाला। प्रयोजकः (पुं०) संस्थापक, प्रवर्तक।
०साहूकार, महाजन।
०धर्मशास्त्री, विधायक। प्रयोजनं (नपुं०) [प्र+युज+ल्युट्] अभिप्राय, उद्देश्य, ध्येय।
०कारण, निमित्त। ०प्रमाणभूत। (जयो० २/१४६)
लाभ, स्वार्थ। प्रयोजनसिद्धिः (स्त्री०) कार्यसम्पत्ति। (जयो० ३/१०६) प्रयोजनाधीनः (पुं०) कार्य के आधीन, लक्ष्य के आधीन।
(जयो० २७/५२) प्रयोजनीय (वि०) उचित। (जयो० २/२०) ०लक्ष्य युक्त। प्रयोज्य (सं०कृ०) [प्रायुज्+ण्यत्] नियुक्त करने योग्य, फेंकने योग्य।
कार्य समारम्भ करने योग्य। ०पैदा करने योग्य। प्ररुदित (भू०क०कृ) [प्र+रुद्+क्त] रोया हुआ, रोता हुआ। प्ररुद्र (भू०क०कृ०) [प्र+रुह+क्त] पूर्ण विकसित हुआ, पूरा
हुआ।
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प्ररूढिः
७१७
प्रलेपक
उत्पन्न, उद्भूत, पैदा हुआ।
प्रलम्बित (वि०) [प्र+लम्ब्+क्त] लटकनशील, लटकने वाला। ०बड़ा हुआ, गहराई में गया हुआ।
प्रलम्बितकर (वि०) लटकता हुआ हाथ। (सुद० ९८) प्ररूढिः (स्त्री०) निरूपण, कथन परीक्षा, घोष, आदेश की प्रलम्भः (पुं०) [प्र+लभ+घञ्] प्राप्त करना, लाभ उठाना। अपेक्षा। गुणस्थान, जीवसमास आदि का कथन।
०अवाप्ति। प्ररूपणा कारिणी (वि०) यशोनिरूणीय। (जयो०वृ० १३/६१) धोखा देना, छलना, ठगना, प्रवञ्चना। प्ररोचन (नपुं०) [प्र+रुच्+णिच+ल्युट] उत्तेजना, उद्दीपन, प्रलयः (पुं०) [प्र+ली+अच्] विनाश, संहार, विघटन, विध्वंस। निदर्शन, व्याख्या।
प्रणासन। (जयो० १२/१०२) प्रतिस्थापना, बतलाना।
मृत्यु, मरण, छन्न संकेत करना, सूचना देना।
मूर्छा, बेहोशी, चेतना शून्य। कालान्त। (जयो० ७/५९) प्ररोहः (पुं०) [प्रारुह्+घञ्] अंकुरित होना, निकलना, बढ़ना।
रहस्य ध्वनि। उगना।
प्रलयकालः (पुं०) विनाश का समय। अंकुर, अंखुवा।
प्रलयज (वि०) कल्पांत जात। चेतना शून्य युक्त, मरणासन्न। किसलय, पल्लव, कोंपला
(जयो० ७/७४) ०शाखा, टहनी, नवांकुर।
प्रलयजलधरः (पुं०) विश्व विनाश। सम्पूर्ण संसार, मरणासन्न। प्ररोहणं (नपुं०) [प्र+रुह ल्युट्] ०वर्धन, अंकुरण, स्फुटन।
प्रलयपयोधिः (पुं०) प्रलय रूपी समुद्र। नीरधि विध्वंस, किसलय, पल्लव, कोंपल।
सुनामी आपदा। समुद्री उत्पात। ०टहनी, स्फुटन।
प्रललाट (वि०) उन्नत ललाट युक्त। ०कर्माण प्ररोहन्ति अस्मिन्निति प्ररोहणम्। (जैन०ल०७७७)
प्रलवः (पुं०) [प्र+ल्+अप्] टुकड़ा, खण्ड, अंश। प्रलप (अक०) कहना, बात करना। निरूपण करना।
प्रलवित्रं (नपुं०) [प्र+ल्+इत्र] कर्तन का उपकरण। प्रलाप करना। प्रलपनं (नपुं०) [प्र+लभ+ ल्युट्] ०प्रलाप, संलाप, वार्तालाप।
प्रलापः (पुं०) [प्र+लप्+घञ्] ०बात, वार्तालाप, कथन। ०असंभाषण, बकवास।
कलकल शब्द। (जयो० १८/१९) वकझक (जयो० विलाप, रुदन।
१८/१९) प्रलपित (भू०क०कृ०) [प्र+लप्+क्त] प्रलाप किया हुआ,
०वाचालता, असंबद्ध प्रताप। कथित कहा गया। निरूपित, ०अभिव्यक्त।
विलाप, रुदन। विप्रलापनी। (जयो० १३/५२) प्रलब्ध (भू०क०कृ०) [प्र+लभ्+क्त] ०धोखा दिया हुआ,
प्रलापिन (वि०) [प्र+लप्+णिनि] ठगा हुआ।
०बातूनी, अधिक बालेने वाला। प्रलम्ब (वि०) [प्र+लंब्+अच्] लटकने वाला, लटकाहुआ।
मुसदी, बकवासी। (जयो० १८/१९) नीचे की ओर लटके हए।
०वाचालता। उन्नत।
प्रलापिनी (वि०) प्रलाप करने वाली। (जयो० १३/५२) मन्थर, बिलम्बकारी।
प्रलीन (वि०) विनष्ट, विनाश। प्रलम्बः (पुं०) ०लटकता हुआ, आश्रित। कण्ठहार।
०हत, नष्ट, लुप्त, तत्पर। (जयो० १/६७) एक प्रकार का हार।
घुला हुआ, पिघला हुआ। जस्ता, सीसा।
प्रलीप् (अक०) नष्ट होना-प्रलीयेत्। (सम्य० १) ०एक राक्षस।
प्रलुण्ठत (वि०) वेल्लत, घूमते हुए। (जयो०वृ० १८/९१) प्रलम्बनं (नपुं०) [प्र+लम्ब्+ ल्युट्] लटकना, झुकरना, आश्रित | प्रलुप्त (वि०) छन्न, नष्ट। (जयो० ११/४९) ०अभाव। होना। आलम्बन, आधार।
प्रलेपः (पुं०) [प्र+लिप्+घञ्] ०लेप, मल्हम, चोपड़। प्रलम्बमथनः (पुं०) बलराम। ०बलदेव।
प्रलेपक (वि०) [प्र+लिप्+ण्वुल्] मलने वाला, लेप करने वाला।
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प्रलेहः
७१८
प्रवद्
प्रलेहः (पुं०) [प्र+लिह्+घञ्] ०एक रस्सा। ०बंधन का
साधन। प्रलोढनं (नपुं०) [प्र+लुठ्+ल्युट्] ०लौटना, लुड़कना। ____०उत्तोलन, उछालना। प्रलोभः (पुं०) [प्र+लुभ्+घञ्] ०अतितृष्णा, लालच, लालसा।
०ललचाना, ०उछालना। प्रलोभनं (नपुं०) [प्र+लुभ् ल्युट्] ०आकर्षण, लालच।
फुसलाना, अपनी ओर खींचना। __ चारा, दाना। प्रलोभनी (स्त्री०) रेती, बालुका, रज। प्रलोल (वि०) ०प्रलोभी, लालची। ०अत्यन्त क्षुब्ध, थरथर
कांपने वाला। प्रवक्तु (पुं०) [प्र+व+तृच्] ०वक्ता, उपदेशक, उद्घोषक,
प्रवाचक। ०अध्यापक, व्याख्याता।
०स्पष्ट वक्ता। प्रवगः (पुं०) वानर, बन्दर। प्रवचनं (नपुं०) [प्र+वच्+ल्युट] निरूपण, कथन, प्रतिवादन।
(समु० १/३६)
उपदेश, व्याख्यान, अध्यापन। 'प्रकृष्टं वचनं प्रवचनम्' 'प्रकृष्टस्य वा वचनं प्रवचनम्' सिद्धान्त निरूपण। ०श्रुतज्ञान-प्रवचनं श्रुतज्ञानम्।
शब्दकलाप-उच्यते भण्यते कथ्यते इति वचनं शब्दकलापः,
प्रकृष्टं वचनं प्रवचनम्। (धव० १३/२८०) प्रवचनपटु (वि०) कथन करने में कुशल।
बातचीत में कुशल, वाक्पटु। प्रवचनप्रभावना (स्त्री०) आगम प्रशंसा, श्रुत प्रशंसा, सिद्धान्त
प्रभावना। प्रवचनभक्तिः (स्त्री०) अंग-आगम के अर्थ का अनुष्ठान,
आचरण युक्त अर्थ में श्रद्धा। प्रवचनवत्सलत्व (वि०) सधार्मिक के प्रति अनुराग रखने वाला।
सम्यग्दृष्टि जीवों के प्रति वात्सल्य भाव। प्रवचनविराधना (स्त्री०) सिद्धांत दोष। ०श्रुत दोष, ०आगम
अर्थ में सम्यक् निरूपण की विराधना। प्रवचनसन्निकर्षः (पुं०) धर्म के उत्कर्ष का विचार।
०धर्मों के सत्त्व, असत्त्व का विचार। प्रवचनसन्यासः (पुं०) अनेकान्त रूप में प्ररूपणा।
प्रवचनाद्धा (स्त्री०) प्रकृष्ट वचनों का काल-अद्धा कालः,
प्रकृष्टानां शोभानां, वचनानामद्धा श्रुतज्ञानम्'। (धव०
१३/२८४) प्रवचनार्थ (वि०) द्वादशांग वाणी का अर्थ।
'प्रकृष्टैर्वचनैः अर्यते गम्यते इति प्रवचनार्थ:'।
(जैन०ल० ७७९) प्रवचनी (स्त्री०) द्वादशांग वाणी। 'प्रकृष्टानि वचनानि अस्मिन्,
सन्तीति प्रवचनी भावागमः। अथवा प्रोच्यते इति प्रवचनोऽर्थः
सोऽत्रास्तीति प्रवचनी द्वादशांगग्रन्थः। (धव० १३/२८४) प्रवचनीय (वि०) ०व्याख्यानीय, प्रतिपादनीय। विवेचनीय
प्ररच्पणीय। संदर्भ से युक्त व्याख्यान करने वाला।
'प्रबन्धेन वचनीयं व्याख्येयं प्रतिपादनीयमिति प्रवचनीयम्' प्रवञ्चना (वि०) हति, हानि। (जयो०वृ० २/५७) (धव०
१३/२८१) ०क्षति, ०घात, ०ठगी। प्रवञ्चनार्थ (वि०) प्रतारणार्थ। (जयो० २७/२२) ०ठगने के
लिए, ०एक-दूसरे को हानि पहुंचाने के लिए। प्रवटः (पुं०) [प्र+वट्+अष्य्] गेहूं। गोधूम। प्रवण (वि०) [प्रविण्+अच्] ०बहने वाला, ढकान वाला।
०ढालू, दुरारोह, विप्रपाती। ०कुटिल, झुका हुआ। ०अनुरक्त, प्रवृत्त, संलग्न। कुशल, निपुण (जयो० ८/४६) भक्त, अनुरक्त, व्यस्त। ०भरा हुआ, पूर्ण। ०अनुकूल, उत्सुक ०आतुर, तत्पर। ०युक्त, सम्पन्न। विनम्र, सुशील, विनीत, कुशील, दत्तचित्त। (जयो० १६/६१)
०बर्बाद, क्षीण। प्रवणः (पुं०) चौराहा, चार रास्ते। प्रवणं (नपुं०) उतार।
०चट्टान।
०पर्वत का पार्श्वभाग, ढलान। प्रवत्स्यत् (वि०) [प्र+वस्+स्य+शतृ] यात्रा हेतु उद्यत, धर्म
यात्रा हेतु तैयार। प्रवत्स्यत्पतिका (स्त्री०) यात्रा में उद्यत की पत्नी। प्रवद् (सक०) समझाना (सुद०७०) कहना। (समु० २/१)
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प्रवयणं
प्रवालता
प्रवयणं (नपुं०) [प्र वे+ल्युट्] बुने हुए कपड़े का ऊपर प्रवर्तिनी (स्त्री०) अधिष्ठात्री, अधिकारिणी। का भाग। निरोधनी, प्रवेशिनी।
निर्देशिनी, वर्तिनी। अंकुश।
प्रवर्तित (वि०) प्रोत्साहित, प्रेरित किया। प्रवयस् (वि०) [प्रगता वयो यस्य] ०बड़ी उम्र का व्यक्ति। प्रवर्ध बढ़ना। (वीरो० १९/३) अधेड़ वृद्ध।
प्रवर्धनं (नपुं०) [प्र+व+ ल्युट्] बढ़ाना, वृद्धि करना। प्रवर (वि०) [प्र+व+अप्] मुख्य, श्रेष्ठ, उत्तम, प्रधान। (जयो०वृ०३/९२) (सुद० २/१०)
प्रवर्षः (पुं०) [प्र+वृष्+घञ्] मूसलाधार वर्षा, उत्तम वर्षा, ०सर्वोत्तम, उत्कृष्ट, उन्नत। (सुद० ८१)
तेज बारिश, अच्छी बरसात। ०कान्तिमान्, चतुर। (जयो० १/५६)
प्रवर्षणं (नपुं०) [प्र+वस्+ल्युट्] प्रवास, विदेश गमन, यात्रा। श्रीमान्, महानुभाव, भाग्यशाली, महायश।
प्रवहः (पुं०) [प्र+व+अच्] ०पवन, वायु। प्रवरः (पुं०) बुलावा, आह्वान।
०बहना, धार बनाना। कुरु, वंश, परिवार।
प्रवहणं (नपुं०) [प्र+व+ल्युट्] प्रवाह, बहना। प्राणनाथ। (जयो० १६/४४)
व्यान, वाहन, सवारी। पूर्वज, वंशज, संतान।
०पोत, जहाज। प्रवरं (नपुं०) अगर चंदन की लकड़ी।
प्रवहनं ०देखो ऊपर। प्रवर+आत्मवत् (वि०) श्रेष्ठ, आत्मा की तरह। (सुद०४/२) | प्रवह्निः (स्त्री०) [प्र+वह इन] प्रहेलिका। प्रवरवादः (पुं०) सर्वोत्तम कथन, श्रुतज्ञान, आगमवाणी। प्रवाच् (वि०) [प्र+वच्+णिच् ल्युट्] बोलने वाला, वाग्मी।
'स्वर्गापवर्गमार्गत्वात् रत्नत्रयं प्रवरः, स उद्यते निरूप्यतेऽनेनेति वक्ता, प्रकथन, उद्घोषणा, प्रतिपादक। प्रवरवादः। (धव० १३/२८७)
प्रवाचनं (नपुं०) घोषणा, कथन। प्रवरवाहनी (वि०) उत्कृष्ट प्रवाह वाली।
प्रवाणं (नपुं०) [प्र. वेल्युट्] छांटना, संभालना। प्रवर्गः (पुं०) [प्रवृत्यते नि:क्षिप्यते हविरादिकस्मिन्-प्रवृ+घञ्] प्रवाणिः (स्त्री०) [प्रवाण+ङीप्] जुलाहे की ढरकी। यज्ञ की बह्नि। ०होमाग्नि।
प्रवात (भू०क०कृ०) [प्रकृष्टो वातो यस्मिन्] तूफान में पड़ा प्रवर्ग्यः (पुं०) [प्र+वृज्+ण्यत्] एक अनुष्ठान।
हुआ। ०झंझावात में फंसा हुआ। प्रवर्तः (पुं०) [प्र+वृत्+घञ्] आरंभ, उपक्रम, कार्य समारंभ। प्रवातं (नपुं०) वायु का झोंका, हवा का प्रवाह, स्वच्छ पवन। प्रवर्तक (वि०) [प्र+वृत्+णिच्+ण्वुल] चालू करने वाला,
आंधी, झंझावात। स्थापित करने वाला।
प्रवादः (पुं०) [प्र+वद्+घञ्] ०शब्द, ध्वनि, उच्चारण। ०प्रगतिशील, उन्नेता।
०लोकोक्ति। (सुद० १/२२) ०प्रबोधक, प्रोत्साहका
निवेदन, प्रतिवेदन। प्रवर्तक, प्रणेता।
आख्यायिका, विवाद सम्बंधी भाषा। विवाचक, प्रतिपादक।
प्रकल्पित नाद। प्रवर्तमान (वि०) व्यवहार शील। (जयो० ५/९३) कार्यारंभ | प्रवारः (पुं०) चादर, आच्छादन। करने वाला।
प्रवारकः (पुं०) चादर, ओढ़नी, आच्छादन। प्रवर्तनं (नपुं०) [प्र+वृत्+ ल्युट्] ०आरंभ, क्रम, शुरु, समारंभ। प्रवारणं (नपुं०) [प्र+वृ+णिच्ल्यु टी निषेध, विरोध, रोक। कार्यारंभ, संस्थापन, प्रतिष्ठापन।
आच्छादन, ढकना। ०व्यवहार, आचरण, कार्यविधि।
प्रवाल: (पुं०) मूंगा, ललिमा। (जयो० ११/१३) कोंपल, प्रोत्साहन, उद्दीपन, बलपूर्वक चलाना।
पराग, विद्रुम, पल्लव, (जयो०वृ० ५/७५) अंकुर। प्रवर्तना (स्त्री०) प्रोत्साहन देना।
प्रवालता (वि०) [प्रकर्षेण बालभावोऽस्ति] बालकपना। प्रवर्तयितु (तुमुन्) ले जाने के लिए। (जयो० २/१२०)
(जयो० ५/८८)
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प्रवालभाव
७२०
प्रविलुप्त
यात्रा, अन्यत्र गमन।
प्रविचक्षणं (नपुं०) चरित्र से युक्त। ०परदेश गमन।
प्रविचयः (पुं०) [प्र+वि+चि+अच्] ०परीक्षा, खोज, अनुसंधान। प्रवालभाव (पुं०) उत्कृष्ट भाव, बोझल भाव। (वीरो० ३/२३) | प्रविचार: (पुं०) विवेचन, विवेक। प्रवालोपादनं (नपुं०) अंकुर का फूटना। (जयो० २२/१०) मैथुनव्यवहार-मैथुनोपसेवनं प्रविचार:। (त०वा० ४/७) प्रवासः (पुं०) [प्र+वस्+घञ्] विदेश गमन, विदेशयात्रा। 'प्रवीचरणं प्रवीचारो मैथुनोपसेवनम्' (जयो० ३/३३)
प्रविचेतनं (नपुं०) विवेक, चेतना, ज्ञान, समझ। प्रवासवात (नपुं०) यात्रा गया हुआ, विदेश जाने वाला। प्रवितत (भू०क०कृ०) [प्र+वि+तन्+क्त] फैलाया हुआ, बिछाया प्रवासनं (नपुं०) [प्र वस्+णिच्+ल्युट्] विदेश निवास, अन्यत्र
हुआ। गमन।
०अस्त व्यस्त। निर्वासन, देश निकाला।
निवास। (सुद० १/३७) प्रवासावरः (पुं०) यात्रा का समय (जयो० २१/७३) प्रविताड्यलोकः (पुं०) पहरेदार। (समु० ३/३२) प्रवासिन् (पुं०) [प्रावस्+णिनि] यात्रा का समय (जयो० | प्रविदारः (पुं०) [प्र+वि+दृ+घञ्] विदीर्ण होना, खण्ड खण्ड २१/७३)
होना। प्रवासिन् (पुं०) [प्र+वस्+णिनि] यात्री, मुसाफिर। (दयो०८९) ०खुलना।
यात्री, वटोही, परदेशी, गमनशील। (जयो० १४/९५) | प्रविदारणं (नपुं०) [प्र+वि+दृणिच्+ ल्युट्] फाड़ना, विदीर्ण प्रोषित। (जयो० १९/६२)
करना। प्रवासी (पुं०) देखो ऊपर।
तोड़ना, ध्वस्त करना। प्रवाहः (पुं०) [प्र+व+घञ्] ०धारा, बहाव। (सम्य० १३३) संघर्ष, युद्ध, लड़ाई। (जयो० ३/९९)
गड़बड़ी, हल्ला-गुल्ला। नदी मार्ग, जलमार्ग, का प्रवाह।
प्रविधायि (वि०) प्रदान करने वाला। (सम्य० ७२) ०नुति। (जयो०वृ ११/९)
प्रविद्ध (भू०क०कृ०) [प्र+विध्+क्त] डाला हुआ, फेंका हुआ। सक्रियता, सजगता।
प्रविद्धदोषः (पुं०) अनवस्थित चित्त से वन्दन, गुरु वन्दना तालाब, सरोवर, झील।
समाप्ति से पूर्व चला जाना। प्रवाहकः (पुं०) [प्र+व+ण्वुल्] भूत, प्रेत, पिशाच। प्रविद्रुत (भू०क०कृ०) [प्र+वि+द्रु+क्त] भगाया हुआ, प्रवाहनं (नपुं०) [प्र+व+णिच् ल्युट्] आगे बढ़ाना, आगे ले जाना। तितर-बितर किया हुआ। ०दस्त कराना।
प्रविभक्त (भू०क०कृ०) [प्र+वि+भज्+क्त] वियुक्त, अलग प्रवाहिका (स्त्री०) [प्र+व+णिच ल्युट] ०दस्त लग जाना। अलग किया हुआ। नदी, सरिता।
विभाजन किया गया, विभाजित किया हुआ। प्रवाही (स्त्री०) [प्रवाह+ङीप्] रेत, बालू।
प्रविभागः (पुं०) [प्र+वि+भज+घञ्] वितरण, वर्गीकरण। प्रविकीर्णः (भू०क०कृ०) [प्र+वि+कृ+क्त] फैलाया हुआ, हिस्सा, बंद।
बिखेरा हुआ, इधर-उधर छितराया हुआ, तितर-बितर प्रविभृ (अक०) बनना, तैयार होना। (समु० २/६) किया हुआ।
प्रविरः (पुं०) पीला चंदन। प्रविघ्न (वि०) व्यवधान।
प्रविरल (वि०) वियुक्त, बहुत दूर। प्रविख्यात (भू०क०कृ०) [प्र+विख्या+क्त] ०प्रसिद्ध, ख्यात, ०बहुत कम, विरले ही। विश्रुत।
स्वल्प, थोड़े। ० बुलाया गया।
प्रविलयः (पुं०) [प्र+वि+ली+अच्] विलीन होना, शुष्क होना। प्रविख्याती (स्त्री०) [प्र+वि ख्या+क्तिन्] * कीर्ति, प्रसिद्धि, यश। प्रविलुप्त (भू०क०कृ) [प्र+वि लुप्+क्त] काटा हुआ, निकाला विख्याती, ख्याती, अधिक प्रसिद्धि।
हुआ, हटाया हुआ।
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प्रविवादः
७२१
प्रवेरित
प्रविवादः (पुं०) [प्र+वि वद्+घञ्] झगड़ा, कलह, वैमनस्क।
आचरण, व्यवहार, व्यवसाय। (सुद० १११) प्रविह (अक०) विहार करना-प्रविहर्तुम्। (वीरो० ५/३७) ०परिपालन, योग परिपालन। 'प्रवर्तनं प्रवृत्तिः अनुष्ठान प्रविविक्त (वि०) अकेला, एकमात्र।
रूपा' वियुक्त, अलग।
सार्थकता, भावार्थ। प्रविश् (अक०) प्रवेश करना, घुसना। (सुद० ९५) प्रवेष्टु ०अनावरत प्रयत्न, निरंतर प्रयत्न। (भक्ति० २९) प्रविवेश। (सुद० ९४)
स्थायित्व, प्राबल्या प्रविश्लेषः (पुं०) [प्र+वि+श्लिष्+घञ्]
गुप्त वार्ता, समाचार। प्रविषण्ण (भू०क०कृ०) [प्र+वि+सद्+घञ्] खिन्न, उदास, भाग्य, नियति, कलना। (जयो०वृ० १/३९) व्याकुल।
०प्रत्यक्षज्ञान। प्रविष्ट (भू०क०कृ०) [प्र+विश्+क्त] ०घुसा हुआ, अंदर प्रवृत्तिज्ञः (पुं०) जासूस, गुप्तचर, दूत। गया हुआ। (जयो० १/९)
प्रवृत्तिनिमित्तं (नपुं०) प्रयत्न के कारण। लगा हुआ, ध्वस्त।
प्रवृत्तिमार्गः (पुं०) सक्रिय मार्ग। प्रविष्टकं (नपुं०) रंगभूमि का द्वार।
प्रवृत्तिशील (वि०) प्रयत्न युक्त। (जयो०वृ० १/५) प्रविस्तरः (पुं०) [प्र+विस्तृ+अप्] ०परिधि, घेरा, ध्वस्त।। प्रवृद्ध (भू०क०कृ०) [प्र+वृध्+क्त] पूर्ण बढ़ा हुआ, वृद्धि को प्रवीचारः (पुं०) मैथुन व्यवहार।
प्राप्त हुआ। ०बड़े पुरुष। (सुद० ४/१९) प्रवीक्ष्यता (वि०) स्पष्टीकरण। (समु० १/२८)
पूरा, गहरा। प्रवीण: (पुं०) कुशल, चतुर। (सु० २/२ दयो० ८२)
अहंकार, घमंडी।
प्रवृद्धिः (स्त्री०) [प्र+वृध+क्तिन्] ०बढ़ना, वृद्धि। (जयो २/११४)
उन्नति, समृद्धि, पदोन्नति। प्रवीर (वि०) अग्रणी, उत्तम, सर्वश्रेष्ठ, पूज्य।
उत्कर्ष। ___ शौर्यसम्पन्न, शक्तिशाली।
प्रवेक (वि०) [प्र+विच्+ण्वुल्] श्रेष्ठ, उत्तम, अच्छा। प्रवीरः (पुं०) योद्धा, नायक, वीर, सुभट। (जयो०८/५) प्रवेगः (पुं०) [प्र+विज्+घञ्] वेग, गति, चाल। मुख्य व्यक्ति।
प्रवेटः (पुं०) [प्र+वी+ट] जौ, यव। प्रवृत (भू०क०कृ०) [प्र+वृ+क्त] संकलित, घटा हुआ। प्रवेणिः (स्त्री०) [प्र+वेण+इन्] बालों का जूड़ा, शृंगारहीन ०चुना हुआ।
बाल। प्रवृत्त (भू०क०कृ०) [प्र+वृत्+क्त] ०आरंभ किया गया, शुरू
झूल, हस्ति पलान। किया गया।
प्रवाह। प्रगत, कटिबद्ध, संलग्न।
प्रवेणिका (स्त्री०) कबरी, बेणी। (जयो० १३/५३) स्थिर, निश्चित, निर्धारण।
प्रवेत् (पुं०) [प्र+अच्+तुन्] ०सारथि, रथवाला, यान वाहक निर्बाधा
चालका विवादरहित।
प्रवेदन (नपुं०) [प्र+विद्+णिच+ल्युट] निवेदन, प्रतिवेदन, प्रवृत्तः (पुं०) गोल, वलयाकृति, वलयाकार आभूषण, कंगन। घोषणा। प्रवृत्तकं (नपुं०) रंगभूमि का अवतरण।
समुचित ज्ञान। (जयो० २७/५) प्रवृत्तालम्बनं (नपुं०) गोलाकार रंगमंच का आधार।
जतलाना, ऐलान करना। प्रवृत्तिः (स्त्री०) [प्र+वृत्+क्तिन्] ०प्रगति, मूल, स्रोत, उदय। | प्रवेपः (पुं०) [प्र+वेप्+घञ्] कपकपी, ठिठुरन, थरथराना। (जयो० १/६)
(दयो० ३८) आरंभ, शुरु। (सुद २/२ (जयो० १/५)
प्रवेपकः (पुं०) [प्र+वेप्क न्+घञ्] कपकपी। प्रयोग, रुचि, रुझान। (सम्य० १०२)
प्रवेरित (पुं०) [प्रवेर+इतच्] फेंका हुआ, डाला हुआ।
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प्रवेल:
७२२
प्रशस्त
प्रवेल: (पुं०) [प्र+वेल्+अच्] एक मूंग विशेष। प्रवेशः (पुं०) [प्र-विश्+घञ्] ०पहुंच, घुसना, अन्तर्गमन।
(सुद० ९४) मुख्य द्वार भाग, घुसने का स्थान।
आय, राजस्व। ०पीछा करना, प्रयोजन की तत्परता। प्रवेशकः (पुं०) [प्र+विश्+ण्वुल] घुसना, प्रविष्ट होना। प्रवेष्टः (भू०क०कृ०) [प्र+विश्+णिच्+क्त] प्रविष्ट कराया
हुआ, अंदन किया गया। प्रवेशिनी (वि०) प्रविष्ट होने वाली। (जयो०वृ० २/४३) प्रवेष्टः (पुं०) [प्र.वेष्ट्+अच्] भुजा, कलाई।
०पहुंचा गया। अंदर प्रविष्ट हुआ। प्रव्यक्त (भू०क०कृ) [प्रकर्षण व्यक्तः] स्पष्ट, साफ, प्रकट। प्रव्यक्तिः (स्त्री०) [प्र+वि+अज+क्तिन्] दर्शन, प्रकटीभवन,
दिखाई देना। प्रत्यक्षीकरण। प्रव्रज् (अक०) गमन करना, जाना। 'पुनः प्रवव्राज समुक्ति ___ हेतु प्रयुक्तये'। (वीरो० ११/६) प्रव्रजनं (नपुं०) [प्र+व+ल्युट्] विदेश गमन, विदेश यात्रा।
अस्थायी रूप से बसना। निर्वासित होना।
०वानप्रस्थ हो जाना। प्रव्रजित (भू०क०कृ०) [प्रव्रज्+क्त] निर्वासित, संयस्त,
प्रव्रज्या लिया हुआ, संन्यास लिया हुआ। प्रव्रजितः (पुं०) साधु, मुनि। प्रवजितं (नपुं०) साधु जीवन, साधु बनना। प्रव्रज्या (स्त्री०) [प्रव्रिज्+क्यपटाप्] संन्यास, दीक्षा, श्रमण
होना। दीक्षा अङ्गीकार करना। साधु बनना, संन्यासी जीवन। देशान्तर गमन, प्रयाण, पर्यटन। सावध योग का परित्याग।
विरतिपरिणाम। प्रव्रज्याह (वि०) आर्य देश में उत्पन्न। मुनिदीक्षार्थ। प्रतश्चनः (पुं०) [प्र+वश्च्+ल्युट] आरी, लकड़ी काटने का |
उपकरण। प्रव्राज् (पुं०) [प्रव्रज+क्विप्] साधु, मुनि, यति, संन्यासी, विरागी। प्रव्राजकः (पुं०) साधु, मुनि।
०पांच प्रकार के आचार्यों में प्रथम। प्रताजनं (नपुं०) [प्रव्रज्+णिच् ल्युट] निर्वासन, देशनिकाला।
प्रशंसनं (नपुं०) [प्र+शंस+ल्युट्] प्रशंसा करना, स्तुति करना,
स्नेह करना। प्रशंसनीय (वि०) श्लाघनीय, शिष्ट। (जयो०७० ३/२३)
बहुशोभि (जयो०वृ० ४/२५) स्तुति करने योग्य। प्रशंसा (स्त्री०) [प्राशंस्+अ+टाप्] गुणोद् भावनाभिप्राय:
स्तुति, गुणगान। आत्मानुशासन की शंसा। वर्णन, उल्लेख। कीर्ति, ख्याति, प्रसिद्धि।
०सम्मानजनक वाणी। प्रशंसायोग्यः (पुं०) गुणगान योग्य। (जयो०वृ० १/१३) प्रशंसित (भू०क०कृ०) [प्र+शंस्+क्त] प्रशंसा किया गया,
स्तुति किया गया। प्रशत्त्वन् (पुं०) [प्र+शद्+क्वनिप्] समुद्र, सागर। प्रशत्त्वरी (स्त्री०) नदी, सरिता। प्रशमः (पुं०) [प्र+शम्+घञ्] ०शमन, शान्ति, बुझाना, शान्तगुण
महाशयस्य प्रशमः प्रशस्यः। (सम्य० ७४) उपशमन। विराम, अंत, विनाश। •सान्त्वना, तुष्टिकरण। (सुद० १३०) ०कषायाभाव-प्रशमः कषायाभावः।
रागादीनमनुद्रेकः प्रशमः (त०वा० १/२) प्रशमगुणं (नपुं०) शांत गुण। (सम्य० ७४) प्रशमधर (वि०) प्रशमभाव के धारक। (सुद० १३६) प्रशमनं (वि०) [प्र+शम् णिच्+ल्युट्] ०शांत करने वाला,
शांति स्थापित करना। धीरज बंधाने वाला। दमन करना, धैर्य बांधना। दिलासा देना। चिकित्सा करना, स्वास्थ्य करना। उपयुक्त रूप से प्रदान करना।
०प्राप्त करना, ग्रहण करना। प्रशमभावः (पुं०) शांतपरिणाम। (जयो० १/८७) प्रशमित (भू०क०कृ०) [प्र+शम् णिच्+क्त] ०शमित, शांत
किया गया। (वीरो० २२/४१) ०बुझाई गई, शांत की गई।
प्रायश्चित्त किया गया, परिशोध किया गया। प्रशस्त (भू०क०कृ०) [प्र+शम्+णिच्+क्त] ०सान्त्वना दी
गई, धीरज बंधाया गया।
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प्रशस्तकरणोपशामना
७२३
प्रशान्तपदं
शान्त किया गया, तुष्टीकृत। (सुद० ११५) स्तुति की गई। (सुद० १/३ स्तुत० जयो० १/५) योग्य, उचित। (जयो० २/१०९) उत्तम। (सुद० ४/४२, शुभ०) (जयो० १/१८) प्रशंसनीय, श्लाघनीय। (जयो० १/१३) सौभाग्यशाली, प्रसन्न, आनन्दित। सर्वोत्तम, श्रेष्ठ। (सम्य० ११५)
पुण्य आशय, यथेष्टमार्ग। प्रशस्तकरणोपशामना (स्त्री०) आठों कारणों का शमन
होना, गुणों की उपासना। प्रशस्तघोटनः (पु०) उत्तम घोड़ा, सप्ति समूह।
(जयो०वृ० ३/११०) प्रशस्तज्ञानिन् (वि०) उत्तम ज्ञानी, उदार दर्शन। (जयो० २/३६) प्रशस्तधारणाशक्ति (स्त्री०) उत्तमबुद्धि बल। (जयो० २/१२) प्रशस्तध्यानं (नपुं०) श्रेष्ठध्यान, प्रकृष्ट ध्यान, शुद्धलेश्या का
आश्रय लेकर ध्यान करना। अस्तरागो मुनिर्यत्र वस्तुतत्त्वं विचिन्तयेत्।
तत् प्रशस्तं मतं ध्यानं सूरिभिः क्षीणकल्मषैः।। प्रशस्तनिदानं (नपुं०) संयम युक्त निदान। प्रशस्त-निस्सरणं (नपुं०) शान्त प्रवाह। ०संयम स्थान।
उत्तम भाव। प्रशस्तप्रभावना (स्त्री०) तीर्थ प्रभावना, प्रवचन प्रभावना, या
मोक्षमार्ग की प्रभावना। प्रशस्तभागः (पुं०) श्रेष्ठभाग। (जयो० १/१०) प्रशस्त-भावपिण्डः (पुं०) उत्तम क्षमादि युक्त भाग। प्रशस्तभावयोगः (पुं०) सम्यग्दर्शनादि उत्तमभाव का योग। प्रशस्तभावसंयोगः (पुं०) ज्ञान, दर्शन चारित्रादि गुणों का संयोग। प्रशस्तरागः (पुं०) अरहंत, सिद्ध आचार्यादि की भक्ति।
धर्मानुष्ठान। प्रशस्तलक्षणं (नपुं०) उत्तम स्वरूप, शिष्ट गुण। (जयो००
१/४५) प्रशस्त वात्सल्यः (पुं०) आचार्यादि के प्रति संक्लेश से रहित
आदरभाव। प्रशस्तविधिः (स्त्री०) उत्तमविधि, शिष्ट पद्धति। (जयो० प्रशस्त-विहायोगतिः (स्त्री०) उत्तम गति का कारण, वर-वृषभ
द्विरदादिप्रशस्तगतिकरणं प्रशस्तविहायोगतिनाम्। (त०वा० ८/११) प्रशस्तशरीरं (नपुं०) उत्तम देह। (जयो०वृ० १/१११)
सुगठित शरीर। सौष्ठव युक्त काय।
प्रशस्तस्थिरीकरणं (नपुं०) चारित्रादि में स्थिर करना। प्रशस्तिः (स्त्री०) [प्र+शंस्+क्तिन्] श्लाघा। (जयो० १/१२)
प्रशंसा, स्तुति, गुणगान। (सम्य० ४) विरूदावली (वीरो० ३/१२, जयो० १/१४)
०वर्णन, शुभकामना, श्रेष्ठभावना। प्रशस्तिस्तूपः (पुं०) शान्त मानस्तम्भ। (दयो० ६५)
० श्रेष्ठ विचारात्मक स्तूप। ०गुणानुवाद युक्त स्तम्भ।
निर्देशन, शिक्षण। प्रशस्तिभावः (पुं०) यशोगान। (वीरो० २०/२२) प्रशस्य (वि०) [प्र+शंस्+क्यप्] प्रशंसनीय, प्रशंसा योग्य।
(जयो० ३/२४)
प्रशंसा के योग्य, श्रेष्ठ, श्लाघनीय। (सम्य० ७४) (जयो०
१८/४१) प्रशाख (वि०) [प्रशस्ता शाखा यस्य] उत्तम शाखाओं वाला। प्रशाखिका (स्त्री०) [प्रशाखा+कन्+टाप्] टहनी, छोटी-छोटी
टहनिया। प्रशान्त (भू०क०कृ०) [प्र+शम् णिच्+क्त] ०शान्त, शान्ति
प्राप्त, स्वस्थ्यचित्त। प्रसन्न, हर्षित हुआ। (सुद० १२४) निश्चल, सौम्य, धीरता युक्त, गम्भीर। निस्तब्ध, धीर, निश्चेष्ट। समाप्त, क्षीण, विरत, विवृत्त।
निर्विकार, हिंसादि दोषों से रहित। प्रशान्तकरण (वि०) इन्द्रिय विजयी। (दयो० ३०) प्रशान्तकाम (वि०) संतुष्ट, संतोषी। प्रशान्तगत (वि०) शान्त हुआ, संतुष्टि को प्राप्त हुआ। प्रशान्तगेहं (नपुं०) शांतिप्रिय गृह। विश्रान्ति गृह। प्रशान्तचित्त (नपुं०) शांत मन, स्वस्थ्य चित्त। (जयो० १/२४) प्रशान्तचेष्ट (वि०) विरत, विवृत्त, शान्तचेष्टा वाला।
धीरता युक्त। प्रशान्तजन्मन् (वि०) निर्विकार जन्म युक्त। प्रशान्ततपः (वि०) निश्चल तप। उत्कृष्ट गगन। प्रशान्तदानं (नपुं०) यथेष्ट दान। पात्रोचिता दान। प्रशान्तधर्मन् (वि०) हिंसादि दोषों से रहित धर्म, उचित धर्म। प्रशान्तनभः (पुं०) बादलों रहित आकाश। प्रशान्तनयनं (नपुं०) ०निश्चेष्ट नेत्र। ०अपलक नयन।
सुंदर नेत्र। प्रशान्तपदं (नपुं०) निर्विकार पद, यथेष्टपद।
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प्रशान्तपाप
७२४
प्रसंख्यानं
प्रशान्तपाप (वि०) क्षीण पाप। पापों का अभाव।
प्रश्नान्तर (वि.) प्रश्न के पश्चात्। (जयो०७० ३/३५) प्रशान्तबाधा (स्त्री०) बाधाओं का अभाव।
प्रश्नाप्रश्नं (नपुं०) प्रश्नकर्ता के लिए कहना। प्रशान्तरसः (पुं०) विकार रहित भाव।
प्रश्नाक्षरं (नपुं०) प्रश्नकारक। (जयो० १०/३१) प्रशान्तिः (स्त्री०) धैर्य, शन्ति।
प्रश्वासः (पुं०) निःश्वसन, श्वांस। आराम, विराम, विश्राम।
प्रश्रथः (पुं०) [प्र+श्रथ्+अच्] शिथिलता, ढीलापन। निराकरण, बुझाना।
प्रश्रयः (पुं०) [प्र+श्रि+अच्] आदर, सम्मान, भक्ति। स्थिरता।
शिष्टाचार, विनय। प्रशान्त्य (सं०कृ०) स्वस्थचित्त करके। (भक्ति० ७) प्रश्रित (भू०क०कृ०) सुजन, नम्र, विनीत शिष्ट, प्रशामः (पुं०) [प्र+शम्+घञ्] ०शान्ति, धैर्य, स्थिरता।
शिष्टाचरणयुक्त। विश्राम, विराम।
प्रश्लथ (वि०) बहुत ढीला, अधिक शिथिल। ०प्यास बुझाना।
उत्साह, निस्तेज। ०शमन करना, शांत करना।
प्रश्लिष्ट (भू०क०कृ०) [प्र+श्लिष+क्त] मरोड़ा दियागया। प्रशासन (नपुं०) [प्र.शास्+ल्युट्] ०शासन करना, अनुज्ञा,
तर्क संगत, युक्ति युक्त। आज्ञा देना, राज्य शासन।
प्रश्लेषः (पुं०) [प्र+श्लिष्+घञ्] संहति, घना संपर्क। आदेश देना, सत्ता संभालना।
प्रश्वासः (पुं०) [प्र.श्वास्+घञ्] सांस, श्वसन, निःश्वास। प्रशास्तिस्तूपका (वि०) प्रशासनिकता। (दयो० १०९)
प्रश्वासक्रिया।
प्रश्रयः (पुं०) आश्रय, आधार, सहारा। (जयो० १०/५०) प्रशास्तु (पुं०) [प्र+शास्+तृच्] ०शासक, प्रशासक, नृप,
प्रष्ठ (वि०) [प्र+स्था+क] सामने स्थित। अधिपति। राजा, राज्यपाल।
०मुख्य, प्रधान, अग्रणी, उत्तम।
नेता, मुखिया, नायक। प्रशिथिल (वि०) अत्यधिक ढीला।
प्रस् (अक०) फैलाना, प्रसार करना, विस्तार करना, बिछाना। प्रशिष्यः (पुं०) शिष्य का शिष्य, शिष्य परम्परा।
प्रसक्त (भू०क०कृ०) [प्र+सञ्च+क्त] ०लग्न, संयुक्त। प्रशुद्धयन् (भू०) शुद्ध किया गया। (सम्य० १०९)
०अत्यन्त आसक्त/स्नेहशील। प्रशुद्धिः (स्त्री०) स्वच्छता, पवित्रता, विशुद्धि।
०अनुगामी, अनुषक्त। प्रशोषः (पुं०) [प्र+शुष्+घञ्] सूखना, शुष्क, सूख जाना।
स्थिर तुला हुआ, भक्त। प्रशोषित (वि०) सुखाती हुई। (दयो० ९) ।
०व्यसनग्रस्त। प्रश्चोतनं (नपुं०) [प्र+श्चुत् ल्युट्] छिड़कना, क्षरण।
०सटा हुआ, निकटस्थ। प्रश्न: (पुं०) [प्रच्छ+ नङ्] पृच्छ, पूछताछ, परिपृच्छा, सवाल।
निरन्तर, अविच्छिन्न, अनवरत। पृष्टा, चोद्य। (जयोवृ० २३/८३)
प्राप्त, गृहीत। सूत्र ग्रंथ का अनुभाग।
प्रसक्तिः (स्त्री०) [प्र+सञ्ज-क्तिन्] ०आसक्ति, अनुरक्ति, लगाव। ०संघ को लक्ष्यकर प्रश्न करना। विद्यादिदेवतां यत्पृच्छति
०व्यसन, सम्बंध, संयोग, संसर्ग। (वीरो० २/१२) स प्रश्नः ।'
०साहचर्य। प्रश्नकर्ता (वि०) पृच्छा करने वाला। (जयो० २३/४२)
०बीज-वपनादि क्रिया। (जयो० २/५) प्रश्नकशल: (पुं०) निर्यापकाचार्य। ०समाधि कराने में प्रवीण। | प्रसंख्या (स्त्री०) विचार-विमर्श। प्रशस्त कथन। प्रश्न में निपुण।
०कुल योग, राशि। प्रश्न व्याकरणं (नपुं०) एक आगम ग्रंथ, जिस अंग ग्रंथ में | प्रसंख्यानं (नपुं०) [प्र+सम्+ख्या ल्युट्] गिनना, विचारण,
शंकासमाधानपूर्वक प्रश्नों का व्याख्यान किया गया है, मनन, चिन्तन। वह दसवां अंग ग्रन्थ।
०कीर्ति, प्रसिद्धि, विश्रुति।
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प्रसंख्यानः
७२५
प्रसरः
प्रसंख्यानः (पुं०) [प्र+सम्+ख्या+घञ्] ०भुगतान, चुकाना। प्रसत्तिसंवादः (पुं०) प्रसन्नता युक्त समाचार। (जयो० १५/६१) प्रसङ्गः (पुं०) [प्रसङ्ग्+घञ्] प्रकरण, अवसर, समय, प्रसन्धान (नपुं०) [प्र+सम्+ध्या+ल्युट्] ०मेल , मिलान। संयोग/तद्दानप्रसङ्गोऽवसरः (जयो० १/३१)
प्रसन्न (भू०क०कृ०) [प्र+सद्+क्त] पवित्र, स्वच्छ, साफ, आसक्ति, भक्ति, साहचर्य, सहयोग, संसर्ग। (जयो० उज्ज्वल, निर्मल, विमल, पारदर्शी, मुदन्वयी। १/३१)
हर्ष, आनंद, खुश, संतुष्ट, तोष। (सम्य० ११५) कार्यतत्परता, तल्लीनता।
०दयालु, अनुग्रहशील, कृपालु, मंगलप्रद। एकाग्रता, संश्लेख। (जयो०वृ० ११/४७)
सरल, सीधा, स्पष्ट, सुबोध। एक विषय, शीर्षक।
सत्य, सही, यथार्थ, समीचीन। देवयोग, घटना, काण्ड, संभावना का होना।
प्रसन्नधी (वि०) हंसमुख। (दयो ७२) उपसंहार, अनुमान।
प्रसन्नवाञ्च (स्त्री०) प्रसन्नवाणी। (जयो०वृ० १/४३) ०सम्बंध, अभियोज्य प्रयोग।
प्रसन्नवाणी (स्त्री०) विमल वचन, पवित्र विचार। प्रसङ्गकरण (वि०) संयोग युक्त। (सुद० १०२)
प्रसन्नतादायक (वि०) हर्ष प्रदायक, शातप्रद। (जयो०वृ०४/२) प्रसङ्गगत (वि०) अवसर को प्राप्त।
प्रसन्नदृष्टि (स्त्री०) आन्नददृग। (जयो० १/७७) सरलदृष्टि, प्रसङ्गजनित (वि०) दैवयोग की प्राप्ति। ०एकाग्रता युक्त।
मंगलप्रद नेत्र, उचित अवलोकन। प्रसङ्गजात (वि०) दैवयोग की प्राप्ति। प्रसङ्गानुरूपार्थ प्रतिपादक। प्रसन्नमुखत्व (वि०) कृपादृष्टि वाला। (जयो०वृ० १/५७) (जयो० २/४२)
प्रसन्नवदन-देखो ऊपर। प्रसङ्गत (वि०) द्यूत व्यसन। जुआं के प्रति आसक्ति। प्रसन्ना (स्त्री०) एक मदिरा विशेष, जो द्राक्षा से बनाई प्रसङ्गप्राप्त (वि०) प्रसञ्जन। (जयो० २३/२६)
जात है। प्रसङ्गसाधन (वि०) स्वीकृति के बिना न होना, जिस साधन ०प्रसादन, अनुरंजन।
में व्याप्य की स्वीकृति को व्यापक की अविनाभाविनी- प्रसन्नाखण्डाधिकारवती (वि०) स्पर्श अखंड अधिकार वाली। व्यापक की स्वीकृति के बिना न होने वाली-दिखलाया जाए। (जयो० ३/८४) ०पर के गन्तव्य से ही जो उसे अनिष्ट का प्रसंग दिया प्रसन्नात्मन् (वि०) मंगलप्रद, कृपायुक्त। जाता है।
प्रसन्नीरा (स्त्री०) खींची हुई मदिरा। प्रसङ्गानुसारिणी (स्त्री०) अभिनयानुराधिनी। (जयोवृ० २/९४) प्रसभः (पुं०) [प्रगता सभा समानाधिकारी यस्मात्] * शक्ति, बल। प्रसङ्गिन् (वि०) संयोग वाला। (जयो० २/१३४)
oहिंसा, आरंभ। प्रसञ्जनं (नपुं०) [प्र+सञ्+घञ्] ०मिलाना, जोड़ना, एकत्र ०बहुत अधिक, अत्यंत। करना।
आग्रहपूर्वक। ०व्यवहार में लाना, सबल बनाना, उपयोग में लाना। प्रसभदमनं (नपुं०) बलपूर्वक दमन करना। प्रसंग प्राप्त (जयो० २३/२६)
प्रसभहरणं (नपुं०) बलपूर्वक, अपहरण। प्रसञ्जर (वि०) विचरण करने वाला। (सुद० ११९) प्रसभीक्षः (पुं०) गवेषणा, छानबीन। (जयो० १३/७१) प्रसत्तिः (स्त्री०) [प्रसिद्+क्तिन्] ०अनुग्रह, कृपालुता, | प्रसभीक्षणं (नपुं०) [प्र+सम्+ईक्ष+ ल्युट्] विचारण, शिष्टाचार, प्रसाद। (जयो० ३/१०६)
विचार-विमर्श। स्वच्छता, पवित्रता, विशदता।
निर्धारण। प्रसत्तिकृत (वि०) उज्ज्वलता युक्त। (जयो०वृ० ३/५३) प्रसभीक्षा (स्त्री०) [प्रसम् ईक्ष् अङ्टाप्] विचारण, निर्धारण। प्रसत्तिदायिनी (वि०) उदार युक्त। (जयो० ११/१३) प्रसयनं (नपुं०) [प्र+सि+ल्युट] ०बंधन, कसना। जाल। प्रसत्तिप्रद (वि०) प्रसारदायक। (वीरो० ५/३६) (वीरो० १/४)? प्रसरः (पुं०) [प्र+सृ+अप्] ०फैलना, आगे बढ़ना। (सुद० प्रसात्तिभृत (वि०) प्रसाद युक्त। (जयो० ११/१३)
९०) 'वृत्तं तदेत्प्रससारं लोकप्रान्तेषु शीघ्रं प्रभुदामथौकम्' प्रसत्तिमनम् (नपुं०) प्रसार युक्त मन। (जयो० ३/१०६)
(वीरो० १४/४६)
हा
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प्रसरणं
७२६
प्रसादनं
०प्रगमन करना।
प्रसव्य (वि.) [प्रगतं सव्यात्] प्रतिकूल, व्युत्क्रान्त, बायां, उल्टा। प्रसार, विस्तार, फैलाव।
प्रसह (वि०) [प्र. सह+अच्] सहनशील, सहिष्णु कष्ट उठाने ०आयाम, बृहद्मात्रा।
वाला। ०प्रचलन, प्रभाव।
प्रसहः (पुं०) शिकारी जानवर, पक्षी। ०सरिता, प्रवाह धारा, बाढ़, प्रपात।
सहनशील, विरोध। ०समूह, समुच्चय, समुदाय।
प्रसहनं (नपुं०) [प्र+सह ल्युट्] सामना करना,। ०युद्ध, लड़ाई।
विजय प्राप्त करना। ०लोहे की बाण।
आलिंगन, परिरम्भण। विनम्रभाव।
प्रसहनः (पुं०) [प्र+सह+घञ्] शिकारी जानवर या पक्षी। प्रसरणं (नपुं०) [प्र+सृ+ल्युट्] विस्तार, फैलाव, प्रसार। | प्रसह्य (अव्य०) [प्र+सह+ल्यप] बलपूर्वक, प्रचण्डता के साथ। ०प्रगमन, दौड़ना, बहना, शत्रु को घेरना।
०अत्यधिक, अत्यन्त। प्रसरणशील (वि०) विस्तार युक्त, पल्लविता (जयो०वृ० १/९१) प्रसातिका (स्त्री०) [प्रगता साति-सो+क्तिन्] एक प्रकार का प्रवाह युक्त। विनम्र भाव सहित।
धान्य विशेष। प्रसरणिः (स्त्री०) [प्र+सृ+अनि] शत्रु को घेर लेना। प्रसादः (पुं०) [प्रसिद्+घञ्] कृपा, अनुग्रह, दाक्षिण्य, प्रसरत्प्रभामण्डल (वि०) फैली हुई प्रभा। (जयो० १/८४) धीरता, शान्ति, सौम्यता, गांभीर्य। प्रसर्पणं (नपुं०) [प्र+सृप ल्युट्] चलना, सरकना, आगे बढ़ना। उत्तेजना का अभाव, शांत, प्रसत्ति। (जयो०वृ० ३/१०६) ०व्याप्त करना, सब ओर फैलना।
पुरस्कार, भेंट, उपहार। प्रसर्पति (वर्त०) उत्सुक रहता है (वीरो० ८/३२)
०अनुशासन। (जयो०वृ० १/६७) प्रसलः (पुं०) [प्र+सल्+अच्] हेमंत ऋतु।
०चढ़ावा, भोग। प्रसवः (पुं०) [प्र.सू+अप्] जनन, प्रसूति, जन्म देना, उत्पादन, कुशल, क्षेम, सौभाग्य। (वीरो० २/३१) जन्म।
स्वच्छता, निर्मलता, उज्ज्वलता, पारदर्शिता। बच्चे का जन्म, गर्भ मोचन।
प्रसाद गुण। संतान, प्रजा, शिशु।
प्रासाद। (सुद०७८) स्रोत, मूल, जन्मस्थान।
मंगल, कल्याण-'मङ्गललोकोत्तरमशरण्यानां प्रसाद इवा फूल, मञ्जरी।
भवत्। (जयो० १२/७२) प्रसवकः (पुं०) [प्रसवेन पुष्पादिना कायति शोभते-प्रसव+ दृष्टिदान (जयो० १०/११६) 'अभवदपि परस्परप्रसादः
कै+क] पियाल वृक्ष, चिरौंजी का पेड़, चारोली तरु। पुनरुभयोरिह तोष-पोषवादः। (जयो० १०/११६) प्रसवनं (नपुं०) [प्र+सू+ल्युट] पैदा करना, बच्चे को जन्म | प्रसादक (वि.) [प्रसिद्+णिच्+ण्वुल] कृपा करने वाला, देना। प्रसूति स्थान।
अनुग्रह करने वाला। ऊपजाऊपन, उपज युक्त स्थान।
पवित्र करने वाला, स्वच्छ करने वाला। प्रसवन्तिः (स्त्री०) [प्र+सू+भिच्] जच्चा स्त्री।
आनन्दित करने वाला, हर्ष उत्पन्न करने वाला। प्रसवन्ती (स्त्री०) [प्र+सू+शतृ ङीप्] जच्चा स्त्री।
प्रसन्न करने वाला। प्रसवपीडा (स्त्री०) संतानोत्पत्ति का कष्ट। (दयो० ५४)
सान्त्वना देने वाला, धैर्य बंधाने वाला। प्रसवबंधनं (नपुं०) उत्पत्ति का बन्ध, सृजन का ग्रहण! | प्रसादकारिणी (वि०) रुचिरा। (जयो०७० ३/३७) (जयोवृ० १४/२२)
प्रसाददायक (वि०) प्रसत्तिप्रद, प्रसन्न करने वाला। (वीरो० प्रसवितृ (वि०) [प्र+सू+तु] जनक, पिता।
५/३६) प्रसवित्रा (स्त्री०) [प्रसवितृ + ङीप्] भाता, जननी। प्रसादनं (वि०) [प्र+सद् णिच+ल्युट] निर्मल करना, पवित्र (जयो०१० ३/९)
करना, शांत करना।
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प्रसादन
७२७
प्रसिद्धतपस्वी
०सान्त्वना देना, धैर्य बंधाना। ०प्रसन्न करना, संतुष्ट करना।
•तुष्ट करना, कल्याण करना, अनुग्रह करना। प्रसादन (वि०) [प्र+सद्+णिच्+ण्वुल] ०आनन्दित करने वाला,
प्रसन्न करने वाला। ० धैर्य बंधाने वाला, विशुद्ध करने वाला।
नम्र, प्रसन्नता। (जयो० ११/३५) प्रसादना (स्त्री०) शुद्धिकरण, पवित्रीकरण।
सेवा, अर्चना। प्रसादविधि (स्त्री०) प्रसम्यता का भंडार। (जयो० १/१०५) प्रसादयितु [प्रसिद्+णिच्+तुमुन्] संतुष्ट करने के लिए।
(वीरो०८/३५) प्रसादित (भू०क०कृ०) [प्रसिद्+णिच्+क्त] ०पवित्र किया
हुआ, स्वच्छ किया हुआ। ०खुश किया हुआ, प्रसन्न किया हुआ।
धीरज बंधाया हुआ, सान्त्वना दिया हुआ। प्रसादितमानस् (नपुं०) प्रसन्नता युक्त मन। (जयो० १/१०१) प्रसादिनी (स्त्री०) आनन्ददायिनी, हर्षप्रदायिनी। (वीरो० १/१)
द्राक्षेव मृद्धी रसने हृदोऽपि प्रसादिनी नोऽस्तु मनाक् श्रमोऽपिप्रसाधक (वि०) [प्र+साध्+ण्वुल्] स्वच्छ करने वाला, शुद्ध
करने वाला। पवित्र करने वाला। अलंकृत करने वाला, सजाने वाला।
निष्पन्न करने वाला, पूर्ण करने वाला। प्रसाधकः (पुं०) पार्श्वचर।
०शृंगार करने वाला सेवक। प्रसाधनं (नपुं०) [प्र+साध ल्युट्] निष्पन्न करना, पूर्ण करना।
व्यवस्थित करना, विभूषित करना, अलंकृत करना, अलंकरण करना। (जयो० १०/४३) प्रतिकर्म। (जयो०वृ० १०/३२)
शरीर सज्जा, वस्त्राभूषण पहनना। (जयो० ३/१०५) प्रसाधनः (पुं०) कंघी। प्रसाधनविधिः (स्त्री०) शृंगार, सजावट। प्रसाधनविशेषः (पुं०) विशेष अलंकरण। प्रसाधनी (स्त्री०) कंघी। (जयो०वृ० १०/३२) प्रसाधिका (स्त्री०) [प्रसाधक+टाप् इत्वम्] सेविका, |
अलंकरणिका। प्रसाधित (भू०क०कृ०) [प्र+साध्+क्त] निष्पन्न, पूर्ण, |
कार्यान्वित।
विभूषित, अलंकृत, सुसज्जित। (जयो०वृ० १०/३२) प्रसाद्य (सं०कृ०) अलंकृत्य, सजा करके। (जयो०वृ० १/३६) प्रसारः (पुं०) [प्र+सृ+घञ्] ०प्रसारण, विस्तार, फैलाव,
प्रसूति। ०फैलाना, विस्तार करना। बिछावन। ०छाया (सुद० १३२) आसार (जयो० ६/५१) परिणाम-'कान्त्याः परिणामः प्रसारो यत्र' (जयो०७०
५/२६) प्रसारणं (नपुं०) ०प्रचारण। प्रचारणा मुहुर्मुहुः प्रकटीकरणं
पक्षे क्रमशः प्रसारणं येषां ते। (जयो० ३/१७) विस्तार करना, फैलाना, प्रसारण। प्रसूति, उत्पत्ति। ईंधन और घास फैलाना।
सम्प्रसारण भाव। प्रसारिणी (स्त्री०) [प्र+सृ+णिनि+ङीप्] शत्रु को घेरना। प्रसारित (भूक०कृ०) [प्र+सृ+णिच्+क्त] विस्तारित, प्रसृत किया गया।
प्रसार किया गया, फैलाया गया। ०बढ़ाया हुआ।
प्रदर्शित किया हुआ, रक्खा गया। प्रसार्यताम् फैलाया गया, देखा गया। (जयो० १३/३८) प्रसाहः (पुं०) [प्र+सह्+घञ्] जीत लेना, पराजित करना। प्रसित (भू०क०कृ०) [प्र+सि+क्त] संलग्न, व्यस्त।
०लालायित, इच्छुक। •तुला हुआ, संलग्न।
०बांधा हुआ, कसा हुआ। प्रसितं (नपुं०) पीव, मवाद। प्रसिति (स्त्री०) [प्र+सि+क्तिन्] ०जाल, घेरा।
०पट्टी, बंधन। प्रसिद्ध (भू०क०कृ०) [प्र+सिध्+क्त] विश्रुत, विख्यात।
अलंकृत, सुसज्जित, विभूषित। 'प्रकर्षण सिद्ध सिद्धिमापन्नं तत्तस्मादेव दिव्यस्य' (जयोवृ० १/३४) प्रसिद्धा न तु
विबुधस्य सिद्धिरनेकान्तस्य। (सुद०९१) प्रसिद्धगोत्र (वि०) ख्यातवंश, उत्कृष्टता को प्राप्त हुआ वंश। प्रसिद्धजाति (स्त्री०) ख्याति जाति। प्रसिद्धतपस्वी (वि०) तपस्या के लिए प्रसिद्ध हुआ।
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प्रसिद्धतापस्
७२८
प्रसेकः
प्रसिद्धतापस् (वि०) ख्यात गुण युक्त तपस्वी। प्रसिद्धदानं (नपुं०) उत्कृष्ट दान। प्रसिद्धवंश (वि.) ख्यातवंश वाला, अच्छे कुल/गोत्र वाला। प्रसिद्धसंधिन् (वि०) ख्यात संघ वाला। प्रसिद्धा (स्त्री०) कीर्ति, विश्रुति, ख्याति। (जयो०वृ० १/३) प्रसिद्धि (स्त्री०) [प्र+सिध+क्तिन] ०ख्याति, यश, कीर्ति,
विश्रुति। ०सफलता, पूर्ति, निष्पन्नता।
०शृंगार, अलंकरण। प्रसिद्धिमत् (वि०) प्रशंसनीय, कीर्तिमय। प्रसिद्धिरस्यास्तीति
प्रसिद्धिमत् प्रशंसनीयम्। (जयो०). प्रसिद्धिशील (वि०) कीर्तिवाला। प्रसीदिका (स्त्री०) [प्रसिद्+ण्वुल्-प्रसाद्यतेऽस्याम्] वाटिका, उद्यान। प्रसुप्त (भू०क०कृ०) [प्र+स्वप्+क्त] निद्रित, सोया हुआ
आलस्य युक्त। प्रसुप्तिः (स्त्री०) [प्र+स्वप्+क्तिन्] प्रगाढ़ निद्रा, घोर निद्रा।
०व्याकुलता। निद्रालुता।
०बेचैनी, बेहोशी। प्रसू (वि०) [प्र+सू+क्विप्] प्रकाशित करने वाला, पैदा करने
वाला, जन्म देने वाला। प्रसूत (भू०क०कृ०) [प्र+सू+क्त] उत्पन्न, जनित, सूत। (वीरो०
समु० १०) (दयो० ३) (जयो० १०/११७)
उत्पादित, पैदा किया गया। (जयो० ३/८६) प्रसूर्त (नपुं०) पुष्पा
उपजाऊ स्रोत। प्रसूता (स्त्री०) जच्चा स्त्री। प्रसूति (स्त्री०) [प्रसूक्तिन्] ०प्रसव, प्रसर्जन, जन्म, उत्पत्ति।
उत्पादन, जनम। (समु०३/२१) जन्म देना, उत्पन्न करना। प्रकट होना, दर्शन। संतति, प्रजा, अपत्य। ०उत्पादक, जनक, प्रस्रष्टा।
विकसन। प्रसूतिका (स्त्री०) जच्चा स्त्री। प्रसूति। प्रसूतिजं (नपुं०) प्रसव पीड़ा। प्रसूत्व (वि०) उत्पत्ति वाला। (सुद० २/१०)
प्रसून (भू०क०कृ०) [प्र+सू+क्त] उत्पन्न, जन्म दिया,
पैदा किया। प्रसून (नपुं०) पुष्प, फूल। प्रसूनकं (नपुं०) कुसुमत्व, पुष्पत्व। प्रसूनता (वि०) पुष्पपना, फूलपना। (सुद० ३/२१) प्रसूनवर्षः (पुं०) पुष्पवृष्टि। प्रसूनवाणः (पुं०) कामदेव। (जयो० १,७६) प्रस (अक०) फैलना, बढ़ना, विकसित होना, विस्तृत होना।
प्रसरन्ति (जयो० १/१०२)
प्रसन्न होना-प्रससार (जयो० ८८२) अथ जन्मनि सन्मनीषिणः प्रससारात्यभितो यश: किण:।। (वीरो० ७/१)
लोट-पोट होना-प्रसरन् (सुद० ३/२५) प्रसृत (भू०क०कृ०) [प्रसृ+क्त] फैला हुआ, आगे बढ़ा हुआ।
फैलाया गया, प्रसारित किया गया। विस्तृत, विस्तार युक्त, लम्बा, विस्तीर्ण। ०व्यस्त, लगा हुआ। •फुर्तीला, तेज।
सुशील, विनीता प्रसृतः (पुं०) दो पग माप। (जयो० ११/१९) प्रसृता (स्त्री०) पैर। प्रसताच्छल (वि०) पैरों के बहाने। (जयो० ११/१९) प्रसृतिः (स्त्री०) [प्र+सृ+क्तिन्] ०प्रगति, आगे जाना, बहना।
फैली हुई हथेली, अञ्जलि। प्रसृतिभावः (पुं०) अञ्जलि भाव। (जयो० १/१०३) प्रसृत्वर (वि०) [प्र+सृ+क्वरप्] ०बहता हुआ, झरता हुआ।
फैलता हुआ, आगे बढ़ता हुआ।
०टकराने वाला। प्रसृमर (वि०) [प्र+सृ+क्मरच्] ०बहता हुआ, झरता हुआ। ___घायल, क्षतिग्रस्त। प्रसृष्ट (भू०क०कृ०) [प्र+सृज्+क्त] त्यागा हुआ।
एक ओर डाला हुआ। ०बहाया हुआ।
घायल किया गया। ०क्षतिग्रस्त। प्रसृष्टा (स्त्री०) फैली हुई अंगुली। प्रसेकः (पुं०) [प्र+सिच्+घञ्] ०बहना, रिसना, झरना।
०टपकना, गिरना, चूना। छिड़कना, आई करना। उगिरण, प्रस्रवण। उद्गमन, वमन, कै।
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प्रसेदिका
७२९
प्रस्थानकालोचित
प्रसेदिका (स्त्री०) वाटिका, छोटा उद्यान।
०आमुख, प्रस्तावना, भूमिका। प्रसेनजितः (पुं०) महावीर शासन काल में दीक्षा को प्राप्त उल्लेख, संकेत, संदर्भ। (जयोवृ० १/६९)
होने वाला राजा प्रसेनजित, जिसकी रानी मल्लिकादेवी थी ०अवसर, समय, ऋतु। प्रसेनिकाकुशलः (पुं०) अनुरंजित करने वाली विद्या।
विषय, शीर्षक। १. अंगुष्ठप्रसेनिका, २. अक्षर प्रसेनिका, ३. प्रदीपप्रसेनिका, ४. | प्रस्तावना (स्त्री०) [प्र+स्तुणिच्यु च्-टाप्] भूमिका, प्रारंभिनी,
शशिप्रसेनिका, ५. सूर्यप्रसेनिका और ६. स्वप्नप्रसेनिका ये आमुख। प्रारम्भिकी, प्राक्कथन। समस्त विद्याएं हैं।
०प्रशंसा, सराहना। प्रसेवः (पुं०) [प्र+सिव्+घञ् प्रसेव+किन्+घञ्] थैला, बोरा, परिचय, सूत्रधार। बोरी, गहरा पात्र।
प्रस्तावित (वि०) [प्रस्तु+णिच्+क्त] ०प्रारंभिक, उल्लिखित, प्रसेवकः (पुं०) बोरा, थैला।
संकेतत। प्रस्कन्दनं (नपुं०) [प्रस्किन्द्+ल्युट्] ०छलांग लगाना, कूद प्रारंभ किया हुआ, शुरू किया हुआ। जाना, उछलना।
इंगित। विरेचन, जुलाब, अतिसार।
प्रस्तिरः (पुं०) पर्णशय्या, पुष्पशय्या। प्रस्कन्न (भू०क०कृ०) [प्रस्किन्द्+क्त] ०पतित, गिरा हुआ। | प्रस्तीतः (पुं०) [प्र+स्त्यै+क्त] कोलाहल करने वाला, ०छलांग लगया गया।
शब्दायमान। ०पार किया गया।
प्रस्तुत (भू०क०कृ०) [प्रस्तु+क्त] फैलती हुई, व्यापक होने प्रस्कन्नः (पुं०) जातिवहिस्कृत।
वाली। 'समन्तादाप्तशाखाय प्रस्तुताऽस्मै सदा स्फीतिः।। ०पापी, दुष्ट।
(सुद० ८२) प्रस्कुन्दः (पुं०) [प्रगतः कुन्दं चक्रम्] गोलाकार वेदी।
घटित, उपागत, प्राप्त। (जयो०वृ० १/३) प्रस्खलनं (नपुं०) [प्र+स्खल+ल्युट्] लड़खड़ाना, डगमगाना, निष्पन्न, कृत, कार्यान्वित। गिर जाना, पतन।
विचाराधीन, विचारणीय। प्रस्तरः (पुं०) [प्र+स्तृ+अच्] पर्णशय्या।
आरंभ की गई। पुष्पशय्या, पर्यंक, खटिया।
प्रस्तुतं (नपुं०) उपस्थित विषय, विचारणीय विषय। समतल शिखर।
प्रस्थः (पुं०) एक प्रमाण विशेष। ०प्रस्तर, चट्टान, पत्थर, पाषाण। (जयो० २/१२)
साढ़े बारह पलों का एक प्रस्था ०मूल्यवान्, रत्न प्रस्तर।
चार कुद्रव प्रमाण माप। प्रस्तरणं (नपुं०) [प्र+स्तृ+ल्युट्] ०पर्यंक, खटिया, पलंग।
समतल भूमि-इन्द्रप्रस्था शय्या, विस्तरण, बिछौना।
प्रस्थ (वि०) [प्र+स्था क] जाने वाला, दर्शन करने वाला, प्रस्तरोच्चयः (पुं०) पाषाण समूह। (जयो० ४/३८)
पालन करने वाला। प्रस्तारः (पुं०) [प्र+स्तृ+घञ्] पुष्पशय्या, पर्णशय्या।
यात्रा पर जाने वाला, फैलाने वाला। पलंग, खाट, खटिया।
दृढ़, स्थिर। फैलाना, विस्तृत करना।
प्रस्थम्पच (वि०) [प्रस्थ+पच्+अच्] प्रस्थमात्र, पकाने वाला। आच्छादित करना।
प्रस्थानं (नपुं०) [प्र+स्था ल्युट] प्रयाण, गमन। ० चपटी सतह, समतल स्थान।
(जयो० ३/१०६) वनस्थली, अरण्य, जंगल।
कूच करना, विहरण। (जयो० ३/३४) एक छन्द विशेष।
०मरण, मृत्य, विनाश। प्रस्तावः (पुं०) [प्रस्तु+घञ्] ०आरंभ, शुरु।
प्रस्थानकालोचित (वि०) उचित काल में प्रयाण। (जयो०वृ० रचना, कृति। (जयो०वृ० १/६२) (जयो० १/२)
१२/३६)
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प्रस्थापनं
७३०
प्रहत
गया।
प्रस्थापनं (नपुं०) [प्रस्था+णिच्+ल्युट्] ०भेजना, विसर्जित खोलना, प्रकट करना। करना।
मुकुलित होना। प्रेषित करना।
छेदना, पीटना। ०प्रमाणित करना, प्रदर्शन करना।
०धान्य साफ करना। उपयोग करना, काम में लगाना।
प्रससिन् (वि०) [प्र+संस्+णिनि] गर्भपात होना, गर्भ गिरना। प्रस्थापित (भू०क०कृ०) [प्र+स्था+णिच्+क्त] ०प्रेषित, भेजा प्रस्रवः (पुं०) [प्र+मु+अप्] ०बहना, टपकना, निकलना, गिरना।
०बहाव, धारा, प्रवाह। स्थापित, सिद्ध।
रिसना, झरना पतित होना। प्रस्थित (भू०क०कृ०) [प्र+स्था+क्त] ०प्रस्थान किया, प्रयाण | प्रस्रवणं (नपुं०) [प्र+स्नु+कान्+ल्युट्] गोमूत्र, मूत्रोत्सर्ग। (जयो०
किया। (जयो० ३/३४) प्रस्थित सहसोत्थाय २४८७) श्रीमतामग्रगामिना। (जयो० ३/९८) प्रस्थिते भवन्तमुद्दिश्य नाली, टोंटी। गन्तुमुद्यते। (जयो० ३/८९)
०टपकना, झरना, बहना। विसर्जित किया, यात्रा पर गया हुआ।
जलप्रपात, निर्झर, झरना, स्रोत। प्रस्थितिः (स्त्री०) [प्र+स्था+क्तिन्] चले जाना, विदा होना, प्रवाहिका। कूच करना।
स्वेद, पसीना। प्रयाण करना।
प्रस्रवणः (पुं०) एक पर्वत। प्रस्नः (पुं०) [प्र+स्ना+क] स्नान पात्र।
प्रस्रावः (पुं०) [प्र+उ+घञ्] ०बहाव, प्रवाह। ०मूत्र। प्रस्नवः (पुं०) [प्र+स्नु+अप्] उमड़ कर बहना, नि:स्रवण। प्रसृत (भू०क०कृ०) [प्र+सु+क्त] ०झरा हुआ, गिरा हुआ। ०धार, प्रवाह।
उमड़ा हुआ, रिसा हुआ। प्रस्तुत (भू०क०कृ०) [प्र+स्नु+क्त] झरता हुआ, बहता हुआ, प्रस्वनः (पुं०) [प्र+स्वन्+अप्] उच्च ध्वनि, ऊंचा स्वर। निकलता हुआ।
प्रस्वापः (पुं०) [प्र+स्वप्+घञ्] निद्रा, स्वप्न। प्रस्नुस्तनी (स्त्री०) स्तन से दूध बहाने वाली स्त्री।
प्रस्विन्न (भू०क०कृ०) [प्र+स्विद्+क्त] ०पसीना आया हुआ, प्रस्नुषा (स्त्री०) पौत्रवधू।
पसीने से तर। प्रस्पन्दनं (नपुं०) [प्र+स्पन्द्+ल्युट्] धड़कन, थरथराहट, प्रस्वेदः (पुं०) [प्र+स्विद्+घञ्] पसीने की तीव्रता, पसीने में कंपकंपी।
तर। प्रस्पष्ट (वि०) स्पष्ट, प्रकटीभूत। (जयो०८/६८) (सुद०२/१६) | प्रस्वेदजलं (नपुं०) श्रमवारी, श्रमकण। (जयो० १३/७७) अत्यंत स्पष्ट। (समु० २/३०)
सिप्रशिव। (जयो० १३/७९) प्रस्फुट (वि०) [प्र+स्फुट ल] विकसित, प्रस्तारित, फैला पसीना। (जयो०वृ० १५/५०) हुआ।
प्रस्वेदनिस्विन्न (वि०) श्रमजलार्द्र, पसीने से व्याप्त। 'प्रस्वेदेव प्रकाशित, भासित, स्पष्ट।
श्रमजलेन निस्विन्नयाऽर्द्रता' (जयो०वृ० १३/८४) ०सरल, साफ, स्वच्छ।
प्रस्वेदपूरः (पुं०) सिप्रसार, श्रमपूरिपूर्ण, श्रमजल, स्वेदजल। प्रस्फुर (अक०) फैलना, कांपना, थरथराना।
(जयो० १२/६२) पसीने से व्याप्त। विकसित होना। (प्रस्फुरन्ति-विकसन्ति) (जयो० ४/५४) | प्रस्वेदित (भू०क०कृ०) [प्र+स्विद्+णिच्+क्त] पसीने से परिपूर्ण, प्रस्फुरित (भू०क०कृ०) [प्र+स्फुर/क्त] विकसित, फैला हुआ। प्रस्वेदपूर श्रमजल से व्याप्त। ०कंपकपाता हुआ, थरथराता हुआ।
०स्वेदाच्छन्ना ठिठुरता हुआ।
प्रहणनं (नपुं०) [प्र.ह्न ल्युट्] वध, हत्या। प्रस्फोटनं (नपुं०) [प्र+स्पुट्+ ल्युट्] खिलना, विकसित होना, | प्रहत (वि०) [प्र+ह्न+क्त] घायल, वध किया हुआ, मारा हुआ। फूलना।
०आहत।
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प्रहरः
७३१
प्रहीण
०पीछे ढकेला हुआ, फुलाया हुआ, सटा हुआ। प्रहस्तः (पुं०) [प्रततः प्रसृतो हस्तः] ०खुला हुआ हाथ, ०घिसा-पिटा, गतानुगतिक।
थप्पड़, हथेली। निष्पन्न, विद्वान्।
रावण के एक सेनापति का नाम। प्रहरः (पुं०) [प्र+ह+ल्युट्] ०प्रहार करना, मारना, आक्रमण प्रहाणं (नपुं०) [प्र+हा+ल्युट्] ०छोड़ना, त्यागना, भूल जाना। करना।
निवारण, रोकना। घायल करना, धावा बोलना।
प्रहाणय (वि०) अपराध रोकने वाला। गलेऽथ लेखात्रितयेण ०हटाना, बाहर निकालना।
चागः प्रहाणये किन्नु कृतो विभागः। (जयो० ११/४८) संग्राम, युद्ध, लड़ाई।
'प्रहाणय-पारम्परिक-कलह-निवारणीय। (जयो०० प्रहरणार्थ (वि०) मारने के लिए। (जयो० ८९)
११/४८) प्रहरणीयं (नपुं०) [प्र+ह+अनीयर] अस्त्र, शस्त्र, मारने योग्य। | प्रहाणिः (स्त्री०) [प्र+हा+नि+णत्वम्] ०छोड़ना, त्यागना, (दयो०६०)
परित्याग करना। प्रहरिन् (पुं०) [प्रहर+इनि] रखवाला, पहरेदार, घंटी वाला। ०कमी, अभाव, शीघ्र हानि। (जयो० १८/३७) प्रहत (वि०) [प्र+ह+तृच्] प्रहार करने वाला, पीटने वाला, प्रहारः (पुं०) [प्र+ह+घञ्] आघात, चोर, मुक्का , घात, हमला करने वाला।
ठोकर। (जयो०८/२६) लड़ने वाला, योद्धा, संयोधी।
०मारना, पीटना, चोट पहुंचाना। निशानेबाज, तीरंजदाज धनुर्धर।
कृतान् प्रहारान्, समुदीक्ष्य, हारायितप्रकारांस्तु विचारधारा। प्रहर्ष (पुं०) [प्र. हृष्+घञ्] ०अत्यानन्द, अधिक हर्ष, बहुत (सुद० १०७) 'हारे प्रहारेऽपि समानबुद्धिमुपैति' (सुद०११७) खुशी।
प्रहारणं (नपुं०) [प्र+ह+णिच्+ल्युट्] उचित भेंट, सम्मानजनक उल्लास, उमंग।
उपहार। प्रहर्षणं (नपुं०) [प्र+हष्+ल्युट्] उल्लसित करना, हर्षित प्रहासः (पुं०) [प्र+हस्। घञ्] ०अट्टहास, मजाक, हंसी, करना, आनन्दित करना।
ठिठोली। प्रहर्षणः (पुं०) बुध ग्रह।
०व्यंग्योक्ति, व्यंग्य। प्रहर्षणी (स्त्री०) [प्र+हरु+णिच्+ङीप्] ०हल्दी।
नर्तक, नाट, पात्र। छन्द विशेष।
०दर्शन, दिखावा। प्रहषिक (वि०) [प्र+हष्+कन्+इत्वम्] हर्षकी, आनन्द प्रदान | प्रहासिन् (पुं०) [प्र+हस्+णिच्+णिनि] विदूषक, हंसी मजाक करने वाली। 'मादृशा दृशा प्रहर्षिके' (जयो० ५/१०६)
करने वाला मसखरा। प्रहसनं (नपुं०) [प्र+हस्+ल्युट्] हसनशील, अट्टहास। । प्रहिः (स्त्री०) [प्र+हि+क्विप्] कूप, कुंआ। (जयोवृ० १७/३७) खिल खिलाकर हंसना।
प्रहित (भू०क०कृ०) [प्र+धा+क्त] ०रक्खा हुआ, प्रस्तुत ठिठोली, स्वांग, तमाशा।
किया हुआ। ०व्यंगलेख, व्यंग।
०बढ़ाया, फैलाया हुआ। सुखान्त नाटक।
प्रेषित, भेजा हुआ, निर्देशित। नाटक का एक भेद।
निशाना लगाया हुआ। प्रहसन्ती (स्त्री०) [प्र+हस्+शतृ ङीप्] ०चमेली, जूही, यूथिका, समुचित, उपयुक्त। वासन्ती।
प्रहितं (नपुं०) चाट, चटनी। ०अंगीठी, चूल्हा।
प्रहीण (भू०क०कृ०) [प्र+हा+क्त] नीचकुल, निम्न कुल। प्रहसित (भू०क०कृ०) [प्र+हस्+क्त] ०हंसता हुआ, अट्टाहास (दयो० २/१) करता हुआ।
रहित, विनाश, अभाव। (जयो० १९/६६) प्रहसितं (नपुं०) [प्र+हस्+क्त ल्युट्] हंसी, हास्य।
त्यागा गया, छोड़ा गया।
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प्रहीणं
७३२
प्राकृतभाषा
प्रहीणं (नपुं०) विनाश, निराकरण, घाटा। प्रहुतः (पुं०) भूतयज्ञ। प्रहुतं (नपुं०) आहूत यज्ञ। प्रहृत (भू०क०कृ०) [प्र+ह+क्त] पीटा गया, आघात किया
गया, चोट पहुंचाया हुआ। प्रहृत्य (वि०) हर्ष युक्त। (जयो० ८/२३) प्रहृष्ट (भू०क०कृ०) [प्र+हष्+क्त] खुश, प्रसन्न, आनन्दित
रोमाञ्चित। (जयो०८)
आनन्दित, पुलकित, आह्लादित।
रोमाञ्चित करना। प्रहृष्टकः (पुं०) [प्रहृष्ट+कन्] काक, कौआ। प्रहेलकः (पुं०) [प्र+हिल्+ण्वुल] ०पहेली। प्रहेलिका। प्रहेला (स्त्री०) [प्र+हिल्+अ+टाप्] मुक्त व्यवहार, अनियन्त्रित
व्यवहार। प्रहेलिः (स्त्री०) प्रहेलिका, पहेली, कूट प्रश्न। प्रहेलिका (स्त्री०) पहेली, कूट प्रश्न, बुझौबल, बूझो तो जानो। प्रह्लन (भू०क०कृ०) [प्र+हाद्+क्त] आनन्दित हो गया, प्रसन्न
हो गया। प्रह्लादः (पुं०) [प्र+ह्लाद्+घञ्] हर्ष।
० आनंद, खुशी, प्रसन्नता।
शब्द, आवाज। - हिरण्यकशिपु का पुत्र, प्रह्लाद। प्रह्लादन (वि०) [प्र+हाद्+णिच्+ण्वुल्] आनंद देने वाला,
खुश करने वाला। प्रह्लादनं (नपुं०) हर्ष, आनंद। प्रत (वि०) [प्र+ह्व+वन्] तिरछा।
झुका हुआ, तिर्यग्। विनम्र। दीन, विनीत, विनयी, सुशील।
•अनुरक्त, भक्त, आसक्त। प्रह्वयति-विनीत करना, विनम्र बनाना। प्रवलिका (स्त्री०) प्रहेलिका। प्रायः (पुं०) [प्र+हे+घञ्] आमंत्रण, निमंत्रण। प्रांशु (वि०) [प्रकृष्टा अंशवो यस्य] लम्बा, विस्तार युक्त। प्रांशुः (पुं०) लम्बा आदमी। प्राक् (अव्य०) [प्राचि सम्तम्यर्थे असिः तस्य लुक्] पहले,
पूर्व का, प्राचीन समय का। पूर्व अंश, पूर्व भाग में। (सम्य० १८/६३)
सामने।
जहां तक हो, वहां तक। प्राकशैलः (पुं०) पूर्व पर्वत। (जयो० १८/६३) प्राकट्यं (नपुं०) [प्रकट+ष्यञ्] प्रकट करना, प्रकाशित करना,
कुख्याति। प्राकरणिक (वि०) [प्रकरण+ठक्] प्रकरण से सम्बंधित,
विचारणीय विषय से सम्बंध रखने वाला। प्रस्तुत विषय
से सम्बद्ध। प्राकषिक (वि.) [प्रकर्ष+ठक्] ०श्रेष्ठतर, उत्तमतम। __अधिक अच्छा समझा जाने वाला। प्राकषिकः (नपुं०) [प्र+आ+कष्+उकन्] ०लौंडा, गांडू।
दूसरे की स्त्री से अपनी जीविका चलाने वाला। प्राकाम्यं (नपुं०) [प्रकाम+ष्यञ्] स्वेच्छाचारिता, अनिवार्य
संकल्प। मनोरथ की प्राप्ति।
प्राकाम्य ऋद्धि, जिससे प्रचुर अभिलाषा हो। प्राकारः (पुं०) परकोटा, चारों ओर की ऊंची दीवारें, वप्र
(वीरो० २/२४) वरण, कोट (वीरो० २/२९) परकोटा
(जयो० १५/२६) (दयो० १६) प्राकृत (वि०) [प्रकृति+अण्] ०स्वाभाविक, नैसर्गिक,
अपरिवर्तित। मौलिक, अविकृत। प्रचलित, सामान्य, साधारण। असंस्कृत, असम्भ, अशिक्षित, गंवार। नगण्य, महत्वहीन, तुच्छ। प्रकृति से उत्पन्न।
प्रान्तीय, देहाती। प्राकृत ज्वरः (पुं०) सामान्य बुखार। प्राकृत प्रलयः (पुं०) पूर्ण विघटन, पूर्ण विनाश। प्राकृतभाषा (स्त्री०) प्रकृति/स्वभाव सिद्ध भाषा 'प्रकृतौ भवं
प्राकृतम, स्वभावसिद्धमित्यर्थः' तत्जन्म-उससे उत्पन्न देश्यादि से समन्वित स्वाभाविक भाषा। 'प्राकृतं तज्ज-तत्तुल्य-देशादिकमनेकधा' (जैन०ल० ७८७) * प्राकृत शब्द प्राकृत भाषा का बोध कराने वाला शब्द है।
प्रकृति संस्कृतम, तत्रं भवं तत आगतं वा प्राकृतम् जो मूल संस्कारित शब्द को रखकर जिसे प्राकृत रूप दिया जाता है वह प्राकृत भाषा है 'प्रक्रियते यया सा प्रकृतिः' जिससे दूसरे पदार्थों की उत्पत्ति हो।
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प्राकृतमित्रं
७३३
प्राच, प्राञ्च
'सहजो वचन व्यापारः प्रकृतिः, तत्र भवं सैव वा प्राकृतम्' जो सहज/स्वाभाविक वचन व्यापार है वह प्रकृति है,
उससे उत्पन्न प्राकृत है। प्राकृतमित्रं (नपुं०) नैसर्गिक मित्र। प्राकृतिक (वि०) [प्रकृति+ठञ्] प्रकृतिजन्य।
नैसर्गिक, स्वाभाविक। एतत्प्राकृतिक दृश्यमनिष्टं नेष्टर्मित्यपि। (हित० ५९) ०प्रकृति से उत्पन्न। सहज, सर्वप्रथम। (जयो०वृ० १०/५०)
०भ्रान्तिजनक, भ्रमोत्पादक। प्राकतन (वि०) [प्राच्+टयु] ०पहला, पूर्व का, पिछला।
पुराना, प्राचीन, पुरातन।
०पूर्वजन्म से सम्बंध, पूर्व जन्म में किए गए कार्य। प्राक्कर्मन् (नपुं०) पूर्वजन्म कृत कार्य। प्राक्कालः (पुं०) पुरातन समय। प्राक्कालीन (वि०) पूर्वकाल से सम्बंध रखने वाला। प्राक्कूल (वि०) पूर्वदिशा की ओर। प्राक्कृतं (नपुं०) पूर्व जन्म का कार्य। प्राक्चरण (वि०) पुरातन आचरण, प्राखर्यं (नपुं०) [प्रखर+ष्यञ्] ०पैनापन,
तीक्ष्णता,
दुष्टता। प्रागल्भ्यं (नपुं०) [प्रगल्भ+ष्यञ्] ०साहस, भरोसा।
० अहंकार, अभिमान। ०प्रवीणता, कुशलता। विकास, बड़प्पन, परिपक्वता। ०वाक्चातुर्य, वचन कौशल। ०धूमधाम, मर्यादा।
०धृष्टता, ढिठाई। प्रागभावः (पुं०) कार्य से पूर्व जो उसका अभाव रहता है, जिसकी निवृत्ति होने पर ही कार्य की उत्पत्ति होती है।
कार्योत्पत्ति के पूर्व पर्याय में कार्य का अभाव होना
प्रागभाव है। (जयो० हि० २६/८७)। प्रागादेशी (पुं०) पूर्व आदेश वाली। (हित० ७) प्रागारः (पुं०) [प्रकृष्टः आगारः] भवन, गृह, घर। प्रागुत्थित (वि०) पूर्वदिशिसञ्जात, पूर्व दिशा में उत्पन्न हुआ।
(जयो० १८/२२) प्रागेव (अव्य०) पहले ही, पूर्व ही। समम्यवाञ्छियत्तेन प्रागेव
समपादितत्। (वीरो० ८/२)
प्राग्भव (वि०) पूर्वभव में उत्पन्न। (सुद० ४/१६) प्राग्भागः (पुं०) प्राचीन, पुरा। (जयो०वृ० १/५) प्राग्भाषी (वि०) पहले से ही कथन करने वाला। प्रागुं (नपुं०) उच्चतम बिन्दु। प्राग्रसर (वि०) प्रथम, अग्रणी। प्राग्रहर (वि०) मुख्य, प्रधान। प्राग्जन्मन् (नपुं०) पूर्वजन्म। प्राग्जातिः (स्त्री०) पूर्व उत्पत्ति, प्रथम उत्पत्ति। प्राग्ज्योतिषः (पुं०) एक देश का नाम। प्राग्देशः (पुं०) पूर्वदिशा का द्वार। प्राग्रूपः (पुं०) प्रथम रूप, आद्य रूप। प्राग्विषद (वि०) पहले जल दायी। (वीरो० २१४८)
प्रथम विष प्रदायी। प्राग्यु (वि०) [प्राग्र+यत्] मुख्य, उचित, श्रेष्ठ।
०अग्रणी, प्रधान।
उत्तम, अतिश्रेष्ठ। प्रागाटः (पुं०) [प्राग्+अट्+अच्] पतला जमा हुआ दूध। प्राघदं (नपुं०) पाप, बुराकर्म। (वीरो० १६/२४) प्राघातः (पुं०) [प्रकृष्टं आघात:] युद्ध, संग्राम, लड़ाई। प्राधारः (पुं०) [प्र+घृ+घञ्] टपकना, बूंद बूंद गिरना, रिसना। प्राघुणः (पुं०) [प्र+घुण+क] पाहुना, अतिथि, अभ्यागत। प्राघुणकः (पुं०) [प्र+घृण+कन्] पाहुना, अभ्यागत, अतिथि,
मेहमान। प्राघूणिकः (पुं०) पाहुना, अतिथि। प्राघूर्णकः (पुं०) [प्राघूर्ण+ठञ्] ०अतिथि, पाहुना, मेहमान,
आ निकला हुआ मुसाफिर, अभ्यागत। (दयो०६०) विद्याभ्यासक विद्यार्थी (हित० ४९) 'आगतस्य गृहे प्राप्तस्य
प्राघूर्णिकस्य अभ्यागतस्य' (जयो०१० २/९२) प्रघूर्णिकः (पुं०) देखो ऊपर। प्राङ्गं (नपुं०) [प्रकृष्टमगं यस्य] एक प्रकार की ढोल, पणव। प्राङ्गणं (नपुं०) [प्रकर्षण, अंगनं गमनं यत्र] आंगन। (दयो०
७०) अनादित स्थल। (जयो० २/१४८) प्राङ्गविवाकः (पुं०) न्यायधीश। प्राङ्गनिशा (स्त्री०) पूर्व रात्रि। गुरुपदयोर्मदयोगं त्यक्त्वा प्राङ्निशि
यस्योद्धरणा। (सुद० ९६)
एक ढोल विशेष।
०प्रणवा प्राच्, प्राञ्च् (वि०) [प्र+अञ्च+क्विन्] सामने की ओर मुड़ा
हुआ, बिल्कुल आगे, अग्रणी।
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प्राचण्ड्यं
७३४
प्राण:
०पूर्वदिशा सम्बंधी, पूर्व का।
प्राजनः (पुं०) [प्र+अ+ल्युट्] ०हंटर, चाबुक, अंकुश। ०प्राथमिक, पहला, पूर्वकाल का।
प्राजनं (नपुं०) देखो ऊपर। पूर्व देशवासी।
प्राजापत्य (वि०) [प्रजापति+यक्] प्रजापति से सम्बन्ध रखने प्राचण्ड्यं (नपुं०) [प्रचण्ड+ष्यञ्] उत्कृष्टता, उग्रता, वाला। भीषणता।
प्राजापत्यं (नपुं०) सर्जनात्मकशक्ति, प्रबलशक्ति। विशालदृष्टि, विकराल दृष्टि, क्रूरदृष्टि।
प्राब्जापत्या (वि०) संयत अवस्था से पूर्व धनादि का त्याग। प्राचिका (स्त्री०) [प्र+अञ्+क्कुन+टाप्] एक जंगली मक्खी, |
प्राजिकः (पुं०) [प्र.अज्+ठञ्] बाज, श्येन, पक्षी। डांस मच्छर।
प्राजित (पुं०) [प्र+अज्+तृच्] सारथि, चालक, वाहका प्राची (स्त्री०) [प्र+अञ्च+क्विन्+ङीप्] ०पूर्व दिशा। (जयो०७०
प्राजिन् (पुं०) [प्र+ऊ+णिनि] सारथि, चालक, वाहक। १७/१२१)
प्राजेशं (नपुं०) [प्रजेशो देवताऽस्य प्रजेश+अण्] रोहिणी प्राचीन (वि०) [प्राच्+ख] पहला, पूर्वकाल का
नक्षत्र। ०पूर्वोक्त।
प्राज्ञ (वि०) [प्र+ज्ञा+क] प्रकर्षण जानाति इति। बुद्धिमान, ___०पुरातन, पुराना। (भक्ति० ३)
मेधावी, ज्ञानी, ज्ञानवान्, जानकार। प्राचीनः (पुं०) दीवार, बाड़, घेरा।
०चतुर, निपुण, निष्णात। प्राचीनं (नपुं०) दीवार, प्राकार, ०परकोटा, घेरा बाड़।
प्राज्ञः (पुं०) निपुण व्यक्ति। प्राचीनकल्पः (पुं०) पहला कल्प।
प्राज्ञा (स्त्री०) प्रज्ञा, बुद्धि, अनुप्रेक्षा। प्राचीनकाल (पुं०) पुराना समय। (जयो० १/२)
०समझ, चतुर, ज्ञान। प्राचीनगाथा (स्त्री०) पुरानी कहानी।
प्राज्ञी (स्त्री०) प्रज्ञाशीला, विदुषी नारी। प्राचीनता (वि०) पुराण भावपना, प्राच्यादिशा/पूर्व दिशा सम्बंधी।
प्राव (वि०) [प्र+अज्+ण्यत्]०चतुर, पर्याप्त, बहुल। (जयो० १५/१८)
अधिक, व्यापक, विस्तृत। प्राचीनतिलकः (पुं०) चंद्रमा, शशि। प्राचीनपनसः (पुं०) बेलतरु, बिल्ववृक्ष।
वृहत, विशाल। प्राचीनबर्हिस् (पुं०) इन्द्र।
प्राञ्जल (वि०) [प्र+अ+अलच्] निश्छल, खरा, स्पष्टवादी। प्राचीनमतं (नपुं०) पुरानी परम्परा, पुरा सम्मति।
०समीचीन, यथेष्ट, निष्कपट। प्राचीपतिः (पुं०) इन्द्र।
प्राञ्जलि (वि०) [प्रबुद्धा अञ्जलिर्येन] विनम्रता भावपूर्ण प्राचीमूलं (नपुं०) पूर्वी क्षितिजा
अञ्जलि। प्राचीरं (नपुं०) [प्र+आ+चि कन्] ०घेरा, बाड़, दीवार, परिधि।
विनीत हस्तपुट। प्राचुर्यं (नपुं०) [प्रचुर+ष्यञ्] बहुतायत, पर्याप्तता, बहुलता,
प्राञ्जलिक (वि०) [प्राञ्जलि+कन्] विनीत हस्तपुट वाला। अधिकता। (जयो० ६/४६)
प्राञ्जलिन् (वि.) [प्राञ्जलि+इनि] विनीत हस्तपुट। प्राचेतसः (पुं०) [प्रचेतसः अपत्यम्, प्रचेतस्+अण] नाम विशेष। प्राणः (पुं०) [प्र+अन्+अच्+घञ् वा] ०जीवनशक्ति, चेतना, प्राच्य (पुं०) [प्राचि+भव: यत्] सामने स्थित, पूर्व दिशा में
चैतन्यभाव। रहने वाला।
०जीवन, प्राणतत्त्व। (जयो० १/७) प्राथमिक, पूर्ववर्ती, पहला।
असु-इयमभ्यधिका ममास्त्यसुभ्यास्तुलनीयापि न साम्प्रतं। प्राचीन, पुरातन, पुरा, पुराना।
(जयो० १२/२२) प्राच्यक (वि०) [प्राच्य+कन्] पूर्वी, पूर्वाभिमुख।
०जीव, आत्मा। प्राच्यभाषा (स्त्री०) पूर्वी बोली, पुरातन भाषा।
ऊर्जा, बल, सामर्थ्य। प्राछ् (वि०) [प्रच्छ+क्विप्] पूछने वाला, प्रश्न करने वाला। वायु विशेष, प्राण, अपान, समान। प्राजकः (पुं०) [प्र+अज्+णिच्+ण्वुल] सारथि, यानचालक, ज्ञानेन्द्रिय। श्वसनवायव, श्वासोच्छवास। (जयो० १९/१३) वाहन, वाहका
स्फूर्ति। (दयो० २/५)
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प्राणकः
७३५
प्राणाधिपः
०इन्द्रिय, बल, वायु, उच्छवासादि। (सुद० १२९) प्रकर्षेण नयतीति प्राणः। जिससे जीवन धारण किया जाता है। जीवेंति जेहिं जीवा पाणा ते होंति। (धव० १/२५६)
शारीरिक बल। प्राणकः (पुं०) जीवनद्रुम। (जयो० २१/२७) प्राणक (पुं०) [प्राण+कै+क] जीवधारी। (जयो०० २१/२७)
हितकारी जीवन, जीवित प्राणी प्राणभृत। (जयो० ८/३७) प्राणकृच्नं (नपुं०) जीवन में भय, प्राणों पर आपत्ति, प्राणबाधा। प्राणघातक (वि०) जीवननाशक। प्राणघ्न (वि०) जीवन विध्वंसक, प्राण नष्ट करने वाला। प्राणछेदः (पुं०) हत्या, वध। प्राणत (वि०) झुका हुआ। (जयो०वृ० १३/८९) प्राणत्यागः (पुं०) आत्महत्या, मृत्यु, मरण, देहपरित्याग। प्राणदं (नपुं०) जल, नीर, पानी। प्राणदक्षिणा (स्त्री०) प्राणाहूति। प्राणदण्डः (पुं०) मृत्युदण्ड। प्राणदयितः (पुं०) पति। प्राणदात्री (वि.) प्राण देने वाली, जीवन दायिनी। (जयो०
२०/७३) असुदा। प्राणदायकः (पुं०) पति। प्राणदायिनी (वि०) प्राण देने वाली। प्राणदोहः (पुं०) जीवन के प्रति द्रोह।
प्राणों के प्रति द्रोह करने वाला। प्राणधारणं (नपुं०) भरण पोषण, जीवन आश्रय, जीवनशक्ति। प्राणनाथः (पुं०) प्रवर। (जयो० १६/४४) प्रेमी, पति, प्रिय।
(जयो० ) ०यम। प्राणनिग्रहः (पुं०) श्वांस रोकना, जीवन बचाना। प्राणपतिः (पुं०) प्रिय, प्रेमी, पति। (जयो० १४/३२) प्राणपरिक्रयः (पुं०) जीवन की चिन्ता न करना। प्राणपरिग्रहः (पुं०) जीवनग्रहण, जीवन का अस्तित्व। प्राणप्रणेता (वि०) धीर, बलशाली। (जयो०८/४७) प्राणप्रद (वि०) जीवन देने वाला। आजीवनदायिनी।
(जयो० २४/१२१) प्राणप्रमाणं (नपुं०) मृत्यु, मरण। प्राण निकलना। प्राणप्रियः (पुं०) ०प्यारा, ०पति, स्वामी। (दयो० ८८)
(दयो०वृ० १२/१२) प्राणभक्ष (वि०) वायुभक्षी। जीवन भक्षण करने वाला।
प्राणभास्वत् (पुं०) सागर, समुद्र। प्राणभूत (पुं०) प्राणधारी। प्राणभृत (पुं०) प्राणयुक्त। (वीरो० ६/११) प्राणमोक्षणं (नपुं०) प्राणत्याग, प्राणपरित्याग, मरण मृत्यु। प्राणयात्रा (स्त्री०) आजीविका साधन, भरण-पोषण। प्राणयोनिः (स्त्री०) जीवनाधार, जीवन स्रोत। प्राणरन्ध्र (नपुं०) मुंह, नथना। प्राणरोधः (पुं०) श्वासावरोध, जीवन को आघात। प्राणवल्लभः (पुं०) प्राणेश, पति। प्राणेशस्य वरस्यय पतिः।
(जयो० १५/१) प्राणवादपूर्वः (पुं०) प्राणायु, एक पूर्व, जिसमें अष्टांग
आयुर्वेद है। आयुर्वेद का प्राचीन शास्त्र। प्राणविनाशः (पुं०) प्राणहानि, मृत्यु, मरण। प्राणविप्लव: (पुं०) मरण, मृत्यु। प्राणवियोगः (पुं०) जीवन नाश, जीव बिछोह। (सुद० ११९) प्राणव्ययः (पुं०) व्युत्सर्ग, प्राण परित्याग, मरण, मृत्यु। प्राणसंयमः (पुं०) श्वांस निरोध, आत्मसंयम। प्राणसंशयः (पुं०) जीवन संदेह, मृत्युभय। प्राणसंदेहः (पुं०) मृत्युभय, प्राणाशङ्का। प्राणसद्मन् (नपुं०) देह, शरीर। प्राणसम्पादनकत्री (वि०) असुदेवता, प्राणदायिनी।
(जयोवृ० २०/८३) प्राणसारः (वि०) बलवान्, बलिष्ट, शक्तिशाली। प्राणहर (वि०) प्राणघातक, जीवन नष्ट करने वाला, फांसी,
मृत्युदण्ड प्राणान् हरतीति (जयो० १/७) प्राणहारक (वि०) प्राण हरण करने वाला, विष, घातक
अस्त्र-शस्त्र। प्राणाचार्यः (पुं०) वैद्य, डॉक्टर, आयुर्वेदाचार्य।
(जयो०वृ० ३/६, ६/१०) प्राणातिपातः (पुं०) प्राणहरण, प्राण लेना, वध, मृत्यु। पाणेहितो
पाणीणं विजोगो। प्राणात्ययः (पुं०) प्राण लेना, जीवन हानि। प्राणवियोग।
(सुद० ११९) प्राणाधारः (पुं०) जीवन नायक, पति। प्राणाधिक (वि०) प्राणप्रिय। प्राणादपीष्ट (वि०) प्राण प्रिय। प्राणों से भी अधिक इष्ट। प्राणाधिनाथः (पुं०) पति, भर्ता, स्वामी। प्राणाधिपः (पुं०) पति, प्राणप्रिय।
०आत्मा।
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प्राणान्तः
७३६
प्रातिः
१००)
प्राणान्तः (पुं०) मृत्यु, मरण।
प्राणिहिता (वि०) उपानह, जूता। प्राणान्तिक (वि०) घातक, नश्वर।
प्राणी (स्त्री०) प्राणा अस्य सन्तीति प्राणी। (धव० ९/२२०) प्राणापहारिन् (वि०) घातक, प्राण नाशक।
प्राणदान् जीव। चार से दश तक के प्राण वाले प्राण। प्राणापानं (नपुं०) उदरगत वायु का निकालना।
प्राणीत्यं (नपुं०) [प्राणीत+ष्य] ऋण, कर्ज। प्राणायनं (नपुं०) ज्ञानेन्द्रिय।
प्राणेश्वरः (पुं०) प्राणनाथ। (वीरो० ४/३२) आत्मनाथ प्राणायामः (पुं०) एक श्वांस प्रक्रिया, आसन विशेष। (सुद० (जयो०वृ० १२/१०)
हृदयेश्वर। (जयो०वृ० १५/४८) तीन योगों का निग्रह, श्वास-प्रश्वास का रोकना। सिद्धिः स्वामी, पति, प्राणेश। प्रिया यस्य गुणप्रमातुरूपक्रिया, केवलमाविभातु। जीवनदाता, प्राणाधार। (सुद० ११३) निरीहचित्त्वाक्षजयोऽथवा तु प्राणस्य चायाम उदर्कपातुः।। प्राणेश्वरविरहवदा (वि०) स्वामी के विरह से पीड़ित दिशा, (वीरो १८/२३)
ईश्वरोज्झनदिशः। (जयो०वृ० ५/८) प्राणायामवृत्तिः (स्त्री०) प्राणायाम करने की प्रक्रिया। | प्रातर (अव्य०) [प्र+अत्+अरन्] ०प्रातः, प्रभात, प्रात:काल,
(जयोवृ० २८/५४) स्वरों को साधने की वृत्ति। ०ध्यान (सुद० २/२५) विधि।
०पौ फटना, सुबह होना। प्राणायु (पुं०) आयुर्वेद, प्राणविधि, अष्टांग विधि निरूपण। प्रभातकाल में प्रातः काल में। प्राणवाद पूर्व।
अगले दिन। (जयो० २/२३) प्राणावायपूर्वः (पुं०) प्राणवादपूर्व। अष्टांग आयुर्वेद का एक प्रातरासाः (पुं०) कलेवा, प्रातः काल सम्बंधी भोजन। प्राचीन ग्रंथा
प्रातरेव (अव्य०) प्रात:काल की। (दयो०१८) प्राणासंयमः (पुं०) छह प्रकार के जीवों का प्राणपीडन। प्रातःकर्मन् (नपुं०) प्रात:काल के कार्य स्नान, ध्यानादि। प्राणित (वि०) [प्र+अन्+क्त] जीवित, जीवधारी।
प्रातःकार्य (नपुं०) प्रातः करने योग्य क्रिया। प्राणिताप्त्वा (वि०) दृढ़तापूर्वक। (सुद० ८५)
प्रातःकृत्यं (नपुं०) प्रभातवेला के करणीय कार्य। प्राणितार्थिनी (वि०) विचारपूर्वक। (सुद०८५)
प्रातःकालः (पुं०) प्रभातकाल, सुबह, विभात। (जयो०५/२७) प्राणिन् (वि०) [प्राण+इनि] सांस लेने वाला, जीने वाला। प्रातःगेय (वि०) प्रभात में गाने योग्य।
अघटितघटनां करोति कर्म, प्राणिनां सदाऽऽपदं च शर्म। प्रात:त्रिवर्गा (स्त्री०) गंगा नदी। (दयो० ४४)
प्रात:दिनं (नपुं०) दोपहर। प्राणिन् (पुं०) जीवित, प्राणधारी।
प्रातःप्रहरः (पुं०) दिन का प्रथम प्रहर। प्राणिज्ञात (वि०) प्राणों को प्राप्त हुआ।
प्रातःभोक्तु (पुं०) काक, कौवा। प्राणिपीड़ा (स्त्री०) प्राणिघात। (दयो० ३५)
प्रात:भोजनं (नपुं०) कलेवा, स्वल्पाहार। प्राणिमात्रं (वि०) जीव मात्र, चेतना युक्तवान्, समग्र प्राणवान्। प्रातःसन्ध्या (स्त्री०) प्रभातकालीन भजन। (जयो० १५/५२, वीरो० १८/३१)
प्रातःसमयः (पुं०) प्रभातसमय। (जयो०वृ० १९/९) प्राणिरक्षण (वि०) अहिंसा, प्राणदान देना। (जयो० १/११३) प्रातःसवः (पुं०) प्रात:कालीन तर्पण। प्राणिवध (वि०) प्राणिघात। (दयो० ३९)
प्रातःस्नानं (नपुं०) प्रभातकालीन मज्जन/स्नान। प्राणिवर्गः (पुं०) जनसमूह, सत्त्व सञ्चय। (जयो० ७/९७, प्रातस्तन (वि०) [प्रात+टयु] प्रात:काल से सम्बद्ध। जयो०वृ० १/९६)
प्रातस्तराम् (अव्य०) [प्रातर्+तरप्+आम्] बहुत प्रभात में, प्राणिहिंसा (स्त्री०) जीव हिंसा, प्राणों से युक्त जीवों का सुबह-सुबह। समारम्भ। कर्षणे खसम्पातकरणे सिञ्चने।।
प्रातस्त्य (वि०) [प्रातर्+त्यक्] सुबह का, प्रभातकालीन। प्राणिहारिन् (पुं०) यम, यमराज। (दयो० ३६) । प्रातिः (स्त्री०) [प्र+अत्+इन्] अंगूठे और तर्जनी के बीच का (जयो० २/१०२)
स्थान। झरना।
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प्रातिका
७३७
प्रादेशिकः
प्रातिका (स्त्री०) [प्र+अत्+ण्वुल्+टाप्] जवा का पौधा। । प्रातिहन्त्रं (नपुं०) [प्रतिहन्त अण्] ०प्रतिशोध, बदला। प्रातिकूलिका (वि०) [प्रतिकूल+ठक्] विरुद्ध, विरोधी, प्रतिकूल प्रातिहारः (पुं०) [प्रतिहार+अण] ०ऐन्द्रजातिक, जादूगर, रहने वाला।
वशीकरण कर्ता। प्रातिकूल्यं (नपुं०) [प्रतिकूल+ष्यञ्] प्रतिकूलता, विरोध, प्रतिहारकः (पुं०) [प्रतिहार+अण्+कन्] जादूगर, ऐन्द्रजालिक।
शत्रुता। (सुद० ११०) अननुकूलता, अमैत्रीपूर्णता। प्रातिहार्यः (पुं०) अशोकवृक्षादि अष्ठ प्रातिहार्य। (भक्ति०२१) प्रातिजनीन (वि०) [प्रतिजन+खञ्] शत्रु का मुकाबला करने अशोकवृक्ष, सिंहासन, छत्रत्रय, भामण्डल, दिव्यध्वनि, वाला।
पुष्टवृष्टि, चार और दुन्दुभिवाद्य। प्रातिज्ञं (नपुं०) [प्रतिज्ञा+अण्] विराचाधीन विषय।
प्रातिहारिकः (पुं०) ऐन्द्रजालिका प्रातिदैवसिक (वि०) [प्रतिदिवस्+ठक्] प्रतिदिन होने वाला।
प्रातीतिक (वि०) [प्रतीति+ठन्] काल्पनिक, केवल मन में प्रातिपक्ष (वि०) [प्रतिपक्ष अण] विरुद्ध, प्रतिकूल।
विद्यमान। ___०शत्रुतापूर्ण, शत्रुसम्बंधी।
मानसिक। प्रातिपक्ष्यं (नपुं०) [प्रतिपक्ष+ष्यञ्] ०शत्रुता, विरोधिता।
प्रातीपः (पुं०) [प्रतीप+अण्] एक नाम विशेष। प्रातिपद (वि०) [प्रतिपदा+अण] प्रतिपदा से सम्बद्ध।
प्रातीपिक (वि०) [प्रतीप+ठक्] विरोधी, विपरीत, उलटा। उपक्रम करने वाला।
प्रात्यन्तिकः (पुं०) [प्रत्यन्त+ठक्] प्रत्यन्त कुमार। प्रातिपादिकः (पुं०) [प्रतिपदा+ठब] ०अग्नि, आग, अगनी।
प्रात्ययिक (वि०) [प्रत्यय+ठक्] विश्वास पात्र भरोसे वाला। प्रातिपादिकं (नपुं०) विभक्ति चिह्न में जुड़ने से पूर्व संज्ञा शब्द।
प्रात्ययिकक्रिया (स्त्री०) पापासवकारी क्रिया। प्रातिपौरुषिक (वि०) [प्रतिपुरुष+ठक] पराक्रम से संबंधित।
प्रात्यहिक (वि०) [प्रत्यह+ठक्] नित्य, प्रतिदिन। ०पौरुषेय सम्बंधी।
प्राथमिक (वि०) [प्रथम+ठक] प्रारम्भिक, पूर्वकाल का। प्रातिभ (वि०) [प्रतिभा+अण] दिव्यता से सम्बंधित।
०पुरातन सम्बंधी, पहली बार होने वाला। प्रातिभं (नपुं०) प्रतिभा, विशद कल्पना।
प्राथम्यं (नपुं०) [प्रथम+ष्यञ्] प्रथम होना, पहला दृष्टान्त। प्रातिभाज्यं (नपुं०) [प्रतिभू+ष्यञ्] प्रतिभूति होना, उत्तरदायी
प्रादक्षिण्यं (नपुं०) [प्रदक्षिण+ष्यन्] प्रदक्षिणा किए जाने वाला। होना। प्रातिभासिक (वि०) [प्रतिभास+ठक्] वास्तविक, प्रत्यक्ष
प्रादुस (अव्य०) प्रकट रूप से, स्पष्टतः, दृष्टि में। दिखाई देने वाला।
प्रादुष्करणं (नपुं०) प्रकटीकरण। प्रातिलोमिक (वि०) [प्रतिलोम+ठक्] विरोधी, शत्रुतापूर्ण,
आहार उत्पादन दोष, दृश्यमान होना, स्पष्ट दिखाई पड़ना। अरुचिकर।
प्रादुष्कृत् (वि०) संक्रमण स्थान सम्बंधी दोष। प्रातिलोम्यं (नपुं०) [प्रतिलोम+ष्यञ्] ०व्युत्क्रान्त, प्रतिकूल
प्रादुर्भावः (पुं०) अस्तित्व में आना, उदय होना, प्रकट होना। क्रम। उल्टापन। विरोध, शत्रुता।
०दर्शन, दृश्यमान होना, उत्पत्ति। (जयो०वृ० १/१०३) प्रातिवेशिकः (पुं०) [प्रतिवेश+ठक्] पड़ौसी, निकटवर्ती जन।
सुनने योग्य होना। प्रातिवेश्मक (पुं०) [प्रतिवेश्म+अण+कन्] पड़ौसी, समीपस्थ- प्रादुर्भूत (वि०) उत्पन्न हुआ। (सुद० ७८)
प्रादुष्यं (नपुं०) [प्रादुस्+यत्] प्रकटीकरण। प्रतिवेश्यकः (पुं०) [प्रतिवेश+ष्यञ्-कन] पड़ौसी, नजदीकी जन। प्रादेशः (पुं०) [प्र+दिश्+घञ्] स्थान, जगह, प्रदेश। प्रातिवेश्यः (पुं०) [प्रतिवेश ष्यञ्] घर के समीपस्थ रहने अंगूठे और तर्जनी के मध्य का स्थान। वाला पड़ौसी।
प्रादेशनं (वि०) [प्र+आ+दिश+ल्युट] ०भेंट, उपहार, दान। गृह समीपवर्ती।
प्रादेशिक (वि.) [प्रदेश+ठक] पूर्व दृष्टान्त वाला, सीमित, प्रातिशाख्यं (नपुं०) [प्रतिशाख भव ज्य] ०व्याकरणशास्त्र। स्थानीय। ०वेद की एक शाखा।
यथार्थ। प्रातिस्विक (वि०) [प्रतिस्वठक्] विशिष्ट, ०असामान्य, | प्रादेशिकः (पुं०) [प्रदेश+ठक घञ्] प्रदेश से सम्बन्ध रखने अपना, निजी।
वाला, एक प्रदेश का।
जन।
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प्रादेशिनी
७३८
प्राप्तव्यवहार
प्रादेशिनी (स्त्री०) [प्रादेश+ इनि+ङीप्] तर्जनी अंगुली। प्रादोष (वि०) [प्रदोष अण्] सन्ध्याकालीन, सायंकालीन। प्रादोषः (पुं०) संध्या, रात्रि से सम्बंधित समय। प्रादोषिकीक्रिया (स्त्री०) ०रात्रिक क्रिया, दोष युक्त क्रिया।
क्रोधावेश से होने वाली क्रिया। प्राधनिकं (नपुं०) [प्रधान संग्राम तत्साधनमस्य प्रधन+ठक्]
नाशकारक अस्त्र। प्राधानिक (वि०) [प्रधान+ठक्] अत्यंत श्रेष्ठ, प्रमुख, सर्वोत्तम,
सर्वोपरि, अतिपूज्य।
प्रमुखता से युक्त। प्राधान्यं (नपुं०) [प्रधान+ष्यञ्] प्रमुखता, सर्वोपरिता,
प्रधानता। ०प्रभुत्वा ०बाहुल्य, सर्वोच्चता।
मुख्य, प्रधान का कारण। प्राधान्यपदं (नपुं०) अन्यान्य वृक्ष के साथ अवस्थित होना,
वृक्षों की अधिकता का स्थान। ०सर्वोपरि पद। उच्च
स्थान। प्राधीत (वि०) [प्र+अधि+इ+क्त] विशिष्ट अध्ययनशील,
अति अभ्यासी। प्राध्व (वि०) [प्रगतोऽध्वानम्] ०दूरवर्ती, दूर झुका हुआ।
०अनुकूल।
०कसा हुआ, बंधा हुआ। प्राध्वं (अव्य०) ०अनुकूलता के साथ, ०रुचिपूर्वक, समनुरूपता
के साथ उपयुक्तता से युक्त। प्रांतः (पुं०) [प्रकृष्टः अन्तः] ०भाग, हिस्सा, एक सीमा, हद।
उग्रभाग, किनारा, तट। (वीरो० २/१२)
विषय, बिन्दु (जयो० १/६९) प्रांतगत (वि०) विषयगत। (जयो० १७/४०) 'कर्णयोः प्रान्ते
गतः प्राप्त कृतः' (जयो०वृ० १/६९)
समीप-दृशोःश्रुतिप्रान्तगतो विलासः। (सुद० २/८) प्रान्तगेह (वि०) निकटवर्ती गृह। प्रान्तदुर्गं (नपुं०) किले के निकटस्था प्रान्तद्वारः (पुं०) द्वार के समीप। प्रान्तपातिन् (वि०) प्रान्त में गिरनेवाले। 'प्रान्ते पतन्तीति
प्रान्तपातिनस्ते मधुनिहः' (जयो०१० ६/१३०) प्रान्तभागः (पुं०) अग्रभाग, प्रधान हिस्सा। (दयो० १०)
(जयोवृ० १/५६)
प्रान्तवर्तिनी (वि०) निकटवर्ती, समीपस्था प्रान्तवर्ती (वि०) ०अन्तस्थ, निकटस्थ, समीपस्थ, समीप
में रहने वाला। (जयो० १६/४०, जयो० २०/४८) प्रान्तोद्यानं (नपुं०) तटवर्ती आराम, निकटवर्ती बगीचा।
(जयो०वृ० १४/१) प्रापक (वि०) [प्र+आप्+ण्वुल] ले जाने वाला, पहुंचाने वाला।
प्राप्त कराने वाला, स्थापित करने वाला। प्रापणं (नपुं०) [प्र+आप+ ल्युट्] ०पहुंचना, बढ़ना, आयन।
०प्रयायन। (जयो० २३/८४) ०अधिग्रहण, अवाप्ति, मंगवाया। (जयो० २/११३) ०ले जाना।
सामग्री से युक्त करना। प्रापणिकः (पुं०) [प्र+आ+पण+किकन्] सौदागर, व्यापारी। प्रापित (भू०क०कृ०) [प्र+आप+क्स] गृहीत। (जयो० २४/५,
जयो० १/१३) ले गया। (सुद० १०५) राज्ञोऽग्रतः प्रापित
एवमैतैः' (सुद० १०५) प्रापितविद्य (वि०) प्रालब्ध बोध, बोध को प्राप्त हुआ।
(जयो० २४/११४) प्राप्त (भू०क०कृ०) [+आप+क्त] ०अवाप्त, उपलब्ध,
अर्जित। मिला हुआ, पहुंचा हुआ, आया हुआ। उपस्थित। ०पूरा किया हुआ। उचित, सही, श्रेष्ठ।
नियम के अनुसार। प्राप्तकारिन् (वि०) उचित कार्य करने वाला। नियम युक्त। प्राप्तकाल (वि०) समयानुकूल, यथा ऋतु।
उपयुक्त।
विवाहयोग्य। प्राप्तपंचत्व (वि०) पांच तत्त्वों का समावेश। प्राप्तप्रसव (वि०) प्रसूति को प्राप्त हुआ। प्राप्तवृद्धि (वि०) वृद्धिगत। वृद्धि के अनुसार। प्राप्तभारः (पुं०) बोझा ढोने वाला पशु। प्राप्तमनोरथ (वि०) पूर्ण मनोरथ वाला। प्राप्तयौवन (वि०) तरुण अवस्था, वयस्क, जवान। प्राप्त रूप (वि०) सुंदर, मनोहर। प्राप्तव्यवहार (वि०) कार्य की ओर सजग।
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प्राप्तिः
७३९
प्रायः
प्राप्तिः (स्त्री०) [प्र+आप+क्तिन्] ०अधिग्रहण, अवाप्ति।
(समु० ५६) ०लाभ, द्रव्य उपलब्धि। यश, कीर्ति। प्राप्त करना, पहुंचना। ०पहुंच, आगसन। ०देखना, मिलना। ०अनुमान, अटकल। हिस्सा , अंश, ढेर। ०भाग्य। उदय, पैदावार। संघ, समुच्चय, समुदाय, संहति।
एक ऋद्धि विशेष, वस्तुओं। प्राप्य (सं०कृ०) प्राप्त करके। (सम्य० ४२) (जयो०वृ०१/५१) प्राबल्यं (नपुं०) [प्रबल्+ष्यञ्] ०प्रभुता, सर्वोच्चता,
०बल, शक्ति, सामर्थ्य, ताकत। प्राबालिक (वि०) मूगों का व्यापारी, ० धातु विशेष का
व्यापार करने वाला। प्रबोधकः (पुं०) [प्र+आ+वुध+णिच्+ण्वुल] जागरण, बोध,
सचेत।
प्रभात। प्राभञ्जनं (नपुं०) [प्रभञ्जन+अण] स्वाति नक्षत्र। प्राभञ्जनिः (स्त्री०) [प्रभञ्जन+इब्] ०हनुमन, हनुमान
भीम-पाण्डपुत्र। प्राभवं (नपुं० [प्रभु+अण्] ०प्रभुता, सर्वोपरिता, सर्वोच्चता।
सत्ता, अधिकार, शक्ति। प्राभवत्यं (नपुं०) [प्रभवत्+ष्यञ्] •सत्ता, अधिकार, शक्ति।
सर्वोच्चता, सर्वश्रेष्ठता। प्राभवामि सत्तायुक्त होता हूं। प्रभुशक्ति से युक्त होता हूं।
(जयो० २/१२१) प्राभाकरः (पुं०) [प्रभाकर+अण्] प्रभाकर का अनुयायी,
मीमांसक मत का आचार्य। प्राभातिक (वि०) [प्रभात+ठञ्] प्रभात सम्बंधी, प्रात:कालीन।
(जयो० १८/३६) प्राभातिकी (स्त्री०) प्रभातसंबंधी, प्रात:कालीन। प्राभूतं (नपुं०) (प्र+आ+भृ+ क्त] ०उपहार, भेंट, पुरस्कार।
०पदों से पृथक् अथवा स्पष्ट 'जम्हा पदेहिं फुडं तम्हा पाहुडं' (क०पा०पृ० २९)
तीर्थंकरों द्वारा प्रस्थापित। प्रकृष्ट आचार्यों द्वारा धारित। ०आचार्यों द्वारा व्याख्याता
अधिकार विशेष। 'अहियारो पाहुडयं एयट्ठो' (गो० जी० ३४१) 'वस्तुनः
अधिकारः प्राभृतकम्। प्राभृतकं (नपुं०) उपहार भेंट, पुरस्कार। ०अधिकार, वस्तु का
व्याख्यान। प्राभृतदोषः (पुं०) काल या मर्यादा का परिवर्तन करके दान
देना। प्राभृतप्राभृतं (नपुं०) श्रुतज्ञान का अधिकार। स्पष्ट कथन
पद्धति, उपहार का समर्पण।। प्राभूतिका (स्त्री०) प्रकृत कार्य का बढ़ा लेना।
प्राभृतिका में आहार आदि का समय बढ़ा लेना दोष। प्राभृतिकादोषः (पुं०) उत्पादन दोष। ०आहार दोष। प्रामाणिक (वि०) [प्रमाण+ठक्] प्रमाण से सिद्ध, प्रमाण पर
आधारित। शास्त्रसिद्ध, अधिकृत।
विश्वसनीय, प्रमाण सम्बंधी। प्रामाणिकः (पुं०) प्रमाण मानना, तार्किक, तर्कसंगत। प्रामाण्यं (नपुं०) [प्रमाण+ष्यञ्] ०प्रमाण पर आधारित होना।
विश्वसनीयता, प्रामाणिकता। प्रमाण, साक्ष्य, अधिकार। ०पदार्थ के जानने की शक्ति।
०प्रमिति क्रिया के प्रति अतिशय जानकारी। प्रामादिक (वि०) [प्रमाद+ठक्] ०प्रमाद सहित, आलसी।
०दोषयुक्त, अशुद्ध, गलत।
०असावधानी युक्त। प्रामाद्यं (नपुं०) [प्रमाद्+ष्यञ्] त्रुटि दोष, गलती, अशुद्धि।
उन्माद, नशा, मदहोशी, उन्मत्तता, पागलपन। प्रामित्यं (नपुं०) प्रमाद सहित।
प्रामित्य दोष, साधु के आहार के लिए ऋण लेकर दान
देना। प्रायः (पुं०) [प्र+अय्+घञ्] ०अपगमन, विदा, प्रयाण।
तप-प्रायो नाम तपः प्रोक्त। ०आमरण अनशन, व्रत रखना। इष्टसिद्धि के लिए उपवासादि रखना। अपराध, दोष-प्रायोऽपराध उच्यते
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प्रायणं
७४०
प्रारम्भः
०अधिकांशता, बहुलता, अधिकता, प्रमुखता। (सुद० ४/१६) ०प्रचुरता, समृद्ध, भरा हुआ। प्रायः शब्दः प्रचारार्थक
प्रायशः सहते य स' (जयो० २७/१३) प्रायणं (नपुं०) [प्र+अय् ल्युट्] प्रवेश, प्रारंभ, शुरू। जीवनपथ।
०ऐच्छिक मरण।
०आश्रय लेना, आलम्बन करना। प्रायणीय (वि०) [प्र+अय्+अनीयर] ०परिचयात्मक, आरंभिक,
दीक्षात्मक। प्रायणीयं (नपुं०) आरंभिक दिवस। प्रायशस् (अव्य०) [प्राय+शस्] ०बहुधा, अधिकतर, अधिकांश।
०बाहुत्य, विशेष रूप से। देवपूजनमनर्थसूदनं, प्रायशो मुखमिवाप्यते दिनम्। (जयो० २/२३) प्रायशो
बाहुल्येन (जयो०७० २/२३) प्रायश्चित्तं (नपुं०) [प्रायस्य पापस्य चित्तं विशोधनं यस्मात्]
प्रायः प्रचुरभावेन चित्तं स्वाध्यायसहित। (जयो०१० २८/९) ०पाप नाश, दोष विमुक्ति।
स्वाध्याय का एक भेद। (जयो० २८/४२) ०प्रयत्ननाश। ०मन से रहित। (जयो०१० २८/४२) प्रमाद दोष परिहार-प्रमाद दोष परिहारः प्रायश्चित्तम्। परिशोध प्रवृत्ति। ०कृतापराध का शमन।
परिशोध, संतोष, सुधार। प्रायश्चित्तप्रद (वि०) प्रायश्चित्त के देने वाले। प्रायश्चित्तानुलोम्यं (नपुं०) लघु, लघुपद अपराधों की
आलोचना। प्रायश्चित्तिः (स्त्री०) आलोचना, सुधार, परिशोधन।
०पापनिवृत्ति।
०कृतापराधविशुद्धि। प्रायस् (अव्य०) [प्र+अय्+असुन्] ०अधिकतर, बहुधा,
साधारणतः। अधिकांशतः।
प्रायात्रिक (वि.) [प्रयाण+ठक्] यात्रा के लिए उपयुक्त होने
वाला। प्रायेण (अव्य०) अधिकतर, बाहुल्यता, साधारणत:/अधिकांशतः। प्रायोग (वि०) [प्रयोग-व्यञ्] प्रयोग संबंधी। प्रायोगगमनमरणं (नपुं०) ०पादोपगमन मरण। स्व और पर
की सेवा से रहित मरण करना। प्रायोगिक (वि०) [प्रयोग+ठक्] प्रयोग से सम्बंध रखने
वाला। (सम्य० ४६)
प्रयुक्त, प्रयुज्यमान। प्रायोगिकबन्धः (पुं०) प्रयोग/योग की विशेषता से होने
वाला बन्ध। प्रायोगिक-भाषात्मकशब्द (नपुं०) पुरुष प्रयुक्त
अक्षरात्मरात्मक और अनक्षरात्मक शब्द। प्रायोगिकलब्धिः (स्त्री०) कर्मों की स्थिति की परिस्थिति।
हीनोऽनुभागोऽपि भवेत्तदेति प्रायोगिकालब्धि। (सम्य० ४६) प्रायोग्य-गमनमरणं (नपुं०) पादोपगमनमरण। प्रायोग्यलब्धिः (स्त्री०) कर्मों की स्थिति को स्थापित करना।
सब कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति को घातकर अन्तः कोडाकोडी प्रमाण में स्थिति में तथा अनुभाग को घातकर द्विस्थान अनुभाग में पापरूप घातियां कर्मों के लता और वृक्ष रूप में अनुभाग में तथा अघातियां कर्मों के नीम और कांजीर
रूप अनुभाग में स्थापित करने का नाम। प्रायोपगमनं (नपुं०) आत्मोपकार का निरपेक्ष भाव। आत्मोपकार निरपेक्ष प्रायोपगमनम्। (ध० २३)
स्व और पर की सेवा-सुश्रूसा से रहित मरण। सपरोवयारहीणं मरणं पाओपगमनमिति। (गो०क० ६१) 'स्व परोपकाररहितं तन्मरणं प्रायोपगमनमिति' (गो०कन्टी०
६१) प्रारब्ध (भूक०कृ०) [प्र+आ+रभ्+ क्त] ०आरंभ किया हुआ,
शुरुआती। प्रारब्धं (नपुं०) व्यवसाय, भाग्य, नियति। प्रारब्धिः (स्त्री०) [प्र+आ+र+क्तिन्] नियति, भाग्य,
व्यवसाय।
आरंभिक क्रिया। ०हस्तिबंधन का खूटा या रस्सी। प्रारम्भः (पुं०) [प्र+आ+र+घञ्] ०आरंभ, शुरु ०मुख।
(जयो०१० २/२३) ०व्यवसाय, व्यापार, कार्य।
सर्वथा।
प्रायाणिक (वि०) [प्रयाण+ठक्] यात्रा के लिए प्रस्थान
करने वाला।
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प्रारम्भक्रिया
प्रारम्भक्रिया ( स्त्री०) छेदन-भेदन आदि की क्रिया, हिंसक प्रवृत्ति, प्राणिघात की प्रक्रिया।
प्रारम्भणं (नपुं०) [प्र+आ+रभू + ल्युट् ] आरंभ करना, शुरु
करना।
प्रारोह: (पुं० ) [प्ररोह+ण] अंकुर, पल्लव, किसलय । प्रार्णं (नपुं० ) [ प्रकृष्टमृणम् ] मूल ऋण, प्रधान | प्रार्थक ( वि० ) [ प्र+अर्थ+ ण्वुल् ] ० प्रार्थना करने वाला, स्तुतिकर्ता ।
• अनुरोधक, याचक, इच्छुक ।
प्रार्थकः (नपुं०) [प्र+अर्थ+ ल्युट् ] ०याचना, अनुरोध, निवेदन ।
० कामना, इच्छा।
० विनती, स्तुति |
प्रार्थना ( स्त्री० ) अर्चना, स्तुति ।
० अनुनय, विनय, अनुरोध । ( सुद० १३४ ) प्रार्थकीकृत् (वि०) प्रार्थना किया गया। (जयो०वृ० ४ / ८ ) प्रार्थय् (सक०) प्रार्थना करना, अनुरोध करना। प्रार्थयेत् (जयो० २/१२२)
प्रार्थयन्ती ( वर्त० कृ० ) अनुनय करती हुई । ( सुद० ९४) प्रार्थिका ( स्त्री०) प्रार्थना, स्तुति। (मुनि० २८ ) प्रार्थित (वि० ) [ प्र+अर्थ+क्त] • अनुरोधित, व्याचित ।
० आमन्त्रित, विनम्रता युक्त ।
० समीरित। (जयो० १२ / ५१ )
प्रार्थित (भू०क० कृ० ) अनुरोध किया गया।
० पूछा गया, आवेदन किया गया।
० अभिलषित, इच्छित ।
० आक्रान्त, शत्रु द्वारा विरोध किया गया।
प्रार्थिन् (वि० ) [ प्र+अर्थ+ णिनि] प्रार्थना करने वाला, अनुरोध करने वाला । ० याचित, अनुरोधित।
प्रालम्ब (वि० ) [ प्र + आ + लम्ब्+अच्] झूलता हुआ, लटकता हुआ।
प्रालम्ब: (पुं०) मोतियों से युक्त हार, आभूषण । प्रालम्ब (नपुं०) वक्षस्थल पर लटकने वाला हार ।
प्रालम्बकं (नपुं०) कंठाहार | प्रालम्बिका ( स्त्री० ) [ प्रालम्ब+कन्+टाप्] सोने का हार,
स्वर्ण हार |
प्रालेयं (नपुं० ) [ प्र+ली+ण्यत्] ओस, हिम, कुहरा । प्रालेयकल्पः (पुं०) तुषारपात, हिमपात (सुद० ८६ )
७४१
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प्रालेयरश्मि (स्त्री०) शशि, चन्द्रमा । प्रालेयलेशः (पुं०) हिम, ओला । प्रालेयांशुः (पुं०) चंद्रमा ।
प्रालेयादि (पुं०) हिमालय ।
प्रावट: (पुं०) [प्र+अव्+अट्+अच्] जव, जौ । प्रावणं (नपुं० ) [ प्र+आ+वन्+घ] ०खुरपा, कुदाल, फावड़ा। ० उत्तरीयवस्त्र |
प्रावृष्
प्रावचनं (नपुं०) श्रुतधर्म, तीर्थ, मार्ग, प्रवचन सम्बंधी । ० जीवादि तत्त्व बोधक वचन।
प्रावरणं (नपुं० ) [ प्र+आ+ वृ + ल्युट् ] ०ओढ़नी, चादर, दुपट्टा । ०कोट, परकोटा-' ततः पुनः प्रावरणं वदामि' (वीरो० १३/६)
० परिधि, ०घेरा, प्राकार ।
प्रावरणीयं (नपुं०) [प्र+आ+ वृ + अनीयर् ] उत्तरीय वस्त्र, दुपट्टा, ओढ़नी ।
प्रावारः (पुं०) [प्र+आ+वृ+घञ्] उत्तरीय वस्त्र, ओढ़नी, चोंगा। प्रावारकः (पुं०) [प्रावार+कन् ] उत्तरीय वस्त्र, दुपट्टा । प्रावारकीटः (पुं०) दीमक । प्रावारिक (वि०) उत्तरीय वस्त्र निर्माता।
प्रावर्तत (भू०) बभूव, हुआ। (जयो० १/११) प्रावर्तित (वि०) प्राभृतदोष, उपहार दोष ।
प्रावास (वि० ) [ प्रवास्+अण्] यात्रा सम्बंधी, यात्रा किए जाने योग्य। प्रावासिक (वि० ) [ प्रवास + ठक् ] यात्रा के लिए उपयुक्त। प्राविश ( सक० ) [ प्र + विश्] आना, पहुंचना | (जयो०वृ० १/७४)
० प्रच्छन्न, ढका हुआ। प्रावृतः (पुं०) चादर ओढ़नी ।
प्रावीण्य (वि०) चतुराई, कुशलता। ०प्रवीणता, दक्षता । प्रावृट ( स्त्री०) वर्षायोग (समु० ५ / १६, वीरो० ४/१०) प्रावृत (भू०क० कृ० ) [ प्र + आ + वृ+क्त] ०घिरा हुआ, आवरण युक्त।
प्रावृतं (नपुं० ) ०परदा, घूंघट, बुरका ।
प्रावृतिः (स्त्री० ) [ प्र + आ + वृ + क्तिन्] ०घेरा, बाड़, बाधा,
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आवरण | ०परदा ।
प्रावृत्तिक ( वि० ) [ प्रवृत्ति + ठक् ] गौण, अप्रधान | प्रावृत्तिकः (पुं०) दूत, संदेशवाहक ।
प्रावृष् (स्त्री०) [प्र+आ+ वृष् + क्विप्] वर्षाऋतु, वर्षायोग। (सुद० ७८) (जयो० २२/१२)
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प्रावृषिक
७४२
प्राह
प्रावृषिक (वि०) [प्रावृषा ठञ्] वर्षों में उत्पन्न होने वाला। प्रावृषिज (वि०) [प्रावृषि जायते जन्+ड] वर्षा ऋतु में उत्पन्न। प्रावृषेण्य (वि०) [प्रावृष्+एण्य] वर्षा ऋतु में उत्पन्न, वर्षाऋतु
से संबद्ध। प्रावृषेण्यः (पुं०) कदम्बवृक्ष, कुटज तरु। प्रावृषेण्यं (नपुं०) बहुसंख्यायत, बाहुल्य, अधिक्य, प्राधान्य।
प्राचुर्य, अधिकता। प्रावृष्यं (नपुं०) वैडूर्यमणि, नीलम। प्रावेण्यं (नपुं०) ऊनी कम्बल। प्रावेशनं (वि०) [प्रवेशन+अण] रंगमंच पर उपस्थित होना। प्रावृज्यं (नपुं०) [प्रव्रज्या+यण] वैराग्य, विरागभाव की ओर
गमन। प्रावाज्यं (नपुं०) विरागभाव की ओर। प्रांशुतर (वि०) अति उन्नत। (जयो० १३/७) प्राशः (पुं०) [प्र+अश्+घञ्] स्वाद चखना, भोजन करना।
निर्वाह करना, पुष्ट होना। प्राशनं (नपुं०) [प्र+अश्ल्यु ट्] ०भोजन, अशन, आहार।
०पुष्ट होना, स्वाद चखना।
खिलाना चखाना। प्राशनीयं (नपुं०) [प्र+अश्+अनीयर] ०आहार, भोजन, अशन। प्राशित (भू०क०कृ०) [प्र+अश्+क्त] ०खाया हुआ, चखा
हुआ।
० जित, आहारित, उपभुक्त। प्राशितं (नपुं०) आहार दान, भोजन दान।
पिण्डदान। प्राश्निकः (पुं०) [प्रश्न+ठक्] ०परीक्षक, विवाचक।
न्यायधीश। प्राशुकत्व (वि०) निर्दोषत्व। (जयो० २।८२) प्रासः (पुं०) [प्र+अस्+घञ्] ०फेकना, डालना, त्यागना,
छोड़ना।
०बी. भाला, फलकदार अस्त्र। प्रासकः (पुं०) [प्रास+कन्] बी, भाला, फरसा। प्रासङ्गिक (वि०) [प्रसंग+ठक्] ०संयुक्त, सहज।
०आकस्मिक, आपाती, यदाकदा होने वाला। (जयो० २१/६८) ०सम्बंधानुकूल, अवसरानुसार।
उपाख्यान विषयक। प्रासनं (नपुं०) स्थान, स्थल, भूभाग। (जयो० ८/५४)
प्रासादः (पुं०) [प्रसीदन्ति अस्मिन्-प्रसद्+घञ्] भवन, महल।
राजभवन, उच्च भवन, उन्नत भवन। प्रासादकक्षं (नपुं०) भवन के कमरे! प्रासाद-घंटिका (स्त्री०) भवन का घंटा। प्रासाद-पृष्टः (पुं०) छज्जा। प्रासादप्रतिष्ठा (स्त्री०) भवन का नांगल, महल प्रतिष्ठा। प्रासादशुकः (पुं०) राज तोता, महल का तोता। प्रासाद-सोपानं (नपुं०) महल की सीढ़ियां। प्रासादशृङ्गं (नपुं०) मंदिर का उच्चभाग, महल का ऊपरी ___भाग कंगूरा, मीनार। प्रासिकः (पुं०) [प्रास्+ठक्] बर्थी युक्त, भालाधारक। प्रासुकः (पुं०) निर्जीव, पके हुए।
न्यदग्निसिद्ध फलपत्रकादि तत्प्रासुकं श्रीविभुना न्यगादि। यच्छुष्कतां चाभिदधत्तृणादि खादेत्त-देवासुमतेऽभिवादी।।
(वीरो० १९/३३) प्रासुकजलं (नपुं०) गरम किया गया जल। प्रासूतिक (वि०) [प्रसूति ठक्] प्रसव से सम्बंध रखने वाला। प्रास्कायिक (वि०) अङ्ग निरीक्षक यन्त्र। ०एक्सरे यन्त्र।
(वीरो० २०/८) प्रास्त (भू०क०कृ०) [प्र+अस्+क्त]० फेंका गया, चलाया गया।
बाहर निकाला गया।
निर्वासित किया गया। प्रास्ताविक (वि०) [प्रस्ताव ठक्] भूमिका का परिचय,
प्रस्तावना का काम देने वाला, भूमिका विषयक। प्रास्ताविकदृष्टिः (स्त्री०) भूमिका विषयक दृष्टि। प्रास्तविकवचनं (नपुं०) भूमिका में दिया गया विवरण।
०ऋतु के अनुकूल, अवसरानुसार।
सामायिक।
०संगत, प्रासंगिक, संबद्ध। प्रास्तुत्यं (नपुं०) [प्रस्तुत+ष्यञ्] विचार-विमर्श का विषय होना। प्रास्थानिक (वि०) [प्रस्थान-ठक्] प्रयाण से सम्बन्धित,
विदा के लिए उपयुक्त। प्रास्थिक (वि०) [प्रस्थ ठण] प्रस्थ सम्बंधी, तौल-माप
विषयक। प्रास्रवण (वि०) [प्रस्रवण+अण] झरने से उत्पन्न, स्रोत से
निकला हुआ। प्राह -कहा (सम्य० १०९)
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प्राहः
७४३
प्रिया
प्राहः (पु०) [प्रकर्षण आहशब्दो यत्र] नृत्यकला की शिक्षा।
अभिनय कला का ज्ञान। प्राह्वः (पुं०) दोपहर के पहले का समय। प्रारूंतन (वि०) [प्राल+टयु] मध्याह्न से पूर्व होने वाला,
मध्याह्न पूर्व सम्बंधी। प्राह्णेतराम् (अव्य०) [प्राह्न+तरप्] प्रभातकाल, प्रातःकाल, सुबह। प्रिय (वि०) [प्री+क] प्यारा, इष्ट, अनुकूल।
यथेष्ठ। (सुद० २/२२) रमणीय, सुन्दर। स्निग्ध। (जयो० २/१४७) सुहावना, रुचिकर।
अनुरक्त, चाहने वाला, भक्त। स्वरूचिविषयीकृत वस्तु प्रियम्' प्रियः (पुं०) [प्री+क] प्रेमी पति। प्रियंवद (वि०) प्रियं वदति [प्रिय+वद्+खच्] ०इष्ट कथन।
रुचिकर विचार। प्रियकः (पुं०) हिरण की जाति, केसर, नीपवृक्ष, पियंगुलता। प्रियकर (वि०) सुखद, इष्टकर। प्रियकर्मन् (वि०) मित्रतापूर्ण कार्य करने वाला। प्रियकलत्रः (पुं०) प्रियपति।
अधिक चाहने वाला पति। प्रियकाम (वि०) इष्टकार्य, उचित काम, योग्य कार्य। प्रियकार (वि०) इष्ट कार्य करने वाला। प्रियकारिन् (वि०) इष्ट करने वाला, अच्छा करने वाला। प्रियकारिणी (स्त्री०) सिद्धार्थ प्रिया, वर्धमान की माता,
त्रिसला का अपर नाम। (वीरो० ३/१५) ०अतिवेग राजा की प्रिया। रानी प्रियकारिणी। पृथिवी तिलक के राजा की रानी। 'सौंदर्यशाखाप्रियकारिणीति'
(समु० ६/२५) प्रियकृत् (पुं०) मित्र, हितैषी। प्रियचारुकारी (वि०) प्रिय की मनोहर क्रिया। (जयो० १३/२१) प्रियङ्ग (स्त्री०) [प्रिय+गम्- कु] एक लता। महाकच्छ के
राजा की पुत्री। (समु० २/१३) प्रियजनः (पुं०) प्रिय व्यक्ति। प्रियजानिः (पुं०) पति, प्रेमी। प्रियतर (वि०) [प्रिय+तरप्] अधिक प्रिय, अधिक प्यारा। प्रियता (स्त्री०) [प्रियातल्+टाप] प्यार, प्रेम, स्नेह, प्यारा। प्रियतोषणः (पुं०) रतिबन्ध, मैथुन की एक क्रिया। प्रियदर्श (वि०) देखने में सुंदर, दर्शनीय. लुभावना।
प्रियदर्शनः (पुं०) सम्राट अशोक के लिए प्रयुक्त विशेषण। प्रियदर्शिन् (पुं०) सम्राट अशोक का विशेषण। प्रियदेवन (वि०) जूआं खेलने का शौकीन। प्रियपुत्रः (पुं०) इष्ट पुत्र, सुपुत्र। एक पक्षी विशेष। प्रियपुरुषः (पुं०) पति, प्रेमी। प्रियप्रासादः (पुं०) उत्तम प्रासाद, अच्छा राजभवन। प्रियप्राय (वि०) अत्यन्त कृपालु। प्रियप्रायण (नपुं०) बहुत ही रोचक। प्रियप्रेप्सु (वि०) अभीष्ट की इच्छा करने वाला। प्रियभावः (पुं०) इष्ट भाव, उचित परिणाम। प्रियभावना (स्त्री०) श्रेष्ठ विचार, उत्तम भावना। प्रियभाषणं (नपुं०) इष्ट कथन, रुचिकर शब्द, विचारपूर्ण
प्रस्तुति। प्रियभाषिन् (वि०) मधुरभाषी। प्रियमण्डन (वि०) अलंकरण प्रिय, आभूषण का इच्छुक। प्रियमधु (वि०) मद्य का प्रेमी। शराब का कामी। प्रियमित्रः (पुं०) पुष्कल देश के पुण्डरीकिणी नगरी के राजा
सुमित्र और रानी सुव्रता का पुत्र। महावीर शासन का एक कुमार। (वीरो० ११/३३) श्री पुण्डरीकिण्यथ पूः सुभागी, सुमित्रराजा सुव्रताऽस्य राज्ञी। भूत्वा कुमारः प्रियमित्रनामा
तयारह निस्तुलरूपधामा।। (वीरो० ११/३४) प्रियमित्रं (नपुं०) सुख-दुःख में सहभागी सखा, मित्र, इष्टमित्र। प्रियम्भावुक (वि०) स्नेह का पात्र। प्रियरण (वि०) शूरवीर, रणवीर। प्रियवचन (वि०) इष्टवचन, कृपापूर्णशब्द। प्रियवचनं (नपुं०) कृपा युक्त, सत्यवचन। जिस वचन के
सुनने से प्रसन्नता का अनुभव हो। प्रियवयस्यः (पुं०) प्रियमित्र। प्रियवाच् (वि०) प्रिय वाणी बोलने वाला। प्रियवादिन् (वि०) मधुरवाची। प्रियश्रवस् (पुं०) कृष्ण। प्रियसंगमः (पुं०) पति संगम। (जयो० १६/५६१) प्रियसुखः (पुं०) प्रियमित्र। प्रियसंदेश: (पुं०) उचित सूचना। प्रियसमागमः (पुं०) प्रिय व्यक्ति से मिलन। प्रियसहचरी (स्त्री०) प्रिय भार्या, प्रियतमा, पत्नी, अर्धांगिनी। प्रियसुहृद् (पुं०) प्राणप्रियमित्र। प्रिया (स्त्री०) पत्नी, प्रेमी, स्वामिनी। (जयो० १/७३)
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प्रियाधरम्
७४४
प्रेक्षणीय
"किमस्मदीय-बाहुभ्यां प्रियाया गलमालभे' (वीरो० ८/२९) | प्रीतिकर्मन् (नपुं०) मैत्रीपूर्ण व्यवहार, कृपापूर्ण कार्य। शोभना। (जयो० १/४५)
प्रीतित (वि०) प्रीतिपूर्वक, मैत्रीपूर्वक। (भक्ति० १३) प्रेमपूर्णा। (जयो० १/९३)
प्रीतिदः (पुं०) विदूषक, मसखरा, जोकर। ०कृपा, सेवा, अनुग्रह।
सूर्य (जयो० १८/४०) प्रियाधरम् (नपुं०) प्रियतमा के अधर। प्रियाया अधरमिनौष्ठमिव प्रीतिदत्त (वि०) स्नेह कारक। (जयो० १२/१३५)
प्रीतिदानं (नपुं०) प्रेमोपहार, हर्षपूर्वक उपहार, रुचिकरभाव प्रियातिथि (वि०) अतिथि सत्कार करने वाला।
उत्पादक। प्रियापायः (पुं०) किसी वस्तु का अभाव।
प्रीतिधनं (नपुं०) प्रेमस्थान। प्रियाप्रिय (वि०) रुचिकर-अरुचिकर।
प्रीतिधारणा (स्त्री०) प्रीतिसत्ता, प्रेमस्थान। (जयो०वृ० ६/७३) प्रियाम्बुः (पुं०) आम्रवृक्ष।
प्रीतिपात्रं (नपुं०) प्रियपात्र, स्नेही व्यक्ति। प्रियाश्रितः (पुं०) पति का आधार। (जयो० १७/८२) प्रीतिपूर्व (अव्य०) स्नेहपूर्वक, कृपा के साथ। प्रियाह (वि०) प्रेम/कृपाशीलता वाला।
प्रीतिमनस् (वि०) मन में आनंदित। प्रियोक्तिः (स्त्री०) मैत्रीपूर्ण कथन।
प्रीतियुज् (वि०) स्नेही, प्रिय, प्यारा। प्रियोदितं (नपुं०) मैत्री युक्त व्यवहार।
प्रीतिवचस् (नपुं०) कृपापूर्ण वाणी, आनंद प्रदान करने वाली प्रियोन्मुख (वि०) सन्मुख। 'प्रिस्योन्मुखः प्रियसंमुखः'। वाणी। प्रेमपूर्ण वचन। (जयो० ६/११९)
प्रीतिवर्धन् (वि०) प्रेम बढ़ाने वाला। प्रियोपपत्तिः (स्त्री०) आनन्द प्रद, सुखद घटना।
प्रीतिसत्ता (स्त्री०) प्रीतिधारणा, प्रेमस्थान। (धव० ६/७३) प्रियोपभोगः (पुं०) प्रेयसी के साथ मिलन, प्रेयसी का आलिंगन। प्रीतिवादः (पुं०) मित्रवत् विचार। प्री (सक०) संतुष्ट करना, प्रसन्न करना।
प्रीत्यनुष्ठानं (नपुं०) अतिशय आदर युक्त कार्य। प्रीण (वि०) [प्री+क्त] प्रसन्न, संतुष्ट, तृप्त।
प्रीत्यभाव (वि०) प्रीति का अभाव, अनादर (जयो०वृ० ६/१९) ०पुराना, पुरातन, प्राचीन।
प्रीत्यम्बुक्षु (स्त्री०) रति। (सुद० ४/४७) ०पहला, सर्वप्रथम, प्रारंभिका।
प्रीत्याभिवाद्य (वि०) स्नेह सम्प्रार्थ्य। प्रीणनं (नपुं०) [प्रीण+ल्युट] प्रसन्न करना, संतुष्ट करना। I (अक०) कूदना, चलना-फिरना। प्रीत (भू०क०कृ०) [प्री+क्त] प्रेम स्नेह, हर्ष, खुशी। पुष् (सक०) जलाना, भस्म करना। ०संतुष्ट, तृप्त।
०भरना। आनन्दित, आह्वलादित।
पुष्ट (भू०क०कृ०) [पृष्+क्त] जलाया हुआ, खाया पीया हुआ। ०प्रसन्न। (जयो० २/५६)
पुष्वः (पुं०) [पृष्+क्वन्] वर्षा ऋतु। प्रीततमः (वि०) हृदयेश्वर। (जयो० १६/४०) प्राणाप्रिय, * पति। दिनकर, ०जल बिन्दु। प्रीतपूर्णः (पुं०) प्राणप्रिय। (जयो० १६/३१)
प्रेक्षक (वि०) [प्राईक्ष् ण्वुल] दर्शक, दृष्टा। प्रीतमनस् (वि०) मन से प्रसन्न।
प्रेक्षणं (नपुं०) [प्र+ईश्+ल्युट] ०देखना, अवलोकन करना। प्रीति (स्त्री०) [प्रो+क्तिन्] हर्ष, आनंद खुशी। (दयो० १०७) अनुचिन्तन करना, ध्यान करना। प्रसाद - (जयो० २/९३)
दृश्य, दृष्टि, दर्शन। तृप्ति - (सुद०८३)
अक्षि, आंख। ०पसंद, चाह, इच्छा। (सुद० ४/१६)
प्रेक्षणकं (नपुं०) [प्रेक्षण+कन्] ०दर्शन, दिखावा। प्रेम, स्नेह, आदर।
प्रेक्षणकारिणी (वि०) प्रेक्षिणीतुला। (जयो० १७/२९) मित्रता, सुहृदयता।
प्रेक्षणिका (स्त्री०) दृश्य देखने वाली, दर्शनीय स्थल प्रिय स्त्री। प्रीतिकर (वि०) प्रीतियुक्त, प्रेम उत्पन्न करने वाला, | प्रेक्षणीय (वि०) [प्र+ईश्+अनीयर] दर्शनीय, अवलोकनीय। ०रुचिकर।
(जयो० ६/११२) प्रीतिकरी (वि०) प्यारी, प्रिया, स्नेही। (समु० ६/११)
मननीय, चिन्तनीय, विचारणीय।
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प्रेक्षणीय
७४५
प्रेप्सु
उपयुक्त, मनोहर, प्रिय, सुंदर।
०ध्यान देने योग्य। प्रेक्षणीयकं (नपुं०) [प्रेक्षणीय+कन्] ०दृश्य, दर्शन, देखना,
अवलोकन। प्रेक्षा (स्त्री०) [प्र+ईश्+अङ्क टाप्] ०बुद्धि, ज्ञान, समझ,
मनन-चिन्तन। विचारणा, पर्यालोचन करना।
अनुचिंतन, अनुशीलन। ०सूक्ष्म से सूक्ष्म दर्शन, लघुता का अवलोकन। दृष्टि देना, ध्यान देना।
अवलोकन करना, नाटकीय दृश्य का दर्शन। प्रेक्षा-असंयमः (नपुं०) आगमोक्त विधि से नहीं देखना। प्रेक्षागृहं (नपुं०) रंगशाला, सिनेमागृह, नाट्यशाला। प्रेक्षार्थक (वि०) दृष्टि डालने योग्य। (जयो०७ ३/४२) प्रेक्षावत् (वि०) [प्रेक्षा+मतुप्] विचारशील, विद्वान्, बुद्धिमान्। प्रेक्षासंयमः (पुं०) देखकर आवश्यक कार्य करना। प्रेक्षासमाजः (पुं०) दर्शक गण। प्रेक्षास्थानं (नपुं०) नाट्यशाला, रंगमंच, सिनेमागृह। प्रेक्षित (भू०क०कृ) [प्र+ईक्ष+क्त] ०दृष्टा योग्य, देखने योग्य।
०देखा गया, अवलोकन किया गया। प्रेक्षितं (नपुं०) रूप, छवि, छलक। प्रेक्षिणी (स्त्री०) दृष्टि, नेत्र, आंख। (जयो० ५/६७) प्रेः (पुं०) [प्र+इङ्ख्+ल्युट्] झूलना, पालना। प्रेडण (वि०) [प्र+इङ्ख्+ल्युट्] ०भ्रमणशील, हिंडनशील।
घूमने वाला, इधर-उधर भटकने वाला, फिरने वाला।
प्रविष्ट होने वाला। प्रेडणं (नपुं०) झूलना, झूला, हिंडोला।
नायक, सूत्रधार। प्रेड (स्त्री०) [प्र+इख्+अ+टाप्] ०झूलना, हिंडोलना, दोला।
(जयो० ११/१९) यात्रा करना, पर्यटन, घूमना।
घोड़े की टाप। प्रेक्षाकृत (वि०) टोला, झूला, झूलना। प्रेढोल (अक०) झूलना, हिलना, डोलना, इधर-उधर होना। प्रेढोलनं (नपुं०) [प्रेडोल्+ ल्युट्] ०झूलना, हिलना, हिंडोलन,
भ्रमण, परिभ्रमण।
झूला, हिंडोला, पालना। प्रेत (भू०क०कृ०) [प्र+इ+क्त] मृत, शरीर परित्यक्त व्यक्ति।
दिवंगत, भूत-पिशाच। (सुद० १३३)
प्रेतकर्मन् (नपुं०) अन्त्येष्टि संस्कार। प्रेतकृत्यं (नपुं०) अन्त्येष्टि संस्कार। प्रेतगृहं (नपुं०) श्मशान, मशान, शवस्थान। प्रेतचारिन् (पुं०) शिव। प्रेतधूमः (पुं०) चिता का धूम। प्रेतपक्षः (पुं०) पितर पक्ष। प्रेतपटहः (पुं०) अर्थी का ढोल। प्रेतपुरं (नपुं०) यमनगर। श्मशान। प्रेतभावः (पुं०) मृत्य, मरण। प्रेतभूमिः (स्त्री०) श्मशान। प्रेतराजन् (पुं०) यमराज। प्रेतशरीरं (नपुं०) मृत शरीर। प्रेतशवः (पुं०) भूतस्थान। (सुद० १७३) प्रेतशुद्धिः (स्त्री०) शुद्धिकरण, मृत्यु पर पवित्रीकरण की
प्रक्रिया। प्रेतशोचं (नपुं०) मृत की शुद्धता करना। प्रेतश्राद्धं (नपुं०) मृतात्मा के प्रति श्रद्धा। प्रेतावासः (पुं०) श्मशान, भूतवास। (सुद० १३३) प्रेतावासे
पुनर्गत्वा सुदर्शनमहामुनिः।
कायोत्सर्गं दधाराऽसावात्मध्यानपरायणः।। (सुद०१३३) प्रेतास्थि (स्त्री०) मृत जीव की हड्डियां। प्रेतिक (वि.) [प्र+इति+कन्] प्रकर्षेण इति गमनं यस्य। भूत,
प्रेत। पिशाच, ०बाहरी बाधा। प्रेतेशः (पुं०) यमराज। प्रेतोद्देशः (पुं०) पितरों के निमित्त। पूर्वजों के प्रति। प्रेत्य (अव्य०) [प्र+इ+क्त्वा+ल्यप्] इस संसार से, मरने से
दूसरे लोक में। प्रेत्यजातिः (स्त्री०) परलोक स्थिति। प्रेत्यभावः (पुं०) मरकरके जो भाव हो। 'मृत्वाऽमुत्र प्राणिनः
प्रादुर्भावः प्रेत्यभावः। (जैन०ल० ७९९) प्रेत्वन् (पुं०) [प्र+इ+क्वनिप्] धवन।
०इन्द्र। प्रेप्सा (स्त्री०) [प्र+आप+सन्+अ+टाप्] प्राप्त करने की इच्छा,
__ अभिलाषा, वाञ्छा। प्रेप्सु (वि०) [प्र+आप+सन्-ड] प्राप्त करने के इच्छुक,
अभिलाषी। प्रबल इच्छुक। उद्देश्य रखने वाला।
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प्रेमन्
७४६
प्रेरित
प्रेमन् (पुं०/नपुं०) [प्रियस्य भावः, इमनिच्] प्रेम, स्नेह, प्रीति,
वात्सल्य, अनुराग। ०कृपा, अनुग्रह। ०हर्ष, खुशी, उल्लास। प्रियत्वं प्रेम (धव० १२/२८४) प्रीतिलक्षणं प्रेम। प्रेमशब्देनाभिष्वङ्गलक्षणो रागोऽभिधीयते। (जैन०ल० ७९९)
संश्रव (जयो०वृ० १३/२०) प्रेमऋद्धिः (स्त्री०) स्नेहवर्धन, उत्कट प्रेम। प्रेमजुषः (पुं०) विलास, प्रेमयुक्त। अधरपान सम्बन्धी विलास।
अधरे अधरे प्रवृत्य प्रवृत्तमिधराधरि विलासे चेष्टिते।
(जयोवृ० १६/३९) प्रेमतत्परः (पुं०) प्रेम में लीन, प्रेमासक्त। (दयो० ८७) प्रेमतत्त्वं (नपुं०) प्रेम व्यवहार, स्नेह भाव। (समु० ५/२०)
तेनसार्द्धमभवत्तु विवाहः प्रेमतत्त्वमनयोः समुदाहः।।
(समु० ५/२०) प्रेमनिबन्धनं (नपुं०) प्रीतिजनक परिणाम, प्रेमालिंगन, प्रेम
सम्बंध। (जयो० १२/२१) प्रेमपर (वि०) स्नेहशील, प्रिय। प्रेमपरायण (नपुं०) प्रेम में प्रवीण। प्रेमपरावृत्ति (स्त्री०) प्रेमभंग। (जयो० २३/२७) (सुद० ३/२९)
वात्सल्य अभाव। ०अनुराग समाप्ति। प्रेमपरिवर्तनं (नपु०) प्रेमभङ्ग, स्नेह में विराम। (जयो०७०
२३/२३) प्रेमपरावर्तनं (नपुं०) प्रेमभंग। प्रेमपूर्ण (वि०) स्नेह सिंचित। (जयो० ३/१०३) प्रेमभङ्गं (नपुं०) प्रेमपरावर्तन, स्नेह में मलीनता। (जयो०२३/२७) प्रेमभावः (पुं०) समादर भाव, कृपा भाव, स्नेहभाव।
(जयो०१० ३/४२, जयो० १२/१६) प्रेमबन्धनं (नपुं०) स्नेह सूत्र। प्रेममुक्त (वि०) स्नेह रहिता प्रेमयुज (वि०) प्रेमासक्त। (जयो० १७/६८) प्रेमलताङ्कर (नपुं०) स्नेह सूत्र रूपी लता के अंकुर। (जयो०
१२/५३) प्रेमभाव, ०अनुराग भाव। प्रेमवती (वि०) रसिका, स्नेही। प्रेमवार्ता (वि०) स्नेहयुक्त वार्तालाप। (जयो०वृ० ६/९१) प्रेमवासनाजनित (वि०) ०स्मरज। ०कामवासना से युक्त।
(जयो० १२/६५)
प्रेमव्यवहारः (पुं०) प्रेमभाव, समान स्नेह। ०समप्रीति। प्रेमसमुत्पादिक (वि०) प्रेमामृत, प्रेमपीयूष। (समु० ४/१०) प्रेमाधार (वि०) स्नेह का आधार। प्रेमामूल्य (वि०) अत्यधिक प्रेम। प्रेमाश्रयः (पुं०) प्रेमाधार। प्रेमाश्रु (नपुं०) नयनोदक। (जयो० १३/२)
स्नेहाश्रु, हर्षाश्रु। प्रेमिकर (वि०) प्रेम करने वाला। स्नेही। प्रेमिन् (वि०) [प्रेमन्+ इनि] प्रेमी, स्नेही, प्रेम करने
वाला। प्रेमोचित (वि०) ०हार्दोचित, ०हृदयोचित, प्रेम से परिपूर्ण,
स्नेह से परिपूर्ण। प्रेम्णा (सं०कृ०) प्रीत्या।- प्रीति करके। प्रेम्णोचित (वि०) प्रेमोचित, प्रेमपूर्वक, स्नेह से परिपूर्ण। प्रेयस् (वि०) [प्रिय+प्रिय ईयसुन] अधिक प्रिय, विशेष अनुराग
योग्या प्रेयस् (पुं०) पति, प्रेमी। प्रेयसी (स्त्री०) प्रेमी स्त्री, अधिक प्रियतमा स्त्री। प्रेयोपत्यः (पुं०) [अपत्यानां प्रेयः] बगुला, कंकपक्षी। प्रेरक (वि०) [प्राईर् णिच्+ण्वुल्] ०उत्तेजित उद्दीपक।
प्रेरित करने वाला, प्रेरणाशील। प्रेरकप्रसंगः (पुं०) अनुकूल प्रसंग।
प्रेरणादायी प्रसंग। प्रेरकभावः (पुं०) उत्तेजित भाव। प्रेरकयोगी (वि०) प्रेरणाशील योगी। प्रेरिका (स्त्री०) प्रेरणा देने वाली स्त्री। (जयो० ५/७२) प्रेरणं (नपुं०) [प्र+ई+णिच्+ल्युट्] ०आवेग, अवेश।
० फेंकना, डालना, गिराना। ० भेजना, आदेश, निवेश।
उत्तेजित करना, उकसाना, आगे बढ़ाना। प्रेरणा (स्त्री०) [प्राईर् णिच् टाप्] प्रेरित करना, आगे
बढ़ाना। आवेग, आवेश।
आदेश, निदेश। प्रेरय् (सक०) प्रेरित करना, आगे बढ़ाना। प्रेरित (भू०क०कृ०) [प्र+ई+णिच्+क्त] उत्तेजित किया,
उकसाया गया। ०बढ़ाया गया। (जयो० ५/४)
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प्रेरितसूक्त
७४७
प्रोत्सह
उद्दीपित, प्रणोदित, उदीरित। (जयो०७० १२/१२०)
०प्रक्षालन, अभिषिक्त। ०भेजा गया।
छिड़काव। प्रेरितसूक्त (वि०) उत्तेजित कथन। (जयो०० १२/१२५)
मंत्रित करना। प्रेष् (अक०) चलना-फिरना, घूमना, भ्रमण करना। प्रोक्षणीयं (नपुं०) [प्र+उक्ष+अनीयर] पवित्रीकरण, प्रेषः (पुं०) [प+इष्+घञ्] ०भेजना, प्रेषण करना।
प्रक्षालीकरण। निदेश देना, बोझ डालना।
प्रमार्जनयी, अभिसिंचिनीय ०संदेश देना। ०चलना-फिरना। ०आमन्त्रण करना। प्रोक्षित (भू०क०कृ०) [प्र+उक्ष्+क्त] प्रेषणं (नपुं०) भेजना, संदेश देना। (दयो० ६२)
प्रोञ्छनम् (नपुं०) अभिषेचन, परिमार्जन। (जयो० २७/९) ___०नयन, असि, दृष्टि। (जयो०वृ० २/११३)
प्रक्षालन, प्रमार्जन। प्रेषित (भू०क०कृ०) [प्र+इष्+क्त] निदेशित, आदिष्ट। प्रोञ्छनकारिणी (वि०) सम्मार्जनकत्री। भेजा गया (दयो० ९८)
प्रोञ्छनकः (पुं०) तौलिया। (जयो० १०/२८) (वीरो० ५/११) ०मुड़ा हुआ।
प्रोञ्छनवत्रं (नपुं०) तौलिया। (जयो० १३/१०, १७३) निर्वासित।
प्रोञ्छितवती (वि०) प्रक्षालित करती हुई। (जयो० १७/१३०) प्रेष्ठ (वि०) [प्रिय इष्टन्] प्रियतम, प्यारा, अधिक प्रिय।
प्रमार्जित, शुद्ध किया गया। प्रेष्ठः (पुं०) प्रेमी, पति।
साफ किया गया। प्रेष्ठा (स्त्री०) पत्नी, स्वामिनी, भार्या।
प्रोच्छ्रित (भू०क०कृ०) उत्तुंग, उन्नत, ऊंचा। प्रेष्य (वि०) [प्र+ईष्+ ण्यत्] ० भेजने योग्य।
प्रोच्चंड (वि०) अत्यंत, तीव्र, भयानक। आदेश दिए जाने योग्य।
प्रोच्चैः (अव्य०) अत्यधिकता से, ऊंचे स्वर से। प्रेष्यः (पुं०) सेवक, भृत्य, अनुचर।
प्रोज्जासनं (नपुं०) [प्र+उद्+जस्+णिच्+ ल्युट्] वध, हत्या। प्रेष्यं (नपुं०) सेवा, दूतमंडली। अनुचर समूह।
प्रोज्झनं (नपुं०) [प्र+उज्झ्ल्यु ट्] ०त्यागना, छोड़ना, विसर्जित प्रेष्यप्रयोगः (पुं०) आदेश देकर मार्यादित क्षेत्र में भेजना।
करना। बहिर के इष्ट कार्य कराना।
प्रोज्झित (भू०क०कृ०) [प्र. उज्झ्-क्त] ०परित्यक्त, छोड़ा ०देशव्रत/श्रावक के देशव्रत का एक दोष।
गया। मर्यादा भंग करना।
विसर्जित किया गया। प्रेष्यभावः (पुं०) सेवा, बंधन।
प्रोढ (वि०) [प्र+व+क्त] प्रौढ, पौढि, वृद्धापना युक्त। प्रेष्यवधू (स्त्री०) सेविका, दासी।
प्रोत (भू०क०कृ०) [प्र+वे+क्त]०पारित, बद्ध किया गया। प्रेष्यवर्गः (पुं०) सेवक समूह, अनुचर वर्ग।
जमा हुआ, जड़ा हुआ। प्रेष्या (स्त्री०) सेविका, दासी।
प्रोत्कण्ठ (वि०) [प्रकर्षण+उत्कण्ठः] उठाए हुए, ग्रीवा तक प्रेहि (वि०) प्रेक्षी. ०अनुदर्शी।
लिए हुए। प्रोक्त (भू०क०कृ) [प्र+वच्+क्त] कथित, भाषित, बोला | प्रोत्कुष्टं (नपुं०) [प्र+उत्+क्रुश्क्त ] ०कोलाहल, हल्लागुल्ला। गया। (सुद० ) कहा गया।
प्रोत्खात (भू०क०कृ०) [प्र+उत्+खन्+क्त]०खोदा हुआ, खनन विरचित। (सुद० )
किया गया। उच्चारण किया गया।
प्रोत्क्षिप्त (वि०) उछाला गया। (जयो०८/२) निर्धारित किया गया, नियत किया गया।
प्रोत्तुङ्गः (वि०) अत्यधिक ऊंचा। प्रोक्तभाव (वि०) वक्ष्यमाण, कथित। (सुद० ३/४५, जयो० प्रोत्फुल्ल (वि०) पूर्ण विकसित हुआ, खिला हुआ। ४/१७)
प्रोतवसु (स्त्री०) रत्न राशि। 'प्रोतानामङ्कितानां वसूनां रत्नानां प्रोञ्छ (अक०) प्रमार्जन करना, साफ करना। (मुनि. ९) पद्मरागवैडूर्यादीनां सञ्चयस्य' (जयो०वृ० १०।८६) प्रोक्षणं (नपुं०) [प्र+उ+ल्युट] ०प्रामर्जन, संमार्जन। प्रोत्सह (वि.) प्रोत्साहन देने वाला। (सम्य० ४१)
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प्रोत्सारणं
प्रोत्सारणं (नपुं० ) [ प्र+उत्+सृ+ णिच् + ल्युट् ] छुटकारा करना,
हटाना ।
० निर्वासित करना, विसर्जित करना ।
प्रोत्सारित (भू०क० कृ० ) [ प्र+उत्+सृ+ णिच् + क्त] ० निष्कासित, हटाया गया, पदमुक्त किया गया, परित्यक्त । ० आगे बढ़ाया गया।
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प्रोत्साहः (पुं० ) [ प्र+उत्+सह्+घञ्] *अनुराग, विशेष लगाव, अत्यनुरक्ति ।
० उद्दीपन, बढ़ावा ।
प्रोत्साहक (वि.) [प्र+उत्+सह + णिच् + ण्वुल् ] उत्साह बढ़ाने वाला, उकसाने वाला।
प्रोत्साहनं (नपुं० ) [ प्र+उत् + सह् + णिच् + ल्युट् ] ० उत्साहवर्धन, उकसाना, प्रतिविधापि। (समु० ७/१६) ० भड़काना, प्रणोदन ।
० प्रेरित करना ।
प्रोथ् (अक० ) सदृश होना, समान होना ।
० योग्य होना, यथेष्ट होना।
० सक्षम होना, समर्थ होना। ० जोड़ीदार होना ।
प्रोथ (वि० ) [ प्रो+घ ] ०प्रसिद्ध, विख्यात, सुविश्रुत, ख्याति प्राप्त । ० रक्खा हुआ, स्थिर किया हुआ ।
० भ्रमण करना, यात्रा पर जाना, अग्रसर होना, आगे बढ़ना। प्रोथ: (पुं०) नक्र, नाक, नथूना। (जैन० १३/७२)
०घोड़े की नाक ।
० सूकर का थूथन ।
० कूल्हा, नितम्ब देश । (वीरो० ४/३७)
प्रोथः पान्थऽश्वघोणायामस्त्रीना कटिगर्भयो इति वि० । (जयो०
४/३७)
० खुदाई |
७४८
०वस्त्र |
o गर्भ, कलल ।
प्रोथिन् (पुं०) [प्रोथ्+इनि] अश्व, घोड़ा।
प्रोद्घष्ट (भू०क० कृ० ) [ प्र + उद् + घुष् +क्त] ०गूंजना, ध्वनि
होना ।
०घोषणा, उद्घोष ।
० ऊंचा शब्द करना, उच्च स्वर में बोलना । प्रोद्घोषणं ( नपुं० ) [ प्र + उद् + घुष + ल्युट् ] घेषणा ऐलान, प्रतिध्वनि करना, मिमादी करना ।
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प्रोद्दीप्त (भू०क० कृ० ) [ प्र+उद् + डीप् +क्त] प्रोद्घाट् (अक० ) प्राप्त होना। (वीरो० १७ /९) प्रोन्नत (वि०) प्रशस्त। (जयो० ३/३८)
०देदीप्यमान, आग पर रखा हुआ, गर्म किया हुआ । प्रोद्धिन्न (भू०क० कृ० ) [ प्र+उद् + भिद् +क्त] ० अंकुरित, प्रस्फुरित |
प्रोषित
० फूटा हुआ, निकला हुआ।
प्रोद्भूत (भू० क० कृ० ) [ प्र+उद् + भू+क्त] प्रस्फुरित, निस्सरित, निकला हुआ।
० उत्कण्ठित।
० फूटा हुआ ।
प्रोद्यत (भू० क० कृ० ) [ प्र + उद् + यम् + क्त ] ०अंकुरित, प्रस्फुटित । ० फूटा हुआ, निकला हुआ।
प्रोद्भूत (भू० क० कृ० ) [ प्र + उद् + भू+क्त] ० प्रस्फुटित, निस्सरित, निकला हुआ।
० उद्यत हुआ, तैयार हुआ । ०तैयार ।
प्रोद्वाह: (पुं० ) [ प्र+उद्+वह्+घञ् ] पाणिग्रहण, विवाह । प्रोवन्तः (पुं०) पाषाण उपटा, ठोकर (मुनि० ६) प्रोध (सक०) उठाना। (जयो० १० / १०८ ) प्रोल्लाधित (वि० ) [ प्र+उद् + लाघ+क्त] स्वास्थ्य लाभ युक्त, रोगोन्मुक्ति की ओर अग्रसर, उल्लसित, परम प्रसक्तियुक्त । (जयो० ४ / ५९ )
०
सुगठित, हृष्ट पुष्ट ।
प्रोल्लिखित (वि०) चिह्नित, अंकित । (वीरो० १८ / १ ) प्रोल्लेखनं (नपुं०) * [प्र+उद् + लिख् + ल्युट् ] • प्रमार्जन । ० खुरचना, चिह्नित करना ।
० अंकित करना ।
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प्रोषधः (पुं०) एकाशन, एक बार भोजन करना । प्रोषधः
सकृद्भुक्तिः ।
प्रोषधसिम्विधायी (वि०) प्रोषधोपवास धारण करने वाला । (सुद० १०७)
प्रोषधोवासः (पुं०) पर्व - अष्टमी और चतुर्दशी के दिन उपवास । चतुर्दश्यामथाष्टभ्यां प्रोषध क्रियते ।
प्रोषधोपवासप्रतिमा (स्त्री०) प्रत्येक माह की चारों अष्टमी - चतुर्दशी को नियम पूर्वक उपवास करना।
प्रोषित (भू०क० कृ० ) [ प्र + वस्+क्त] ० प्रवास पर गया हुआ, यात्रा को गया हुआ ।
० अनुपस्थित, घर से बाहर गया हुआ ।
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प्रोषितभर्तका
७४९
प्रोषितभर्तृका (स्त्री०) नारी। (वीरो० २१/१७) प्रोष्ठः (पुं०) [प्रकृष्टो ओष्ठो यस्य] ०बलीवर्द, वृषभ, बैला
तिपाई, चौकी। प्रौष्ठपदः (पुं०) भाद्रपद। प्रौंडः (पुं०) ईख, इक्षु, गन्ना, बराई। (जयो० ११/५६) प्रौढ (वि०) [प्र+व+क्त]०परिपक्व, पका हुआ।
वयस्क, बूढ़ा, वृद्ध (जयो० १६/५८) घना, सघन, व्यापक। विशाल, उन्नत, बलवान, साहसी।
०समर्थ) प्रौढता (वि०) उत्थान शीलता। (जयो० ५/७०) प्रौढवयस्का (स्त्री०) किशोरी। (जयो० १२/११८) प्रौढसम्भाषणः (पुं०) पाठकजना (जयो० २०/२०) शिक्षाव्रतं
द्वितीयं स्यान्मुनिमार्गविधानतः। (जैन०ल० ८००) प्रोषधे
उपवासः प्रोषधोपवासः (स०सि०७/२१) प्रौढा (स्त्री०) वृद्धा (जयो० १६/५८) प्रवीणा। (जयो०
१२/११४) प्रौढिः (स्त्री०) पूर्णवृद्धि, वृद्धि वर्धन, प्रौढ अवस्था। (वीरो०
१२/११४) ०ऐश्वर्य, समुन्नति, प्रताप। प्रौण (वि०) [प्र+ओण्+अच्] कुशल, प्रवीण, विज्ञ, चतुर। प्लक्षः (पुं०) [प्लक्ष घञ्] वटवृक्ष, पिलानन, अभक्षा (हित०
४७) गूलर का वृक्षा
पार्श्वद्वार, पिछवाड़े का दरवाजा।। प्लव (वि०) [प्लु+अच्] बहता हुआ, वृद्धिगत।
०कूदता हुआ, छलांग लगाता हुआ। (जयो० ३/७७) प्लवः (पुं०) तैरना, बहना। बाढ़, छलांग, कुलांच, छोटी
नौका। डोंगी, बेड़ा, घड़नई।
वानर, मेंढक, भेड़। प्लवकः (पुं०) मेंढक, दादुर।
कूदने वाला व्यक्ति, उछलने वाला। ०वट, ०वटवृक्ष, पाकर तरु।
०चाण्डाल। प्लवंगः (पुं०) [प्लव+गम्-खच्] ०वानर, बन्दर, लंगूर,
दर्दुर। (वीरो० ४/८)
हिरण, मृग।
०वट वृक्षा प्लवङ्गमः (पुं०) [प्लवगम्+खच्-मुम] ०वानर, बंदर,
मेंढक।
प्लवनं (नपुं०) [प्लु+ल्युट] तैरना, गोता लगाना।
स्नान करना, छलांग लगान, कूदना। स्नान। (जयो० १८/२६)
०बाढ़, प्रलय। प्लावाका (स्त्री०) [प्लु+आकन्+टाप्] बेड़ा, घड़नई। प्लविक (वि०) [प्लव+ठन्] खिवैया, पार ले जाने वाला। प्लाक्षं (नपुं०) [प्लक्ष्+अण्] प्लक्षतरु फल। प्लावः (पुं०) [प्लु+घञ्] छलांग लगाना।
बह निकलना। प्लावनं (नपुं०) [प्लु+णिच्+ल्युट्] स्नान, आचमन, * बाढ़।
जलमग्न होना, प्रलय। प्लावय् (सक०) आप्लावन करना। (वीरो० ४/९) प्लावित (भूक०कृ०) [प्लु+णिच्+क्त] ०तैराया गया, ०बहाया
गया, डुबोया गया, जलमग्न किया गया।
आच्छादित, आवृत, आवरण युक्त। प्लह (अक०) चलना-फिरना, हिंडन करना। प्ली (अक०) चलना-फिरना। प्लीहन् (पुं०) [प्लिह्+क्वनिन्] तिल्ली। प्लीहा (स्त्री०) तिल्ली, एक उदर रोग। प्लु (अक०) बहना, तैरना। कूदना, छलांग लगाना, उड़ना,
मण्डराना। प्लुत (भू०क०कृ०) [प्लु+क्त] तैरता हुआ, बहता हुआ।
०छलांग लगाता हुआ।
उच्चस्वर। (जयो० १३/८२) ०कूदा हुआ।
०स्नात। (सु० ३/५) प्लुतं (नपुं०) कूद, उछल-कूद, उचकना। तीन मात्रा वाले
स्वर। त्रिमात्रास्तु प्लुतो ज्ञेयः (धव० १३/२४८) प्लुतः (पुं०) देखो ऊपर। प्लुतगतिः (स्त्री०) खरगोश। शीघ्रगति। प्लुतिः (स्त्री०) [प्लुच+क्तिन्] बाढ़, प्रलय, बहाव, जलमग्नता।
उछल कूद। प्लुतोक्त (वि०) उच्च स्वर से कहा गया। (जयो० १३/८२) प्लुष (सक०) जलाना, झुलसाना, दागना। प्लुष्ट (भू०क०कृ०) झुलसाया गया, जलाया गया, ०दागा
गया। ०दग्ध। (जयो० १/७६)
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पनोष:
प्लेव् (अक० ) सेवा करना, वैश्यावृत्ति करना, उपस्थित होना ।
प्लोषः (पुं०) [प्लुष्+घञ् ] जलाना, तपाना । प्लोषणं (नपुं०) (प्लुष+ ल्युट्] जलना, झुलसना। प्लोषण (वि०) जलने वाला ।
प्सा ( अक० ) खाना, निगलना ।
प्लोषिवान् (वि०) भस्म करने वाला, भस्मीचकार (जयो०
।
२३/२० )
प्सात (भू०क० कृ०) भुंजित, खाया हुआ। प्लानं (नपुं०) भोजन खाना ।
फ
फ - (पुं०) पवर्ग का द्वितीय वर्ण, इसका उच्चारण।
फ (न० / पुं०) रुखा वचन, फुफकार
फ (पुं०) अंधड़, जम्हाई, निष्फल, भाषण, यज्ञ-साधन, स्फुट, फल- लाभ |
फक्क (१- प०) धीरे-धीरे जाना, बुरा व्यवहार करना, फक्कति, अफक्कीत।
फक्कक ( त्रि०) व्यर्थ ।
फक्किका (स्त्री०) कूटप्रश्न, अनुचित व्यवहार, धोखेबाजी | फट (अव्य०) मंत्रोच्चारण के पश्चात् बोला जाने वाला शब्द । फट (पुं० / स्त्री०) सांप का फन । फट (स्फुट+अच्) विस्तारित, फैलाया हुआ। पदांत धते, ठग । फट् (अव्य०) तंत्र शास्त्र में कहा हुआ एक मंत्र । फडिंगा (स्त्री०) झींगुर, टिड्डी, फतिंगा। ०पतंगा। फण (स्त्री०) सांप का फन (दयो० ६१ ) फणधर: (पुं०) सांप।
फणमणि (स्त्री०) शेषनाग मणि। फणासु ये मणयो रत्नानि ।
(जयो० ८/६६)
७५०
फणिप्रिय (पुं०) वायु।
फणिन् (पुं० ) [ फणा + इनि] फणधारी सांप | फणिन् (पुं०) सांप। (दयो० ६१ )
फणीन्द्र: (पुं०) शेषनाग । (वीरो० २/३ )
फणीश्नर (पुं०) शेषनाग, नागराज
फर्फराक (पुं०) फैली उंगलियों वाली हथेली (१०) मिठास । फल् (अक० ) फल आना, पैदा करना ।
फल फल पैदा करना। फलति, अफालीत्।
|
फलं (नपुं०) [फल्+अच्] परिणाम, प्रभाव ०भाव विचार फल (न०) वृक्ष आदि का बीज कोष, लाभ, नतीजा, कर्म-भोग,
( सम्य० ६२) प्रभाव, शुभ कर्मों के परिणाम धर्म,
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(सम्य० १३५) अर्थ कान, मोक्ष। ०परिणाम जानना (मुनि० ५ )
० पूजन सामग्री में चढ़ाने वाली द्रव्य (सुद० ७२) बदला, बाण, भाले, आदि का लोहे का बना तेज अगला भाग, हल की फाल, ढाल, उद्देश्य की सिद्धि, सूद प्रयोजन जायफल, कंकोल । काष्टफलक। (जयो० २/८३) फलक (पुं०) पटिया, पाट (दयो० ३२ )
फलचारणं (नपुं०) एक ऋद्धि जिसके प्रयोग से ऊपर गमन होता है।
फलत (वि०) दृष्टि गोचरित। (समु० २ / १६ ) फलता (वि०) फलोत्पादक (जयो० १३/६०)
फलती (वि०) फलप्रदायी, परिणामजनक।
फलदा (वि०) फलप्रदायी (समु०६/६३) (सुद० ३/५) फलभर (वि०) फलों से परिपूर्ण (जयो० २/३८) फल- पाक (पुं०) करोंदा, जल- आंवला ।
फलवत्ता (वि०) सफलता युक्त (सुद० ८६, सुद० ९२) फलित (वि०) फलवती, घटित होने वाली। (जयो० ११ / ८९ ) परछाई (जयो० १२ / ११६) प्रतिबिम्बित | फलेशवेषः (पुं०) शरद काल । (वीरो० २१ / १२) फलोदपर (पुं०) लाभ के उदय का आधार (वीरो० ९/२२) (जयो० ११/९५)
फल्गु (स्त्री०) गया तीर्थ की नदी ।
फल्गु (वि०) रम्य, सुंदर, निरर्थक।
०तच्छ (जयो० १/१७)
फरक्की
फल्गुफलं (नपुं०) अंजीर का फल। (हि० ४७ ) फलीभूत (वि०) सफल हुआ। (जयो० २६ / ११ ) फल्य (न०) फूल |
फाणि (पुं०) गुड़ से बना सीरा, दही और सत्तू, गुड | (जयो० १२/७ ) ०सीरा, ०मिष्टान्ना
फाण्ट (नपुं०) औषधि युक्त गरम पानी में औटाना काढ़ा ।
फाण्टवत् (वि०) विकृततक्रवत्। (जयो० १२ / १५३)
फाल (न०) फाला। (पुं०) बलदेव महादेव । फाल (त्रि०) सूती कपड़ा ।
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फाल्गुन (पुं०) अर्जुन का नाम, माघ के बाद का महीना, दूर्वा नामक सोमलता।
फाल्गुनमासः (पुं०) फागुन का महिना। (वीरो० ६ / २४) फि (पुं०) पाप, कोप, निष्फल वाक्य।
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फिरङ्गी
फिरक्की (स्त्री०) पहिये का घेरा फिरङ्गी (पुं०) अंग्रेज। (वीरो० १७/२८) फिरंगिराज्यं (नपुं०) अंग्रेजी राज्य। (दयो० ५२ ) फु (पुं०) मन्त्र पढ़कर फूंकना, तुच्छ वाक्य | फुट (वि०) विदीर्ण, खिला हुआ, सांप का फन । फुत् (अव्य०) फूंक मारने से उत्पन्न ध्वनि । फुत्कर (पुं०) अग्नि ।
फुत्कार ( पुं०) फूंक ।
फुल्लता (वि०) प्रफुल्लता, हर्षित भाव-सौम्यभाव। (जयो०
७/६०)
फुल्लाननं (नपुं०) हर्षित मुख। (दयो० ११०) (जयो० ४/४) फुल्ल (त्रि०) खिला हुआ, फूल, पुष्प (जयो० १४/३३) फुल्लगण्डं (नपुं०) फूले हुए गाल ।
० विकास (वीरो० ४/३७)
फुल्ल (भू०क० कृ०) खिलना, फुल्लति अफुल्लीत । (जयो० १/८२)
फुल्लदेहं (नपुं०) रोमाञ्चित शरीर पुष्यत्कग्य, समलंकृत शरीर (जयो० १०/११९)
फुल्लिताननं (नपुं०) हर्षित मुख । (जयो० १०/५४) फुलेल (पुं०) इत्र का पोहा (वोरो० ८/३४) पुष्पासव (जयो० २७/१५)
फुल्लविकोकिन् (पुं०) फूल देखने वाला।
फुल्लपरिणाम: (पुं०) उचित भाव, हर्षित भाव। (वीरो० ६/२४) फुल्लवक (वि०) फुलों से युक्त । (दयो० ७०) फूत्कार पूत्कर (वि०) फूंक से पवित्र किया गया। (वीरो०२७/६) फूत्कृत्य (सं०कृ०) धूक देना (जयो० १९/७६) फूत्कृत् - फूंकी गई (जयो० १२ / ९६ )
फेन (पुं०) झाग, रेंट, पूक। (जयो० १५/६८) (जयो० १९/७६) फेनक (वि०) ०झाग युक्त फुत्कार युक्त।
फेनकयं (नपुं०) फेन समूह (जयो०वृ० १३ / ९० ) हिण्डी
खण्ड ।
फेनवज्जुबल (वि०) फेन सदृश (जयो० २/१०७) फेनप्रभार (पं०) फेनकण (जयो०१३/९०) फेनसंचयः (पुं०) झाग समूह । (जयो० १४ / ६२) फेनायमान (वि०) फेन सदृश हर्षित (जयो० २४/१३५) फेनिका (स्त्री०) बुलबुला।
फेनिल (वि०) झागदार / साबुन (वीरो० २६ / २) रीठा (जयो० १५/१७) (जयो० २५/६६)
७५१
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फेर : (पुं०) गीदड़ ।
फेरण्डः [फेन्+इलच् ] गीदड़ । [ फे+रा+क] फेरव: (पुं०) गीदड़ ।
फेरवः (पुं०) गीदड़, राक्षस
० धूर्त, उग
फेरव (पुं०) धूर्त, चालबाज, दुःख पहुंचाने वाला ।
फेक (पुं०) गीदड़ |
फेरू (अक० ) खाकर छोड़ दिया, जूठा। फेल् (१- प०) जाना, फेलति, अफेलीत् ।
बकेरुका
ब
ब: (पुं०) पवर्ग का तृतीय वर्ण, इसका उच्चारण स्थान ओष्ठ है।
बंहू (अक० ) बढ़ना, उगना, निकलना।
हिमन् (पुं०) [बहुल इमनिच्] अधिकता, बहुलता, बाहुल्य, बहिष्ठ (वि० ) [ बहुल + इष्ठन्] अधिक भारी, विशालता युक्त, बहुत बड़ा, भारी।
बंहीयस् (वि० ) [ बहुल+ ईयसुन्] बहुसंख्यक, अपेक्षाकृत बहुत बड़ा ।
बकः (पुं०) [वङ्क + अघ्] बगुला, बगता। न शोभते सभामध्ये हंसमध्ये बको यथा । (दयो० ५९ )
०कङ्क - पुलिने चलनेन केवलं चलितग्रीवमुपस्थितो बकः । (जयो० १३/६३) वकाः पताका: करिणोऽम्कुवाहा (जयो० ८/६२)
ठग, धूर्त, पाखण्डी, छली, वंचक
०बक नामका राक्षस।
बकचर: (पुं०) बक की तरह आचरण करने वाला, ढोंगी, पाखण्डी ।
बकवृत्तिः (स्त्री०) बक की तरह आचरण । ( सुद० १०५ ) बकव्रतचरः / वकब्रतिकः (पुं०) वक की तरह आचरण । बकुल (पुं०) [बक उरच्- रेफस्य तत्वम् ] मौलसिरी वृक्ष । (जयो० १/८० )
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बकुलं (नपुं०) बकुल पुष्प ।
बकुश: (पुं० ) ० साधु का एक भेद, जो विचित्र संयम के
धारक होते हैं। अखंड मूल व्रती अखंडितव्रताः शरीरसंस्कारद्धिं सुखयशो विभूतिप्रवणा बकुशाः (त०वा० ९/४६) (त०सू० १/४६)
बकेरुका ( स्त्री० ) [बकानां बकसमूहानां ईरुकं गतिर्यत्र ] छोटी बगुली ।
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बकोट:
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बकोट : (पुं०) बगुला, कंकपक्षी ।
बट् बढ़ना, रखना।
बटुः (पुं०) [ बट्+उ] बालक, लाड़ला, छोकरा, यज्ञोपवीत संस्कार योग्य लड़का ।
बटुकः (पुं०) ० बालक, लड़का, व्यज्ञोपवीत संस्कार युक्त
बालक ।
बडवा ( स्त्री० ) ०घोड़ी, ०दासी ।
बडिश (नपुं०) मछली पकड़ने का कांटा। वंशी । (जयो० २५/७३)
बडवाग्नि (पुं०) समुद्र के भीतर की आग ।
बडिशमांसं (नपुं०) वंशी का मांस (जयो० २५/७७) 'मीनोऽपि यो बडिशस्य मांसं लोस्कण्टकेन सह लग्नं पलमित: ' वणिज् (पुं०) बनिया, व्यापारी। (जयो० २५/७७) अत (अव्य०) [वन्+क्त] ०सम्बोधन, पुकारना ।
० अहो, अरे, अचम्भा व्यक्त करना ।
० निन्दा, अफसोस |
०शोक, खेद, 'बतेति खेदोऽनूभयते' (जयो ९/९२) बदर: (पुं० ) [ बद्+अरच् ] बेर का पेड़ । बदर (नपुं०) बेर, बोर ।
०गंगा स्रोत ।
बदरी (स्त्री०) बोर, बेर।
बदरीतपोवनं (नपुं०) बदरी नामक तपस्थान |
|
बदरीफल (नपुं०) बैर, बोर बदरीवनं (नपुं०) बोर की झाड़ी।
बदरीशैलः (पुं०) बदरी पर स्थित पहाड़ ।
बद्ध (भू०क०कृ) [बन्धु+क्त] बंधा हुआ, आबद्ध, जकड़ा हुआ। ०बंदी, पकड़ा हुआ, वेष्टित । (सुद० १/२५) ०संयत
बद्धकक्ष (वि०) रोष दमन करने वाले, क्रोधदमी । बद्धकक्ष्य (वि०) ०क्षमाशील, ०क्रोधशान्त युक्त । बद्धकषाय (वि०) कषाय दबाने वाले। बद्धकोष (वि०) कोप रहित, संयत क्रोध वाले। बद्धचित्त (वि०) स्थिर चित्त, संयत मन वाले बद्धजिह्न (वि०) रस की लोलुपता रहित जीभा बद्धदृष्टि (वि० ) ० टकटकी लगाने वाले। ०दृष्टि की स्थिरता युक्त । बद्धनेत्र (वि०) स्थिर दृष्टि वाले अचल नेत्र बद्धनेपथ्य (वि०) नेपथ्य की ओर खिंचे हुए। रंगमंच के
७५२
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बन्ध्
बद्धपरिकर (वि०) सजे हुए, अलंकृत हुए। बद्धप्रतिज्ञ (वि०) दृढ़ प्रतिज्ञ
बद्धप्रलाप (वि०) चार पुरुषार्थों के वर्णन सहित । बद्धभाव (वि०) मुग्ध ।
बद्धमुष्टि (वि०) बंधी हुई मुट्ठी वाले। (जयो० १४ / ३२ ) बद्धमूल (वि०) मूल को धारण किए हुए । बद्धराग (वि०) अनुरक्त, मुग्ध ० सत्कर्म में स्थित
बद्धवसति (वि०) स्थिर स्थान वाला। बद्धवाच् (वि०) चुप रहने वाला। बद्धवेपथु (वि०) कंपायमान। बद्धवैर ( वि०) घृणा से भरा हुआ। बद्धशिख (वि०) चोटी को बांधने वाला । बद्धश्रुत (वि०) गद्य-पद्य बंधन से युक्त । बद्धस्नेह ( वि० ) ०प्रेमासक्त। ० प्रेमबन्धन में बंधा हुआ। बद्धहस्त (वि०) करबद्ध, हाथ से बंधा हुआ। (जयो० १ / ८९ ) बद्धाञ्जलि (स्त्री०) करबद्ध, अंजलियुक्त। (जयो० १६ / १३ ) बद्धेक्षणं (नपुं०) संधृतनेत्र (जयो० १७ /६४)
।
बधू (अक० ) घृणा करना, अरुचि करना, संकोच करना । ० झिझकना, ऊबना।
बधः (पुं०) मारना । ०घात, व्हनन, ०क्षत | बधिर (वि० ) [ बन्ध् + किरच्] बहरा, कानों से नहीं सुनने
वाला।
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बधिरित (वि० ) [ बधिर + इतच् ] बहरा किया गया, बहरा
बनाया गया।
बन्दि (स्त्री० ) [वन्द+इन्] कैदी, बंधुआ ।
० कारागृह युक्त, बंधन युक्त ।
बन्दीगृहं (नपुं०) कारागृह । (जयो०वृ० ८ /६८)
बन्दीजन: (पुं०) बन्दीगृह, स्तुतिपाठक। (जयो० ६ / ३२) बन्धु (सक०) बांधना, कसना, जकड़ना बन्धामि (सुद०७६) ० पकड़ना दबोचना, (बबन्ध)। (जयो० १/४५) ०रोकना, ठहराना।
० दमन करना, संयत करना, रोकना। (सम्य० २९ ) ०धारण करना, निदेशित करना।
० रखना, डालना - बबन्ध । (जयो० १२ / १० )
० निर्माण करना, संरचना करना ।
* अज्ञान चेतना (सम्य०१७) अबोधसंचेतना । (सम्य०११७)
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बन्धः
७५३
बन्धु-बन्धु
०कर्म-परमाणुओं का भार। (सम्य० २८)
बन्धनपालकः (पुं०) काराध्यक्ष, कारावासाध्यक्ष। स्थिति, अनुभाग, प्रकृति, प्रदेश। (सम्य० २८)
बन्धनरक्षिन् (नपुं०) मुक्त होना, बन्धनों से छूटना। ०हथकड़ी, बेड़ी, उम्र कैद, बोझ।
बन्धनवेश्मन् (नपुं०) कारागार। लिखना, बनाना, काव्य करना।
बन्धनागार: (पुं०) कारागार। बन्धः (पुं०) [बन्ध+घञ्] ग्रन्थि, बन्धन।
बन्धनालयः (पुं०) कारागार, जेलखाना। शृंखला, बेड़ी, बन्धो ग्रन्थि बन्धनाख्य। (जयो० १२/६३) | बन्धनीय (वि०) बन्धन योग्य, कर्म-नोकर्म से बंधने योग्य। फल, परिणाम, संश्लेष, संयोग।
बन्धबधी (स्त्री०) वागुरा। स्थिति, अंगविन्यास।
बन्धविधानं (नपुं०) बन्ध विकल्प। ०बंध के भेद। ०एक आसन।
बन्धस्थानं (नपुं०) बन्धानुभाव, बन्ध से जो स्थान निर्मित हो। चैतन्य का हीनस्थान प्राप्त होना।
बन्धित (वि०) [बन्ध्+इतच्] ०बंधा हुआ, जकड़ा हुआ। कर्म का आत्मा से संयोग।
कैदी, बन्दी। ०बांधना,-बध्नातीति बन्धनः
बन्धित्रः (पुं०) [बन्ध+इत्र] कामदेव। कर्म प्रदेश और आत्म का एकमेक होना।
०धब्बा, मस्सा, घाव। कर्म से आत्मा का संलेष।
बन्धु (पुं०) [बन्ध+उ] कुटुम्बि जन, (जयो० १५/८) परिजन, ०अभीष्ट स्थान में रोकने का कारण।
बान्धव, सम्बंधी, रिश्तेदार। रस्सी या सांकल से जकड़ना।
मित्र, सखा। (जयो० १/४९) बन्धक (वि०) बांधने वाला, पकड़ने वाला, बंध, गांठ, बांध, ०सहायक, आश्रयदाता। (सुद० १/३) मेंढ, किनारा।
पिता, माता, पति। बन्धकाद्धा (स्त्री०) स्थितिकाण्डकाल। अपूर्वकरण के समय बन्धुका (पुं०) एक तरु विशेष।
में जो बन्ध प्रारम्भ किया गया है, जब तक उसकी वर्ण संकर। समाप्ति न हो।
बन्धुक (स्त्री०) असती स्त्री, दुराचारिणी। बन्धन (नपुं०) [बन्ध ल्युट्] कसना, जकड़ना, कैद करना, बन्धुकृत्यं (नपुं०) बन्धु कर्तव्य, मैत्रीपूर्ण कार्य। लपेटना।
बन्धुगात्रं (नपुं०) सम्बन्धित शरीर। शरीराश्रित। oबेड़ी, प्रन्थि, गांठ, शृंखला। (सम्य० १२०)
बन्धुजनः (पुं०) कुटुम्बिजन, परिजन। (सुद० ३/२७) ०जेल, कारावास।
स्वजन, आत्मीय जना ०बनाना, निर्माण करना, संरचना।
०सहभागी, मित्रगण। ०स्नायु, पुट्ठा, पट्टी।
बन्धुजीवः (पुं०) वृक्ष जाति, वृक्ष विशेष। ०परतंत्र करना। (वीरो०८/३०)
बन्धुजीवकः (पुं०) वृक्ष जाति, वृक्ष विशेष। मारना, घात करना, हिंसा।
बन्धुता (वि०) बन्धु भावपना। 'सहभागो हि सहकारितैव ०कषायपरिणाम। (सम्य० १२०)
बन्धुताऽस्ति' (जयो० ३/७०) 'स्वमिति सम्बदतोऽङ्गमिदं ०बंधनं कर्मपुद्गलानां जीवप्रदेशानां च परस्परसम्बंधनम्। गलत्तदनुबन्धि च बन्धुतया दलम्। (समु० ७/१७) बन्धनकरणं (नपुं०) बन्ध के कारण, अष्टविध कर्म बन्धकरण | बन्धुता (स्त्री०) [बन्धु+तल्+टाप्] स्वजन, परिजन, सम्बंधी।
हैं। प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश रूप परिणमन की बन्धुदत्त (वि०) बन्धु द्वारा प्रदत्त। क्रिया। परतन्त्र करना, गांठ लगाना।
बन्धुदा (स्त्री०) [बन्धु+दा+क+टाप्] असती स्त्री, दुराचारिणी बन्धनगुणं (नपुं०) परस्पर मिलना, एकमेक होना।
स्त्री। बन्धनग्रन्थि (स्त्री०) पट्टी की गांठ, गठजोड़, जाल, रस्सा। | बन्धुनिबन्धं (नपुं०) सूर्यमुखी पुष्प। (जयो० ६/५८) बन्धननामः (पुं०) कर्मप्रदेशों का सम्बन्ध। 'शरीरनामकर्मो- बन्धुप्रीतिः (स्त्री०) स्वजन प्रीति, आत्मीयता भाव।
दयोपात्तानां यतोऽन्योऽन्यसंश्लेषणं तद् बन्धनम्' (त०वा० बन्धु-बन्धु (वि०) मित्रता ही मित्रता, कुटुम्बियों की उन्नति। ८/११)
(जयो० ३/६)
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बन्धुभावः
७५४
बर्हिध्वजा
बन्धुभावः (पुं०) मित्रता, बन्धुता, रिश्तेदारी।
बभूव (भू०) हुआ (सम्य० ५३) बन्धुर (वि०) [बन्ध्+उरच्] लहरदार, ऊंचा-नीचा। बभ्रवी (स्त्री०) दुर्गा, चण्डी। ०वक्र, टेड़ा।
बभ्रु (वि०) गहरा भूरा, खाकी, लाली युक्त। सुहावन, मनोहर, रमणीय।
बभ्रुः (पुं०) ०अग्नि, आग। ०हानिकर, उत्पातप्रिय।
नेवला। बन्धुरः (पुं०) ०हंस, ०सारस।
भूरा रंग। ०औषधि।
बभ्रुधातु (पुं०) स्वर्ण, सोना, गेरु। ०खली।
बभ्रुवाहनः (पुं०) अर्जुनपुत्र। योनि।
बबूलः (पुं०) बबूलतरु, कांटों युक्त वृक्ष। (वीरो० १९/११) बन्धुरं (नपुं०) मुकुट! मौलि।
बम्ब (अक०) चलना-फिरना, भ्रमण करना, घूमना। बन्धुल (वि०) [बन्ध्+उलच्] वक्र, टेढ़ा, झुका हुआ। बम्भरः (पुं०) [भृ+अच्] भ्रमर, भौंरा, मधुमक्खी । बन्धुलः (पुं०) पतित, गिरा हुआ व्यक्ति, हरामी, नीच, तुच्छ। बम्भराली (स्त्री०) [बम्भर+अल्+अच्+ङीष्] मधुमक्खी। बन्धुवर्गः (पुं०) स्वजन, कुटुम्बीजन। (दयो०८)
बरटः (पुं०) [वृ+अटन्] मधुमक्खी , भ्रमर। बन्धुहीन (वि०) मित्र रहित, स्वजनातीत।
बहिरेव (सव्य०) बाहर ही। (जयो० २/१४६) बन्धूकः (पुं०) [बन्ध् ऊक्] एक वृक्ष विशेष, बिम्ब फल। बर्द्धनं (नपुं०) बढ़ना। (दयो० ११८) (जयो० ५/६०७)
बर्व (अक०) चलना-फिरना, घूमना। बन्धूकं (नपुं०) बन्धूक के फूल।
बर्वटः (पुं०) [ब अटन्] एक धान्य, राजमा, राजमाष। बन्धूकोष्ठी (वि०) बिम्बीकुसुमतुल्याधरवती। बिम्बी पुष्प के बर्वटी (स्त्री०) [बर्वट ङीष्] राजमाष, राजमा। ओंठ वाली। (जयो० ५/१०७)
वेश्या, रण्डी। रक्ताधार। (जयो० ५/१०७)
बर्वणा (स्त्री०) नीली मक्खी। बन्धूर (वि०) [बन्ध्+ऊरच्] ऊंचा नीचा, डांवाडोल, | बर्बरः (पुं०) अनार्य, एक जाति विशेष, आदिवासी जाति। उन्नतावनत।
असभ्य। झुका हुआ, नम्रीभूत, विनत।
०मूर्ख, मूढ। सुहावना, रमणीय, सुंदर।
बारः (पुं०) [बर्व+उरच्] एक वृक्ष विशेष। बन्धूरं (नपुं०) छिद्र, सुराख।
बहू (सक०) बोलना, कथन करना। बन्धूलिः (स्त्री०) [बन्ध् ऊलि] बन्धुक वृक्षा
__ मारना, चोट पहुंचाना। वन्थ्य (वि०) [बन्ध+ण्यत्] बांधे जाने योग्य, जकड़े जाने योग्य। ०ढकना, आच्छादित करना। निरुद्ध, निगृहीत, व्यर्थ। (वीरो० ८/२)
नष्ट करना, क्षय करना। ०बांझ, बंजर, अनुपजाऊ।
बर्हः (पुं०) मयूर पिञ्छ, मोर की पूंछ। विहीन, रहित, निरर्थक, अर्थहीन।
बहँ (नपुं०) मयूर पिच्छ। बन्ध्यफल (वि०) निरर्थक, अर्थहीन, फल रहित।
बर्हणं (नपुं०) [बह ल्युट्] पत्ता, पर्ण। बन्ध्या (स्त्री०) [बन्ध्य+टाप्] बांझ स्त्री, सुतोत्पत्ति से रहित बहभारः (पुं०) मोर पूंछ, मयूर पंख।
स्त्री, गर्भधारण करने में असमर्थ। 'वाञ्छा बन्ध्या या सतां बहणीय (वि०) विचित्र सम्बन्ध। (वीरो० १७/१९) न हि' (वीरो०८/२)
बर्हिः (स्त्री०) [बह इनि] अग्नि, आग। बन्ध्यातनयः (पुं०) बांझ का पुत्र, दार्शनिक दृष्टि से अस्तित्व बर्हिणः (पुं०) मयूर। के अभाव के लिए ऐसा कहना।
बर्हिन् (पुं०) [बह इनि] मयूर, मोर, शिखण्डी। बन्ध्यापुत्रः (पुं०) बांझ का पुत्र।
बर्हिपुष्पं (नपुं०) एक मादक फूल। बंधं (नपुं०) [बंध+ष्ट्रन्] ग्रन्थि, गांठ, बन्धन।
बर्हिध्वजा (स्त्री०) दुर्गा
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बर्हियानः
७५५
बलाकः
बर्हियानः (पुं०) कार्तिकेय। बर्हिस् (पुं०/नपुं०) [बह+इसि] कुश नामक घास।
०आसन। ०प्रकाश। ०दीप्तिा ०जल।
०यश। बहिर्मुख (वि०) अग्नि, युक्त, अग्निस्थान। बर्हिषद् (वि०) कुश नामक घास। बल् (अक०) सांस लेना, जीना। बल् (सक०) बोलना, कहना।
०मार डालना, चोट पहुंचाना।
चिह्न लगाना। बलं (नपुं०) [बल्+अच्] शक्ति । (सुद०७०)
सामर्थ्य। (जयो० १/७१) सत्त्व, प्राण। (जयो०१० ३/१०९) ०वीर्य। (सम्य० ४१) ०चारित्रगुण। (सम्य० ४१) ०अनन्तदर्शन, ज्ञान, सुख, वीर्य। ०वीर्य। तीन शक्तियों में द्वितीय बलशक्ति। (जयोवृ०२/१२१) । सेना, चमू, सैन्यदल। शरीर, आवृति, रूपा बलं गन्धरसे सैन्ये स्वामिन् स्थौल्यरूपयो' इति वि० (जयो० २१/४३)
शक्र, इन्द्र, पुरन्दर। सर्वास्थासु बलते संवृणोतीति बलम्।
(जै०ल० ८०८) बलः (पुं०) प्रभास गणधर के पिता। बलः पिताऽम्बाऽस्यच
सास्तु। भद्रा स्थितिः स्वयं राजगृहे किल द्राक्। प्रभासनामा चरमो गणीशः। श्रीवीरदेवस्य महान् गुणी सः।।
०वीर भगवान् के अन्तिम गणधर। (वीरो० १४/१२) बलकर (नपुं०) धात्रीफल। (जयो० १/३८) बलक्ष (वि०) [बलं क्षायत्यस्मात् क्षैक] शुभ्र, श्वेत, सफेद। बलक्षोभः (पुं०) गदर, विद्रोह, अव्यवस्था, सैन्य विक्षोभ। बलचक्रं (नपुं०) साम्राज्य।
सैन्य समुदाया बलज (नपुं०) मुख्य द्वार, नगर प्रवेश द्वार।
०खेत। ०धान्य समुच्चय।
बलदः (पुं०) वृषभ, बैल, बलीवर्द। बलदर्पः (पुं०) ज्ञानादिशक्ति का अभिमान। बलदेवः (पुं०) कृष्ण का भाई बलराम।
०पवन, वायु। बलद्विष् (पुं०) शक्र, इन्द्र। (जयो० २४/२९) बलनेतृ (नपुं०) ०नेता, नायक, प्रधान। (जयो० ६/११५)
भरताधिपबलनेता तस्माज्जयः श्रेयान्। (जयो० ६/११५)
जमाता, जमाई-'बलनेतुर्जामातुर्जयकुमारस्य पदौ'
(जयो०वृ० १३/२) बलपतिः (पुं०) सेनापति, सेनानायक।
०इन्द्र, शक्र। बलप्रद (वि०) शक्तिदायक। बलप्रजूः (स्त्री०) बलराम की माता रोहिणी। बलभद्र (पुं०) बलराम शक्तिशाली मनुष्य।
०एक जैन विद्वान्। ०दक्षिण भारतीय भाषाविद एवं
प्राकृत-संस्कृत तथा जैन सिद्धांत का ज्ञाता। बलभिद् (पुं०) इन्द्र। बलभृत् (वि०) बलवान्, शक्तिसम्पन्न। बलरामः (पुं०) बलदेव, कृष्ण का ज्येष्ठ भ्राता। बललः (पुं०) [बल+ला+क] इन्द्र, शक्र। बलवत् (वि०) शक्तिशाली, बलिष्ठ, हृष्ट-पुष्ट। सर्वप्रमुख,
प्रभुविष्णु।
अत्यावश्यक। ०अत्यधिक, दृढ़। बलवाजनिधि (पुं०) सैन्यसागर, सेना समूह। (जयो० १३/३४) बलवासं (नपुं०) सैन्य व्यूह। 'रणभूमौ स्वस्य बलस्य वासं
चक्राभं चक्रव्यहूरूपं रचयन्। (जयो०वृ० ७/११३) बलविक्रमः (पुं०) ०पराक्रम, अत्यधिक पराक्रम। मृत्युं गतो
हन्त जरत्कुमारैक बाणतो यो हि पुरा प्रहारै। नार्को जरासन्धमहीश्वरस्य किन्नाम मूल्यं बलविक्रमस्य।। (वीरो०
१८४४) बलवीर्यः (वि०) बल और वीर्य वाले। (जयो० २/३९) बलसंस्तवः (पुं०) बलगर्व, शक्ति का अभिमान। जरत्कुमारस्य
च कीलकेन वा मृतः किमित्यत्र बलस्य संस्तवाः। (वीरो०
१७/४२) बलहानि (स्त्री०) शक्तिक्षीण। (वीरो २२/२०) बला (वी०) [बल्+अच्+टाप्] शक्तिसम्पन्न ज्ञान। बलाकः (पुं०) [बल+अक्+अच्] बगुला, व्रक।
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बलाका
७५६
बहल
बलाका (स्त्री०) प्रिया, कान्ता।
बलिन् (वि०) बलिष्ठ, बलवन्त, शक्तिसम्पन्न। (जयो० १२/६०) बलाकिका (स्त्री०) [बलाका+कन्+टाप्] छोटी जाति का बलिपर्वः (पुं०) यज्ञकरण, आहूति। (जयो०१० ११/२६) बगुला।
बलिनन्दनः (पुं०) लोध्र तरु, लोध्र वृक्षा बलाकिन् (वि०) [बलाका+इनि] सारसों का परिपूर्ण। बलिपुत्रः (पुं०) लोध्र वृक्षा बलात् (वि०) बलपूर्वक, शक्ति से, हिंसापूर्वक हठात। बलिपुष्टः (पुं०) काक, कौवा। (जयो० २/१९)
बलिप्रदानं (नपुं०) यज्ञकरण। (जयोवृ० ११/२६) बलात्कारः (पुं०) [बल+अत्+क्विद्] ०अत्याचार, दुराचार। बलिप्रियः (पुं०) काक, कौवा। सतीत्वभंग, जबरन छीना झपटी।
बलिबन्धनः (पुं०) विष्णु। विनम्रतट का विनाश।
बलिभुज् (पुं०) काक, कौवा। हिंसा प्रयोग। अपहरण पूर्व सतीत्व नष्ट करना। बलिमंदिरं (नपुं०) बलि स्थान। बलात्कृत (वि०) [बलात्कृ+क्त] अत्याचार किया हुआ। बलि रत्नत्रयं (नपुं०) उत्तम तीन रेखाएं, मस्तिष्क रेखाएं। बलात्क्षत (वि०) बलात्कार से भ्रष्ट। बलात्क्षतोतुङ्गानितम्बबिम्बा (सुद० १२२) मदोद्धतैः सिन्धुवधूढेिपेन्द्रैः। (जयो० १३/९६)
बलिवर्ट्स (पुं०) बैल। बलाधिराट् (पु) सेना पति, सैन्यनायक। बलिव्याजत् (वि०) रेखाओं के छल से। त्रिबलिनामावयवच्छलात्
'षट्खण्डिबलाधिराडितः' षट् खण्डिनश्चक्राधिपतेर्बल- (जयो० ११/९७) स्याधिराट् (जयो०वृ० १३/४६)
बलिसंप्रयोगः (पुं०) पूजा सम्बंधी द्रव्य का प्रयोग। पूजा बलायितक (वि०) बल के आधीन, सैन्याधीन आत्मा। द्रव्यस्य सम्प्रयोगे सम्पर्के। (जयो० ८/७९)
बलस्यायित आधीनः क आत्मा यस्य तस्य किल। (जयो० बलिष्णु (वि०) अनाहत, अपमानित, तिरस्कृत। ४/८)
बली (वि०) बहादुरी (समु०२/६) बलिष्ठता। (समु० ४/२३) बलाहकः (पुं०) [बल+हा+क्कुन] मेघ, बादल। (जयो० | बलीकः (पुं०) [बल्+ईकन्] छप्पर की मुंडेर। ७/७०) 'बलस्य स्वागतकारको मेघो वा'
बलीत (वि०) बलशाली। (समु०६/४१) बलाहकबलाधान (वि०) मेघ गर्जन के भ्रम से-बलाहकानां बलीमुखः (पुं०) वानर, बन्दर, कपि। (जयो० ७/७७)
मेघानां बलाधानात् मेघगर्जनभ्रमात्' (जयो०१० ३/१११) | बलीयस् (वि०) बलवान्, शक्ति सम्पन्न। बलाहकावलिः (स्त्री०) निर्जल मेघ पंक्ति, मेघ समूह। अधिक शक्तिशाली, अत्यधिक प्रभावी।
'बालहकानां निर्जलमेघानामाबलि: पक्तिर्यस्य सः' (जयो०वृ० बलीयसी (स्त्री०) बलवती, शक्तिशाली। (जयो० ७/४०) २४/२९)
__(वीरो० २१/४) 'नीतिरेव हि बलाद् बलीयसी' (जयो०७/७८) बलिः (स्त्री०) [बल+इन्] ०आहूति, समर्पण, चढ़ावा। बलीवर्दः (पुं०) सांड, बैल। ०भेंट, उपहार।
बलीवीर्यः (वि०) बलशाली। पूजा। बलिं पूजां स्वकीयां तनुमिव। (जयो०वृ० २४/८) बलोद्धत (वि०) गमन युक्त सेना से परिपूर्ण। बलेन सेनासमूहेन ०बलिष्ठ, योग्य, शक्तिमान्। (जयो० २/११२)
गमनेनोद्धृतं गमन व्याप्तम्' (जयो० १३/२५) बलि (पुं०) बलि राजा। 'बलेः पुरं वेद्भि सदैव सपैः' (सुद०१/३०) बल्य (वि०) [बल्+यत्] ०दृढ़, शक्तिसम्पन्न, बलशाली। बलिकर्मन् (वि०) पूजा कर्म करने वाला, आहूति देने वाला। बल्यं (नपुं०) शुक्र, वीर्य। बलित्रि (स्त्री०) तीन रेखाएं। (सुद० २/४३)
बल्लव: (पुं०) [बल्ल+अच्+तं वाति वा+क:] ग्वाला, गोपाल। बलित्रय तीन रेखाएं।
०रसोइया। बलिदानं (नपुं०) समर्पण, आत्म आहूति,
बल्लवी (स्त्री०) ग्वालिन, गोपी। बलिदानर्थ (वि०) यज्ञार्थ। (वीरो० १/३०) समर्पण के | बल्हिका (स्त्री०) एक देश विशेष। लिए।
बस्तः (पुं०) [बस्त्+घञ्] बकरा, अज। बलिध्वंसिन् (पुं०) शक्तिधर, विष्णु।
बहल (वि०) [वह्+अलच्] बहुत।
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बहल:
०प्रचुर अत्यधिक बहुत भारी, तीव्रतर ।
० महान् बड़ा।
० सघन, दृढ़, प्रबल, तीव्र । ० कठोर, शक्तिशाली।
}
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बहल (पुं०) ईख, गन्ना । बहला ( स्त्री०) बड़ी इलायची।
यहि (वि०) बाहर (जयो० २ / ३५) बहिर (नपुं०) बाह्य शरीर । बहिरङ्गच्छेदः (पुं०) बाह्य अंग का छेद, दूसरे के प्राणों का
विघात - परप्राण व्यपरोपो बहिरङ्गच्छेदः (प्रव०टी० ३/१७) बहिरङ्गणं (नपुं०) अरण्य, जंगल (दयो० १४ ) बहिरङ्गधर्मध्यानं (नपुं०) अनुकूल उत्तम आचरण । बहिरात्मान् (पुं०) बहिरात्मा वह आत्मा जो कि सिद्धि पाना
तो दूर अपितु उसे याद तक नहीं करता, बल्कि उसके विरुद्ध रास्ते पर है (हि०सं० ३) (समु० ८ / २१) 'देहं वदेत्स्वं वहिरात्मनामा' (सुद० १३३) ० विभाव परणति को आत्मरूप मानना ।
० जिसकी बुद्धि बाह्य शरीर पर केन्द्रित होती है। ‘बहिरात्माऽऽत्वविभ्रान्तिः शरीरे मुग्धचेतसः' (जैन०ल०
८०९)
,
बहिस् (अव्य० ) [ वह इसुन्] में से बाहर की ओर से, बहिर्गत से ।
बहिर्गत (वि०) बाहर की ओर गई हुई। (दयो० २६ ) बहिद्वारं (नपुं०) बाह्य द्वल (दयो० ७) बहिर्गतवस्तु (नपुं०) बाह्य क्षेत्र में गई हुई वस्तु । (समु० ७ / ९ ) बहिगंम (वि०) बाहर की ओर जाना।
बहिर्धर (वि०) बाहर के क्षेत्र में धारण करने वाला।
बहिर्देश (वि०) बाहरी स्थान।
बहिर्भवत्व (वि०) बाह्य भाव को उत्पन्न होने वाला। (जयो०
१/२४)
७५७
बहिर्मल (वि०) बाह्य मल ।
बहिर्योग (पुं०) बाहरी क्रिया के योग वाला। बहिर्व्याप्तिः (स्त्री०) साध्य-साधन के अविनाभाव का दर्शन । बहि: पुद्गलक्षेप (पुं०) मर्यादित सीमा से बाहर कंकरादि का फेंकना।
बहिः शम्बुका (स्त्री०) गोचर भूमि ।
वहिश्चित (पुं०) बाह्यचित्त (मुनि० २३ ) बहिष्कार : (पुं०) अलग करना, निकालना। (वीरो० ११ / ३८)
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बहुज्ञानं
बहिष्कृ (पुं०) निकालना, बाहर करना। (वीरो० २/१८) अपि कुर्याद् बहिष्कारं मत्सरादेरिहात्मनः (वीरो० ११ / ३८) बहिष्कृत देखो ऊपर।
बहिस्थितः (स्त्री०) बाह्यक्षेत्र में स्थित (वीरो० २/११) बाहिर अवस्थित । शिखावलीढाभ्रतयाऽप्यटूटा वहि: स्थिता नूतमधान्यकूटा। (वीरो० २ / ११)
बहु (वि०) ०अधिक, प्रचुर अत्यधिक
।
० प्रबल, व्यापक (सुद० १/५, सुद० ११३)
० अनेक, असंख्य, अनल्प (जयो० १८/१७)
० समृद्ध, भरा हुआ, परिपूर्ण । बृहद् विशाल।
० अनुपम, अतिशय (जयो०वृ० ६ / १०९)
बहु-शब्द संख्या की प्रचुरता का वाचक है बहुशब्दोहि संख्यावाची वैपुल्यवाची च । (धव० ९ / १४९)
बहु अवग्रह: (पुं०) बहुत पदार्थों का एक बार ग्रहण करना। बहुकर (वि०) अधिक क्रियाशीलता । बहुकल्प (वि० ) अनेक प्रकार के कल्पतरु | बहुकल्पपादपः (पुं० ) अनेक प्रकार के कल्पवृक्ष, नानाविध
कल्पतरु |
बहुकालं (अव्य०) बहुत देर तक बहुत समय तक । बहुकालभाव: (पुं०) अनेक प्रकार के समय से युक्त भाव । बहुकालीन (वि०) पुराना, पुरातन, प्राचीनतम | बहुकूर्च : (पुं०) नारिकेल तरु
बहुकृत (वि०) अनेक प्रकार से किया गया। (चीरो० १२/४०) बहुगंधा (स्त्री०) चंपकलता, यूथिका लता । बहुगुणरत्न (स्त्री०) बहुत गुण रूपी रत्न । बहवो ये गुणा एव
रत्नानि यस्य तस्माद् राज्ञ एव । बहुगुणान्यनल्परूपाणि रत्नानि मुक्तादीनि यस्मिन् (जयो०वृ० ६/६३) बहुगम्या (वि०) अनेक जनापेक्षित (जयो० ३/६०) अनेक लोगों द्वारा अभिलषणीय ।
बहुजन्तुक (वि०) बहु जीव वाले, बड़, पीपल, गूलर, अंजीर पिलस्तादि बहुबीजक फल बहुत जीव वाले हैं। (सुद०
१२९)
बहुजल्प (वि०) मुखरी, वाचाल
०बहुत बोलने वाला।
बहुज्ञ (वि०) ०अधिक जानकारी रखने वाला, ०सुविज्ञ, ० विशेषज्ञ, ० ज्ञानी ।
बहुज्ञानं (वि०) अधिक ज्ञान ।
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बहुतृणं
बहुतृणं (नपुं०) अधिक तृण युक्त । बहुत्वच् (पुं०) भोजपत्र, भोजवृक्ष । बहुदक्षिण (वि०) उदार, दानशील, अधिक उपहार देने वाला। बहुदानविधाकारक (वि०) बड़ा दानी (समु० २ / १६ ) बहुदायिन् (वि०) अधिक दानी, उदार, दानशील। बहुदुग्ध (वि०) अधिक दूध पर्याप्त दूध, दूध की प्रचुरता । बहुदोष (वि०) ०दोषों की अधिकता, ० विशाल अवगुण, ० अधिक दोष ।
० अपराध युक्त, भयदाई।
बहुधन (वि०) अधिक धनवान्, पर्याप्त धन वाला। बहुधा (अव्य० ) [ बहुधाच्]० प्राय: कई तरह से, विविध तरह से।
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०बारंबार, भिन्न-भिन्न रूप से (जयो० ३/८) बहुधान्य (वि०) नाना प्रकार के धान्य, विविध अनाज संचय केन्द्र (दयो० १/२) विविध व्रीही । (जयो० ३/८) बहुधान्यगुणार्जन (वि०) नाना प्रकार के धान्य गुणों का उपार्जन । (जयो० ४ / ६७)
० नाना प्रकार के अध्ययन गुण मति में धारण करतेबहुधाऽनेकप्रकारेण अन्येषां विप्रादीनां ये गुणा अध्यापनादयस्तेषामर्जने मतिमुपैति (जयो०० २१ / ६७ ) बहुधान्यराशिः (स्त्री०) अत्यधिक धान्य समूह (सु०१ / २१ ) बहुधावलिधारिणी (वि०) प्रायः झुर्रियों को धारण करने
वाली। (जयो० २०/२)
बहुधेनुक (वि०) बहुत दूध देने वाली गायों का समूह। बहुनाद: (पुं०) शंख,
बहुनिष्कपट (वि०) अधिक सरल, ऋजुता युक्त (समु०
९/३)
बहुपत्र (वि०) बहुत पंखों वाला।
० अधिक घोड़ों वाला।
७५८
बहुपत्र (पुं०) प्याज।
बहुपत्ररथ (वि०) बहुत से घोड़ों वाला रथ । बहूनि पत्राणि येषां ते रथा वेतसा यत्र तत्।
• बहूनि पत्राणि वाहनानि रथाश्च यत्र । (जयो०वृ० १३/७४) बहुपादपः (पुं०) बड़ा वृक्षा बहुपुण्यसत्त्व (वि०) विविध पुण्य से युक्त जीव। (सुद०
१/३५) बहुपुष्प: (पुं०) मूंग ।
० निम्बतरु, नीम का पेड़ ।
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बहुप्रकार (वि०) विविध रूप का, अनेक तरह का । बहुप्रज (वि०) अनेक संतानोत्पत्ति वाला। बहुप्रतिज्ञ (वि०) नाना प्रतिज्ञ वाला ।
० विविध पंक्ति वाला।
बहुलापाप
बहुप्रद (वि०) अधिक उदार, दानशील।
बहुप्रयास (वि०) अधिक प्रयास करने वाला। (दयो० ८५) बहुप्रसू (स्त्री० ) अनेक शिशुओं को जन्म देने वाली स्त्री । बहुप्रेयसी (वि०) बहु प्रेमिका वाला •अधिक प्रेमी बहुफल (वि०) अधिक लाभ वाला।
बहुफल: (पुं०) कदम्ब वृक्ष । बहुबल: (पुं०) सिंह ।
बद्धबीजकः (पुं०) अधिक बीजों वाले
बहुभव्य (वि०) अत्यन्त सुंदर, अति मनोहर । (जयो० ४ /७) बहुभाषिन् (वि०) मुखरी, वाचाल, अधिक बोलने वाला। बहुमञ्जरी (स्त्री०) तुलसी पादप ।
बहुमञ्जुलता (स्त्री०) अधिक सुंदर लता (सुद० ३/३३) बहुमतित्व (वि०) तीव्र बुद्धि वाला (भक्ति० ८ ) बहुमलं (नपुं०) सीसा।
बहुमान (वि०) आदर करने वाला, सम्मान देने वाला बहुमानं पूजा - सत्कारादिकेन पाठादिकं बहुमानाचारः । (मूला०वृ० ५/७२)
० प्रीतिविशेष, सकलकल्याण |
बहुमानाचार: (पुं०) ज्ञानाचार के आठ भेदों में अंतिम भेद
( भक्ति० ८ )
० समृद्ध, भरा हुआ, पूर्ण ।
० संयुक्त, संलग्न |
० यथेष्ठ, पुष्कल, विपुल ।
बहुलं (नपुं०) विस्तार करना, बढ़ाना, वृद्धि करना । बहुलतर (वि०) अधिकतर, अधिकांशतः 1 बहुलवणं (नपुं०) लवण युक्त भूमि । ( दयो० ८ ) बहुहरि (पुं०) सिंह |
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बहुलरहित (वि०) अत्यधिक हरयाली युक्त । ०बहुत हरि भक्ति वाला (दयो० ९) बहुला ( स्त्री० ) ०गाय ।
इलायची। ०नील पादप ।
बहुलापाप (वि०) दुःखपूर्ण, कष्टसहित। (जयो० २३/६६ ) ० यातूनी, वाचाल
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बहुलोह
७५९
बाणः
बहुलोह (वि०) लोह की अधिकता। (जयो०वृ० ८/४) ___ 'बहुलश्चासौ लोह-आयसः' (जयोवृ० ६/४) बहुलोहगोचर (वि०) नाना प्रकार के वितर्क, विविध लोह
समूह युक्त। बहुलस्योहस्य वितर्कस्य गोचरोऽथवा
बहुलोहस्यानल्पस्यायसो गोचरो। (जयो००० २४/३३) बहुलिका (स्त्री०) कृतिकानक्षत्र। बहुलीकृत (नपुं०) खोलना, प्रकाशित करना।
बढ़ाना, विस्तार करना। बहुलीभू (स्त्री०) फैलाना, विस्तृत करना।
गुणन करना। बहुवचनं (नपुं०) एक से अधिक का बोधक वचन। बहुवर्ण (वि०) बहुरंगी, रंगबिरंगा। बहुवार्षिक (वि०) अधिक वर्षों तक रहने वाला। अनेक
प्रकार के अन्तराय। बहुविघ्न (वि०) नाना प्रकार की बाधाएं। बहुविध (वि०) अनेक प्रकार। बहुत प्रकार। 'प्रकारार्थे विधशब्दः,
बहुविधं बहुप्रकारमित्यर्थः, जातिगत-भूयः संख्याविशिष्टवस्तु
प्रत्ययो बहुविधः। (धव० १३/२३९) बहुविधज्ञान (वि.) अनेक जाति विषयक ज्ञान। बहुविभव (वि.) नाना प्रकार की सम्पत्तियां, महदैश्वर्य।
(जयो० ६/११३) बहुविरह (वि०) विपत्ति वियोग, अत्यधिक विरह। विपत्तेवियोग
दु:खादि। (जयो०वृ० १४/९४) बहुवृद्धि (स्त्री०) अतिश्य वृद्धि, अनुपम विस्तार। (जयो०७०
६/१०९) बहुव्रीहिः (स्त्री०) बहुव्रीहि नामक समास, जिससे अन्य अर्थ
की प्रतीति हो-'अन्यपदार्थप्रधानो बहुव्रीहिः' (जैन०ल. ८११) ०बहुत सा धान्य, अनेक प्रकार का धान्य। (दयो० ४)
(सुद० १/२२) बहुव्रीहिमय (वि०) नाना प्रकार के धान्य सहित। (सुद०
१/२२) उद्योतयन्तोऽपि परार्थमन्त?षा बहुव्रीहिमया लसन्तः।
(सुद० १/२२) बहुशः (अव्य०) [बहु+शस्] ०बहुतायत से, प्रायः।
(सम्य० ९७) ०अनेक विध, अनेक प्रकार से। (जयो० २/७९) नाना प्रकार के। (सुद० १०५)
अनल्परूपता। (जयो० १२/१३३) विविधता। (भक्ति० १२)
बहुशस्यं (नपुं०) अत्यधिक धान्य। (जयो० ३/५२) बहुशस्य (वि०) अतिशय प्रशंसनीय, अनुपम सौंदर्य युक्त।
(जयो०वृ०३/५२) बहुशस्यवृत्तिः (स्त्री०) बहु धान्य की वृत्ति, बहुधान्यसंग्रह।
(जयो० २४) ०प्रशस्य वृत्ति।
बहुव्रीहिसमास (जयो० १०/४१) 'बहु' पद के वाद 'शस्य' पद का पर्यायवाची शब्द, 'व्रीहि' लेकर उस नाम की 'वृत्ति' यानि समास बहुव्रीहिसमास (जयो०वृoहि०
३/५२) बहुशाप (वि०) नाना प्रकार के शाप। विविध दृषित भाव को
प्रकट करना। (सुद० ९५) बहुशैत्य (वि०) अतिशीतलत्व, अधिक ठंडा। (जयो०७२/१२०) बहुशोभि (वि०) समुचित प्रशंसनीय। (जयो० ४/२५) ____ अत्यधिक रमणीय, परम प्रभावक। बहुश्रुत (वि०) विज्ञ पुरुष, प्रज्ञावान्, पूर्वधर। बहुश्रुतता (वि०) युग श्रेष्ठ आगमों की जानकारी वाला।
०वेत्ता, शास्त्रज्ञा बहुश्रुतभक्तिः (स्त्री०) बारह अंगों के पारगामी बहुश्रुतों की
भक्ति ।
स्व-पर समय का ज्ञाता होना। बहुसंतति (स्त्री०) अधिक संतान। बहुसार (वि०) रस से युक्त। बहुसुंदर (वि०) सुललित। (जयो०वृ० ४/७) बहुसूतिः (स्त्री०) अधिक शिशुओं की जन्मदात्री नारी। बाकुलं (नपुं०) [बकुल+अच्] बकुल वृक्ष के फल। बागः (पुं०) आराम, बगीचा। (सम्य० १०५) बाड् (अक०) स्नान करना, नहाना, गोता लगाना। बाडवः (पुं०) [बडवा+अण्] वडवानल। बाडवेय (वि०) बडमानत अग्नि के उत्पन्न हुआ। बाढ (वि०) [वह्+क्त] दृढ़, शक्तिशाली। बाढं (अव्य०) वस्तुतः, हां, निश्चय ही, बहुत अच्छा, तथास्तु
शुभम्। बाणः (पुं०) [वण्+घञ्] शर, तीर, आशुग। (जयो० ५/६०)
कीलण। जरत्कुमारस्य च कीलकेन वा मृतः किमित्यत्र बलस्य संस्तवाः' (वीरो० १७/४२) ०लक्ष्य, निशाना। बाण कवि।
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बाणघातः
बाणघातः (पुं०) बाण प्रहार ।
बाणततिः (स्त्री०) बाणावलि, तीरसमूह | बाणतूण (पुं०) तरकस ।
बाणधिः (स्त्री०) तरकस ।
बाणपन्थः (पुं०) बाण का परास । बाणपाणि (स्त्री०) बाणों से सुसज्जित हस्त । बाणपातः (पुं०) तीर प्रहार |
बाणपातिः (स्त्री०) शर घात
बाणमुक्तिः (स्त्री०) बाण छोड़ना, तीर फेंकना, तीर बरसाना ।
बाणमोचनं (नपुं०) तीर बरसाना ।
बाणयोजनं (नपुं०) तरकस ।
बाणवृष्टिः (स्त्री०) बाणों की बौछार, तीरवृष्टि ।
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बाण - संहतिः (स्त्री०) बाण समूह ।
वाणसुता (स्त्री०) बाण की पुत्री।
बाणिनी (स्त्री०) नर्तकी, नृत्यांगना, अभिनेत्री । बाणोदित (वि०) बाणों का निशाना (जयो० १४/३१) बादरः (पुं०) ०स्थूल पर्याय, जो छिन्न होकर स्वयं जुड़ने में
समर्थ |
० मिटाना, ध्वस्त करना ।
०
हटाना, पीछे धकेलना।
बाध: (पुं०) पीड़ा, कष्ट, दुःख
० यातना, संताप | व्हानि, क्षति, घाटा
'बादर शब्दः स्थूलपर्याय:' ( धव० १/२४९) बादरं (नपुं०) ०बोर, बेर।
० रेशम, ०जल, रुई ।
बादर (वि०) बेर से प्राप्त, बोर से सम्बद्ध। बादरिक (वि० ) [ बदर + ठञ् ] बेर एकत्रित करने वाला । बाध् (सक०) सताना, उत्पीड़न करना, कष्ट देना।
० रोकना, अवरोध करना, हस्तक्षेप करना, निष्फल करना । ० आक्रमण करना, धावा बोलना।
० भय, खतरा, डर। ० आपत्ति, विरोध
|
० प्रत्याख्यान, निराकरण।
० स्थगन, रद्द करना । बाधक (वि० ) [ बाध् + ण्वुल् ] ०उत्पीडन, परेशान करने वाला।
० अवरोधक, ० अन्तराय करने वाला ।
७६०
०उत्पीडक, उन्मूलन।
o विघ्न उपस्थित करने वाला (भक्ति० ३१ ) बाधनं (नपुं०) उन्मूलन, उत्पीडन, परेशान करना, अशान्ति, बाधा, पीड़ा।
बाधना ( स्त्री०) पीड़ा, कष्ट, दुःख, अशान्ति, चिन्ता, व्यवधान । ( भक्ति० ३४)
बाधा (स्त्री०) सङ्कोच (जयो० ५/७ ) तत्तदङ्गिसमुपाङ्गि बाधा' ० पीड़ा, कष्ट, दुःख, अशान्ति ।
• विघ्न। (सुद०२/२३) ०उत्पीडन (सुद० १०९)
० अवरोध, विरोध (भक्ति० २२)
बाधाकारक (वि०) व्यथाकार, दुःख उत्पन्न करने वाले । (जयो०वृ० २/६२)
० अहितार्थ (जयो० २७/२२)
बाधागत (वि०) दुःख को प्राप्त हुआ। बाघाघात (वि०) सहनशील।
बालारहित (वि०) व्यधान रहित ( भक्ति० ३४) बाधासहित (वि०) कष्ट युक्त । (जयो० २६ / ९६) बाधित (भू०क०कु० ) [ बाध्+क्त] उत्पीडित, संतप्त,
कष्टजन्य ।
० परेशान।
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० निराकृत, स्थगित |
० असंगत, विवादग्रस्त ।
बाध (नपुं० ) [ बधिर + ष्यज्] बहरापन। बान्धकिनेयः (पुं०) दोगला, चुगलखोर
बार्ह
बांधव (पुं० ) [ बन्धु+अण्] ०स्वजन, मित्रजन, कुटुम्बिजन । ० भाई, सम्बंधी, रिश्तेदार ।
बान्धवजन: (पुं०) कुटुम्बिजन । बान्धव्यं (नपुं० [वान्धवष्यञ्] बन्धुता बन्धभाव (जयो०
३/७०) रिश्तेदारी, सम्बंधीपना।
वापी (स्त्री०) वापिका (सुद० १०१ ) बाभ्रवी (स्त्री० ) [ वभ्र + अण् + ङीप् ] ०दुर्गा |
बाराधार: (पुं०) जल की धार (सुद० ७१) बारुणी (स्त्री०) पश्चिम दिशा ।
० मदिरा (जयो० वृ० १८ / ३२, ३३) बार्बीर (पुं०) आम का गूदा
नया अंगुर ।
बार्ह (वि० ) [ बर्ह+अण्] मोर की पूंछ से निर्मित |
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बार्हस्पत
७६१
बालसुहृद्
बार्हस्पत (वि०) [बृहस्पति+अण्] बृहस्पति में संबंधित। बार्हिण (वि०) [बर्हिन्+अण्] मयूर से उत्पन्न। बाल (वि.) [बल+ण या-बाल्+अच्] बालक, शिशुता। (सुद० २/४८)
अनजान, अबोध, अज्ञानी। ०भोला (सुद० १२०) भोंदू। मूर्ख, असत् प्रवृत्ति वाला। (सम्य० ८४) नूतन, नवीन, वर्धमान। स्थूल असंयम से भी निवृत्त नहीं होने वाला।
०प्रथम। (जयो० ३/४९) बालः (पुं०) केश, काला हि बाला खलु खज्जलस्य रूपे स्वरूपे गतिमज्जलस्य। (जयो० ११/६९)
तरुण, युवा, वयस्क। बालक (वि०) बच्चों के समान, नन्हा, अवयस्क। बालकः (पुं०) शिशु, बच्चा। 'प्रयोग इह यः खलु बालकेन'
(सुद० ३/४६) 'पैत्रिकाङ्गलियुगेव बालको यथा चलति' (जयो० २/७१) 'बालकः परकरोपलेखकः' (जयो० २/१३) 'संलिखत्थ कुमार एककः' (जयो० २/१३) यथा प्रयतते
भूमौ गृहीतुं बालको विधुम्' (वीरो० १०/४) बाल-कदली (स्त्री०) केले का नया पौधा। बालकुदः (पुं०) नई चमेली। बालकुन्दं (नपुं०) नई चमेली। बालकृमिः (स्त्री०) जूं, लीख। बालक्रीडनं (नपुं०) शिशु रञ्जन, शिशुक्रीडक यन्त्र, खिलौना। बालक्रीडा (स्त्री०) शिशु लीला, बालकों की रोमांचकारी
क्रिया। बालखिल्यः (पुं०) एक दिव्यमूर्ति। बालगर्भिणी (स्त्री०) आदि में गर्भ धारण देने वाली। बालगोपालः (पुं०) तरुण ग्वाला, चपल ग्वाला। बालग्रहः (पुं०) बालकों को पीड़ा उत्पन्न करने वाला रोग,
बालरोग, बालकष्ट, शिशुपीड़ा। (सुद० ३/२८) बालचन्द्रः (पुं०) दूज का चांद। बालचरितं (नपुं०) बाल्य जीवन का वर्णन। बालज (वि०) बालों से उत्पन्न। बालतनयः (पुं०) खदिरवृक्ष, खैर, ही बेर वृक्षा (जयो० २१/३९) बालतन्त्रं (नपुं०) धात्रीकर्म। बालतपः (पुं०) मायाचार युक्त तप।
मिथ्यादर्शन युक्त।
०अज्ञानतापूर्ण तप। ०मोक्षसिद्धि में सहायक न होने वाला तप। 'बालोमूढः
इत्यनर्थान्तरम् तस्य तपो बालतपः। (त०भा०६/२०) बालतृणं (नपुं०) अंकुरित हुई दूब, नवीन घास, नूतन घास।
हरी घास। बालदलकः (पुं०) खैर। बालदेवराट् (पुं०) बाल जिनदेव। बालक जिन।
समानायुष्कदेवौघ-मध्येऽथो बालदेवराट्। कालक्षेपं चकारासौ रममाणो निजेच्छया।।
(वीरो० ८/१३) बालपण्डितमरणं (नपुं०) एकदेशव्रत वाले का मरण। बालपुष्टिका (स्त्री०) चमेली। बालपुष्पं (नपुं०) नूतन मञ्जरी, नवीन पुष्प। बालबालः (पुं०) मिथ्यादृष्टि।। बालबोधः (पुं०) बालक सम्बंधी ज्ञान। बाल-बोधिनी-टीका (स्त्री०) ग्रंथ पर लिखा गया सरल भाष्य। बालब्रह्मचारी (वि०) बालपने से ब्रह्मचर्य में रमण करने
वाला। (वीरो० ८/४०) बचपन से अन्त तक ब्रह्मचर्य व्रत
पालन करने वाला। बालभद्रकः (पुं०) एक विष विशेष। बालभारः (पुं०) बालों/केशों का भार। बालभावः (पुं०) चञ्चल भाव, शिशुत्व भाव। (जयो० १/६०)
०बचपन, बाल्यावस्था। बालभैषज्यं (नपुं०) एक अंजन। शिशु औषधि। बालमण्ड (वि०) अभद्र प्रसाधन। बालमरणं (नपुं०) असंयमी का मरण। 'बाला इवबालाः
अविरताः तेषां मरणं बालमरणम्' (जैन०ल० ८१९) बालराज (नपुं०) वैडूर्यमणि। नीलमणि। बाललता (स्त्री०) नूतन वल्ली। बालवत्सः (पुं०) नन्हा बछड़ा। बाल-वायजं (नपुं०) वैडूर्यमणि। नीत्कम। बालवायस् (नपुं०) ऊनी वस्त्र। बालविधवा (स्त्री०) बाल्यावस्था में पति की मृत्यु वाली नारी। बालसखि (स्त्री०) बचपन का मित्र। बालसंध्या (स्त्री०) अस्ताचल का आभास। बालसत्त्व (वि०) बालकपन, बचपना, बालस्वभावता।
(वीरो०१/७) बालसुहृद् (पुं०) बचपन का मित्र।
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बालसूर्यः
७६२
बाहा
बालसूर्यः (पुं०) वैडूर्यमणि। बालस्वभाव (वि.) केशत्व। (जयो० ५/८९) बालस्वभावा (स्त्री०) चपला, चंचला स्त्री। गौरी। (जयो०वृ०
१२/९) बालहठः (पुं०) शिशुहठ। (सुद० ३/२५) अनुभाविमुनित्वसूत्रले
प्रसरन् बालहठेन भूतले। तनुसौरभतोऽधाद्वरं
धरणेर्गन्धवतीत्वमप्यरम्।। (मुद० ३/२५) बाला (स्त्री०) बालिका। (जयो० ३/३९)
नववयस्था। (जयो० ५/३९) ०बाला-सुलोचना। (जयो० ३/४०) यौवनारम्भा। (जयो० ३/४३)
प्रथमा वर्णमाला। बालाग्रं (नपुं०) केशप्रान्त, केश की नोंक। भूयो बभाण बालां
बालाग्रमितोगदारकान्तिमवाक्। (जयो० ६/७८) बालाध्यापकः (पुं०) शिशु शिक्षक। बालापिनी (स्त्री०) नववधू, आह्वानवर्ती-आलापिनी बालिका।
(जयो० ६/३१) बालाभ्यासः (पुं०) बालपने में अध्ययन। बालारुणः (पुं०) ऊषाकाल, प्रभातकाल, अरुणोदय। बालार्कः (पुं०) अरुणोदय, प्रात:कालीन सूर्य। बालालोचनं (नपुं०) दीर्घदर्शी नेत्र। 'बलितया लोचनैर्नयनैर्विशाला'
बलितनेत्र। (जयो० १६/७७) बालिः (पुं०) [बल्+इन] एक वानराधिपति। बालिका (स्त्री०) [बाला+कन्+टाप्] बाला, लड़की।
(जयो०६/२६) (सुद० ९०) (वीरो० २१/१०) बालिका। कान की गोलाकार बाली। छोटी इलायची। रेत।
०पत्तों की सरसराहट। बालिन् (पुं०) एक वानर। बालिनी (स्त्री०) [बालिन्+ङीप्] अश्विनी नक्षत्र। बालिभुक् (वि०) विषयलम्पट।
विषयासक्त व्यक्ति। बालिमन् (पुं०) [बाला इमनिच्]०बचपन, बाल्यावस्था। बालिश (वि०) [वाडिंश्यति, बाडि+शो+ड]०अबोध, अज्ञानी।
मूढ़, मूर्ख, अनपढ़। ०अनजान, अनभिज्ञ, लापरवाह। बालिशः (पुं०) बुद्ध, मूर्ख, अज्ञानी। (सम्य० १४०)
०बालक, बच्चा, शिशु।
बालिश (नपुं०) उपधान, तकिया। बालिश्य (वि०) [बालिश+ष्यञ्] बचपना, लड़कपन।
मूर्खता, अज्ञानता। बाली (स्त्री०) [बालि+ङीप्] कान में गोलाकार कुण्डल। बालीशः (पुं०) मूत्रावरोध। बालुः (पुं०) ग्रंथ विशेष। बालेय (वि.) [बलि+ढञ्] मुदु, कोमल।
बलि देने योग्य। बालेयः (पुं०) गधा, गर्दन। बाल्यं (वि०) लड़कपन, बचपन, बालकपन। (जयो० ३/५९)
बाल्यकाल। (जयो० ११/३५) ०कौमार। (जयो० २३/२४) भद्रत्व। (जयो० ११/४२) केवलं बाल्यमेव-भद्रत्वमेव। सुकुमारता। (सुद० ११९) किमर्थमाचार इयान् विचार्य बाल्येऽपि लब्धस्त्वकया वदाऽऽर्य। (सुद० ११९) ०अपरिपक्वता, न समझ, अबोधता।
मूर्खता, मूढ़ता। बाल्यक्रीड़ा (स्त्री०) बचपन की लीला। महात्माऽनुबभूवेदं
बाल्यक्रीडासु तत्परः। (वीरो०८/१११) बाल्यत् (वि०) बचपना। (सुद० ३/३२) बाल्यभाञ्जि (वि.) केश रूपता।
बालरूपत्व-'ये बालका भवन्ति ते सूर्यस्योदये सत्येव
प्रवुद्धा भवन्तीत्यर्थः' (जयो०५/७१) बाल्हकः (पुं०) बाल्कृक राजा, बल्हि के रहने वाले। बाल्हिः (स्त्री०) एक देश का नाम। बाष्पः (पुं०) आंसू, अश्रु। ० कुहरा, ०भाप। बाष्यं (नपुं०) ०कुहरा, भाप। ०आंसू, ०अश्रु। ०लोहा। बाष्पकण्ठः (वि०) रुंधा हुआ गला, आंसुओं के कारण रुंध
गया कंठ, हर्ष से भरा हुआ कण्ठ। बाष्पदुर्दिनं (नपुं०) आंसुओं का प्रवाह, अश्रुधारा। बाष्पपूरः (पुं०) अश्रुबाढ, आंसुओं का फूट निकलना। बाष्पमोक्षः (पुं०) आंसू छोड़ना, अश्रुप्रवाह। बाष्पमोक्षनं (नपुं०) अश्रुधारा, आंसू बहाना। बाष्पमोचनं देखो ऊपर। बाष्पबिन्दु (पुं०) आंसू की बूंद। बास्त (वि०) [वस्त+अण] बकरे से उत्पन्न। बाहः (पुं०) भुजा, बाहु। बाहा (दे०) भुजा, बाहु।
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बाहवि
७६३
बिन्दुचित्रकः
बाहवि (वि०) भुजा से भुजा।
बाहुवंशः (पुं०) भुजदण्ड। (जयो० १७/६३) बाहीकाः (स्त्री०) पंजाब के निवासी।
बाहुव्यायामः (पुं०) कसरत, दण्ड पेलना, मांस पेशियों के बाहु (स्त्री०) भुजा, हस्त दण्ड।
पुष्ट हेतु व्यायाम करना। ०कलाई
बाहुशालिन् (पुं०) भीम, योद्धा, वीर। ०पशु का अगला पैर।
बाहुशिखरं (नपुं०) कंधा। द्वार की चौखट का बाजू।
बाह्य (वि०) [बहिर्भव] बाहर का, बाहरी, बहिर्देश। (जयो० आर्द्र नक्षत्र।
१/२०) बाहुकः (पुं०) बंदर।
विदेशी, अपरिचित, अपने को छोड़कर। जो अन्य है, बाहुकुण्ठ (वि०) लुंजा, विकृत हाथ वाला।
वह बाह्य है। बाहुकुब्ज देखो ऊपर।
०बहिष्कृत। बाहुकुन्थः (पुं०) ०बाजू, डैना पक्षी।
बाह्यशुद्धिः (स्त्री०) शारीरिक शुद्धि। (हित० ४२) बाहुगुण्यं (नपुं०) [बहुगुण+ष्यञ्] श्रेष्ठ गुणों का आधार। बाह्यशुद्धिर्यथा लोकं, माननीया मुमुक्षुभिः। बाहचतुष्टय (वि०) धर्म, अर्थादि पुरुषार्थ। (जयो० १७/३१) न्यूनता न व्रते चेत्स्यान्न च तत्त्वात्परिच्युतिः।। (हित० बाहुजः (पुं०) क्षत्रिय। (जयो० ५/२७) राजमानं इव राजनि ४२) ___चैतैबाहुजैः (जयो० ५/२७) (वीरो० १४/४८)
बाह्य-सल्लेखना (स्त्री०) शरीर विषयक सल्लेखना, शरीर बाहुजसमाजसतः (पुं०) क्षत्रिय जनशिरोमणि। (जयो० १८/५७) को कृश करने की क्रिया। बाहुज्या (स्त्री०) चाप के सिरों को मिलाने वाली रेखा, एक | बाह्याडम्बरः (पुं०) बाहरी वस्तुओं का समूह। (वीरो० २२/२१) गणतीय रेखा पद्धति।
(सुद० १२७) बाहुत्रः (पुं०) भुजरक्षक, भुज कवच।
बाह्याधारः (पुं०) बाहिरी आश्रय, बाहर का सहारा। बाहुत्रं (नपुं०) देखो ऊपर।
बाह्यश्रयः (पुं०) बाहर का आश्रय। बाह्याधार। बाहुदण्डः (पुं०) लम्बी भुजा, दीर्घ बाहु।
बिट् (सक०) शपथ लेना, सौगन्ध्य उठाना। बाहुदन्तकः (नपुं०) नैतिक गुणी।
बिटकः (पुं०) फोड़ा, फुसी। बाहुपाशः (पुं०) भुजपाश, मल्लयुद्ध का एक दांव-पेंच। बिटकं (नपुं०) देखो ऊपर। बाहुबन्धः (पुं०) केयूर। (वीरो० ५/१५)
बिडं (नपुं०) नमक विशेष। बाहुबलं (नपुं०) भुजबल, भुजाओं की शक्ति।
बिडालः (पुं०) [विड्+आलन्] बिल्ली, बिलाव। बाहुबलिः (पुं०) ऋषभदेव का पुत्र, भरत का छोटा भाई। | आंख का डला।
(जयो०० ७/६७) (जयो० ९/५१) (मुनि० १५) बिडालकः (पुं०) [बिडाल+लन्] बिलाव, बिल्ली। बाहुबलि (वि०) बाहुओं से बलिष्ठ, अत्यधिक शक्तिमान्। बिडालकं (नपुं०) पीली मल्हम। बाहुभूषणं (नपुं०) बाजूबंद, अंगद, भुजा में धारण करने बिडौजस् (पुं०) इन्द्र, शक्र। वाला आभूषण।
बिन्द् (सक०) खण्ड-खण्ड करना, विभक्त करना, बांटना। बाहुभूषा (स्त्री०) बाजूबंद, अंगद।
बिन्दुः (स्त्री०) [बिन्द्+उ] बूद, बिंदी। बाहुमूलं (नपुं०) कांख।
०लेश (जयो०वृ० ३/१३) कण (जयो०७० ३/१३) बाहुयुद्धं (नपुं०) मल्ल युद्ध, हस्त-दांव-पेंच वाला युद्ध।
अनुस्वार। मुखमात्मनामगतस्य मुकारस्य खमभावमेव बाहुयोधः (पुं०) मुष्टि योद्वा, मुक्केबाज, चूंसेबाज।
सखीकृत्य आत्मसात् कृत्वात्र तत्स्थाने बिन्दुमनुस्वारमाप्नोतु। बाहुयोधिन् देखो ऊपर।
(जयो०वृ० ३/५७) बाहुलः (पुं०) अग्नि।
विसर्ग। बिन्दुद्वयात्मको विसौं निर्दिष्टौ' (जयो०७०३/४३) बाहुलता (स्त्री०) भुजदण्ड।
०शून्य। बाहुवीर्यं (नपुं०) भुजबल।
बिन्दुचित्रकः (पुं०) चित्तीदार हिरण।
।
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बिन्दुजालं
७६४
बीजगुप्तिः
माता
बिन्दुजालं (नपुं०) बूंद समुच्चय।
०द्वारक, सूराखा। बिन्दुजालकं (नपुं०) जलबिंदु समूह।
०कंदरा, कोटर। बिन्दुतंत्रः (पुं०) पांसा, शतरंज की बिसात।
बिलंगम (पुं०) सर्प, सांप, अहि। बिन्दुदेवः (पुं०) शिव, शंकर।
बिलकारिन् (पुं०) चूहा, मूषक। बिन्दुपत्रः (पुं०) भोजपत्र।
बिलयोनि (वि०) बिल जंतुओं की पर्याय। बिन्दुफलं (नपुं०) मोती।
बिलवासः (पुं०) गंधमार्जार। बिन्दुभावः (पुं०) जलकण। (जयो० १८/४२)
बिलवासिन् (पुं०) सर्प, सांप। बिन्दुरेखकः (पुं०) अनुस्वार।
बिलेशयः (पुं०) [बिले-शेते-शी+अच] मूषक, चूहा। बिन्दुरेखा (स्त्री०) बिन्दुपंक्ति।
बिल में रहने वाला जन्तु। विभित्सा (स्त्री०) [भिद्+सन्+अ+टाप्] भेदने की इच्छा। बिल्लः (पुं०) [बिल्+ला+क] गर्त, कंदरा, खाई, गड्ढा। बिभित्सु (वि०) भेदने की इच्छा वाला।
०थांवला, आलवाल। बिभीषणः (पुं०) रावण का भाई।
बिल्वः (पुं०) [बिल+वन्] बेलतरु। ०बेल का वृक्षा बिभ्रक्षुः (स्त्री०) अग्नि, आग।
बिल्वं (नपुं०) बेलफल। बिभ्राण (वि०) प्रशंसनीय। (जयो०वृ० १/३०)
बिल्वपत्रं (नपुं०) बेलपत्र। बिभ्यद्वन्दनं (नपुं०) बिभ्यत नाम का दोष, गुरु से भयभीत बिल्ववनं (नपुं०) बेल उपवन। होकर जो वन्दना की जाती है।
बिस् (सक०) हिलना-डुलना, भड़काना, फेंकना, डाल देना। बिम्बः (पुं०) प्रतिमा, छाया, परछाई, प्रतिबिम्ब।
बिसं (नपुं०) [बिस्क ] कमलतन्तु, कमलनाल, कमलदण्ड। ०शीश, दर्पण।
(जयो० ५/९६) ०कलश।
बिसकण्ठिका (स्त्री०) छोटा सारस। चन्द्रमण्डल। 'बिम्बशब्दस्य पुंनपुंसकत्वादिह पुल्लिंगो ग्राह्यः' | बिसकण्ठिन् (पुं०) छोटा सारस। (वीरो० ४/२२)
बिसपुष्पं (नपुं०) कमल का फूल। प्रतिच्छाय, रूप फल (जयो० ११/९९)
बिसलं (नपुं०) [बिस+ला+क] कली, नया अंकुर। बिम्बफल। (जयो० ३/५२)
बिसिनी (स्त्री०) कमलिनी, कुमदिनी। बिम्बकं (नपुं०) [बिम्ब-कन्] सूर्यमण्डल, चन्द्रमण्डल।
०कमलमाल, कमल समूह। बिम्बफल।
बिसिल (वि०) [बिस्+इलच्] बिस से सम्बंधित, कमलदण्ड प्रतिबिम्ब, प्रतिच्छाय। (जयो० २/३२)
से सम्बद्ध। बिम्बध्वजः (पुं०) ध्वजछाया।
बिस्तः (पुं०) [बिस्+क्त] सोने का प्रमाण। ८० रत्ती। बिम्बफलं (नपुं०) बिम्बवृक्ष का फल। (जयो०वृ० ३/५२) | बिलगः (पुं०) विक्रमादेव के रचनाकार। बिलहा कवि, संस्कृत बिम्बमुदा (स्त्री०) पद्मासन की मुद्रा, प्रतिमाव्रत मुद्रा।
का एक कवि। बिम्बार्चनं (नपुं०) प्रतिमा पूजन। (वीरो० २२/२२)
बीजं (नपुं०) धान्यकण, अनाज का दाना। बिम्बिका (स्त्री०) [बिम्ब+कन्+ इत्वम्] सूर्यमण्डल, मृदन्तरा बीजवदीष्यतेऽदः (सम्य० १०७) चन्द्रमण्डल।
०वीर्य, शुक्र। बिंब पादप, बिम्बिकाफल। (जयो०७० ३/५२)
०कहानी का मूल कारण, कथावस्तु का अंश। बिम्बित (वि०) [बिम्ब+इतच्] प्रतिबिम्बित। (सुद० १३५) बीजः (पुं०) नींबू का पेड़। बिल् (सक०) खण्ड खण्ड करना, फाड़ना, विभाजित करना, बीजग्रहणं (नपुं०) सुरत चेष्टा। बीजमिति शुक्रपर्यायवाची बांटना।
शब्दः। (जयो० १६/३१) बिलं (नपुं०) [बिल्+क] छिद्र, विवर, खूड।
बीजगणितं (नपुं०) वैज्ञानिक पद्धति का गणित। रिक्तस्थान, गर्त।
बीजगुप्तिः (स्त्री०) बीजकोश, फली, सेम, छीमी।
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बीजदर्शक:
बीजदर्शक: (पुं०) रंगशाला का व्यवस्थापक । बीजधान्यं (नपुं०) बीज और अंकुर का भेदात्मक विवेचन । बीजपदं ( नपुं०) बीजाधार, बीज, मूल, अंकुरादि का मूल
कारण।
बीजपुरुष: (पुं०) कुल प्रवर्तक । बीजफलकः (पुं०) बीजपूर तरु । बीजबुद्धि (स्त्री०) एक ऋद्धि ।
बीजमन्त्र (नपुं०) रहस्यमय अक्षर युक्त मन्त्र। बीजमातृका (स्त्री०) कमलकोष ।
बीजमाणं (नपुं०) माप विशेष, कुडव प्रस्थादि ।
बीजरुह: (पुं०) दाना, अनाज ।
बीजरुचिः (स्त्री०) परमार्थ के प्रति श्रद्धा ।
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बीजल (वि०) बीजों से युक्त । बीजवत् (वि०) बीज की तरह । ( सम्य० १४० ) बीजवपन (नपुं०) बीज डालना, बीज बौना। बीजवपनक्रिया (स्त्री०) बीज बोने की क्रिया ।
ऊपर टके बीजवपनादिक्रिया कथम् (जयो०० २/५) बीजव्यभिचारि (वि०) बीच से भिन्न हुआ। (सुद० ३/८) बीजसम्यक्त्वं (नपुं०) बीजरुचि, जाने हुए एक पद के आश्रय से परमार्थ स्वरूप का श्रद्धान्
बीजसू (स्त्री०) पृथ्वी, धरणी, धरती
बीजाक्षरं (नपुं०) मंत्राक्षर। (जयो०वृ० १६ / ८२) 'भूर्जपत्रे ठकार युक्तान् बीजाक्षरान्' (जयो०वृ० १६/८२ ) ठः ठः नामक बीजाक्षर |
बीजाङ्कुरं (नपुं०) बीज से उत्पन्न अंकुर ।
।
बीजाध्यक्ष: (पुं०) शंकर, शिव बीजाश्वः (पुं०) जनताश्व, सांड, घोड़ा। बीजिक (वि०) बीजों से युक्त ।
बीजोत्कृष्ट (नपुं०) उत्तम बीज
वीज्य (वि०) [ बीज्यत्] बीज से उत्पन्न बीभत्स (वि०) घृणोत्पादक, घृणास्पद, घिनौना, दुर्गन्धयुक्त ।
० जुगुप्साजनक |
० अशुचिकर, अपवित्रतम ।
० ईष्यालु द्वेषी।
०बर्बर, क्रूर, दुदर्शनीय
बीभत्स (पुं०) बीभत्सरस, जुगुप्सा, घृणा, गर्हणा । 'बीभत्सः
स्याज्जुगुप्सातः '
बीभत्सुः (पुं०) अर्जुन।
७६५
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बुक् (अव्य० ) [बुक्क् + क्विप्] अनुकरणमूलक शब्द | बुक्क (सक०) ०बोलना ०भौंकना। भौं भौं करना। बुक्क : (पुं०) हृदय, दिल, वक्षस्थल ।
०बकरा । ०समय।
बुक्कन् (नपुं०) [बुक्क् + ल्युट् ] भौंकना।
बुक्कसः (पुं०) चाण्डाल।
बुक्का (स्त्री०) हृदय, दिल।
बुडित (वि०) मञ्जित प्रमार्जित। (जयो० ५ / ६८)
बुद (सक०) देखना, अवलोकन करना।
० प्रत्यक्ष करना, समझना, पहचानना । ० समझ लेना, जान लेना ।
बुदबुद (वि० ०शब्द विशेष बबूला, ०जल कल्लोल (सुद०
१००)
बुदबुदाशी (वि०) जलोत्थकोलक, बयूले (जयो० १४/६५ ) बुद्ध (भू०क०कृ० ) [ बुध् +क्त] ०ज्ञात समझा हुआ, जाना हुआ।
० जागृत जागा हुआ, सचेत । ०देखा हुआ, प्रकाशमान।
बुद्धः (पुं०) गौतम बुद्ध, जिनका जन्म विहार में ढाई हजार वर्ष से पूर्व हुआ था। जिनके प्रचार-प्रसार से लोगों को बोध प्राप्त हुआ था। बुद्धस्त्वमेव विबुधार्चितबुद्धिबोधात् । o आचार्य (भक्तामर० २५) बुद्धवंत पुरुष, केवलज्ञान । बुद्धजागरिक (वि०) [सर्वज्ञ, सर्वदर्शी] ज्ञान दर्शनादि गुणों के धारक अरहंत देव ।
बुद्धिः
बुद्ध-बोधित (वि०) आचार्यों द्वारा ज्ञान कराया गया।
० ज्ञान के सामीप्य को प्राप्त द्वारा जो बोध दिया जाता है। बुद्धमनं (नपुं०) समर्थमन, ज्ञानजन्यमन किन्तु किं तदिह बुद्धमनेन नैव वेद्धि खलु वृद्धजनेन । (जयो० ४/४०) बुद्धिः (स्त्री० ) [ बुध् + क्तिन् ] मति, धी, धिषणा । (जयो०वृ०
४/१६)
० प्रज्ञा, प्रतिभा, ज्ञान, विवेक ।
'बुद्धया सुतमंत्र पुष्यात्' (सम्य० ६८)
० विचार । तदेव भुतेऽत उदार बुद्ध (सम्य० ७८ )
० चेतना । (सम्य० १२१ )
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० बुद्धि नामक सखी। (जयो० ६ / ३)
०एक देवी जो भगवान की माता की सेवा में उपस्थित रहती है।
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बुद्धिऋद्धिः
७६६
बुभुक्षु
पदार्थ के ग्रहण करने की शक्ति, ऊहित का निश्चय होना।
जानने की शक्ति, अर्थग्रहण शक्ति। बुद्धिऋद्धिः (स्त्री०) बुद्धि नाम ऋद्धि, णमो भयवदो महति
महावीर-वड्ढमाणबुद्धिरिसीणं (जयोवृ० १९/८४) बुद्धिकर (वि०) ज्ञानधारक। (वीरो० १४/१३) बुद्धिकौशलः (नपुं०) निषेक, ज्ञान की कुशलता। (जयो०
१२/९६) बुद्धिगम्यं (वि०) प्रतिभा योग्य। बुद्धिपूर्वक (वि०) चेतनापूर्वक। (सम्य० १२१) बुद्धिपूर्वकं (अव्य०) स्वेच्छा से जानबूझकर। बुद्धिभृत् (वि०) ज्ञान से परिपूर्ण। (मुनि० ३०) बुद्धिभ्रमः (पुं०) मन की एकाग्रता का नाश एकाग्रता का
प्रभाव। बुद्धिमत् (वि०) प्रज्ञावंत, धीवंत, ज्ञानवान्, विचारशील, विवेकी।
(सुद० १/११) (जयो०वृ० १/४२) बुद्धिमती (स्त्री०) धीमति, ज्ञानवती, विचक्षणा। (जयो०१०
९/७९) बुद्धिमान् (वि०) धीवर। (जयो०वृ० १/४०) औत्पत्तिकी आदि
बुद्धि से युक्त। अन्तरङ्ग-बहिरङ्गशुद्धिमान् धर्म्यकर्मणि रतोऽस्तु बुद्धिमान्। श्रीर्यतोऽस्तु नियमेन संवशा मूलमस्ति
विनयो हि धर्मसात्।। (जयो० २/७३) बुद्धिमदग्रेसर (वि०) विज्ञवर, विद्वान, प्रज्ञाशील। (जयो० ३/२३) बुद्धियोगः (पुं०) ज्ञानयोग, ब्रह्मयोग। बुद्धिलक्षणं (नपुं०) बुद्धिमान पुरुष। (समु० १/३६) बुद्धिविधा (स्त्री०) ज्ञानविधा, मति परम्परा। (वीरो०१४/३९) बुद्धिविधानिधानं (नपुं०) ज्ञानविधा का केंद्र। स ब्राह्मणो
बुद्धिविधानिधानः। (वीरो० १४/३९) बुद्धिविशारद (वि०) बुद्धिमान, ज्ञानशील। (वीरो० १८/५४)
अतिचतुर- व्यासर्षिणाथो भविता पुनस्ताः प्रयत्नतः सङ्कलिताः समस्ताः। यथोचितं पल्लविताश्च तेन सङ्कल्पने
बुद्धिविशारदेन।। (वीरो० १८/५४) बुद्धिवैभवं (नपुं०) ज्ञाननिधि। ब्रह्मचर्य। बुद्धिवैशद्य (वि०) अनुमान आदि की अपेक्षा से पदार्थों का
प्रतिभास। बुद्धिसिद्ध (वि०) ०बुद्धि सम्पन्न, ज्ञान निपुण, जिसकी
बुद्धि विपुल पदों का अनुसरण करने वाली हो, संशय विपर्यय और अनध्यवसाय से रहित हो, अतिशयता से
युक्त हो, और जो औत्पत्तिकी, पारिणमिकी, वैनयिकी
और कर्मजा के भेद से सम्पन्न हो। बुद्धिहीन (वि०) प्रतिभाशून्य, मूर्ख, मूढ। बुध् (सक०) जानना, समझना, ज्ञान करना।
प्रत्यक्ष करना, देखना, अवलोकन करना। जागना, सचेत होना। ०संकेत करना, सीखना।
ज्ञात करना, परिचित करना। बुध (वि०) [बुध्+क] चतुर, विज्ञ, विद्वान्, विशारद। (सुद०
३/१७) रत्नत्रय का अनुसरण करने वाला, तत्त्वमार्गानुसारी।
(जयो० ५/९१) बुधजनः (पुं०) बुध ग्रह।
बुद्धिमान व्यक्ति। (सुद०)
०कवि। बुधतातः (पुं०) चंद्रमा, शशि। बुधदिनं (नपुं०) बुधवार। बुधरत्नं (नपुं०) मरकतमणि, पन्ना। बुधवारः (पुं०) बुधवार। बुधवासरः देखो ऊपर। बुधानः (पुं०) [बुध्+आनच्] ०बुद्धिमान पुरुष, ज्ञानीजन।
०धर्मोपदेष्टा, तत्त्वमार्गोपदेष्टा।
०अध्यात्म ज्ञानदायक। बुधित (वि०) [बुध्+क्त] जाना हुआ, समझा हुआ। बुधिल (वि.) [बुध+किलच्] विज्ञ, प्रज्ञाशील, ज्ञानी, मेधावी, ___विद्वान्। बुधनः (पुं०) तरुमूल, पेड़ की जड़।
निम्न भाग। बुन्द् (सक०) भाँपना, अवलोकन करना, ज्ञान करना। बुन्थ् (सक०) प्रत्यक्ष करना, अवलोकन करना, देखना,
समझना। बुभुक्षा (स्त्री०) भूखा। [भुज+सन्+अ+टाप्] भूख (दयो०१८) __ तृष्णा, इच्छा, क्षुधा। बुभुक्षित (वि०) [बुभुक्षा+इतच्] क्षुधित, भूखा, भूख से
युक्त। (सम्य० ३३) (जयो० ६/१२१) बुभुक्षु (वि०) [भुज्+सन्+3] उपयोग की इच्छुक। (जयो०
२०/३४) ___०भोक्तुमिच्छु (जयो० १२/११७)
भूखा, क्षुधित, भूख से पीड़ित।
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बुभूषा
७६७
बोधनदीप
बुभूषा (स्त्री०) [भू+सन्+अ+टाप्] होने की इच्छा। बुभूषु (वि०) [भू+सन्+उ] ०होने की इच्छा वाला।
०बनने की इच्छा युक्त। बुल् (अक०) डूबना, गोता लगाना। बुलिः (स्त्री०) [बुल्+इन्] भय, डर। बुस् (सक०) छोड़ना, त्यागना।
उगलना, उडेलना। बुसं (नपुं०) कूड़ा, गंदगी। बूर, भूसी। बुस्त् (अक०) सम्मान करना, आदर देना। बृशी (वि०) गद्दी। बृंह (अक०) बढ़ना, उगना। बृंहणं (नपुं०) [बॅल्युट्] चिंघाडशब्द, तीव्र शब्द। बृंहित (भू०क०कृ०) [बृह्+क्त] चिंघाड़ा हुआ, उगा हुआ,
बढ़ा हुआ। बंहितं (नपुं०) हस्ति चिंघाड़। बृह् (अक०) उगना, बढ़ना, फैलना।
०दहाड़ना। ब्रहच्छरीर (वि०) शोभनीय शरीर। (जयो० ११/६०) बृहत् (वि०) [बृह्+अति] ०बड़ा, विस्तृत, विशाल, महत्। •चौड़ा, फैला हुआ, प्रशस्त। प्रचुर, विपुल, व्यापक, अधिक। (सुद० १/२६) प्रगाढ़, अत्यधिक, यथेष्ट। ०लम्बा, ऊंचा, उन्नत।
पूर्णविकसित, सटा हुआ। बृहत्कथाकोश: (पुं०) बृहदाख्यान, विस्तृत कथा ग्रंथ। बृहत्काय (वि०) स्थूलशरीर, विशालदेह। बृहत्कुक्षि (वि०) स्थूलोदर, सुंदिल, तोंदू, मोटे पेट वाला। बृहत्केषुः (स्त्री०) अग्नि। बृहत्गोलः (पुं०) तरबूज। बृहत्चित्तः (पुं०) नींबू का पेड़। बृहत्जघ (नपुं०) उन्नत जंघा। बृहत्तरु (पुं०) अलघुवृक्ष। (जयो० १/९३) बृहत्परिणाम (वि०) महत्भाव। (जयो०वृ० ) बृहतिका (स्त्री०) [बृहत् ङीष् टाप्] ०दुपट्टा, उत्तरीय वस्त्र, |
चादर।
ओढ़नी, चोगा। बृहद्गुण (वि०) विशालगुण, अच्छे भाव। (जयो० ५/२९) बृहदाख्यानं (नपुं०) हरिषेण रचित बृहत्कथाकोश। (वीरो०
१७/३९)
बृहद्विषं (नपुं०) विशाल जलराशि, अधिक जल। (वीरो०२/२४) बृहत्मन (वि०) विशालहृदय। बृहस्पतिः (स्त्री०) [बृहतः वाचः पति] ०देवगुरु, ०ग्रह विशेष। बृहस्पतिवारः (पुं०) गुरुवार। बेडा (स्त्री०) नाव, किश्ती। बेरदलं (नपुं०) बेरी का पत्ते। (वीरो० १९/११) बेरः (पुं०) बोर। बेहू (अक०) उद्योग करना, चेष्टा करना, प्रयत्न करना। बैजिकः (पुं०) मौलिक, गर्भविषयक।
वीर्यसम्बन्धी। बैजिकः (पुं०) नूतनांकुर। बैजिकं (नपुं०) मूल, स्रोत। बैडाल (वि०) [बिडाल+अण्] बिलाव से सम्बंधित। बैदल (वि०) बेंत से निर्मित। बैदलः (पुं०) एक धान्य विशेष। बैम्बिकः (पुं०) [बिम्ब्+ठञ्] प्रेमी, कार्य में संलग्न व्यक्ति। बैल्व (वि.) बेल से निर्मित। बोधः (पुं०) [बुध्+घञ्] ०ज्ञान, विचार, विवेक, समझ।
(जयो० २/६९, १/८५) (सम्य० ५२) ०प्रतिभा, प्रज्ञा। विचार, चिन्तन। (सम्य० १३६) शिक्षण, परामर्श-भव्यजीव प्रबोधाय बोधाय च निजात्मनः। (सम्य० १५५) ०जगना, उठना, जागृत होना। ०सचेत, जागृति। खिलना, फूलना, विकसित होना। ०सम्यक्ज्ञान (भक्ति० ३०) (मुनि० १४)
आत्मपरिज्ञान-'आत्मपरिज्ञानमिष्यते बोधः' (पुरुषार्थ
२१६) बोधक (वि०) [बुध+णिच्+ण्वुल]०सूचक, शिक्षण। ०सीख
देने वाला। ०अभिसूचक। ०जगाने वाला, उठाने वाला। बोधकः (पुं०) [बुध+णिच् ल्युट्] ०सूचना, शिक्षण, ज्ञान। ०अध्यापन, शिक्षण। जागरण, चेतना, सचेत करना। ज्ञापित करना, प्रकट करना।
०अभिव्यक्त करना। (सुद० ९७) बोधनदीप (वि०) ज्ञानदीप। 'लसति बोधनदीप इयान् इयत:
विधि-पतङ्गगणः पतति स्वतः' (जयो० २५/६९)
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बोधप्रदा
७६८
ब्रह्मवर्ती
बोधप्रदा (स्त्री०) बोधिनी, ज्ञानदायिनी। (जयो०१० २/५४) | ब्रह्मघातिनी (वि०) संयमघातिनी। बोधयुत (वि०) ज्ञान से पूर्ण, समझ सहित। (भक्ति १) ब्रह्मघोषः (पुं०) 'दिव्यज्ञानोद घोष। बोधमूर्तिन् (स्त्री०) ज्ञानप्रतिमा। वन्देऽन्तिमांगायितबोधमूर्तीनुपात्त- ब्रह्मचर्य (नपुं०) सतीत्व, विरति। सम्यक्त्वगुणोरुपूर्तीन्। (सम्य० ५८)
०इन्द्रियनिग्रह, इन्द्रिय जगज्जेतु। (वीरो० ३७) बोधिः (स्त्री०) [बुध+इन्]०धर्म प्राप्ति, ज्ञान प्राप्ति, संबोधि। कामजयी। उचित शिक्षण, उत्तम जानकारी।
०कौमार्य रक्षा। ०सीख, अध्ययन 'बोधिश्च जिनशासनावबोध-लक्षणा' मैथुनादिविरति। (जैन०ल० ८२५)
०ब्रह्म/आत्मा में रमण करने वाला व्यक्ति। आत्मा ब्रह्म बोधिदुर्लभभावना (स्त्री०) निरंतर चिंतन करना, सम्यग्ज्ञान विविक्तबोधनिलयो यत्तत्र चर्यं परं स्वाङ्गासंगविवर्जितैकरूप उत्पत्ति की भावना।
मनसस्तद् ब्रह्मचर्य। (जैन०ल० ८२६) ०बोधिलाभ, बोधि प्राप्ति।
उत्तमब्रह्मचर्य धर्म (जयो०वृ० २८/३९) बोधिलाभः (पुं०) धर्म प्राप्ति, ज्ञान प्राप्ति, विवेक जागृति, ०ब्रह्मचर्य महाव्रत-सम्यक् प्रकार से काम चेष्टादि को चेतना प्राप्ति।
जीतना। बोधिसत्त्वः (पुं०) दिव्यभाषा बोध, सम्पूर्ण प्राणियों के लिए स्त्रीरूपं न विलोकयेन्न च तया संलापमेवाचरेत् प्रबोध।
प्राचीनां न रतिं स्मरेन्न च तनो संस्कारमत्रोद्धरेत्। बोल: (पुं०) बुलाना, पूत्कार करना, ध्वनि निकालना।
नात्रं पौष्टिकमाहरेदपि मुनिर्ब्रह्मव्रतप्राप्तये कामं बौद्धः (पुं०) बौद्धधर्म, बौद्ध धर्मानुयायी।
नाम तमेष विश्वजयिनं संप्राप्तयुक्त्या जपेत्।। (मुनि० ३) बौद्ध (वि०) [बुद्धि+अण्] बुद्ध विषयक, बुद्धि से सम्बंधित। ब्रह्मचर्याणुव्रत-परस्त्री विषयक अनुराग का त्याग। बौद्धाचार्यः (पुं०) सुगत मत के आचार्य। (जयो०वृ० १८/५९) ब्रह्मचर्य आश्रमः (पुं०) वर्णी। (जयो० २/११७) ब्रघ्नः (पुं०) सूर्य, दिनकर।
ब्रह्मचारी (वि०) ब्रह्म/आत्मसंय पालन करने वाला। दिन।
उपान्त्योऽपि जिनो बाल-ब्रह्मचारी जगन्मतः। ०मदार स्वरूप।
पाण्डवानां तथा भीष्म पितामह इति श्रुतः।। सीसा।
(वीरो०८/४०) ब्रह्मन् (नपुं०) ब्रह्मा, हिरण्यगर्भ। (जयो०७० ३/७३) ब्रह्मचर्यधर्मः (पुं०) दशधर्मों में अंतिम धर्म। विधि। (जयो०वृ० १/३५) (वीरो० १८/१५)
ब्रह्मचर्यप्रतिमा (स्त्री०) व्रती का कामंजस्य भोगों से विरति। अपूर्वप्रतिभा-ब्रह्मा कोऽपि अपूर्वप्रतिभोऽसि (जयो० ब्रह्मपथं (नपुं०) ज्ञान व्यापार, आत्मसंयम का मार्ग१६/८६)
ज्ञानेनचानन्दमुपाश्रयन्तश्चरन्ति ये ब्रह्मपथं स जन्तः। ब्रह्म (नपुं०) ज्ञान, ज्ञानब्रह्म, दयाब्रह्म। ब्रह्मकामविनिग्रहः' (वीरो० १/६) परमात्मा-परमब्रह्म।
ब्रह्मपदैकभूमिः (स्त्री०) ब्रह्म का अद्वितीय स्थान। मन वचन और शरीर परित्याग भाव।
(वीरो० १२/४६) अहिंसादि गुण।
ब्रह्मभावः (पुं०) ब्रह्मचर्य भाव। (जयो० १६/२१) ब्रह्मकर्मन् (नपुं०) ज्ञानक्रिया।
ब्रह्मभूयं (नपुं०) ब्रह्म की एकरूपता, परम तत्त्व की तल्लीनता। ब्रह्मकल्पः (पुं०) ज्ञानावधि।
ब्रह्ममीमांसा (स्त्री०) वेदांत दर्शन की विचारधारा का वर्णन। ब्रह्मकाण्डं (नपुं०) ज्ञानांश।
आत्मज्ञान का विवेचन। ब्रह्मगुणं (नपुं०) ब्रह्मचर्य गुण। 'राज्ञीक्षमा ब्रह्मगुणैकनावे' ब्रह्ममार्गः (पुं०) उत्तम ज्ञान मार्ग। (दयो० २२) (सुद० १०३)
ब्रह्मराक्षसनिवारणं (नपुं०) ब्रह्मचर्य के व्यवधान का नाश। ब्रह्मग्रन्थिः (स्त्री०) ब्रह्मगांठ, ज्ञान गांठ, बोधजन्य जोड़। __ (जयो० १९/७५) ब्रह्मग्रहः (पुं०) ब्रह्म राक्षस।
ब्रह्मवत्हँ (नपुं०) ब्रह्ममार्ग, आत्ममार्ग, ज्ञानपथ। (वीरो०
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ब्रह्मवादः
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१०/१४) वस्त्रेण वेष्टितः कस्माद् ब्रह्मचारी च सन्नहम्। दम्भो यन्न भवेत्किं भो! ब्रह्मवर्त्मनि बाधकः। (वीरो०
१०/१४) ब्रह्मवादः (पुं०) ब्रह्म का कथन, वेदांत कथन। (दयो० ४) ब्रह्मवादिन् (पुं०) वेदव्याख्याता, वेदांती। (जयोवृ० २६/९३) ब्रह्मविद (वि०) ब्रह्मज्ञ। स ब्राह्मणो ब्रह्मविदाश्रमोऽतः (वीरो०
१४/४१) ब्रह्मविद्या (स्त्री०) ब्रह्मज्ञान, आत्मसंयम की शिक्षा। (दयो०९) ब्रह्मवृक्षः (पुं०) ढाक वृक्षा ब्रह्मवेदिन् (वि०) ज्ञानतत्त्वज्ञ, आत्मतत्त्वज्ञा ब्रह्मव्रतं (नपुं०) ब्रह्मचर्यव्रत। (मुनि० ३) ब्रह्मसूत्रं (नपुं०) वेदांतदर्शन का सूत्र। ब्रह्माणी (स्त्री०) (ब्रह्म+अण्+ङीप्] ब्रह्मा की पत्नी। दुर्गा। ब्रह्माण्डकः (पुं०) ब्रह्माण्ड, विश्व। (वीरो० १२/१८) ब्रह्निन् (वि०) [ब्रह्मन् इनि] ब्रह्मा से सम्बंधित। ब्रह्नि (पुं०) विष्णु। ब्रह्मिष्ठ (वि०) [ब्रह्मन्+इष्ठन्] ब्रह्म ज्ञाता, आत्मज्ञ, ब्रह्मविद।
तत्त्वज्ञ, विचारज्ञ। ब्रह्मी (स्त्री०) [ब्रह्मन्+अण्+डीप्] ब्राह्मी जड़ी बूटी, एक पौधा। ब्रह्मेशयः (पुं०) कार्तिकेय। विष्णु। ब्राह्म (वि.) [ब्रह्मन्+अण]०वैदिक, वेदज्ञाता।
आत्मज्ञ, ब्रह्मज्ञानी। ब्रह्मा, विधाता।
विशुद्ध, पवित्र, दिव्य। ब्राह्यं (नपुं०) वेदाध्ययन। ब्राह्मण (वि०) [ब्रह्म वेदं शुद्ध चैतन्यं वा वेत्यधीते वा-अण]
ब्रह्मज्ञान के योग्य, वेदाध्ययनशील।
ब्राह्मण के योग्य। बाह्मणः (पुं०) विप्र। (जयो० १८/१५)
ब्राह्मण वर्ण। (जयो० १/११८) ब्राह्मणादिषु ज्ञातिषु वा (जयो०वृ० १/४८) तपोधनश्चाक्षजयी विशोकः न कामकोपच्छल-विस्मयौकः। शान्तेस्तथा संयमनस्य नेता स ब्राह्मणद स्यादिह शुद्धचेताः।। (वीरो०१४/३६) कृपान्वितं मानसमत्र यस्य ब्राह्मणः सम्भवतान्नृशस्य।। (वीरो० १४/३५) ०वीरोदय महाकाव्य के चौदहवें सर्ग में ब्राह्मण, ब्राह्मणत्व आदि पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया। (वीरो० ३४-४४)
ब्राह्मणता (वि.) ब्रह्म की विशेषता, ब्राह्मणता सत्य, अहिंसा,
अस्तेय, स्त्रीपरित्याग और नि:संगता से आती है। त्वं ब्राह्मणोऽसि स्वयमेव विद्धि, क्व ब्राह्मणत्वस्य भवेत्प्रिसिद्धिः। सत्यावधास्तेय विरामभाव नि:सङ्गताभि, समुदेतु सा वः।। (वीरो० १४/३५) मुखेऽहि ब्राह्मणत्वं तद्विद्यते ब्राह्मणो यदि।
तदा विप्रैर्न तत्पादौ, वन्दनीयौ प्रतिष्ठितम्।। (हित०सं०१८) ब्राह्मणपुत्रः (पुं०) विप्रजात। (जयो.वृ० १८/१५) ब्राह्मण-सम्पद (स्त्री०) ब्रह्म की सम्पदा। (वीरो० १४/४०) ब्राह्मणी (स्त्री०) [ब्राह्मण+ङीप्] विप स्त्री। (वीरो० १९)
ब्राह्मण स्त्री। ब्राह्मण्य (वि०) [ब्राह्मण+ष्यञ्] ब्राह्मण के योग्य। ब्राह्ममूहूर्तः (पुं०) सूर्योदयात् पूर्वमुत्थान, प्रभातकाल से पूर्व
की बेला। (जयो० १९/१) ब्राह्मविवाहः (पुं०) अलंकृत कन्या का प्रदान करना। ब्राह्मी (स्त्री०) [ब्राह्म ङीप्] ०ज्ञानमूर्ति-ब्राह्मी बालिका, ऋषभ
की पुत्री, जो सम्पूर्ण ज्ञान की अधिष्ठात्री थी, जिसने लिपि विज्ञान का विकास किया। (वीरो० ८/३९) ब्राह्मी नामक आर्या आर्यिका जैन आर्यिका। 'ब्राह्मीदेशिमेषितं सुमतिभिस्तप्त्वा समुग्रं सती। (जयो० २८/६९) ०वाणी, भारती, सरस्वती, दिव्या। कथा, कहानी। रोहिणी नक्षत्र।
ब्राह्मी नामक जड़ी, जिसके सेवन से बुद्धि बढ़ती है। ब्राह्मीलिपिः (स्त्री०) ऋषभ की पुत्री द्वारा जो अक्षरादि रूप
लेखन किया गया। ब्रिटिशशासनं (नपुं०) ब्रिटेन का शासन, अंग्रेजी शासन।
(जयोवृ० १५/४१) बुड् (अक०) डूबना, निमग्न होना। बुडन्ति-बुडित्वा (जयो०
२३/३०) (जयो० १५/२०) ब्रुव (वि०) बहाने बनाने वाला। बू (अकः) कहना, बोलना। (सुद०४/४२) (सम्य० १२४,
सुद० ३/४५) ब्रू (सक०) संकेत करना, पुकारना, सिद्ध करना। (सुद०
१०२)
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ওও
भक्षक
भः (पुं०) पवर्ग का चतुर्थ वर्ण, (जयो० १/३७) भकार।
(जयो०वृ० १/२९) इसका उच्चारण स्थान ओष्ठ्य है। भः (पुं०) [भा+ड]०शक्र ग्रह। ०भ्रम, भ्रान्ति।
प्रकाश-भं प्रकाशस्द्वान सन्। (जयो०वृ० १/१५)
०आभास, चमत्कार। (जयो०वृ० ३/८८) भं (नपुं०) ०तारा, ग्रह, नक्षत्र। (जयो० ७/७९) भानां नक्षत्राणां
वनस्य स्थानाय प्रदेशे भवनप्रदेश। (जयो०वृ० १५/७३) भक्त (भू०क०कृ०) [भज्+क्त] ०पूजित, अर्चित।
सेवित। विभाजित, विभक्त, निर्दिष्ट। ०अनुरक्त, संलग्न।
० श्रद्धावान्, विश्वास युक्त, श्रद्धालु। भक्तः (पुं०) उपासक, पूजक, आराधक। भक्तं (नपुं०) ०भाग, हिस्सा। ___ भोजन, आहार। भक्तकथा (स्त्री०) रसनेन्द्रिय की लोलुपता सम्बंधी कथा।
भोजन से सम्बंधी कथा। भक्तपरिज्ञा (स्त्री०) तीन या चार प्रकार के आहार का
परित्याग, समाधि के समय विविध प्रकार के आहार का
त्याग। भक्तपानविवेकः (पुं०) भोजन-पान का परित्याग। भक्त-पान-संयोगः (पुं०) भोजन पान का संयोग। भक्तप्रतिज्ञा (स्त्री०) भोजन परित्याग। भक्तप्रत्याख्यानं (नपुं०) समाधि मरण के समय रसादिसहित
आहार का परित्याग। भक्तमण्डः (पुं०) भात का मांड। चावल के पकाने पर
निकलने का मांड। भक्तरोचनं (वि०) भूख को उत्तेजित करने वाला। भक्तवत्सल (वि०) कृपालु, दयावान्। भक्तशाला (स्त्री०) भोजनालय। भोजनशाला। आहार स्थान। भक्तामरः (पुं०) भक्तदेव। भक्तामरसमयः (पुं०) भक्तामर स्तोत्र-भक्तानां भक्ति।
परायणानां च तेषाममराणां देवानां समयेन समूहेन। (जयो०
१५/८५) भलामरस्तोत्रं (नपुं०) आचार्य मानतुंग की प्रसिद्ध रचना,
प्रथम तीर्थकर सम्बंधी स्तोत्र आदिनाथ स्तोत्र। (जयो०
१९/८५) भक्तिः (स्त्री०) [भज्+क्तिन्] ०उपासना, आराधना।
०पूजा, अर्चना, ध्यान। (सुद० ४/३४) ०सम्मान, समादर, श्रद्धा। ०अंश, हिस्सा, भाग। ०अनुरक्ति, अनुरंजन।
आत्मगुण तल्लीनता। ०भावविशुद्धि-'अहंदाचार्येषु बहुश्रुतेषु प्रवचने च भावविशुद्धियुक्तोऽनुरागो भक्तिः । (त०वा० ६/२४) ०पात्रगुणानुराग। विनय वैयावृत्य रूप प्रतिपत्ति। चिद् गुणलब्धि-'नाममि तांश्चिद् गुणलब्धये तु। (भक्ति० १)
भक्ति का अर्थ अलंकरण, श्रृंगार सजावट भी है। भक्तिगत (वि०) सेवा को प्राप्त हुआ। भक्तिगुणं (नपुं०) श्रद्धागुण। भक्तिचैत्यं (नपुं०) भक्तिपूर्वक चैत्यस्थापन। ०चैत्यगृह,
आराधना कक्षा भक्तिभावः (पुं०) श्रद्धाभाव। आराधना गुण। भक्तिभेदः (पुं०) भक्ति के प्रकार। सिद्धभक्ति, अरहंतभक्ति,
श्रुतभक्ति, पञ्चाचार भक्ति, श्रुतभक्ति, योगिभक्ति, तीर्थंकरभक्ति, शान्तिभक्ति, समाधिभक्ति, चैत्यभक्ति,
प्रतिक्रमणभक्ति, कायोत्सर्ग भक्ति आदि। भक्तिमत् (वि०) [भक्ति+मतुप्] उपासक, आराधक, श्रद्धालु।
गुणानुरागी, आत्मगुणपरायणी। भक्तिमान् (वि.) भक्ति करने वाला। (वीरो० १५/७) भक्तिमार्गः (पुं०) आराधना की पद्धति, उपासना की रीति। भक्तियोगः (पुं०) आत्म समर्पण की भावना, शारीरिक आदि
स्थिरता के लिए उपासना। भक्तिल (वि०) [भक्ति+ला+क] श्रद्धाशील, विश्वासपात्र। भक्षु (सक०) भोजना करना, खाना, निगलना।
- उपयोग करना। भक्षः (पुं०) [भक्ष्+घञ्] भोजन, आहार। भक्षक (वि०) [भक्ष्+ण्वुल] आहार करने वाला, भोजन
करने वाला। ० भोजक, आहारक।
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भक्षणं
भक्षणं (नपुं० ) ० नक्षत्र (जयो० २८/६) खाना, भोजन करना। (जयो० १ / ८७)
भक्षणीय (वि०) भोजनीय आहारणीय (जयो० २७/६१) भक्ष्य (वि०) [भक्षूण्यत् खाने योग्य, आहरण योग्य, भोज्या
० ग्राह्य ।
भक्ष्यवस्तु (नपुं०) भोज्य पदार्थ । ( वीरो० १९/४ ) भक्य (नपुं०) ग्राह्य पदार्थ भोज्य वस्तु, खाद्यवस्तु । भगः (पुं०) [भज्+घ] ०सूर्य । ०चन्द्र शिव
• सुखद वातावरण, प्रसन्नता । इष्ट, प्रिय
।
० यश, कीर्ति, श्रेय, कल्याण । ० मर्यादा, श्रेष्ठता।
० सद्गुण, नैतिक गुण, धर्मगुण। भगः खल्वैश्वयदि लक्षणः । भगोऽस्यास्तीति भगवान् ऐश्वर्यादिः (जयो० ८/८८) 'भग: समग्रैश्वर्यादिलक्षणः '
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० सामर्थ्य, शक्ति । ० मुक्ति, मोक्ष।
भगं (नपुं०) उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र ।
भगन्दरः (पुं० ) [ भग+दृ+ णिच् + खच् ] एक रोग, गुदा ब्रण। भगवत् (वि०) [भग+मतुप् ] ०यशस्वी प्रसिद्ध, ख्यात o दिव्य, श्रद्धेय पूज्य, सम्माननीय
भगवत् (पुं०) भगवान्, देव, देवता। (जयो० ४/८, ९/५)
।
"
(सुद० २/३४)
• भगवन्त, भगवान्। (जयो० ४/४५ ) ० जिनदेव, जिनेन्द्र प्रभु ।
भगवत् पूजा ( स्त्री०) भगवान् की प्रार्थना । जिनप्रभु की अर्चना | (जयो० २/३३) ०श्रद्धा भाव।
भगवत्भक्ति (स्त्री०) भगवान् की भक्ति । ० दिव्यश्रद्धा । भगवती (स्त्री०) सरस्वती, वाणी, भारती। (जयो० २/४१) भगवद्विलाशः (पुं०) भगवान् ने चाहा, भगवन्त की इच्छा। (समु० ३/३६)
भगवदीयः (पुं०) भगवान्।
भगवान् (पुं०) अरहत प्रभु (वीरो०२०/२५) ०ईश्वर स्वामी । भगालं (नपुं०) [भज् + गलन् ] कपाल, खोपड़ी। भगालिन् (वि० ) [ भग+ इनि] ० भाग्यशाली, सौभाग्यशील। ० ऐश्वर्य युक्त, संपन्न |
भगिन् (वि०) वैभवशाली, ऐश्वर्य सम्पन्न |
७७१
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भङ्गवासा
भगिनिका (स्त्री०) [भगिनि+कन्+टाप्+इत्वम्] ०बहिन, ०येन। भगिनी (स्त्री० ) [ भगिन्+ ङीप् ] बहिन | भगिनीपति (पुं०) बहनोई, बहिन का पति । भगिनीभ (पुं०) देखो ऊपर
भगिनीयः (पुं०) बहिन का पुत्र, भांजा
भगीरथः (पुं०) भगीरथ नृप। नयति स्म स जन्यजनो भगीरथो जह्रुकन्यका सुयशाः । (जयो० ६/३३)
भगीरथसुता (स्त्री०) गंगा ।
भग्न (भू०क०कु० ) [भ+क्त] टूटा हुआ, खण्डित हुआ। ० ध्वस्त, पतित ।
० पराजित, परास्त हुआ।
भग्नक्रम (पुं०) अतिक्रमण । ० पराजय । भग्नचेष्ट (वि०) चेष्टा रहित, निराश, हताश ।
भग्नजङ्घ (वि०) घायल जंघा वाला (जयो०वृ० १/१९) भग्नतप (वि०) खण्डित तप वाला । तप में बाधा युक्त । भग्नदर्प (वि०) दर्पविहीन, क्षीण अहंकार वाला। भग्ननिद्र (वि०) जागता हुआ, नींद से उठा हुआ । भग्नपत्त (वि०) विदीर्ण पत्ते ।
भग्नपात्र (वि०) टूटे हुए भाण्ड / बर्तन | भग्नभुज (वि०) खंजा, भुज से रहित। भग्नमनस् (वि०) हताश, निराश, हतोत्साही ।
भग्नव्रत (वि०) व्रत में दोष लगाने वाला, व्रत में कमी करने
वाला।
भग्नसंकल्प (वि०) संकल्प रहित, उत्साहहीन । भग्नी (स्त्री०) बहिन ।
भङ्कारी (स्त्री०) डांसमच्छर, गोमक्षिका ।
भक्ति (स्त्री० ) [ भ+ क्तिन्] टूटना, खण्डित होना। भङ्गः (पुं०) [भञ्ज-घञ्] टूटना, खण्डित होना, विभक्त
करना।
० विकृति । (जयो० ६ / १९) ० पराभव, पराजय।
०विघ्न, बाधा, रुकावट।
०पतन, ध्वंश नाश। ०खंड, भाग, हिस्सा |
० भाग (जयो० २ / १२९ ) ०विभाग, ०विकल्प |
० पटसन ।
भङ्गनय: (पुं०) विभक्त होने वाले नय, विभाग युक्त नय। भङ्गवासा ( स्त्री०) हल्दी ।
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भङ्गा
७७२
भट्टारक
भङ्गा (स्त्री०) पटसन।
मादक पेय। भांग का घोट। भङ्गिः (स्त्री०) [भञ्ज+इन्] विच्छेद, विभाग, खण्ड, हिस्सा। ०धारा, परम्परा।
आभास, प्रतीति। प्रभाग। ०दांवपेंच, जालसाजी, धोखाधड़ी। भंगिमा, दृष्टि विच्छेद। (जयो०११/६) विभाजन।
छटा जन्म। (जयो०वृ० ११/९) भनिन् (वि०) [भङ्ग इनि] क्षण भंगुर, अस्थायी। शीघ्र
खण्डित होने वाला। भङ्गिमत् (वि०) विभाजित। भङ्गुर (वि०) टूटने योग्य, विभाजित होने योग्य। ०कुटिल,
वक्र, घुमावदार। भज् (सक०) ०भजना, ०कीर्तन करना, गुणगान करना,
स्तुति करना, प्रार्थना करना। (मुनि० ३४) स्पष्ट करना। (सुद० ११६) (जयो० १/९५) पाना-अमी शमीशान कृपां भजन्ति कृपामनुग्रहं भजन्ति प्राप्नुवन्ति। (जयो०वृ० १/८७)
सेवा करना। ०वंदना करना। स्मरण करना, ध्यान देना। (जयो० ६/१११) रटना, घोंटना, थोकना (जयो० १/४८) ०प्राप्त होना, बभाज। (जयो० ५/९) निर्दिष्ट करना, नियत करना। भाग लेना, हिस्सा लेना। ०समर्पण करना। ०अभ्यास करना, अनुगमन करना। ०पालन करना, भोगना।
उपभोग करना, रखना, अनुबन्ध करना। ०अनुभव करना, अधिहत करना।
आराधना करना, सत्कार करना। (सम्य० १००)
०छांटना, चुनना। भजकः (पुं०) [भज्+ण्वुल्] वितरक, बांटने वाला।
०पूजक, अर्चक, प्रार्थक, भक्त, उपासक। भजन (नपुं०) [भज्+ल्युट्] ०बांटना, हिस्सा लेना, विभाजन।
०अर्चन, पूजन, वन्दन।
योग्य, श्रेष्ठ, उचित।
सेवा, आराधना। भजमान (वि०) [भज+शानच्] बांटने वाला, उपभोक्ता।
यथेष्ठ, योग्य, उचित। भङ्ग (सक०) तोड़ना, खण्डित करना।
चुनना, चयन करना। उखाड़ना, उजाड़ना। निराश करना, प्रयल व्यर्थ करना। ०पकड़ना, रोकना, ग्रहण करना। ०हराना, परास्त करना।
उज्ज्वल करना, चमकाना। भञ्जक (वि०) [भन्+ण्वुल] तोड़ने वाला, बांटने वाला।
०खण्डित करने वाला, उखाड़ने वाला। भञ्जनं (नपुं०) [भञ्ज ल्युट्] ०तोड़ना, भग्न करना, खण्ड
करना। कष्ट देना। नाश करना, ध्वंश करना।
०हटाना, भगाना, दूर करना। भञ्जन (वि.) तोड़ने वाला, खण्ड-खण्ड करने वाला, कष्ट
देने वाला। भञ्जनकः (पुं०) दांत टूटना, दांत गिरना। भट (अक०) पालना, पोषण करना।
स्थिर रखना। ०भाड़े पर लेना, मजदूरी लेना।
०बोलना, बातचीत करना। भटः (पुं०) योद्धा, सैनिक, बहादुर, वीर सिपाही। (सुद०१०५)
०भृति भोगी।
०वर्णसंकर। भटसन्मणि (पुं०) नृप, राजा। अधिपति, भूपति।
सेनापति। भटाग्रणी (वि०) योद्धाओं में प्रमुख।
०वीरश्री। (जयो०८/२४) भट्टः (पुं०) [भट्+तन्] विज्ञ, प्रज्ञापुरुष, विद्वान्।
०स्वामी, प्रभु।
०भाट, बन्दीजन। भट्टमीमांसकः (पुं०) मीमांसा मत का विज्ञ पुरुष। (हित०१५) भट्टार (वि०) [भट्ट स्वामित्वमिच्छति] श्रद्धास्पद, पूज्य। भट्टारक (वि०) [भट्टार+कन्] श्रद्धेय, पूज्य।
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भट्टिनि
७७३
भद्रपीठं
विज्ञजनों को प्रेरित करने वाला।
भदाकः (पुं०) सौभाग्य, सम्पन्नता। पण्डितों को प्रेरित करने वाला।
भद्दिला (स्त्री०) कोल्लाग ग्राम के धम्मिल्ल ब्राह्मण की भार्या। महामनस्वी, प्रभावशाली।
(वीरो० १४/६) शास्त्रज्ञ, कलामर्मज्ञ।
भन्दता (वि०) भला, यथेष्ठता। (सुद० ४/१४) 'भट्टान् पण्डितान, अरयति प्रेरयतीति भट्टारकः।' भभभाजनम् (नपुं०) अस्पष्टवाणी। (जयो० १६/५०) (जैन० ल० वृ० ८३३)
भद्र (वि०) [भन्द्र क] भला, सुखद, समृद्धशाली। भट्टिन (स्त्री०) [भट्ट+इनि+ङीप्] रानी, राजकुमारी। उत्तम, शिव। (जयोवृ० १/५) (समु० ३/४४) प्राज्ञी, विदुषी।
०प्रमुख, प्रधान, सर्वोत्तम, मुख्य। नाटकों में दासियों द्वारा रानियों को सम्बोधन।
यथेष्ट, श्रेष्ठ, सहृदय। उच्चपद पर प्रतिष्ठित नारी।
कृपालु, सौहार्दपूर्ण। भट्टिनी देखो ऊपर।
०अनुकूल, मंगलप्रद। भडः (पुं०) [भण्ड्+अच्] एक जाति विशेष।
०स्तुत्य, श्लाघनीय, प्रशंसनीय। भडिलः (पुं०) नेता, नायक, योद्धा।
प्रियतम, प्यारा। ०भृत्य, सेवक।
०कल्याण (सुद० १३७) शुभ, इष्ट। भण (सक०) कहना, बोलना। बभाण। (जयो० २/१४१) ०सद्धर्मशीला। भद्रेत्वमद्रेरिव मार्गरीतिं प्राप्ता किलास्य
वर्णन करना, प्रतिपादन करना। प्ररुपण करना। (सम्य० प्रगुणप्रणीतिम्। (सुद० १२१) १३५) (सुद० ४/१४)
०भाति शोभते स्वगुणैर्ददाति च प्रेरयितुश्चित्तनिर्वृत्तिमिदि कथन, प्रतिपादन, वचन।
भद्रः। (जैन०ल० ८३३) ०बोलना, कहना।
भद्रकः (वि०) ०शुभ, यथेष्ट, श्रेष्ठ। प्रवचन। निरूपण। प्रतिपादन।
मंगलमय, मनोहर, रमणीय। भणित (वि०) कथित, प्रतिपादित।
भद्रक (पुं०) देवदारु का वृक्ष। भणित्वा (भण्+क्त्वा) कहकर। (सुद० ७०)
भद्रकारक (वि०) मंगलप्रद। ०कल्याण कारक। सुखद। भण्ड् (अक०) छिड़कना, बोलना।
भद्रकुम्भः (पुं०) पवित्रजल का घट। मंगलकलश। खिल्ली उड़ाना।
भद्रकर (वि०) समृद्धकारी, सम्पत्ति प्रदाता। व्यंग करना।
भद्रघटः (पुं०) कल्याणकारी घट। ०बोलना।
भद्रता (वि०) सहृदयता, लोककल्याणकारी दृष्टि वाला। उपहास करना, मजाक उड़ाना।
भोलापन। मत्तोऽप्यवित्तविधिरेष मयोपकार्यः किन्नेति चेतसि भण्डः (पुं०) [भण्ड्+अच्] विदूषक, भाण्ड।
स भद्रतया विचार्य। (सुद० ४/२४) भण्डकः (पुं०) [भण्ड्+कन्] खंजन पक्षी।
भद्रताकारी (वि.) कल्याणकारी, उपकारी। भण्डनं (नपुं०) [भण्ड्+ल्युट] ०कवच, बस्तर।
'जयतज्जगतीत्येवमस्माकं भद्रताकारी' (वीरो०१०/२६) ___ उत्पात, दुष्टता।
भद्रतापस् (वि०) श्रेष्ठ तपस्वी। उत्कृष्ट तप करने वाला। भण्डिल (वि०) [भण्ड्। इलच्] ०सौभाग्यशाली, सुखद, श्रेष्ठ। | भददानं (नपुं०) उत्तम दान। यथोचित पात्रदान। प्रसन्नता, कल्याण।
भद्रदेशिका (स्त्री०) भद्र उपदेशिका। आत्मकल्याणकारी भण्डिल: (पुं०) गुप्तचर, दूत, संदेशवाहक।
उपदेशिका। (जयो० ३६) प्रवचन पटु। ०कारीगर, दस्तकार।
भद्रनामन् (पुं०) खंजनपक्षी। भदन्तः (पुं०) श्रेष्ठ, सज्जन। जैन एवं बौद्ध आगमों में भद्रपरम्परा (स्त्री०) यथेष्ट परम्परा। 'ख्यातिगतो भद्रपरम्परायां
सज्जनों के उद्बोधन के लिए 'भदन्त' शब्द का प्रयोग नालीकवागित्यसको धरायाम्। (समु० ३/२३) होता है।
भद्रपीठ (नपुं०) राजगद्दी, सिंहासन। सुखासन।
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भद्रबलनः
७७४
भयानक
भद्रबलनः (पुं०) बलराम। ०बलदेव। भद्रबाहु (पुं०) एक प्रसिद्ध जैनाचार्य। 'स भद्रवाहोर्निकटे
मुनिर्भवन्' (समु० ४/३१)
०श्रुतकेवली। (वीरो० २२/२) भद्रभावः (पुं०) उत्तम भाव, श्रेष्ठ भाव। (हित० ७) प्रभोर्जन्मनि
लोकानामाशयो भद्रभावभाक्। (हित० ७) ०भद्र विचार। (सुद० ११३) 'निशम्येद् भद्रभावात् स्व
प्राणेश्वरभाषितम्। (सुद० ११३) भद्रमित्र (पुं०) श्री पद्मखण्ड नगर के सुदत्त वैश्यवर एवं
सुमित्रा का पुत्र। (समु० १/३०) श्रीभद्रमित्रो मृदुचित्तलेशः'
(समु० ३/१) भद्रमुख (वि०) हंसमुख, हर्षित वदन वाला। महोदय/महानुभाव। भद्रमृगः (पुं०) उत्तम हस्ति। ०श्रेष्ठ जाति का हिरण। भदरेणुः (पुं०) ऐरावत हस्ति। भद्रवर्मन् (पुं०) नवमल्लिका। भदशाखा: (पुं०) उत्तम टहनियां। भदशील (वि०) उत्तमाचरण। (दयो० ७६) ०शुभाचरण। भद्रश्रयं (नपुं०) चन्दन तरु। भद्रश्रियं देखो ऊपर। भद्रश्रीः (स्त्री०) चंदन तरु। भद्रसालं (नपुं०) भद्रसाल नामक वन। (भक्ति० ) भद्रा (स्त्री०) [भद्र+टाप्] गाय।
स्वर्ग गंगा। तिथि विशेष। भद्रानामतिथिर्द्वितीया वास्ति। (जयो०६/८८) ०प्रभास गणधर की माता, राजगृह के राजा बल की
भार्या। (वीरो० ४/१२) भद्राकारः (पुं०) श्रेष्ठ छवि। भदाकृतिः (स्त्री०) मनोरम आकृति, रमणीय मूर्ति। भद्राचरणं (नपुं०) उत्तम आचरण। ०शुभध्यान, उत्तम चरित्र। भदात्मजः (पुं०) तलवार। भ्रदाप्रतिमा (स्त्री०) पूर्वादिक् में स्थित मनोज्ञ प्रतिमा।
(दयो० १११) भदाव्याख्या (स्त्री०) सिद्धांतगत विवेचन। भद्रासनं (नपुं०) राजगद्दी, सिंहासन। सुखासन। भद्रिका (स्त्री०) [भद्रा कन्+टाप्] ०ताबीज। ०दोयज। भद्रिलं (नपुं०) [भद्र इलच्] समृद्धि, सौभाग्य। कंपनशील। | भम्भः (पुं०) [भम्भा +क] ०मक्खी। ०धुआं।
भम्मारवः (पुं०) [भम्मा+रु+अच्] गाय का रंभाना। भयं (नपुं०) [विभेत्यस्मात्भी-अपादाने अच्] डर, आशंका,
आतंक। संकट, जोखिम, खतरा। त्रास, व्याधि। ०भीति। इहलोक, परलोक, वेदना, अरक्षा, अगुप्ति, मरण, अकस्मात्
भय। (सम्य० १/१) भयकारक (वि०) भयपूर्ण, कष्टदायक। (जयोवृ० १/३५) भयङ्कर (वि०) भयानक, कष्टदायी, संकटपूर्ण। (सम्य० १/१) ०भीतिकरी-दुःखदायिनी। (जयो० २/५९)
दारुण-सङ्गमितोऽप्यभयंकरः। (समु०७/२९) भयडिण्डिमः (पुं०) युद्ध में प्रयुक्त होने वाला वाद्य, ढोल,
मारूवाद्य। भयदायक (वि०) भय उत्पन्न करने वाला, पीड़ादायक,
कष्टदायक। (दयो० ५०) (जयोवृ०८/७) भयद्रुत (वि०) पराजित, भागा हुआ। भयनाशक (वि०) कष्ट को नष्ट करने वाला, पीड़ाहारक,
दुःखहर्ता। (जयोवृ० २/३१) भयपूर्ण (वि०) भयकारक, कष्टजन्य। (जयो०वृ० १/३५) भयप्रद (वि०) भयानक, भय उत्पन्न करने वाला, भयकारक। भयभीत (वि०) भयाढ्या (वीरो० ३/४) दरि, भययुक्त।
(जयो०वृ० १/१९) भयभृत (वि०) सतर्क, सावधान। (जयो० २५/८७) भयवर्जित (वि०) भयभीति। (जयो० २/१५३) भयविनय (वि०) अनुकूल प्रवृत्ति। भयविप्लुत (वि०) दुःख से घिरा हुआ। भयव्यूहः (पुं०) भयचक्र। ०कष्ट युक्त घेरा। भयसंज्ञा (स्त्री०) भीतिरूप परिणाम, भय की अधिकता,
त्रासरूप। 'भयसंज्ञा, त्रासरूपा। भयहर (वि०) भयनाशक, कष्ट हरण करने वाला। (सुद०५/१) भयाढ्य (वि०) भयानक, भयकारक। (सुद० १/२३) भय से
आढ्य-भयभीत, भय से संयुक्त। (सुद० ७७) भयाद्वय (वि०) भयभीत, डरा हुआ। (वीरो०८/४) भयातुर (वि०) डरा हुआ, दुःख से पीड़ित। (जयो० ८७) भयानक (वि०) भयकारक, भयातुर। भीषण, भयजनक।
(जयो०वृ०८/६)
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भयानक:
७७५
भरतेशतुक्
भयानकः (पुं०) व्याघ्र। भयान्वित (वि०) भयाक्रान्त, भय युक्त। (जयो०वृ० ६/५)
भयभीत हुआ 'भया शोभया भयेन चान्विता' (जयो०७०
५/१००) भयापहारिणि (वि०) भयनाशक। (जयो० २३/२) भयालुता (वि०) भय को दूर करना। (जयो०वृ० १/२९) भयुत (वि०) नक्षत सहित। भैर्नक्षत्रैर्युतस्य (जयो० ४/५९) भर (वि०) धारण करने वाला, देने वाला, भरण पोषण करने वाला। भरः (पुं०) भार, बोझ, वजन। (जयो० २/१३८) भरक (वि०) भार स्थान। (जयो० २५/८७) भरटः (पुं०) [भृ+अटन्] ०कुम्हार। ०कुम्भकार।
सेवक।
भरण (वि०) परिपूरण, पूर्ति (जयो० ५/८२) निर्वाह करने
वाला, आश्रय देने वाला, सहारा देने वाला, पालन-पोषण
करने वाला। भरणं (नपुं०) [भृ+ल्युट्] पालन पोषण, निर्वाह करना,
आश्रय देना।
०लाना, प्राप्त करना। भारवहन, मजदूरी, भाड़ा। भरणः (पुं०) भरणी नक्षत्र। भरणी (पुं०) भरणी नक्षत्र। भरण्डः (पुं०) [भृ+कण्डन्] ०प्रभु, स्वामी, नाथा राजा,
नृप, अधिपति। ०शासका
बैल, सांड। भरण्य (वि०) [भरण+यत्] पालन-पोषण करने वाला, आश्रय
देने वाला।
मजदूरी, भाड़ा। भरण्यभुज् (पुं०) सेवक, भृत्य, वृत्तियुक्त सेवक। भरण्या (स्त्री०) भाड़ा, मजदूरी। भरण्युः (पुं०) नाथ, स्वामी, प्रभु।
चन्द्र, सूर्य, अग्नि।
मित्र, प्ररक्षक। भरतः (पुं०) [भरं तनोति तन्-ड] ऋषभदेव का ज्येष्ठ पुत्र
भरत। (जयो०वृ० १/६६) मरुदेवी रानी का पुत्र। प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के सौ पुत्रों में प्रथम पुत्र भरत है, जो षट्खण्डाधिपति चक्रवर्ती हुए। (जयो० ३/८८) भारतवर्ष का इन्हीं से पड़ा। शकुन्तला और दुष्यन्त पुत्र भरत।
०भरतमुनि, नाट्यशास्त्र के प्रणेता। ० नक्षत्र। ०अग्नि।
०चमत्कार युक्त रत्न। (जयो०वृ० १।८८) भरतखण्डं (नपुं०) भारतवर्ष। भरतज्ञ (वि०) नाट्यशास्त्रज्ञ। भरतचक्रवर्तिन् (पुं०) भरत चक्रवर्ती ऋषभपुत्र भरत, जिन्होंने
षट्खण्ड विजय के उपरांत चक्ररत्न को प्राप्त किया
किया था। भरतनन्दनः (पुं०) भरतपुत्र, अर्ककीर्ति। (जयो० ७/१७)
(जयो० ३/५२) भरतपुत्रः देखो ऊपर। भरतभूपतुज (पुं०) भरत राजा का पुत्र अर्कीति। (जयो०
४/१७) भरतभूपस्य तुजं पुत्रमर्ककीर्तिम्' (जयो०४/१७) भरतवन्दनश्चक्रबन्धः (पुं०) एक छन्द भक्तानामनुकूल
साधनकर वीक्ष्यार्हतां संस्तवं रङ्गत्तुङ्ग-तरङ्ग- भृदघनवने पोतोयमं प्रीतिदम्। तस्मिंस्तिग्मकरोदये च न इहास्त्वन्तस्तमोनाशनं नरिम्भकसारमद्भुतगुणं वन्दे सदङ्ग पुनः।। (जयो० २०/८९) इसका विशेष अध्ययन-डॉ. किरण टण्डन के द्वारा प्रतिपादित शोध ग्रंथ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य
एक अध्ययन पृ० ३५० देखा जा सकता है। भरतवर्षः (पुं०) भारतवर्ष। भरत-सम्राडात्मजत्व (वि०) भरत सम्राट्र के पुत्रत्व को प्राप्त
हुआ। (जयो०१० ७/८) भरताङ्गभू (पुं०) ०अर्ककीर्ति भरत के अंग से उत्पन्न।
०भरतात्मज अर्ककीर्ति। (जयो०वृ० ७/१२) भरतात्मजः (पुं०) अर्ककीर्ति। (जयो० ९/२१२) भरतानीकः (पुं०) भरत की सेना, सम्राट्र चक्रवर्ती भरत का
सैन्यदल। (जयो० १३/५३) भरतान्वयचन्दः (पुं०) कुलेन्दु, भरत पुत्र अर्ककीर्ति। (जयो०३०
७/१३) भरताधिपः (पुं०) भारतदेश का चक्रवर्ती ऋषभपुत्र भरत। __'भरतमात्रस्य अधिपतेर्नेता इयानेव' (जयो०वृ० ६/११५) भरताभिधानं (नपुं०) भरत नाम। (सुद० १/१३) भरतेशः (पुं०) भरत चक्रवर्ती, भारत का अधिपति। भरतेशतुक् (पुं०) अर्ककीर्ति। भरतेशस्य तुक्-कुमारः (जयो०
६/१४) (जयो० ४/५०)
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भरतेशसुतः
भरतेशसुतः (पु० ) अर्ककीर्ति ।
भरद्वाजः (पुं०) एक ऋषि, सप्त ऋषियों में प्रसिद्ध एक ऋषि । भरित (वि०) [भर इतच्] भरण-पोषण युक्त, पालन-पोषणा किया गया।
० भरा हुआ, परिपूर्ण ।
भरिन् (वि०) भार वाहक। (जयो०वृ०२/२९) भरु: (पुं०) [भू+उन्] प्रभ स्वामी नायक, अधिपति।
० पति । 'भरुणां भर्तृणां मध्ये स्थिताभिस्तरुणिभिस्तुल्याः ' (जयो० १४ / २१) भर-भर्तरि काञ्चने इति विश्वलोचनः। (जयो०वृ० १४ / २१ )
भरुक्त (वि०) सुवर्णघटित 'भरुणोक्तेः सुवर्णघटितैरथ च (जयो०वृ० १७/७)
भरुजः (पुं०) ['भ' इति शब्देन रुजति भरुज्+क] गीदड़ । भरुटकं (नपुं०) [भृ+उट+कन् ] तला हुआ मांस । भरुत्सख (वि०) मोम सदृश भरुत्सखमनुं मत्वा तस्या मदनवन्मनः। नरतः स्थातुं शशाकेदं मनागप्युचितस्थले।। (सुद० ७६)
भरुस्तभमयी (वि०) सुवर्णस्तम्भमयी (जयो० ११ / १९ ) भरो सुवर्णस्य स्तम्भमयी' (जयो०वृ० ११ / १९) भर्गः [भुज्+घञ् ] शिव ।
भर्ग्य: (पुं० ) [ भृज् + ण्यत् ] शिव ।
भर्जनं (नपुं०) [भृज् + ल्युट् ] तलना, भूनना। भर्जन (वि०) भूनने वाला, तलने वाला, पकाने वाला । भर्तृ (पुं०) [भृ+तृच्] पति, भर्ता (जयो० २ / १५०) (सुद०) ०वल्लभ, प्रिय। (जयो० १/११)
० स्वामी, प्रभु, महत्तर |
० सेनापति, नेता, रक्षक (जयो० २३ / ७६ ) ०भरण-पोषणकर्ता।
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भर्तृदारकः (पुं०) युवराज, राजकुमार ।
भर्तृदारिका (स्त्री०) युवराज्ञी ।
भर्तृव्रतं (नपुं०) पातिव्रत, पतिभक्ति, पतिपरायणता । भर्तृशोक (पुं०) पति की मृत्यु पर शोक । भर्तृहरि (पुं०) एक राजा । वैराग्य शतक एवं शृंगार शतक के कर्ता संस्कृत काव्यकार |
भर्त्स (सक०) धमकाना, डराना, झिड़कना, व्यंग करना । भर्त्सक (वि०) [भर्स् - ण्वुल् ] धमकाने वाला, डराने वाला। ० अभिशाप |
भ (पुं०) भाड़ा, किराया, मजदूरी, पारश्रमिक। (सम्य०२५)
७७६
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भर्मन् (नपुं० ) [ भृ+मनिन्] ०सहारा, संधारण, आश्रय, आधार । ०मजदूरी, भाड़ा। ०सोना।
० सोने का सिक्का ।
० नाभि ।
भल् (सक०) देखना, अवलोकन करना, प्रत्यक्ष करना, निगाह डालना।
भललू (सक० ) ०घायल करना । ०वर्णन करना, बोलना। ०चोट पहुंचाना।
भवतरू
भल्लः (पुं०) एक अस्त्र, भाला, जिसमें अग्रभाग पर लोहे का तीखा गोल एवं नुकीला होता है, जो व्यक्ति की ऊंचाई बराबर या इससे बड़े बांस में निबद्ध होता है। ० भालू, रीछ ।
भल्लकः (पुं०) भालू, रीछ ।
भल्लात: (पुं० ) [ भल्ल्+अत्+अच्] भिलावे का पौधा । भल्लुकः (पुं०) [भल्लू ऊक्] रीछ, भालू। भव (वि० ) [ भवत्यस्मात् भू अपादाने अप्] उत्पन्न, जन्म लेता हुआ, उदित हुआ।
० अवतरित हुआ, आया हुआ ।
भवः (पुं०) होना, उत्पत्ति, सत्ता
०जन्म, उत्पत्ति, प्रसूति (जयो०० २३/७५) ० स्रोत, मूल। (सम्य० १२५/८० ) संसार
०रुद्र (जयो० १/१५)
भवक्षितिः (स्त्री०) जन्म स्थान, उत्पत्ति स्थान भवक्षिद् (वि०) संसार नाशक ।
भवछेदः (पुं०) पुनर्जन्म रोकना ।
भवच्छिद (वि०) संसार विनाश (जयो० २५/१) भवत् (वि०) [भू+शतृ] होने वाला, घटित होने वाला। (जयो० ४/१२)
० आप, तुम, समादर के लिए प्रयुक्त शब्द (सुद० ९८) भवता भवता प्रणायकेन (जयो० १२/४६) भो सुभद्र भवतामधिवेश:' (जयो०वृ० ४ / ३६) भवान्निति (सुद०९९) भवतः (वि०) भवशब्दात्तसिल् प्रत्यय इति विश्वलोचन: । (जयो० १८/१७) आपका।
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भवतरू (पुं०) संसार रूपी वृक्ष। ( भक्ति ० ७ )
भवति भवतीति भवच्छब्दस्य सप्तम्येकवचन भवति नहि भवति भवति मदन (जयो० ६/८७)
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भवता
ওওও
भवार्णवं
भवता (स्त्री०) आपकी। (सुद० १२४) भवतात् (वि०) प्रशंसनीय। (सुद० १/९) भवतादृशी (वि०) आप जैसी। (समु० ७/१९) भवती (स्त्री०) [भू+शतृ+ङीप्] आपकी, तुम्हारी। (समु०३/१४) भवतोचित (वि०) आपके लिए उचित, उसके अनुकूल।
(सुद० ११०) भवदीय (वि०) आपश्री का, आपका, (सुद० २/१४)
(पुं०) महोदय का, भवन्धी का पति। (दयो०१०) भवदीयपादाः आपके चरण। भवदेवः (पुं०) भवश्री का पति। (दयो० १०) भवनं (नपुं०) [भू+ल्युट्] ०घर, आवास, निवास।
स्थान।
मकान, इमारत। भवनपतिः (पुं०) गृहपति, मालिक, गृहस्वामी। भवनप्रदेशः (पुं०) शय्यागार प्रदेश। भवनस्य शय्यागारस्य
प्रदेशे। ०भव-वन-प्रदेश। नक्षत्रों के स्थान स्वरूप आकाश प्रदेश।
'भानां नक्षत्राणां वनस्य स्थानस्य प्रदेशे' (जयो०वृ० १५/३७) भवनस्वामिन् (पुं०) गृहपति, घर का मालिक। भवनोदरं (नपुं०) गृह का मध्यवर्ती भाग, आंगन। भवन्तः [भू+शतृ+घञ्] आप सब, इस समय में। भवन्ती (भू+शतृ ङीप्)आपकी, गुणवती स्त्री। भवनवासी (पुं०) देव विशेष, भवनों में निवास करने वाले
भवविचयः (पुं०) दुःख रूप चिंतन। भवविपाकः (पुं०) अपने योग्य फल देना। भवविमोचक (वि०) प्राणविघात। भवश्री (स्त्री०) शिंशपावासी मृगसेन धीवर की माता। भवसंभवनार्ति (स्त्री०) संसार के दु:ख के व्याकुल। दुःखी, ___आर्त युक्त। (समु०) भवस्तलं (नपुं०) भूतल। (सुद० ३/१८) भवस्थ (वि०) संसार स्थित। भवस्थितिः (स्त्री०) संसार स्थिति, ___oआयुविषयक स्थिति। भवस्मृतिः (स्त्री०) जातिस्मरण। (जयो० २३/४६) भवातिग (वि०) वीतरागः सांसारिक जीवन पर विजय प्राप्त
करने वाला, वीतरागी। भवान् ( ) आपका, आप, तुम्हारा। भुवि भवान् विभविष्यति
भो भवान् विपदगाः पद गास्तु वयं नवाः' (सुद० ३/३१)
(जयो० ९/११) भवानि (पुं०) ज्योतिषि। (सुद० १/२१) भवानी (स्त्री०) पार्वती, गौरी। भवानुगामी (वि०) अन्य भव में उत्पन्न होने वाला। भवान्तक (वि०) जन्म जरा-मृत्युनाशक। 'भवस्य
जन्म-मरणात्मकस्य संसारस्य अन्तका: नाशकाः भवन्तीति
परिहारः' (जयोवृ० १/९४) भवान्तरं (नपुं०) ०पुनर्जीवन, ०पुनरागमन, ०अन्यज्जन्म।
(जयो० २३/३३) भवान्तरारिः (पुं०) पूर्वानुबद्ध वैरी। (जयो० २३/७०) भवान्ध (वि०) सब/संसार रूपी अंधा। (सुद० २/४७) भवान्धु (स्त्री०) भवकूप, संसारगर्त। (सुद० १/३) भवान्धुगर्तः (पुं०) संसार रूप अंधकूप। (समु० १/३) भवांस्तु (अव्य०) आप तो हैं। (सुद० ११३) भवादश (वि०) आप जैसा दिखाई पड़ने वाला। (जयो०
३/३३) (जयो० २६/३७) भवाब्धिः (पुं०) संसार समुद्र। (सु० २/३१) (भक्ति० १) भवाब्धितीरः (पुं०) संसार समुद्र रूपी तट। (सुद १/१) भवाभिय (वि०) संसार जयी-भवात् संसारान्नास्ति भीर्यस्यतं
भवाभियं लोकविजयिनं जिननाथ। (जयो० १९/४७) भवाम्बुधिः (स्त्री०) संसार समुद्र। (समु० ४/२०) भवारण्यं (नपुं०) संसार रूपी जंगल। भवार्णवं (नपुं०) संसार समुद्र।
देव।
भवभृत् (पुं०) संसारी जन। (जयो० २/३१) 'भवं विभ्रतीति
भवभृतः सांसारिकजनाः'। भवपरिवर्तनं (नपुं०) संसार परावर्तन, चतुर्गतिभ्रमण। भवपात (वि०) संसार लोप। भवप्रत्यय अवधिज्ञान (नपुं०) नरकादि की उत्पत्ति का
कारणभूत ज्ञान। भवभूति (पुं०) संस्कृत का एक कवि। भवभाजा (पुं०) संसारोत्पत्ति। (सुद० ११२) भवभयस् (वि०) संसार नाशक। (सुद० ५/१) भवमरण (नपुं०) आयु क्षीण होना। भवरुद् (पुं०) अन्तिम समय में बजने वाला ढोल। भवलोकः (पुं०) नरक, तिर्यंच, देव और मनुष्य लोक। भवविरक्त (वि०) संसार से विमुख। (समु० ३/१)
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भवार्णवसेतु
७७८
भव्यात्मन्
भवार्णवसेतु (पुं०) संसार पार हेतु पुल। (जयो० २/१०१) । भविक (वि०) दाता, उपयोगी। भविकं (नपुं०) कल्याण, सुख, आनंद। भवितव्य (वि०) [भू+तव्यत्] घटित होने वाला, घटित होना
चाहिए। ०होनहार। भवितव्यता (स्त्री०) [भवितव्य तल्+टाप्] ०अनिवार्यता, होनी।
भाग्य, प्रारब्ध। भवितु (भू+तृच्) भावी, होने वाला। भोक्तुं गता (जयो०
१४/३, जयो० ११/२३) भवित्री देखो ऊपर। भविन् (भू+इनि) भविष्यत् (जयो० १०/११९) ०छद्मस्थ
जीव भविनां छद्मस्थानां स्थानां वरो विधिः। (जयो० २।८४) भविनः (पुं०) कवि। भविल: (पुं०) प्रेमी, लम्पट, कामी। भविष्णु (वि.) [भू+इष्णुच्] होने वाला। भविष्य (वि.) [भू+लुट्+स्य+शत] भावी, भविष्य सम्बंधी,
आगे आने वाला। भविष्यं (नपुं०) भावीकाल, उत्तरकाल। भविष्यकालः (पुं०) आगामी काल, अनागत काल। (जयो०१०
१२/७३) भविष्यज्ञानं (नपुं) आगामी काल सम्बंधी ज्ञान। भविष्यत् (वि०) [भू+लुट्+स्य+शत] आगामी काल सम्बंधी। भविष्यत्कालः (पुं०) आगामी काल, आगे बताने वाला
समय। भविष्यतीति भविष्यत्। (धक १३/२८६) भवोच्छेदक (वि०) जन्म-मरण नाशक। (जयो० २३/७५) भवोदधिः (पुं०) संसार समुद्र। (भक्ति० २) भव्य (वि०) [भू+यत्] ०श्रेष्ठ, उन्नत, उत्तम, उचित, आनन्दप्रद।
उपयुक्त, अच्छा, बदिया। मनोरंजक। (सुद० १/५) विद्यमान। पवित्र (समु० १/४) मनोहर, रमणीय, सुंदर। (जयो० १०८५) ०अनुपम, यथेष्ट, समीचीन। ०अति मनोहर। (जयो० ३/७७) उत्कृष्ट। दिव्य। (जयो०७० २/४०) सौम्य, शांत, मृदु।
भव्यः (पुं०) भव्य जीव, निकट भविष्य में मुक्ति को प्राप्त होने वाला जीव। (वीरो० १४/२९)
सम्यग्दर्शनादि भाव से जो मुक्त होंगे-'सम्यग्दर्शनादिभिर्व्यक्तिर्यस्य भविष्यतीति भव्यः' (स०सि० ८/६) महिमा
यस्य भो भव्या ललामामादूरगः। (सुद० १३६) भव्यं (नपुं०) अनागत, भविष्यत्काल।
०परिणाम, फल समृद्धि। भव्यकर (वि०) उत्तम कारण करने वाला। भव्यकार्य (वि०) यथेष्ट कार्य, उचित काम। भव्यकौमुदी (स्त्री०) सुंदरता युक्त चांदनी। भव्यगात्रं (नपुं०) सुंदर शरीर। भव्यगेहं (नपुं०) उत्तम प्रासाद, उन्नत गृह। भव्यचातकः (पुं०) श्रेष्ठ पपीहा। (समु० ५/२७) भव्यचेतस् (वि०) भक्त, गुणग्राही व्यक्ति। (जयो० २/२९)
०भव्यजन, सज्जन। भव्यजनः (पुं०) सज्जन। (भक्ति०१) भव्यजीव। भव्यजन्मन् (नपुं०) अच्छी पर्याय। ०उत्तम योनि। भव्यजातिः (स्त्री०) उत्तम जाति, श्रेष्ठ जाति। उत्तम कुल में
उत्पत्ति। भव्यतम (वि०) उत्तम से उत्तम। (सुद० २/३१) भव्यतापस् (वि०) उत्कृष्ट तपस्वी। भव्यदिवाकरः (पुं०) अरुणोदय, सूर्योदय, प्रभातकाल का सूर्य। भव्यद्रव्यं (नपुं०) उत्तम वस्तु। भव्य पयोरुहः (पुं०) सज्जन रूपी कमल। भव्यानि मनोहराणि
च तानि पयोरुहाणि (जयोवृ० १/९६) भव्यभावः (पुं०) पवित्रम, पवित्र परिणाम। (जयो०वृ० २/६७)
उचित भाव। ०सम्यक् भाव। भव्यभ्रमरः (पुं०) आनंदप्रद भ्रमर। (समु० १/४) भव्यमिलिन्दः (पुं०) हर्ष से परिपूर्ण भौरे। भव्यभ्रमर (समु०१/४) भव्यरतं (नपुं०) अनुपम रत्न। भव्यरथः (पुं०) सुंदर वाहन, अच्छा रथ। भव्यव्रतं (नपुं०) दिव्य व्रत, परमार्थ साधक व्रत। (सुद०२/३१) भव्यशरीरं (नपुं०) दिव्यतनु। (जयो०वृ० २/४०) भव्यो योग्यः,
मंगलपदार्थ ज्ञास्यति यो न तावद्विजानाति स भव्य इति
तस्य शरीरं भव्यशरीरम्। (जैन०ल० ८३९) भव्यसिद्ध (वि०) भविष्य में मुक्त होने वाला सिद्ध/मुक्त। भव्यस्पर्शः (पुं०) इच्छित स्पर्श। ०अनुपम स्पर्श। भव्यात्मन् (पुं०) भव्यजीव। (सुद० ४/३९, मुनि० १)
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भव्याम्बुजं
७७९
भागः
भव्याम्बुजं (नपुं०) भव्य कमल। (भक्ति० २१) भव्योत्तम (वि०) भव्यों में श्रेष्ठ। (वीरो० २०/२२) भष् (अक०) भौंकना, गुर्राना।
झिड़कना, डांटना, फटकारना, धमकाना। भषः (पुं०) [भेष्+अच्] श्वान, कुत्ता। भषकः (पुं०) ०श्वान, कुत्ता। भषणः (पुं०) [भष्+घञ्] कुत्ता। भषणं (नपुं०) [भष्+ल्युट्] ०भौंकना, गुर्राना।
कथन, बोलना। भस् (अक०) कहना, बोलना। (जयो० १२/२०) भसद् (पुं०) [भस्+अदि] सूर्य। दिनकर। ०बत्तख। समय। उचित काल। डोंगी।
योनि। भसन् (नपुं०) [भष्+ल्युट्] मधुमक्खी । भसन्तः (पुं०) काल, समय। भसित (वि०) [भस्+क्त] भस्म से निर्मित हुआ। भस्त्रका (स्त्री०) धौंकनी, मशक, चमड़े की थैली। भस्वा (स्त्री०) वायुसंवर्द्धिनी, धौंकनी। (जयोवृ० ११/६८) भस्थानं (नपुं०) नक्षत्रस्थान। (जयो० १५/५४) भवर्ग।
(जयो०वृ० १/३७) भस्मकं (नपुं०) [भस्मन् कन्] स्वर्ण, रजत।
०भस्मक व्याधि, जिसमें भूख की तीव्रता बनी रहती है। भस्मकरुज् (नपुं०) भस्मक व्याधि। (जयो० २/६३) भस्मकला (स्त्री०) नाशविधि। (समु० ७/३) ०चूर्ण बनाने का
पद्धति। भस्मन् (नपुं०) [भस्+मनिन्] ०राख (जयो० २/७७)
नाश, समाप्ति, क्षय। (जयो० २/११६) भस्मसात् करोति।
(जयो० ६/२९) भस्मकारः (पुं०) धोबी। भस्मकूटः (पुं०) राख समूह, राख का ढेर। भस्मगंधा (स्त्री०) राख की गंध। भस्मतूलं (नपुं०) कुहरा, हिम, वर्ष। भस्मरोगः (पुं०) भस्मक व्याधि। भस्मवस्तु (नपुं०) छिन्न-भिन्न वस्तु।
०क्षीण होने वाली वस्तु। (सुद० २/४०) भस्मवेधकः (पुं०) गन्धी, कपूर।
भस्मव्याधिः (स्त्री०) भस्मक रोग। भस्मसात् (अव्य०) [भस्मन्+साति] राख की स्थिति में। भस्मस्नानं (नपुं०) राख का लेप। भस्माधिकारी (वि०) विभूतिमान। भस्म को/राख को लपेटने
वाला। (जयो०वृ० ६/२९) भस्मीभावः (पुं०) क्षीणभाव, हीन परिणाम। (जयो०वृ० १/४६) भस्मीभूत (वि०) दग्ध। (जयोवृ०५/२५) विदग्ध (जयो०वृ०
१२/७०)
०जला हुआ। भा (अक०) चमकना, देदीप्यमान होना, ०शोभित होना,
स्वच्छ होना। (वाभौ सुशोभित जयो० ३/१०३) व्यभात्। (जयो० ३/८८) भास्यति (जयो० ३/६७) प्रतीत होना, आभास होना। (सुद० १००) सुहाना, अच्छा लगना-भाति लब्धविषय व्यवस्थिति (जयो० २/२) प्रिय लगना। भातु (सुद० १/३३) दिखाई देना, प्रकट होना।
प्रगति करना, उन्नति करना। भा (स्त्री०) [भा+अ+टाप्] ०दीप्ति-दीप्तौ च स्थानमात्रे
भा इति' विश्वलोचनः (जयो० २४/१२) प्रभा। (जयो०वृ० १/२) प्रकाश, आभा, शोभा, कान्ति। भानां शोभामान् (जयो० ११/९३) ०सौंदर्य, रमणीयता। छाया, प्रतिबिम्ब, परछाई।
नक्षत्र, तारा। भानां नक्षत्राणाम्। (जयो० ११/९३) भाक्त (वि०) [भक्त+अण्]०पराश्रित, पराधीन।
दूसरे पर आश्रित, दूसरे से भोजन प्राप्त करने वाला।
०सेवा के लिए, भोजन योग्य। भास्तिक (वि०) [भक्त+ठक्] अनुजीवी, पराश्रयी। भाक्तिकजनः (पुं०) अनुजीवी लोग, भक्ति करने वाले लोग।
(वीरो० २१/२२) भाक्ष (वि०) [भक्षा+अण्] उदर, पेट, भोजनभट्ट। भागः (पुं०) [भज्+घञ्] भाग, हिस्सा, अंश, प्रभाग, अंशदान,
(सुद०१/१३) वितरण, विभाजन, नियतन। ०भाग्य, किस्मत। किसी वृत्त की परिधि का घात या अंश।
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भागकल्पना
७८०
भाजक:
राशिचक्र का तीसवां अंश।
भाग्यचकं (नपुं०) भाग्यक्रम, प्रारब्ध का परावर्तन। ०लब्धि, कक्ष, अन्तराल।
भाग्यज्योति (स्त्री०) आनन्द ज्योति। स्थान, क्षेत्र। (सम्य० १३९)
भाग्यदायी (वि०) सौभाग्य शाली। भागकल्पना (स्त्री०) अंश विभाजन।
भाग्यदिवाकरः (पुं०) दैव सूर्य। (जयो०१० २६/४३) भागकारिणी (वि०) सौभाग्य शालिनी।
भाग्यपथं (नपुं०) आनंद मार्ग। कल्याणपथ। भागजाति (स्त्री०) भिन्न राशियों को घटाकर हर समान करना। भाग्यपूर्णः (पुं०) सौभाग्य युक्त। 'तारुण्यपूर्णामिह भाग्यपूर्णाः' भागधेयं (नपुं०) खण्ड, अंश, हिस्सा।
(वीरो०९/३१) ०भाग्य, प्रारब्ध।
भाग्यप्रतीतिः (स्त्री०) समृद्धि का आभास, अच्छाई का ज्ञान। भागभाज् (वि०) हिस्सेदार, भागीदार।
(जयो० ८८५) भागभुज् (वि०) नृप, अधिपति।
भाग्यबलः (पुं०) दैव योग। (दयो० १००) स्वामी, नायक।
भाग्ययोगः (पुं०) दैव योग, कल्याण का समागम। भागवत (वि०) पवित्र, पुष्करशील, शुद्ध।
भाग्यबल्ली (स्त्री०) भाग्य लता। (जयो० ४/४३) भागवती (स्त्री०) सौभाग्यशलिनी। (जयो० ६/७४)
भाग्यवितस्ति (स्त्री०) भाग्य विस्तार, प्रारब्ध की व्यापकता। भागशस् (अव्य०) [भाग+शस्] अंशानुसार, खण्ड रूप में। (जयो० ४/४७) भागहरः (पुं०) उत्तराधिकारी।
भाग्यविधि (स्त्री०) दैवविधान। (वीरो० ५/४) ०भाग देना।
भाग्यविप्लवः (पुं०) दुर्भाग्य, सौभाग्य हीन। भागिक (वि.) [भाग+ठन्] खण्ड से सम्बन्धित, अंश बनाने भाग्यानुकूलः (पुं०) सौभाग्यशील, भाग्यानुसार। (समु० १/३२) वाला, भिन्न संबंधी।
निज प्रयत्नेन तदेक नाम भाग्यानुकूलं द्रविणं श्रयामः। सौ में से एक भाग एक प्रतिशत।
(समु० १/३२) भागिन् (वि०) खण्ड से युक्त, अंशदान वाला, हिस्सेदार। भाग्योदयः (पुं०) शुभयोगवश। (जयो०वृ० २३/३०) (वीरो० १७/४१)
प्रारब्ध की प्रतीति। (दयो० ११५) सम्बंधित, ग्रस्त।
पुण्यपरिणाम (जयो० १/१०६) भाग्योदयाच्चकास्तीति ०भाग्यवान, सौभाग्य शाली, भाग्यशालिन्। (जयो०१२/२७) स पार्णो मे महामणिः। (जयो० १/१०६) भागिनेयः (पुं०) [भगिनी+ढक] भानजा, बहिन का पुत्र। ०भाग्यवश (सुद० ९८) भागिनेयी (स्त्री०) भानजी।
भाङ्ग (वि०) [भङ्गा+अण] पटसन से निर्मित, सन का बना भागीरथी (स्त्री०) [भागीरथ+अण+ङीप्] गंगा नदी। (जयो०१० हुआ। ९/६७)
भाङ्गकः (पुं०) जीर्ण शीर्ण वस्त्र, चिथड़ा। भाग्यं (नपुं०) [भज्+ण्यत्] ०पुण्योदय-'स्वागतमिह भवतां भाङ्गगीनं (नपुं०) [भङ्गगाया भवनं क्षेत्रं-खञ्] सन का खेत।
खलु भाग्यान्निः स्वागत-गणना अपि चाज्ञा। (जयो० भाज् (सक०) बांटना, वितरित करना। १२/१४३)
भाज् (वि०) [भाज्+क्विप्] हिस्सेदार, सहभागी, सहयोगी। प्रारब्ध, दैवयोग। (सम्य० ४३) 'भाग्येन तेनास्तु उपयोग करने वाला। समागमोऽपि' (सुद० २/२२)
० अधिकार करने वाला, प्राप्त करने वाला। ०सौभाग्य, विशेष कृपा। (सुद० ९८)
भावुक, सचेतन, अनुरक्त। समृद्धि, सम्पन्नता। (सुद० १२४)
आवासी, निवासी। आनन्द, कल्याण।
आश्रय लेने वाला, खोजने वाला। भाग्यक्रमः (पुं०) दैव गति, भाग्यचक्र।
पूजा करने वाला, स्तुति वाला। भाग्यवत (वि०) सौभाग्य को प्राप्त हुआ।
कर्तव्यशीला भाग्यगतिः (स्त्री०) प्रारब्ध की अवस्था, प्रारब्ध का परावर्तन। | भाजकः (पुं०) [भाज्+ण्वुल] बांटने वाला, विभाजक।
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भाजनं
७८१
भामण्डल:
भाजनं (नपुं०) [भाज्यतेऽनेन-भाज+ल्युट्] ०बांटना, विभाग | भाण्डारं (नपुं०) [भाण्ड+ऋ+अण्] संचयकेन्द्र, संचयन। करना, हिस्सा करना।
-भाण्डागारः (पुं०) भण्डार, (जयो०वृ० १/१७) पात्र, बर्तन, प्याला (जयो०८/३८) 'उद्भवेत् सममरिक्त भाण्डिकः (पुं०) नापित, नाई। भाजनस्तद्धि संग्रहणता गृहीशिनः। (जयो० २/१०७) भाण्डिका (स्त्री०) [भाण्डि+कन्+टाप्] ०उपकरण, यंत्र। ०थाल, स्थाली, थाली। (जयो०वृ० १५/२९)
भाण्डिनी (स्त्री०) [भाण्ड+इनि+ङीप्] ०पेटी, संदूक, आधार, आश्रय, ग्रहण।
करण्डिका, मंजूषा। योग्य पदार्थ, योग्य व्यक्ति।
टोकरी। भाजित (वि०) [भाज्+क्त] विभाजित, हिस्सा किया हुआ,
भाण्डीरः (पुं०) गूलर तरु, वटवृक्षा खण्डित किया गया।
भात (भू०क०कृ०) [भा+क्त] चमकना, देदीप्यमान होना। भाजी (स्त्री०) दलिया, भात, आधुनिक प्रचलित तरकारी,
०चमकीला, उजाला। शाक-सब्जी।
भातिः (स्त्री०) दीप्ति, प्रकाश, शोभा। (सम्य० १४०) कान्ति, भाज्य (वि०) [भाज्+ण्यत्] हिंसा, अंश, लाभांश।
सुंदरता, चमक, आभा। भाट (नपुं०) [भट्+ण्वुल्] भाड़ा, मजदूरी।
प्रत्यक्षज्ञान, ज्ञान, आभास, प्रतीति। भाटकं (नपुं०) भाड़ा, मजदूरी।
भातुः (पुं०) दिनकर, सूर्य। भाटकजीविका (स्त्री०) भाड़े से आजीविका करना, बैल,
भादः (पुं०) चांद्र वर्ष का एक नाम।
भाद्रपदः (पुं०) देखो ऊपर। ऊंट, भैंसा आदि को भाड़े पर चलाकर आजीविका
भानं (नपुं०) [भा भावे ल्युट्] ०आभास, ज्ञान, प्रतीति। करना।
प्रकट होना। भाटिः (स्त्री०) [भट्+णिच्+इञ्] भाड़ा, मजदूरी।
०दृश्यमान। भाटीकर्मन् (नपुं०) भाड़े से आजीविका करना। किराए पर
प्रकाश, चमक, दीप्ति, कान्ति, प्रभा। घोड़ा, बैल आदि चलाकर आजीविका करना।
भानित (भू०क०कृ०) [भा+क्त] सुशोभित, प्रकाशित, भाट्ट (वि०) भट्टमत का अनुयायी। कुमारिल भट्ट द्वारा
देदीप्यमान, आभावान्। (जयो० १७/१२१) प्रतिपादित मीमांसादर्शन का अनुयायी।
भानुः (पुं०) [भा+नु] दिवाकर, सूर्य। सुद २/३३, (सुद० भाण: (पुं०) [भण्+घञ्] नाटक का पात्र।
१३७) दीप्ति का अनु। भाणकः (पुं०) उद्घोषक, वाचक।
प्रकाश, चमक, आभा, कान्ति, प्रभा। भाण्डं (नपुं०) [भाण्ड्+अच्] ०पात्र, बर्तन, बासन, थाल।
भानुकेशरः (पुं०) दिनकर, सूर्य। संदूक, पेटी।
भानुजः (०) शनिग्रह। ०यंत्र।
भानुदिनं (नपुं०) रविवार, सूर्यवार। संगीत उपकरण।
भानुभानित (वि०) सूर्य से अलंकृत। भया शोभयानुभानितां सामान, वस्तुएं, मांस।
यद्वा भानुना भानितामलकृता।। (जयो० १७/१२१) सम्पत्ति, निधि धन-धान्य।
भानुभास्वरः (पुं०) सूर्यप्रभा। भानु सदा नूतन एव भासि ०भण्डार, संचयकेन्द्र, संचयशाला।
कोकस्य हर्षोऽपि भवेद्विकाशी। (जयो० १९/१४, २०) भाण्डपतिः (पुं०) सौदागर। वस्त्र आदि का व्यापारी। भानुमत् (वि०) [भानु+मतुप्] ०सुंदर, मनोहर, रमणीक। भाण्डपुरः (पुं०) नाई।
ज्योतिर्मान्, चमकीला, प्रभावान्।। भाण्डप्रतिभाण्डकं (नपुं०) विनिमय, क्रय-विक्रय, भानुश्रित (वि०) सूर्यगत। (जयो० १/३७) आयात-निर्यात।
भान्त (वि०) शोभायमान। 'भकारोऽन्ते वर्तते यत्र तं भान्तम्।' भाण्डभरकः (पुं०) बर्तन की वस्तु, पात्र में रखी गई वस्तु। (जयोवृ० १७/११६) भाण्डमूल्यं (नपुं०) बर्तन की कीमत।
भामण्डलः (पुं०) नाम विशेष। भाण्डशाला (स्त्री०) भाण्डागार, भण्डार, संचयकेंद्र।
शोभा युक्त चक्र। (जयो० २६/६६)
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भामिनी
७८२
भावः
भामिनी (स्त्री०) [भाम्+णिनि+ङीप्] ०तरुणी, कामिनी। (समु०
५/१८)
०प्यारी, प्रेमिका। (दयो० ३३) भाय (वि०) भय युक्त। (सुद० ७२) भारः (पुं०) [भृ+घञ्] बोझ, तोल, बजन।
पिटारी। (समु० ३/४४) ० श्रम, परिश्रम, मेहनत। भारो य तुला वीसं (जैन०ल० ६४१)
दश घटिकाओं का एक भार-माप। भारण्डः (पुं०) भारण्ड नामक पक्षी। भारत (वि०) [भरत+अण्] भरत से सम्बन्धित। भारतः (पुं०) भारतवर्ष। (वीरो० २/६) भारतदेश: (पुं०) भारतवर्ष। (जयो० १८४८१) भारतप्रान्तगत (वि०) हिमालय पर्वत पर्यन्त। (जयो० १७/४०) भारतवर्षान्तर्गत (वि०) भारत वर्ष के आधीन। (दयो०३) भारतकूपः (पुं०) राजा, नृप। (जयो० ७/७२) भारती (स्त्री०) वाणी, सरस्वती, वागपि। (जयो० ७/७८)
भरतभूमिपतेरपि भारती सपदि दूतवराय तरामिति। (जयो० ९/७८) भारती स्वयमसारतीरया शर्करेव तर्करेखया (जयो० ७/६२) वाग्देवी। (जयो० ६/५०) बुद्धिदेवी। (जयो०वृ० ६/५०) अभिमुखयन्ती सुदशं ततान सा भारती रतीन्द्रवरे।
वसुधा-सुधानिधाने मधुरां पदबन्धुरां तु नरे। (जयो० ६/५०) भारतोक्त (वि०) भरत द्वारा कथित। (जयो० १८/५७) भारद्वाजः (पुं०) एक ऋषि, कौरव-पाण्डव के गुरु द्रोण।
अगस्त्य ऋषि।
मंगलग्रह। चातकपक्षी। भारयष्टिः (स्त्री०) बोझ उठाने की लकड़ी। भारवः (पुं०) [भारं वाति-वा+क] धनुष की डोरी। भारवाह (वि०) बोझा ढोने वाला। (मुनि०१३) भारवाहनः (पुं०) भारवाहक पशु। भारवाहिकः (पुं०) कुली। भारवाहिन् (पुं०) बोझा ढोने वाला कुली। (जयो० १/२९) भारहटः (पुं०) कुली। भाराक्रान्त (वि०) बोझ से दबा हुआ। भारोत्थापनं (नपुं०) समुद्धरण। (जयो० २/११५) भारोद्ववहन् (वि.) संधारण, बोझ। (जयो० १३/८३)
भार्गवः (वि०) [भृगोरपत्यम्] ०शुक्राचार्य।
परशुराम। भार्य (पुं०) पराश्रयी, सेवक, भृत्य। भार्या (स्त्री०) [भर्तृ-योग्या-भार्य टाप्] धर्मपत्नी। (सुद०१/४०)
कलत्र, (जयो० २७/४३, दयो० २/१०) भ्रियते पोश्यते भर्चेति भार्या। पतिपरायणा।
पतिव्रता स्त्री। भार्यारू (स्त्री०) एक प्रकार का मूंग। भालं (नपुं०) [भा लच्] ललाट, मस्तक। (जयो० १/७६),
(सुद० १/१३१) ०ललाटदेश। (जयो० १२/१४०) भां लाति-भाल। (जयो० १/५५)
ऊपर। (जयो० १/५५) ०प्रकाशा
०अंधकार। भालचन्द्रः (पुं०) शिव। महेश्वर। भालदर्शनं (नपुं०) सिंदूर। भालदर्शिन् (वि०) ललाट दर्शक। भालपट्टः (पुं०) ललाट, मस्तक। भालम् (सक०) देखना, अवलोकन करना। (सुद० १०५) भालुः (पुं०) [भृ+उण् रस्य ल] अर्क, सूर्य। भालुकः (वि०) [भलने हिनस्ति प्राणिनः भत्त्+उक्+अण]
भालू, रीछ। भावः (पुं०) [भू-भावे घञ्] ०परिणाम। (सम्य० १३१)
स्थिति, अवस्था। (जयो० ११/१०) रीति, परम्परा, ढंग। ०सहजगुण, स्वाभाविक गुण (सम्य० १३७)
अभिप्राय। (जयोवृ० १/१५) मत, भावना, वृत्ति। (जयो० २/९९) मनोभाव। प्रकृति, स्वभाव। यथार्थ दशा, अभिप्राय, प्रयोजन, सारांश, आशय। तात्पर्य, अर्थ, प्रस्ताव, संकल्प। ०हृदय, आत्मा, मन (सम्य० ८६) 'भावः आत्मनो भवन परिणामविशेषः' ०जीव परिणति, विवक्षितक्रिया।
चारित्रादि परिणाम। ०जीवस्याध्यवसायः
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भावक
७८३
भावमनस्
भावक (वि०) [भू+णिच्+ण्वुल]०उत्पादक, प्रकाशक।
० उत्प्रेक्षक, कल्पना करने वाला। उदात्त भावना युक्त।
कल्याण करने वाला। भावकः (पुं०) भावना, मनोभाव। भावकरणं (नपुं०) उपयोग सहित कर्म होना। भावकलङ्कः (पुं०) संक्लेश ग्रहण। भावकलङ्कः संक्लेशः, तं
लाति आदत्त इति भाव कलङ्कः। (धव० ११/२३४) भावकायः (पुं०) शरीर सम्बद्ध भाव। भावकायोत्सर्गः (पुं०) अतिचारों की शुद्धि के लिए कायोत्सर्ग
करना। भावकालः (पुं०) औपशमिकादि परिणाम की स्थिति। भावक्रीतः (पुं०) विद्या, मंत्रादि का स्थान बनाना। भावक्षपणा (स्त्री०) भावाध्ययन। भावग्रामः (पुं०) चारित्रादि के उत्पत्ति के कारण। भावचतुष्क (वि०) प्रथम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिय
(सम्य० १९) भावचरणं (नपुं०) गुणों का आचरण। भावचारित्रं (नपुं०) सम्यक् चारित्र का परिणाम। भावजिनः (पुं०) जिनपर्याय परिणत जिनम।
समवरण स्थित जिन। भावजीवः (पुं०) उपयोग स्वभावी जीव। भावज्ञानं (नपुं०) सम्यग्ज्ञान। भावतपः (पुं०) आत्म स्वरूप की एकाग्रता। भावतीर्थः (पुं०) ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र की प्रधानतः वाला
तीर्थ। भावन (वि०) भावना (समु० १/२३, उत्पादक)। भावननामदेवः (पुं०) भवनवासी देव। (वीरो० १३/१२) भावना (स्त्री०) अनुप्रेक्षा, बारंबार चिन्तन। (सुद० १/१९) (जयो० ३/१८) ध्यानाभ्यास कियेत्यर्थः। ध्यान के अभ्यास की क्रिया। मनोवृत्ति (जयो० २/७५) ०मनोज्ञविचारसर्वे सन्तु निरामयी: सुखयुजः सर्वेऽघविध्वंसिनः, विद्वांसोऽप्यखिला भवन्तु सुतरामन्योऽन्यमाशंसिनः। न स्यात्कोपि कदापि दुःखिततयाऽऽ क्रान्तस्तथात्मभरीरित्येवं मनसः क्षमा समनसः स्याद् भावना सुंदरी।। (मुनि० पृ० १६)
निष्ठा, भक्ति, आराधना। ०श्रद्धा, विचारणा, संभावना। ०कल्पना, उत्प्रेक्षा, धारणा। ०स्मरण करना, चिंतन करना।
निर्धारण, निश्चयन। भावनायोगः (पुं०) अनित्य, अशरण आदि का अनुभव। भावनाल (वि०) भाव प्रकट करने वाला। (सुद० २/४८) भावनान्तरं (नपुं०) भिन्न स्थिति। भावनार्थः (पुं०) स्पष्ट अर्थ। भावनिक्षेपः (पुं०) वर्तमान विवक्षित पर्याय से उपलक्षित द्रव्य। भावनिर्जरा (स्त्री०) कर्मत्व पर्याय का विनाश। भावपक्वं (नपुं०) मूल और उत्तर गुण का परिपाक। भावपरिक्षेपः (पुं०) सार तत्त्व का छोड़ना। भावपरिणामः (पुं०) जीवादि परिणाम। औपशमिक आदिभाव। भावपरिवर्तनं (नपुं०) मूल और उत्तर प्रकृति में परिवर्तन। भावपापं (नपुं०) अशुभपरिणाम। मित्यात्व-रागादि परिणाम। भावपुण्यं (नपुं०) शुभ परिणाम। भावपुरुषः (पुं०) भावद्वारकी प्ररूपणा वाला व्यक्ति। भावपुलाकः (पुं०) मूल और उत्तर गुण के पद में निःसारता
धारण करने वाला। भावपूजा (स्त्री०) गुणों का स्मरण। भावपूति (स्त्री०) निरतिचार चारित्र का पालन। भावप्रमाणः (पुं०) साकार और अनाकार उपयोग होना। भावप्राणः (पुं०) चैतन्य परिणाम। भावबंधक (वि०) बांधने वाला।
राग-द्वेष आदि का बंधना। 'राग-द्वेषादिरूपो भावबन्ध' (कार्ति० टी० २०६) रागात्मा भावबन्धः।
आत्मगत बन्ध, निदान। 'हन्ताऽस्मि रेत्वामिति भाव
बन्धमथो' (वीरो० ११/१६) भावबोधक (वि०) आत्मभाव को प्रकट करने वाला। भावभङ्गिन् (वि०) भावना जन्य। (जयो० २/९९) भावभावय (स्त्री०) भावधारण करने वाला (सुद० १२२) भावभाषा (स्त्री०) अभिप्राय जन्य भाषा। भावमङ्गलं (नपुं०) ज्ञान स्वरूप मंगल। भावमतिः (स्त्री०) आत्मगत बुद्धि। भावमिश्रः (पुं०) सज्जन पुरुष। भावमनस् (नपुं०) मनन करने वाला मन, आत्म विशुद्धि से
युक्त मन।
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भावमय
७८४
भाषा
भावमय (वि०) भाव सहित। (सम्य० १४०) भावमोक्षः (पुं०) समस्त कर्मों का क्षय होना। भावमोहः (पुं०) मोह कर्म का उदय होना। भावयुति (स्त्री०) क्रोधादि का योग होना। भावयोगः (पुं०) कर्म-नोकर्म रूप परिणमन। भावलिङ्गं (नपुं०) ज्ञान, दर्शन और चारित्र धर्म के पालक
मुनिजना भावलिङ्गी (वि०) आत्म स्वरूप में स्थित रहने वाला। भावलेश्या (स्त्री०) कषायानुरंजित योग। भावलोकः (पुं०) तीव्र राग-द्वेषादि की उत्पत्ति स्वरूप स्थान। भाववधः (पुं०) जीव की शंका से अजीव का घात। भाववर्तनं (नपुं०) गुणतन्तुओं का प्रवर्तन। (जयो० ४/२४) भाववाक् (नपुं०) जीव द्वारा गृहीत शब्द परिणाम। भावविशुद्धिः (स्त्री०) निष्कल्मषता, अन्त:करण की निर्मलता,
आत्मविशुद्धि, स्वभाव को पवित्रता। भाववेदः (पुं०) मोहनीय कर्म रूप परिणाम वाला वेद। भावशस्त्रं (नपुं०) असंयम रूप शस्त्र, दूषित प्रवृत्ति, दुष्प्रणिधान। भावशुद्धि (स्त्री०) भावों की शुद्धता, ०आत्मगत निर्मल
परिणाम। भावश्रमणः (पुं०) चारित्र धारक महाव्रती साधु। भावश्रुतं (नपुं०) क्षयोपशमलब्धि शुद्ध आत्मानुभव रूप श्रुत।
(सम्य० १३१) भावसत्यं (नपुं०) आत्मगत सत्य, परमार्थ सत्य। भावसमाधिः (स्त्री०) ज्ञानादि रूप समाधि। भावसमाहिता (वि०) भाव मनस्क। भावसर्गः (पुं०) मानसिक वृत्तियों का प्रभाव। भावसाधु (पुं०) संयत साधु। 'भावे विचार्यमाणे साधु संयतः। भावसामायिकः (पुं०) आत्म प्रवेशक समभाव। भावसेवा (स्त्री०) दर्पादि से युक्त सेवा। भावस्तवं (वि.) आत्मस्थ भाव वाला। भावस्नानं (नपुं०) ध्यान रूप स्नान। भावागमः (पुं०) यथार्थ बोध कारक आगम। भावाग्निः (स्त्री०) भाव को दग्ध करने वाली अग्नि। भावानुयोगः (पुं०) औदयिक आदि भावों का कथन/व्याख्यान। भावाभिग्रहः (पुं०) भाव युक्त अभिग्रह/नियम। भावासवः (पुं०) मित्थात्वादि कर्म रूप पुद्गलों का आना। भाविक (वि.) प्राकृतिक, वास्तविक, स्वाभाविक, अन्तर्जात। भावित (भू०क०कृ०) [भू+णिच्+क्त] ०उत्पादित, प्रदर्शित,
निदर्शिता
चिन्तित, मथित। मनन किया गया, चिन्तन किया गया।
०स्थापित, सिद्ध, भरा हुआ, व्याप्त। भावित्रं (नपुं०) तीन लोक। भाविन् (वि०) [भू+अनि+णिच्] घटित होने वाला, आगामी
काल सम्बंधी, अनागत। (सम्य०८)
उत्कृष्ट, भव्य, उचित। भाविनि (वि०) भविष्य में होने वाली। (सुद० ४/१६) भाविवस्तु (नपुं०) भविष्यत् काल का दर्शन, ०अनागत वस्तु। भाविशोभावनं (नपुं०) भविष्यच्छी परिरक्षण। (जयो० ३/७१) भाविसिद्ध (वि०) भविष्य में सिद्ध होने वाला। भावीष्ट (वि०) अनागत इष्ट। (मुनि० २१) भावैकनाथः (पुं०) लोकत्रयनाथ। भावानां प्राणिनां विभूतीनां
वा, एकोऽद्वितीयश्चासौ नाथः (जयो०वृ० १/३७) भावैकान्तः (पुं०) विवक्षित वस्तु 'सत्' ही है, ऐसा कथन।
केवल सत्ता को ही स्वीकार करता। भावोज्झित (वि०) भाव से त्याग करने वाला। भावोत्थ (वि०) भाव से उत्पन्न। (सम्य० ९४) भावोद्योतः (पुं०) लोक-अलोक को प्रकाशित करने वाला
ज्ञान। भावोपक्रमः (पुं०) दूसरे के हृदयगत अभिप्राय का यथार्थ ज्ञान। भाव्य (वि०) [भू+उकञ्] ०घटित होने वाला, होने वाला। ०समृद्ध, प्रसन्न।
शुभ, मंगलप्रद। भाव्यं (नपुं०) प्रारब्ध, अवश्यंभावी। भाष् (अक०) कहना, बोलना, (भाण) (सुद० ११०) पुकारना,
उच्चारण करना। (सुद० ८४)
घोषणा करना, उद्बोधन देना। ०भाषण देना, उपदेश देना।
०समाचार देना, संदेश पहुंचाना। भाषक (वि०) भाषालब्धि से युक्त। 'भाषालब्धिसम्पन्नाः
भाषकाः' (जै०ल०८६१) भाषणं (नपुं०) [भाष्+ल्युट्] ०बोलना, कहना, समझाना।
कथन, प्रवचन, निरूपण। भाषणपटुता (वि०) वाग्मित, वचन की चतुराई। (जयो०
३/२९) भाषा (स्त्री०) [भाष्+अ+टाप्] ०बोली, वाक्वचन, वाणी,
भारती।
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भाषागत
७८५
भासुरः
स्पष्ट वचन, उच्चरित वचन।
भाष्यत्य (वि०) विवेचन करने वाला, कहने वाला। 'भाष्यत इति भाषा' (जैन०ल० ८६१)
भाष्यावली (स्त्री०) वक्ष्यमाण पंक्तियां, कही जाने वाली ०परिभाषा, वर्णन, कथन, विवेचन।
पंक्तियां। व्याख्यात्मक पंक्तियां। 'भाष्यस्थ-भाषणार्हस्य बात, वार्ता, वक्तृता।
आवली पङ्क्ति यद्वा प्रकृतविषयस्य स्पष्टीकरणाद् भाषागत (वि०) कथन रूप को प्राप्त।
भाष्यावलीति। (जयो०७० ३/२९) भाषादव्यवर्गणा (स्त्री०) भाषा की उत्पत्ति का कारण। भास् (अक०) चमकना, जगमगाना। स्पष्ट होना, विशद भाषापर्याप्तिः (स्त्री०) भाषा के योग्य ग्रहण-वाग्योग्यता। होना। निश्चय होना। चतुर्विध भाषा रूप परिणमन।
प्रकाशित होना, प्रकट होना।
कहना-वोचितं भासते यतः (हित०सं० १३) ०भाषा योग्य पुद्गलों का ग्रहण।
भास् (स्त्री०) [भास+क्विप] ०प्रकाश, कान्ति, चमक। भाषायः (पुं०) शिष्ट भाषा के प्रयोक्ता, पांच प्रकार के आर्यों
०प्रतिबिम्ब, परछाई, छाया। की शिष्ट भाषा।
०प्रतिमा, मूर्ति, आकृति, पुतला। भाषासमितिः (स्त्री०) हितकर वचन व्यवहार।
महिमा, कीर्ति, यश, विभूति, प्रभास। (वीरो० २/२१) मुनिस्तु मौनं मनुतेऽअनोनं क्वचिद्धितार्थं स्वमुखादघोनम्।
०लालसा, इच्छा। निस्सारयेद्रत्नमिवातियत्नपुरस्सरं प्रत्यपदं विनूनम्।।
भासः (पुं०) [भास् भावे घञ्] ०चमक, प्रभा, कान्ति। कपोलकल्पित कल्पनाओं से रहित वचन व्यवहार।
गोष्ठ, गोशाला।
उत्प्रेक्षा। (जयो०वृ० २७/३०)
०मुर्गा। ०जीवों पर आत्मा समानता को प्रकट करने वाली वाणी।
गिद्ध। ०परस्पर अभेद एकत्व को स्थापित करने वाली वाणी।
०भासकवि, विविध नाटक रचनाकार। सबके उपकार को करने वाली वाणी। (मुनि०८)
भासक (वि०) प्रकाश करने वाला, चमकाने वाला। हितकर, संदेह रहित।
स्पष्ट करने वाला। परिमित सूचक वचन।
०बोध कराने वाला। निरवद्यवचनप्रवृत्ति।
भासनं (नपुं०) [भास्+ल्युट्] चमकना, जगमगाना, प्रकाशित भाषिका (स्त्री०) [भाषा+कन्+टाप] ०बोली, भाषा, वचन
होना। व्यवहार।
०द्युतिमान, कान्तिमान। वक्तृता। ०वचन शक्ति।
भासन्त (भास्+शतृ) चमकने वाला, देदीप्यमान होने वाला। भाषित (भू०क०कृ०) [भाष्+क्त] कथित, कहा हुआ।
सुंदर, रमणीय। (सुद० ११३)
भासंतः (पुं०) सूर्य, दिनकर, रवि। उच्चरित, उच्चारण किया हुआ।
०चन्द्र। भाष्यं (नपुं०) विवेचन, व्याख्या, विस्तृत निरूपण, सूत्रार्थ की
नक्षत्र। सम्यक् विवेचना, स्पष्टीकरण। (जयो० ३/६७)
०तारा। शब्द, वर्ण, पद और आकार से प्रतिपादित किया जाने भासहित (वि०) कान्ति युत, तेजस्वी। (जयो० १/६९) वाला विवेचन।
भासुः (पुं०) [भास्+उरच्] चमकीला, प्रकाशवान्, द्युतिवंत। ०शब्दशः टिप्पण, बृहदीकरण। (जयो०७० ३/६७)
प्रभावान्। विशेष भावाभिव्यक्ति।
दिव्य, भव्यं। ०प्रभामण्डल। (जयो० १/५५)
०भयानका भाष्यकरः (वि०) व्याख्याकार, विवेचनकार, विस्तृत वृत्तिकार। | भासुरः (पुं०) ०नायक। ०अभिनेता, प्रमुख पात्र। भाष्यकार: देखो ऊपर।
स्फटिक।
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भासुर-कपोल:
७८६
भिद
भासुर-कपोलः (पुं०) देदीप्यमान गण्डप्रदेश। (जयो०
१८/१०३) भास्करः (पुं०) [भा इव भाः प्रज्ञा तत्कारकः] जयो० १/९६)
सूर्य, रवि, दिनकर, (जयो० ११/७०) जगति भास्कर एष नरर्षभो भवति भव्यपयोरुहवल्लभः। (जयो० १/६९)
'भवभयहरजिनभास्करतः' (सुद० ५/१) भास्कराख्यसुरः (पुं०) भास्कर नामक देव, देवविमान।
(समु०५/१४) भास्मन् (वि०) [भस्मन्+अण] राख से निर्मित। भास्वत् (वि०) तेजस्विन्, चमकदार, देदीप्यमान। भास्वतः (पुं०) सूर्य, रवि। भास्वतः समुदयप्रकाशिनः
क्षौद्रलेशपरिमुग्विकाशिनः। (जयो० ३/१३)
प्रभाः कान्ति, आभा। (दयो० १/१३) भास्वदङ्गता (वि०) द्वादशांग वाणी से युक्त।
सुंदर अंगों से परिपूर्ण। देवदत्ता सुवाणीं सुवित् सेवय, चतुराख्यानेष्वभ्यनु यौकत्री भास्वदङ्गतामिह भावय।। (सुद०
१२२) भास्वन्तः (पुं०) रवि, सूर्य। भास्वन्तं भुवि वेशश्चायं ज्येष्ठो
जडतापकरणाय। (जयो० २२/१७) । भास्वर (वि०) [भास्+वरच्] देदीप्यमान, चमकदार, द्युतिवंत,
कान्तिमान, सुषमावान्। (जयो०वृ० १/५५) भास्वर (पुं०) दिनकर, रवि, सूर्य।
दिन। भास्वरत्व (वि०) सूर्यखण्डप्रवृति, देदीप्यमान होने वाला। भास्वान् (वि०) सुषमावान्। भास्वान् पवित्राणि रहःकृतानि
(जयो०वृ० १७/२) सूर्य, रवि, दिनकर। (जयो०वृ० १७/२) 'भास्वानासनमापाद्या
थोदयादिमिवोन्नतम्।' (सुद०७८) भिक्षु (सक०) ०पूंछना, प्रार्थना करना।
याचना करना, मांगना। भिक्षणं (नपुं०) [भिक्ष ल्युट्] भिक्षा मांगना, भिक्षावृत्ति,
याचनाभाव। भिक्षा (स्त्री०) [भिश्+अ+टाप] ०याचना, मांगना, प्रार्थना
करना। (सुद० ११७)
सेवा, पारश्रमिक। (दयो० ४२) भिक्षाकः (पुं०) [भिक्ष्क्षाकन्] भिक्षुक, भिखारी, साधु। भिक्षाटनं (नपुं०) भीख मांगते हुए घूमना। भिक्षा के लिए
घूमना। भिक्षानिमित्तं (नपुं०) भिक्षाचर्या के कारण। (दयो० ४५)
भिक्षान्न (वि०) भीख में मांगा गया अन्न। भिक्षायनं (नपुं०) भिक्षाटन। भिक्षार्थिन् (वि०) भीख मांगने वाला। भिक्षार्थिन् (पुं०) भिखारी, याचक, भिक्षुक। भिक्षार्ह (वि०) भिक्षा का पात्र, दान योग्य। भिक्षासाधन (नपुं०) भिक्षा का साधन। (समु० ९/१२१) भिक्षावृत्तिः (स्त्री०) भीख से आजीविका। व्याचक भाव। भिक्षासिद्वान्तं (नपुं०) भिक्षा चर्या का पालन। (जयो०७/३२) भिक्षित (भू०क०कृ०) [भिक्ष्+क्त] मांगा गया, याचित। भिक्षः (पुं०) भिखारी, याचक। (दयो० १६) ०, साधु, भिक्षणशीला, संयत, साधन, परित्यागी।
आरम्भपरित्यागधर्मी। ०संयम से उद्यत, संयम परिपालन में प्रवीण। ०अष्टप्रकार के क्षुधा कर्म को भेदने वाला। 'भिनत्ति
वाऽष्टप्रकारं कर्मेति भिक्षुः' (जैन०ल० ८६५) भिक्षुचर्या (स्त्री०) भिक्षा मांगना, साधक चर्या, श्रमण चर्या। भिक्षुनिमित्त (वि०) साधक के प्रयोजनार्थ। (जयो० १८) भिक्षुसङ्घः (पुं०) साधक समूह, श्रमण संघ। भिज्ञ (वि०) जानने वाला। (सम्य० ३२) ०प्रज्ञ, ज्ञ। भित्तं (नपुं०) [भिद्+क्त]०खण्ड, भाग, हिस्सा, अंश।
दीवार, विभाजक रेखा। भित्तिः (स्त्री०) दीवार, विभाजन रेखा। ०खण्ड, अंश, भाग,
हिस्सा।
०लव, दरार, तरड। भित्तिकर्मन् (नपुं०) दीवार पर की जाने वाली क्रिया, रंगक्रिया,
भित्तिचित्रक्रिया। भित्तिका (स्त्री०) [भिद्+क्तिन+टाप] ०दीवार, विभाजन।
(जयो० ३/४०) भिद् (सक०) बांटना, रेखांकित करना, विभाजित करना।
विदीर्ण करना। भिनत्ति-विदारमति (जयो० ९/३३)
भेदना (समु० १/५) समस्तु दुर्दैवभिदेकृपाणी। (समु० १/३)
तोड़ना, फाड़ना, छिद्र करना। (जयो० २४/१९) ०खोदना, उखाड़ना, टुकड़े करना। ०बांटना, पृथक्-पृथक् करना। जलेऽब्जिपत्रवदत्र भिन्नः इष्टेऽप्यनिष्टेऽपि न जातु खिन्नः। (वीरो० १४/४०) उल्लंघन करना, अतिक्रमण करना।
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भिदकः
७८७
भिषज्जितं
भंग करना, तोड़ डालना। ०हटाना, दूर करना। विघ्न डालना, रूकावट करना। ०बदलना, परिवर्तन करना। खिलाना, फुलाना, फैलाना। ०खोलना, वियुक्त करना, विभाजित करना।
नष्ट करना (सम्य० ४१) भिदकः (पुं०) असि, तलवार। भिदकं (नपुं०) वज्र, हीर कणी। भिदा (स्त्री०) [भिद्+अ+टाप्] ०तोड़ना, भेदना, फाड़ना।
विदीर्ण करना, फैलाना।
अन्तर, वियोग। ०प्रकार, जाति।
भेदभाव, भिन्नता (जयो० ९/४७) (जयो०८/३) भिदिः (स्त्री०) वज्र, हीरा। भिदुर (वि०) [भिद्+उरच्] तोड़ने वाला, भेदने वाला।
मिला हुआ, संश्लिष्ट। भिद्यः (पुं०) [भिद्+क्यप्] प्रवाह शील नदी। भिडं (नपुं०) [भिद्+टक्] वज्र, हीरा। भिन्दपालः (पुं०) छोटा भाला, गोफिया। भिन्न (भू०क०कृ०) [भिद्+क्त] ०विर्दीर्ण, विदारित।
(जयो०८/३०) विच्छिन्न, पृथक् किया गया। (सुद० १०३) टूटा हुआ, फूटा हुआ, खण्डित हुआ, दरार युक्त हुआ तरड़गत। ०खुला हुआ, फैला हुआ।
अलग, इतर, पृथक्। । विविध रूप वाला, नाना प्रकार का।
विचलित, परिवर्तित। भिन्नः (पुं०) दोष, खोट। भिन्नं (नपुं०) अंश, भाग, हिस्सा।
भिन्न राशि। भिन्नकरटः (पुं०) मदोन्मत्त हाथी। भिन्नकूट (वि०) नेत्रहीन। भिनक्रम (वि०) क्रमहीन, क्रमरहित। भिन्नगति (स्त्री०) पृथक् चाल, इधर-उधर की गति। भिन्नगर्भ (वि०) अव्यवस्थित। भिन्नगुणनं (नपुं०) भिन्न-भिन्न राशियों का गुणा।
भिन्नघनः (पुं०) भिन्न राशि का घात, भिनघनफल। भिन्नदर्शिन् (वि०) अंतर देखने वाला आंशिक। भिन्नदृष्टि (वि०) पृथक्-पृथक् भेद। भिन्न-भिन्न रुचिः (स्त्री०) वितर्क। (जयो० ४/२८) भिन्न-मतानुयामी (स्त्री०) भिन्न मत वाले। (सम्य० ८२) भिन्नमर्मन् (वि०) आहत, घायल। भिन्नमर्याद् (वि०) निरादर युक्त, मर्यादा रहित।
असंयत, अनियंत्रित। भिन्नरूचिः (स्त्री०) अलग रुचि रखने वाला। भिन्नलिङ्गं (नपुं०) वचन असंगति, वचन दोष। भिनरचना (स्त्री०) रचना में लिंग दोष, काव्यगत दोष। भिन्नवर्चस् (वि०) मलोत्सर्ग करने वाला। भिन्नवृत्त (वि.) परित्यक्त, जीवन के प्रति निराशा रखने वाला। भिन्नसंहति (स्त्री०) विघटित। भिन्नस्वर (वि०) बेसुरा, बदली हुई आवाज वाला। भिन्नहृदय (वि०) हृदयाघात युक्त, विदीर्ण हृदय वाला। भिरिटिका (स्त्री०) श्वेतगुंजा, सफेद घुघुची, एक प्रकार का
पौधा। भिल्लः (पुं०) [भिल+लक्] भील, एक आदिवासी जाति।
(वीरो० ११/२१) (सुद० ४/१७) स आह भो भव्य!
पुरूरवाङ्ग। (वीरो० ११/२१) भिल्लतनया (स्त्री०) भील की पुत्री। (जयो० २१/४९) भीलनी
(मुनि० १३) (सुद० ४/२८) भिल्लतम (पुं०) लोध्रवृक्षा। भिल्लनी/भिल्लिनी (स्त्री०) भीलनी, आदिवासी स्त्री। भिल्लभूषणं (नपुं०) धुंघची का पौधा। भिल्लाङ्गज (वि०) भील जाति में उत्पन्न-भिल्लाङ्गजश्चेत
सगभूत्कृतज्ञः गुरोऋणीत्थं विचरेदपिज्ञः। (वीरो० १७/३१) भिल्लोटः (पुं०) [भिल्ल प्रियं उटं पत्रं यस्य] लोध्रवृक्षा भिष (वि०) पीड़ित हुआ। (सुद०७४) भिषग (पुं०) वैद्य-'भिषगायुर्वेद विद्वैधः शस्त्रकर्मविच्चा (जैन०ल०
८/६६) भिषग्वरः (पुं०) श्रेष्ठ वैद्य। (समु० ४/१२) भिषग्वृत्तिः (स्त्री०) हीन आजीविका। भिषज् (पुं०) [बिभेत्यस्मात् रोगः भी+षुक्-हस्वश्च] वैद्य,
चिकित्सक। (दयो० ६४) भिषज्जितं (नपुं०) औषधी, दवा। निदान। भिस्सा (स्त्री०) [भस्+स, टाप्] उबाले गए चावल, भात।
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भिस्सा
७८८
भुक्त
भी (अक०) डरना, भय खाना, भयभीत होना। (सम्य० १५) भी (स्त्री०) डर, भय। भियः (सुद० २/२७) भयभीत। __०लोकनिन्दा जन्य भयः (जयो० १/६७)
आतंक, संत्रास, त्रास। भीत (भू०क०कृ०) [भी+क्त] आतंकित, डरा हुआ, त्रस्त। ।
०कातर, नायर। (जयो०वृ० १३/५१)
०भय। (वीरो० २/३४) भीत (वि०) अत्यन्त डरा हुआ। भीतकार (वि०) [भीतं कृ+अण्] डराने वाला, धमकाने
वाला, आतंकित करने वाला। भीतङ्कार (अव्य०) किसी को कायर के नाम से पुकारना। भीतिः (स्त्री०) [भी+क्तिन्] डर, भय। (जयो० २३/७३)
(दा० ३५) त्रास, आतंक।
कंपकंपी, थरथराहट। भीतिकरी (वि०) भयङ्कर, भय जन्य, भयंकर दुःखदायिनी
(जयो०वृ० २/५९) भीतिदात्री (वि०) आतंककारिणी, भयदायिनी। (भक्ति० २५) भीतिमय (वि०) भय युक्त, आतंक शील। (मुनि० ३) गर्ने
भीतिमये कदापि न पतेद्धास्य पिशाचं व्रजेत्। (मुनि०३) भीभावः (पुं०) संत्रस्परिणति। भयावह परिणाम। भीषण
भाव। (जयो० ६/५९) भीमः (पुं०) पाण्डुपुत्र भीम। (जयो० १/१८)
भीम नामक केवली, एक जैन मुनिराज-स्वर्गीये योऽसौ,
भवोच्छेदकः। (जयो० २३७) भीम (वि०) भयङ्कर रूप, भयानक, आतंकजन्य, भयावह,
डरावना, भीषण। (जयो०वृ० १/१८) भीमकर्मन् (वि०) भयंकर कर्म करने वाला। भीमनाद (वि०) घोर गर्जना वाला, उच्च स्वर वाला। भीमनादः (पुं०) सिंह। भीमपराक्रम (वि०) अत्यंत पराक्रमी, घोर पराक्रमी। भीमरं (नपुं०) युद्ध, लड़ाई। भीमविक्रम (वि०) अति पराक्रमी। भीमा (स्त्री०) [भीम+टाप्] दुर्गा। पराक्रमी स्त्री।
०हंटर। भीमुष (पुं०) पुतला, खेत का विजूका। भियं मुष्णातीति।
(जयो० २/३१) भीमुषा (वि०) भयापहारक। (जयो० २८/५६)
भीय (वि०) डरा हुआ। (सुद० ४/१९) भीरू (वि०) कायर, डरपोक, भययुक्त, डरा हुआ। (समु०
९/६, जयो० १३/८) भीरू ऐहिकामुष्किापायभीतुकः।
(जैन०ल० ८६५) भीरूः (पुं०) व्याघ्र, गीदड़। भीरू (नपुं०) रजत, चांदी। भीरू (स्त्री०) डरपोक स्त्री। भयावही।
०बकरी, छाया, ०कनखजूरा। भीरूचेतस् (पुं०) हरिण।
सुंध चूहा। छछुदर। ०मही। ०भययुक्त चित्त वाला। भीरूसत्त्व (वि०) कायर, डरा हुआ। भीलुकः (पुं०) [भी+क्लुकन्] भालू, रीछ। भीषण (वि०) भयानक, डरावना, अधिक भयंकर। भुजङ्गतो
भीषण एतदीय। (जयो०८/५५)
घोर, दारुण, विकराल, त्रासजनक। भीषणः (पुं०) कपोत, कबूतर। भीषणं (नपुं०) भय उत्पादक वस्तु, डरावनी वस्तु। भीषणता (वि०) भयरूपता। भीषणता श्रणतादिव खेदं जगतो
दुरितख्यात्री यमायाताऽरमहो कलिरात्रिः। (सुद० ९७) भीषा (स्त्री०) [भी+णिच्+अङ्कटाप्] धमकाना, डराना,
त्रास देना। भीषित (वि०) [भी+णिच्+क्त] संत्रस्त, डराया हुआ, भयभीत
किया गया। भीष्मः (पुं०) भीष्म पितामह। ___०शन्तनु पुत्र। भीष्म (वि०) [भी+णिच्+मक्] भीषण, डरावना, भयानक,
काल। (वीरो० ९/३०) भीष्मकः (पुं०) शांतनु शत्रु भीम। भीष्मपितामहः (पुं०) नाम विशेष। (वीरो०८/४०) ०शान्तनु
पुत्र।
भुक्त (भू०क०कृ०) [भुज+क्त] ०उपयुक्त, खाया गया।
प्रयुक्त, प्रयोग किया गया। भोगा गया, अनुभव किया गया। अधिकृत किया गया, अधिकार दिया गया। उपभोग किया गया। राज्य परिपालन। ०महाव्रत परिपालन।
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भुक्तं
७८९
भुजभू
'रज्ज-महव्वयादिपरिपालणं भुत्ती णाम, तं भुत्त। | भुजः (पुं०) [भुज+क] भुजा, बाहु। (जयो० १/५२) सौंदर्यसिन्धोः (धव० १३/३५०)
कमलैककन्दोपमो भुजोऽसौ विशदाननेन्दो। (जयो० ११/४४) भुक्तं (नपुं०) उपभोग करना। (सुद० ४/३४)
०हस्ति सुंड। भुक्तगेहं (नपुं०) भोगने योग्य गृह।
०झुकाव, वक्र, मोड़। भुक्तभोग (वि०) उपभोक्ता, आनन्द उठाया हुआ। भुजगः (पुं०) [भुज्+भक्षणे क, भुजः कुटिलीभवन् सन् भुक्तिः (स्त्री०) [भुज+क्तिन्] भोजन, आहार। गच्छति+गम+ड] सांप, सर्प, अहि, विषधर। (जयो०७१/६०) (समु० ९/९) (सुद० १३२)
भुजगदारणः (पुं०) गरुड़, मोर, मयूर। ०सांसारिक सुख। (जयो० २६/१००)
भुजगभुक्त (वि०) सर्पदंश। (जयो० २५/६७) ०संतृप्ति-भुक्ति सम्बंधि तृप्ति। (जयो० २६/३५) भुजगभोजिन् (पुं०) मयूर, गरुड़ पक्षी। उपभोग करना। (दयो० ९८)
भुजगीचरा (स्त्री०) सर्पिणी। (जयो० २०/६८) भुक्तिकालः (पुं०) भोजनकाल, भोजन का समय। (जयो० भुजङ्गः (पुं०) [भुजं कुटिलं गच्छतीति भुजङ्ग] (वीरो० ३/१०) २/१२६)
[भुजः-सन् गच्छति-गम्+खच्] ०सर्प, सांप, नाग। (जयो० भुक्तिपात्रं (नपुं०) थाली, भोजन करने का पात्र। (सुद० ८/५५) ०अहि।
४/३१) शाकटं चोत्तरीयं च वस्त्रयुग्ममुवाह सा। कमण्डलुं पति, प्रेमी। भुक्तिपात्रमित्येतद्वितीयं पुनः।। (सुद० ४/३१)
लौंडा। भुक्तिभाजनं (नपुं०) थोड़ा स्थान। (जयो० २/२१)
०खङ्ग, तलवार। (वीरो० ३/५०) भुक्ति-मुक्तिः (स्त्री०) सांसारिक और पारमार्थिक सुख। भुजङ्गकन्या (स्त्री०) नागिनी कन्या, सर्पकन्या।
'भुक्तिश्च मुक्तिश्च भुक्मुिक्ती त्रिवर्गापवर्गसमपदे द्वे अपि भुजङ्गर्भ (नपुं०) अश्लेषा नक्षत्र। देव्यौ' (जयो०वृ० २६/१००)
भुजङ्गभुक् (पुं०) गरुड़, मयूर, केकी। (जयो० १३/८६) भुक्तिरोधः (पुं०) भोजन, पान रोकना।
भुजङ्गभुज् देखो ऊपर। ०अहिंसाणुव्रत का अतिचार।
भुजङ्गमः (पुं०) [भुज+गम्+खच्]०सर्प, सांप। राहु। अष्ट भुक्तिवर्जित (वि०) उपभोग से रहित।
संख्या विशेष। भुक्तोज्झितः (पुं०) झूठा, जूठन, भोग कर डालना। (सुद० भुजङ्गलता (स्त्री०) पान लता, ताम्बूली। ८९, वीरो० ११/३१)
भुजङ्गह्न (पुं०) मयूर, केकी। भुक्त्यन्तर (वि०) भोजन के पश्चात् (सुद० १२०)
गरुड़। भुग्न (भू०क०कृ०) [भुज्+क्त] विनत, प्रवण, झुका हुआ। भुजज्या (स्त्री०) आधार की लम्बी रेखा। टेड़ा, वक्र।
भुजदण्डः (पुं०) बाहुदण्ड, हस्तभाग। (जयो० ६/११३) बाहुवंश भुज् (सक०) झुकाना, मोड़ना, टेड़ा करना।
(जयो० १७/६३) निगलना, गले उतारना।
भुजदलः (पुं०) हस्त, हाथ, बाहुदण्ड। उपभोग करना, प्रयोग करना। (बुभोज (जयोवृ० १/२१) भुजपाशः (पुं०) बाहु पाश, भुजा की एक पकड़ जिससे गर्दन ०भोग करना, भोगना। (भुनक्ति जयो० २/१५२)
को दबोचा जाता है। ०सहना, अनुभव करना।
भुजबलंः (नपुं०) भुजसामर्थ्य, भुजशक्ति। खिलाना, भोजन करना।
भुजबली (पुं०) भुजबली नामक योद्धा। जिनका अर्ककीर्ति ०शासन करना, सुरक्षा करना।
राजा के साथ युद्ध हुआ। (जयो० ८/७५) भुजेन बली ०झेलना, सहन करना।
भुजबली-बाहुमूलबलेन युक्तः। (जयो०वृ०८/७५) भुज् (वि०) भोगने वाला, खाने वाला।
भुजभू (पुं०) क्षत्रिय-'भुजाभ्यां स्वबाहुभ्यामेव भवति स्वास्तित्वं राज्य करने वाला, शासन करने वाला।
रक्षतीति भुजभूस्तस्य क्षत्रियस्य असिधारणं य जीविकाऽस्ति। उपभोग, लाभ।
(जयो०वृ०२/११२)
सारना
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भुजमञ्जु
७९०
भुजमझु (वि०) भुजदण्ड वाला। 'भुजो बाहुरेव मञ्जुर्मनोहरो ०पृथ्वी, धरा, धरिणी, धरती। दण्डः ' (जयो०वृ० १/२५)
स्थान, आवास। भुजमध्यं (नपुं०) वक्षस्थल, छाती।
प्राणी, मानव, मनुज। (सम्य० ४१) भुजमूलं (नपुं०) स्कंध, कंधा।
प्राणी, वारि (जयो० १४/७९) स च शरदमिवैनां भुवने भुजयुगं (नपुं०) भुजाएं, दोनों बाहुएं। भुजयोर्बाहुदण्डयोः युगं तु (जयो० २२/७) युगलम्। (जयो०० ५/७)
भुवनत्रय (वि०) तीन लोक सम्बंधी। (समु० १/२) त्रिलोकी। भुजलतिका (स्त्री०) बाहुरूपी लता। स्फुरित कथं भुजलतिके
तीनों लोक का आधार। लोचनता किं गता त्वमपि वृतिके। (जयो० १६/६७) भुवनपति (पुं०) नृप, राजा। भुजवती (वि०) बाहुबलधारिणी। (जयो० १६/६३)
भुवनपावनी (स्त्री०) गंगा नदी। भुजशिखरं (नपुं०) कंधा।
भुवनभारती (स्त्री०) मातृभूमि। भुजसूत्रं (नपुं०) लम्बायमान रेखा।
भुवनभूषणं (नपुं०) भू अलंकरण। ०धराभूषण। भुजा (स्त्री०) [भुज+टाप्] बाहु, हाथ। (सुद० ८५, समु०
भुवनमानिनी (वि०) विश्वसम्माननीय, पूज्यपूज्यनीय। (जयोवृ० ४/२५) 'हिरण्वतीव स्मरभूभुजोभुजा।
२२/७८) चक्कर, घेरा, परिधि।
भुवनशासिन् (पुं०) नृपति, राजा। भुवनाधिप। ०वृत्त।
शासक।
भुवनाधिपः (पुं०) त्रिलोक नायक, तीन लोक के अधिपति। भुजाकण्टः (पुं०) हाथ के नख, हस्त नख। भुजाकारः (पुं०) प्रदेश पिण्ड।
(जयो० १९/३९)
भुवन्यु (पुं०) स्वामी, प्रभु। नायक, अधिपति। भुजाकार-उदयः (पुं०) जितना प्रदेशपिण्ड इस समय उदय
सूर्य। को प्राप्त है, अनन्तर आगे से समय में उससे अधिक
०चन्द्र। प्रदेशपिण्ड के उदय को प्राप्त होना।
भुवर-भुवस् (अव्य०) [भू+असुन्] अन्तरिक्ष, आकाश। भुजाकार-उदीरणा (स्त्री०) कर्म प्रकृतियों की आगे उदीरणा।
भुविस् (पुं०) समुद्र। भुजाकार बन्धः (पुं०) कर्म प्रकृतियों का बांधना।
भुवस्तलं (नपुं०) भूमण्डल। (समु० २/४) भुजाग्रः (पुं०) भुज् अग्र भाग, हथेली। (जयो०वृ० ३/३५)
भू (अक०) होना, घटित होना। बभूव (सुद० १/४०) भवेत् भुजादलः (पुं०) हस्त, हाथ, कर।
(सुद० २/२२) अभवत् (सुद० ३/१७) भविष्यति (जयो० भुजामध्यः (पुं०) कोहनी, छाती, वक्षस्थल।
४/४७) भुजामूलं (नपुं०) कन्धा। स्कन्ध।
उत्पन्न होना, उपस्थित होना। अभृत (जयो० १/२३) भुजोपधानं (नपुं०) भुज रूपी तकिया। बाहु का ही
भवन्ति (सु० १/१९) ___ उपधान/तकिया। (दयो० २/१०)
विद्यमान रहना। (जयो० १/२०) भुजिष्यः (पुं०) भृत्य, सेवक, दास।
जीवित रहना, सांस लेना। प्रलीना बभूव तस्मै न पुनः भुजिस्या (स्त्री०) दासी, सेविका, परिचारिका।
कुलीना। (जयो० १/६७) भुञ्ज (सक०) भोगना, उपभोग करना। (जयो०वृ० १/३९)
सम्बन्ध रखना, सहायता करना। भवेद् दूरे न नाम। भुञ्जानं (नपुं०) भोग करना। (जयो० २२/४५)
(सुद० १२९) भुण्ड् (सक०) आश्रय देना, शरण देना, सहारा देना।
०व्यस्त होना, व्याप्त होना। युवतीर्थोऽत्र युवतिरहितो चुनना, छांटना।
भवतादिति। (वीरो० ८/२६) भुव (स्त्री०) पृथ्वी, भू, धरणी, धरित्री। (सुद० १/१३, १/२४) भू (वि०) [भू+क्विप्] विद्यमान, होने वाला, फूटने वाला, (सम्य० १४७) भुवस्तु तस्मिल्लपनोपमाने।
उगने वाला, उपजने वाला। भुवनं (नपुं०) [भू+आधारादौ क्युन्] ०लोक, जगत्, विश्व। | भूः (स्त्री०) पृथ्वी, धरा, धरती, धरणी। (जयो० ३/११५) (जयो० ५/५५, ५/२८) (जयो० ६/१६)
(भुवि सुद० २/५०) भूमि, भूमण्डल। (जयो० १/५०)
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भूकः
७९१
भूतविज्ञानं
स्थान, स्थल, क्षेत्र, भूखण्ड। (जयो० ४/२५)
आधार रेखा। भूकः (पुं०) [भू+कक्] रन्ध्र, गर्त, विवर।
०झरना।
०काल। भूकलः (पुं०) [भुवि कलयति-कल+अच्] अडियल घोड़ा। भूकदम्बः (पुं०) कदम्ब वृक्ष। भूकम्पः (पुं०) भूचाल, पृथ्वी का चलायमान होना। भूकम्पनं (नपुं०) भूचाल। (वीरो०१/३७) भूकर्णः (पुं०) भूभाग का व्यास। भूकाकः (पुं०) पनमुर्गी, बगुला। भुकशः (पुं०) बटवृक्षा भूकेशा (स्त्री०) पिशाचिनी, राक्षसी। भूक्षित् (पुं०) सूकर, सुअर। भूगर्भः (पुं०) भूतल। (सुद० १२७) गर्भालय। (वीरो०१२/१४) भूगृहं (नपुं०) तहखाना, तलघर। भूगेहं (नपुं०) तलघर। भूगोलः (पुं०) भूमण्डल, भूभाग। भूचक्रं (नपुं०) भूमध्य रेखा। भूचर (वि०) पृथ्वी पर विचरण करने वाला। (जयो०वृ० ६/१३) भूर्जप्राय (वि०) भूर्जपत्रतुल्य। (जयो० १६/८२) भूछाया (स्त्री०) परछाई। अंधकार। भूजंतु (पुं०) हस्ति, हाथी। भूजम्बूः (पुं०) गेहूं, गोधूम। भूतलं (नपुं०) धरातल, भूभाग। भूतार्थवेदी (वि०) यथार्थवेत्ता। (वीरो० ) भूतृणं (नपुं०) सुगन्धित तृण, नागरमोथा, खशादि। भूदारः (पुं०) सूकर। भूधनः (पुं०) नृप, राजा। भूधरः (पुं०) एक जैन हिन्दी कवि भूधरदास, उनकी कृत
बारहभावना जन जन में प्रचलित है। भूत (भू०क०कृ०) [भू+क्त] उत्पन्न, निर्मित।
वर्तमान, विद्यमान। ०वस्तुतः होने वाला। यथार्थ घटित। ठीक, उचित, सम्यक्।
अनीत, गया हुआ। भूतः (पुं०) पुत्र, शिशु, उत्पन्न बालक।
०व्यन्तरदेव।
भूतं (नपुं०) प्राणी, सत्त्व। जन्तु, जीवधारी कालत्रयभवनात्
भूताः। (जैन०ल० ८६७)
प्रेत, भूत, पिशाच। (सुद० ४/४१) ० भूत तत्त्व-पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश।
पंचभूत-तत्त्व (सुद० ११९) भूतकालः (पुं०) बीता हुआ समय अतीत काल। भूतक्रान्ति (स्त्री०) भूत व्याधि। ०प्रेत बाधा। भूत-गणः (पुं०) उत्पन्न प्राणी समूह। भूत समूह, पिशाच
समुदाय। भूतगृहीतं (नपुं०) भूतनिवास। (जयो० २५/७१) भूतग्रस्त (वि०) भूत व्याधि से पीड़ित। भूतग्रामः (पुं०) समस्त, जीव। भूतघ्नः (पुं०) उष्ट्र, ऊंट। भूतचेष्टा (वि०) पंचभूत की क्रिया। (दयो० ४१) भूतजयः (पुं०) तत्त्व विजय। प्रेत विजय।। भूतदया (स्त्री०) प्राणी अनुकम्पा, प्राणियों पर करुणा। भूतदयाश्रयः (पुं०) प्राणिमात्र पर करुणा का आधार। (जयो०
२८/१९) भूतधरः (पुं०) पृथ्वी। भूतधारिणी (स्त्री०) पृथ्वी, भू। भूतनाथः (पुं०) शिव। भूतनिषाद (नपुं०) भूतस्थान, प्रेतगृहीत। (जयो० २६/१७) भूतपूर्व (वि०) पहले से विद्यमान। भूतपूर्व (अव्य०) पहले। भूतपिशाच दोषी (स्त्री०) भूत-पिशाच की व्याधि। (समु०
३/२९) भूतप्रकृतिः (स्त्री०) प्राणियों का आधार भूत तत्त्व। भूतबलि (पुं०) जैनाचार्य भूतबलि, जो प्राकृत भाषा के
प्रारम्भिक कवि, सूत्रकार एवं सिद्धान्तवेत्ता माने जाते हैं। भूतब्रह्मन् (पुं०) भूतत्त्व ज्ञान। भूतमात्रहितं (नपुं०) प्राणिमात्र का कल्याण। (सुद० १३६) भूतयोनिः (स्त्री०) प्राणियों की उत्पत्ति का मूल स्रोत। भूतलं (नपुं०) धरातल। (सुद०५/१) पृथ्वी भाग। (सुद० ८५) भूतलक (पुं०) धरातल, भूभाग, भूमण्डल। भूतवर्गः (पुं०) भूत-प्रेत समूह। भूतवासः (पुं०) बहेड़े का वृक्षा भूतविक्रिया (स्त्री०) अपस्मार, मिरगी। भूतविज्ञानं (नपुं०) प्राणी विज्ञान।
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भूतविद्या
७९२
भूमिचर
भूतविद्या (स्त्री०) प्राणी विद्या। भूतानां निग्रहार्थ विद्या। भूपसन्निधाव (वि०) राजा के समीपवर्ती। (दयो० १०८) भूतवृक्षः (पुं०) बिभीतक वृक्ष, बहेड़े का वृक्ष।
भूपालः (पुं०) नृप, राजा। (वीरो० ३/१२) भूतसंसारः (पुं०) भूत व्याधि।
भूपालबालः (पुं०) राजपुत्र, राजकुमार। (जयो० १/११२) भूतस्थान (नपुं०) प्राणी स्थल।
भूपालनं (नपुं०) प्रभुता, आधिपत्य। भूतात्मक (वि०) पंचभूत तत्त्वमय। (सुद० १००)
भूपुत्रं (पुं०) मंगलग्रह। भूतिः (स्त्री०) [भू+क्तिन्] उत्पत्ति, जन्म।
भूपुत्री (स्त्री०) पृथ्वी पुत्री सरिता। होना, अस्तित्व।
भूप्रकम्पः (पुं०) भूचाल, भूकम्प। कल्याण, आनंद, समृद्धि।
भूप्रदानं (नपुं०) भूदान। राख, भस्म। (सुद० ११२)
भूप्रभृति (स्त्री०) पृथ्वी आदि। (जयोवृ० १/९५) सौभाग्य, गौरव, महिमा।
भूविम्ब (पुं०) भूगोल, भूमण्डल। सम्पत्ति। भूतिर्मातङ्ग शृङ्गारे भस्मसम्पत्तिजन्मसु इति । भूभङ्गः (पुं०) प्रभु, राजा। विश्वलोचन। (जयो० १४)
भूभागः (पुं०) क्षेत्र, स्थान, खेत, स्थल। (सुद० १२८) भूत्रयपति (पुं०) त्रिभुवनपति चक्रवर्ती। (जयो० ५/६३)
(जयो० ७/११) भूवयाधिपः (पुं०) चक्रवर्ती। (वीरो० ४/६१)
भूभुज् (पुं०) नृप, राजा। (समु० ४/१२, ४/२) भूत्रयातिशयिनी (वि०) तीनों लोकों में अतिशयवती। (जयो० | भूभृत (पुं०) पर्वत, पहाड़। (सम्य० १) कुलाचल। ५/३३)
(दयो० ६/३५) भूतिकर्मन् (नपुं०) शुभ कर्म विशेष। उत्सव।
भूमण्डलं (नपुं०) ०भूमि, भूभाग, ०धरणी, धरती, ०धरा। मंत्रित भस्म कर्म, व्याधि पीड़ित के लिए मंत्र, मिट्टी, धराव लय। (जयो० १३/५४) (मुनि० ) धागा आदि से करना।
भूमण्डलाशेषः (पुं०) भू भाग का शेष रहना। (समु०६/३७) भूतिकुशीलः (पुं०) वशीकरण कर्म, रक्षणकर्म। मन्त्रितभस्म, भूमण्डलमण्डनं (नपुं०) पृथ्वी का आभूषण। (जयो० १/३२)
धूलि, सरसों पुष्प, फूल आदि से रक्षण करना। भूमन् (पुं०) भारी, प्रचुर, प्रबल, यथेष्ट। भूतिगर्भः (पुं०) विभूति समूह।
भूमन् (नपुं०) भूमि, पृथ्वी। भूतिनिधानं (नपुं०) घनिष्ठा नक्षत्र!
०प्रदेश, भूखण्ड। भूतिलकं (नपुं०) भूशोभा। (जयो० ७/११)
भूमा (स्त्री०) इकट्ठा, एकत्रित। भूतिसंस्तरः (पुं०) भूमिगत शय्या, भूशयन।
____०पृथ्वी की लक्ष्मी, भूशोभा। (जयो० १/५७) भूत्वा (सं०कृ०) होकर। (सुद० ४/१०)
भूमिः (स्त्री०) [भवन्त्यस्मिन् भूतानि-भू+मि] ०धरणी, धरती, भूपः (पुं०) नृप, राजा, प्रभु। (जयो० ३/६०) (सुद० १३४) धरा, पृथ्वी, भू भाग। (सुद० २/३९)
भूखण्ड, प्रदेश, स्थान, स्थल। भूमिमेकान्ततो ब्रह्मपदैकभूदेवः (पुं०) १. राजा, २. ब्राह्मण। (वीरो० १४/६)
भूमिः' (वीरो०१२/४६) भूपतिः (पुं०) नृप, राजा, अधिपति। (जयो०वृ० १/२५)
जगती। (जयो०वृ० १३/२४) भूपतिजाया (स्त्री०) रानी। (वीरो० ६/३८) महिषी। भूमिका (स्त्री०) [भूमि+कै+क+टाप्] पृथ्वी, जमीन, मिट्टी, भूपदः (पुं०) वृक्षा
स्थान, स्थल। अभिनय, विचार प्रस्तुति। भूपद्म (नपुं०) पाटल पुष्प, गुलाब। (जयो० १/८३) भूमिकाण्डं (नपुं०) भूभाग, भूखण्ड (दयो० २५) भूपभूषा (स्त्री०) भूप अलंकरण। (जयो० ४/११)
भूमिगुहा (स्त्री०) भू गुफा। ०खोह, ०कोटर। भूपवित्तु (पुं०) राजा, नृप। (जयो० ४/११) राजहंस। भूमिगृह (नपुं०) भूगर्भगृह। (जयो०३० ३/८३)
०ततघर, तहखाना। भूपवरः (पुं०) भूप, नृप, राजा।
भूमिचर (वि०) भूचर। भूवि चरन्तीति भूचरास्तान्, राजतुजो भूपरिधिः (स्त्री०) पृथ्वी का घेरा।
भूपतिः (जयो० ६/१३)
अतिगर्भः
नपुं०) पा
(जयो० ॥
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भूमिचल:
७९३
भूराव्याप्त
Y
भूमिचलः (पुं०) भूचाल, भूकम्प। भूमिचलनं (नपुं०) भूचाल, भूकम्प। भूचर ०भूपति। (जयो०६/१२) भूमिजः (पुं०) मंगलगृह। भूमिजीविन् (वि०) वेश्य। भूमितलं (नपुं०) भूतल, भूभाग। भूमिदानं (नपुं०) भूदान। (वीरो० १५/४८) भूमिधयिनी (वि०) भूदान देने वाला। (वीरो० १५/३९) भूमिदेवः (पुं०) ब्राह्मण, विप्रा भूमिधरः (पुं०) पर्वत, पहाड़। भूमिप (पुं०) राजा, नृपति। (जयो० ५/१०) (जयो० ३/९३) ___ (समु० २/२९) भूमिपति (पुं०) नृपति। महीपति। भूमिपालः (पुं०) पृथवीपति, राजा, नृप। भूमिभुज् (पुं०) भूपति, राजा। भूमिभृत् (पुं०) नृप, राजा। (जयो० ११/१३) भूमिरुहः (पुं०) वृक्षा (समु० ३/३७) भूमिरक्षकः (पुं०) भूपाल, नृप। भूमिवर्धनः (पुं०) मृतशरीर, शव। भूमिशयनं (नपुं०) भूमि पर सोना। भूमिसंस्तरः (पुं०) भूमिगत बिछौना। भूमी (स्त्री०) [भूमि ङीष्] पृथ्वी, भू। भूयं (नपुं०) होने की स्थिति, होती हुई। (सुद० ८९) भूयशस् (अव्य०) अधिकर, बहुधा।
सामान्यतः, साधारण रूप से। भूयस् (वि०) [बहु+ईसुन] अधिकतर, अपेक्षाकृत अधिक
विस्तृत। ०बहुत बड़ा, अतिशय। (जयो. १०/६१) *अत्यधिक
(सुद० ८९) (मुनि० १४) भूयस् (अव्य०) अधिक, अत्यधिक, अधिकतर।
पुनः। (जयो० १७/१३०) ०बारंबार। (वीरो० १/३७) भूयिष्ठ (वि०) [अतिशयेन बहु+इष्ठन्] ०अत्यधिक, प्रचुर, पर्याप्त।
बहुलता, अत्यन्त। ०व्याप्त, व्यापक। (जयो० ३/२५)
०प्रायः, अधिकतर। भूयिष्ठं (अव्य०) अधिकांशतः, अत्यन्त, अत्यधिक, बहुत।
अधिक से अधिक।
भूयो भूयो (अव्य०) मुहुरेव (जयो० १०/२३) (जयो० ११/९८) भूर (अव्य०) तीन व्याहृतयों में से एक। भूरञ्जनं (नपुं०) जनता मनोरंजन। (जयो० १/३७) भूरञ्जनो
यस्य गुणश्च देव। भूरञ्जनो जनतायाः प्रसत्तिराः।
(जयो०वृ० १/३७) भूरन्ध्रव्यापिनी (वि०) संसार में व्याप्त। (वीरो० १३/३७) भूरा (स्त्री०) चमक, छवि, कान्ति। (सुद० ९७) सुंदर, सुभग (सुद० ९४) भूरास्तामिह जातुचिदहो सुन्दल न विलम्बस्य।
मनोज्ञ, रमणीय (सुद० ७४) भूरागस्य न वा रोषस्य
(सुद०७४) भूरा (पुं०) भूरामल नामक कवि। (सुद० ७१, सुद० ५/३) भूराकुलं (नपुं०) भूरामल महाकवि का वंश। (सुद० १००)
'भूराकुलतायाः सम्भूयात्कोऽपि नेति सम्वदतु' भूराख्यात (वि०) उत्तम फल से युक्त। (सुद० ८२) (सुद०
१००) ०भूरा नाम से प्रसिद्ध। भूरागः (पुं०) पृथ्वी का अनुराग। (सुद० ८९)
भूरामल कवि। (सुद०८८) भूराजनः (पुं०) सुंदर लोग। भूराज्ञ अरि पण्डिते (सुद०८९) भूराज्ञः किमभूदेकस्य, यद्वा
सा प्रवरस्य नरस्य। (सुद०८९) भूरानन्दः (पुं०) भूरामल नामक कवि, अद्वितीय आनंद को
प्रदान करने वाला कवि, परमानन्द स्वरूप भूरानन्दस्येय
मतोऽन्याकाऽस्ति जगति खलु शिवताति। (सुद० १२३) भूरा-पादित (वि०) भूरा नामक कवि द्वारा प्रतिपादित। (सुद० ९८)
भूः आपादित-सत्कारपूर्वक। (सुद० ९६) भूराप्त (वि०) भूरा को प्राप्त, महाकवि भूरामल को प्राप्त-भू
आप्त-सर्वज्ञ गत। (सुद० ८३) भूराभरणः (पुं०) भूरामल नामक महाकवि, जयोदय वीरोदय
आदि महाकाव्यों के रचनाकार कवि।
भूः आभरण-भू का अलंकरण। (जयो० १७/१२७) भूरामरः/भूरामलः (पुं०) भूरामल नामक महाकवि। लब्ध्वा
ज्ञानविभूषात्मकतया भूरामलः संभवेत्। (मुनि० ३३) (जयो०
२३/७१, जयो० २८/०८) भूरामा (स्ती०) पृथ्वी की शोभा। ०भू आभा।
भूरामल: पृथिवी रूपी रामा/स्त्री। (जयो० २३/६५)
भूः पृथिवी रामा-स्त्री। (जयो० २३/६५) भूराव्याप्त (वि०) सुंदरता की व्यापकता।
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भूराष्ट्रः
७९४
भूषणानुगत
भूराष्ट्रः (पुं०) पृथिवी समूह। (सुद० १०५) भूराश्रित (वि०) पृथिवी के आश्रित।
भूरा कवि के आधारभूत। (सुद० १०९) भूरि (वि०) [भू+किन्] ०बहुल, अधिक, ज्यादा। (जयो०
५/१०५)
नाना, बहुविधा (जयो० २२/२०) ०प्रचुर, विपुल। ०असंख्य, यथेष्ट, पर्याप्त। बृहद्, बड़ा हुआ। बहुत-दुरङ्गितं भूरि चकार तावन्न तस्य किञ्चिद्विचकार
भावम्। (सुद० १०३) भूरि (पुं०) ब्रह्मा, शिव। भूरि (नपुं०) स्वर्ण, सोना। भूरि (अव्य०) अधिक, बहुत। (सुद० १०३) बारं बार, प्रायः।
(जयो० ४/५६) भूरिगमः (पुं०) गर्दभ, गधा। भूरिगेहं (नपुं०) बड़ा घर। भूरिजनः (पुं०) बहुत से लोग। (वीरो० २२/२४) भूरितेजस् (वि०) अति प्रभावान्। देदीप्यमान। भूरितेजस् (पुं०) अग्नि, आग। भूरिदक्षिण (वि०) उपहार की प्रचुरता। भूरिदरीमय (वि०) नाना गुहात्मक। चयाश्रयो भूरिदरीमयोऽसको
स को पुनः कोऽस्य गिरेऽस्तु यः समः। (जयो० २४/२०) भूरिदानं (नपुं०) प्रशंसात्मक दान, विपुल दान, प्रचुर उपहार,
श्रेष्ठ पुरस्कार।
०धनी व्यक्ति। भूरिधन (वि०) पर्याप्त धन वाला। धनाढ्य, धन सम्पन्न। भूरिधा (अव्य०) नाना प्रकार का। 'भूरिधा कथाधारः' |
(जयो० ६/२४) भूरिधान्य (वि०) विपुलधान्य युक्त, प्रचुरधान्य युक्त।
भूरिधान्यस्य विपुलन्नस्य। (जयो०० ४/५८) भूरिधा
अनेकप्रकारेण अन्येषां हिते वृत्तिमती वा। (जयो० ४/५८) भूरिधामन् (वि०) विपुल प्रभावान्, उत्तम कान्ति युक्त। भूरिप्रयोग (वि०) अधिक उपयोग वाला। भूरिप्रेमन् (पुं०) चकवा पक्षी। भूरिभाग (वि०) वैभव से परिपूर्ण, धनाढ्य। भूरिभू (स्त्री०) नाना प्रकार की पृथ्वी। (जयो० ५/३७) भूरिभूपालवर्गः (पुं०) विपुल नृप समूह, बड़े-बड़े राजा लोग।
(जयो० ७/६)
भूरिमायः (पुं०) गीदड़, लोमड़ी। भूरिरसः (पुं०) इक्षु, ईख, गन्ना। भूरिलाभ (वि०) अधिक लाभ, पर्याप्त लाभ। भूरिविक्रम (वि०) श्रेष्ठ योद्धा, बहादुर सिपाही। भूरिवृष्टिः (स्त्री०) अत्यधिक वर्षा। भूरिशस् (अव्य०) अनल्प। (जयो० ४/५३)
०बहुविध, नाना प्रकार का। (जयो० २/२९) ०प्रायशः। (जयो २/५४) ०अत्यधिक, बहुत (दयो० २५) ०बहुत, प्रचुर, पर्याप्त। (जयो० ७/१२)
मुहुर्मुहु, बार बार (समु० ५/९) भूरुहः (पुं०) तरु, वृक्ष। (जयो० २/९३) ०पादप। भूर्जनः (पुं०) [भू+ऊर्जू+अच्] भोजपत्र तरु। भूर्णिः (स्त्री०) [भृ+नि] भूमि, भू, धरा, धरती। भूर्विभक्तिभृत (वि०) भू शब्द के उच्चार से रहित।
(जयो० २८/५१) भूलोकः (पुं०) पृथिवीमण्डल। (जयो०१० ५/९०) भूवलय (नपुं०) पृथिवी का गोलाकार। (समु० १/२५)
०धरातल, भूतल। (जयो० ८/२९) भूव्यापि (वि०) लोक व्यापि, समस्त देश में व्याप्त होने
वाली। (वीरो० १३/२३) भूशय्या (स्त्री०) भूमिशयन। (मुनि० २०) क्षितिशयन। भूषु (सक०) अलंकृत करना, सजाना, विभूषित करना,शृंगार
करना। (जयोवृ० १४८६) फैलाना, बोरना, बिछाना। 'भूषणैर्भूषयामास
जगदेकविभूषणम्' (वीरो०७/३७) भूषं (नपुं०) आभूषण, आभरण। (जयो० २२/५) भूषणं (नपुं०) [भूष्+ल्युट्] ०आभूषण। (जयो० ५/६१)
भूषणेषु नानामणिनिर्मितेषु कङ्कण केयूर-नूपुरादिषु। (जयो० ५/६१)
अलंकार-अलंकरण। (जयो० )
०श्रृंगार, सजावट। भूषणच्छटा (वि०) अलंकार युक्त। 'भूषणस्य छटामलङ्कार
शोभाम्।' (जयो०वृ० २/२८) भूषणता (वि०) अलंकरणता, शृंगारता।
०अनुरञ्जकता। (जयो० २/५३)
रमणीयता, सौंदर्यता। (समु० ५/३) भूषणानुगत (वि०) अलंकरण को प्राप्त, शोभा के गुणों को
प्राप्त। (जयो० ५/६८)
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भूषा
७९५
भृतिका
भूषा (स्त्री०) [भूष+क+टाप्] सजाना, शृंगार करना।
आभूषण, आभरण, अलंकरण। ०शोभा, सुन्दरता।
आभा, कान्ति, दीप्ति।
वेशभूषा-परिधान। भूषालम्बित् (वि०) सर्वांग सुंदर परिवेश से युक्त।
भूषा तयालम्बिता (जयो० २२/५) 'अम्बरमणिमयभूषे ताभ्यामालम्बितालङ्कृता (जयो० २२/५) भूषित (भू०क०कृ०) [भूष्+क्त] विभूषित, सजाया हुआ।
अलंकृत किया गया। भूषिताङ्गिन् (वि०) अलंकृत शरीर वाली। तावत्तु सत्तमविभूषण
भूषिताङ्गी। साऽऽलीकुलेन कलिता महती नताङ्गी। (वीरो०
४/२९) भूष्णु (वि०) [भू+ष्णु] होने वाला, बनने वाला। भूस्थानं (नपुं०) भू भाग, भूतल, धरातल। (जयो०वृ० ३/६९) भू (सक०) भरना, पूर्ण करना। (सुद० १/३०)
०रखना, संधारण करना। (सुद० २/४८) फैलाना, विस्तृत करना। (जयो० १/३०) पहनना, धारण करना। बभार वीरश्चतुराननत्वं। (वीरो० १२/४३) ० भोगता, सहन करना। तन्नेत्रयुगं बभार। (वीरो० ६/४)
समर्पण करना, प्रदान करना। भृ (अक०) व्याप्त होना, पूर्ण होना। भृकुंश (वि०) स्त्री वेषधारण करने वाला नट। भृकुटिः (स्त्री०) [भ्रवः कुटि] भौंह। भृग (अव्य०) अनुकरणात्मक शब्द। भृगुः (पुं०) [भ्रस्+कु] एक ऋषि। 'भुगुसंहिता नामक ग्रंथ। ।
(जयो० ६/६३) भृगुजः (पुं०) शुक्र। भृगुतनयः (पुं०) शुक्र, भृगु का पुत्र। भृगुशार्दूणः (पुं०) श्रेष्ठ, परशुराम। भगृसंहिता (स्त्री०) एक ग्रंथ विशेष। भृङ्गः (पुं०) [भृ+गन्] ०भ्रमर, भौंरा। (जयो० २७)
मधुप (जयो० १८४८) भृङ्गः पुष्पत्वपे खिङ्गे तथा धूम्याट पक्षिणी इति वि (जयो० १५/८) खिङ्गोविट इत्यर्थः।
कामुक, लम्पट, व्यभिचारी। भृङ्गजं (नपुं०) ०अगर, ०अभ्रक। एक सुगन्धित लकड़ी। भृङ्गजा (स्त्री०) भांग का पौधा।
भङपर्णिका (स्त्री०) छोटी एला। छोटी इलायची। भृङ्गय (अक०) भ्रमर होना, लम्पट होना। (सुद० २/१३)
भृङ्गायतेभृङ्गाराज (पुं०) भंवरा, एक बड़ी मक्खी, एक पादप। भृङ्गार (पुं०) मंगल प्रतीक। (जयो० २६/५३) मकरङ्क,
झारी। (जयो० १२/५३) ०कलश, घट, पात्र। (जयो० १२/१२१)
जलपात्र, करक। (जयो० १६/१३)
स्वर्ण कलशा भृङ्गारकः (पुं०) कलश, घट। झारी। भृङ्गारधृत (वि.) भृङ्गार को उठाने वाले, कलश उठाने वाले।
'कलद्वयी भृङ्गारस्य धृतेर्मिषेण' (जयो० १२/१२१) भृङ्गिन् (पुं०) [भृङ्ग इनि] वट वृक्षा भृङ्गी (स्त्री०) [भृङ्ग+इनि+ङीप्] भ्रमरी। (जयो० ११४८) भृङ्गोरुगीतिः (स्त्री०) भ्रमर गुञ्जार, भौरों का गुनगुनाना।
(वीरो० ६/२२) भृच्छाय (वि०) सुखकारी छाया। (सुद० ८२) भृच्छिद (वि०) शृंग युक्त, मस्तक युक्त। (जयो० २४/४८) भृज् (सक०) भूनना, तलना। भृटिका (स्त्री०) घुघची का पौधा। भृत (भू०क०कृ०) [भृ+क्त] ०धारण किया हुआ। ग्रहण
किया हुआ। ०पोषण किया गया, पाला गया। ०अधिकृत, सहित, सुसज्जित। ०भरा हुआ (सुद० १/३०)
परिपूर्ण। 'भ्रियते पोष्यते स्मेति भृतः। भृतक (वि०) [भृतं भरणं वेतनमुपजीवति कन्] वैतनिक,
वेतन पर रखा हुआ। भतकः (०) सेवक, अनुचर, नौकर। भूतको वृत्तिकिंकरः भृतकत्व (वि०) अनुचर स्वभाव वाला। (जयो० ९/५) भृतिः (स्त्री०) [भृ+क्तिन्] धारण करना। ०संभालना, सहारा देना। संचालन, संधारण, संरक्षण। मार्ग दर्शन, निर्देशन।
आहार। मजदूरी।
सेवाश्रम। भृतिका (स्त्री०) जीविकार्जन। (जयो० २७/२९)
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भृतिभुज्
७९६
भेदविज्ञानं
भृतिभुज् (पुं०) सेवक, नौकर, अनुचर। भृत्य (वि.) [भृ+क्यप्+तक च] पालन-पोषण किए जाने
योग। भृत्यः (पुं०) कार्य पात्र। (जयो०१० २/९७) नौकर, सेवक।
(सुद० ३/४)
०दास, अनुघर, आश्रित व्यक्ति। भृत्यवात्सल्यं (नपुं०) सेवक के प्रति करुणा। भृत्यवृत्तिः (स्त्री०) आजीविका, नौकरी पेशा। भृत्रिम (वि०) [भृ+त्रिमप्] पाला पोसा गया, परवरिश किया
गया। भृमि (स्त्री०) भंवर, जलावर्त। भृश् (अक०) नीचे गिरना, पतित होना। भृश (वि०) [भृश्+क] ०शक्तिशाली, बलिष्ट।
गहन, अत्यधिक। भृशं (अव्य०) अत्यन्त, गइराई के साथ, प्रगाढ़ता के साथ।
०बार-बार। (जयो० ९/५५) ०अत्यन्त, बहुत। (सुद० १/१७)
०प्रायः, अपेक्षाकृत। भृशकोपन (वि०) अत्यंत क्रोधी। भृशदुःखित (वि०) अत्यधिक पीड़ित। भृशपूत (वि०) अत्यंत पवित्र। भृत संहृष्ट (वि०) अत्यंत प्रसन्न। भृष्ट (भू०क०कृ०) [भृश्+क्त] ०सूखा हुआ, शुष्क। (दयो०८)
०पतित, गिरा हुआ। (जयो० १८/६०)
०तला हुआ, भुना हुआ। (जयो० १५/६७) भृष्टतन्दुलं (नपुं०) भुने हुए चावल, लाजा। (जयो०वृ०१५/६७) भृष्टयवाः (पुं०/बहु०व०) भुने हुए जौ। भृष्टाध्वरः (पुं०) भृष्टामार्ग, निम्न मार्ग। (जयो० १८/६०)
०ऊबड़-खाबड़ पथ। भृष्टिः (स्त्री०) तलना, भूनना, सेंकना। भेकः (पुं०) [भी+कन्] मेंढक, दुर्दुर। (वीरो०४/१७)
बादल, मेघ। भेकगतिः (स्त्री०) मेंढक की चाल। (जयो० ५/१०३) भेकभुज् (पुं०) सर्प, सांप। भेकरवः (पुं०) मेंढक का टर-टर टर्राना। भेकशब्दः (पुं०) मेंढक की टर-टर। भेडः (पुं०) [भी+ड] मेंढा, भेड़। भेदः (पुं०) [भिद्+घञ्] ०भेदना, टूटना, भिन्न करना।
विभाजन करना, भाग करना। ०आघात करना, फाड़ना। न्टुकड़े करना, खण्ड-खण्ड करना।
परिवर्तन, विकार। अंतर-दिवा-निशोर्यत्र न जातु भेदः। (वीरो० १४/५२) विकल्प। (सम्य० ५) ०भंग, विदारण, अंतर। (जयो० १/३७) छिद्र, गर्त, विवर। विलक्षण। (जयो० १/१५) चोट, घाव, क्षति। प्रकार। भिन्न-भिन्न, दृग्ज्ञानवृत्तेषु न वस्तुभेदः। (सम्य० १२४) पृथक्-पृथक्, अलग-अलग। (सम्य० १०५)
फूट, असहमति। भेदक (वि०) भेदने वाला। भेदकर (वि०) भेद करने वाला, फूट डालने वाला, भिन्न-भिन्न
करने वाला। भेददर्शिन् (वि०) भेद दर्शाने वाला, भिन्नता प्रदर्शित करने
वाला। भेदनं (नपुं०) छिन्न करना, तोड़ना। भेद प्रत्यय (वि०) भेद युक्त। भेदभावः (पुं०) पृथक् भाव, भिन्न-भिन्न अभिप्राय। भेदाभेदात्मक (वि०) भेद अभेद स्व रूपात्मक। (जयो०
२६/७८) भेदनयं (नपुं०) नय के भेद। (जयो० २६/९२) भेदनय की
अपेक्षा चेतन-अचेतन। भेद विचार, भेद-विज्ञान। भेदविज्ञानं (नपुं०) शुद्धोपयोग का नाम। स्वरूपाचरणं भेदविज्ञानं
ज्ञानचेतना। शुद्धोपयोगनामानि कथितानि जिनागमे।। (सम्य० १४३) 'भेदस्य विज्ञानं ऐसा षष्ठी तत्पुरुष समास किया जाय तो एकक्षेत्रावगाह होकर भी शरीर और आत्मा में जो परस्पर भेद है, उसका ज्ञान यानि देह और जीव में परस्पर एक बन्धानरूप संयोग सम्बंध है, फिर भी ये दोनों एक ही नहीं हो गये हैं, अपितु अपने अपने लक्षण को लिए हुए, भिन्न-भिन्न है। रूप, रस, गन्ध और स्पर्शात्मक पुद्गल परमाणुओं के पिण्डस्वरूप तो यह शरीर है, किन्तु उसके साथ उसमें चेतनत्व को लिए हुए स्फुट रूप के भिन्न प्रतिभाषित होने वाला आत्मतत्त्व है। इस प्रकार जानना और मानना भेद विज्ञान है। 'भेदेन भेदाद वा यद् विज्ञानं तद् भेदविज्ञानम्।' इस व्युत्पत्ति से शुद्धात्म का अनुभव होना भेदविज्ञान है।
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भेदिन्
७९७
भोगः
भेदिन (वि.) [भिद्+णिनि] भेद करने वाला, विभक्त करने
वाला, खण्डित करने वाला। भेदिरं (नपुं०) वज्र, हीरकणी। भेद्यं (नपुं०) [भिद्+ण्यत्] विशेष्य, संज्ञा। भेद्यलिंग (वि०) लिंग द्वारा पहचान होना। विशेष चिह्न। भेरः (पुं०) [बिभेत्यस्मात्भी+रन्] घौषा। निनाद, भेरी। भेरिः (स्त्री०) घौषा, नाद, शब्द उद्घोष। (जयो० १३/६) भेरिका (स्त्री०) ध्वनि, शब्द घोष। भेरीनिनादः (पुं०) मंगलकारी वाद्य शब्द। भेरीनिवेशः (पुं०) भेरीनिनाद। (वीरो० ६/१४) भेरुण्ड (वि०) भयानक, भयपूर्ण, डरावना, भयंकर। भेरुण्डः (पुं०) पक्षी भेद। भेरुण्डं (नपुं०) गर्भाधान, गर्भस्थिति। भेरुण्डकः (पुं०) गीदड़, शृगाल। भेल (वि०) भीरु, डरपोक।
मूर्ख, अज्ञानी, मूढ। ०अस्थिर, चपल, चंचल। ०फुर्तीला, चुस्त। भेलः (पुं०) नौका, नाव, बेड़ा, छिन्नई। भेष् (अक०) डरना, त्रस्त होना, भयभीत होना। भेषजं (नपुं०) [भेषं रोगमयं जयति] औषधि, दवा (जयो०
२/९५) औषध (जयो० २/१७) चिकित्सा, निदान, उपचार। भेषजरं (नपुं०) अत्तार, औषध विकेता। भेषजाङ्ग (नपुं०) औषधिकल्प। भैक्ष (नपुं०) मांगना, याचना, भीख। भिक्षा चर्या। (मुनि०२०) भैक्षकालः (पुं०) भिक्षा का समय। भैक्षचरणं (नपुं०) भीख मांगना, भिक्षाचर्या। भैक्षजीविका (स्त्री०) भिक्षावृत्ति। भैक्षभुज् (पुं०) भिखारियों का समूह। [भिक्षूणां समूहः] भैक्ष्यं (नपुं०) [भिक्षा+ष्यञ्] भीख, भिक्षा, भिक्षाचर्या।
(मुनि०३) रोटी (सुद० ४/३४) ०भोजन, आहार। भैक्ष्यशद्धिः (स्त्री०) भिक्षा सिद्धांत, भिक्षाचर्या। (जयो० २७/८२) भैम (वि०) भीम विषयक। भैरव (वि०) [भीरु+अण] भयंकर, भयानक, तीव्र, भीषण,
भयावह। (जयो०वृ० १/१०८)
० भैरव सम्बंधी। भैरवः (पुं०) भैरव नामक यक्ष। (जयो० ४/६३)
०श्वान समूह। (जयो० ४/६३)
भैरवं (नपुं०) डर, भय, त्रास। भैषज (नपुं०) [भेषज+अण्] औषधि, दवा। (जयो० २/१७) भैषजः (पुं०) लवा पक्षी, लावक। भैषज्यं (नपुं०) चिकित्सा करना, औषधि देना।
०औषधि, दवाई। भैष्मकी (स्त्री०) भीष्मक पुत्री, रुक्मिणी। भो (अव्य०) भो इति सम्बोधनात्मकमव्ययम्। (जयो० १८/३७) भोक्तृ (वि०) [भुज+ऋच्] उपभोक्ता, उपभोग करने वाला।
(सुद० १२२)
प्रयोक्ता, अनुभव करने वाला। भोक्तु (पुं०) काबिज, उपभोक्ता।
०पति। नायक, नेता, प्रशासक। राजा, शासक।
प्रेमी। प्रियतम। भोक्तु (नपुं०) भोजन, सम्भोग। (जयो० १२/१२५) भोक्तव्यं [भुज+तृच्+तव्यत्] भोगने योग्य, उपभोग करने
योग्य। (हित० ४४) यत्र कुत्रापि मिष्ठान्नं, गूढएवौदनादि तु। पक्त्वा निर्माय भोक्तव्यमित्येतत्कल्पनं वृथा।।
(हित० ४४) | भोगः (पुं०) [भुज+घञ्] भोगना, झेलना, उपभोग करना।
प्राप्य तु भोगस्य (सम्य० ६४) ० भोज, भोजन, दावत। ०प्रयोग, इन्द्रिय विषय। (जयो० १४/११)
उपदेयता, उपयोगिता। योग-भोगयोरन्तर खलु नासा। (सुद०७०) ०व्यवहार। (सम्य० १०२) ०लाभ, फायदा। अत्र गम् धातो निरतार्थकत्वाद् भोगेष्वितिसप्तमी। (जयो० २७/१०)
आनंद। (जयो० ५/१६) ० आहार।
नैवेद्य। ०वक्र, घुमाव, चक्र, चक्कर।
नागकुमार देव। (जयो० ५/१६) ० सकृद् भुज्यत इति भोग'-जिसे एक बार भोगकर छोड़ दिया जाए।
सुखादि का अनुभव। भुनक्ति भोगान्स्म स लक्ष्मणाश्च रामश्च। (सु० ६५) विषय/इन्द्रिय सुख का अनुभव। (जयो० २/१२)
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भोगकर
७९८
भोगोपभोगपरिमाणं
अभीष्ट विषयजनित सुख।
भोगसामग्री (स्त्री०) उपभोग सम्बंधी वस्तुएं। (जयो०वृ० ०एक बार वस्तु का उपयोग होना।
१/२२, १/६६) भोगकर (वि०) उपयोग करने वाला।
भोगाधिपतिः (पुं०) भोग सम्पत्ति युक्त। भोगकृत (वि०) भोग प्राप्त होना।
गरुड। (जयो०वृ० १/४४) भोगकृतनिदानं (नपुं०) भोग योग्य वस्तुओं की प्राप्ति का भोगाधिभुव (वि०) भोगाधिकारी। (जयो० ६/१०)
भाव। ईश्वरत्व, चक्रवर्तित्व आदि की इच्छा करना। भोगाधीनता (वि०) भोग सामग्री के आश्रित होने वाला। भोगगृहं (नपुं०) शयन कक्ष, अन्त:पुर, नारी निकेतन,
(सुद० १०९) स्त्री-आवास स्थान। (जयो०वृ० १/१)
भोगानन्तरं (नपुं०) इन्द्रिय योग के मध्य, नाभि के मध्य भोगजनुष् (पुं०) विद्याधर जन्म। (जयो० २३/७९)
(जयो० ४/६) भोगतृष्णा (स्त्री०) सांसारिक वस्तुओं के उपयोग की इच्छा, | भोगान्तरायं (नपुं०) भोग के विषय में अंतराय/विघ्न। 'यत्प्रभावतो विषयगत वासना की इच्छा। कामेच्छा।
भोगान् न प्राप्नोति तद्भोगान्तरायम्। (जैन०ल० ८७) भोगदेहः (पुं०) भोग शरीर, सुख-दुःख को भोगने वाला
'भोगविग्घयरं भोगंतराइयं' (धव० १५/१४) शरीर। शरीर संबंधी भोग।
भोगिकः (पुं०) अश्व पालक। भोगधरः (पुं०) सर्प, सांप।
भोगिन् (वि०) [भोग+इनि] उपभोक्ता, विलासी, कामी। भोगपतिः (पुं०) परिणीता स्त्री, विवाहिता नारी।
०भोग करने वाला। भोगपदं (नपुं०) अपकर्ष, संतोष, वृथातर्ष। (सम्य० ९९/६४)
०अनुभव करने वाला, उपयोग में आसक्त। भोगपरिमाणक (वि०) भोग योग्य वस्तुओं का प्रमाण करने
भोगिन् (पुं०) सर्प, अहि, नाग। (सुद०३/२८) (समु० ४/११) वाला। भोग-प्रमाण वाला, ०भोग परिमाण वाला।
भोगिनामाधिनायकः (पुं०) फणधारी सर्प, सर्पाणामधिनायकः। भोग पुरुषः (पुं०) भोग प्रधान पुरुष, समस्त वस्तुओं में
(जयो०वृ०२८/६) उपयोग की प्रधानता वाला पुरुष।
सुखसम्पत्तिशाली व्यक्ति। 'भोगिनां सुखोसम्पत्तिशालिनाम्' भोगभुज् (पुं०) सर्प। (जयो० ११/११, वीरो० २१/५) भोगभूमिज (वि०) मंद कषाय से युक्त भोग भूमि में रहने
(जयो०वृ० २९/६)
भोगिनी (स्त्री०) नागकन्या। (दयो० १०९) वाला मनुष्य एवं तिर्यञ्च। भोगभूमिः (जयो०वृ० १/८५)
भोगिनीया (स्त्री०) नागकन्या। भोगभू (जयो० ९/८५) भोगभूरिता (वि०) भोग की अधिकता।
भोगिपदयोगिन् (वि०) भोगियों के पद के योग वाला वैभवशाली। भोगभागः (पुं०) उपयोग का हिस्सा। (समु० ५/४)
(जयो० ५/१६) (पुं०) नागकुमार। (जयो०७० ५/१६) भोगभव्यः (पुं०) सज्जन मनुष्य। (जयो० २२/१)
भोगीन्द्रः (पुं०) शेषनाग, वासुकि। (वीरो० २/२४) भोगगुपरि (वि०) भोग भोगने के ऊपर। (सुद० १०५)
भोगीन्द्रनिवासः (पुं०) सुखी जनों का आवास। नाग आवास। भोगयोग्य (वि०) उपभोग योग्य। (जयो० १७/८४)
'सुखिनां यद्वा नागानां निवासः' (वीरो० २/२४) भोगवती (स्त्री०) भोगवती नाम स्त्री। (सुद०८०)
भोगीशः (पुं०) भोगीन्द्र, शेषनाग। भोगवती (वि०) उपभोग करने वाली। ०कामनारता।
भोगेच्छावती (वि०) भोगों की इच्छा करने वाली। (जयो०७० भोगवस्तु (नपुं०) उपभोग योग्य वस्तु।
६/१०) भोगविनियोगः (पुं०) भोगासक्त। (जयो० २/७५)
भोगोपभोगः (पुं०) भोग और उपभोग। (सुद० १२६) भोगविरक्त (वि.) विषयगत भोगों से रहित। (दयो० ११९) यः सकृत्सेव्यते भावः स भोगो भोजनादिकः। भोगविलासः (पुं०) विषय वासना, इन्द्रिय जन्य आसक्ति। भूषादिः परिभोगः स्यात् पौनः पुन्येन सेवनात्।। (समु०४/२१)
(जैन०ल०८७१) भोगसद्मन् (नपुं०) भोगावास, रनवास, अन्तःपुर, शयनागार। भोगोपभोगपरिमाणं (नपुं०) भोग और उपभोग की वस्तुओं ०रतिकक्ष, काम निकुञ्ज।
का प्रमाण/सीमा निर्धारण। विषय-वासना युक्त स्थान।
द्वितीय गुणव्रत का लक्षण, श्रावक-प्रयोजन की सिद्धि
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भोग्य
७९९
भौमः
के कारण होने पर भी रागजनित आसक्ति को कम करने के लिए जो भोग-उपभोग की संख्या निर्धारित कर ली
जाती है। भोग्य (वि०) [भुज+ण्यत्] भोग योग्य, उपभोग्य के योग्य।
(जयो० १७/८४)
अनुभवनीय। (जयो० ४/३०) भोग्यं (नपुं०) अनाज, वस्तु, पदार्थ, भोजन, वस्त्रादि। भोग्यगत (वि.) उपभोग को प्राप्त। भोग्यगेहं (नपुं०) उपयोग योग्य घर। भोग्यभुज् (वि०) भोगों को भोगने वाला। भोग्यवस्तु (नपुं०) उपभोग योग्य वस्तु। भोग्या (स्त्री०) [भुज्+ण्यत्+टाप्] वीरांगना, वेश्या, गणिका।
(समु०६/२७) भोजः (पुं०) [भुज+अच्] भोजराजा, मालवा प्रांत की धारा
नगरी का राजा, जो संस्कृत का प्रकाण्ड विद्वान् था, जो
दसवीं शताब्दी के अंत में हुआ था। भोजन (नपुं०) [भुज+ल्युट] ०भोक्तृ, खाद्य पदार्थ। (जयो० १२/१२९) आहार। (जयो० २२/४९) जेवन। (जयो० १२/११३) ० भोजन करना। (जयो० ४/२७) ०अशन। (जयोवृ० २/९५) उपयोग करना, उपभोग करना। उद्यत रहना-'ज्ञानामृतं भोजनमेकवस्तु, सदैव कर्मक्षपणे मनस्तु। (सुद० ११७) भक्षण-भोजने भुक्तोज्झिते भुवि भो जनेश्वरि (सुद०८९)
रस। (जयो० २२/४९) भोजनकालः (पुं०) आहार समय। ०अशन काल! भोजनत्यागः (पुं०) आहार परित्याग। भोजन-भाजनं (नपुं०) जीमन का पात्र, जेमनपात्र।
(जयो० १२/११३) भोजनभूमिः (स्त्री०) आहार स्थान।
भोजनकक्ष, रसोईघर। भोजनमोद (वि०) आहार में आनन्द। भोजनविशेषः (पुं०) रसयुक्त आहार, स्वादिष्ट खाद्य पदार्थ। भोजनवृत्तिः (स्त्री०) आहार चर्या, आहार गवेषणा। भोजनव्यग्र (वि०) खाने में व्याकुल। भोजनव्ययः (पुं०) भोजन खर्च।
भोजनसामग्री (स्त्री०) रसवती, रसोई। (जयो० १२/१२३)
खाद्यसामग्री। भोजनालय (नपुं०) भोजनशाला, रसोईघर। भोजनालाभः (पुं०) भैक्ष्यशुद्धि में व्यवधान, भोजन के
समय का उल्लंघन। (जयो० २७/३२) भोजनीय (वि०) [भुज+अनीयर] ०खाने योग्य, भक्षणीय। भोजनीयं (नपुं०) आहार। भोजयितृ (वि०) [भुज+णिच्तृच्] भोजन कराने वाला। भोजनोपकृति (स्त्री०) भोजन पात्र। भोजनमशनमुपकृति
वस्त्रपात्राद्युपकरणम्। (जयो०१० १/९५) भोज्य (वि०) [भुज्+ण्यत्] उपभोग योग, खाने योग्य।
भोगने योग्य, अनुभव करने योग्य। भोज्यं (नपुं०) भोजन, आहार, अशन। (जयो० ४/१०)
०खाद्य पदार्थ (जयो०वृ०१२/१२४) निरामिषाशीनाकेनाप्यङ्गभाजा विवेकिना।। सम्पन्नमोदनादि तु समश्नातु सुधीजन:।।
(हित०सं० ४८) चैकदाऽशनम् (हित० ४८) भोज्यपदार्थ (नपुं०) भोजन सामग्री, खाने योग्य पदार्थ।
(हित० ४८) भोज्यसामग्रीयुक्त (वि०) विविध खाद्य पदार्थ
श्रोणी महती सैव मोदको संकुचरूपौ, त्रिवलिर्जवलेविका कपोलौ घृतवरभूपौ। अधरलता रसगुल्लेति परिणामसुरम्यास्मित
पयसा मधुरेण रसवतीयं बहु गम्या।। (जयो० ३/६०) भोज्या (स्त्री०) [भोज्य+टाप] भोज की रानी। भोस् (अव्य०) [भा डोस्] (सुद० ७८) अरे, भो, हे, अहो,
आह, ओ अर्थ है। 'भो भो वनराज देव! (वीरो० ५/२६) भोजङ्ग (वि०) [भुजङ्ग अण्] सर्पिल, सर्प सदृश। भौत (वि०) [भूतानि प्राणिनोऽधिकृत्य प्रवृत्त तानि देवता वा
अस्य अण] जीवित प्राणियों से सम्बंध रखने वाला। भौतिक (वि०) [भूत+ठक्] जीवित प्राणियों से सम्बन्ध रखने ___वाला। मौलिक, भौतिक तत्त्व, लौकिक। भौतिक विद्या (स्त्री०) जादूगरी, आधुनिक शिक्षण,
विज्ञान-गणितादि की विद्या। भौम (वि.) [भूमि+अण्] पार्थिव।
पृथिवी पर होने वाला।
* मिटटी से सम्बन्धित। भौमः (पुं०) मंगलग्रह। (जयो०८/२०)
०जल, प्रकाश।
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भौमदिनं
८००
भौमदिनं (नपुं०) मंगलवार। भौमवारः (पुं०) मंगलवार। भौमरत्वं (नपुं०) मूंगा। भौमिक (वि०) पार्थिव, लौकिक, पृथ्वी पर रहने वाला। भौरिकः (पुं०) कोषाध्यक्ष। भौवादिक (वि०) भू से प्रारंभ होने वाला। अंश् (अक०) गिरना, टूटना, भंग होना।
टपकना, विचलित होना। ०छूटना, अलग होना। ०क्षीण होना, मुझाना, घटना।
बिगाड़ना (जयो० २/६६ भ्रंशयेत्।
०पछाड़ देना, वञ्चित करना। भ्रंशः (पुं०) [भ्रंश मात्रे घञ्] टूटना, नष्ट होना, क्षीण होना।
०पतन, लाश, नष्ट, घात, क्षय, क्षीण, विध्वंस।
०भाग जाना, पलायन करना। भ्रंशन् (वि०) [टूटने वाला] भ्रंशनं (वि०) पतन, विनाशक, वञ्चित होना, विचलित। भ्रंशिन् (वि०) [भ्रंश्+णिनि] पतनशील, विचलित, विध्वंस।
नष्ट होने वाला। भ्रंक्ष (सक०) निगलना, गले उतारना। भ्रञ्जनं (नपुं०) [भ्रस्ञ्+ल्युट्] भूनना, तलना, सेंकना। भ्रण (अक०) शब्द करना। (जयो० ३/४१) भ्रम् (अक०) घूमना, इधर-उधर जाना, परिभ्रमण करना, टहलना, फिरना।
भटकाना, इधर-उधर होना। ०डगमगाना, फड़खड़ाना। फुर फुराना, फड़ फड़ाना। चंचल होना, उद्विग्न होना। ०भुलाना, गुमराह होना।
प्रदक्षिणा देना, मोड़ना। ०मंडराना, चक्कर खाना।
गिरना-भ्रान्त्वा, परिभ्राय। (जयो० ११/२) भ्रमः (पुं०) [भ्रम्+घञ्] घूमना, टहलना, चक्कर लगाना।
विभ्रम, नशा। (वीरो० ४/२४) ०पर्यटन। (जयो० ३/११३)
आवर्तित होना, परिक्रमा, प्रदक्षिणा। • भूल, त्रुटि, गलती, अशुद्धि। (सुद० १११) ०भ्रान्ति, संदेह। (जयोवृ० ७/२१)
व्याकुलता, उलझन। भंवर, जलावर्त। (जयो० २/२५) घूर्णि।
जल फौवारा। भ्रमणं (नपुं०) [भ्रम् ल्युट्] घूमना, चक्कर काटना, टहलना।
मुड़ना, विचलन, पथभ्रंशन। ०पर्यटन, हलन-चलन।
घूर्णन, घुमेरी। भ्रमत् (वि०) घूमना, टहलना। भ्रमरः (पुं०) [भ्र+करन्] भौंरा। ०मधुमक्खी , षट्पद।
०मधुलिह। (जयो० ६/१३०) शिलीमुख। (जयोवृ० १४/५०) ०अलि। (जयो०३० २१/२६)
०मिलिन्द। (जयो०वृ० १०/११८) भ्रमरगीति (स्त्री०) भ्रमर गुञ्जार। (वीरो० ६/२२) भौंरों का
गुनगुनाना। भ्रमर गुञ्जारः (पुं०) भ्रमरगान, भ्रमरगीति, भौंरों की गुनगुना।
(वीरो० ६/२२) भ्रमरजालं (नपुं०) भ्रमर समूह। भ्रमरनदं (नपुं०) भौंरों की गुनगुन। भ्रमरनादं (नपुं०) भौंरों की गुनगुनाहट। भ्रमरपदं (नपुं०) भ्रमर चरण। भ्रमरप्रियः (पुं०) कदम्ब तरु। भ्रमरमण्डलं (नपुं०) मधुमक्खियों का समूह। भ्रमरमोदः (पुं०) भौंरों का गान। भ्रमरसमूहः (पुं०) अलिषक, भ्रमर गुल, भौंरों का झुण्ड।
(जयो०वृ० २१/६६) भ्रमरिका (स्त्री०) [भ्रमरक+टाप] सब दिशाओं में घूमने
वाला। भ्रमरी (स्त्री०) [भ्रमर+ङीप्] षट्पदी, भौंरी। (वीरो० ३/३३)
(वीरो० ४/३४) भ्रमवश (वि०) संदेह वश। (सम० ७/१४) भ्रमोत्पत्तिः (स्त्री०) संदेह का जन्म। (वीरो० ९/२१) भ्रमिः (स्त्री०) [भ्रम् इ] आवर्तन, मोड़, चक्कर दार गति।
घूमना, परिक्रमा। भ्रष्ट (वि०) [भ्रंश्+क्त] ०पतित, गिरा हुआ।
वियुक्त, वञ्चित। आत्मगत भावों से विमुख। निष्कासित, निकाला गया।
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भ्रष्टधर्म
८०१
०क्षीण, ओझल, नष्ट।
मुर्शाया हुआ, मलीन। भ्रष्टधर्म (वि०) क्षीण धर्म वाला। भ्रस्ज् (सक०) तलना, भूनना, सेकना। भ्राज् (अक०) चमकना, प्रकाशित होना।
जगमगाना, कान्ति युक्त होना। (जयो० ५/४७) भ्राजः (पुं०) [भ्राज्+क] सूर्य का एक भेद। भ्राजक (वि०) [भ्राज्+ण्वुल्] चमकाने वाला, देदीप्यमान। भ्राजकं (नपुं०) [भ्राज्+अथुच्] ०कान्ति, प्रकाश, आभा।
उज्जवलता, सौंदर्य। भ्राजिन् (वि०) [भ्राज्+णिनि] चमकने वाला, जगमगाने
वाला। भ्राजिष्णु (वि०) [भ्राज्+इणुवच्] उज्ज्वल, दीप्तिमान। भ्राजिष्णुः (पुं०) शिव, विष्णु। भ्रातृ (पुं०) [भ्राज्+तृच्] भाई। सहोदर। (सुद० ९७) (जयो०
८५८९, ११/६८)
घनिष्ट मित्र, सगा सम्बंधी। भ्रातृजः (पुं०) भतीजा, भाई का लड़का। भ्रातृजा (स्त्री०) भतीजी, भाई की लड़की। भ्रातृजाया (स्त्री०) भौजाई, भाभी, भाई की पत्नी। भ्रातृद्वितीया (स्त्री०) कार्तिक शुक्ला द्वितीया। बहन के घर
भाई को आमंत्रित करने की तिथि। भ्रान्तृपुत्रः (पुं०) भतीजा। भ्रातृश्वसुरः (पुं०) जेठ, पति का बड़ा भाई। भ्रांतृव्यः (पुं०) भतीजा। भ्रान्त (वि०) [भ्रम+क्त] ०भटका हुआ, भूला हुआ।
कुपथगामी। ०अपने विचारों में दृढ़ नहीं रहने वाला।
इधर-उधर घूमने वाला, चक्कर खाया हुआ। भ्रान्तं (नपुं०) [भ्रम्+क्तिन्] ०भूल, त्रुटि, गलती, भ्रम, संदेह।
अनिश्चय, आशंका।
घबराहट, उद्विग्नता। भ्रान्तिमत् (वि०) [भ्रान्ति+मतुप्] घूमने वाला, भटने वाला।
०संदेहयुक्त, भ्रमित, शंकित। (वीरो० १२/१३) भ्रान्तिमदलंकारः (पुं०) भ्रान्तिमान अलंकार। जिसमें दो वस्तुओं
को पारस्परिक समानता के कारण एक वस्तु को भूल से अन्य वस्तु समझ लेना। भ्रान्तिमानन्यसंवित्ततुल्यदर्शने। (जयो० २४/१८) भ्रमन्ति ये यं परितो मदोत्कटाः कटाः श्रयन्ते ननु चेतनात्मनाम्। मनांसि सेवार्थममुष्य पर्वतावतार उर्वीध्रपतेरिति भ्रमम्।
भ्रान्तिमानालंकारः (पुं०) भ्रान्तिमान अलंकार (वीरो० २/१३)
(जयो० १३४/६३) (जयो०८८) धान्यस्थली पालक-बालिकानां, गीतश्रुतेर्निश्चलतां दधानाः चित्तेऽध्वनीनस्य विलेप्यशङ्का,
मुपादयन्तीह कुरङ्गरङ्काः।। (वीरो० २/१३) भ्रान्तिहेतुकोत्प्रेक्षा (स्त्री०) भ्रान्तिमान अलंकार के साथ उत्प्रेक्षा।
समुलसन्नीलमणिप्रभाभिः, समङ्किते यद्वरणेऽथवा भीः। राहोरनेनैव रविस्तु साचि श्रयत्युदीचीमथवाऽप्यवाचीम्।।
(जयो० २/२९) भ्रामः (पुं०) [भ्रम्+अण्] घूमना। हिंडन, परिभ्रमण।
आसक्ति, मूर्छा, मोह।
त्रुटि, अशुद्धि, गलती। भ्रामक (वि०) [भ्रम्+णिच्+ण्वुल्] घुमाने वाला, आवर्तित
करने वाला। भ्रामकः (पुं०) चुम्बक पत्थर। भ्रामर (वि०) भ्रमर सम्बंधी। भ्रामरं (नपुं०) चुम्बक पत्थर। ०चक्कर काटना, घूमना। भ्रामरी (स्त्री०) भ्रमर जैसी वृत्ति, मुनिचर्या। (जयो० २३/४६) भ्रामरीवृत्तिः (स्त्री०) मुनिचर्या की एक पद्धत्ति, जिसमें मुनि
आहार के समय जो वृत्ति अपनाता है वह भ्रमर के समान
होती है। (मुनि० १०) भ्राश् (अक०) चमकना, सुशोभित होना। भ्राष्ट्रः (पुं०) [भ्रस्+ष्ट्रन्] भाड भडभूजा, कड़ाही। (वीरो०
१२/१८)
प्रकाश, चमक, अग्नि। भ्राष्ट्रपदं (नपुं०) भाडस दृश। 'ब्रह्माण्डकं भाष्ट्रपदेन शप्तम्। ___(वीरो० १२/१८) भ्रुकुटिः (स्त्री०) भौंह, अक्षि चितवन। भ्रूड् (सक०) संचय करना, एकत्रित करना। भ्रू (स्त्री०) भौंह। भ्रूभङ्ग (नपुं०) भ्रुकुटिविकृति, चलायमान चितवन। भ्रूणः (पुं०) प्रार्य, कलल।
०बच्चा शिशु। स्त्री के गर्भ में पलने वाला शिशु, जो
कलल रूप है, अविकसित है। धृयुगः (पुं०) धनुषाकार। (जयो० ) भ्रेज (अक०) चमकना, प्रकाशित होना।
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८०२
मघवः
मः (पुं०) पवर्ग का अन्तिम वर्ग, इसका उच्चारण स्थान
नासिका है। मः (पुं०) [मा+क] ०काल, समय।
विषय। ०चन्द्र।
ब्रह्मा, विष्णु। व्यमा
माला। (जयो० १९/३७) ०अपराधी। (जयो०) मं (नपुं०) जल, प्रसन्नता, कल्याण। मकरः (पुं०) [मं+विषं किरति कृ+अच्] घड़ियाल, मगर,
समुद्र जन्तु, ग्राह। (जयो० २/७०) जल चर जीव। (दयो० १९)
मकरराशि। मकरतः (मकरः) देखो ऊपर। मकरतः (पुं०) नक्रादवरत, मकर। (जयो० ९/६१) मकरकेतनः (पुं०) कामदेव, मदन। मकरध्वजः (पुं०) कामदेव। मकरकेतुः (पुं०) मदन, कामदेव। मकरन्दः (पुं०) शहद, मधु। ०चमेली, * कोयल, ०भ्रमर।
__०केशर। (जयो० १४/६१) मकरंदरजं (नपुं०) पुष्पराग। (जयो० १३४/६२)
एक भस्म। (जयो० ५/६०) मकरमुखं (नपुं०) एक आसन, योगासान, मकर के मुख के
समान दोनों पादों को स्थित करना। मकरराशिः (स्त्री०) मकरराशि। मकरसंक्रमणं (नपुं०) सूर्य का मकरराशि में प्रवेश। मकराकारः (पुं०) मकर व्यूह। (जयो० ७/८३) एक यौगिक
क्रिया में स्थित होना। मकरानुकारी (वि०) वक्रसदृश। (जयो० २१/८) मकरिन् (पुं०) [मकर+इनि] समुद्र। मकरी (स्त्री०) [मकर+ङीप्] मादा घड़ियाल। मकुटं (नपुं०) मुकुट, सिरमोर। मकुतिः (स्त्री०) शूद्र शासन। मकुरः (पुं०) [मक्+उरच्] शीशा, दर्पण।
०बकुल तरु।
काली, कुम्हारदंड। मकुलः (पुं०) बकुल तरु।
मकुष्ठः (पुं०) मोठ। मकूलकः (पुं०) कली, दंतीतरु। मक्क् (सक०) जाना, पहुंचना। मक्कुलः (पुं०) [मक्क+उलक्] ०धूप, गुग्गुल, गेरु। मक्कोलः (पुं०) [मक्क+ओलच्] खड़िया मिट्ठी। मक्ष (अक०) इकट्ठा होना, ढेर लगना, सञ्चय करना।
क्रोधित होना। मक्षः (पुं०) [मश्+घञ्] क्रोध। मक्षिका (स्त्री०) [मश्+ण्वुल+टाप्] मक्खी, मधुमक्खी,
शहदमक्खी । (जयो० १५/५५) मक्षिकामलं (नपुं०) मोम। मक्षिकावातः (पुं०) शहद की मक्खियों का समूह। मक्षिकाणां
संरघाणां वातस्य समूहस्य (जयो०वृ० २/१३०) ०सरपा
समूह। मख् (सक०) जाना, चलना, सरकना। मखः (पुं०) यज्ञ। मखक्रिया (स्त्री०) यज्ञ कार्य। मखद्विष् (पुं०) पिशाच, राक्षस। सखद्वेषिन् (पुं०) पिशाच, राक्षस। मखमलं (नपुं०) मुलायम वस्त्र। (वीरो०८/५३) मखह्न (पुं०) इन्द्र। मखबह्निः (स्त्री०) यज्ञाग्नि। (जयो० १२/७०) मखमार्गः (पुं०) यज्ञकार्य। (जयो० १२/८७) मखाद्विः (स्त्री०) यज्ञाग्नि। मखानलः (पुं०) यज्ञ वह्नि। यज्ञ की दीप्ति। मगधः (पुं०) [मगध्+अच्-मगं दोषं दधाति वा-मग+धा+क]
एक देश, विहार का दक्षिण भाग। ०भाट, बन्दी, चारण। मग्न (भू०क०कृ०) [मस्ज्+क्त] ०डूबा हुआ, निमग्न, तल्लीन।
चिन्मात्र में विश्रान्ति। आत्म स्वरूप में तल्लीनता।
लिप्त, गोता लगाता हुआ। मग्नमनस् (नपुं०) तल्लीनमन। (जयो० ६/६२) मघः (पुं०) औषधि।
वह (पु.
) यज्ञ
(जयो
सुख।
०मघा नक्षत्र। मघवः (पुं०) इन्द्र। यथाऽऽषाढं सभासाद्य मघवा वारि वर्षति।
(वीरो० १३/३३)
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मघवनः
८०३
मङ्गलपूर्तिज
उल्लू।
०पेचक। मघवनः (पुं०) इन्द्र। मघा (स्त्री०) [महाघ, हस्य घत्वम् टाप्] मघा नक्षत्र। मघाभवः (पुं०) शुक्रग्रह। मघोन (पुं०) इन्द्र। (जयो० २७/ ) मघोनि/मघोनी (स्त्री०) इन्द्राणी-शचि। (जयो० ५/८९) मङ्क् (सक०) जाना, पहुंचन्म।
०सजाना, अलंकृत करना। मङ्कमकनाशक (वि०) पाप नाशक-लब्ध्वा हि मङ्कमकनाशक
एषकश्च। (सुद० १३६) मङ्किलः (पुं०) [मङ्क+इलच्] दावाग्नि, अरण्याग्नि। मङ्करः (पुं०) [मक उरच्] दर्पण, शीशा। मङ्क्षणं (नपुं०) पिंडलियों के रक्षा कवच। मक्षु (अव्य०) [मङ्ख+उन्] शीघ्र, जल्दी से, तुरंत।
अत्यंत, बहुत, विशाला मङ्गः (पुं०) [मंल+अच्] नृप चरण, एक औषधि। मङ्ग (सक०) जाना, पहुंचना। मङ्गः (पुं०) [म अच्] नाव का अग्र भाग। उमंग।
(सुद० १३६) मङ्गल (वि०) [मग्+अलच्] ०कल्याण, शुभ, अच्छा,
मलं गालयति विनाशयति दहति हन्ति विशोधयति विध्वसंयतीति मंगलम्। (धव० १/३१)
जो सुख को लाता, मल को गलाता। शास्त्रपारगमन को प्राप्त कराने वाला। 'म' नाम मल का है, जो पाप रूप मल को नष्ट करता
वह मंगल है। मङ्गलकरणं (नपुं०) मंगल कार्य वाली। मङ्गलकर्मन् (नपुं०) शुभकर्म। कल्याणकारी कर्म। (दयो०६९) मङ्गलकलश: (पुं०) उज्ज्वलकुम्भ, शुभ घट। (जयो०वृ० १६/१) मङ्गलकारक (वि०) कल्याणकारी। मङ्गलकारिन् (वि०) शुभकारी। स्मरेदिदानी परमात्मनस्तु सदैव
यन्मङ्गल कारिवस्तु। (सुद० १३०) मङ्गलकारिणी (स्त्री०) आनंद उत्पन्न करने वाली। शुभदायिनी।
(दयो०११२) मङ्गलकारिवस्तु (नपुं०) शुभकारक वस्तु। (सुद० १३०) मङ्गलकार्य (नपुं०) शुभ अवसर, मांगलिक कार्य। मङ्गलकुम्भः (पुं०) मङ्गलकलश, उज्ज्वलकलश, शुभ कार्य
के प्रसंग पर स्थापित किया जाने वाला हल्दी, सुपारी, सरसों, अक्षत एवं शुद्ध जल से युक्त नारिकेल एवं वस्त्र
से सुसज्जित अशोक पत्र रूप पंखुरियों से युक्त होता है। मङ्गलक्षौमं (नपुं०) मांगलिक वस्त्र, स्वच्छ वस्त्र। मङ्गलगीतं (नपुं०) भद्रगीत, सौख्य से परिपूर्ण गान। (जयो०
६/१२८) शुभ गीत।। मङ्गलगोत्रं (नपुं०) शुभ गोत्र। मङ्गलग्रहं (नपुं०) शुभग्रह, उचित ग्रह। मङ्गलचैत्यं (नपुं०) अर्हत्, चैत्य।
०कल्याणप्रद भगवद् देवालय।
मंगलकारी प्रतिमा का स्थान। मङ्गलछायः (पुं०) प्लक्षतरु। मङ्गलतूर्य (नपुं०) उत्सव बिगुल, शंखनाद, उत्तम उद्घोष। मङ्गलदीपकः (पुं०) शुभकारी दीप। (सुद०३/११) ०देदीप्यान
दीपा मङ्गल-दीप-कल्पः (पुं०) पुण्य प्रदायी दीप स्थापन। मुदिन्दिरा
मङ्गलदीपकल्पः समस्ति मस्तिष्कवतां सुजल्पः। (सुद०
१/१२) मङ्गलपात्रं (नपुं०) उत्तम भाजन, शुभसूचक भाण्ड। मङ्गलपाठकः (पुं०) बन्दीजन, चारण, भाट। मङ्गलपूर्तिज (वि०) भला करने वाला। भवाननुज्ञा प्रकरोत्विदा
नीमहन् स वै मङ्गलपूर्तिजानि। (समु० ३/४)
श्रेष्ठ।
हितकर, संतोषजनक, इष्ट। समृद्ध, उन्नत।
उत्तम, यथेष्ठ। (जयो० १/५८) मङ्गलं (नपुं०) कल्याण रूपता भौमस्वभावता। (जयो०५/५१)
शूरा बुधा वा कवयो गिरीश्वराः सर्वेऽप्यमी मङ्गलतामीप्सवः। (जयो० ५/९१) ०शुभत्व, कल्याण कारित्व। प्रसन्नता, सौभाग्य, आनन्द। सुखी, हर्ष। ०शुभकामना। ०शुभावसर, उत्सव।
अच्छा आचरण, इष्ट कामना। गालयदि विणासयदे घादेदि दहेदि हंति सोधयदे। विहंसेदि मलाई जम्हा तम्हा य मंगलं भणिद। (ति०प०१/९) ०पूत, पवित्र, पुण्य, प्रशस्त, शिव, शुभ, कल्याण, ०भद्र एवं सौख्यादि मंगल के नाम है।
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मङ्गलप्रद
८०४
मञ्चः
मङ्गलप्रद (वि०) आनन्द प्रदान करने वाला। मङ्गलमात्रभूषण (वि०) मंगलप्रद वस्त्र अलंकरणादि। मङ्गललाजा (स्त्री०) मांगलिक लाई। (जयो० १६/१)
शुभसूचक धान्य लाजा। मङ्गलवचस् (पुं०) शुभवचन, आशीषवचन। मङ्गलवादः (पुं०) आशीवचन, शुभाशीष। मङ्गलवाद्यं (नपुं०) शंखनाद, तूर्योदोष। मङ्गलवारः (पुं०) भौमवार, मंगलवार। ममङ्गलविधिः (स्त्री०) शुभकार्य की विधि। मङ्गलशब्दः (पुं०) अभिवादन, प्रणम्यभाव, आशीषवचन।
उन्नतिसूचक शब्द। मङ्गलसिंहासनं (नपुं०) हरिपीठ, सिंहासन। (जयो०वृ० २६/९)
कल्याणकारक पीठ। उच्च स्थान बैठने का। मङ्गलसूत्रं (नपुं०) मंगलाचरण, मंगलस्मरण। मङ्गलस्मरणं (नपुं०) मंगलाचरण। मङ्गलस्नानं (नपुं०) मङ्गलाप्लावन, यथेष्ठस्थान, उत्तम स्नान।
(जयो० १/५८) मङ्गलाक्षतं (नपुं०) शुभसूचक अक्षत, केसर से परिपूरित अक्षत। मङ्गलाक्षतारोपणं (नपुं०) शुभ अक्षताञ्जलि क्षेपण।
(जयो०वृ० १२/२१) मङ्गलागुरु (पुं०) चंदन का एक वृक्ष। मङ्गलाचरणं (नपुं०) शुभकार्य में प्रभु स्मरण। मङ्गलाधारः (पुं०) शुभाश्रय। ०कल्याण सूचक। मङ्गलायनं (नपुं०) समृद्धि का मार्ग। मङ्गलावती (स्त्री०) देश नाम। धातकी खण्ड के पूर्वदिशा में
स्थित पूर्वविदेह की रजताचल पर्वत की श्रेणी युक्त देश।
(वीरो०११/२६) मङ्गलाप्लावनं (नपुं०) मङ्गल स्नान। (जयो० १/५८) मङ्गलावासः (पुं०) देवालय, मंदिर, चैत्य। मङ्गलाष्टकं (नपुं०) अष्ट मंगलमय प्रतीक 'मङ्गलानां
शर्मदायकवस्तूनां कलश-भृङ्गार-ध्वजा-दर्पण-छत्र-चामर
तालवृन्त-स्वस्तिाकाधिनानामष्टकम्।' (जयो० २६/५३) मङ्गलीय (वि०) [मङ्गल+छ] सौभाग्यसूचक, शुभगत। मङ्गलोत्तमशरण्यः (नपुं०) उत्तम शरण। सर्वतः प्रथममिष्टिरहतो
देवतास्वपि च देवता यतः। मङ्गलोत्तमशरण्यतां श्रितो देहिनां तदितरोऽतको हितः। (जयो० २/२७) सोऽह्र मङ्गलेषु
उत्तमश्चासौ शरण्य इति मङ्गलोत्तमशरणः। (जयो०वृ०२/२७) मङ्गलोपपदं (नपुं०) कलशशर्मवाट्। (जयोवृ० १२/५१)
मङ्गल्य (वि०) [मङ्गल+यत्] सौभाग्यशाली, कल्याणकारी।
सुखद, कल्याणप्रदायक।
पवित्र, पावन, विशुद्ध। मङ्गल्यः (पुं०) बटवृक्ष, नारिकेलतरु।
०मसूर दाल। मङ्गल्यकः (पुं०) [मंगल्य+कन्] मसूर दाल। मङ्घ (सक०) सजाना।
० अलंकृत करना, विभूषित करना। ठगना, धोखा देना। आरम्भ करना। निन्दा करना। ०प्रस्थान करना।
०प्रयाण करना। मच् (अक०) दुष्ट होना, नीच होना।
घमण्डी होना, अहंकारी होना। मच् (सक०) ठगना, धोखा देना। मचर्चिका (स्त्री०) उत्तम गाय। मच्छः (पुं०) मछली, मत्स्या मज्जन् (पुं०) पौधे का रस, मज्जा। मज्जनं (नपुं०) [मस्+कनिन्] ०स्नान करना, नहाना।
०प्रक्षालन, प्रमार्जन। ०डुबकी लगाना, गोता लगाना। ०डूबना, सराबोर होना।
०दन्तोत्कषण। (जयो० १९/७) मज्जा (स्त्री०) [मस्+अच्+टाप्] वसा, मांस और हड्डियों
के मध्य का रस। मज्जारजस् (नपुं०) गुग्गुल। मज्जारसः (पुं०) वीर्य, शुक्र। मज्जासारः (पुं०) जायफल। । मज्जित (वि०) बुडित, निमग्न। (जयो० ५/६८) मज्झिमनिकायः (पुं०) बौद्ध ग्रंथ। (वीरो० २०/२०) मञ्च् (सक०) ०थामना, रोकना।
जाना। (जयो० २।१५)
अलंकृत करना, सजाना। मञ्चः (पुं०) [मञ्च+घञ्] ०शय्या, आसन, बैठक, सेज।
(दयो० २/९) ०बेदी, मचान, पर्यंक। (जयो० १/४९) उच्चस्थान (सम्य० १००) उच्चासन, सिंहासन, राज्यासन।
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मञ्चक
मञ्चकं (नपुं० ) [ मञ्च+कन् ] शय्या, आसन, बिछौना, बिस्तरा । ० बिछात, पलंग।
मञ्चवर: (पुं०) वक्षस्थल। (सुद० १०० )
मञ्चकाश्रयः (पुं०) खटमल ।
मञ्चिका (स्त्री० ) [ मञ्चक+टाप्] ०कुर्सी, पीठा, पाटा । ०माची, आसंदी ।
मञ्जरं (नपुं०) [मञ्जु+अर] पुष्प गुच्छ ।
० मोती ।
० तिलक तरु।
मञ्जरि: (स्त्री० ) [ मञ्जु + ऋ + इन्] पुष्प गुच्छ, पुष्पकलिका । (जयो० ११ / ९३ )
० कोपल, अंकुर, कलिका। (जयो०वृ० १२ / ३१ ) ० बोर, पुष्प संचय, फूलों का गुच्छा ।
पुष्पवृत ।
लता।
०तुलसी ।
मञ्जरित (वि० ) [ मञ्जर+इतच् ] पुष्प गुच्छ युक्त ।
मञ्जरी (स्त्री०) पुष्प गुच्छ ।
मञ्जरीङ्गित: (पुं०) आम्रवृक्ष, आम का पेड़ । (जयो० २०/८५) मञ्जा (स्त्री० ) [ मञ्जु + अच्+टाप्] ०बकरी ।
० पुष्प गुच्छक।
मञ्जि (स्त्री०) पुष्पगुच्छक ।
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० लता।
मजिफला (स्त्री०) कदली का पौधा ।
मञ्जिका (स्त्री०) वारांगना, वेश्या, रण्डी।
मञ्जिमन् (पुं० ) [ मञ्जु + इमनिच्] सौंदर्य, मनोहरता । मञ्जिष्ठा ( स्त्री०) मजीठ।
मञ्जिष्ठारागः (पुं०) मजीठ रंग ।
मञ्जी (स्त्री०) पुष्प गुच्छक । मञ्जीरः (पुं०) नूपुर |
० मञ्जीरा ।
मञ्जीरकः (पुं० ) ० मञ्जीरा, ०नूपुर ।
मञ्जीरयुगलं (नपुं०) तुलाकोटि युग, पायजेब। (जयो०वृ०११/१५) मञ्जीलः (पुं०) धीवर की बहुलता वाला गांव। मञ्जु (वि० ) [ मञ्जु + उन्] ०मनोज्ञ, प्रिय, उत्तम, मनोहर ।
(सुद० ७०)
० रुचिकर, आकर्षक, सुखद । o रमणीय, मधुर ।
८०५
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मञ्जुवाक्यत्व
मञ्जुकरं (नपुं०) पल्व सदृश हाथ ।
मञ्जुगति (स्त्री०) आकर्षक गति, मनोज्ञ चाल । ०मंद गति। मञ्जुगुणं (नपुं०) उत्तम गुण। मज्जुलेषु गुणेषु वस्तुसारभूतं । (जयो० ६ / ९२)
मञ्जुगमन (वि०) सुंदर गति युक्त ।
मञ्जुगेहं (नपुं०) रमणीय गृह । ०स्वच्छ-साफ घर । मञ्जुघोष: (पुं०) प्रिय उद्घोष, प्रभावक शब्द। ०मधुर ध्वनि । मञ्जुजाति (स्त्री०) मनोहर जन्म, श्रेष्ठकुल में उत्पत्ति । (जयो० १२ / ६१ ) ० मनोज्ञ उत्पत्ति ।
मञ्जुतम (वि०) अति सुंदर। (सम्य० १५५) भो भो प्रसन्नवदने फलितं तथा स्याः कल्याणिनीह शृणु मञ्जुतमं ममाऽऽस्यात् । (वीरो० ४/३८)
मञ्जुदीपक: (पुं०) स्नेह युक्त दीपक । (जयो० १२ / २५ ) मञ्जुनाशी (स्त्री०) सुंदर स्त्री ।
मञ्जुपत्रवाक् (वि०) सुंदर पत्र वाचक । (जयो० ३/३५ ) मञ्जुपथं (नपुं०) उत्तम मार्ग, समीचीन पथ। (समु० ३ / १५ ) मञ्जुप्राभृतं (नपुं०) मनोज्ञ उपहार। ० आकर्षक भेंट, ०उचित
सत्कार ।
मञ्जुपूत: (पुं०) सुपुत्र, योग्य पुत्र ।
मञ्जुभाषिन् (वि०) प्रिय भाषणी ।
मञ्जुभाषिणी (स्त्री०) मनोज्ञ वचन प्रभाषिणी, मनोहारी शब्द प्रयोग करने वाली। (जयो० १२/९२, वीरो० ३/१९ ) शस्यवाक् (जयो०वृ० १४ / ५२ )
मञ्जुल (वि०) सुंदर (सुद० १३६) ०रमणीय, प्रशंसनीय ।
० मनोहर (जयो० ३ /७६)
० मधुर, मनोज्ञ, प्रिय ।
मञ्जुलं (नपुं०) लतामण्डप, कुंज, लतागृह । मञ्जुलगान (वि०) मधुर गाने वाली । (जयो० १२ / १०९ ) मञ्जुलता (वि०) मनोज्ञता, मनोहरता, ० रमणीयता, सुंदरता
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(जयो० ११/८१) (सुद० ३/३३) (सुद० २५ ) मञ्जुलतारा (स्त्री०) चंचल कनीनिका । (जयो० २२ / १९ ) मञ्जुलवेषं (नपुं०) पूतवेष, पवित्र वस्त्राभूषण। (जयो० १२ / १२१ ) मञ्जुला ( स्त्री०) मनोज्ञा, प्रिया। (जयो०वृ० १६ / ७३ ) मञ्जुलापी (वि०) मधुर शब्द करने वाली । तनोति नृत्यं मृदुमञ्जुलापी मृदुङ्गातिः स्वानजिता कलापी ।। (वीरो० ४/९) मञ्जुवाक् (वि०) मधुर बोलने वाली । 'मञ्जुर्मनोज्ञा वाग्वाणी । (जयो० ७२/७ )
मञ्जुवाक्यत्व (वि०) मधुर वचनत्व। (जयो० २ / ६० )
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मञ्जुवृत्तं
मञ्जुवृत्तं (नपुं०) निर्दोष छन्द, मनोहर आचरण । मञ्जुलस्य सुंदरस्य मनोमोहकस्य वृत्तस्याचरणस्य यो विभवः' (जयो०वृ० ३/११) मञ्जूनां निर्दोषाणां वृत्तानां छन्दसां विभवस्य आनन्दस्य अधिकारिणी (जयो०वृ० ३/११) मञ्जुसमीरणं (नपुं०) मन्द मन्द पवन, मनोज्ञ हवा (समु० ६/३३ ) ०लुभावनी / प्रिय / सुखद पवन ।
मञ्जुस्वरं (नपुं०) सुंदर स्वर । मञ्जूपासकः (पुं०) हर्षयुक्त उपासक । (जयो० १ / ११३ ) मञ्जूषा (स्त्री०) [म+ऊपन्+टाप्] ०करण्डिका, डिब्बी, संदूक ०पेटी आधार
पिटारा |
० टोकरी, ० मजीठ |
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० पत्थर ।
मटकी (स्त्री० ) [ मट्+अप्छीष्] ओला, बर्फ पिण्ड मठ् ( अक० ) रसना, बसना, निवास करना । मठ् (सक०) पीसना ।
० जाना, पहुंचना ।
मठ: (पुं०) [मठत्यत्र मठ घनर्थं क] ० शिक्षालय, विद्यामंदिर, ज्ञानकेन्द्र |
० मठ, कुटिया, उपाश्रय, उपासनागृह, आराधना स्थान | ०देवालय, मन्दिर ।
मटर (वि०) [मन्+अट्ठ अन्तादेशः] मदहोश, नशे में धुत्त । शराबी।
मठिका (स्त्री० ) [ मठ+कन्+टाप्] ०कुटी, ०कुटिया, ०घास-फूंस का छोटा घर, कुटीर |
०
मठी (स्त्री०) कुटी, कुटिया ।
मण ( सक०) बजाना, गुनगुनाना ।
।
मणि: (स्त्री० ) [ मण्+इन्ङीप् ] रत्न मोती, आभूषण (जयो०वृ० ३ / ७९) (सुद० ३९)
० मणिबन्ध, कलाई।
०जड़ी। (दयो० ७७)
० जलकलश |
मणिकः (पुं०) जलकुम्भ, जलपान, मटकी (जयो० २/११३) कलश। (जयो० ११/३७)
मणिकण्ठः (पुं०) नीलकण्ठ पक्षी ।
मणिकण्ठकः (पुं०) मुर्गा, कुक्कुटा
मणिकाननं (नपुं०) ग्रीवा, गर्दन। मणिकार: (पुं०) जौहरी, रत्नपरीक्षा (जयो० ७/८ )
८०६
मणितारकः (पुं०) सारस पक्षी । मणिदर्पण: (पुं०) रत्नजटित दर्पण | मणिधनु (नपुं०) इन्द्रधनुष । मणिपुर: (पुं०) नाभि । मणिबन्धः (पुं०) कलाई।
मणिभू (स्त्री०) रत्नजटित भूमि, मणिमय आंगन । मणिभूमि (स्त्री०) मणियों का क्षेत्र
शोभा।
मणिभूजांशु (नपुं०) रत्नजटित आभूषण (जयो० १२/१३३) मणिमन्थं (नपुं०) सेंधा नमक ।
मणिमाला (स्त्री०) रत्नमयी हार। ०कान्ति, आभा, प्रभा
लक्ष्मी ।
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०सजाना, शोभित करना ।
०घेरना।
० एक छन्द नाम।
मणिमाणिक्कं (नपुं०) मणि एवं मणिक्य (वीरो० १५/४८) मणियष्टिः (स्त्री०) मणिमय लड़ी।
मणिरत्नं (नपुं०) आभूषण, रनजडित अलंकार । मणिरागः (पुं०) सिन्दूर !
मणिशिला ( स्त्री०) रत्नमयी शिला, रत्नमयी पाण्डुकशिला । मणिसूत्रं (नपुं०) मोतियों की लड़ी।
मणिसोपानं (नपुं०) रत्नजटित सीढ़िया ।
मणिस्तम्भ: (पुं०) स्फटिक भवन।
मणिहर्म्यं (नपुं०) स्फटिक भवन ।
मणीचकः (पुं०) [मणि+चक्+अच्] राम चिरैया। मणीचकं (नपुं०) चन्द्र कान्तमणि ।
मणीनिहान्त ( वि०) हीरकाछिन्न। (जयो० २४/३८) मणीवकं (नपुं०) पुष्प ।
मण्ड् (सक० ) अलंकृत करना ।
० विभक्त करना, विभाजित करना ।
० बांटना |
मण्डकः
०धारण करना, पहनना।
मण्डः (पुं० ) [ मण्ड्+अच्] ०माड, मलाई, झाग ।
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०उफान, ०रस, सत् ।
० आभूषण, श्रृंगार, ० एरण्डतरु |
मण्डकः (पुं० ) [ मण्ड्+कन्] कसार, आटे को सेंककर शक्कर युक्त मीठा कसार ।
० फुलका, पतली रोटी।
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मण्डकन्तः
واه
मतल्ल
मण्डकन्तः (पुं०) भोज्य पदार्थ। (जयो० १२/१२५)
षष्ठो गणभृत्सुमान्य। पिताऽस्य नाम्ना धनदेव आसीत् मण्डनं (नपुं०) अलंकरण। (जयो० १२/९८) आभूषण, विभूषण, ख्याता च माता विजया शुभाशीः।। (वीरो० १४/७) सजाना, श्रृंगार। (जयो० १०/४३)
मण्डित (वि०) [मण्ड्+क्त] अलंकृत, विभूषित, शोभायुक्त। मण्डनः (पुं०) शास्त्रज्ञ, दर्शनशास्त्र के विशेषज्ञ।
(जयो० ३/८३, सुद० ९५) मण्डवकः (पुं०) स्वामी। नायक, प्रभु।
मण्डूकः (पुं०) [मण्डयति वर्षा समयं मण्ड्+ऊकण्] मेंढक, मण्डनकारकजनः (पुं०) अलंकृत करने वाला व्यक्ति।
दर्दुर। मण्डपः (पुं०) [मण्डं भूषां पाति-पा-क, मण्ड्+कपन् वा] | मण्डूकं (नपुं०) रति बन्ध विशेष। तम्बू, आशयाना, छायागृह। (जयो० १०।८८)
मण्डूककुलं (नपुं०) मेंढक समूह। ०लताकुंज, लतागृह, लतामण्डप।
मण्डूकयोगः (पुं०) समाधि की विशेष स्थिति। विवाह मण्डप, खुला शामियाने युक्त स्थान। मण्डूकसरस् (नपुं०) मेंढकों से परिपूर्ण तालाब। (जयो० ३/९२)
मण्डूरं (नपुं०) [मण्ड्+ऊरच्] लोहमल, लोह जंग। मण्डयन्तः (पुं०) [मण्ड्+णिच्+अच्] आभूषण, शृंगार। मत् (भू०) कहलाना। (सुद० १२७) अभिनेता, स्त्री सभा।
मत (भू०क०कृ०) [मन्+क्त] ०सम्मानित, प्रतिष्ठित, आदर मण्डरी (स्त्री०) [मण्ड्+अरन् ङीष्] झिल्ली, झींगुर।
युक्त। (जयो० १३/१३) मण्डल (वि०) [मण्ड्+कलच्] गोल, वृत्ताकार।
०समीक्षित, विचार किया गया। मण्डलः (पुं०) सैन्य परिकर।
०सोचा हुआ, माना हुआ। मण्डलं (नपुं०) गोलाकार पिण्ड।
०मान्य। (सुद० ४/७) चक्र, परिधि, घेरा, वलय। (जयो०वृ० ५/८६)
०सम्मत, मान्य। (जयो० २/६७) बिम्ब, परिवेश।
आहतं (जयो०वृ०२/६७) चेद्भवेन्महदनुग्रहपृषयैर्मतोहि देश। (जयो० १७/१८)
भुवि पूज्यते दृषद्। ग्रहपथ, ग्रहकक्षा
अभिप्रेत, उद्दिष्ट। समाज, सम्मेलन।
अनुमोदित, स्वीकृत। मण्डकार्मुक (वि०) गोलाकार, धनुष का धारक।
मतं (नपुं०) विश्वास, उद्देश्य, योजना। मण्डलनृत्यं (नपुं०) मंडलाकार नाचना।
प्रशंसा, स्वीकृति, अनुमोदना। मण्डलावधिः (स्त्री०) मण्डलस्य देशस्ययोऽवधिः। अनुदेश, सलाह, प्रयोजन। देश की सीमा। (जयो० १३/१८)
०सम्यग्दर्शन। (भक्ति० ३०) मण्डलित (वि०) [मण्डलं कृतं मण्डल+क्विप] गोल बना | मतङ्गः (पुं०) [माद्यति अनेन-मद्+अङ्गच् दस्य व:] ०हस्ति, हुआ। ०बतुला
हाथी, करि। (दयो० ४०) मण्डलिन् (वि०) [मण्डल+इनि] गोल बनाने वाला, मेघ, बादल। कुण्डलाकृत।
मतङ्गजः (पुं०) [मतङ्ग जन्+ड] हस्ति, हाथी, करि। (जयो० मण्डलिन् (पुं०) सर्प। अहि, नाग।
८/२३) व्यलोकि लोकैः समरे स धन्यः, प्रहृष्टरोमेव बिलाव।
मतङ्गजोऽन्यः। (जयो० ८/१९) कुत्ता।
मतङ्गजेन्दः (पुं०) उत्तम हाथी। (जयो०१३/१०५) ०ऐरावत
हस्ति । ०बटवृक्षा
मत-बोध-वृत्तं (नपुं०) सम्यग्दर्शन, सम्यग्दर्शन और मण्डिकः (पुं०) मौर्य ग्राम में उत्पन्न ज्ञाता पुरुष, जिसे छटे सम्यक्चारित्र।
गणधर के रूप में जाना जाता है। उनके पिता धनदेव और मतल्ल (वि०) महाबलशाली। रत्नत्रय। (वीरो० १२/४५) माता विजया थी। मौर्यस्थले मण्डिकसंज्ञयाऽन्यः बभूव * विचार शीला(भक्ति० ३०) ०सम्मानित।
सूर्य।
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मतल्लिका
मतल्लिका (स्त्री०) [मत मति अलति भूषयति मत्+अक् + ण्वुल् ] ० प्रशस्त, उत्तम, सर्वोत्कृष्ट । (जयो० १४/१७) 'मतल्लिकामचर्चिका प्रकाण्डमुद्धतल्लजौ (जयो०वृ० १४/१७) 'प्रशस्त वाचकान्यमून्ययः शुभावहो विधि : ' इत्यमरः (जयो०वृ० १४/१७) मतल्ली देखो ऊपर।
मताभिमानी (वि० ) अपने अपने मत के अभिमानी। निर्देष्टुमुद्यतमना न मनागिदानीं सङ्कोचमञ्चति किलातममताभिमानी। (वीरो० २२/२३)
मतिः (स्त्री० ) [ मन्+ क्तिन्] ०बुद्धि, धी, प्रज्ञा, मेधा । मननं मति:
० ज्ञान, समझदारी |
० अनुमति। (जयो० ३/८५)
० विचारधारा - प्रवर्तते किञ्च मतिर्ममेयम् । (जयो० १/ २३) 'मम ग्रंथकर्तुरियं मतिर्विचारधारा' (जयो०वृ० १/ २३) ० सोचना, विचार करना - नयेदिति न मे मतिः' (सुद० १३६)
० मन, हृदय ।
० सम्मति, विश्वास, श्रद्धा ।
० कल्पना, भाव, परिबोध ।
० अभिप्राय, योजना, प्रयोजन | ० प्रस्ताव निर्धारण ।
०सम्मान, प्रतिष्ठा, आदर।
० अभिलाषा, इच्छा, कामना। ० सलाह, परामर्श |
मतिकेन्द्रः (पुं०) बुद्धि भाग, ज्ञानकेंद्र। (जयो० ९ / ३४ ) मतिगर्भ (वि०) प्रज्ञावन्त, धीमान ।
० बुद्धिमान, प्रज्ञाशील ।
० चतुर ।
मतिजिना ( स्त्री०) वृषभदास की सेठानी जिनमति । (सुद०२/४) मतिज्योति : (स्त्री०) बुद्धि प्रकाश ।
मतिज्ञ (वि०) बुद्धिवान् ।
८०८
मतिदा ( वि०) बुद्धि प्रदाता ।
मतिज्ञानं (नपुं०) बुद्धिजन्यज्ञान, ज्ञान के भेदों में प्रथम मतिज्ञान इन्द्रिय और मन से होने वाला ज्ञान । पञ्चभिरिन्द्रियैर्मनसा च यदर्थग्रहणं तन्मति ज्ञानम्। ( धव० १ / ३५४) तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम् । (त०स० १ / १४ )
मतिदानी (वि०) बुद्धिदाता ।
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मतिदोषः (पुं०) बुद्धिदोष । मतिधर (वि०) बुद्धिमान ।
मतिनन्दी (वि०) बुद्धि से आनन्द करने वाला। मतिनाथः (पुं०) बुद्धिवादी । (जयो० ४/४१) मतिपूर्व (वि०) यथेच्छ, साभिप्राय ।
मतिपूर्वं (अव्य०) स्वेच्छा से अभिप्राय सहित, प्रयोजन से। मतिपूर्वकं (अव्य०) प्रयोजन से, स्वेच्छा से | मतिप्रकर्षः (पुं०) चतुराई, श्रेष्ठता । मतिभेदः (पुं०) विचार भिन्नता । मतिभ्रमः (पुं०) व्यामोह, मानसिक भ्रम ।
मतिमान् (वि०) बुद्धिमान, ज्ञानी। (सुद० २/४९, सुद० ११०) तज्जयाय मतिमान् धृतयुक्तिरिस्तु सैव खलु सम्प्रति मुक्तिः । (सुद० ११०) गतमनुगच्छति यतोऽधिकांश: सहजतयैव तथा मतिमान् स।।
२५/७३)
० नारिकेल तरु |
अन्याननुकूलयितुं कुर्यात्स्वस्य सदाऽऽदर्शमयीं चर्याम् ॥ मतिर्धुत: (पुं०) पागल, बुद्धि रहित । (सुद० ९/२) (वीरो०
१०/३९)
मतिर्हता (वि०) बुद्धिभ्रष्ट । (समु० ७/१४) मतिविपर्यासः (पुं०) व्यामोह, मानसिक भ्रम | मतिविभ्रमः (पुं०) उन्माद, पागलपन, मन में संशय ।
मतिशालिन् (वि०) बुद्धिमान् ।
मतिहीन ( वि०) मूर्ख, अज्ञानी ।
मतिसन्निवेशः (पुं०) बुद्धि रचना। (जयो० १ / ६२ )
मत् स्वीकृत (जयो० २/७५)
मत्क (वि० ) [ अस्मद् + कन्] मेरा, हमारा, मेरे । (सुद०४/२९) मत्कुणः (पुं० ) [ मद्+क्विप्, कुण+क] खटमल । (जयो०
मत्तगमन:
०छोटा हस्ति, बिना दांत का हाथी । ० भैंस |
मत्कुणं (नपुं०) जंघाओं का कवच ।
मत्त (भू०क०कृ० ) [ मद्+क्त] ०उन्मत्त, मदहोश, मदोन्मत्त। ० पागल, विक्षिप्त, अहंकारी।
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मत्तः (पुं०) पागल व्यक्ति, उन्मत्त ।
० कोयल ।
० भैंसा |
० धतूरे का पौधा ।
मत्तगमन: (पुं०) अलसगति, स्त्री की चाल । ०उन्मत्त गति ।
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मत्तदन्तिन्
८०९
मद्
मत्तदन्तिन् (पुं०) हस्ति, हाथी। मत्तनागः (पुं०) गज, हस्ति, करि। मत्तवारणः (पुं०) स्वान्मत्तवारणः पुंसि मददुर्दान्तवारणे।
क्लीवं प्रासादवीथीनां वरण्डे चाप्यपाश्रये।। इति विश्वः। (जयो० २४/५०) ०वंदनवार। (जयो० ३/८१)
अवलम्बित- मत्तवारणतजमत्यादरतो महीपतिः । (जयो० २१/६२)
बरामदा। (वीरो० ८/४) ०वन्दनमालिका (जयो० १०/८७) •वरांडा, अलिंद।
०भवन का बहिर्गत सुसज्जित भाग। मत्तवारण: (पुं०) प्रचण्डहस्ति, मत्तहीन, उन्मत्त हाथी।
(जयो० ३/८१) मत्तवारणं (नपुं०) कटी हुई सुपारी। मत्तहस्ति (पुं०) मदोन्मत्त हाथी, मत्तवारण। (जयो०वृ० ३/८१) मत्तेभः (पुं०) हस्ति शावक। (जयो०८/७२) मत्यं (नपुं०) [मत्+यत्] ज्ञानाभ्यास, ज्ञान प्राप्त करने का ।
साधन। मत्ता (वि०) मद्रूपता, मेरे समान। (जयो० २३/७४) मत्तोऽपि (अव्य०) मुझसे भी। (सुद० ३/३८) मत्वा (सं०कृ०) [मत्+क्त्वा] ०मानकर, ०समझकर, ०ज्ञान
करके। (सुद० २/४७) मत्वा प्रीत्याम्बरं वासर एष दत्त्वा
(वीरो०८/२९) मत्त्व (वि०) ज्ञात्व, ज्ञायक। (जयो० ) मत्स्यः (पुं०) [मद्+सन्] मछली। मत्सर (पुं०) [म+सरन्] ०ईष्यालु, डाह करने वाला, जलने
वाला। ०अतृप्त, लालची, लोभी। दरिद्र, निर्धन।
दुष्ट। मत्सरः (पुं०) ईर्ष्या, डाह, जलन। मात्सर्य, कोप, खेदखिन्न
मछली। (जयो० १४/७८)
मीनराशि। मत्स्यकरण्डिका (स्त्री०) मछली रखने की टोकरी। मत्स्यगन्धः (वि०) मछली की गन्ध। मत्स्यगन्ध (पुं०) सरस्वती, भारती, वाणी, वाग्देवी। मत्स्यधातिन् (पुं०) मछुआरा। मत्स्यजाल (नपुं०) मछली पकड़ने का जाल। मत्स्यजीवन् (पुं०) मछुआरा। मत्स्यनाशकः (पुं०) कुरटपक्षी। मत्स्यपुराणः (पुं०) पुराण ग्रंथ का नाम। मत्स्यबन्धः (पुं०) मछुआरा। मत्स्यबन्धिन् देखो ऊपर। मत्स्यरङ्कः (पुं०) रामचिरैया, मछली खाने वाली चिड़िया। मत्स्यरङ्गक देखो ऊपर। मत्स्यरीतिः (स्त्री०) मत्स्य न्याय की पद्धति। (जयो० ३/४) मत्स्यवेधनः (पुं०) मछली पकड़ने की बंसी। मत्स्यसंघातः (पुं०) मछलियों का समूह। मथन (वि०) बिलोने वाला, मथने वाला।
___०क्षति पहुंचाने वाला, नाश करने वाला। मथनः (पुं०) [मथ्+घञ्] एक वृक्ष विशेष। मथनं (नपुं०) बिलोना, मथन। (सुद० १३६)
०घिसना, रगड़ना।
०क्षति, चोट, घात। मथनाचलः (पुं०) मंदराचल पर्वत। मथित (भू०क०कृ०) [मथ्+क्त] ०मथा गया, बिलोया गया।
बिक्षुब्ध किया गया, हिलाया गया। ०कुचला गया, पीसा गया। ०कष्टग्रस्त, दुःखी, अत्याचार, पीड़ित। ०वध किया गया, नाश किया हुआ।
स्थान भ्रष्ट। मथितं (नपुं०) मट्ठा, छांछ। मथिन् (पुं०) [मथ्इनि] रई का डंडा। मथुरा (स्त्री०) [मथ्+उ+ऋ+टाप्] मथुरा नगरी, यमुना नदी
के दक्षिण किनारे पर स्थित नगर। मथुरानगरी (स्त्री०) मथुरापुरी। (वीरो० ११/१५) मद् -उत्तम पुरुष एकवचन सर्वनाम। मेरे लिए। (मद्विषये
(सुद०८५) मद् (अक०) मदहोश होना, पागल होना, मस्त होना, नशे में
धुत्त होना।
होना।
मत्सरिन् (वि०) [मत्सर+इनि] ०ईर्ष्यालु, डाह करने वाला।
विरोधी शत्रुता रखने वाला।
दुष्टात्मन्, परगुणमत्सरी।
०लालायित, लालची, स्वार्थरत। मत्सी (स्त्री०) मछली। (दयो० १४) मत्स्यः (पुं०) [मद्स्य न्] ०मीन। (जयो०१० ५/७३)
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मदः
मदनोदारचेष्टित
आनंद मनाना, प्रसन्न होना। ०चूर करना। मदः (पुं०) [मद्+अच्] घमण्ड, अहंकार, अभिमान। (सुद०
११०) ०मादकता, उन्मत्तता। विक्षिप्तता, पागलपन। उत्कण्ठा, गाढाभिलाषा। ०उल्लास, आनन्द।
मदिरा, शराब। 'किं ग्लापिताऽसि मदेन' (सुद० ८७) ०मधु, शहद। ०शुक्र, वीर्य। ०कस्तूरी।
उन्मत्त (जयो० ३/१११) नशा। (जयो० ११/७६) बलाहकबलाधानान्मयूरा मदमाययुः। (जयो० ३/१११)
मद्य-मदो मृगमदे मद्ये दानमुद्गर्वरेतसि 'इति विश्वलोचना' (जयो०वृ०५/४४)
जातिमद। (सुद० २/२) ०परप्रकर्षनिबन्धन।
आनंद, सम्मोह, हर्ष। (जयो० ११/७६)
प्रेम, इच्छा, प्रीति। मदकर (वि०) मादक, उन्मत्त कारक। मदकल (वि.) मृदुभाषी, अव्यक्त भाषी, अस्पष्टभाषी। मदकारक (वि०) मदानुभाव। (जयो०वृ० १५/१४) मदकारिन् (पुं०) उन्मत्त हस्ति। मदकोहलः (पुं०) उन्मुक्त सांड, इधर-उधर विचरण करने
वाला सांड। मदकृति (स्त्री०) उन्मत्तकारी। (जयों०२/१२९) मदखेल (वि.) केलिप्रियता, प्रणय क्रीडा करने वाला। मदक्षर (वि०) अपराधकारी शब्द। मदगन्धा (स्त्री०) मादक पेय।
०पटसन। मदगमनः (पुं०) भैंसा। मदच्युत (वि०) कामुक, कामेच्छा प्रकट करने वाला,
स्वेच्छाचारी।
० आनन्ददायक, उल्लासमय। मदच्युतः (पुं०) इन्द्र। मदजनक (वि०) मोह उत्पन्न करने वाला, मद से परिपूर्ण।
(जयो०वृ० २/१३०)
मदजालं (नपुं०) मदरस, मद की प्रधानता। मदज्वरः (पुं०) कामज्वर। मदसरण (वि०) मद का अपहरण। मदस्य दारणायापकरणाय
मदापहरण। (जयो० १३/३०) मदद्विषः (पुं०) उन्मत्तहस्ति। मदन (वि०) मादक, पागलपन, आनन्ददायक, उल्लासमय। मदनः (पुं०) [माद्यति अनेक-मद्-करणे ल्युट्] कामदेव।
(जयो० ६/५१) काम (जयो० १/६०) ०धतूरा, आम्रवृक्ष। मदन-स्मर-धत्तूर-वसन्तद्रुम-सिक्थवे 'इति विश्वलोचनः' (जयो०वृ० २१/९५)
हर्ष। ०आनन्द। (जयो० ११/७६) ०वसन्त ऋतु। नशा। ०मादकता। मधुमक्खी , भ्रमर। प्रेम, प्रीति, उत्कण्ठा।
आलिगंन। ०बकुल तरु।
खैर।
प्रसन्न भाव। (जयो० ४/५२) मदनदावा (स्त्री०) मदनाग्नि, कामाग्नि। (सुद० ७४) मदनमद-हरण (वि०) काममद का हरण करने वाला। (सुद०
१३६) मदनमनोहरः (वि०) कामदेव के समान सुंदर। (जयो०१४/१६)
'मदनः स्मर-धत्तूर-वसंत-द्रुम-सिक्थके' इति विश्वलोचनः' (जयो० १४/१६)
नाना आम्रवृक्ष। मदनेन नानाम्रवृक्षण मनोहर। (जयो०वृ०
१४/१६) मदनवत् (वि०) मृदुलता, प्रेम। मदनवत्मन (वि०) मुदुलमन, सरल मन। (सुद० ७६) मदनशासिनि (वि०) कामदेवाज्ञाकारिणी। (जयो० १६/६०) मदनस्तवः (पुं०) काम प्रस्ताव। (वीरो० ६/३२) मदनारिक (वि०) कामवासना विरोधी। (जयो० २५/७९) मदनैकधुरा (वि०) ०कामोत्पत्तिकरण क्रियावती, कामोत्पादक
क्रिया साहित। (जयो० १८/१२) मदनोदयरश्मि (स्त्री०) प्रसन्नभाव के संस्कार। (जयो० ४/५२)
मदनोदयस्य प्रसन्नभावस्य रश्मिः संस्कारः। (जयो०१०
४/५२) मदनोदारचेष्टित (वि०) आम्रवृक्ष की उदार चेष्टाओं वाले।
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मदनोदारधनु
मद्यजन्मन्
(सुद० ८३) पुन्नागोचितप्रसंस्थानं मदनोदारचेष्टितम्।।
(सुद०८३) मदनोदारधनु (नपुं०) कामदेव के धनुष। 'मदनस्य कामस्योदारं
यद्धनुः'। मदनोपशब्दः (पुं०) कामजन्य शब्द। (जयो०वृ० १३/७८) मदप्रदन (वि०) मददात्री। (जयो०१० ११/७६) मदमत्त (वि०) उन्मत्त, कामवशीभूत। मदमत्तस्य तवाहर्निशमपि
चित्तं युवतिरतम्। (जयो० २३/५८) मदमंदिरं (नपुं०) मदशाला। (जयो० ५/७८) मदमत्सरः (पुं०) मद एवं ईर्ष्या। (वीरो० १८/२७) मदमर्दनकर (वि०) परदर्पलोपी। (जयो०वृ० ११/२३) मदयोगः (पुं०) अहंकार का संयोग। (सुद०९६) मदवती (स्त्री०) मानशालिनी। (जयो० १६/६२) मदवारि (नपुं०) मदजल, कटजल। (जयो० १३/२५) मदहरणं (नपुं०) विषयवासना की समाप्ति। मदहरण (वि०) मद को हरने वाले। (सुद० १३६) प्रशमधर
गणशरण जय मदन-मदहरण। (सुद० १३६) मदात (वि०) हर्ष युक्त। 'मदातं मदं हर्ष मतति प्राप्नोतीति
मदातस्तं मदो मृगमदे मद्ये दानमुदगर्वरतसि इति वि (भक्ति०१८) अथवा, मुदा तं मुदा हर्षेण तमिति
जिनविशेषणम्। (भक्ति० १८) मदातुर (वि०) कामातुर, प्रेमासक्त, रतिपीड़ा जनक। मदान्ध (वि०) मद में/विषयवासना में अंधा हुआ। (मुनि०१३) मदास्पदं (नपुं०) मद एवास्पद स्थानं, मद स्थान। (जयो०
१६/४०) मदात (वि०) कामातुर, प्रेमासक्त। मदायुधं (नपुं०) काम अस्त्र, लावण्यमयी स्त्री। मदालयं (नपुं०) स्त्री योनि।
कमल। मदारः (पुं०) [मद्+आरन्] उन्मत्त हाथी।
सूअर। ०धतूरा।
प्रेमी।
०कामुक। मदिः (स्त्री०) [मद्+इन्] पटेला, मैडा। मदित्व (वि०) मदकारी । (जयो० २/१२९) मदिर (वि०) माद्यति अनेन मद्करणे किरच। 'मादकता उत्पन्न करने वाली।
आनन्द दायक, आकर्षक।
मदिरः (पुं०) खैरवृक्ष। मदिरा (स्त्री०) [मदिर+टाप्] हाला। (जयो०वृ० १/८१)
०गरल। (जयो०वृ० १६/३१) ०कल्या। (जयो० ७/१७)
०शराब। मदिरागृहं (नपुं०) मद्यशाला। शराब स्थान। मदिरालयं देखो ऊपर। मदिरासखः (पुं०) आम्रतरु। मदिरास्वादनं (नपुं०) मद्यपान। (जयो० १६/२८) मदिष्ठा (स्त्री०) [अतिशयेन मदिनी इष्ठत् इनो लोपः, टाप्]
कल्या, हाला, शराब। मदीय (वि०) [अस्मद्+छ-मदादेश:] मेरा, मुझसे संबद्ध।
(दयो० ६७) 'मदीयं मांसलं देहं दृष्टवेयं मोहमागता'
(सुद० १०१) मदीयकरयोगः (पुं०) मेरे हाथ के कारण। (सुद० १३४) मदीयत्व (वि०) मेरी-मदीयत्वं न चाङ्गेऽपि किं पुनर्वाह्यवस्तुषु।
(सुद० १३२) मदीयभाषा (स्त्री०) मेरी वाणी। (वीरो० २/२१) मदीयहृदीष (वि०) मेरे मन के योग्य। (दयो० ६७) मदुक्तिः (स्त्री०) मेरा स्थान। (सुद० २/२९) मदोज्झित (वि०) मद रहित, अहंकार विहीन, निरभिमानता।
(जयो० ११/७२) 'मदोज्झितो दानमयप्रवृत्ति' (सुद० २/२) मदोत्कर (वि०) मद की प्रचुरता, उन्मत्ता की अधिकता।
(जयो० २४/१८) मदोदयान्वित (वि०) मद से परिपूर्ण। (समु० २/२६) मदोद्धत (वि०) मद युक्त, अहंकार से परिपूर्ण। (जयो०१३/९६) मद्गुः (पुं०) [मस्+उ] जलकाक, पनडुब्बी पक्षी।
जंगली पशु। मद्गुरः (पुं०) [मद्+गुक्+उरच्] गोताखोर।
मोती निकालने वाला। मद्य (वि०) [माद्यत्यनेन करणे यत्] ०मादक, आनन्ददायक,
उल्लासमय। मद्यः (पुं०) शराब, सरक। कथ्य (जयो० १६/३६) मैरेय
(जयो० १६/४८) (जयो०वृ० ११/७६) मदिरा
(जयो० १६/२३) मद्यकीट: (पुं०) एक कृमि। मद्यजनः (पुं०) शराबी व्यक्ति। मद्यजन्मन् (पुं०) मद्य की उत्पत्ति।
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मद्यदुमः
८१२
मधुमेहः
मद्यदुमः (पुं०) महुआ, महुडा, ताड़ी वृक्ष। मद्यपः (पुं०) ०पियक्कड़, शराबी, नशाशील, मद्य पीने
वाला। मद्यपानं (नपुं०) शराब पान, मदिरा पान। 'मद्यस्य पाने
मदिरास्वादन। (जयो० १६/२८) मद्यपीत (वि०) शराब पिए हुए, शराबी, शराब पीने वाला,
नशा करने वाला। मद्यपुष्पा (स्त्री०) धातकी पादप। मद्यभाजनं (नपुं०) मद्यपात्र, सुरापात्र। मद्यभण्डः (पुं०) मद्य झाग। मद्यवासिनी (वि०) धातकी का पौधा। मद्यविलुप्त (वि०) मद्य रहित। (जयो०१६/५५) ०नशा मुक्त। मद्यसंधानं (नपुं०) मदिरा बनाना, शराब निर्माण करना। मद्याङ्ग (नपुं०) गुड़ पीठी। (वीरो० १९/२५) मद्रः (पुं०) मद्रदेश। ०एक देश विशेष का नाम। मद्रकः (पुं०) [मद्र+कन्] मद्र देश का शासक। मद्रका (स्त्री०) एक मद्र जाति। मदूपता (वि.) मेरे समान। (जयो०१० २३/७४) मधव्यः (पुं०) [मधु। यत्] वैशाख मास। मधु (वि०) [मन्यत इतिमधु मन्+ड नस्य धः] मधुर, सुखद,
श्रेष्ठ, अच्छा, उत्तम।
आनन्द युक्त, रुचिकर। मधु (नपुं०) ०मधुमास, वसंत। (जयो०६/१०१)
शहद, पुष्परस, आसव। (सुद० ३/२३) ०भ्रमर, भौंरा। (सुद० १/३३) ०क्षौद्र (जयो०७० ३/१३) माक्षिकं भक्षिकाव्रातघातोत्थितं तत्कुल-क्लेदसम्भार-धारान्वितम्। पीडयित्वाऽप्यकारूण्यमानीयते सांशिभिर्वशिभि, किन्नु तत्पीयते।। (जयो० २/१३०) मीठा, मादक, पेय पदार्थ। शक्कर, मिठास, महुआ। मधुनाम्नैव धुना धातुना कृत। (जयो० १७/७८)
०मधु वासक राक्षस। (वीरो०६/१२) मधुकः (पुं०) [मधु+कन्] मधूक वृक्ष, महुआ।
०अशोक वृक्षा मधुकं (नपुं०) शहद। मद्यं च मांसं मधुकं क भक्षेत्। (वीरो०
१४/४२) जस्ता, मुलैठी।
मधुकण्ठः (पुं०) कोयल। मधुकरः (पुं०) भ्रमर, अलि। भौंरा।
प्रेमी, कामुक। (जयो० २५/२५) मधुकरराव: (पुं०) अलिशब्द, भ्रमर गुनगुन। मधुकराणामलीनां
रावैः शब्दैर्निपूरितम्। (जयो०वृ० १०/११३) मधुकर्कटी (स्त्री०) मीठा नींबू, चकोतरा। मधुकाननं (नपुं०) मधु उपवन, मधुमक्खियों का छत्ता। मधुकारः (पुं०) मधुमक्खी । मधुकारिन् (पुं०) मधुमक्खी, शहद की मक्खी। मधुकोशः (पुं०) शहद का छत्ता। मधुक्षीरः (पुं०) ताड़ी वृक्ष, खजूर का पेड़। मधुन् (नपुं०) मदिरा। (जयो० १५/१४) मधुगायनः (पुं०) कोयल। मधुग्रहः (पुं०) मधु का तर्पण। मधुघोषः (पुं०) कोयल। मधुच्छत्रं (नपुं०) शहद का छत्ता। (जयो० १५/५५) मधुज (नपुं०) मोम, मदिरा। (समु० ८/१२) मधुजा (स्त्री०) मिसरी, मीठा।
पृथ्वी, भूमि। मधुजम्बीरः (पुं०) मीठा नींबू। मधुजितः (पुं०) कृष्ण। मधुदा (स्त्री०) मधुरा। (जयो० ६/१३०) मधुनः (पुं०) भ्रमर, भौंरा। (सुद० १/३३) (जयो० २/१५१)
(सम्य० ६/५) मधुपतिः (पुं०) भ्रमर, भौंरा। (सुद० १/३३) मधुपान करने वाला। मधुपानं (नपुं०) मद्यपान। (जयो० ८/१००) मधुपुरी (स्त्री०) मथुरा नगरी। मधुपुष्प (नपुं०) अशोक वक्ष, मौलसिरी वृक्ष, दन्ती वृक्ष। मधुप्रणयः (पुं०) नशे का प्रेमी। मधुप्रमेहः (पुं०) शर्करा का रोग। मधुमेहरोग, मूत्र रोग। मधुफलं (नपुं०) नारिकेल। मधभृतचषकः (पुं०) पानकपात्र। (जयो० १६/२९) मधुमक्षः (पुं०) मधुमक्खी । मधुमज्जन् (पुं०) अखरोट का वृक्ष। मधुमल्लि (स्त्री०) मालती लता। मधुमाधवी (स्त्री०) वसंत ऋतु का पुष्प। मधुमारकः (पुं०) भ्रमर, भौंरा। मधुमेहः (पुं०) शर्करा रोग, मूत्रमार्ग का रोग। (जयो० १८/२२)
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मधुयष्टिः
मधुयष्टिः (स्त्री०) गन्ना, ईख, मुलैठी ।
मधुरभाषिन् (वि०) मृदुभाषी । (जयो०वृ० १ / ११२) मधुर ( वि० ) [ मधु माधुर्य राति रा+क, मधु अस्त्यर्थेर वा ]
मीठा, शहद युक्त ।
० रुचिकर, सुखद, आनंदमय । (सुद० ८६ )
० मनोहर, सुंदर, रमणीय।
० आकर्षक।
मधुरः (पुं०) गन्ना, ईख ।
० सुरीला । ०रस युक्त, कर्ण प्रिय ।
मधुरं (नपुं०) माधुर्य, मधुरपेय, शर्बत, रस ।
मधुरं (अव्य०) मिठास युक्त, मधुरता के साथ।
मधुरक्षणं (नपुं०) वसंत स्वरूप सुख सम्पत्ति (जयो० २०/८७ )
मधुस्वर : (पुं०) वसंत ऋतु। (सुद० ८१)
मधुरस: (पुं०) ताड़ वृक्ष ।
मधुरस्मित (वि०) मनोहर मुस्कान, मंद हंसी। (जयो० २१ ) मधुरा ( स्त्री०) मनोहरा, सौंदर्य युक्ता ।
० मृगायण ब्राह्मण की पत्नी । (समु० ४/२४)
० मधुदात्री । (जयो० ४ / ६८) मृदुलतारा। (जयो० ६/५० ) मधुरागत ( वि०) मधुरता युक्त, रमणीयता को प्राप्त हुआ। मधुराक्षर (वि०) मिष्टभाषी, मधुर ध्वनि, रसीला ।
मधुराचारी (पुं०) भ्रमर (समु० ४/२८) मधुप, षटपदी । मधुराधवि (स्त्री० ) परम सुंदरी। (जयो० २३/१९) मधुराधार : ( पुं०) मोम |
मधुराम्रः (पुं०) रसीला आम।
मधुरालाप (वि०) मधुर ध्वनि, उत्तम वर्ण युक्त कथन ।
मधुरास्रव: (पुं०) शहद, शराब ।
मधुराहुति: (स्त्री०) मिष्ठान्न का विसर्जन ।
मधुरोच्छिष्टं (नपुं०) वसंतोत्सव |
मधुर्धनी (वि०) वसंत सम्पन्न। (वीरो० ६/१३ ) मधुलता ( स्त्री०) वसंतलता। (जयो० २८/४) मधुला (स्त्री०) मधुरवाणी । (सुद०२ / २६ ) मधुवनं (नपुं०) वसंत ऋतु। (जयो० १४/४६) मधुल (वि०) मधुयुक्त। 'सुपाकिने मे मधुलेन सालेख्यतः ' (जयो० ११ / ७९ ) ०मिष्ठ सहि, रस परिपूर्ण । मधुलिका ( स्त्री०) राई, खुरपी, सरसों ।
मधुणिमधुः (पुं०) भ्रमर, भौंरा ।
मधुलिह् (पुं०) भ्रमर, भौंरा । प्रान्तपातिमधुलिण्मधुदानां स्वःश्रियः खलु मुदश्रुनिभानम् । (जयो० ६ / १३०)
८१३
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मधुलेह् (पुं०) भ्रमर, भौंरा । मधुलेहिन् (पुं०) मधुप, भ्रमर ।
मधुलोलुपः (पुं०) भ्रमर, भौंरा, मधुकर । (जयो० २५/२५ ) मधुविदुः (स्त्री०) शहद की बूंद । (वीरो० २१ / १५ ) मधुवार: (पुं०) मदिरास्वादन। (जयो०वृ० ६ / २८ ) मधुव्रत: (पुं०) भ्रमर, भौंरा । (वीरो० १२/९) त्यक्त्वा पयोजानि लताश्रयन्ते मधुव्रता वारिणी तप्त एते । (वीरो० )
मधुशर्करा ( स्त्री०) शहद युक्त शक्कर।
मधुशाखा ( स्त्री०) महुआ का पेड़ । मधुशिष्टं ( नपुं०) मोम | मधुशेषं देखो ऊपर।
मधुसखः (पुं०) कामदेव । मधुसुहृदः (पुं०) कामदेव, रतिपति । मधुसूदनः (पुं०) नाम, विशेष । ० भ्रमर । (जयो० १८/९ ) मधुस्थानं (नपुं०) शहद का छत्ता । मधुस्वर : (पुं०) कोयल । मधुहन् (पुं० ) शिकारी पक्षी । ० ज्योतिषी ।
मध्यकः
मधूकः (पुं०) भ्रमर, भौंरा ।
० महुआ, कोहलफल । (जयो० १८ / २५) मधूकं (नपुं०) महुए का फूल।
मधूकफलं (नपुं०) महुआ का फल। (जयो० १८ / २५ ) मधूपमा ( स्त्री०) मधु सदृश । 'मधूपमं वाक्यमुदेति शस्यम्' (सुद०२/२८)
मधूलः (पुं० ) [ मधुं लाभि ला+क] रस युक्त वृक्ष, ताड़ वृक्ष । मधूली (स्त्री०) आम्रतरु ।
मध्य (वि० ) [ मन्+ यत्-नस्य धः ] बीच का, बीच। (जयो० १/५७) केन्द्रीय, मध्यवर्ती । आद्यन्तयो अन्तर मध्यमुच्यते (जैन०ल० ८७७)
० तटस्थ, निष्पन्न।
० अन्तराल । ( वीरो० १/८, ९)
० दिन का मध्य भाग। ( सुद० १३०),
० यथार्थ, न्याय ।
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० मध्यभाग, मूलकेन्द्र बिन्दु ।
० कमर, कटि । (जयो० ३/४७)
मध्यकः (पुं०) कटिप्रदेश, कमर, नाभिस्थान। (जयो० ११ / ८७ ) ०पेट, उदर ।
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मध्यगत
८१४
मनस
मध्यगत (वि०) उदरस्थित। (जयो० १७/६९) मध्यकालः (पुं०) दोपहर का समय। मध्यक्रिया (स्त्री०) दोपहर की क्रिया। मध्यकर्णः (पुं०) अर्धव्यास। मध्यगत (वि०) केंद्रीय, मध्यवर्ती। (वीरो० २/१) मध्यगत (वि०) उदरस्थित। मध्यगत (पुं०) अवधिज्ञान। मध्यगहणं (नपुं०) आम्र तरु। मध्यग्रहणं (नपुं०) मध्य का ग्रहण। मध्यदिनं (नपुं०) दोपहर। मध्यदीपकं (नपुं०) दीपक अलंकार की एक भेद। आले में
स्थित दीपक। मध्यदेशः (पुं०) उदर, कटिभाग, उदराधो भाग। (जयो०३/४७)
०मध्यवर्ती स्थान, मध्यभाग। (जयो० ११/९५) मध्यदेहः (पुं०) कमर, उदर भाग। मध्यपदं (नपुं०) मध्यवर्ती पद। मध्यपातः (पुं०) सहधर्मचारिता।
०समागम। मध्यभागः (पुं०) कटिदेश, कमर भाग। (जयो० १२/२५) मध्यभावः (पुं०) बीच की स्थिति। मध्यम (वि०) [मध्ये भव:-मध्य+म] •बीच में स्थित, केंद्रीय।
०मध्यवर्ती।
०तटस्थ। मध्यमः (पुं०) संगीत का स्वर, पंचम स्वर। (जयो० ११/४७) मध्ययवः (पुं०) एक तौल विशेष, सरसों के छह दानों बराबर
एक तौल। मध्यम-आत्मन् (पुं०) प्रमत्तविरत आत्मा। मध्यम-उपवासः (पुं०) एकाशन पूर्वक मात्र पानी का ग्रहण,
समस्त आहार के परित्याग के साथ पानी का एकाशनपूर्वक
ग्रहण। मध्यमपदं (नपुं०) संख्यात्मक पद। मध्यमपात्रं (नपुं०) संयतासंयत पात्र, शील और व्रतों की
भावना रहित सम्यग्दृष्टि मध्यमपात्र है। मध्यमबुद्धिः (स्त्री०) मध्यम आचार परक बुद्धि। मध्यमलोकः (पुं०) मृदंगाकार लोक, मध्यलोक। (जयो०वृ०
१/७९) मेरु पर्वत के प्रमाण है अर्थात् वह मेरु पर्वत की ऊंचाई के बराबर गोल आकार में स्वयं भूरमण समुद्र
पर्यन्त अवस्थिता है। मध्यमवृत्ति (स्त्री०) संयत स्वभाव। (जयो० )
मध्यमसंग्रहः (पुं०) गुप्तप्रेम। मध्यमिका (स्त्री०) [मध्यम+टाप्] वयस्क कन्या, यौवना। मध्यरेखा (स्त्री०) केंद्रीय रेखा। मध्यरात्रिः (स्त्री०) आधी रात। मध्यलोकः (पुं०) मृदंगाकार लोक, लोक मध्य में झालर के
समान आकर वाला है। मध्यवयस् (पुं०) प्रौढावस्था। मध्यवृत्तिधारक (वि०) मध्यम आजीविका को धारण करने
वाला श्रावक। (जयो०वृ० १/११३) मध्यस्थ (वि०) समभाव में स्थित रहने वाला, राग द्वेष से
रहित, तटस्था (सुद० १११) राग-द्वेषयोरन्तरालं मध्यम्,
तत्र स्थितो मध्यस्थ। मध्यस्थवृत्ति (स्त्री०) तटस्थव्यवहार। (वीरो० ६/७) समभाव
की दृष्टि। मध्याह्न (पुं०) दोपहर का समय। मध्याह्नकालः (पुं०) दोपहर। मध्याह्नसमयः (पुं०) दोपहर। (जयो० १९/७२) द्विप्रहर (जयो०१०
१३/६८) मध्वः (पुं०) वेदांत सूत्र के भाष्यकर्ता मध्वाचार्य। मध्वकः (पुं०) [मधु+अक्+अच्] भ्रमर, भौंरा। मध्वानवः (पुं०) मधुरता का प्राप्त होना, मधुरता निकलता,
एक ऋद्धि, जिस ऋद्धि से आहार रसमयता को प्राप्त हो
जाते हैं। मध्वास्रवी (स्त्री०) एक ऋद्धि विशेष, जिससे पाणिपुर में
स्थित आहार शीघ्र मधुरता को प्राप्त हो जाते हैं। मन् (अक०) सोचना, विचारना।
कल्पना करना, विश्वास करना।
चिन्तन करना, मनन करना। मन् (सक०) मानना, देखना, समझना। (मनुते० जयो०५/२०)
०सोचना, विश्वास करना, कल्पना करना। (सुद० ३/३८) चिंतन करना, विचारना। मानना, समझना, सोचना। विचार विमर्श करना, परीक्षण करना।
अन्वेषण करना, खोजना। मननं (नपुं०) [मन् ल्युट्] सोचना, विचार विमर्श करना। चिंतन, संज्ञान, अवधारणा। मनस् (नपुं०) [मन्यतेऽनेन मन् करणे असुन्] ०अनिन्द्रिय।
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मनः कुटीर:
०चित (जयो० ३/१)
०हृदय (जयो० १/२१)
० प्रज्ञा- ' मण्डितं तेः किमस्तु नः मनः' (जयो० २८ / १०७) ० समझा, ज्ञान। मनुते (जयो०वृ० १/७३)
० सोच, विचार । मननं मन्यते वाऽनेनेति मनः ।
* कल्पना, योजना, प्रयोजन, अभिप्राय
० संकल्प, कामना, इच्छा रुचि
० सवार्थग्रहणं मनः ।
?
० स्वभाव, प्रकृति । ० मान सरोवर ।
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हृदयगत मनसा मन्यमानानां वचसोच्चरतामिदम् (हित०२) मनःकुटीर : (पुं०) आत्म गेह । (जयो०वृ० १ / १०४) मनःकृ ( नपुं०) मन को स्थिर करना, विचारों को निर्दिष्ट
करना ।
मनः बन्धः (पुं०) मन लगाना ।
मनःप्रणयनं (नपुं०) मन से होने वाला ज्ञान। (जयो० २३ / ८४ )
'मनसः प्रणयनं प्रापणमेय महत्त्वं भवेत्' (जयो०वृ० २३/८४) मनः प्रबन्धः (पुं० ) ०चित्त का स्थिरिकरण । समाधि | समाधानि मनः प्रबन्धः । (वीरो० ११ / १६ )
मन:पर्ययः (पुं०) मन से चिन्तन करना।
● मनोगत भाव को जानना।
● मनद्रव्य से प्रकाशित अर्थ परिः सर्वतो भावे, अवनं अवः, अवनं गमनं वेदनमिति पर्याया ।
८१५
० परिस्फुटमयपरिच्छेदन |
० मन की पर्याय का ज्ञान ।
०पर के मनोगत अर्थ का होना मन है, मन की पर्याय विशेष का ज्ञान।
०चित्तभ्रमण । (जयो०वृ० २८/६२) मन:पर्ययं मनसो विभ्रमणमाप्तवान्' (जयो०वृ० २८/६२)
० मनः पर्ययज्ञान विशेष ज्ञान के पांच भेदों में मनः पर्यय चतुर्थ ज्ञान है। (समु० ४ / १८ ) मन:पर्ययज्ञानं (नपुं०) ज्ञान के पांच भेदों के चतुर्थ ज्ञान, दूसरे के मन में होने वाली बात का नाम मन है और उसको सिर्फ आत्मा से जान लेना मन:पर्यय ज्ञान है। (स०सू०म०५०१७)
मनः पर्यवः (पुं०) मनोगत भाव को जानना, मनः पर्यव ज्ञान । मन: पर्याप्तिः (स्त्री०) मन के आलम्बन रूप शक्ति ।
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० मनन शक्ति |
मनो वर्गणा से उत्पन्न शक्ति
।
मनः पर्यायः (पुं०) मन की पर्याय का बोध, मनः पर्यायज्ञान मनः प्रणिधानं (नपुं०) मन की प्रवृत्ति।
मनः प्रवृत्तिः (स्त्री०) मन की क्रिया । (सुद० १३० ) मनःस्थलं (नपुं०) चित्तक्षेत्र (जयो० ३/९३) मनसिक (नपुं०) सोचना, ध्यान करना ।
० संकल्प करना, निर्धारण करना। मनसिज् (पुं०) कामदेव । (दयो० ६७) मनस्कारः (वि०) मनःप्रिय, मन के योग्य। मनस्कम: (पुं०) चित्ताभोग (जयो० ३ / १०६) ० पूर्ण चेतना ।
मनीषित
मनस्क्षेपः (पुं०) मानसिक अव्यवस्था ।
मनस्त (अव्य०) [मनस्तस्] मन से, हृदय से (वीरो० ११/२) मनस्विन् (वि०) [मनस् विनि] प्रज्ञावन्त भिज्ञा, पूज्य ०दृढात्मन् ।
एकाकी सिंहवद्वीरो व्यचरत्स भुवस्तले।
मनस्वी मनसि स्वीये न सहायमपेक्षते (वीरो० १० / ३७ ) मनस्विना ( स्त्री० ) विवेकिना। (जयो० १३ / ६३ ) मनस्विनी (स्त्री०) विचारशीला स्त्री दृढ़ प्रतिज्ञनारी उदारमना
स्त्री ।
मनाक (अव्य० ) [मन्+आक] जरा सा थोड़ा सा किञ्चिदपि। (जयो० २३/३२) (सुद० ७६)
० जातुचिदपि (जयो० ४/२५ )
०स्वल्पार्थ (जयो० ३/३४) 'मनाङ् न चित्तेऽस्यपुनर्विकारः ' (सुद० ९९ )
०शनैः शनैः, विलम्ब से ।
मनाका (स्त्री० ) [ मन्+आक्+टाप्] हथिनी । मनाग्विलम्बनं (नपुं०) कुछ बिलम्ब, कुछ देरी । (जयो०१३/६) मनिन् (वि०) [मन+क्त] ज्ञात, प्रत्यक्षज्ञान, समझा हुआ। मनीकं (नपुं०) [मन्+कीकन्] सुर्मा, अंजन। मनीषा ( स्त्री०) प्रज्ञा, बुद्धि, मति, धी। (जयो०वृ० ४ / ११ ) (जयो० ५/२३)
० चाह, इच्छा, धारणा (जयो० ६ / ३१ ) ० शोध, समझ, विचार । (दयो० ४३ )
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मनीषिका (स्त्री० ) [ मनीषा+कन्+टाप्] ० प्रज्ञा, बुद्धि, समझ मनीषित (वि० ) [ मनीषा इतच् ] ०अभिलषित, वाञ्छित
।
०प्यारा, अभीष्ट इष्ट, प्रिय
० कामना, इच्छा, चाह ।
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मनीषिन्
मनीषिन् (वि०) बुद्धिमंत । (दयो० ८/८०)
० विश्रवर। (जयो० ३ / ९८ )
० बुद्धिमान्, विद्वान्, विद्ववर ।
मनीषिन् (पुं०) पंडित, विचारक व्यक्ति ।
मनुः (पुं० ) [ मन्+उन] मनु नामक पौराणिक पुरुष । ०कुलप्रवर्तक। (जयो० १२ / ८४ )
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० महापुरुष |
० कुलकर। (जयो०वृ० १२/९, वीरो० १८/११) ० चौदह कुलकरों में अंतिम कुलकर नाभिराय को मनु कहा जाता है। क्योंकि उन्होंने सर्वप्रथम कुल परम्परा के लिए श्रेयस्कर एवं जीवन जीने की पद्धति का कथन किया था।
८१६
०प्रतिश्रुति, सन्मति, क्षेमंकर, क्षेमंधर, सीमंकर, विमलवाहन, चक्षुष्मान्, यशस्वी, अभिचन्द्र, चन्द्राभ, मरुदेव, प्रसेनजित् और नाभिराय ये चौदह कुलकर हैं। जिन्हें मनु कहा गया। विस्तार के लिए तिलोय पं० ४/४२८) से ५१० तक) ० महापुरुष |
मनुज: (पुं०) मनुष्य, मानव, मनु। (सुद० ९१) (दयो० १२) (जयो० २/१५५)
● मनुष्य जाति, नरवर्ग। (जयो० ३/३११) सुमना मनुजो यस्या महिला सारसालया । (जयो० ३/३०) मानुषीसु मैथुनसेवकाः मनुजा नाम । ( धव० १३/३९ )
मनुजपति: (पुं०) नृप, राजा ।
मनुजराजन् (पुं०) अधिपति, लोकपति, नृपति । मनुजलोक (पुं०) मनुष्य लोक ।
मनुजाति (स्त्री०) मनुष्य पर्याय । मनूनां कुलप्रवर्तकाणां जातौ समन्वये । (जयो० १२ / ८४ )
मनुजाधिप: (पुं०) राजा, नृप ।
मनुष्यः (पुं० ) [ मनोरपत्यं यक् सुक् च]
मनुज, मानव मनु-' क्षौद्रं किलाक्षुद्रमना मनुष्यः किमु सञ्चरेत्' (सुद० १३० ) ०नर, मर्त्य ।
पशुष्विव मनुष्येषु, निद्राभी रतिजग्धयः ।
तेभ्यस्तेषु विशेषश्चेद्विवेकः केवलं किल। (हित० ११ ) मनुष्य क्षेत्रं (नपुं०) मनुष्य लोक । (भक्ति० ३५ ) मनुष्यगति: (स्त्री०) मनुजगति, मानव पर्याय। जो कर्म मनुष्य को सब अवस्थाओं की उत्पत्ति का कारण है। 'मनसा निपुणाः, मनसा उत्कटा इति वा मनुष्याः, गतिः मनुष्यगति:' ( धव० १/ २०२, २०३ )
तेषां
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मनोप्रणीतः
मनुष्यजातिः (स्त्री०) मनुजता की प्राप्ति, मनुज जन्म । मनोगुप्तिः (स्त्री०) मन को वश में करना, मनोगत राग को हटानामनसो गुप्ति मनोगुप्तिः ।
मनुष्यता (वि०) मानवीयता । ( सुद० १३४) मनुष्यदेवः (पुं०) नृप, राजा । मनुष्यधर्म: (पुं०) मानव कर्त्तव्य । मनुष्यधाम: (पुं०) मनुष्य क्षेत्र ।
मनुष्यमात्रं (नपुं०) नरमात्र । (वीरो० १६ / २० ) मनुष्यलोकः (पुं०) मनुष्य क्षेत्र । (भक्ति० ३५ ) मनुष्ययोनिः (पुं०) मनुज जाति की उत्पत्ति । मनोनिग्रह्यकर (वि०) संवशिन्, वश में किया गया। (जयो०वृ० २५ / २७) मन की शक्ति, आकृष्ट ।
मनोज: (पुं०) मन का ओज, मन की शक्ति। (जयो०वृ० १६ / ३९ ) ०कामदेव ।
मनोजन्मनिदेशः (पुं०) पाणिग्रहण संस्कार, कामदेव का निर्देश । (जयो० १ / ६४ )
मनोजन्मन् (वि०) मनोजात। मन से उत्पन्न हुआ। मनोजन्मन् (पुं०) कामदेव, मनोजराज। (जयो० १६ / ३९ ) मनोजिघ्र (वि०) मन से सूंघने वाला । मनोजित् (वि०) मन को जीतने वाला । मनोजित् (पुं०) कामदेव । (वीरो० ११ / ३०) मनोज्ञ (वि०) सुहावना, प्रिय। मनसा ज्ञायन्ते अनुकूलतया ।
* सुंदर, मृदु । (जयो० १२ / ३३)
० अभिरूप, लोक सम्मत ।
मनोज्ञधारणा ( स्त्री०) मृदु विचार। ०सुन्दर विचार |
मनोज्ञदानं (नपुं०) उचित दान पात्रोचित दान । मनोज्ञजन्मन् (नपुं०) उत्तमजन्म । मनोज्ञराशि: (स्त्री०) सुंदर समूह ।
मनोज्ञ वाक् (नपुं०) मृदु गिरा। (जयो० १२ / ३३) मनोज्ञा ( स्त्री०) मैनशिल, एक मादक पदार्थ । मनोतापः (पुं०) मन का संताप । मनोदण्डः (पुं०) मन निग्रह | मनोदत्त (वि०) दत्तचित्त, एकाग्र । मनोदाहः (पुं०) मानसिक क्लेश । मनोदुःखं (नपुं०) मानसिक दुःख । मनोपूत (वि०) मन की पवित्रता ।
मनोपहा (वि०) मन का उपहार । (जयो० १२ / १११ ) मनोप्रणीतः (वि०) सुखद, रुचिकर ।
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मनोप्रसादः
मनोप्रसादः (पुं०) मन को शांति । मनोप्रीतिः (स्त्री०) मानसिक संतोष । मनोभवः (पुं०) कामदेव |
मनोऽभिलषित (वि०) मन को प्रिय। (जयो० १ / ६५ ) मनोभू (पुं०) कामदेव । (जयो०वृ० ३/१२) ०खिन्नता, रागद्वेष आदि युक्त ।
मनोभूसदृश (वि०) कामवत्, कामदेव की तरह। (जयो०वृ०३/१२) मनोमथन: (पुं०) कामदेव |
मनोमालिन्य (वि०) मन की मलीनता। (जयो० ४ / २७ ) मनोमोहकः (पुं०) वल्लभ, प्रिय। (जयो०वृ० १२ / ६ ) मनोमोहमयी (वि०) सम्मोहिनी, मञ्जुल । (जयो० ३ / ११ ) (जयो० ११ / ७० )
मनोयायिन् (वि०) इच्छानुसार गमन करने वाला, तेज, फुर्तीला । मनोयोगः (पुं०) दत्तचित्तता । ०मनोविषय, ० मनावलम्बन । मनोयोनि (पुं०) कामदेव |
मनोरञ्जनं (नपुं०) मन को प्रसन्न करना, कौतुक । (जयो०वृ०३/६८)
मनोरथ: (पुं०) मन की चाह, मन की इच्छा। (जयो०४/१७) ० अभीष्ट, इष्ट। (जयो०वृ० २ / ३६ )
० कांक्षित, इच्छित। (जयो० ९/६० )
मनोरथ- कल्पलता ( स्त्री०) इच्छा पूर्ति कल्प लता, ० इच्छा पूर्ति करने वाली कल्पवृक्ष की लतिका । (जयो०
९/५०)
मनोरथलता (स्त्री० ) इच्छापूर्ति लता । (जयो० २ / ९१ ) मनोरथसाधकः (पुं०) इष्टसिद्धि। (जयो० २/३६) मनोरथसाफल्य (वि०) इष्टकार्य की सफलता। (दयो० २/३६) ० अभीष्ट सिद्धि ।
मनोरथसिद्धि (स्त्री०) इष्टकार्य की सिद्धि। (जयो०वृ० १ / १०६) मनोरथारूढ (पुं० ) इष्टकार्य से युक्त । ( वीरो० १२ / ३९ ) मनोरम (वि०) आकर्षक, सुखद, रुचिकर, प्रिय, सुंदर । मनोरमत्व (वि०) सुंदरता । (जयो० १ / ०१४) मनोरमदृश्य (वि०) दर्शनीय स्थल । मनोरमप्रकृतिः (स्त्री०) मनोनुकूल वातावरण। मनोरमा ( स्त्री०) प्रिय लक्ष्मी, अर्धाङ्गिनी, वल्लभा ।
० सुदर्शन सेठ की पत्नी ( सुद० ११५) स्नेहासिकता । ( सुद० ११३) मनोरमापि चतुरा समाह समयोचितम् । (सुद० ११३)
मनोरमाधिपतिः (स्त्री०) लक्ष्मी पति ।
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मनोवचनं (नपुं०) मन वचन । (सुद० ८७)
मनोवृत्तिः (स्त्री०) मन की भावना, चित्तभाव । (जयो० २ / ३५) (जयो० २०/८३)
मनोहर (वि०) सुखद, लावण्यमय, मनोरम, रमणीय, सुंदरता युक्त । (जयो० २ / १४६) मञ्जुल (जयो०वृ० ३/७५) मनोहरगात्री (वि०) सौंदर्य से परिपूर्ण शरीर वाली। (जयो० ६/७५) ० लावण्यपूर्ण देहवाली ।
मनोहरतायुक्त (वि०) कलताभृत, (जयो० १३/६०) रमणीयता
युक्त।
मनोहराङ्गी (स्त्री०) सुंदर स्त्री । (समु०४/२५)
मन्तुः (पुं० ) [मन्+तुन्] दोष, अपराध । (जयो० १ / ३९ ) मन्तुः स्यादपराधेऽपि मानवे परमेष्ठिनि '
० मनुष्य, मानव इति वि।
० परमेष्ठिनि इति वि (जयो० २७/३२ ० ऋषि, मुनि, विद्वान् ।
मन्त्रकुशल:
मन्तुः (स्त्री०) ज्ञान, समझ, बुद्धि ।
मन्तुमदक्षरं (नपुं०) मन्तु मद अक्षर । तवर्ग से लेकर मतक के अक्षर मन्तुमदक्षराणां मवर्ग-तवर्ग- रूपाणामक्षराणां कलनाः प्ररूपणाः' (जयो०वृ० १ / ३९ )
० अपराधकारी शब्द। (जयो०वृ० १ / ३९ )
मन्त्र ( अक० ) विचार करना, सलाह लेना, मंत्रणा करना, विचार-विमर्श करना।
मन्त्र (सक०) मुग्ध करना, कहना, बोलना ।
० गुनगुनाना ।
मन्त्रः (पुं०) [मन्त्र् + अच्] मन्त्रशास्त्र (जयो० २ / ६१ ) ० सम्मोहन, वशीकरण ।
० वार्ता, बातचीत, परामर्श, मंत्रणा विचार । ० योजना, संकल्प, रहस्यपूर्ण वार्ता ।
० सिद्धि मंत्र ।
० सूत्र | संक्षिप्त विवरण, ०लघु विचार, ०सूक्ष्म निरूपण ।
० पञ्चाङ्ग सहित ।
० सामर्थ्य दायक |
० आपत्ति प्रतिकारक ।
मंत्रकरणं (नपुं०) सस्वर उच्चारण । मन्त्रकार: (वि०) मन्त्र बनाने वाला । मन्त्रकालः (पुं०) मंत्रणा / परामर्श का समय । मन्त्रकुशलः (पुं०) मंत्र में प्रवीण ।
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मन्त्रकृत्
मन्त्रकृत् (पुं०) सूत्र रचनाकार । मन्त्रगण्डकः (पुं०) ज्ञान, विवेक । मन्त्रगुप्ति (स्त्री०) रहस्यपूर्ण मंत्रणा, गुप्त मंत्रणा । मन्त्रगूढः (पुं०) गुप्तचर, अभिकर्ता । मन्त्रजिह्वः (पुं०) अग्नि । मन्त्रज्ञः (पुं०) परामर्श कर्ता ।
मन्त्रज्ञानं (नपुं०) सूत्रज्ञान, मन्त्र की जानकारी । मन्त्रण (नपुं०) मन्त्रणा करना। (जयो० ४/२३) मन्त्रदः (पुं०) सूत्रज्ञ, आचार्य, गुरु । मन्त्रपिण्डः (पुं०) मन्त्रजाप पूर्वक आहार । मन्त्रपूतं (वि०) मन्त्र से पवित्र किया गया । मन्त्रप्रभाव: (पुं०) मन्त्र का प्रभाव। (सुद० ६४ ) मन्त्रभिदः (पुं०) संसिद्धिकरण । (जयो० १७/३८) मन्त्रभेदः (पुं० ) सत्याणुव्रत का अतिचार
०दूसरे के अभिप्राय को प्रकट करना । ० गुप्त रहस्य खोलना, भेद प्रकट करना। मन्त्रमूर्ति (स्त्री०) सिद्धयन्त्र ।
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मन्त्रमूलं (नपुं०) जादू।
मन्त्रयन्त्रं (नपुं०) मन्त्रित यन्त्र सिद्ध यन्त्र, परमेष्ठिसूचक यन्त्र । मन्त्र प्रयोग |
मन्त्रयोगः (पुं०) मन्त्रित यन्त्र सिद्ध यन्त्र, परमेष्ठिसूचक यन्त्रः मन्त्रयोगः (पुं०) मन्त्र प्रयोग मन्त्र शक्ति, ०गुप्त संयोग । मन्द्रवर्ज (अव्य०) बिना मंत्र उच्चरित
मन्त्रवादिन् (पुं०) मन्त्र जानने वाला, मन्त्रवेत्ता । मन्त्र विद्या ( स्त्री०) मन्त्रशास्त्र, मन्त्रविज्ञान। मन्त्रशक्तिः (स्त्री०) मन्त्र बल । (जयो० २ / १२१ )
मन्त्र संस्कारः (पुं०) मन्त्र जाप की क्रिया, मन्त्र का अनुष्ठान । मन्त्रसाधकः (पुं०) जादूगर, बाजीगर । ०सिद्धि प्रवृत्त |
मन्त्रसाधनं (नपुं०) मंत्र आराधना |
मन्त्रस्मरणं (नपुं०) मंत्र का जपना, मंत्रोच्चारण, मन्त्रध्यान। (सुद० ४/२६)
मन्त्रित (भू०क० कृ० ) [ मन्त्र+क्त] झाड़े हुए ( भक्ति० २४ ) ० अभिमन्त्रित, मन्त्र पढ़ा गया। (जयो० ) ० निश्चित निर्धारण।
मन्त्रिन् (पुं० ) [ मन्त्र + णिनि ] ०मन्त्री, सचिव। (जयो० ३/१४)
० राज्याधिष्ठायक। (समु० ३ / ४० )
०पञ्चाङ्गमन्त्रकुशल |
०गारुडिन्, मन्त्र उतारने वाला (वीरो० ३ / १० )
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मन्थरः
० जादूगर । (जयो०वृ० ३/१४)
० मन्त्रवादी - मन्त्री, मंत्रणा प्रवीण। यत्र सभायां मन्त्रिणो मन्त्रवादिन् इव सचिवास्ते विषादस्य विनाशिनः। (जयो०वृ० ३/१४)
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मन्त्रिसदनं (नपुं०) सभासदन, सांसद भवन, मन्त्रिनिवास । मन्त्रोक्तपदं (नपुं०) अव्यक्त पद (जयो० ६/८) (समु०३ / ४३) ० सिद्धिसाधक सूत्र |
मन्त्रोक्तिपदं (नपुं०) मंत्रोच्चारण स्थान । (जयो० १६ / ४६ ) मन्त्रोत्थित (वि०) मंत्रवेत्ता, मंत्रवादी (समु० ४ / १३) मन्बोत्पादनदोष (पुं०) मंत्र सिद्धि की आशा दिलाना मंत्रदोष है। मंत्रोपजीवनं (नपुं०) मंत्र से जीविकोपार्जन करना। मंथ / मथ् ( सक०) मथना, बिलोना।
० हिलाना, घुमाना । ०पीसना, कुचलना।
० अत्याचार करना, नष्ट करना। ।
० विदीर्ण करना, विघात करना । ० कष्ट देना, प्रहार करना ।
मन्थः (पुं०) [मन्थ् करणे घञ्] ०बिलोना, हिलाना, मथना ० क्षुब्ध करना, दहि बिलोडन । (जयो० २५/६०) ० सूर्य |
मन्यकर्मन् (नपुं०) मथना, बिलोना (जयो०वृ० २१/५५) मन्यगिरि: (पुं०) मंदराचल
मन्थगुणः (पुं० ) ० मथानी की रस्सी । ०दहि, मन्थल प्रयोग | (जयो० २५/६३)
मन्थजं (नपुं०) मक्खन, दधि बिलोने से निकलता हुआ मक्खन । मन्थदण्डः (पुं०) रई की डंडा ।
मन्थनं (नपुं०) दधि विलोडन, मथना, बिलोना। (जय०२१/५४) मन्थनरज्जू (स्त्री०) मथानी की रस्सी । मन्थो मन्थानदण्डे स्यादिति मन्थकलिना इति विश्वलोचन। (जयो०वृ० २१/५७) मन्धनातिशय: (पुं०) मन्थकर्म, मथना, बिलौना । मन्यपर्वत (पुं०) मन्दराचल
०
मंथर (वि०) मंथर गति वाला, शिथिल, मंद, ० बिलम्बदारी | ० सुस्त | ०जड़, मूर्ख, मूढ
० निम्न, गहरा, नीच। ० विस्तृत, विशाल ।
।
मन्थर: (पुं०) भण्डार, कोष ० सिर के बाल ।
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मन्थरा
८१९
मन्दाग्निः
०कोप, क्रोध।
मन्दप्रज्ञा (वि०) मूर्ख, अज्ञानी, मूढ, मन्दबुद्धि वाला। गुप्तचर, सूचक।
मन्दमति (वि०) मूर्ख, अज्ञानी, मूढ़। (सुद०८०) मंदराचल पर्वत।
मन्दमति (स्त्री०० एक रानी। (सुद०८०) ०हरिण।
मन्दभागिन् (वि०) भाग्यहीन, दयनीय, दुर्भाग्य शाली। मन्थरा (स्त्री०) कैकेयी की कुब्जादासी।
मन्दभाग्य (वि०) देखो ऊपर। मंथराङ्गः (नपुं०) शिक्षित अंग। (वीरो० ४/३७)
मन्दमुख (वि०) अप्रसन्न, हर्ष रहित, म्लान मुख। (जयो० मन्थरु (स्त्री०) चमर से उत्पन्न हवा।
७/१०४) मन्थानः (पुं०) [मन्थ्+आनच्] रई का डंडा, मथानी। मन्दयन्ती (स्त्री०) [मन्द+णिच्+शत्+ङीप्]०दुर्गा। मन्थानकः (पुं०) एक प्रकार की घास।
०मन्द होती हुई, धीमी होने वाली। मन्थानदण्डः (पुं०) मथानी का दण्ड। (जयो० २१/५७) मन्दर (वि०) [मन्द्+अर] धीमा, सुस्त। मन्थिन् (वि०) [मन्थ् णिनि] मन्थन करने वाला, मथने वाला। मोटा, सघन, दृढ़। मन्थिन् (पुं०) बल, वीर्य, शुक्र।
विस्तृत, स्थूल। मन्थिनी (स्त्री०) मथानी, बिलौनी, दधिपतिनी। (जयो० २५/६७) | मन्दरः (पुं०) ०मन्दराचल पर्वत, मेरु पर्वत, महापर्वत।
मन्थानरज्जु (जयो० २१/५७) मथने वाली (जयो०७० (जयो० ११) (भक्ति० ३४) २५/५०)
मथानी। मन्द् (अक०) मन्थर होना, सुस्त होना।
मोतियों का हार। शिथिल होना, टहलना, घूमना।
स्वर्ग। चमकना।
०दर्पण। मन्द (वि०) [मद्+अच्] सुस्त, धीमे चलने वाला, विलंबकारी। | मन्दरग्राय (वि०) पवर्ततुल्य। (जयो० २१/५७) अकर्मण्य, उद्यमहीन।
मन्दरावासः (पुं०) दुर्गा। ०थोड़ा, अल्प, जरा सा।
मन्दवीर्यः (पुं०) दुर्बल। ०क्षीणकाय। ०बलहीन, दुर्भाग्य ग्रस्त।
मन्दवृष्टिः (स्त्री०) हल्की फूहार, थोड़ी बरसात, रिमझिम मन्दं (अव्य०) धीमे से, क्रमशः धीरे धीरे।
बारिश। मन्दकर्ण (वि०) धीरे सुनने वाला।
मन्दसानः (पुं०) [मन्द्+शानच्] ०अग्नि। मन्दकलः (वि०) सच्छिद्रकर। (जयो० १२/१३१)
०जीवन। मन्दकान्तिः (स्त्री०) चंद्रमा। शशि, रजनीकर।
निद्रा। मन्दकारिन् (वि०) धीरे धीरे काम करने वाला। मन्दगति मन्दस्पन्दित (वि०) धीरे धीरे चलने वाला, धीरे चलायमान। शील।
(जयो० १८/९१) मन्दगः (पुं०) शनि।
मन्दस्मितः (पुं०) हंसी, हर्ष, मंद मन्द मुस्कान। (दयो० ५३) मन्दगतिः (स्त्री०) धीमी गति।
मन्दस्मितयुक्त (वि०) सहास, हसी सहित। (जयो०वृ० ११/४९) मन्दगामिन् (वि०) धीरे धीरे चलने वाला।
मन्दहासः (पुं०) स्मित, हर्ष युक्त। (जयो० २/१५५) (सुद०२/८) मन्दगामिनी (स्त्री०) मन्द गति वाली।
मन्दस्मित व्यक्ति। मन्दचेतस् (वि०) मन्दबुद्धि वाला मूर्ख, मूढ़, अज्ञानी। मन्दहास्यः देखो ऊपर। अचेत, असावधान।
मन्दाकः (पुं०) [मन्द्+आक्] धारा, नदी प्रवाह। मन्दत्वः (वि०) मूर्खता। (वीरो० २२/१०)
मन्दाकिनी (स्त्री०) गंगा नदी। मन्दधी (पुं०) मूर्ख, अज्ञानी, मूढ़।
मन्दाक्ष (वि०) दृष्टि की कमी, कमजोर दृष्टि वाला। मन्दपद (वि०) धीरे चलने वाला। (जयो० १/३२)
मन्दाक्षं (नपुं०) लज्जाशील। मन्दपाद (वि०) धीरे धीरे गमन करने वाला। (दयो० २०) मन्दाग्निः (स्त्री०) दुर्बल पाचन शक्ति।
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मन्दाग्निरोगः
मयुः
मन्दाग्निरोगः (पुं०) ०अपचन रोग, ०पचाने की शक्ति में
क्षीण व्यक्ति। ०पाचाग्नि की कमी, उदराग्नि की कमी।
(जयोवृ० १८/१८) मन्दादिक (वि०) शनिप्रभृति। (जयो०८/७८) मन्दात्मन् (वि०) मन्द बुद्धि वाला, काषायिक प्रवृत्ति युक्त
आत्मा वाला। मन्दानिलः (पुं०) मन्द मन्द पवन, हवा की धीमी गति।
(जयो० १३/११३) मन्दारः (पुं०) [मन्द्+आरक्] आकड़ा, आक का पौधा
मदारवृक्ष, धतूरे का पौधा। (वीरो० १९/११) मन्दारं (नपुं०) मूंगे का वृक्षा मन्दारमाला (स्त्री०) मन्दार पुष्प माला, आक के पुष्पों की
माला। मन्दिमन् (वि०) धीमायन। मन्द-मन्द मुदित।
सुस्ती। ०आलस्य युक्त।
जड़ता, मूर्खता। मन्दिरं (नपुं०) [मन्द्यतेऽत्र मन्द्+किरच्] ०देवालय, देवस्थान,
देवगृह। पवित्र आराधन ग्रह। स्थान, आवास, स्थल।
शिविर, पड़ाव। मन्दिरगत (वि०) देव स्थान को प्राप्त हुआ। मन्दिरद्वारः (पुं०) देवस्थान भाग। (दयो०८४) मन्दिरध्वजः (पुं०) देवस्थान की ध्वजा। (जयो० २१/६३) मन्दिरमाला (स्त्री०) देवालय समूह। मन्दिरस्थानं (नपुं०) देवालय का स्थल। मन्दिरा (स्त्री०) [मन्द्+उरच्+टाप्] अश्वशाला, अस्तबल,
घुड़शाल। मन्द्र (वि०) [मन्द्र क्नीचा, गहरा, गंभीर। मन्द्रः (पुं०) मन्दध्वनि, ढोल विशेष। मन्मथः (पुं०) कामदेव।
प्रेम, प्रीति, प्रणय परिणति। कपित्थ, कथा, कबीट। 'मन्मथः कामचिंतायां कामदेव
कपित्थयो' इति विश्वलोचलनः (जयो०७० २१/२७) मन्मथकर (वि०) प्रेम की भावना युक्त, प्रीतियुक्त। मन्मथभावः (वि०) काम भाव। मन्मथमतिः (स्त्री०) प्रेम युक्त बुद्धि। मन्मथलेखिः (पुं०) प्रेमपत्र। मन्मथशाला (स्त्री०) कामशाला, कामक्रीड़ा स्थल।
मन्मथालयः (पुं०) स्त्री मोह, कामक्रीड़, स्थल।
आम्रतरु। मन्मनः (पुं०) कामदेव। ०रतिपति। मन्मनःस्था (स्त्री०) जीवन सहचरी। (सुद० ११३) मन्युः (नपुं०) [मन्+युच्] कोप, क्रोध, गुस्सा, नाराजगी।
व्यथा, शोक, व्याकुलता। ०दयनीय स्थिति, विकट स्थिति।
दुःख, कष्ट, पीड़ा, आताप। मभ्र (अक०) जाना, पहुंचना। मम [अस्मद् सर्वनाम-उत्तम पुरुष-एकवचन] मेरा-न तुङ्
ममायं कुविधामनुष्यादेकेति। (सम्य०६८) ममकारः (पुं०) मेरापन, ममता, स्वार्थ। (जयो० २६/४७) ममता (स्त्री०) [मम्+तल्+टाप्] ममत्व, अपने पन की
भावना, मूर्छा आसक्ति, स्वहित। ममताविहीन (वि०) ममत्वरहित। (वीरो० १२/५२) ममत्व (वि०) मेरापन, ममता। अहन्तवमेतस्य ममत्वमेतत्मिथ्यात्व
नामानुधत्तथे। (सम्य० २७)
स्नेह, आदर, अनुराग।
०अहंकार, अहं। (जयो० २९/५२) ममत्वभावः (पुं०) ममताभाव। (सम्य० ४१)
०घमण्ड, अभिमान, अहंकार।
स्वार्थ भाव। ममात्मन् (वि०) मेरी आत्मा। (सुद० ९४) ममामुक (वि०) मुझ जैसा। (सुद० २/१३) मम्मटः (पुं०) काव्य प्रकाश के प्रणेता। मय् (सक०) जाना, पहुंचना। मय (वि०) युक्त, परिपूर्ण, सहित। (सुद० २/२) मयः (पुं०) अश्व, खच्चर, घोड़ा
उष्ट्र। (जयो० १३/३९) मयटः (पुं०) [मय्+अटन्] पर्णशाला, घासफूस की झोपड़ी। मयवर्गः (पुं०) उष्ट्रसमूह। मयानामुष्ट्राणां वर्गः समूहो। (जयो०
१०/५६) मया (सर्व०) मेरे द्वारा, मुझसे। (सम्य० ४३) ममीहित (स्त्री०) मतानुकूल। (जयो० ९/६०) मयुः (पुं०) [मय्+कु] किन्नर, संगीतज्ञ। मयवा मृगा यस्मिन्
तस्मिन् बने कानने। हिरण। बारहसिंहा, मृग। मयुमृगे किन्नर स्यात् इति वि (जयो० २५/८१)
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मयूखः
८२१
मरुत्
मयूखः (पुं०) [मा ऊख मयादेश:] रश्मि, किरण, अंशु। | मरालः (पुं०) [मृ+आलच्] हंस, बालक। (जयो० ४/५९, (वीरो० १२/१९)
जयो० २/९) दीप्ति, प्रभा, प्रकाश, आभा।
जलचर पक्षी। सौंदर्य।
०अश्व। ज्वाला।
मेघ, बादल। मयूरः (पुं०) कलापी (जयोवृ०५/५५) शिखण्डी। (जयो० ०अनार उद्याना ३/१११) शिखि (सुद० २/४१)
ठग। ०अलकापुरी का राजा। (वीरो० ११/१८)
मरालततिः (स्त्री०) हंस, पंक्ति। (वीरो० २/४०) मयूरः (पुं०) [भी+करन्] मोर।
मरालबालः (पुं०) हंस बालक। (वीरो० २१७) मयूरकः (पुं०) मोर।
मरालशिशु देखो ऊपर। मयूरकेतुः (पुं०) कार्तिकेय।
मरालसंघः (पुं०) हंस समूह। मयूरग्रीवकं (नपुं०) तूतिया।
मरलि (पुं०) अडियल टटू, अड़ियल अश्व। मयूरचटकः (पुं०) गृह कुक्कट।
मराली (स्त्री०) राजहंसी। (जयो०वृ० १/२४) मयूरचूडा (स्त्री०)मयूर शिखा, मोर की कलगी।
मरिचः (पुं०) [म्रियते नश्यति श्लेष्मादिकनेन] काली मिर्च। मयूरतुत्थं (नपुं०) तूतिया।
(सुद० १११) मयूरपत्रिन् (वि०) मोर पंख युक्त।
मरिचं (नपुं०) मिर्च। (जयो०वृ० १२/१३) मयूररथः (पुं०) कार्तिकेय।।
मरिची (स्त्री०) मिर्च। (जयो० २५/२३) मयूरवर्गः (पुं०) शिखिजन। (जयो० ४/६७)
मरीचिः (पुं०) भगवान् ऋषभ का पौत्रा पौत्रोऽहमेतस्य मयूरव्यनकः (नपुं०) चालाक मोर।
तदग्रगामी मरीचिनाम्ना समभूच्च नामी। (वीरो० ११/८) मयूर शिखा (स्त्री०) मोर की कलगी।
प्रथम मनु से उत्पन्न पुत्र। मयूरवत् (वि०) मोर की तरह (सुद० ४/१४)
०प्रकाश कथा, रश्मि किरण। (जयो० १५/४८) मरकः (पुं०) [मृ+वुन्] संक्रामक रोग, पशुओं में होने वाला मरीचिका (स्त्री०) [मरीचि+कन्+टाप्] ०मृगतृष्णा, आशा, रोग।
___०लालसा। (जयो० २६/४३) ०अभिलाषा, ०इच्छा, मरकतं (नपुं०) [मरकं तरत्यनेन] [तृ+ड] पन्ना।
आसक्ति। मरकतमणिः (स्त्री०) पन्ना।
मरीचितोयं (नपुं०) मृगतृष्णा। मरणं (नपुं०) [मृ+भावे ल्युट्] मरना, मृत्यु, मारकेश। मरीचिन् (पुं०) सूर्य। (जयो०वृ० ७/५३)
मरीचिमालिन् (वि०) उज्ज्वल, कान्तिमय। आयु के क्षय से प्राणों का वियोग।
मरीचिमालिन् (पुं०) दिनकर, सूर्य। शरीरप्रच्युत। मरण विक्षेप। (जयो० २/३२)
मरीमृज (वि०) बार बार मलने वाला। प्राणत्याग। (सुद० ११९)
मरीमति (स्त्री०) मरणोन्मुख। (वीरो० ९/३५) जीवन परिसमाप्ति, जीवनोच्छेद।
मरु (स्त्री०) मरुस्थल, रेगिस्तान, (सुद०११८) रेतीली भूमि, आयुष्य समाप्ति।
रेणु। 'मरौ रेणूप्राये प्रदेशे प्रभृतिरुत्पत्तिर्यस्येति' (जयो० मरणभयं (नपुं०) प्राणों के परित्याग का भय-'मरणंभयं १९/१८) प्रतीतम् प्राणपरित्यागभयं मरणभयम्।
निर्जलदेश। (जयो० ११/५९) मरतः (पुं०) [मृ+अतच्] मृत्यु, मरण, विनाश, क्षय।
पर्वत, चट्टान। मरन्दः (पुं०) [मरणं द्यति खण्डयति] फूलों का रस, पुष्पासव। । मरुकः (पुं०) [मरु+कः] मयूर, कलापी, शिखि। मरारः (पुं०) [मरं मरणमलति निवारयति-मट्+अल्+अण] मरुकच्छः (पुं०) मरुस्थल का स्थान। खत्ती, धान्यागार, धान्यभण्डार।
मरुत् (पुं०) हवा, पवन, अनिल। (जयो० २१/१०)
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मरुत्करः
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मरुत्करः (पुं०) सेम ।
मरुत्कर्मन् (पुं०) अफारा, बदहज़मी, अपचन, उदर वायुवेग । मरुत्कोण: (पुं०) पश्चिमोत्तर दिशा ।
मरुदगण: (पुं०) देव समूह, वायु समूह। (जयो० ९ / २९ )
मरुत्तनयः (पुं०) पवनपुत्र हनुमान।
मरुतभङ्गः (नपुं०) वायु भूकम्पन। (जयो० २४ / १११ ) मरुदन्तकीयः (पुं०) मलयानिल। (वीरो० ६ / २२) मरुदावेल्लित (वि०) हवा से आन्दोलित | (जयो० ३/७४) मरुदेवी (स्त्री०) नाभिराय नामक अन्तिम कुलकर/ मनु की प्रिया । ० ऋषभदेव की माता प्रथम तीर्थंकर ऋषभ की मातुश्री । (दयो० ३१)
मरुदेश: (पुं०) मरुस्थल |
मरुपगत (वि०) मरुदेश को प्राप्त । मरुदेशेन उपगतां प्राप्ताम् । (जयो० २८/५३)
मरुपथ: (पुं०) रेतीला मार्ग, मरुस्थल भूमि ।
मरुप्रभृतिः (स्त्री०) मरुदेवी से उत्पन्न। मरोरिति मरुदेव्या, प्रभृतिरुत्पत्तिर्यस्य (जयो०वृ० १९ / १८ )
मरुप्रियः (पुं०) उष्ट्र, ऊंट
मरुभूः (स्त्री०) मरुभूमि, मारवाड़ देश ।
मरुवर्मन् (पुं०) पल्लवदेश का राजा। (वीरो० १५ / ३५ ) पल्लवाधिपतेः पुत्री कदाञ्छी मरुवर्मणः
मरुस्थलं (नपुं०) मरुभूमि ।
मरुव: (पुं० ) [ मरु+वा+क] मरुआ, नामक पादप । मरुवकः (पुं० ) ०व्याघ्र, ०मरुआ पौधा ।
० चूना, ०राहु ।
मर्कटः (पुं० ) [ मर्क + अटन् ] ०बंदर, लंगूर । (जयो० २ / १३) ० मकड़ी, ०सारस विशेष ।
०रतिबन्ध क्रिया, संभोगावस्था ।
मर्कतिंदुकः (पुं०) एक प्रकार का आबनूस ।
मर्कटपोतः (पुं०) बंदर का बच्चा ।
मर्कटवासः (पुं०) मकड़ी का जाला ।
मर्कटिकार्थः (पुं०) लूताकृत, मकड़ी द्वारा बनाया गया। (जयो०वृ० २०/५० )
मर्करा ( स्त्री० ) [ मर्क् + अट्+टाप्] ०पात्र, बर्तन |
० सुरंग, छिद्र, विवर, खोह, गुफा ० बांझ स्त्री ।
मर्च् (सक०) लेना, ग्रहण करना ।
० स्वच्छ करना।
८२२
मर्ज: (पुं०) [मृज्+उ] धोबी । ०धोना, साफ करना । मर्तः (मृ+तन्) मानव, मनुज, मर्त्य।
भूलोक ० मर्त्यलोक |
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मर्त्य ( वि० ) [ मर्त् + यत् ] मरणशील ।
मर्त्यः (पुं०) मानव, मनुज, मनुष्य । (दयो० १/२३) जिजीविषुरतो मर्त्यः परानपि न भारयेत् । (दयो १/२३ ) ० भूलोक, मर्त्यलोक।
मर्त्यं (नपुं०) शरीर, देह, मिट्टी। (सुद० १०२) मर्त्यगत ( वि०) मरण को प्राप्त हुआ।
मर्त्यजन्मन् (नपुं०) मनुष्य जन्म, मनुज उत्पत्ति । मर्त्यजाति: (स्त्री०) मनुष्य जाति ।
मर्द
मर्त्यधर्मन् (वि०) मरणशील ।
मर्त्यनाथः (पुं०) मानवपति, नृप। (जयो० १३/११५) मर्त्यनाश (वि०) मृत्युंजयी । मर्त्यनिवासिन् (पुं०) मनुष्य ।
मर्त्यपति: (पुं०) मनुष्य शिरोमणि, नृप, राजा। (जयो० ५ / ३१) मर्त्यभवः (पुं०) मनुष्य जन्म। (सुद० ५/३) मर्त्यभावः (पुं०) मनुष्यता, मनुजपना । अनेकजन्मबहुतमर्त्यभावोऽति-दुर्लभः। खदिरादिसमाकीर्णे चन्दनद्रुमवद्वने । (सुद० १२८)
मर्त्यभोगिनी (वि०) मनुष्योचित गुणों को भोगने वाली । (जयो० २/११७)
मर्त्यरत्नः (पुं०) श्रेष्ठमनुष्य, सज्जन व्यक्ति । (वीरो० २२ / ८ ) प्रथम शिरोमणि सुदर्शन ।
मर्त्यराट् (पुं०) मनुजराज, नृप, अधिपति। (वीरो० ६ / २) 'पत्नी प्रयत्नीपितमर्त्यराट्' (वीरो० ६ / २) मर्त्यलोकः (पुं०) भूलोक, पृथिवीलोक । मर्त्यशिरोमणि (पुं०) मानव रत्न। (जयो० ९/८३) सुमुख ! मर्त्य शिरोमणिनाऽधुना सुगुण वंशवयोगुरुणाऽमुना । बहुकृतं प्रकृतं गुणराशिना पुरुनिभेन धरातलवासिराम् ॥ (जयो० ९/८३)
मर्त्य सहितः (पुं०) देवता ।
मर्त्यसार्थकः (वि०) मनुष्य की सार्थकता । 'मर्त्यानां मानवानां सार्थकः' (जयो०वृ० १३ / १६ )
मर्द (वि० ) [ मृद्+घञ् ] मर्दन करने वाला, मसलने वाला,
कुचलने वाला।
० नष्ट करने वाला, नाश करने वाला।
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मर्दः
८२३
मलमल्लकः
मर्दः (पुं०) पीसना, कुचलना।
०दबाना, नष्ट करना।
प्रबल, प्रहार। मर्दन (वि०) कुचलने वाला, नाश करने वाला। मर्दनं (नपुं०) कुचलना, नाश करना।
०पीसना, रगड़ना, मालिश करना। __०पीड़ा देना, कष्ट देना, सताना। मर्दल (पुं०) [मर्द+ला+क] एक ढोल विशेष। मर्दित (वि०) मर्दन किया गया, मसला गया। (जयो० १२/११६) मर्ब (सक०) जाना, पहुंचना। मर्मन् (नपुं०) [मृ+मनिम्] अन्तस्तल, सन्धिस्थाना रहस्य
भेद, गूढार्थ। अकीकृते धर्मिणी भातु धर्मः सूर्ये प्रकाशः स्फुरतीति मर्मः। (सम्य० ७२)
फल, परिणाम, भेद। संचेत्यते यावदसंज्ञिकर्मफलं शरीरीपरि भिन्नमर्म। (सभ्य० ४१) स्वस्योपयोगपरतोद्धणाय मर्म। मर्मनिकर्मन (वि०) मर्मभेदी कार्य। (वीरो० २२/२७) मर्मणि
विषमस्थाने निकर्मणन उत्कृन्तनस्य। मर्मगत (वि०) रहस्य युक्त। मर्मघातिन् (वि०) अंतस्तल को घातने वाला। मर्मघ्न (वि०) पीड़ा जनक। मर्मज्ञ (वि०) अंतर्दृष्टि रखने वाला, मर्म जानने वाला। मर्मच्छेदकरी (वि०) मर्म को प्रकट करने वाला। (जयो०
१७/३३) मर्मचरं (नपुं०) हृदय। मर्मच्छिद (वि०) मर्म घातक , हृदय घातक। (मुनि०८) मर्मभेदः (पुं०) मर्मस्थान का भेदना। मर्मभेदिन् (पुं०) बाण, तीर।
दृढ़ (जयो०७० ८/२६) मर्मस्पर्शिन् (वि०) हृदय को छू जाने वाला। मर्मर (वि०) पत्तों का खड़खड़ाहट। मर्मदी (स्त्री०) हल्दी। मर्या (स्त्री०) [मृ-यत्+टाप्] सीमा, हद। मर्यादा (स्त्री०) [मर्यायां सीमायां दीयतेमर्या+दा+अ+टाप्]
०सीमा, हद, परिधि।
उद्देश्य, मंजिल। ०अन्त, अवसर, अंतिम। ०तट, किनारा। निश्चित प्रथा।
०व्यवस्थित विधि।
नैतिक विधि, शिष्टाचार। मर्यादाक्रान्त (वि०) मर्यादातीत, मर्यादा रहित।
(जयो०वृ० २०/७२) मर्यादागिरि (पुं०) सीमांत पर्वत। मर्यादापुरुषोत्तमः (पुं०) मर्यादा का पालन करने वाला श्रेष्ठ
पुरुष राम। (दयो०८) मर्शनं (नपुं०) [मृश्+घञ्] परामर्श, मंत्रणा, विचारना, प्रच्छना।
मिटाना, मल देना। ०सलाह देना।
उपदेश देना। मर्ष (वि०) शालीनता, सहिष्णुता, धैर्य। मर्षित (भू०क०कृ०) क्षमा किया गया। मषिन् (वि०) [मृष्+णिनि] धैर्यशील, सहनशील। मल् (सक०) थामना, अधिकार में रखना। मलः (पुं०) [मृज्यते शोध्यते-मृज्+कल्] कठिनीभूतं रजो
मतोऽभिधीयते। कालिमा, कालिख। मैल, गंदगी, मलिनता।
अपवित्रता, अशुद्ध, किट्टिम। (जयो० २।८१) ०धूल, रजकण। ०पाप, अशुभकर्म। 'नि:शेषतो मते नष्टे नैमल्यमधिगच्छति (सुद० १३५)
नैतिक दोष। ०पुरीष, विष्ठा। (जयो०वृ० १९/९)
गोबर। मलकर्मन् (नपुं०) पापमय कर्म, घृणित कर्म। मलगत (वि०) दोषगत, अशुद्धता युक्त। मलन (वि०) परिमार्जक, शोधक। मलचं (नपुं०) पीप, मवाद। मलजात (वि०) धूलधूसरिता मलदूषित (वि०) मल से अपवित्र, मैला, गंदा। मलद्रवः (पुं०) रेचन, अतिसार। मलपरीसहः (पुं०) परीषह का एक भेद। मलधावनं (नपुं०) मल प्रक्षालन। (सुद०७०) मलपृष्ठं (नपुं०) आवरण पृष्ठ पुस्तक का ऊपरी भाग। मलभुज् (पुं०) कौवा, काक। मलमल्लकः (पुं०) ०कौपीन, लंगोट।
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मलमूत्रकुण्डः
८२४
मल्ल
मलमूत्रकुण्डः (पुं०) मलस्थान। (जयो० १५/९३)
मलिनत्व (वि०) मलिनता, अपवित्रता। (जयो० २३/४१) __०मलय चन्दन।
मलिना (स्त्री०) रजस्वला स्त्री। मलमासः (पुं०) लौंद का महिना।
मलिनिमन् (पुं०) [मलिन्+इमनिच्] गंदगी, अपवित्रता, मलयः (पुं०) मलय पर्वत।
अशुद्धता। मलयगिरिः (पुं०) मलयाचल पर्वत। (सुद० ७१)
०कालिमा, कालापन। मलयगंधः (पुं०) चंदन की सुरभि।
मलिनी (स्त्री०) रजस्वला स्त्री। मलयज (वि०) चंदन से उत्पन्न।
मलिम्लुचः (पुं०) [मलिन्+म्लुच्क ] लुटेरा, चोर। मलयपर्वतः (पुं०) मलयगिरि।
०राक्षस। मलयरजस् (पुं०) चंदन की रज, चंदन चूरी।
डांस, पिस्सू। मलयवातः (पुं०) चंदन की गंध से परिपूर्ण हवा, मलयाचल
०खटमल। की पवन।
०वायु, पवन। मलयसमीरः (पुं०) मलयाचल की पवन।
०अग्नि। मलयाचल (पुं०) मलयगिरि। चंदनाद्रि।
मलीमस (वि०) [मल ईमसच] मैला, अपवित्र, गन्दा। मलयादिः (पुं०) मलयगिरि।
अस्वच्छ, मलिन।
कलुषित, कलंकिता मलयानिलः (पुं०) मलयगिरि की हवा। मलयोत्पन्नः (पुं०) चंदन लकड़ी। (जयो० १३/७९)
अपराध, दोष। मलयोद्भव (नपुं०) चंदन की लकड़ी।
दुष्ट, नीच, तुच्छ।
अव्यवहारिक, सदोष, मल में जो दुष्कर्म जनित किया मलविसर्जनं (नपुं०) मल परित्याग।
है। (मुनि० १८) मलस्रावः (पुं०) मलविसर्जना (सुद० १०२)
०काला। मलाका (स्त्री०) [मलेन मनोमालिन्येन अकति कुटिलं गच्छति
मलीमसः (पुं०) अयस्क, लोहा। मल+अक्+अच्+टाप्] ०हथिनी, दूती।
हरा कसीस। ०सखी, ०कामुक स्त्री।
मलेच्छखण्डः (पुं०) म्लेच्छखण्ड चक्रपाणे: समम्लेच्छा आयाता मलाड़ी (वि०) मलिन अंगों वाली। 'मलमेवाङ्ग यस्य स
मलेच्छखण्डतः। (हित० २७) मलाङ्गी भवति' (जयो० ५/८६)
मलोत्कर (वि०) मल समूह। मलापहः (वि०) मल दूर करने वाला। मलं किट्टादि अपहरतीति |
मलोत्सर्गकर (वि०) पापमल विसर्जित करने वाला। (वीरो० मलापहः (जयो० १९/९) मलायपहरकं (नपुं०) परिशोधन (जयोवृ० २/८१) दोषनाशन
| मलोत्सर्जनं (नपुं०) पुरीष परित्याग। (जयो० ३/१०)
मल/पाप परित्यज। (जयोवृ०१९/४) 'मलस्य पुरीषस्य मलिका (स्त्री०) राजरानी, राजी। (जयो०० ९/७७)
पापस्योत्सर्जनं परित्यजनम्। (जयोवृ० १९/९) मलिन (वि०) [मल+इनन्] मैला, गंदा, म्लान। (जयो०७० | मलौषधिः (वि०) मल नाशक दवा। मलौषधि नामक ऋद्धि, ६/११)
जिसके प्रभाव से जिह्वा, ओष्ठ, नासिका और श्रोत्रादि के घिनौना, अपवित्र, अशुद्ध। (सुद० ५/३)
मल को नाश किया जाता है। ०कलुषित, कलंकित, आविल। (वीरो० १/१०)
मल्ल् (सक०) थामना, ग्रहण करना। काला, अन्धकारमय।
मल्ल (वि०) [मल्ल्+अच्] बलिष्ठ, शक्तिमान। पापी, दुष्ट, नीच, समल। (जयो०वृ० १/३८)
०अच्छा, उत्कृष्ट। मलिनं (नपुं०) पाप, दोष अपराध।
मल (जयो० १६/७) हृद्रेतकृत्सम्भवतीव भल्लः परत्रयोमट्ठा।
दीपशिखांशमल्लः। (जयो० १६/७) 'शरीरैकदेशवर्ती मल्लः' ०सोहागा।
(जैन०ल० ३९४)
१८/२८)
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मल्लः
८२५
मसूरिका
मल्लः (पुं०) पहलवान, कसरती, मुक्केबाजी।
मशकः (पुं०) [मश्+कुन्] मच्छर, पिस्सू, डांस। ०पानपात्र, प्याला।
चमड़े का थैला, मशक। गाल, कपोल, गण्डस्थल।
मशकवरणं (नपुं०) मच्छर उड़ाने का चंवर। मल्लकः (पुं०) दीपट, तेलपात्र, दीपक, दीवा।
मशकहरी (स्त्री०) मसहरी, मच्छरदानी। मल्लक्रीडा (स्त्री०) मल्लयुद्ध।
मशकिन् (पुं०) [मशक+इनि] गूलर का पेड़। मल्लज (नपुं०) काली मिर्च।
मशुनः (पुं०) कुत्ता, श्वान। मल्लतूर्यं (नपुं०) युद्ध का बिगुल।
मष् (सक०) चोट पहुंचाना, क्षति करना, नाश करना। मल्लभीत (वि०) मदुक्त। (जयो० १७/२४) आसक्ति जन्य। मार डालना। मल्लभू (स्त्री०) युद्धभूमि, रणस्थल।
मषिः (स्त्री०) स्याही। ०अखाड़ा।
०काजल। मल्लभूमि (स्त्री०) मल्ल स्थान, अखाड़ा, व्यायामशाला। मषिकर्मन् (पुं०) लेखन क्रिया। मल्लयुद्धं (नपुं०) द्वन्द्व युद्ध, कुश्ती करना, समान बलिष्ठ ] मषिवर्तिन् (वि०) अंधकार में प्रवर्तन करने वाला। (जयो० व्यक्तियों द्वारा लड़ना।
१२/२) स्याही से युक्त। मल्लविद्या (स्त्री०) मल्लयुद्ध की कला।
मषिपात्रं (नपुं०) स्याही का दवात। (जयो० २१/३२) मल्लशाला (स्त्री०) व्यायामशाला। अखाड़ा।
मस् (सक०) तोलना, मापना। मल्लि (पुं०) मल्लिनाथ तीर्थकर, उन्नीसवें तीर्थंकर का नाम। रूप बदलना। (भक्ति० १९)
मसनंः (पुं०) [मस्+ ल्युट] मापना, तोलना। मल्लि (स्त्री०) चमेली।
मसकपूरण: (पुं०) एक यति का नाम। (जयो० २३/८७) मल्लिका (स्त्री०) प्रसेनजित राजा की रानी।
मसरा (स्त्री०) [मस्+अरच्+टाप्] मसूर दाल। मलिका, राजरानी। (जयो० ९/७७) मल्लिकामहिषी मसार: (पुं०) [मसं परिमाणं ऋच्छति।] [मस्+ऋ+अण्चात्सीतप्रसेनजिन्महीपतेः। माला (जयो० ५/७७) (वीरो० मसार कन्] पन्ना। १५/२८)
मसि (पुं०/वि०) [मस्+इनि] स्याही, काजल, ०मसिविद्या, मल्लिगंधि (नपुं०) अगर गंध। चंदन की सुगन्ध।
०लेखन आदि की कला, ऋषभ के द्वारा सर्वप्रथम छह मल्लिनाथः (पुं०) उन्नीसवें तीर्थंकर।
विद्याओं को जन-जन के लिए शिक्षा दी उसमें मसिविद्या कालिदास के संस्कृत काव्यों पर टीका/भाष्य लिखने वाला भी एक कला है।
कवि। इस भाष्यकार ने रघुवंश, कुमारसंभव, मेघदूत, मसिकूपी (स्त्री०) स्याही का पात्र। किरातर्जुनीय, नैषधीयचरित, शिशु पालवध जैसी संस्कृत मसिधानं (नपुं०) दवात। कवियों की कृतियों पर चौदहवी पंद्रहवी शताब्दी में मसिधानी (स्त्री०) दवात, मसिपात्र।
टीकाएं लिखीं। जो वर्तमान युग में अधिक प्रसिद्ध हैं। मसिपण्यः (पुं०) लिपिकार, लेखक। मल्लिमाला (स्त्री०) जातिकुसुमस्रग। (जयो० २०/३५) । मसिपथः (पुं०) कमल, लेखनी। मल्लीकरः (वि.) [अमल्लमपि आत्मानं मल्लमिव करोति] मसिप्रसू (स्त्री०) लेखनी। कोर।
मसिवर्धनं (नपुं०) लोबान। मल्लु (पुं०) भालू, रीछ।
मसुरः (पुं०) मसूर दाल। ०तकिया। द्विदलान्न भेद। मव् (सक०) कसना, बांधना।
(जयो० १२/१२६) मव्य (सक०) बांधना, जकड़ना।
मसुरा (स्त्री०) ०मसूरदाल। मश् (अक०) गुनगुनाना, गुञ्जन करना, भिनभिनाना। ०पण्याङ्गना, वेश्या। ०क्रोध करना।
मसुरोचितः (पुं०) मसूरदाल। (जयो० १२/१२६) मशः (पुं०) [मश्+अच्] गूंजना, गुनगुनाना।
मसूरिका (स्त्री०) [मसूर+कन्+टाप्] ०खसरा रोग।
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मसूरी
० मच्छरदानी |
० कुहिनी | ०दूती ।
मसूरी (वि०) छोटी चेचक |
मसृण (वि०) स्निग्ध, चिकना । ० मृदु, कोमल, सरल। ०प्रिय, मनोहर |
० चमकीला, उज्ज्वल ।
मसृणा (स्त्री० ) अलसी ।
मस्कू (सक०) जाना, पहुंचना।
मस्कर: (पुं०) ( मस्क अरच्] ०गति, चाल
० ज्ञान ।
० बांस, खोखला बांस ।
+
मस्करिन् (पुं० ) [ मस्कर इनि] ०संन्यासी, साधु ०चन्द्र, शशि ।
मस्ज् ( अक० ) स्नान करना, नहाना ।
डूबना, ढलना।
०उठना, दृष्टिगोचर होना।
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०घुल जाना, ओझल होना।
मस्तं (नपुं०) [मस्+क्त] सिर, माथा, खोपड़ी। ● देवदारु वृक्ष ।
मस्तकः (पुं० ) [ मस्मति परिमात्यनेन मस् करणेन स्वार्थे क] ० सिर, माथा, खोपड़ी। (समु० ९) ललाट | (जयो० १२ / ५७ ) ० शिखर, चोटी, कूट।
मस्तकञ्चरः (पुं०) सिरवेदना तीव्र शिरोवेदना। मस्तकचूलिका ( स्त्र०) ललाट रेखा । (जयो० १२ / ५७ ) मस्तकपिंडकः (पुं०) हस्ति गण्डस्थल का उभार । मस्तकमल्लिका (वि०) शिरोमाला, शिरोमल्लिका। (जयो० ९/७७) ० शिरोभूषण । मस्तकमूलकं (नपुं०) गर्दन।
मस्तकस्थली (वि०) मूर्धभुव। (जयो० २२ / २१ ) मस्तकस्नेहः (पुं०) सिर ।
मस्तिष्कं (नपुं०) सिर, दिमाग
।
मस्तिष्कवत् (वि०) सिर के सदृश । (सुद० १ / २ ) मस्तु (नपुं० ) [ मस् + तुन् ] छांछ ।
मह् ( अक० ) आदर करना, सम्मान करना ।
० समझना, श्रद्धा रखना।
० पूजा करना।
८२६
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महः (पुं० ) [ मह्+घञ् ] उत्सव, त्योहार । मह उत्सव तेजसो इति वि (जयो० २१/१३)
०उपहार |
व्यज्ञ ।
० भैंसा ।
०प्रकाश, प्रभा, कान्ति।
महक: (पुं० ) [ मह+ कन्] प्रधान व्यक्ति, श्रेष्ठ व्यक्ति ।
० कच्छप ।
महत् (वि०) महानता युक्त |
महत् (पुं०) बृहद्, बड़ा, विस्तृत, विशाल। (सम्य० ४३) गत्वा गुरोरन्तिकमेतदाज्ञां लब्ध्वा मयेयं महतोऽपिभाग्यात् ।। (सम्य०
"
४३)
० यथेष्ठ, पुष्कल, विपुल, प्रधान, प्रमुख ।
० असंख्य ।
० लम्बा, विस्तारित व्यापक ।
०प्रचण्ड, गहन, अत्यधिक । ०सपन, निविड ।
महत्त्व
० महत्त्वपूर्ण, महती, गुरुतर ।
० उन्नत, उदात्त । (सुद० ९४ ) ० उत्ताल, उत्तम, विशाल ।
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महता (वि०) पुण्यशाली (जयो० १/१०६) महात्मा । (जयो०२/२)
महती (स्त्री०) [महत् ङीष्] ०बीणा, एक वाद्य विशेष ० महत्त्वपूर्ण, उत्तम। (जयो० २ / ८९) बृहत् परिणाम (जयो० ३/६० ) ०घनिष्ठा । (जयो०वृ० १/१६ )
महती प्रपञ्चः (पुं०) विशेष प्रपञ्च (वीरो० १८ / २३) अधिक छल, महा वंचना, अधिक ठगीभाव महतीय (वि०) महत्त्वपूर्ण (सुद० ११२)
महत्तर (वि० ) [ महत्+तरप्] अपेक्षाकृत बड़ा, विशाल । महत्तरः (पुं० ) प्रधान, मुख्या
०कंचुकी, प्रतिहारी युवराज के कार्य को देखने वाला राज्य कुशल व्यक्ति।
०गांव का मुखिया ।
महत्तरक: (पुं०) (महत्तर+कन्] राजकीय व्यक्ति, महा प्रतिहार महत्तरवत् (वि०) विशालता युक्त। (जयो०वृ०९ १/२४) महत्त्वं (नपुं० ) [ महत्+त्व] ०बड़ापन, विशालता, विस्तृति । ० विभूति, ऐश्वर्य |
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महत्तत्व
८२७
महादर्शः
उन्नत अवस्था, ऊंचाई, उन्नयन। गहनता, प्रचण्डता। महान्। (सुद० ४/३०) महत्त्वपूर्ण-'प्रणयनं प्रापणमेव महत्त्वं भवेत्' | (जयो०२३/८४) ०अतिशय विशाल। एक ऋद्धि विशेष, जिसके प्रभाव से जीव अपने शरीर
को अतिशय विशाल कर सकता है। महत्तत्वं (नपुं०) सांख्य के पच्चीस तत्त्वों में दूसरा तत्त्व।
प्रधान तत्त्व। महद्धनं (नपुं०) विशालधन, अधिक धन सम्पत्ति। (समु०३/५) महदन्तरं (नपुं०) बड़ा अंतर। (दयो० ३२) महदाश्रित (वि०) महत्त्वपूर्ण आधार। (सुद० २/३) महदी (स्त्री०) मेंहदी। (जयो० १५/७५) महद (वि०) महानतम्, अत्यधिक। सौंदर्यमने किमुपैसि भद्रे
घृणास्पद तावदिदं महद्रे।। (सुद० १२०)
मह्यं मेरे लिए (जयो० २०/२६) महनीय (वि०) आदरणीय (जयो० ४/३३) पूजनीय।
(जयो० ४/९) प्रतिष्ठित, पूज्य। परमादरणीय (दयो०३९) महर्घ्य (वि०) पूजनीय (सुद० ९१) सम्माननीय। महर्ष (वि०) हर्ष युक्त, आनन्द सहित। महर्षिनन्दनः (वि०) पूजनीय। (सुद० ९१) महर्षि (पुं०) ऋषि, मुनि। (जयो० १/७९) महल्लकः (पुं०) निर्बल, दुबला, कमजोर, जीर्ण, पुराना। महस् (नपुं०) [मह+असुन्] ०उत्सव, त्योहार।
उपहार, आहूति। ०प्रकाश, आभा। महस्करः (पुं०) [मस्स्+कर] सूर्य, दिनकर। (दयो० १८) महस्वत् (वि०) [महस्+मतुप] भव्य, उज्ज्वल, आभावान्। महा (स्त्री०) [मह+घ+टाप्] गाय। महा (वि०) ०महान्, उत्तम, विशिष्ट। (सम्य० ९९)
उन्नत, विशाल, भयानक। * विशेष, युक्तिसंगत। विस्तृत, फैला हुआ, विस्तीर्ण। विपुल, असंख्य।
प्रचण्ड, गहन, प्रगाढ़। महाकच्छः (पुं०) समुद्र, स्थान। (समु० २/११) महाकविः (पुं०) कवि शिरोमणि। अनेक अर्थों के सूचक
रचना वाले कवि शब्दार्थ-वैचित्र्योपेतं महाकाव्यम्।
महाकाव्यं (नपुं०) बृहत्काव्य। महाकोशः (पुं०) विश्वकोश। महाङ्गसंग्रहः (पुं०) उष्ट्र समूह। महाङ्गानामुष्ट्राणां संग्रहः
उष्ट्रसहितः। (जयो० २१/५) महागजः (पुं०) उन्नत हस्ति। महागंगा (स्त्री०) अनेक नदियों के प्रवाह वाली गंगा नदी। महागण: (पुं०) गणधर। महागरः (पुं०) महाविष। (जयो० १५/१७) महागुणः (पुं०) विशाल गुण।।
गुणस्थान, बारह गुणास्थान। महान्तो गुणस्थानानि। (जयो०
१/९८) महागणपति (पुं०) गणेश। गणधर। महाघोषः (पुं०) उच्च उद्घोष। महाचम् (स्त्री०) विशाल सेना। उत्तम चतुरंगिनी सेना। महाछायः (पुं०) वटवृक्ष। महाजनः (पुं०) प्रतिष्ठित व्यक्ति, सज्जन, पूज्य पुरुष।
(जयो० २४/८) सौदागर, व्यापारी।
साधारण जन समूह। महातपस् (पुं०) कठोर तप, तेजस्वी, शूरवीर योद्धा।
०अग्नि। महादण्डः (पुं०) विशाल बाहु। महादंती (स्त्री०) उन्नत हाथी। महादानं (नपुं०) सकलदत्ति कारक। (जयो० १/१०८) महाधनु (वि०) विशाल बाहु। महात्मन् (पुं०) महान् आत्मा, दिगम्बर मुनि।
समान-सुख-दुःख-सन् पाणिपात्रो दिगम्बरः। निःसङ्गो निष्पहः शान्तो ज्ञान-ध्यानपरायणः।। (दयो० २०) ०साधक, साधनाशील, तपस्वी (सुद० १०९) ०भगवत् (वीरो० ८/१८) महापुरुषेण प्रमोदिना उत्कृष्टः (जयो० २५/७९)
महापुरुष (दयो० १२२-१२३) अनन्तज्ञानवीर्ययुक्तत्वान्महानात्मा यस्य स महात्मा। (जैन०ल० ८९३) महादेवः (पुं०) रुद्र, ऋषभदेव। (जयो० ७/५३)
०शिव, शंकर। (जयो० १/१५) ०पशुपति। (सुद० ११२)
उमा-धव (जयो० १/७६) महादर्शः (पुं०) अमावस्या तिथि।
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महादेवः
८२८
महामनस्
०दर्पण। (जयो० ३/१०१)
०देखना। महादेवः (पुं०) शिव, शंकर। (जयो० १/२) महाकाव्यम् (नपुं०) महाकाव्य, प्रबन्ध की एक-एक विधि।
(जयो० १/६) महाकायः (पुं०) विशाल देह। (दयो० २५) महाजप (वि०) महाकाय। महाजनः (पुं०) मृत्यु, मरण। महात्मन् (वि०) उत्तम आत्मा वाले (दयो० ३१) महात्मा __ (वीरो० २२/१०) महात्ययः (पुं०) बड़ा भारी संकट। महाध्वनिक (वि०) महाप्रयात, दूर तक गया हुआ। महाध्वरः (पुं०) महत् यज्ञ। महानटः (पुं०) शिव, नटराज। महानदः (पुं०) विशाल सरोवर। महानदी (स्त्री०) विस्तृत क्षेत्र वाली नदी, गंगा, यमुना आदि
नदी।
महानयः (पुं०) महापुरुष। (समु० ४/३) महानरकः (पुं०) दुःखपूर्ण नरक। महानसः (पुं०) रसोईघर। (दयो० ९) ०बड़ा भोज स्थान। महासत्व (वि०) रसोईघर, रसवती स्थान युक्त। (जयो०
२२/४९) महानिन्द्रा (स्त्री०) मृत्यु, मरण। महानिर्वाणं (नपुं०) परमनिर्वाण, मुक्ति, मोक्ष। महानुग्रहः (पुं०) विशेष कृपा। (समु० १/६) महानुत्सवः (पुं०) उत्तम उत्सव। महानुभवः (पुं०) विशेष अनुभव। (दयो० ३७ मुनि० १५/) महानुभावः (पुं०) महायश, महान् व्यक्ति। (समु० १/११) ०भव्यात्मन् (वीरो० १८/५२) लोकोत्तर महिमा (पंक्ति० ३) सज्जन, ज्ञानीजना
०महापुरुष। महानेमिः (पुं०) काक, कौवा। महान्वयः (पुं०) श्रेष्ठ कुलोत्पन्न। महान् अन्वयो येषां ते
(जयो० २/११) महापञ्चमूल (नपुं०) पंच महाव्रत। एवं मूल गुण युक्त। महापथः (पुं०) राजमार्ग, मुख्य सड़क। महापंथः (पुं०) राजमार्ग।
महापद्म (नपुं०) श्वेत कमल।
हिमवान आदि पर्वत स्थित तालाब। महापालकं (नपुं०) जघन्य अपराधी। महापात्रः (पुं०) प्रधानमंत्री। महापुंसः (पुं०) महापुरुष। महापुरः (पुं०) महानगर। (सुद० ४/२८) महापुरु (पुं०) महापुरुष। (सुद० ३/२३) महापुराणं (नपुं०) वैदिक पुराण। (दयो० ३१)
जैन पुराण-जिनसेनाचार्य प्रणीत। महापुराणी (स्त्री०) गुणभद्राचार्य की रचना। (समु० १/२) महापुण्डरीकः (पुं०) हिमवान् आदि पर्वत पर स्थित तालाब।
(त०सू० पृ० ५१) महापुण्योदयः (पुं०) उत्तम पुण्य का कारण (दयो० १०४) महापुरुषः (पुं०) सज्जन, महाशय। (सुद० १२३) महापूजा (स्त्री०) उत्तम अर्चना, विशेष पर्व पर की जाने वाली
पूजा। महाप्रसादः (पुं०) अतिकृपा। महाप्रस्थानं (नपुं०) मृत्यु, मरण।
०महाविलीन, समाधि। महाफल (वि०) अच्छाफल देने वाली। महाबल (वि०) बलशाली, शक्ति सम्पन्न। महाबलः (पुं०) एक नाम, विष कन्या के पिता का नाम।
(दयो०६९) महाबाहु (वि०) लम्बी भुजा युक्त। (जयो० ११/९८) महाबोधिः (स्त्री०) उत्कृष्ट ज्ञान, वीतरागता। महाब्रहं (नपुं०) परमात्मन्। । महाभागः (पुं०) महानुभाव, सौभाग्यशाली, महाशय। भव्यात्मन्।
(जयो०वृ० १/२१ सुद० ४/३८) महाभारताख्यः (पुं०) महाभारत नाम। (जयो० १/१) एक काव्य। महाभुज (वि०) बाहुबली, शक्तिशाली। महामणि (स्त्री०) चिंतामणिरत्न (जयो० १/१०६) मूल्यवान्
मणि। महामतिः (स्त्री०) विचारशील व्यक्ति, बुद्धिमान जन। (जयो०
२/५१)
उत्तमबुद्धि। (दयो०५८) महामत्खी (स्त्री०) बड़ी मछली। (दयो० २३) महामद (वि०) उन्मत्त, नशे में धुत्त। महामनस् (वि०) उदारमना, महाशय, उदारचित्त। (जयो० ९/८४)
उदार, अभिमानी। (समु० ४/९)
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महामना
८२९
महाशुक्तिः
महालक्ष्मी (स्त्री०) महालक्ष्मी। महालिंग (नपुं०) शिव लिंग। महालोलः (पुं०) काक, कौवा। महावनं (नपुं०) विशाल जंगल, विंध्याचल पर्वत। महावनीश्वरी (स्त्री०) पटरानी। (सुद० ८४) कपिलाऽऽहाव
नीश्वरीम्। महावाक्यं (नपुं०) विशेष साहित्य, रचना, अतिशय विशिष्ट
अर्थ वाले वाक्य-महाकाव्य, महापुराण। महावातः (पुं०) झंझावात, आंधी। महावार्तिकं (नपुं०) महाभाष्य, किसी ग्रंथ या सूत्र पर बृहट्टीका। महाविकाशिन् (वि०) अत्यंत विस्तृत होने वाला। (जयो०१/४२) महाविदेहः (पुं०) एक क्षेत्र विशेष। महावीरः (पुं०) बलशाली, शक्तिसम्पन्न, महाविक्रान्त।
अन्तिम तीर्थंकर महावीर। महावीरप्रभु (पुं०) महावीर स्वामी। (सुद० १/४५) जिन्हें
जिनशासन में वर्धमान, वीर, अतिवीर, सन्मति भी कहते
महामना (वि०) विद्वान्, चतुर निपुण। (सुद० ४/२५)
महामनस्विन्। (सुद० ३/३६) महामन्त्रं (नपुं०) नवकार मन्त्र, पञ्च परमेष्ठिमंत्र, जैनधर्म में
प्रचलित अनादि मूल मन्त्र। णमो अरहताणं, णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं। णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्वसाहूण।।
० श्रेष्ठ मन्त्र १० उत्तम मन्त्र। महामन्त्रिन् (पुं०) प्रधानमंत्री। महामहिमा (स्त्री०) उदार महिमा, उत्कृष्ट महिमा। महामहिमोदयपात्री (वि०) महान् महिमा के उदय का पात्र ___ होने वाली। महामहोपाध्यायः (पुं०) महापण्डित। महामांसं (नपुं०) विपुल मांस। महामात्रः (पुं०) राज्याधिकारी। प्रमुख-राज्य अधिकारी। महामाया (स्त्री०) सांसारिक अविद्या। ०अधिक छल-कपट। महामारी (स्त्री०) हैजा, संक्रामक रोग। महामुखः (पुं०) मगरमच्छ। महामुनि (पुं०) ज्ञानी मुनि, तपस्वी मुनि, ध्यानी मुनि।
(दयो० २/१८) महामूल्य (वि०) अधिक मूल्य। ०वस्तु का अधिक मूल्य। महाभृगः (पुं०) हस्ति, हाथी। महामेदः (पुं०) मूंगे का पेड़। महामोहः (पुं०) अति लुभावना, अत्यधिक आकर्षक। महायज्ञः (पुं०) विशिष्ट यज्ञ। महायात्रा (स्त्री०) महाप्रयाण। महारजतं (नपुं०) स्वर्ण। ०धतूरा। महारजनं (नपुं०) बहुमूल्य रत्न। महारथः (पुं०) विशाल रथ, बड़ा रथ। महारस (वि०) रस पूर्ण। महारसः (पुं०) गन्ना, ईख, इक्षु।
पारा।
०बहुमूल्य धातु। महाराजन् (पुं०) प्रभु, स्वामी, राजा, चक्रवर्ती। (सुद० १/४५)
रायाण जो सहस्सं पालइ सो होदि महाराजो (ति०प० १/४५) जनतां सततं प्रयालयस्तु महाराज इतो भवान्
स्वयम्। सहस्रराजस्वामीमहाराजः (दयो० १०६) महाराज्ञी (स्त्री०) पटरानी। (सुद०८५) भवत्यस्ति महाराज्ञी ___ यत्किञ्चिद्वक्तुमर्हति। महारात्रि (स्त्री०) प्रलय काल।
महावेग (वि०) विशाल वेग, बहुत तेज। महाव्याधिः (स्त्री०) भयानक रोग। महाव्रतं (नपुं०) पञ्च महाव्रत, जैन श्रमणों द्वारा अंगीकार
किए जाने वाले अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह व्रत, जिसमें सम्पूर्ण अंश के त्याग को महत्त्व दिया जाता है। (भक्ति० ९) साहति जं महत्थं आचारिदाणी य जं महल्लेहि। जं च महल्लाणि तदो महव्वयाइं भवे ताई।। (मूला० ५/९९) 'सर्वतो विरति म मुनियोग्यं
महाव्रतम्' जो महान् अर्थ को/मोक्ष को सिद्ध करते हैं। महाव्रतिन् (पुं०) महाव्रती, श्रमण, मुनि। महाश्रावकः (पुं०) व्रतपालक श्रावक, अणुव्रत धारक श्रावक। महाशब्द (वि.) उच्च ध्वनि। महाशय (वि०) महाभाग्य, सौभाग्यशाली।
महाजन, सज्जन। (सम्य० ७४) महानुभाव। (सुद० २/२०) ०आर्य। (जयो०वृ० १/२६) उदारचेता। (जयो० ३/९४) महान् आशय वाला, उत्तम आशय युक्त। (जयो० १३/४४) दृष्ट्वाऽवाचि महाशयासि किमिहाऽऽगत्य स्थितः
किं तया। (सुद० ९८) महाशक्तिः (स्त्री०) मोती युक्त सीपी। (समु०५/१५)
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महाशुक्रः
८३०
महीबला
स
महाशुक्रः (पुं०) दसवां स्वर्ग। (वीरो० ११/१६)
महिरः (पुं०) [मह+इलच्, तस्य रत्वम्] सूर्य, दिनकर। महाशुक्ला (स्त्री०) सरस्वती, भारती।
महिला (स्त्री०) [मह+इलच्+टाप्] स्त्री जाति। नारी। पृथ्वी महाशुभ्रं (नपुं०) रजत, चांदी।
को लाभ पहुंचाने वाली। महाश्वेता (स्त्री०) सरस्वती, भारती।
महिषः (पुं०) भैंसा। (वीरो० १/३१) महासंक्रान्ति (स्त्री०) मकर संक्रान्ति।
महिषघातिनी (स्त्री०) दुर्गा। महासती (स्त्री०) साध्वियों में अग्रणी, महाव्रतधारण करने महिमथनी (स्त्री०) दुर्गा। वाली सती।
महिषि (स्त्री०) [महिष+ङीष] भैंस। (सुद० ४/२६) महासत्ता (स्त्री०) समस्त पदार्थ में व्याप्त सत्ता, ०असीम
राजरानी। अस्तित्व। प्रभुत्व, विशालता।
०पटरानी। (सुद० १/२२, वीरो० ३/२४) महासत्त्वः (पुं०) कुबेर।
०पट्टराज्ञी। (जयो० ११/८२) (समु० ६/४३) महासिद्धिः (स्त्री०) विशेष सिद्धि
महिषी देखो ऊपर। महासुखं (नपुं०) परम सुख।
महिषी (स्त्री०) सेविका, दासी। महास्कंधः (पुं०) उष्ट्र, ऊँट।
०व्यभिचारिणी स्त्री। महास्थली (स्त्री०) पृथ्वी, भूमि।
महिषीचरी (स्त्री०) रानी (सुद० १३३) महास्थानं (नपुं०) विशेष स्थान, परम पद।
महिषीसनायता (वि०) पटरानी युक्त। (दयो० ४) महाहिमवन् (पुं०) पूर्व समुद्र से पश्चिम समुद्र तक लम्बा
महिष्मत् (वि०) [महिष+मतुप्] बहुत सी भैंसें रखने वाला।
मही (स्त्री०) [मह्+अच्+ङीष्] भूमि, पृथ्वी, धरणी, धरा। पर्वत। (त०सू० ३/११)
स्थान। (जयो० ९/१) महि (स्त्री०) भूमि, धरणी। 'महि शब्दो ह्रस्वेकारान्तोऽपि
मही, छांछ। (जयोवृ० १०/१५) कविभिः सम्मतोऽस्ति धरिणि शब्दवत्। (जयो० २५/७४)
०भूसम्पत्ति, भूवैभव। महिका (स्त्री०) [मह्+क्वुन्+टाप्] ०कोहरा, धुंध।
महीकंपः (पुं०) भूकम्प, भूचाल। महित (भू०क०कृ०) [मह+क्त] ०पूजित। (जयो० २८/८)
महीक्षित् (वि०) पृथ्वीदर्शक। (जयो०१०/५६) ०सम्मानित, श्रद्धेय।
महीक्षित् (पुं०) राजा, नृप। ०पूजनीय, अर्चनीय, आदरणीय।
महीज (पुं०) वृक्ष, तरु, पादप। महिता (स्त्री०) [मह्+क्त+टाप्] पूजनीया, माननीया पूज्या
मंगलगृह। वसुधा महिला तावद्युक्ता नवसुधान्वयैः (जयो० ३/७८)
महीजं (नपुं०) अदरक। महामान्या। विरम विरम भो स्वामिनि त्वं महितापि
महीतलं (नपुं०) धरातल, भूभाग। जनेन।। (सुद० ८७)
महीदानं (नपुं०) भूदान। महिमन् (पुं०) [महत्+इमनिच्] यश, गौरव, प्रतिष्ठा, कीर्ति।
महीधरः (पुं०) पर्वत, पहाड़। महिमहित (वि०) पृथ्वी पर पूजित, भू भाग पर पूजनीय।
महीध्रः (पुं०) पर्वत, गिरि। (जयो० ५/५३)
महीनाथः (पुं०) नृप, राजा। महिमा (स्त्री०) यश, गौरव। (सुद० १०९) महाशरीर विधान,
महीपः (पुं०) नृप, राजा। (जयो० १/२४) नरनाथ। (जयो० महत्त्व (जयो० ९/८८)
९/४०) (सुद० ११२) महिमान (वि०) महिमा युक्त, प्रतिष्ठित। (सुद० ३/६) महिभुज् (पुं०) नरनाथ, नरपति, राजा, महाराज। (जयो०९/१) महिमानः (पुं०) पृथ्वी परिमाण। तेजस्ते जयतादपि मित्रं (समु० ४/३) विजयनाज्जयनामहीभुजः समभवत्समरेऽपि महिमा तव महिमानविचित्र:। (जयो० ९/८८)
महीरुजः। (जयो० ९/१) महिभुजः शशिनाऽसौ प्रतिकारिणी महिमाविषयक (वि०) गौरव युक्त। (जयो० २६/५९)
सजः। (वीरो० ६/४०) महिमोहविस्मयी (वि०) पृथ्वी पर आश्चर्यजनक विचार वाला। | महीबला (स्त्री०) चौहानवंशी कीर्तिपाल की रानी। (वीरो०
'महिम्नि विषये य ऊहोय विचारस्तेन। (जयो० २६/५९) १५/५१)
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महिभृत्
महिभृत् (वि०) भूमिधर । (सुद० १ / १६ )
महिभृत् (पुं०) कृष्ण । (सुद० १/१६) पर्वत, पहाड़ । महीभूति: ( स्त्री०) रानी । (समु०२ / ९ )
महीमघवन् (पुं०) राजा ।
महीमघोनः (पुं०) पृथ्वीन्द्र, राजा । 'पृथ्वीन्द्रस्य अघोनः पापवर्जितः समागमः '
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महीमहाङ्क (वि०) भूमण्डल पर चलने वाला। (वीरो० २१ / १५ ) महीमहेन्द्रः (पुं० ) राजा ।
महीमूनि : (स्त्री०) भू का अग्रभाग (सुद० १०९ ) समस्ति यताऽऽत्मनो नूनं कोऽपि महिमूर्त्यहो महिमा । ( सुद० १०९) महीयस् (वि० ) [ महत् + ईयसुन् ] महत् प्रशंसनीय, परमादरणीय। (जयो० १२/१४२)
० पूज्य । (जयो० १५/३)
० महत्त्वपूर्ण, शक्तिसम्पन्न। (सुद० ३ / ६ ) महायसी (स्त्री०) विशाल, उन्नत, श्रेष्ठ परिणाम वाली। परिणामेन महीयसी सती। (समु० २/५) महीयान् (वि०) महापरिणामवान्। (जयो० १६ / ४० )
०महिमा युक्त। (सुद० १०७)
महीरुहः (पुं०) वृक्ष, तरु। (जयो० १३ / ७५) (जयो० १३ / ४६ ) महीवलयं (नपुं०) भूमण्डल। (वीरो० ४/४४) पृथ्वी समूह । महीश: (पुं०) राजा, नृप। (समु० ४ / ५१) (सुद० १०८) महीशमहनीय (वि०) राजाओं में आदरणीय । (जयो० ४ / ९ ) महीशितु (पुं०) राजा । (जयो० ९/५९ ) महीशूर : (पुं०) मैसूर देश । (वीरो० ५ / ३४) महीशूराधिप: (पुं०) मैसूर नरेश। (वीरो० १५ / ३४) महीशूराधि पास्तेषां योषितोऽद्यावधीति ताः । जैनधर्मानुयायित्वं स्वीकुर्वाणा भवन्यपि ।। (वीरो० १५/३४)
महीश्वरः (पुं०) राजा (वीरो० १८/४) नृप, अधिपति। (जयो० १/११)
महीस्थलं (नपुं०) भूमि, भूभाग। (जयो०१३/८५) महेङ्गित (वि०) प्रशस्त चेष्टा वाले । ग्रन्थारम्भमये गेहे कं लोकं हे महेङ्गित। (जयो० १ / ११० )
महेन्द्रः (पुं०) ०महेन्द्र नामक राजा । माहेन्द्र देव । ( भक्ति० ३२)
० राजा। (समु० ४/१५)
• महेन्द्र नामक कचुकी । (जयो० ४ / ३५ ) ० इन्द्र जालिक। (जयो० ३/४)
महेन्द्रजाल : (पुं० ) इन्द्रजाल । ( भक्ति० ४९ ) महेन्द्रदत्तः (पुं०) महेन्द्रदत्त नामक कझुकी। (जयो० ५ / ६० )
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मांसनिर्यासः
महेन्द्रयुतदत्तः देखो ऊपर।
महेन्द्रस्वर्गः (पुं०) माहेन्द्र स्वर्ग । (वीरो० ११ / ११) महेश: (पुं०) परमेश्वर। (जयो० ५ / ७५) ० शिव । महेश्वर: (पुं० ) ० ईश्वर, भगवन्, अर्हत्। ०शिव, महादेव । महेश्रत्व ( वि० ) परमात्मपना, ईश्वरपना। (वीरो० ३ / १३) महोज्वरी (वि०) पित्तज्वर वाला। (जयो० २३ / २६ ) महोत्सव : (पुं०) महान् पर्व, अतिहर्ष (समु० ६ / २८, सुद० ३/४८)
महोदयः (पुं०) भाग्यशाली, सौभाग्यशाली। (जयो० १ / ९९ ) (जयो०१२/ १४०)
० महाभाग, महाशय, महानुभाव। (वीरो०१/२) महोदयन्वति (पुं०) महासागर, समुद्र । (जयो० ५/५५) मा (अव्य० ) निषेधात्मक अव्यय, मत, नहीं, ऐसा नहीं । मा हिंस्यात्सर्पभूतानि (सुद० ४/४४) पुरि कोलाहल मा निवेदितम्। (समु०२/२४)
मा ( स्त्री०) [मा+क+आप्] लक्ष्मी, पद्मा, विष्णुप्रिया । (जयो० ३/१०१) धनदेवी । (जयो० १/५७) (जयो० ५ / ९९ ) मा लक्ष्मी सा सम्पूर्णपृथिवीतलगत मनुष्याणां मान्यता सम्भवा, लक्ष्मी। (जयो०वृ० १/५७)
० माता, जननी। (जयो० १/४५) ० पृथिवी । मातरमिव । ० अमावस्या | (जयो० १२/९२) (जयो० ५ / ९९ ) मा ( सक०) मापना, नापतोल करना, घटाना । माक्षेपमानबन्धयोः । इति वि (जयो० २७/२६ ) ०बनाना, सृजन करना, बसाना। मा (अक० ) अंदर होना । मांस् (नपुं०) मांस।
मांसं (नपुं० ) [ मन्+ स दीर्घश्च] मांस, गोश्त । (सुद० १२७ ) • एक व्यसन विशेष, सप्त व्यसनों में दूसरा मांसभक्षण (जयो० २ / १२५) त्रसानां तनुमसनाम्ना प्रसिद्धा यदुक्तिश्च विज्ञेषु नित्यं निषिद्धा । सुशाकेषु सत्स्वप्यहो तं जिघांसुधि 'गेनं मनुष्यं परासृपियासुम् ।। (जयो० २ / १२८ ) त्रसानां चराचरजीवानां या तनुः कलेवरततिः सा मांसनाम्ना । (जयो०वृ० २/१२८)
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मांसकारि (नपुं०) रक्त।
मांसग्रन्थि (स्त्री०) मांस की गिल्टी, मांस का थक्का। मांसजं (नपुं०) चर्बी, वसा । मांसद्राविन् (पुं०) खट्टी भाजी |
मांसनिर्यासः (पुं०) शरीर के रोम, देह वाला।
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मांसपिटकः
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माचिकव्वां
मांसपिटकः (पुं०) मांस समूह, मांस का पिटारा। मांसपित्तं (नपुं०) हड्डी। मांसपेशी (स्त्री०) पुट्ठा, मांस का टुकड़ा। मांसभक्षणं (नपु०) मांसाहार। (जयो० २/१२५)
(वीरो०१८/३६) पल भक्षण। मांसभुग (वि०) मांस भोजी। विप्रोऽपि चेन्मांसभुगस्ति निद्यः
सद्-वृत्तभावाद् वृषलोऽपि वन्द्यः। (वीरो० १७/१७) मांसभेतृ (वि०) मांस काटने वाला। मांसभेदिन् (वि०) मांस काटने वाला। मांसभोजी (वि०) मांसभुग, मांसाशिन्, मांस खाने वाली।
(जयो० १५/१२) मांसयोनिः (स्त्री०) मांस से बनाजीव। मांसल (वि०) पुष्ट, हृस्ट-पुष्ट, शक्ति सम्पन्न। (सुद०१०१)
(दयो०६७) मांसविक्रयः (पुं०) मांस की बिक्री। मांसवृद्धिः (स्त्री०) मांस का बढ़ना। (सुद० १०२) मांसाशनं (नपुं०) मांसाहार। (दयो० ९६) मांसाशिन् (वि०) मांसभोजी। (जयो० १५/१२) मासिकः (पुं०) कसाई, मांस विक्रेता। माकन्दः (पुं०) आम्रवृक्ष (वीरो० ६/२०)
०आम्र तरु।
०आबलक तरु। माकन्दक्षारकः (पुं०) आम्रमंजरी। (जयो०६/१०१) माकर (वि०) मगरमच्छ से सम्बंधित। माकरन्द (वि०) [मकरन्द+अण] फूलों के रस से प्राप्त।
मधुमिश्रित।
०पराग समन्वित। माकलिः (०) इन्द्र का सारथि।
०चन्द्रमा। माक्षिक (वि०) मधुमक्खियों से उत्पन्न। माक्षिकं (नपुं०) मधु, शहद। (जयो० २/१३०) माक्षिकं मधु
जायते। माक्षिकजं (नपुं०) मोम। माक्षिकफलं (नपुं०) नारिकेल फल। माक्षिकशर्करा (स्त्री०) कन्दयुक्त शर्करा। मागध (वि.) मगध देश में उत्पन्न। मागधः (पुं०) चारण, बन्दिजन (वीरो० ४/२८) स्तुतिपाठक।
(जयो० १८/११) ०सुर, देव। मागधाः सुरा देवा। (जयो० २६/६३)
मागधवर्गः (पुं०) बन्दिजन। (जयो० २६/२८) मागधः (पुं०) मगध नरेश। मागघसुरः (पुं०) मागधदेव। (वीरो० १५/९) मागधा (स्त्री०) [मागध+टाप्] बड़ी पीपल। मागधिका (स्त्री०) [मागध+ठक्+टाप्] बड़ी पीपल। मागधी (स्त्री०) मागधी प्राकृत, मगध देश में प्रचलित प्राकृत,
जिसमें 'र' को ल और श स ष को श प्रयुक्त किया जाता है-सरोज-शलोज। बड़ी पीपल। सफेद जीरा। परिष्कृत खांड।
छोटी इलायची। मागिरि (स्त्री०) लक्ष्मी, सरस्वती। (जयो०६/१०९) माघः (पुं०) माघकवि जिसने शिशुपालवध की रचना की। __०माघमास। (वीरो० ६/२४) माधी (स्त्री०) माघमास की पूर्णिमा। माध्यं (नपुं०) [माघे जातम्-माघ-यत] कुन्दलता का पुष्प। माङ्क (अक०) कामना करना, चाहना, लालसा करना,
इच्छा करना। माङ्गलिक (वि०) [मङ्गल+ठक्] ०शुभ, सुखद, यथेष्ट।
मंगलसूचक। (जयो०वृ० ३/३६) माङ्गलिककार्यः (पुं०) शुभ कार्य। माङ्गलिकगेहं (नपुं०) शुभग्रह, अच्छाघर। माङ्गलिकप्रसंगः (पुं०) इष्ट प्रसंग। माङ्गलिकसूत्रं (नपुं०) पवित्रसूत्र। (जयो० ३/३६) माङ्गल्य (वि०) [मङ्गल+ष्यञ्] सौभाग्य सूचक, इष्ट
संकेत वाला। माङ्गल्यं (नपुं०) सौभाग्य, मंगल, कल्याण।
आशीष, शुभकामना।
०पर्व, त्योहार, उत्सव, व्रत। माङ्गल्यनंदी (वि०) शुभ संदेश। माङ्गल्यभावः (पुं०) कल्याणकारी भाव। माङ्गल्यमृदङ्गः (पुं०) शुभसूचक ढोल। माचः (पुं०) [मा+अच्क ] मार्ग, सड़क, पथ, रास्ता। माचलः (पुं०) [मा+चल्+अच्] चोर, लुटेरा।
मगरमच्छ। माचिकव्वा (स्त्री०) मारसिंगय्य की भामिनी, महावीर
पथानुगामिनी नारी। माचिकव्वेऽपि जैनाऽभून्मारसिंगय्य
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माचिका
भामिनी । शैवधर्मीः पतिः किन्तु सा तु सत्यानुयायिनी । (वीरो० १५ / ४३ )
माचिका ( स्त्री० ) [मा+अञ्च्+क+कन्+टाप्] मक्खी । माञ्चक : (पुं०) सिंहासन। (जयो० ७ / ४६ ) माञ्चकमूर्धन् (वि०) सिंहासन के ऊपर बैठने वाला, सिंहासन के सिर पर । माञ्चकस्य सिंहासनस्य मूर्धनि समुपरि राजते। (जयो०वृ० ७/४६ )
माञ्जिष्ठ (वि०) [माञ्जिष्ठया रक्तम्+अण्] मजीठ की भांति । माञ्जिष्ठ: (पुं०) मेंहदी । (जयो०वृ० १२ / ६० ) माञ्जिष्ठिक (वि०) मजीठे के रंग में रंगी हुई।
माठरः (पुं० ) [ मठ्+अरन्, ततः अण् ] शोंडिक, कलवार । माड: (पुं०) तोल, माप ।
माढिः (स्त्री० ) [ माह् + क्तिन्] ० किसलय, कोंपल ।
०सम्मान करना।
० उदासी, खिन्नता ।
० निर्धनता ।
० क्रोध, आवेश ।
माणवः (पुं०) पुत्र, सुत, लड़का ।
०बच्चा, बालक ।
० बौना, ढिगना, मुंडा ।
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माणवकः (पुं०) बालक, सुत, बच्चा, छोकरा | ० मूर्ख व्यक्ति ।
माणकनिधिः (स्त्री०) युद्ध सम्बंधी निधि । माणवीन (वि० ) [ माणवस्येदं खञ्] बालकों जैसा, बच्चों से
सदृश ।
माणव्यं (नपुं० ) [ माणवानां समूहः यत्] बच्चों की टोली, बालक समूह |
माणिका ( स्त्री०) [मान्+घञ्, नि णत्वम् +कन् टाप्, इत्वम् ] तोल, एक विशेष बांट ।
माणिक्यं (नपुं० ) [ मणि+कन् + ष्यञ् ] मणि (सम्य० २५ ) ● लालिमा, लाल। कदापि माणिक्यमिवाभिभर्म, सत्संगतं स्वं खलु यानि नर्म । ०अरुण, ०प्रवाल।
माणिक्यकला ( स्त्री०) मणिमय दीपक की कला। (सुद० ७२)
माणिक्यनन्दि (पुं०) प्रमाण- न्यायशास्त्रकार, न्यायशास्त्र प्रणेता (जयो० २२/८३)
माणिक्य- सुकुमण्डलः (पुं०) माणिक्य से जड़े हुए कुण्डल | (सुद० ३/१९ )
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मातृक
माणिक्या (स्त्री० ) [ माणिक्य +टाप्] छिपकली, गृहकोकिला । माणिबन्धं (नपुं०) सेंधा नमक ।
माण्डपिक (वि०) कन्यापक्ष वाले। (जयो० १२/२८) सुरभिसदनादुपेत्य सद्भिर्भुवि नीताश्च जडाशया महद्भिः । आश्विनसमये वयं मरुद्भिरिव नीताश्च कृतार्थतां भवद्भिः ॥ (जयो० १२/१३९)
०बधू पक्ष के लोग कानीनजन। (जयो०वृ० १२/३३) परमोदकगोलकावलिर्बहुशोमाण्डपिकैर्धनैस्तकैः । (जयो०
१२/१३३)
माण्डलिक (पुं०) अल्प समृद्धि धारक राजा । मातङ्गः (पुं० ) [ मतङ्गस्य मुनेरयम्+अग्] व्हस्ति, हाथी । (जयो० २७/७७)
० चाण्डाल, नीच पुरुष । (दयो० ४९) o किरात, भील, बर्बर ।
मातङ्गता (वि०) चाण्डालत्व, नीचता । (जयो०१३/९४) मातङ्गनक्रः (पुं०) हस्ति सदृश मगरमच्छ ।
मातरिपुरुषः (पुं०) माता के सदृश पुरुष ।
० कायर, डरपोक ।
मातरिश्वन् (पुं० ) [ मातरि अन्तरिक्ष श्वयति वर्धते श्विकनिन्
डिच्च] पवन, वायु ।
मातलिः (पुं०) इन्द्र का सारथि ।
माता (स्त्री०) भगवती माता (सुद० ८३) मां, जननी । मातामहः (पुं० ) [मातृ+डामहच्] नाना।
मातामही (स्त्री०) नानी ।
मातिः (स्त्री०) माप ।
० चिंतन, विचार |
० प्रत्यय |
मातुरालयः (पुं०) सौरिसदन । (वीरो० ७/१३) मातुलः (पुं० ) [ मातुभ्राता मातृ+डलुच् ] ०मामा । ० धतूरे का पौधा ।
मातुलपुत्रकः (पुं०) मामा का लड़का । मातुलिङ्गः (पुं०) नीबू का पेड़ । मातुलिङ्गः (नपुं०) चकोतरा । मातुलेयः (पुं०) मामा का पुत्र ।
मातृ (स्त्री०) [मान् पूजायां तृच् न लोपः] जननी, माता, मां। (समु० ३ / १३)
०गौ, लक्ष्मी, सरस्वती । (जयो० ५ / ९८ ) मातृक (वि०) [मातृ + ठञ् ] माता से आया हुआ ।
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मातृका
८३४
मादकः
मातृका (स्त्री०) माता, जननी। (भक्ति० २२)
०माता।
दादी। ०धात्री।
दाई। ०देवमातृका।
० अक्षरांकन। मातृगणः (पुं०) मातृसमूह। मातृगन्धिनी (स्त्री०) विपरीत प्रवृत्ति वाली माता। मातृगामिन् (वि०) माता के साथ गमन करने वाला। मातृगोत्रं (नपुं०) मातृकुल। मातृघातः (पुं०) मातृकुल नाशक। मातृदेव (वि०) मातृतुल्य पूजा। मातृपक्ष (वि०) मातृकुल से सम्बन्धित। मातृपितृ - माता पिता। मातृपूजनं (नपुं०) मातृ का पूजन। माँ के प्रतिश्रद्धा। मातृबन्धु (पुं०) माता के कुटुम्बीजन। मातृमण्डलं (नपुं०) मातृ समूह। मातृसकृत (वि.) जननी के वचन। (जयो० २३/५७) मातृवियोगवाडवः (पुं०) माता के वियोग की वडवानल
मातुर्यो वियोगः स एव वडवो जलाग्नि। (जयो० १३/२१) मातृस्थानं (नपुं०) क्रोड, अंक, गोद। (जयो०वृ० ३/२३) मातृस्वसेयः (पुं०) मौसी का लड़का। मातृस्वेयी (स्त्री०) मौसी की लड़की। मात्र (वि०) इतना, केवल, इतना ही। 'समयोचित मात्र
निष्ठितिर्घटिता' (सुद० ३/११)
०माप, प्रमाण। मात्रचित्तं (नपुं०) एकमात्र चित्त। स्वभावसम्भावनमात्रचित्ताः।
(सुद० ११८) मात्रधारा (स्त्री०) एक मात्र प्रवाह। मात्रधनं (नपुं०) केवल धन। मात्रपदंचारी (वि०) केवल पैदल चलने वाले। मात्रा (स्त्री०) [मात्र+टाप्] मात्रा, माप, नाप, सीमा।
नियम, मानक। ०भाग, अंश, हिस्सा। धन, सम्पत्ति। मात्राएं, अ, इ, उ आ आदि की मात्राए-नागरी के अक्षरों पर लगने वाली मात्राएं। (दयो० ७६)
आभूषण, अलंकार। ०कान की बाली। मात्राछन्दस् (नपुं०) अर्धमात्रा का क्षण।
०मात्रिक छन्द, मात्राओं की गिनती का छन्द। जिस
विनिमय मात्राओं की गिनती के आधार पर होता है। मात्राधिकारिणी (वि०) मात्राओं की अधिकारिणी। (जयो०
११/७८) मात्रारोपः (पुं०) मात्राओं का आरोप। अकारादिस्वरयां संयोगः। मात्रावृत्तं (नपुं०) मात्रिक छन्द। मात्रास्पर्शः (पुं०) भौतिक संपर्क। मात्रिकछन्दस् (नपुं०) मात्राओं की गिनती का छन्द।
जाति छन्द। (जयो० २२/८१) मात्रिका (स्त्री०) [मात्रा+टक्+टाप्] मात्रा, छन्दशास्त्र, हस्वस्वर
उच्चारण का समय। मात्सर (वि०) ईर्ष्यालु, विद्वेषी, डाह करने वाला, जलने वाला। मात्सरिक (वि०) ईर्ष्यालु, निन्दिन। मात्सर्य (नपुं०) ईर्ष्या, डाह, असूया, विद्वेष, दूषण, निन्दा।
(सुद० ११०) ०आहारादि देते हुए भी आदर न रखना।
हीनभाव होना। 'प्रयच्छतोऽपि सत आदरमन्तरेण दानं मात्सर्यम्' (जैन ल० ९०५)
ज्ञान के बन्धक कारण-' यावद्यथावद्देयज्ञानप्रदानं मात्सर्यम्' (त०वा० ६/१०) गृहीतं वस्त्रमित्यादियन्मायाप्रतिरूपकम्।
मात्सर्यादिनिमित्तं च सर्वानर्थस्य साधकम्।। (वीरो० १३/३५) मात्स्यिकः (पुं०) [मत्स्य+ठक्] मछुवा। माथः (पुं०) [मथ्+घञ्] मंथन, विलोडन।
विनाश, घात। ०मरणा
मार्ग, पथ, रास्ता। माथनार्थ (वि०) परिमातुं विनाशार्थ। (जयो० १२/४९) माथुर (वि०) [मथुरा+अण्] मथुरा से आया हुआ। मादः (पुं०) [मद्+घञ्] नशा, मद, बेहोश।
हर्ष, खुशी।
अहंकार, अभिमान, घमण्ड। मादकः (वि०) [मद्+णिच्+ण्वुल्] नशा करने वाला, उन्मत्त
बनाने वाला। उत्तेजक।
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मादकनः
८३५
मानग्रन्थिः
मादकनः (पुं०) जलकुक्कुट। मादन (वि०) नशे में चूर रहने वाला। मादनं (नपुं०) [मद्+णिच्+ल्युट्] ०नशा करना।
आनन्द देना। उल्लास देना।
लौंग। मादनः (पुं०) कामदेव।
०धातरा। मादनीयं (नपुं०) [मद्+णिच्+अनीयर] नशीला पदार्थ। मादृक्ष (वि०) मेरी तरह, मेरे सदृश, मुझसे मिलता जुलता। मादृशः (वि०) मेरी तरह, मेरे सदृश, मुझसे मिलता जुलता।
(वीरो० १०/२) (जयो० १/१०७) (जयो० ५/१०६) मादृशोऽपि (अव्य०) मेरे जैसा भी। (जयो० ११/३८) माधता (वि०) मदमाती, उन्मत्तता। (सुद० ११९) माधव (वि०) शहद से निर्मित, मधु से बना हुआ, बासंती। माधवः (पुं०) माधव, कृष्ण। माधवकः (पुं०) [माधव+वुञ्] मधुनिर्मित पेय। माधविकः (स्त्री०) [माधवी कन्+टाप्] माधवी लता। माधवी (स्त्री०) बासंती लता, मधु निर्मित।,
तुलसी।
०कुट्टिनी दूती। माधवी प्रकृतिपूर्णः (पुं०) वसंतोत्सव। 'माधवी मधुसम्बन्धिनी
वासन्ती या प्रकृतिः शोभा तया पूर्णमिव। (जयो० ४/३७) माधवीय (वि०) माधव सम्बन्धी। माधवीलता (स्त्री०) वासंती लता, वसंतऋतु सम्बंधी लता। माधवीवनं (नपुं०) वसंतऋतु से सम्बंधित उद्यान। माधवी
उपवन। वासंती उपवन। माधुकर (वि०) मधुकर से सम्बन्धित। माधुकरीवृत्तिः (स्त्री०) श्रमण की भिक्षाचर्या, जिसमें साधु
भ्रमर की तरह आहार को ग्रहण करता है। माधुरं (नपुं०) [मधुर+अण्] मल्लिका लता का पुष्प। माधुरी (स्त्री०) [माधुर+ङीप्] मिठास, माधुर्य।
आकर्षण, सौंदर्य। माधुर्यं (नपुं०) [मधुर्+ष्यञ्] मिठास, मीठापन। (दयो० ६१) (वीरो० २/१३)
आकर्षण, सुंदरता, लुभावना।
०रमणीय। माधुर्यभावः (पुं०) रमणीयभाव, उत्कृष्ट भाव।
माधुर्ययुत (वि०) मधुरता युक्त। (जयो०वृ० २१/८०) माधुर्यस्थानं (नपुं०) सरस स्थान। (जयोवृ० ६/४६) माध्य (वि०) [मध्य+अण] केन्द्री, मध्यवर्ती। माध्यम (वि०) [मध्यम्+अण्] मध्यवर्ती अंश, केन्द्रीय, बीचों
बीच का। माध्यमक (वि०) मध्यवर्ती, केन्द्रीय। माध्यस्थं (नपुं०) निष्पक्ष, तटस्थ, माध्यस्थभाव, समभाव।
(समु० १/२५)
उदासीनता, उपेक्षा माध्यस्थ्यं विपदीव सम्पदि वहेत्तुल्यत्वयुक् चेतसा (मुनि० १६) 'गुणी वर्गमुदीक्ष्याऽगान्माध्यस्थ्यम्' च विरोधिषु (सुद० ४/३५) ०पक्षपात न करना।
अरागद्वेषवृत्ति। हर्षोमर्षोज्झिता वृत्तिर्माध्यस्थ्यं निर्गुणात्मनि
(जैन०ल० ९०५) माध्यस्थ्यभावः (पुं०) समभाव, निपक्षभाव, राग-द्वेषादि से
रहित भाव। (मुनि० १६) माध्यस्थ्यभावना (स्त्री०) राग-द्वेष आदि से युक्त पक्षपात के
__ अभाव की भावना। माध्याह्निक (वि०) दोपहर से सम्बंध रखने वाला। माध्व (वि.) [मध्वु+अण] मधुर, मीठा, सरस। माध्वः (पुं०) मध्वाचार्य का अनुयायी। माध्वीकं (नपुं०) [मधुना मधूकपुष्पेण निर्वृत्तं ईकक्] शराब,
महुए से बनाई गई शराब। मान् (सक०) आदर होना, सम्मान देना। मानः (पुं०) [मन्+घञ्] आदर, सम्मान, प्रतिष्ठा। (जयो०
५/३९) (जयो० १/५७) उचित विचार। (जयो० २/७२) गर्व, अहंकार, घमण्ड, अहं, मानकषाय। 'मानं यस्य तेन अवर्ग-वर्ग सहितेनेत्यर्थः (जयो०वृ० ११/७८)
गर्व परिणाम, नम्रता पूर्वक व्यवहार न करना।
०शिष्ट वचन न ग्रहण करना। मानं (नपुं०) माप, मापदण्ड, आयाम। संगणनाप्रस्थादिमानम्
(जैन०ल० ९०५)
प्रमाण, प्रदर्शन के साधन। मानकलहः (पुं०) अहंकार युक्त कलह। मानक्रिया (स्त्री०) अभिमान क्रिया। मानक्षतिः (स्त्री०) अपमान, अप्रतिष्ठा, मानहानि। मानग्रन्थिः (स्त्री०) अपमान, प्रतिष्ठा हानि।
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मानतुंगाचार्यः
८३६
मानित
मानतुंगाचार्यः (पुं०) भक्तामरकाव्य के प्रणेता। (जयो०१९/८९) मानद (वि०) सम्मान करने वाला। मानदण्डः (पुं०) मापदड (सुद० १/३१) परिच्छेदकदण्ड।
(जयो० ६/११३)
गज, पैमाना। मानधन (वि०) सम्मान रूपी धन से युक्त। मानधानिका (स्त्री०) ककड़ी। मानपरिखण्डनं (नपुं०) अहंकार का विनाश। मानभंग (वि०) अभिमान की समाप्ति। माननीय (वि०) सम्मानीय, पूजनीय। (समु० ९/२७) माननीया (स्त्री०) गर्ववती, सम्मानयोग्या, निश्चल भावा।
मानेनाभिनेन नीयां नीयमानां गर्ववती। (जये०वृ० ४/१०३) मानयोग (वि०) मापने योग्य। मानव (वि०) मनु से सम्बंधित, मानव सम्बंधी। मानवः (पुं०) मनुज, मनुष्य। जो हेय-उपादेय को जानते या
मानते हैं वे मानव हैं।
मनुष्यजाति। मानवता (वि०) मनुजता, मनुष्यता, मानवीयता। (सुद० १३१)
समाश्रिता मानवताऽस्तु तेन समाश्रिता मानवताऽस्तु तेन। पूज्येष्वथाऽमानवता जनेन समुत्थसामा नवताऽऽप्यनेन।।
मानवत्, अहंकार युक्त। (समु० ८४) मानवधर्म (पुं०) मनुष्य धर्म। (वीरो० १८/४३) मानवपरम्परा (स्त्री०) मानवमाला, मनुज पद्धति, मनु की
परम्परा। (जयो० ५/३९) मानवभावः (पुं०) मनुजभाव। मानवमहापरिवेशः (पुं०) विशालजन समूह। (जयो०५/५७) मानवमाला (स्त्री०) मानव परम्परा। (जयो० ३/३९) मानवानां
माला परम्परा यस्याः । ०जनसमूह, ०मनुज समुदाय। मानवमैत्री (वि०) मानवीय मित्रता। मनुज मैत्रीभाव। मानवयोगः (पुं०) मनुज समुदाय। मानवसमुदायः (पुं) मनुष्य समूह, जनमंच। (जयो०वृ० ४/२८) मानसंस्तुत (वि०) मनुष्य द्वारा पूजित, मनुज समूह से प्रशंसित।
(जयो०वृ० १९/३८) मानवसृष्टिः (स्त्री०) मनुष्य संरचना, मनुष्य समूह। चित्तभित्तिषु
समर्पित दृष्टौ। तत्र शश्वदपि मानवसृष्टौ। (जयो०५/१९) | मानवाङ्गं (नपुं०) मनुजदेह। (जयो० ४/४) मानवी (स्त्री०) मनुष्यिणी, नारी, स्त्री। मानवीक्षित (वि.) मान से देखी गई। (जयो० २००९)
मानवोचितः (पुं०) मनुष्यों के अनुकूल, मनुष्योचित। (जयो०
२/१०७) मानव्यं (नपुं०) लड़कों का समूह। मानस (वि०) [मन एव, मनस इदं वा अण्] ०मन से
सम्बन्धित, मानसिक। मन से उत्पन्न। उपलक्षित, ध्वनित।
मानसरोवर में रहने वाला। मानसं (नपुं०) चित्त। (जयो० ३/९२) मनवर्गणा से युक्त।
०हृदय। मन मणो चेव माणसो। (सुद० २/१३)
०मान सरोवर। (जयो०१/७४) मानसपक्षी (स्त्री०) हंस। (जयो०७० ३/९३) मानवं चित्तमेव
पक्षी, यद्वा मानसपक्षी-हंस। (जयो०वृ० ३/६९) मानसमयः (पुं०) मान सरोवर। (जयो० ३/७) पद प्रतिष्ठा। मानसराजहंसी (स्त्री०) मान सरोवर की राजहंसी। (सुद०
२/९) मानसरुचिः (स्त्री०) मन की रुचि। (मुनि० २७) मन की
इच्छा, मनोकामना। मानसरोवरः (पुं०) मानसरोवर नामक झील। (जयो०वृ०१/७४) मानसवत् (वि०) मन की तरह। मानसस्थिति (स्त्री०) चित्तैकाग्रता। मानसामृतं (नपुं०) मन का अमृत, मनोल्लास। (जयो०२८/९९) मानसिक (वि०) [मनस्+ठञ्] मन से उत्पन्न, मन संबंधी।
(जयो० १२/९९) मानसिकत्यागः (पुं०) मन सम्बंधी भावों का परित्याग। मानसिक रोगः (पुं०) मन सम्बंधी रोग। मानसिक व्याधिः (स्त्री०) मानसिक पीड़ा। मानस्तम्भः (पुं०) देवस्तम्भ। स्तम्भाः पुनर्मानहरा लसंति-मान
को हारण करने वाला। (वीरो० १३/३) मानहर (वि०) पराजयकारक। (जयो० २८/६८) (वीरो०
१३/३) मानहीन (वि०) अभिमान रहित। विनयेन मानहीनं विनष्टैनः
पुनस्तु नः। मुनयेनमनस्थानं ज्ञानध्यानधनं मनः।।
(वीरो० २२/३९) मानि (अव्य०) भले ही। (जयो०१/७२) मानिका (स्त्री०) एक तौल विशेष। मानित (भू०क०कृ०) सम्मानित, आदरयुक्त, समाहत। (जयो०
७/६३) ०माप युक्त, ०मान सहित। ०प्रतिष्ठित। (सुद० ३/३)
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मानितत्व
८३७
मायाचारः
मानितत्व (वि०) प्रतिष्ठित, सम्मानित। (सुद० ४/३८) मानिन् (वि०) [मान्+णिनि]०समझने वाला, मानने वाला।
०सम्मान करने वाला, आदर करने वाला। ०अभिमानी, अहंकारी, घमण्डी, अभिमानवन्त। (जयो० ५/१८)
आदरणीय, सम्मानीय। ०अवज्ञायुक्त। मानिनि (वि०) सम्मानित (जयो०८/८७) प्रशंसित। मानिनि (स्त्री०) मानिनी स्त्री, कुपित स्त्री।
०दृढ़ संकल्पिनी स्त्री।
माननीया (जयो० १२/५१) मानिनी (स्त्री०) देखो ऊपर। मानिमीजन: (पुं०) सम्माननीय व्यक्ति। (दयो० ६६) मानुष (वि०) [मनोरयं-अण्-सुक् च] मानवी, मानुषी, मनुज
सम्बंधी। मानुषः (पुं०) मनुष्य, मानव। (जयो०वृ० २/३९)
मिथुन, कन्या एवं तुला राशि का योग। मानुष (नपुं०) मनुष्यत्व, मनुजकर्म। मानुषक (वि०) मनुष्य सम्बंधी। (जयो० १०/७३) सुमनस्तु ___ मनोहरंस्तरामिह मानुष्यकमेव देवराट्। मानुषङ्गिक (वि०) मनुष्य सम्बंधी। (जयो०० २४/१४४) मानुषोत्तरः (पुं०) मानुषोत्तर पर्वत। पुष्कर द्वीप के मध्यभाग
में स्थित। (वीरो० १३/८)
स्वर्ण सदृश पर्वत। (जयो० २४/१५) मानुष्यं (नपुं०) मनुज प्रकृति, मानवजाति। मानोज्ञक (वि०) [मनोज्ञ+वुज] सौंदर्य, प्रियता, मनोहरता,
रमणीयता। मानोन्नतः (पुं०) मान से युक्त, सम्मान से उन्नत, ऊंचाई में
ऊंचे। (वीरो०८/४) 'मानोन्नतागृहा यत्र मत्तवारणराजिता:'
(वीरो०८/४) मान्त्रिकः (पुं०) ऐंद्रजालिक, जादूगर, मन्त्रवेता। माथयं (नपुं०) मन्थरता। मन्दगति।
०दुर्बलता। मान्द्य (वि०) मन्दता, सुस्ती।
जड़ता, दुर्बलता।
विराग, ०अनासक्ति। मान्य (वि०) माननीय। (जयो० १४/२७)
आदरणीय, पूजनीय। (वीरो० १/२)
०मानने योग्य, समझने योग्य। (वीरो० ५/३२) मान्यं कुतोऽर्हद्वचनं समस्तु सत्यं यतस्तत्र समस्तु वस्तु।। (वीरो० २/३२) ०सम्मत। (जयो०वृ० २/११)
प्राप्त करने योग्य। (सुद० ७९)
०समझने योग्य। (सुद० १/२६) 'पुरं बृहत्सौधसमूहमान्यम्। मापनं (नपुं०) [मा+णिच् ल्युट् पुकागमः] मापना, नापना।
०रूप बनाना। मापनः (पुं०) तराजू, तुला। मापत्यः (पुं०) [मा विद्यते अपत्यं यस्य] कामदेव। माम (वि०) [मम इदम्] मेरा। मामक (वि०) [अस्मद् अण् ममादेशः] मेरे पक्ष से संबंधित।
स्वार्थी, लालची, लोभी। मामकीन (वि०) [अस्मद्+खच्] मेरा। (दयो० १५) मायः (पुं०) [माया अस्ति अस्य-माया+अच्] ०ऐन्द्रजाल,
जादूगर, बाजीगर।
राक्षस, भूत, पिशाच। माया (स्त्री०) [मीयते अनया-मा+य+टाप्] विकृति, वंचना,
परवञ्चना। ०छल-कपट, धूर्त, जालसाजी। (जयो० ७/४) बभूव मायेव विधेः सुमन्त्रिम्। (वीरो० ३/२५) दांव, युक्ति, चाल, कुटिलभाव। जादूगरी, अभिचार, जादू-टोना, इन्द्रजाल। विक्रिया। (जयो० ३/६८) अपकर्षण विद्या, अपकर्षणकत्री। (जयो०वृ० ५/५) सूक्ष्मदेहप्रपञ्च। (जयो० ४/६४) ०लक्ष्मी। (जयो० ४/२०, सुद० ७५) यत्र वञ्चना भवेद्रमायाः किङ्करिणी सा जगतो माया। (सुद०
०हृदग्रन्थिा (जयो० १६/६९)
माया कषाय। चारित्रमोहोदयात् कुटिलभावः। मायाक्रिया (स्त्री०) कुटिलता का परिणाम, निकृतिर्वञ्चनम्। मायाकारः (पुं०) जादूगर, बाजीगर। मायाकृत् (पुं०) ऐन्द्रजाल, जादूगर। मायागत (वि०) माया को प्राप्त हुआ। ०छल-कपट युक्त। मायाचारः (पुं०) छल-कपट पूर्ण आचरण। (जयो० ७/५०)
कपटभाव, द्वयर्थभाव (सुद० ३/३८) ०दोषों को प्रकट नहीं करना, आलोचना का दोष है।
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मायापिण्डः
८३८
मार्गः
मायापिण्डः (पुं०) वंचनापूर्वक आहार ग्रहण। मायाप्रतिरूपः (पुं०) मायामयी। (वीरो० ७/१३) (सुद०१३/३५) मायामयी (वि०) माया युक्त। (वीरो० ७/१३) मायामूर्ति (स्त्री०) कुटिलता की प्रतिमूर्ति। (सुद० १०२) मायाविन् (पुं०) मायावी, धूर्त। (जयो० ३/४) अहो मायाविनां
मा या मायातु सुखतः स्फुटम्। (जयो० ७/४) ०ऐन्द्रमालिक, जादूगर।
०छल कपटी। (मुनि० १८) मायाविन् (वि०) [माया अस्त्यर्थे विक्ति] छल कपट करने
वाला, धोखा देने वाला। मायि (वि०) ०मायावी, छल-कपटी। ०बनावटी। मायिक (वि०) [माया ठन्] मायावी, छल-कपटी, भ्रान्तिमान,
अवास्तविक। मायिकः (पुं०) जादूगर, ऐन्द्रजालिक। मायिकं (नपुं०) माजूफल। मायुः (पुं०) [मि+उण्] सूर्य।
पित्त।
पैत्तिकरस। मायूर (वि०) मोर से सम्बन्धित, मोर से उत्पन्न होने वाला।
मोर के पंखों से निर्मित। मायूरं (नपुं०) मयूर समूह। मारः (पुं०) [मृ+घञ्] वध, हत्या घात, विनाश।
बाधा, विघ्न, विरोध। मारो विघ्ने मृत्यौ स्मरे वृषे इति वि (जयो० १७/५८) ०कामदेव, मदन। (जयो०८/४२)
पुरुषोत्तम। (सुद० ७९), कामातुर। (जयो०वृ० ११/५२) ०अनिष्ट। ०प्रेम।
०धतूरा। मारकः (पुं०) महामारी रोग, संक्रामक रोग।
०कामदेव, मार।
विनाशकर्ता, घातक। मारकत (वि०) पन्ने से सम्बन्धित। मारकयः (पुं०) यमराज, मरण। (जयो० ७/५३) मारणं (नपुं०) [मृणिच्+ल्युट्] संहार, वध, हत्या, घात, विनाश क्षति। (जयो० ७/५८)
शत्रु विनाश। (समु० ८/२८) ० फूंकना, भस्म करना।
मारणकर्म (पुं०) व्यभिचार, अत्याचार। (जयो० १/४०) मारणार्थ (वि०) विनाशार्थ, क्षयार्थ। (सुद० १०८) मारधारा (स्त्री०) शस्त्रास्त्र भाग। मारस्य कामदेवस्य धारा।
(जयो० २६/७२) मारय् (सक०) मारना (दयो०८) मारयितुम् (समु० ४/३३) मारवाड: (पुं०) मारवाड़ देश, राजस्थान का प्रसिद्ध मरुभाग।
(जयो० २८/११) मारवारः (पुं०) मारवाड़, मरुधरा। मारसिंगय्यः (पुं०) शैवधर्मानुयायी व्यक्ति। मचिकव्वेऽपि
जैनाऽभून्मारसिंगय्यभामिनी शैवधर्मी पतिः किन्तु सा तु
सत्यानुयायिनी।। (वीरो० १५/४५) मारिः (स्त्री०) [मृ+णिच् इन] घातक रोग, महामारी। मारिच (वि०) मिर्च से निर्मित। मारिष (वि०) नाटक का श्रद्धेय पात्र। मारी (स्त्री०) [मारि+ङीष] प्लेग, हैजा। (जयो० १९/७६)
०संक्रामक रोग, घातक रोग।
महामारी। मारीचः (पुं०) ०मरीच राक्षस। ०एक राक्षस विशेष। मरीचं (नपुं०) मिर्च पादप। मारुण्डः (पुं०) सर्प का अण्डा।
गोबर।
०पथ, मार्ग। मारुत (वि०) वायु से उत्पन्न होने वाला। मारुतः (पुं०) हवा, पवन।
०प्राण।
०श्वांस। मारुतं (नपुं०) स्वाति नक्षत्र। मारुतपुत्रः (पुं०) हनुमन्। मारुतसूनुः (पुं०) हनुमान, ०पवनपुत्र। मारुतिः (पुं०) [मरुतोऽपत्यम-इन्] ०हनुमान। ०भीम। मार्कडः (पुं०) एक ब्राह्मण ऋषि। मार्कण्डेयपुराणं (नपुं०) अष्टादश पुराणों में प्रसिद्ध एक
पुराण। (दयो० ३१) मार्ग (सक०) खोजना, ढूंढना, तलाश करना, अन्वेषण करना।
प्राप्त करने का प्रयत्न करना। मार्गः (पुं०) [मार्ग+घञ्] पथ, रास्ता, सड़क।
०पद्धति। (जयो०वृ० १३/७५) वर्त्म। (जयो०वृ० २/८)
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मार्गणः
८३९
मार्तण्डतेजः
क्रम। (सम्य०८२)
मार्गसंभूतखेदः (पुं०) परिश्रम, थकान। परम्परा।
मार्गिक (वि०) यात्री। राही, पथिक। 'सर्वेषामुपकाराय मार्गः साधारणे ह्यम्' (सुद० ४/४५) । मार्गित (भू०क०कृ०) [मार्ग+क्त] ०खोजा हुआ, अन्वेषित। शुद्ध, साफ-'मृजेः शुद्धिकर्मणो मार्ग इवार्थाभ्यन्तरी
पूछा गया। करणात्' (त०वा० १/१)
मार्गोपमार्गः (पुं०) वीथि, छोटा रास्ता। ०कल्याणमार्ग, मोक्षमार्ग, रत्नत्रयमार्ग।
मार्गोपदेशिका (स्त्री०) मार्गदर्शिका। ०पथ सूचिका। मार्गणः (पुं०) बाण, सर। (जयो०वृ० १/९८)
०पद्धति प्रदत्ता। भिक्षुक।
मार्गोपयोगिद्रव्यं (नपुं०) नास्ता, कलेवा। पथ की सहभागी मार्गणं (नपुं०) [मार्ग ल्युट्] याचना करना, निवेदन करना, | वस्तु। खोजना, तलाश करना।
मार्जु (सक०) प्रमार्जन करना, निर्मल करना। ०गवेषणा करना, अन्वेषण करना।
०पोंछना, स्वच्छ करना। मार्जयेत् मार्गणशालिन् (वि०) बाण से सुशोभित। (जयो०व०१/९८) | मार्जः (पुं०) [मृज्+घञ्] स्वच्छ करना, साफ करना।
०मार्गणाओं से युक्त। (जयो०वृ० १/९८) मार्गणो बाणस्ताभ्यां ०धोना। शालिना, मार्गणास्थानानि च तैः कृत्वा शालिना शोभनेन ०प्रक्षालन, पखारना। (जयो०वृ० १/९८)
०धोबी। मार्गणा (स्त्री०) [मार्ग+ण+टाप] ००अंवेषण, प्रार्थना, | मार्जक (वि०) स्वच्छ करने वाला, साफ करने वाला, धोने गवेषण।
वाला। ०सम्पादन, अनुनय, विनय। अवगतार्थाभिलाषे, तत्प्रार्थना मार्जनं (कि) स्वच्छ करने वाला, धोने वाला। मार्गणा' (जैन०ल० ९११) 'मार्गणा गवेषणमन्वेषणमित्यर्थः' मार्जन (नपुं०) [मा+ल्युट] प्रक्षालन, पखारना, साफ करना, (जैन०ल० ९११)
धोना। ०बाण, सर। (वीरो० ३/८)
उपटन लगाना, पोंछना। मार्गणास्थानं (नपुं०) चौदह मार्गणाओं का स्थान। (जयो०१/९८) ०प्रमार्जन करना। मार्गणौघः (पुं०) बाण पुञ्ज। (वीरो० ३/८) मार्गणानां मङ्कतानां मार्जारः (पुं०) बिलावा बिडाली। बिल्ली। ___बाणानां चौघः समूहो बाणपुञ्जः' (वीरो० ३/८) मार्जारकण्ठः (पुं०) मयूर, मोर। मार्गतोरणं (नपुं०) पथ तोरण, मार्ग सूचक द्वार।
मार्जारकरणं (नपुं०) रतिबन्ध। मार्गदर्शकः (पुं०) पथप्रदर्शक।
मार्जारकः (पुं०) बिलाव, मयूर। मार्गदूषणं (नपुं०) पथ कंटक।
मार्जारी (स्त्री०) बिल्ली। मार्गधेनुः (स्त्री०) चार कोस की दूरी।।
०कस्तूरी। मार्गप्रदायकः (पुं०) पथ प्रदर्शक। (हित० २१)
मार्जारीयः (पुं०) बिलाव। मार्गरक्षकः (पुं०) सड़क का रखवाला।
०मयूर। मार्गरतिः (स्त्री०) मार्ग पद्धति। (सुद० १२१)
मार्जित (भू०क०कृ०) स्वच्छ किया हुआ, प्रमार्जित, मृष्ठ। मार्गरुचिः (स्त्री०) सम्यक् मार्ग पर श्रद्धा।
(जयो० १०/२८) मार्गभावना (स्त्री०) जीवन निर्वाह की इच्छा। (जयो० २/९७) ०अलंकृत किया हुआ, सजाया हुआ। मार्गलः (पुं०) मार्ग, पथ, रास्ता। (जयो० ३/१०९) मार्तण्डः (पुं०) सूर्य, दिनकर। (दयो०५३) मार्गलक्षणः (पुं०) वर्त्मस्वरूप। ०पथ प्रतिपादन।
०मदार पादप। मार्गशिरः (पुं०) ०पथ विभाजन, ०मग सिरमास।
०सूअर। मार्गशीर्षः (पुं०) मगसिरमास। (वीरो० १०/२६)
०बारह की संख्या। मार्गशोधक (वि०) पथप्रदर्शक, प्रशस्तमार्ग दर्शक।
मार्तण्डतेजः (पुं०) सूर्यतेज, रवि प्रकाश। (वीरो० १२/१०)
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मार्तिक
८४०
मालिन्
मार्तिक (वि०) मिट्टी से निर्मित। मार्तिकः (पुं०) मर्तवान, घड़ा। मार्तिकं (नपुं०) मिट्टी का लौंदा। मार्त्य (वि०) मरणशीलता। मार्दङ्गः (पुं०) नगर, कस्बा। मार्दङ्गिकः (पुं०) ढोलकिया, मृदंग वादक। मार्दवं (नपुं०) मृदुता, ०मानोदयनिरोध। मृदो वं मार्दवम्
नम्रतापूर्ण सुकोमलभाव। (सुद० १३६) मृदु प्रवृत्ति, नम्रभाव। माननिग्रह। कोमल (जयो० ११/९२) मृदिम। (जयो० ११/९६)
०कोमलता, कृपाभाव, उदारता। मार्दवायेत (वि०) कोमलतायुक्त। (जयो० २८/३५) माद्वीर्क (नपुं०) शराब, अंगूर रस। मार्मिक (वि०) अंत:करण को छु जाने वाली, गहरी, गम्भीर,
रहस्यपूर्ण। मार्षः (पुं०) नाटक का पात्र। माष्टिः (स्त्री०) मांजना, स्वच्छ करना, प्रमार्जन करना, साफ
करना।
निर्मल करना। मालः (पुं०) पहाड़ी जाति। मालं (नपुं०) भूमि, मैदान।
धोखा, छल-कपट। मालकः (पुं०) नीम का पेड़।
नारिकेल का पात्र, कमण्डलु। मालकं (नपुं०) माला। मालचक्रकं (नपुं०) कूल्हे का जोड़। मालतिः (स्त्री०) चमेली, मालती पुष्प।
कन्या, तरुणी। ०रात्रि।
चांदनी। मालतिक्षारकः (पुं०) सुहागा। मालतिपत्रिका (स्त्री०) जायफल का छिल्का। मालतिफलं (नपुं०) जायफल। मालतिमाला (स्त्री०) चमेली के फूलों की माला। मालती (स्त्री०) मालती पुष्प, चमेली का फूल। (जयो०
३/२५, वीरो० १३/४)
शाकविशेष। ०अग्निशिखाशाक। मरिचलवणशाक। (जयो० १२/१३०)
मालय (वि०) मलय पर्वत आने वाला। मालयः (पुं०) मलय चंदन। मालला (स्त्री०) कदम्बराज कीर्तिदेव की रानी। (वीरो०१५/४२) मालवः (पुं०) मालन देश, मध्यभारत का एक हिस्सा,
मध्यप्रदेश का स्थान। रतलाम, इन्दौर, उज्जैन, देवासदि
का स्थान। मालवपतिः (पुं०) मालव नरेश। (जयो० ६/९२) मालवरिष्ठ (वि०) मालवा के लोगों में श्रेष्ठ। मालेषु जनेषु
वरिष्ठः श्रेष्ठः। (जयो० ६/९२) मालवा (स्त्री०) राग विशेष। माला (स्त्री०) ऋग्, गजरा, माला, हार, सज। (जयो० ३/६९,
(सुद० २/९) रेखा, पंक्ति, श्रेणी। लड़ी, कण्ठहार। लकीर, लहर, रेखा। जंजीर।
झुरमुट, समूह, समुच्चय। मालाकरः (पुं०) माली। मालाकारः (पुं०) ०माली, पुष्पमालक। मालाक्षेपणं (नपुं०) माला पहनाना। नि:संकोचतया
मालाक्षेपणपाणिग्रहणादि भूत्वा। (जयो०वृ० ११/५१) मालाक्षेपात्मक (वि०) स्वयंवर सभा में माला डालने का
कार्य। (जयो० १७/१२) मालातृणं (नपुं०) एक प्रकार का सुगन्धित घास। मालादीपकं (नपुं०) दीपक अलंकार का एक भेद।
'मालादीपकमाद्यं चेद्यथोत्तर गुणावहम्' (काव्यप्रकाश १०) मालावती (स्त्री०) दामिनी। (जयो०वृ० १७/१०७) मालिः (पुं०) मालाकार। (जयो० ४/४२) मालिकः (पुं०) मालाकार, माली।
०वनपाल। (जयो० १/७८)
रंगरेज, रंग करने वाला। मालिका (स्त्री०) माला। (सम्य० ५३)
रेखा, पंक्ति, लड़ी। कण्ठहार। चमेली पुष्प। बेटी। ०अलसी। ०महल।
मादप पेय। मालिन् (वि०) मालाधारक, हारों से सुशोभित।
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मालिन्
मालिन् (नपुं०) फूलमाली।
मालिनी (स्त्री०) माली की पत्नी ।
० एक छन्द नाम।
मालिन्य (वि०) मलिनता (जयो० २३/४१)
० श्यामतत्व, हीनत्व। (वीरो० २/४० )
० अपवित्रता, दूषण, प्रदूषण ०कालिमा, कालिखा
०पापपूर्ण भाव, कष्ट दुःख। मालुः (स्त्री०) एक लता, नागलता। मालुधानः (पुं०) एक सर्प विशेष ।
मालुदल (नपुं०) नागवल्ली, ताम्बू (जयो० १० / ६३ ) मृदुमालुदल भ्रमान्मुखे दधति केलिकुशेशयं (जयो० १०/६३)
तु खे ।
मालूर: (पुं०) बेलवृक्ष ।
० कपित्थ तरु |
मालेया (स्त्री०) बड़ी इलायची ।
मालोपमा ( स्त्री०) उपमा का एक भेद
वाणीव याऽऽसीत्परमार्थदात्री कलेव चानन्दविधा विधात्री । वितर्कणावत्परमोहपात्री मालेव सत्कौतुकपूर्णगात्री ।।
(वीरो० ३/१८)
माल्य (वि०) माला से सम्बंधित ।
माल्यं (नपुं०) माला, हार। (जयो० १४/८२) (वीरो० ४/४५) गजरा, कण्ठहार, गले का हार ।
० पुष्प, फूल।
माल्यजीषकः (पुं०) मालाकार, माली, फूलमाली । माल्यपुष्प: (पुं०) पटसन।
माल्यवत् (वि०) माला से सुशोभित। माल्लवी (स्त्री०) कुश्ती।
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माष: (पुं०) उड़द
०सौल, सोने के सौने का माशा (जयो० २/३२)
माषकः देखो ऊपर।
माषिक (वि०) एक माशे का
मासः (पुं०) महिना, माह। (जयो० ५/८३)
मासं (नपुं०) दो पक्ष दो पक्षों मासो
०तीस दिणा मासो- तीस दिन का माह। त्रिंशद् दिनानि अहोरात्रा एकोमासः ।
मासक: (पुं०) मास, महीना।
मासकालिक (वि०) मासिक समय
८४१
मासजात (वि०) एक माह का होने वाला। मासज्ञः (पुं०) जलकुक्कट ।
मासरः (पुं०) मांड। मासप्रवेशः (पुं०) महिने का आरम्भ
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मासिक (वि०) महिने से सम्बंधित
मासिकं (नपुं०) माह ।
मासिक वृत्तपारणा (स्त्री०) महिने की पारणा (समु० ४ / ३४) मासीन (वि०) मासिक ।
मासुरी (स्त्री०) दाढ़ी |
मासोपवासः (पुं०) मास पर्यंत उपवास । ( भक्ति० १० ) माहाकुल (वि०) उत्तम कुल बाला ।
माहाजनिक (वि०) महाजनोचित, बड़े आदमी के योग्य । माहात्मिक (वि०) उत्तम, महानुभाव यशस्वी ।
माहात्म्यं (नपुं०) उदारता, महानुभावता, ऐश्वर्य, महिमा। ० विशिष्ट गुण (दयो० ३०)
माहाराजिक (वि०) राजकीय, राज्योचित ।
माहुरः (पुं०) महावर (जयो०वृ० १४/५८) ० रक्तावर । ०लालिमा ।
माहेन्द्रः (पुं०) महेन्द्र देव ।
माहेन्दी (स्त्री०) ०गाय, ०इन्द्राणी
मिताक्षर
|
माहेश्वर: (पुं०) महेश्वर का पूजक, शिवभक्त । मि (सक०) फेंकना, डालना (सुद० ९६ )
० निर्माण करना, खड़ा करना।
० मापना।
० स्थापित करना।
मिच्छ् (अक०) बाधा डालना, विघ्न उपस्थित करना । मित (भू०क०कु०) सीमित, परिमित मर्यादित । ०गत गया हुआ (जयो० ३ / १०३) ०मापा हुआ, नपा तुला।
० स्वल्प, थोड़ा।
० परीक्षित, जांचा गया। मितड्रम (वि०) धीरे धीरे चलने वाला मितङ्गम: (पुं०) हस्ति, हाथी । मितभाषिन् (वि०) कम बोने वाला। मितव्ययी (वि०) हितैषी ।
मिताक्षर (वि०) स्वल्पाक्ष
० प्रमाण साक्ष्य | ●माप तोल ।
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मित्रः
८४२
मिथ्यादृष्टिः
मित्रः (पुं०) आदित्य, सूर्य। (जयो०वृ० १/१०१)
मिथुनवतिन् (वि०) समागम वाला। सम्भोग करने वाला। मित्रं (नपुं०) साक्षी, संबंधी, दोस्त, हाहभागी (सुद० ४/९) मिथुनेचरः (पुं०) चक्रवाक्, चकवा।
'लोके लोके स्वार्थभावेन मित्रम्' (सुद० ११०) शत्रुश्च मिथ्या (अव्य०) गलत, विपरीत। कपोल। मित्रं च कोऽपि लोके' हृष्यज्जनोऽज्ञो निपतेच्च शोके। निष्प्रयोजन, व्यर्थ, निष्फलता के साथ। (सुद० ११०)
वितथ, अनृत, असत्य। 'मित्रं सख्यौ रवौ पुमान्' इति वि० (जयो० २३/३)
असदचरण, अव्यावहारिक। अलौकिक। मित्रकर्मन् (नपुं०) सखाकर्म।
०अलीक, झूठा, अन्यथा। मित्रकार्य (नपुं०) दोस्त की क्रिया।
उलटी मान्यता। (सम्य०५७) मित्रकृत्यं (नपुं०) मित्र की सेना।
मिथ्याकल्पित (वि०) कपोल कल्पिता (जयो० २/२६) मित्रगणः (पुं०) मित्र समूह।
मिथ्याकर्मन् (नपुं०) झूठा कार्य। मित्रघ्न (वि०) विश्वासघाती।
मिथ्याकोपः (पुं०) झूठमूठ का कोप। ०दोष। मित्रजित् (वि०) सूर्यजयी। (जयो० २३/३)
मिथ्याग्रहः (पुं०) गलत ग्रहण। मित्रता (वि०) सहभागिता।
मिथ्याचर्या (स्त्री०) पाखण्ड, असदाचरण वृत्ति। मित्रद्रोहः (पुं०) मित्र से घृणा।
मिथ्याचारः (पुं०) असत्य आचरण, विशिष्ट भाव, शून्य मित्रद्रोहिन् (वि०) मित्र से विश्वासघात करने वाला।
आचरण। मित्रभावः (पुं०) दोस्ती, मित्रता।
मिथ्याचारित्रं (नपुं०) अशुभ प्रवृत्ति, कषायजन्य चारित्र। मित्रभेदः (पुं०) मैत्रीभंग।
मिथ्याज्ञानं (नपुं०) अज्ञान, संशय युक्त ज्ञान, अविरुद्धज्ञान। मित्रयु (वि०) हितैषी।
अन्यथाधीस्तु लोकेऽस्मिन् मिथ्याज्ञानं हि कथ्यते। मित्रवत्सल (वि०) कृपालु, शिष्टाचारयुक्त।
(जैन० ९/६) मित्रवरः (पुं०) सखिराज। (जयो वृ० ४/३६) ०उत्तम मित्र। | मिथ्यात्वं (नपुं०) अश्रद्धान, बिगड़ी हुई अवस्था, बिगड़ी हुई मिथ् (अक०) मैथुन करना, मिलाना, चोट पहुंचाना, प्रहार करना। हालत। (सम्य० १२५) तेषां च मिथ्यात्वमिवव्यवस्था। ०समझना, जानना।
आत्मा का उलटापना (सम्य० १५४) आत्मीयं मिथस् (अव्य०) परस्पर, आपस में। (जयो०२/१९) (सम्य० सुखमन्यजातमिति या वृत्ति, परत्रात्मनस्तन्मिथ्यात्वमकप्रदं
निगदितं मुन्चेददागी जनः।। (सम्य० १५४) गुप्त रूप से, एक दूसरे से। (जयो० ५) युद्धे पुन, अशुभोपयोग दुरभिप्राय का नाम है जो कि मोह यानि पाण्डव कौरवाभ्यां, मिथः कृतेऽप्यन्तरमेव ताभ्याम्। मिथ्यात्व है। (सुद० २/२६)
रागादि विकार भाव। (सम्य० ११५) मिथस् (वि०) युगल, जोड़ा।
शुद्ध जीवादिपदार्थविषये विपरीत श्रद्धानं मिथ्यात्वम् मिथिलः (पुं०) एक राजा विशेष।
(सम०प्रा०जस०टी० ९५) मिथिला (स्त्री०) मिथिला नगरी। (वीरो० १४/९)
मिथ्यात्वक्रिया (स्त्री०) अन्य के प्रति श्रद्धान। मिथुनं (नपुं०) युगल, जोड़ा, दम्पत्ति। (जयो० १२/७४) मिथ्यात्वयोगः (पुं०) अश्रद्धान का योग। (सम्य० ३/२४) ०मैथुन, संभोग, सहवास!
मिथ्यात्व सेवा (स्त्री०) निष्प्रयोजन सेवा, व्यर्थ की सेवा। मिथुनराशि।
मिथ्यादवकर (वि०) मुधादरी (जयो० २०/३८) ०समागम, संगम।
मिथ्यादशा (स्त्री०) अश्रद्धान अवस्था। (सम्य० ३७) मिथुनगत (वि०) समागम को प्राप्त हुआ।
मिथ्यादर्शनं (नपुं०) तत्त्वों के विपरीत श्रद्धा। (सम्य० ५७) मिथुनजात (वि०) युगत उत्पत्ति वाला।
मिथ्यादृशि (स्त्री०) विपरीत दृष्टि। विपरीत दर्शन। मिथुनभावः (पुं०) संभोग भाव। ०समागम, संगम।
मिथ्यादृष्टिः (स्त्री०) विपर्यय दृष्टि, अलीक दृष्टि, विपरीत मिथुनराशिः (स्त्री०) चक्रवाक, चकवा।
दृष्टि, दोसहित दृष्टि, विपरीत समझ। (सम्य०६८)
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मिथ्यानेकान्तः
८४३
मिहिरः
-
दोष
३/२०)
तत्त्वार्थश्रद्धान से विपरीत दृष्टि।
मिश्रगुणस्थानं (नपुं०) सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति युक्त गुणस्थान। आप्तागमविषयश्रद्धारहित दृष्टि।
मिश्रचारित्रं (नपुं०) क्षायोपशमिक चारित्र। मिथ्यानेकान्तः (पुं०) तत्-अतत् स्वभाव से रहित वचन।। मिश्रजात (वि०) मिश्रित रूप से उत्पन्न किया गया, उद्गम मिथ्यार्थ (वि०) अश्रद्धानार्थ, तत्त्वार्थ से विपरीत भाव वाले। मिथ्यावचनं (नपुं०) असत्यार्थ कथन।
मिश्रणं (नपुं०) मिलाना, घोलना। मिथ्यावदः (पुं०) झूठ प्रयोग।
मिश्रभावः (पुं०) साङ्कर्य भाव। (जयो० ३/८०) उपशम और मिथ्याशल्यः (पुं०) सम्यक्त्व से भिन्न रुचि से विपरीत शल्य। क्षय का भाव। उभयात्मको मिश्रः क्षीणाक्षीणमदशक्तिकोद्रवत मिथ्याश्रुतं (नपुं०) अज्ञानता सूचक श्रुत।
(त०वा० २/१) मिथ्योपदेशः (पुं०) प्रमाद युक्त उपदेश।
मिश्रवचनं (नपुं०) बाधित-अबाधित वचन, सत्य-मृषा वचन। मिद् (अक०) चिकना, स्निग्ध होना।
मिश्रित (भू०क०कृ०) मिला हुआ, संयुक्त। (मुनि० ११) पिघलना।
०बढ़ाया हुआ। oमोटा होना।
मिश्री (स्त्री०) शर्करा, मिश्री ति लोक भाषायाम्। (जयो०३० स्नेह करना। मिद्धं (नपुं०) तन्द्रा, आलस्य, सुस्ती।
मिष् (अक०) आंख खोलना, झपकना। उदासीनता।
०देखना। ०जड़ना।
फुल्लित होना, उदय होना। ०मन्दता।
मिषः (पुं०) प्रतिस्पर्धा, प्रतिद्वंद्विता। मिन्द् (अक०) चिकना, स्निग्ध होना।
मिषं (नपुं०) बहाना, धोखा, छद्मवेष, ब्याज (जयो० १४/४७) मिन्व् (अक०) पूजा करना, सम्मान करना।
छल। (जयो० ३/१००) मिल् (अक०) मिलना, सम्मिलित होना।
०झूठ, असत्य, अलीक, मिथ्या। साथ होना।
मिष्ट (वि०) मधुर, स्वादिष्ट। (वीरो० ४/६२) इकट्ठे होना।
मिश्री (सुद० १११) द्राक्षा, गुड, खाण्ड। द्राक्षा गुङच ०सटना।
खाण्डमथो सिताऽपि माधुर्यमायाति तदेकलापी। ०मुकाबला करना।
(वीरो०१९/९) सघन होना।
०स्वादिष्ट, स्वाद युक्त। घटित होना।
मिष्टता (वि०) मीठापन। मिलनं (नपुं०) मिलना, सम्पर्क, मुकाबला करना, भेंट। । मिष्टं (नपुं०) मिष्ठान्न, मिठाई। मिलित (भू०क०कृ०) एकत्र हुआ, भेंट किया गया, आपस में | मिष्टभाषणं (नपुं०) मधुर वचन, मृदुकथन, माधुर्यपूर्णभाषण। मिला हुआ।
(जयो० २/९२) मिश्रित, सम्मिलित।
मिष्ठान्नं (नपुं०) मिठाई। (जयो०वृ० १२/१२४) ०सन्धियुक्त, जोड़ा गया।
मिहू (सक०) गीला करना, तर करना, छिड़कना। मिलिन्दः (पुं०) भ्रमर, भौंरा। (समु० १/४) षट्पद। (जयो० ___०वीर्यपात करना।
१८/२९) अलि। ०बौद्धधर्म का अनुयायी राजा। मिहिका (स्त्री०) पाला, हिम। मिलिन्दकः (पुं०) एक सर्प विशेष।
मिहिरः (पुं०) सूर्य। मि (सक०) मिलाना, जोड़ना, घोलना, बढ़ाना।
०बादल। मिश्र (वि०) मिला हुआ, घोला हुआ, संयुक्त, मिश्रित, युक्त। ०चन्द्र। मिश्रकः (पुं०) संवाहक।
०पवन। मिश्रकाल: (पुं०) डांस-मच्छर युक्त काल।
०वृद्ध व्यक्ति।
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८४४
मुक्त
मी (सक०) विनाश करना, मार डालना।
* अतिक्रमण करना, उल्लंघन करना। ०बदलना, परिवर्तित करना।
घटना, कम करना। मीढ (भू०क०कृ०) मूत्रोत्सृष्टि, पेशाब किया गया। मीनः (पुं०) मछली, झष। (जयो० २१/६१) (वीरो० ४/४९)
मीन राशि। मीनकेतनः (पुं०) कामदेव। मीनगन्धा (स्त्री०) सरस्वती। मीन गन्धिका (स्त्री०) जोहड़, पल्वल। मीनरङ्कः (पुं०) रामचिरैया, एक शिकारी पक्षी। मीनरः (पुं०) समुद्री दानव। मीम (सक०) जाना, पहुंचना।
०शब्द करना। मीमांसकः (पुं०) मीमांसकदर्शन पक्षवाला। एक विचारक
कुमारिल भट्ट। (वीरो० १०/७७)
अनुसन्धानकर्ता। ०परीक्षक। (१०/७७) मीमांसकमतः (पुं०) मीमांसक नामक विचारक। मीमांसा (स्त्री०) गहन चिंतन, गम्भीर विचार, परीक्षण, अनुसंध
न। उत्तरमीमांसा और ब्रह्ममीमांसा। मीरः (पुं०) समुद्र।
०सीमा, हद। (सम्य० ४६) मीरोऽब्धि-शैल-नीरेषु इति विश्व (वीरो० १/५) समुल्वणे यस्य यशः शरीरे
निमञ्जनत्रासवशेन मीरे। (जयो० १/३३) मील (सक०) ०मूंदना, ०ढंकना, ०बंद करना, उन्मीलित होना।
मुाना, अन्तर्धान होना। मीलनं (नपुं०) झपकना, बंद होना, झपकी आना, अलसित
होना। मीलनकेलि (स्त्री०) दृङ्मीलन क्रीड़ा। आंख बंद होने की
क्रीड़ा। मीलनकेलौ लोचनोत्पले संदधार परिणामकोमले।
(जयो० २२/६९) मीलित (भू०क०कृ०) झपकी हुई, बन्द हुई, अलसाई हुई। __०अधखुली, ओझल हुई। मीव् (अक०) जाना, पहुंचना, मोटा होना। मीवरः (पुं०) सेनानायक, सेनापति, सेनाध्यक्ष। मीवा (स्त्री०) [मी+वन्] केंचुआ, अंत्रकीट।
०वायु।
मुः (पुं०) बन्धन। ०जकड़ना, संयुक्त।
मोक्ष। ०मुक्त। मुकन्दकः (पुं०) प्याज। मुकारः (पुं०) मुकाररहितेनामुना मुखेन। (जयो० ११/७०) मुकुः (स्त्री०) [मुच्+कु] मुक्ति, मोक्ष। छूटना। मुकुटं (नपुं०) [मुक्+उटन्] मुकुट, मोर, ताज, किरीट
(सुद० १/११) शिखा। ०शिखर, कूट। चोरी।
पर्वत श्रृंखला। मुकुटमणि (स्त्री०) सिरमोर, शिखर। किरीट मणि। मुकुटस्थानं (नपुं०) अवतंसपद। (जयो०वृ० १/९७) मुकुन्दः (पुं०) [मुकुम्+दाति दा+क] ०कृष्ण, विष्णु।
०पारा।
मूल्यवान पत्थर। मुकुन्दगुणः (पुं०) श्रीकृष्ण सदृशगुण। (जयो० १८/१२) मुकुरः (पुं०) [मुक्+उरच्] ०दर्पण, शीशा। (जयो० २/१५४)
(वीरो० १५/९५) ०कली। कुम्हार के चाक का डंडा। (जयो० ३/७५)
मौलसिरि तरु। मुकुलः (पुं०) [मुंच+उलक्] कुडमल (जयो० १७/१३)
०कली।
शरीर।
०आत्मा। मुकुलं (नपुं०) कली। मुकुलपाणिपुटः (पुं०) कोरकहस्तपुट। (वीरो० ६/३४) मुकुलित (वि०) [मुकुल+इतच्] कली युक्त अर्ध प्रफुल्लित,
(जयो० १/१००) कुड्मलित (जयो० १२/०१) आधा
खिला हुआ। (दयो० ७५) मुकुलोपमा (स्त्री०) कली की उपमा। मुंच कुंचु लातीति। मुकुष्ठः (पुं०) [मुकु+स्था क] लोबिया, मोठ। मुक्त (भू०क०कृ०) मुक्ति, मोक्ष। तद्दर्शन ज्ञान-चारित्रभेद,
प्रणीयते पूर्णतया मयेदं। मुक्तेः स्वरूपं परथा तदध्वायतोऽभ्य धीता खलु तीर्थकृद् वाक्। (सम्य० ५) दूर, छूटा हुआ-'राग-द्वेष-विभाव-मुक्त'1 (सम्य० ४१) छोड़ना, त्याग करना। (सुद०२/२०) मोक्ष (जयो०२/२२)
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मुक्तगत
८४५
मुक्तिः
संसारातीत। (जयो०वृ० ११/८८) ०कृत्स्न, विनिवृत्त। (जयो०वृ० १/२२)
०ग्रन्थ परिमुक्त। - मुक्तगत (वि०) मुक्ति को प्राप्त। ०छूटा हुआ। मुक्तजन्मन् (वि०) जन्म रहित। मुक्तजरा (वि०) बुढ़ापा रहित। मुक्तजाति (वि०) उत्पत्ति रहित। मुक्तचारित्र (वि०) चारित्र विहीन। मुक्ततप (वि०) तप रहित। मुक्तदान (वि०) दान रहित। मुक्तदोष (वि०) दोष परिहीन। मुक्तधन (वि०) निर्धन, दरिद्र। मुक्तधर्म (वि०) धर्म से विमुख। मुक्तधाम (वि०) स्थान से परे। मुक्तधैर्य (वि०) धीरता से विमुक्त। मुक्तविधि (वि०) सम्पत्ति विहीन। मुक्तपाप (वि०) पाप परित्यक्त। मुक्तफल (वि०) फल विहीन। मुक्तभाव (वि०) भाव रहित। मुक्तमोह (वि०) हतमोह। ०क्षीणमोह, मोहरहित। मुक्तरत्नत्रय (वि०) रत्नत्रय से पृथक् हुआ। मुक्तरोग (वि०) निरोग हुआ, स्वस्था मुक्तवसन (वि०) वस्त्र विहीन। मुक्तशील (वि०) सिद्धान्त रहित। मुक्तसम्यक्त्व (वि०) सम्यक्त्व रहित। मुक्ता (वि०) [मुक्त+टाप्] मोती। ०वेश्या प्राणिका। गजमुक्ता (जयो० ६/५९) माला (सुद० २/२०) किलांशिकवाश्विति तेन मुक्ता
महाशयेनापि सुवृत्तमुक्ता। (सुद० २/२०) मुक्ताकलशः (पुं०) मुक्ता रूप कलश। (जयो० ३/७९) मुक्ताकलापः (पुं०) मोतियों का हार। मुक्तागार (वि०) आगार रहित, घर से विहीन, बेघर।
निर्ग्रन्थ। मुक्तागारः (पुं०) मुक्ता समूह। मोतियों की माला। मुक्तागुणः (पुं०) मोतियों का हार। मुक्ताजालं (नपुं०) मोतियों की लड़ी। मुक्तात्मकता (वि०) मुक्तपने को प्राप्त आत्मा वाला। (सुद०
१२२)
मुक्तात्म-भावः (पुं०) परमात्म भाव। (सुद० २/४२) मुक्तादामन् (नपुं०) मोतियों का हार। मुक्तादिवर्णवशः (पुं०) मोतियों के वर्ण के वशीभूत। (६/१०८) मुक्तापुष्पः (पुं०) चमेली। मुक्ताफलं (नपुं०) मोती, मौक्तिक। (जयो०वृ० ३/७५)
(सुद० २/१६) सञ्जातानि मनोहराणि शतशो मुक्ताफलानि स्वयम्। (जयो० ३/९३)
मोतियों का फूल। ०सीताफल।
कुम्हड़ा। ०कपूर। मुक्ताफलत्व (वि०) मौक्तिकपना। सुवृत्तभावेन समुल्लसन्तः
मुक्ताफलत्वं प्रतिपादयन्तः। मुक्तापरित्यक्तो, निष्फलता, (जयो० ६/८८) (वीरो० १/१४) मुक्तं च तदफलत्वं च
तन्मुक्ता फलत्वं सफलत्वम्। (वीरो०वृ० १/१४) मुक्ताफलता देखो ऊपर। मुक्ताबीजः (पुं०) मोती रूप बीज। (जयो० ६/८०) मुक्तामणिः (स्त्री०) मोती। मुक्तामय (वि०) मौक्तिक प्रचुरता। (जयो० ६/५८) मुक्तामाला (स्त्री०) मौक्तिक स्रक्। (जयो० १७/५०) मुक्तालता (स्त्री०) मोतियों की माला। मुक्तालयः (पुं०) सिद्धालय। (जयो० २२/६३) मुक्तानां
निर्वृतानामालयं (जयोवृ० २२/६३) मुक्तास्थान (मुक्तानां
हारगतानां मौक्तिकानामालयो बभूव' (जयो०वृ० २२/६३) मुक्तावलिः (स्त्री०) मोतियों का हार, मौक्तिक स्रक्। (जयो०
१७/४९) मुक्ताम्रक्त् (स्त्री०) मोतियों की माला। मुक्ताशुक्तिः (स्त्री०) मुक्ता वाली सीप। मुक्तास्थानं (नपुं०) मोतियों का घोंघा। मुक्ताहारः (पुं०) उपवास, आहार नहीं करना। 'मुक्तः
आहारोऽशनं येन तस्य भवः' (जयो० २८/८) मोतियों का हार-मुक्तानां मौक्तिकानां हारो यस्य तस्य
भावः' (जयो० २८४८) मुक्तिः (स्त्री०) ०पारमार्थिक सुख। (जयो० २६/१०६) ०जन्म-मरण का अभाव। (सम्य० १/३)
अतीन्द्रियसूक्ति। (जयो० ४/३४) ० युक्तिमेति पुरुषो यदि मुक्तिमञ्चितुं। (जयो० ४/३४) ०दुर्भाव जीतने का प्रयत्न।
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मुक्तिकारणं
८४६
मुखविलण्ठिका
वस्तुतस्तु मद-मात्सर्याद्याः शत्रवोऽङ्गिन इति प्रतिपाद्याः। तज्जमाय मतिमान् धृतयुक्तिरिस्तु सैव सम्प्रति मुक्तिः।। (सुद० ११०) मोक्ष-निर्वाण। (जयो० २/३८) शिव, कल्याण। (जयो०वृ० १/३३) ० छुटकारा, उन्मुक्तता, विमोचन, मुंचन, छूटना, मोचन। ०खोलना, छोड़ना, स्वतंत्र करना। तृष्णा विच्छेद, लोभाभाव।
विषय संयम। मुक्तिकारणं (नपुं०) छूटने का कारण। मुक्तिगत (वि०) मोक्ष को प्राप्त हुआ। मुक्तिदायिनी (वि०) मोक्षप्रदा। जगतः संसारान् मुक्तिं ददातीति
मुक्तिदायिनी मोक्षप्रदाऽस्ति। (जयो० २/३८) मुक्तिधाम (नपुं०) मोक्षस्थान। मुक्तिनगरी (स्त्री०) मोक्षपुरी। (वीरो० २१/२) मुक्तिपात्रः (पुं०) मुक्ति का अधिकारी। मुक्तिफलं (नपुं०) मोक्षफल। मुक्तिभावः (पुं०) मोक्ष भाव। मुक्तिमार्गः (पुं०) मोक्षपथ। मुक्तियोगः (पुं०) मुक्ति का संयोग। मुक्तिलक्ष्मी (स्त्री०) शिवश्री। (जयो०७ १/१३) मोक्षलक्ष्मी
निर्वृत्ति। (सुद० ११३) मुक्ति हेतु (वि०) मुक्ति का कारण। (वीरो० ११/६) मुक्तोपमा (स्त्री०) मुक्ता सदृश। (सुद० ७१) मुक्त्वा (अव्य०) [मुच्+क्त्वा] परित्याग करके, छोड़कर। मुखं (नपुं०) [खन्+अच् डित् धातोः पूर्व मुच् च] मुंह,
लपन, वदन। (जयो०वृ० १३/५, सुद० २।८) आनन (सुद० १०२) 'स्त्रिया मुखं पद्मरुखं ब्रुवाणा' (सुद० १०२) ०चेहरा, मुखमण्डल।
अग्रभाग, पुरोभाग, आगे का हिस्सा। ०प्रधान, अग्रणी। ०प्रमुख, मुख्य। 'श्राद्धतर्पणमुखा समुद्धता'। (जयो० २/८८) धर्म-कर्मणि मुखं गृहीशितुः (जयो० २/९१)
प्रारम्भ। देवपूजनमनर्थसूदनं प्रायशो मुखमिवाप्यते दिनम्।
(जयो० २/२३) मुखकमलं (नपुं०) कमल सदृश मुख। मुखकान्ति (स्त्री०) मुख प्रभा, मुंह की आभा। मुखखुरः (पुं०) दांत।
मुखगंधः (पुं०) मुख की दुर्गन्ध। मुखगन्धकः (पुं०) प्याज। मुखचन्द्रः (पुं०) चन्द्र के समान मुख। मुखचपल (वि०) बाचाल, बातूनी। मुखपेटिका (स्त्री०) मुख पर चपत। मुखचीरिः (स्त्री०) जिह्व, जीभ। मुखजः (पुं०) ब्राह्मण। विप्र। मुखता (वि०) मुख रूपता। (जयो० १/५४) मुखदूषणं (नपुं०) प्याज। मुखदूषिका (स्त्री०) मुहासा।
मुखनिरीक्षकः (पुं०) आलसी, सुस्त, उदासीन, खिन्न व्यक्ति। | मुखनिवासिनी (सत्री०) सरस्वती।
मुखपटः (पुं०) चूंघट, पर्दा। मुखपिण्डः (पुं०) ग्रास, कौर। मुखपूरणं (नपुं०) मुख भरना। मुखप्रसादः (पुं०) प्रसन्नवदन, प्रसन्नमुद्रा। मुखप्रियः (पुं०) संतरा। मुखबंधः (पुं०) भूमिका, प्रस्तावना। मुखबंधनं (नपुं०) भूमिका। मुखभासा (स्त्री०) मुख कान्ति। मुखभूषणं (नपुं०) पान खाना। ताम्बूल, इलायची, सौंफ, ___ लवंग आदि का पान। ०मुखवास। मुखभेदः (पुं०) विकृत बदन। मुखमधु (वि०) मिष्ट भाषी। मुखमार्जनं (नपुं०) मुंह धोना। मुखमण्डलं (नपुं०) बदन। (दयो०५९) आननदेश। (जयो०५/८) मुखमण्डनं (नपुं०) मुंह की शोभा। (जयो० २२/५४) मुखमुद्रणं (नपुं०) मौन। (जयो० १/१११) मुखर (वि०) बाचाल, बातूनी। मुखरिका (स्त्री०) मुखरी, बल्गा। मुखरितं (वि०) [मुखर+इतच्] कोलाहलपूर्ण। मुखरोगहृत् (वि०) मुख रोग को नष्ट करने वाली।
णमो घोरतवाणं (जयो० १९/७४) मुखवन्त्रणं (नपुं०) वल्गा, लगाम की रस्सी। मुखवल्लभः (पुं०) अनार का पेड़। मुखवाद्यं (नपुं०) फूंक मारकर बाजा बजाना। मुखवासः (पुं०) मुंख की गन्ध, मुखभूषण। मुखविलण्ठिका (स्त्री०) बकरी।
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मुखव्यादानं
८४७
मुखव्यादानं (नपुं०) मुंह फाड़ना, मुंह खोलना। मुखशफ (वि०) गाली देने वाला। मुखशुद्धि (स्त्री०) मुंह धोना। मुखश्री (स्त्री०) मुख का सौंदर्य, आननकान्ति। (जयो०
६/१२९) 'मुखश्रियः स्तेयिनमैन्दवन्तु' (वीरो० ४/२२) मुखसुखं (नपुं०) उच्चारण की सुविधा, ध्वन्यात्कसुख। मुखसुरम् (नपुं०) होंठों की तरावट। मुखाग्निः (स्त्री०) दावानल, यज्ञीय अग्नि। मुखानिलः (पुं०) मुख पर अग्नि देना, शव पर अग्नि लगाना। मुखाब्ज (नपुं०) कमल रूपी मुख, कमल के समान मुख।
(सुद० २/२८, जयो० १०/७०) मुखाम्बुजं (नपुं०) देखो ऊपर। मुख-कमल। मुखाम्भोजवती (स्त्री०) मुख कमलवती, कमल के मुख
वाली स्त्री। (सुद० २/७) मुखाम्भोरुहः (पुं०) नम्रमुखी, कमलमुखी। (जयो० १६/४३)
मुख की मौनता। (जयो० ५/१०१) मुखारविंदं (नपुं०) वक्त्रपद्म। (जयो० २३/५)
कमल रूपी मुख, कमल सदृश मुख। मुखासवः (पुं०) अधरामृत। मुखाम्राव: (पुं०) धुंक, लार। मुखेन्दु (स्त्री०) चन्द्र मुख। मुखोल्का (स्त्री०) दावानल। मुख्य (वि०) [मुखे आदौ भवः-यत्] ०मुख से सम्बंधित।
मुख्य, प्रधान, प्रमुख, प्रथम ०आदि। उत्तम, अच्छा।
(सम्य० ८४) मुख्यः (पुं०) नेता, पथप्रदर्शक। मुख्यं (नपुं०) धार्मिक कार्य। मुख्यचान्द्रः (पुं०) चान्द्रमास की प्रधानता। मुख्यनृपः (पुं०) सर्वप्रमुख राजा। मुख्यमन्त्रिन् (पुं०) राज्य का प्रमुख मन्त्री। मुग्ध (वि०) मूर्छित, मोहित हुआ। संलीन (जयो० २३/ सुद० ८५)
* प्रीतियुक्त, आसक्तिजनका ०सुंदर, प्रिय, मनोहर, कान्त।
०सरल, भोला-भाला। मुग्धगत (वि०) मूर्छित हुआ। मुग्धजात (वि०) प्रीति को उत्पन्न हुआ। मुग्धता (वि०) मूढता, मूर्खता।
प्रीतिभाव युक्त। (जयोवृ० १५/९५)
मुग्धभावः (पुं०) मूर्छा भाव, सादगी। मुग्धबुद्धिः (स्त्री०) जड़ बुद्धि, मूढमति। मुग्धा (स्त्री०) विदुषी। (जयो० २४)
अति सुंदरी स्त्री। (जयो० ११/८३) नायिका विशेष।
प्रिया। दुग्धीकृतेऽस्य मुग्धे यशसा। मुग्धिका (स्त्री०) बालवयस्का (जयो०१२/१९) (जयो० ६/३७)
मुग्धीयते-मोहित हो रहा है। (जयो० ११/९८) मुग्धोत्तमा (स्त्री०) विदुषी, मूर्खशिरोमणिरूपा। (जयो० ११/८३) मुच् (सक०) धोखा देना, ठगना, वंचना। मुञ्च (सक०) त्यागना, छोड़ना, मुश्चेत् (सम्य०१५४, सुद०८०)
अलग रखना, पृथक् करना। ० फेंकना, डालना, उड़ेलना। टपकाना, गिराना। निकालना, बाहर करना। प्रदान करना, अनुदान देना। उच्चारण करना, बोलना, कहना। उत्सर्ग करना। उन्मुक्त करना, डाल देना।
० उद्धार करना, सुलझाना। मुचकः (पुं०) लाख। मुचुकुन्दः (पुं०) एक वृक्ष विशेष।
०एक राजा का नाम। मुचिरः (पुं०) [मुञ्च्+किरच्] ०देव।
०गुण।
०वायु। मुचिलिन्दः (पुं०) तिलपुष्प। मुचुटी (स्त्री०) अंगुलियां चांटना। मुञ्चित (वि०) परित्यक्त, छोड़ा गया। (जयो० १४/९४) मुज्झ (सक०) छोड़ना, त्यागना। (जयो० १२/२२) मुञ्ज (सक०) साफ करना, स्वच्छ करना, निर्मल करना। मुञ्जः (पुं०) [मुञ्+अच्] ०मुञ्ज नामक घास।
मुंज सजा। मुञ्जकेशः (पुं०) शिव।
विष्णु। मुञ्जरं (नपुं०) [मुञ्+अरन्] कमल की जड़। मुद् (सक०) कुचलना, तोड़ना, पीसना, चूरा करना।
०कलंकित करना, निन्दा करना।
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मुण
८४८
मुद्रणं
मुण (अक०) प्रतिज्ञा करना। मुष्ट (सक०) कुचलना, पीसना। मुण्ड् (सक०) मूड़ना, क्षौरकर्म करना।
०कुचलना, पीसना। मुण्ड् (अक०) डूबना। मुण्ड (वि०) [मुण्ड्+अच्] ०मुड़ा हुआ, छांटा हुआ।
कुण्ठित, अधम, नीच। मुण्डः (पुं०) सिरमुड़ा। (मुनि० ३९)
नाई। ०मस्तका
०पेड़ का तना। मुण्डं (नपुं०) लोहा। मुण्डकः (पुं०) नाई ०क्षौरकर्मी। मुण्डफल: (पुं०) नारियल। मुण्डनं (नपुं०) सिर मुण्डा। (मुनि० ३३) मुण्डलोहा (नपुं०) लोहा। मुण्डशालि (स्त्री०) एक प्रकार का धान। मुण्डित (भू०क०कृ०) [मुण्ड्+क्त] मुंडा हुआ, क्षुरित, छाटा
गया। मुण्डितं (नपुं०) लोहा। मुण्डिन् (पुं०) [मुण्ड+इनि] नाई। मुत्करः (वि०) प्रसन्नतादायक। (जयो० ११/४३) मुत्तलः (पुं०) मिट्टी। (सुद० ९२) मुद् (सक०) घोलना, मिलाना।
स्वच्छ करना, साफ करना।
निर्मल करना, धोना। मुद् (अक०) प्रसन्न होना, खुश होना, हर्षित होना। (मुमुदे
(सुद० २/५०) प्रमोद होना (सुद० २/१८) कृपाङ्कराः
सन्तु सतां यथैव खलस्य लेशोऽपि मुदे सदैव। (सुद०१/९) मुद (स्त्री०) हर्ष, खुशी, प्रसन्न। (जयो० ) तस्मिन्निवासी
समभून्मुदा स श्रीश्रेष्ठिवर्यो वृषभस्य दासः। (सुद० २/१)
प्रीति। (जयो० ३/२१) मुदङ्करः (पुं०) हर्ष सञ्जात। (जयो० २१/४) मुदञ्चभावः (पुं०) हर्ष भाव। (जयो० १७/४६) मुदञ्चनं (नपुं०) हर्ष भाव। (जयो० १२/५७) मुदन्वयी (वि०) प्रसन्नता युक्त। (जयो० २६/४२) मुदबन्धु (वि०) मुदो हर्षस्य अबन्धुः प्रमाद रहित मलिनमेव
जायत। (जयो० ६/९५) अबन्धु रहित, मलिन।
मुदपः (पुं०) हर्ष। (सुद० २/२८) ०आनंद, प्रसन्नता। मुदश्रु (वि०) प्रसन्नता के आंसुओं सहित। हर्षायू (जयो०
६/१३०) मुदस्थल (वि०) योग्य स्थान सहित। (वीरो० १४/१५) मुदा (स्त्री०) ०हर्ष, खुश, आनंद, प्रीति प्रसन्न (सु०१/७) मुदादरपदं (नपुं०) हर्ष सम्मान स्थान। (जयो० ५/६७) मुदालम्बित (वि०) हर्षावलम्बित। (जयो० ११४८१) मुदित (भू०क०कृ). [मुद् भावे क्विप् मुक्त क्त] हर्षित
(जयो० ४/२९) प्रसन्न, आनंदित, खुश। (जयो० ३/९३) मुदिता (वि०) प्रसन्न रूपा। (जयो० ५/५९) मुदिन्दरा (स्त्री०) पुण्य रूप लक्ष्मी, हर्ष लक्ष्मी। (सुद०
१/१२) मुदिन्दिरामङ्गल दीपकल्प: समस्ति मस्तिष्कवतां
सुजल्पः । (सुद० १/१२) मुदिरः (पुं०) [मुद्+किरच्] 'मुदं हर्षमीरयति प्रेरयतीति मुदिरो
मेघ इव' (जयो० ३/९२) मेघ, बादल। प्रेम, हर्ष, बादल। (जयो० १२/४९) प्रेमी, कामासक्त।
मेंढक। मुदी (स्त्री०) [मुह+क-डीष्] ज्योत्स्ना, चांदनी। मुदीक्ष्य् (अक०) प्राप्त होना। मुदीक्ष्यते (सुद० २/१२९) मुदीरित (वि०) प्रेमानन्द जनित, पूजन करता हुआ। (सुद०
३/३४) मुदा प्रमोदेनेरिते प्रेर्यमाणो सति (जयो० १२/६६) मुदुपायन (वि०) डाला गया। मुदेवोपायनं मुत्पूर्वकं वोपायनम्' ___ (जयो० १२/६९) मुद्गः (पुं०) मूंग, लोबिया। (वीरो० १७/३३)
०ढकना, आवरण। मुदगरः (पुं०) [मुदं गिरति-गृ+अच्] ०हथौड़ा, घन (जयो०वृ०
७/८०)
मौगरी, गदा, एक अस्त्र विशेष। मुद्गलः (पुं०) [मुदग+ला+क] एक प्रकार की घांस। मुद्गभुज् (पुं०) घोड़ा। मुद्दष्टः (पुं०) मूंग। मुवती (वि०) प्रमोदिनी। (सुद० ८७) ०हर्षा। मुद्वापी (वि०) हर्षित, खुश, प्रसन्न। (सुद० १०९) मुद्रणं (नपुं०) [मुद्+रा+ल्युट] मुहर लगाना, मुद्रांकित करना।
(सुद० १२४) ० छापना, चिह्नित करना, बन्द करना।
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मुद्रणा
८४९
मुमुक्षा
मुनिधर्म (पुं०) साधुधर्म, महाव्रतादि पालन का धर्म। मुनिधामः (पुं०) साधुओं का एकान्त स्थान। उपाश्रय, उपासना
स्थला मुनिनन्दः (पुं०) मुनियों का आनंद। ०श्रमण स्वभाव। मुनिनाथः (पुं०) आचार्य, मुनि समूह का प्रमुख। (जयो०
१/८२) व्यतीश्वर, मुनीश्वर। मुनिनायकः (पुं०) आचार्य व्यतिपति (जयो० १/९४)
(जयो वृ० ३/४५) गणि, व्यतीश्वर। मुदिपदं (नपुं०) साधुपद। ०श्रमणाचरण। मुनिपादः (पुं०) साधु के चरण। मुनिपुंगवः (पुं०) प्रमुख मुनि, श्रेष्ठ मुनि, महाव्रत की
अनुपालना में कुशल। मुनिबांधव (वि०) महाव्रत रूप मित्र, समता। मुनिभाव (पुं०) साधु भाव। मुनिमनोरञ्जनाशीति (स्त्री०) आचार्य ज्ञानसागर की रचना,
जिसमें ८० श्लोकों में मुनियों के गुणों का गुणगान किया
गया है।
मुद्रणा (स्त्री०) मुद्रितावस्था, मूर्छा। (जयो०वृ० १८/१९) मुद्रय (अक०) अंकित करना, चिह्नित करना, मुहर लगाना-मुद्र
यति (जयो०वृ० ६/५५) ढकना, मूंदना। मुद्रा (स्त्री०) [मुद्+र+टाप्] छवि, प्रसन्नचित्त भाव (सुद०
२/३३) सुमानसस्याथ विशांवरस्य मुद्रा विभिन्नाऽस्य सरोरुहस्य। (सुद० ३३)
आकृति। (सुद० ३/४०) मुहर, छाप, चिह्न। ०पदक, प्रतिभा चिह्न।
मुद्रा, सिक्का। ०प्रवेश पत्रा
बन्द करना, मूंदना। मुद्रागत (वि०) प्रवेश को प्राप्त हुआ। मुद्राधारक (वि०) प्रसन्नता धारण करने वाला। (जयो०
१२/५४) मुद्रिका (स्त्री०) [मुद्रा+कन्+टाप्] अंगूठी। (समु० ३/४३) मुद्रित (वि०) [मुद्रा+इतच्] चिह्नित, अंकित, मुद्रित हुआ। मुद्रितनेत्रं (नपुं०) निमीलिताक्ष। (जयो०वृ० १३/१०८) मुद्रितपत्रं (नपुं०) छाप युक्त पत्र। मुद्रितपदकं (नपुं०) प्रतिभा पदक। रजत-स्वर्ण आदि पदक। मुद्रितभावः (पुं०) छिपे हुए भाव। मुधा (अव्य०) व्यर्थ, निष्प्रयोजन। (जयो० ८४८७) विरुद्ध।
(जयो० ७/१०)
गलतरीति से, मिथ्यारूप से। मुधादरी (स्त्री०) मिथ्यादर, उन्मार्ग चारित। (जयो० २०/२८) मुनिः (पुं०) [मन्+इन्-उच्चै मनुते जानाति य] ०ऋषि,
सन्त, श्रमण, साधु। (सुद० २/४१) यति। भूयान्मौनिमनौ भवोक्ति विभवादस्मान्मुनि स्यात्तदात्मानं सम्प्रति साध येत्स्वयमितः समर्थः सदा। दुर्भावं प्रयतेत रोद्भुमितियो रौद्र तथात यति: नाम्येनैव नशेमुवीश पुनरप्येषाऽस्ति मे सम्मतिः। (मुनि० ३२) योगी, वर्णी, तपस्वी, नि:स्पृही। (सम्य०१४२, मुनि०३३) निर्गन्था (सम्य० १४२) (सुद० ४/१६)
०मन्यतेमनुते वा मुनिः । (जैन०ल० ९२७) मुनिचर्या (स्त्री०) भ्रामरीवृत्ति। (जयो० २३/४६) मुनिजनः (पुं०) साधु समूह। (जयो०वृ० १/२२) मुनित्व (वि०) साधुत्व, साधुपना। (सुद० ३/२५) मुनिदर्शनं (नपुं०) साधुश्रद्धा, श्रमण दर्शन, यति का देखना। |
मुनिमनोरञ्चनं तावदिदमञ्जनम्। मोहिजन चक्षुषोर्दु:खभरमञ्जनम्।। श्री जिनेन्द्रोरूपाश्रयतु सखञ्जनम्।
भावनाधीनभक्त्या प्रतीतं जनम्॥ (मुनि वृ० ३४) मुनिराट् (पुं०) मुनिराज। (सुद० १००) (भक्ति० २१)
सिंहचन्द्रमुनिराट् चरमेसग्रीवकेष्वजनि नाम सुरेश। (समु०४/१६)
०योगिभूप। (भक्ति० २९) ०आचार्य। मुनिराज देखो ऊपर। मुनिवरः (पुं०) मुनिपुंगव, श्रेष्ठ मुनि। (सुद० ४/२) पुनिश्चर्या (स्त्री०) साधुचर्या, श्रमणचर्या। (दयो० ११४) मुनिसुव्रतः (स्त्री०) मुनिसुव्रतनाथ तीर्थंकर। (भक्ति० १९)
जैनधर्म के बीसवें तीर्थंकर। मुनीन्द्रः (पुं०) आचार्य, मुनिर, मुनिराज। (सुद० २/२५) मुनीशः (पुं०) मुनिवर, आचार्य, यतिवर। (सुद० २/३३)
मुनीश! सच्चारुचकोरचन्द्रमस्तमोऽन्तरुच्छेत्तु मुताद्भर्यामन्। भवाम्वुद्यौ पोत इवोत्तम! प्रभो! निवेदनं मे नतिपूर्वकं च
भो। (समु० ४/२०) मुमुक्षवर्गः (पुं०) परमार्थ इच्छुक। (भक्ति० ११) मुक्ति के
चाहने वाला। मुमुक्षा (स्त्री०) [मोक्तुमिच्छा मुच्+सन्+अ+टाप] मोक्ष की
अभिलाषा।
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मुमुक्षु
८५०
मुष्टिन्धयः
मुमुक्षु (वि०) [मुच्+सन्+उ] मोक्ष पाने का इच्छुक,
०अध्यात्म मार्ग का अभिलाषी, परमार्थ पथ का इच्छुक।
मोक्षाभिलाषी। (भक्ति० ५) (जयो० १०/११८) मुमुक्षुः (पुं०) यति, ऋषि, मुनि, तपस्वी। मुमुखासवः (पुं०) अस्पष्टवाणी। (जयो० १५/५०) मुमुचानः (पुं०) मेघ, बादल। मुमूर्षा (स्त्री०) मरने की इच्छा। मुमूर्षु (वि०) मरणाधीन, अन्तसमय युक्त। मुर् (सक०) घेरना, अन्तर्वृत करना, परिवृत्त करना, बजाना,
मुररीचकार। (जयो० १२/७६) मुरः (पुं०) एक राक्षस। (वीरो० १७/४२) मुरं (नपुं०) घेरा, परिधि। मुरजित् (पुं०) कृष्ण। मुरभिद् (पुं०) कृष्ण। मुरभेदक कृष्ण। मुरमर्दनः (पुं०) कृष्ण। मुरजः (पुं०) [मुरात् वेष्टनात् जायते जन+ड] मृदंग।
(जयो० १२/७८) मुरजबन्धः (पुं०) किसी भी श्लोक को मुरज के रूप में
प्रस्तुत करना। मुरजफलः (पुं०) कटहल का फल। मुरजा (स्त्री०) एक बड़ा ढोल। मुरन्दला (स्त्री०) नर्मदा नदी। मुरला (स्त्री०) नदी विशेष। मुरली (स्त्री०) [मुर+ला+क+ङीष्] बांसुरी, वेणु, वंशी। (सुद०
१/३४) मुरलीधरः (पुं०) कृष्ण। मुरारिः (पुं०) कृष्ण, नारायण। (जयो० १४/६६) अहो जरासन्ध
करोत्तरैः शरैर्मुरारिरासीत्स्वयमक्षतो वरैः। (वीरो० १७/४२) मुरीकृत् (पुं०) मुरमुरी नामक राक्षस। अमुरो मुरः सम्पद्यमानः
कृत् इति मुरीकृते मुराख्यराक्षससदृशीकृत। (जयो० ९/८०) मूर्छ (अक०) मूर्छित होना, बेहोश होना। हसति रौति च
मूच्छति वेपते। (जयो० २५/७१) उन्मत्त होना, अचेत होना। (मुमूर्च्छ-जयो० २३/१०) उगना, बढ़ना।
०सघन होना, छा जाना। मूर्छा (स्त्री०) मुद्रितदशा, मुद्रणावस्था, मिरगी रोग। (जयो०
१८/१९) मुर्मुरः (पुं०) तुषाग्नि, क्षारयुक्त अग्नि, सूर्याश्व। (जयो०
२१/१०) मुर्मुर सूर्यतुरगे तुष बह्रौ इति वि।
मूर्व (सक०) बांधना, कसना। मुशली (स्त्री०) मूसली। (जयो० ५/७८) मुशलः (पुं०) मूसल (जयो० २/११५, दयो८३) दण्ड, धनुष,
गुण नालिका, अक्षा मुष (सक०) चुराना, लूटना, डाका डालना, अपहरण करना।
०ग्रहण करना, छिपाना। (वीरो० १८/२५) ०बचाना। (जयो० मुष्णति)
लुभाना, प्रभावित करना। ०चोट पहुंचाना।
०तोड़ना, भंजित करना। (जयो० १/९) मुषक: (पुं०) चूहा। मुषित (भू०क०कृ०) [मुष्+क्त] छिपाया। (वीरो० १८/२६)
लूटा गया, चुराया गया। ०अपहरण किया गया, ठगा गया। मुषितकं (नपुं०) [मुषित कन्] चुराई हुई सम्पत्ति। मुष्कः (पुं०) [मुष्+कक्] अण्डकोष, पोता।
राशि, ढेर, समुच्चय, समुदाय, समूह, संघ।
०परिमाण। मुष्कदेशः (पुं०) अण्डकोष का स्थान। मुष्कशून्यः (पुं०) हिजड़ा। मुष्कशोधः (पुं०) अण्डकोष की सूजन। मुष्ट (भू०क०कृ०) [मुष्+क्त] चुराया हुआ। मुष्टं (नपुं०) चुराई हुई सम्पत्ति। मुष्टिः (नपुं०) मुट्ठी, भींचा हुआ हाथ। (जयो० १६/४६) मुष्टिघातः (पुं०) मुक्के से प्रहार, मुक्कों की मार। (दयो०१८) मुष्टिदेशः (पुं०) धनुष के बीच का भाग। मुष्टिद्यूतं (नपुं०) जुआं, द्यूत क्रीड़ा। मुष्टिपातः (पुं०) मुक्केबाजी। मुष्टिप्रहारः (पुं०) देखो ऊपर। ०मुष्टि युद्ध। मुष्टिबन्धः (पुं०) मुट्ठी बांधना। मुष्टियुद्धं (नपुं०) मुक्केबाजी, चूंसेबाजी। मुष्टि संवाह्य (वि०) मुट्ठी में पकड़ने योग्य तलवारार्मुष्टिना
ग्रहणयोग्यमसि। (जयो० १७/७१) मुष्टि ग्राह्य। मुष्टिकः (पुं०) सुनार।
हाथों की विशेष स्थिति। मुष्टिकं (नपुं०) मुक्केबाजी। मुष्टिका (स्त्री०) मुट्ठी। मुष्टिन्धयः (पुं०) बालक, शिशु।
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मुष्टीमुष्टि
८५१
मठः
वा
मुष्टीमुष्टि (अव्य०) मुक्केबाजी। मुष्ठकः (पुं०) राई, काली सरसों। मुस् (सक०) फाड़ना, विदीर्ण करना, खण्ड करना। मुसलः (पुं०) मूसल। मुद्गर।
०गदा। मुसलमानः (पुं०) एक जाति विशेष, जो 'अल्लाह' पर श्रद्धा
रखते हैं। मुसलमानता (वि०) मुसलमानपना। (जयो० २८/२३) मुसलामुसलि (अव्य०) मूसल से लड़ना, गदा से लड़ना। मुसल्य (वि०) मुसल+यत्] मूसल से चूर-चूर करने वाला। मुससायक-भाजः (पुं०) कामदेव। मुस्त् (सक०) ०इकट्ठा करना, ०ढेर लगाना, ०संग्रह करना,
संचय करना। मुस्तः (पुं०) मोथा घास मुस्रं (नपुं०) [मुस्+रक्] मुसली।
आंसू। मुह (अक०) मुाना, मूर्छित होना।
अचेत होना, बेहोश होना। उद्विग्न होना, घबराना। मोहित होना, मुग्ध होना।
अस्त व्यस्त करना, उद्विग्न होना। मुहिर (वि०) [मुह+किरच्] अज्ञानी, मूर्ख, जड़। मुहिरः (पुं०) कामदेव। मुहरपि (अव्य०) फिर भी। (वीरो० ४/४१) मुहुर्मति (वि०) परिमलित। (जयो० १४/४१) मुहुरेव (अव्य०) भूयो भूयो (जयो० १०/२३) मुहस्त्र (अव्य०) यहां बार-बार। (सुद० १२८) मुहस् (अव्य०) बहुधा, लगातार, निरंतर, बार बार, बहुत।
(सुद० ४/२२) मुहुर्मुहुः (अव्य०) बार-बार। (हित० ५८, दयो० १४) पौन
पुण्येन (वीरो० ४/२१) मुहुर्वचस् (नपुं०) पिष्टपेषण, पुनरुक्ति। मुहुःस्तवः (पुं०) बार बार स्तवन। (जयो० १७/२३) मुहूर्तः (पुं०) एक क्षण, अल्पांश, मुहूर्त (नपुं०) निमिष। (सम्य० ४९) ०एकक्षण, अल्पकाल। मुहूर्तकालः (पुं०) थोड़ा समय। अड़तालीस मिनट का समय।
दो नालिकाओं का एक मुहूर्त। सत्तर लवों का एक मुहूर्त।
मुहूर्तकः (पुं०) निमिष, क्षण। मू (सक०) बांधना, जकड़ना, कसना। मूक (वि०) [म्+कक्] गूंगा, मौन।
मुखरीपने से रहित, वाक् शून्य।
बेचारा, दीन, दुःखी। मूकः (पुं०) गूंगा।
बेचारा, दीन। (जयो० १७/३२)
मछली। मूकत्वपरिणतिः (स्त्री०) मुद्रणा, मौन भाव, मौनवृत्ति।
(जयो० ५/१०१) मूकभावः (पुं०) मूकपरिणति। (वीरो० १४/३८) मूकयन्ती (वर्त०कृ०) तूष्णीं कुर्वन्ती-चुप करती हुई। (जयो०
१८/१०९) मूकिमन् (पुं०) [मूक+इमनिच्] गूंगापन, मूकता, चुप्पी। मूकीभावः (पुं०) मुखमुद्रण। (जयो०वृ० ११/५०) ०मौन। मूढ (भू०क०कृ०) [मुह+क्त] ०मोहाच्छन्न। (जयो० २३/६०)
०व्याकुल, उद्विग्न, विह्वला (सुद० १०२) ०भ्रान्त, भ्रमपूर्ण, प्रताडित, विचलित। ०अपक्वजन्मा।
संशयोत्पादका मूढः (पुं०) मूर्ख, बुद्ध, मतिहीन, अज्ञानी पुरुष। (सम्य० ११६) मूढगर्भः (पुं०) मृत गर्भ। मूढगत (वि०) मूर्खता को प्राप्त। मूढचेतस् (वि०) मूर्ख, बुद्धिहीन। मूढजनः (पुं०) मूर्ख पुरुष, अज्ञानी। मूढजातिः (स्त्री०) मूर्खता की उत्पत्ति। मूढता (वि०) मुग्धता, आसक्ति भावना। (जयो० १५/९५)
दयिताहतस्य मनसः समातुरैः परिमूढहामिव गतेः पुरा नरैः।
(जयो० १५/९५) मूढधी (स्त्री०) मूर्ख, जड़बुद्धि, मतिहीन व्यक्ति, मोही
व्यक्ति। एतत्प्राकृतिक दृश्यमनिष्टं नेष्टमित्यापि किन्तु
रागाच्च रोषाच्च तथा वाञ्छति मूढधीः। (हित० ५९) मूढबुद्धि (स्त्री०) मूर्ख, जड़बुद्धि, सीधा-सादा, निर्बुद्धि। मूढमति (स्त्री०) मूर्ख, जड़बुद्धि, मतिहीन। मूढमण (वि०) विचार हीन। (जयो० २५/८३) मूढसत्त्व (वि०) मोहित। ०अज्ञानी। मूढहीन (वि०) मूर्खता रहित, ज्ञानी। मूठः (पुं०) पुङ्ख। (जयो०१० २४/१०८)
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मूत
८५२
मूर्धकर्णी
मूत (वि०) [मू+क्त] बांधा हुआ।
बेहोशी अचेतावस्था (जयो० १८/२६) मूत्रं (नपुं०) [मूत्र+ल्युट] मूत, पेशाब। (सुद० १०१)
इन्द्रिय विषयासक्ति। मूत्रकृच्छं (नपुं०) मूत्र पीड़ा, मूत्ररक्षण, बूंद-बूंद मूत्र गिरना। मूर्छागत (वि०) अचेत हुआ। मूत्रकोशः (पुं०) अण्डकोश, पोता।
मूर्छाभावः (स्त्री०) आसक्ति भाव, मुग्धताभाव, मोहभाव। मूत्रक्षयः (पुं०) मूत्रक्षरण।
मूर्छाल (वि०) [मूर्छा+लच्] अचेत, चेतनारहित, बेहोश। मूत्रक्षरणं (नपुं०) मूत्रक्षय, बूंद-बूंद मूत्र आना।
मुच्छित (भू०क०कृ०) [मूर्छा जातः अस्य] ०बेहोश, संज्ञाहीन, मूत्रजठरः (पुं०) मूत्र रुकने से पेट में पीड़ा होना। * मूत्ररोग।
अचेत हुआ। मूत्रदोषः (पुं०) मूत्र सम्बंधी रोग।
मूर्ख, जड़, मूढ। मूत्रनिरोधः (पुं०) मूत्र रुकना।
प्रचण्ड किया गया, तीव्र किया हुआ। मूत्रपतनः (पुं०) गंधमार्जार।
उद्विग्न, व्याकुल। मूत्रपथः (पुं०) मूत्रनलिका।
मूर्त (वि०) इन्द्रिय ग्राह्य, भौतिक। मूत्रपरीक्षा (स्त्री०) मूत्र निरीक्षण।
०पार्थिव। मूत्रपुटं (नपुं०) मूत्राशय। मूत्रमार्गः (पुं०) मूत्रनालिका।
रूपादि संयुक्त। मूर्तत्वं रूपादि युक्तत्वम्। मूत्रवर्धक (वि०) मूत्रल, मूत्र बढ़ाने की दवा।
मूर्तद्रव्यं (नपुं०) वर्णादि युक्त द्रव्य। मूत्रलं (नपुं०) मूत्र पीड़ा।
०दृश्यमान द्रव्य, पुद्गल द्रव्य। मूत्रेन्द्रियः (पुं०) मूत्रनलिका। (सुद० १०२)
मूर्तिः (स्त्री०) रूपादि संस्थान परिणाम, मूर्ख (वि०) [मुह+ख, मूर् आदेशः] जड़, मन्दमति, मूढ़, ०रूप, द्रव्यपरिणाम, भौतिक तत्त्व।
अज्ञानी। व्यसनेन तु मूर्खाणां निद्रया कलहेन वा। मूर्ति-शरीर, रूप। तस्मिन् मूर्तः प्रभावत्याः (जयो० ६/११) (दयो० १०१)
छवि। (सुद० २/२४, जयो० १/१७) मुनि पुनर्धर्ममिवात्तमूर्ति मूर्खः (पुं०) मूर्ख व्यक्ति, अज्ञानीपुरुष, न समझ व्यक्ति, (सुद० २/२४) मन्दबुद्धि युक्त व्यक्ति, मूढव्यक्ति।
आकृति। (जयो० २७/४६) मूर्खत्व (वि०) जड़ता, मतिहीनता। (जयो० १/१४५)
०प्रतिमा, प्रतिकृति, पुत्तला, बुत। मूर्खभूयं (नपुं०) मूर्खता, जड़ता, अज्ञानता।
मूर्तिकारः (पुं०) मूर्ति बनाने वाला व्यक्ति। मूर्खलोकाभिप्रायः (पुं०) जडाशय, उद्वेलावस्था, उद्दण्डता।
मूर्तिकार्यः (पुं०) दैहिक कार्य। मूर्खशिरोमणिः (पुं०) जडधीश्वर। (वीरो० २/१७) महामूर्ख।
मूर्तिगत (वि०) प्रतिकृति को प्राप्त। मूर्खाधिभुवः (पुं०) निर्विचार शिरोमणि। महामूर्ख, मूर्खराज।
मूर्तिगेहं (नपुं०) देवालय, मंदिर। (जयो० २/१२४)
मूर्तिधर (वि०) शरीरधारी, मूर्तिमान्। मूोपमानः (पुं०) उलूक, घूक। (जयो० १८/४८)
मूर्तिमत्/मूर्तिमंत (वि०) भौतिक, पार्थिव। मूर्छ (अक०) मूर्छित होना, बेहोश होना। हसति रौति च मृर्च्छति वेपते (जयो० २५/७१)
___०साकार। शरीरधारिणी। (जयो० ७/१) मूर्च्छन् (वि०) [मूर्च्छ+णिच्] ०जड़ता युक्त, मूर्खता युक्त।
मूर्तिमति (स्त्री०) शरीरधारिणी, निवेश रूपिणी। (जयो०वृ० आसक्तिजनक, मदहोश।
१३/६१) ०बढ़ाने वाला, बल देने वाला।
मूर्तियोगः (पुं०) प्रतिमा योग, ध्यान की प्रक्रिया। (सुद० ९२) मूर्छनं (नपुं०) मूर्छा, आसक्ति, जड़ता, मूर्खता। मूर्तिसंचर (वि०) शरीरधारी, मूर्तिमान्। मूर्च्छना (स्त्री०) मूञ्छित होना, बेहोश होना। •संगीतलय। | मूर्धन् (पुं०) सिर, मस्तक। (जयो० २/६४) । (जयो० २/६०)
उच्चभाग, शिखर, उन्नतकूट। मूर्छा (स्त्री०) मुद्रितदशा, मुद्रणावस्था, मिरगीरोग। (जयो० मुख्य, सर्वोपरि, प्रधान, प्रमुख। १८/१९) सदसद्विवेक विनाश।
। मूर्धकर्णी (स्त्री०) छतरी, छाता।
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मूर्धकर्परी
८५३
मूषा/मूषिका
मूर्धकर्परी देखो ऊपर। मूर्धजः (पुं०) मस्तक, सिर के बाल। (जयो० ५/८५) मूर्धज्योतिस् (नपुं०) मुद्रामार्ग। मूर्धनिघूर्णा (वि०) सिर को घूर्णित करने वाली। मूर्धन्य (वि०) [मूर्ध्नि भव-यत्] मुख्य, प्रमुख, श्रेष्ठ।
मूर्धन्यवर्ण -ऋ, ट्, ढ, ड्, ण, र, और ए' मूर्धभू (स्त्री०) मस्तकस्थली। (जयो० २२/२२) मूर्धरसः (पुं०) मांड। मूर्धान्दुकं (नपुं०) शिरालंकरण, शिरोभूषण, सिर का
बोर। (जयो० १६/१०) मूल् (अक०) स्थिर होना, विद्यमान होना। मूल (सक०) उगाना, पालना।
विनष्ट करना, नाश करना। मूलं (नपुं०) जड़, किनारा।
मूलभूत, आधारभूत, (सम्य० ३१) मूलं सुधीन्द्राश्चिदचिद् द्वयन्तु द्वयोरवस्था अपरा श्रयन्तु। (सम्य० ३१)
आधार, नींव, स्रोत। ०आरम्भ, शुरु। किसी वस्तु का तल। ०पाठ, संदर्भ सामीप्य। मूलधन, वर्गमूल।
मुद्गर। (जयो० ८/१५) मूलकर्मन् (नपुं०) मूलगुण का पालक ऋषि/मुनि। मूलकर्मन् (नपुं०) जादू। मूलकरणं (नपुं०) औदारिक शरीर की स्थिति। मूलकारणं (नपुं०) प्रमुख कारण। मूलकारिका (स्त्री०) मूलसूत्र। मूलगुणः (पुं०) साधक के गुण, साधु के गुण, अट्ठाईस
मूलगुण। मूलजः (पुं०) जड़ से उत्पन्न होने वाला पौधा। मूल (नपुं०) अदरक। मूलद्रव्यं (नपुं०) आधार भूतधन, वाणिज्यवस्तु, पूंजी। मूलधनं (नपुं०) मूल पूंजी। ०लागत धन। मूलधातुः (स्त्री०) लसीका। मूलपुरुषः (पुं०) वंशप्रवर्तक। मूलप्रकृतिः (स्त्री०) ०समस्त भेदों को संग्रह करने वाली
प्रकृति। सांख्य का प्रधान या प्रकृति तत्त्व।
मूलफलदः (पुं०) कटहल का पेड़। मूलभद्रः (पुं०) कंश। मूलभूतशब्द (पुं०) प्रधान शब्द, प्रमुख शब्द। (जयो०१० १/३१) मूलभेदः (पुं०) प्रमुख भेद। मूलवचनं (नपुं०) मूलपाठ। ०सूत्र वचन, ०श्रुतसार,
आगमवचन, आप्तवाणी। मूलवित्तं (नपुं०) पूंजी, वाणिज्य, वस्तु। मूलशाकटः (पुं०) मूली आदि बोना। मूलस्थानं (नपुं०) प्रमुख स्थल। आधारभूत भाग। मूलसूत्रं (नपुं०) मूल उद्देश्य (जयो० २/२९) मूलहर (वि०) मूलधन को नष्ट करने वाला। मूलहरणं (नपुं०) सर्वस्वविनाशन, मूल को भी नाश करना।
(जयो० २/११०) मूला (स्त्री०) [मूल्+अच्+टाप्] ०सतावर, एक पौधे का नाम।
__०मूल नक्षत्र। मूलान्तरित (वि०) मूल के मध्य। (जयो० १५/४५) मूलिक (वि०) भौतिक, मूलभूत। मूलिकः (पुं०) भक्त, संन्यासी। मूलिन् (पुं०) [मूल इनि] वृक्ष। मूली (स्त्री०) एक छोटी छिपकली। मूलेरः (पुं०) [मूल्+एरक्] राजा, नृप।
०बालछड़। मूलोच्छेदः (पुं०) मूल का विनाश। मूलोच्छदं विना वृक्षः
पुनर्भवितुमर्हति। (वीरो० १३/३७) मूलोच्छेदकर (वि०) मूल का घातक। (दयो० ९९) मूल्य (वि०) [मूल+यत्] मोल लेने योग्य।
__०उखाड़ देने योग्य। मूल्यं (नपुं०) कीमत, मोल, लागत, मूलधन, लाभ, पूंजी।
(सम्य० ७७)
मजदूरी, कीमत, किराया। मूल्यशालिनी (स्त्री०) तुलनीय। (जयो० १२/२२) मूष् (सक०) चुराना, लूटना, अपहरण करना। मूषः (पुं०) [मूष्+क] चूहा।
०गोल खिड़की, रोशनदान। मूषकः (पुं०) [मूष्+कन्] चूहा, आखु। (वीरो० १/१९)
०चोर। मूषणं (नपुं०) [मूष्+ल्युट्] चुराना। लेना, छीनना। मूषा/मूषिका (स्त्री०) चूहा। कुणली।
०चोर। शिरीष तरु।
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मूषी
८५४
मृगाङ्कः
मूषी (स्त्री०) चूहिया। मृ (अक०) मरना, नष्ट होना। मत-प्राणत्यागाथ। (जयो०
४/२९)
०वध करना, हत्या करना। (जयो० २/१३५) मक्षणं (नपुं०) नवनीत (जयो० ११/६९, ९६, मक्खन।
(सुद० ६/३८)
०कोमल, स्निग्ध। (जयो० २२/३८) मृक्षणतनु (पुं०) कोमलाङ्गी। म्रक्षणस्य नवनीतस्य तनुरिव।
(जयो० २२/३८) मृग (सक०) ढूंढना, खोजना, तलाश करना।
शिकार करना, अनुसरण करना। ०लक्ष्य बांधना, यत्न करना। परीक्षण करना, अनुसंधान करना। मांगना, याचना करना।
शिकार खोजना। मृगः (पुं०) हरिण। (सुद० ११७, वीरो० २/१३)
चौपाया, जानवर। ०आखेट, शिकार। ०चन्द्र लांछन। ०खोज, अन्वेषण, गवेषणा। कस्तूरी। प्रार्थना, निवेदन।
नक्षत्र विशेष! मृगकाजनं (नपुं०) उद्यान, उपवन। मृगगामिनी (स्त्री०) औषध विशेष। मृगचर्मन् (नपुं०) मृगछाल। (जयो०२/८९) मृगचर्या (स्त्री०) मृग की तरह विचरण। मृगजलं (नपुं०) मृगमरीचिका। मृगजीवनः (पुं०) शिकारी, बहेलिया। मृगतृष् (स्त्री०) मृगमरीचिका। मृगदंशः (पुं०) कुत्ता, श्वान। मृगदंशकः (पुं०) कुत्ता, श्वान। मृगद्युः (स्त्री०) शिकारी। मृगद्विष् (पुं०) सिंह। मृगधरः (पुं०) चन्द्र, शशि। मृगधूर्तः (पुं०) गीदड़ा मृगधूर्तकः (पुं०) गीदड़। मृगनयना (स्त्री०) मृगनेत्र वाली स्त्री, मृगनयनी। मृगाक्षी। |
मृगनाभिः (स्त्री०) कस्तूरी।
कस्तूरी वाला मृग। मृगपतिः (पुं०) सिंह। शेर। मृगपालिका (स्त्री०) कस्तूरीमृग। मृगपिप्लुः (पुं०) चंद्रमा, शशि। मृगप्रभुः (पुं०) सिंह। मृगबधाजीवः (पुं०) शिकारी। मृगबन्धिनी (स्त्री०) मृगजाल। मृगमदः (पुं०) कस्तूरी। मृगमन्दः (पुं०) हस्ति। मृगमातृका (स्त्री०) हरिणी। मृगमुखः (पुं०) मकरराशि। मृगया (स्त्री०) आखेट, शिकार। (दयो० ३४) मृगहिंसा।
(जयो० २/१२८) घ्नन्ति हन्त मृगयाप्रसङ्गिनः कौतुकात् किल निरागसोऽङ्गिनः। अन्तकान्तिकसमात्तशिक्षिणस्तान् धिगस्तु सुत विश्ववैरिणः।।
(जयो० २/१३४) मृगयूथं (नपुं०) हाथियों का झुण्ड। मृगराज् (पुं०) सिंह।
शेर।
सिंह राशि। मृगरोम (नपुं०) ऊन। मृगलक्ष्मन् (पुं०) चन्द्र, शशि। मृगलाञ्छन् (पुं०) चन्द्र, शशि। मृगलेखा (स्त्री०) चन्द्ररेखा। मृगलोचना (स्त्री०) एणभावदृक्, चन्द्र सदृश नेत्र। (जयो०११/५) मृगवाहनः (पुं०) पवन, हवा। मृगव्याघः (पुं०) शिकारी।
तारामण्डल। मृगशावः (पुं०) छोना, हिरण शावक। मृगशिरः (पुं०) मृगशिरा नक्षत्र। मृगशीर्ष (नपुं०) मृगशिरा नक्षत्र। मुगसेनः (पुं०) क्षिप्रा नदी के ग्राम शिंशपा में स्थित धीवर।
(दयो० १०) मुगाक्षी (स्त्री०) मृगनयनी, चपल नेत्रों वाली। हरिणनयन।
(जयो० १०/११७) मृगाङ्कः (पुं०) चन्द्रमा।
०कपूर। ०हवा।
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मृगजिनं
८५५
मृत्युः
मृगजिनं (नपुं०) मृगछाल। मृगाण्डखण्डा (स्त्री०) कस्तूरिका, कस्तूरी। (जयो० १५/८४) मृगाण्डजा (स्त्री०) कस्तूरी। मृगाद् (पुं०) सिंह, शेर।
लकड़बग्घा। मृगादनः (पुं०) ०हरि, सिंह, मृगपति। मृगान्तकः (पुं०) सिंह, केसरी। मृगाधिपः (पुं०) सिंह, केसरी। मृगाधिराजः (पुं०) मृगराज, सिंह। मृगायणः (पुं०) विप्र, ब्राह्मण। (समु० ४/२४) मृगारि (पुं०) सिंह, शेर, केसरी। मृगारिवरः (पुं०) सिंह। (जयो०८/७२) मृगाशनः (पुं०) सिंह। मृगाविध् (पुं०) शिकारी, बहेलिया। मृगावती (स्त्री०) कौशाम्बी राजा शताविक की रानी। (वीरो०
१५/२२) ०पोदनपुरी के राजा प्रजापति की द्वितीय रानी। (वीरो०
१५/२२) मृगास्यः (पुं०) मकर राशि। मृगी (स्त्री०) हरिणा। (जयोवृ० १४/५०)
___०मिरगी रोग, मूर्छा व्याधि। मृगीखुरः (पुं०) मृगी के खुर हरिणाङ्गनाखुर। (जयो० २५/१८) मृगीदृक् (स्त्री०) नम्रभू (जयो० २३/५) मृगीदृशस्तत्र नर्तिमुखेन
(वीरो० ६/५) हरिणाक्षी। (जयो० १०/३४) मृगीदृश देखो ऊपर। मृगेन्द्र (पुं०) सिंह, केसरी। (वीरो० दयो०४६) (जयो०७/४९) मृज् (अक०) शब्द करना। मृज् (सक०) पोंछना, प्रमार्जन करना, मांजना, स्वच्छ करना,
प्रक्षालन करना। ०रगड़ना, सुखाना। ०सजाना, अलंकृत करना।
निर्मल करना, साफ करना। मृजः (पुं०) वाद्य विशेष, 'मुरज' वाद्य। मृजा (स्त्री०) [मृज्+अ+टाप्] ०स्वच्छ करना, निर्मल करना,
साफ करना। प्रक्षालन, प्रमार्जन। ०धोना, साफ करना। शुद्धि, स्वच्छता।
मृजित (भू०क०कृ०) [मृज्+क्त] मांजा गया, प्रक्षालित किया
गया, प्रमार्जित किया गया।
हटाया गया। मुडः (पुं०) महादेव, शिव। (वीरो०३/१७) (जयो० २२/५५) मृडा (स्त्री०) पार्वती, गौरी। मृडानी (स्त्री०) गिरीश पुत्री, गौरी, पार्वती। मृडी देखो ऊपर। मृणालः (पुं०) कमलनाल, कमल तन्तु। (वीरो० ९/२६)
(समु०७/६) मृणालं (नपुं०) सुगन्धित घास की जड़, कमलनाल। (सुद०
२/७) मृणालकः (पुं०) कमलनाल। मृणालकल्पः (पुं०) कमलदण्ड। (जयो० १३/१०१) (सुद०
१०८) मृणालनालं (नपुं०) देखो ऊपर। कमलनाल। मृणालिका (स्त्री०) [मृणाल कन्+टाप्] कमलवृत। मृणालिन् (पुं०) कमल, पद्म। मृणालिनी (स्त्री०) कमलिनी। कमल समूह। मृत (भूक०कृ०) [मृ+क्त] मरा हुआ, मृत्यु को प्राप्त।
(जयो० २/१४०)
मृतक जैसा, व्यर्थ, निष्फल। ०भस्म किया गया। मृतं (नपुं०) मृत्यु, मरण। मृतकः (पुं०) मुर्दा, शव। मृतकल्पः (पुं०) अचेत, बेहोश। मृतगृहं (नपुं०) मृतस्थान, देह संस्कार स्थान, कबर। मृतगृहं (नपुं०) दाहघर। मृतण्डः (पुं०) सूर्य। मृतदारः (पुं०) विधर, रंडवा। मृतनिर्यातकः (पुं०) शव ले जाना। मृतमत्तकः (पुं०) गीदड़। मृतसंस्कारः (पुं०) अन्त्येष्टि। मृतस्नानं (नपुं०) मृत्यु के बाद का स्नान। मृतालकं (नपुं०) [मृत+अल-णिच्+ण्वुल] मिट्टी, पिंडोर,
चिक्कण मृत्तिका। मृतिः (स्त्री०) मरण, मृत्यु। (सुद० १२९) मृत्तिका (स्त्री०) मिट्टी, पिंडोर, माटी। (वीरो० ३/७) मृत्युः (नपुं०) मरण, शरीर नाश। (सुद० ११७) (दयो०
१/२१)
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मृत्युगत
८५६
मृदुशीतहस्तं
मृत्युगत (वि०) मरण को प्राप्त हुआ।
मृदुलगति (स्त्री०) मन्दगति, धीमी चाल। मृत्युतूर्य (नपुं०) मृत्यु के समय बजाया जाने वाला वाद्य। मृदुलगेहं (नपुं०) सुंदर घर। उत्तम आवास। मृत्युञ्जयः (पुं०) शिव, शंकर। ऋषभ, ०एक तीर्थ स्थान, | मृदुलचन्द्र (पुं०) शीतल चन्द्र, सौम्य चन्द्र। गुजरात में स्थित पालीताना।
मृदुलछाया (स्त्री०) शीतल छाया। मृत्युनाशकः (पुं०) पारा।
मृदुलज्योतिः (स्त्री०) सरल शिखा, दीप। मृत्युपा (पुं०) शिव, महादेव।
मृदुलड्डुकुच (वि०) सुंदर कुच वाली। मृत्युपाशः (पुं०) यमराज का फंदा।
घृतयुक्त लड्डुओं वाले व्यञ्जन। (जयो० १२/२२३) मृत्युपुष्पः (पुं०) ईख, गन्ना।
मृदुलतरा (वि०) मधुरा। (जयो०वृ० ६/३०) मीठापन। मृत्युप्रतिबद्ध (वि०) मरणशील।
मृदुलता (वि०) कोमलता, सरसता। (सुद० १२४) मृत्युफला (स्त्री०) केला।
भद्रता। (जयो० १८/५२) मृत्युबीजः (पुं०) बांस, वेणु।
मृदुलता (वि०) म्रक्षण, चिकना। (जयो० १७/१२२) मृत्युमुखं (नपुं०) मरणकरण। (जयो० ८/६२)
मृदुलपरिणामः (पुं०) कोमलभाव, रमणीय भाव, उत्कृष्टभाव। मृत्युराज् (पुं०) यमराज।
(सुद०८२) मृत्युलोकः (पुं०) यमलोक, भूलोक, मर्त्यलोक।
मृदुलपादः (पुं०) सुकुमार चरण। मृत्युसूतिः (स्त्री०) केकड़ी।
मृदुलमतिः (स्त्री०) विस्तृत मति, यथेष्ट विचारवाली बुद्धि। मृत्त्व (वि०) मृत्तिकपन, प्रातिपदिकत्व संज्ञा। मृदभियेत्त्वम्। (जयो० १२/११८) (वीरो० ३/३)
मृदुलव्यञ्जनं (नपुं०) शाकादि मधुर पकवान। मृत्सा, मृत्स्ना (स्त्री०) मिट्टी, मृत्तिका। (जयो० २४/५९) मृदुसम्भाषण (जयो० १२/११८) मृदुलमतिकोमलं मृद् (सक०) निचोड़ना, दबाना।
यद्वव्यञ्जनं मदनमंदिरमङ्गम्। (जयो० १२/११८) कुचलना, रौंदना।
मृदुला (स्त्री०) कोमला, कोमलांगी स्त्री। (जयो० ६/८२) नष्ट करना, पीसना।
मृदुलाञ्जनं (नपुं०) पवित्र अंजन। (जयो० १२/१०३) ० मसलना, घिसना।
मृदुलाणी (स्त्री०) यथेष्ठ सीमा, उचित सीमा। मृदुला, आणिः मृद् (स्त्री०) [मृद्+क्विप्] मिट्टी, पिंडोर।
सीमा ययोस्तौ मृदुलाणी सुकौमलौ। (जयो० १२/१०६) मृदङ्गः (पुं०) [मृद्+अंगच्+किच्च] वाद्य विशेष, ढोल। (वीरो० मृदुलेशा (स्त्री०) सुकोमल हृदया स्त्री। (जयो० १/३८) ४/९) मुरज। (जयो० १२/७९)
मुदुलोदरिणी (स्त्री०) सुकुमारता से युक्त उदर वाली, क्षीण मृदङ्गवचस् (नपुं०) मुरज गूंज। (समु० ७८)
उदरा। (सुद० १२२) 'बलिरत्नत्रयमृदुलोदरणी' मृद्कः (पुं०) मिटटी का लौंदा।
मृदुलोपेत (वि०) विनीतक, नम्रभाव को प्राप्त हुआ। (जयो०१० मृद्करः (पुं०) कुम्हार।
१/१००) मृद्कांस्यं (नपुं०) मिट्टी का बर्तन।
मृदुवल्लभराट् (पुं०) अत्यन्त प्रिय राजा। मृदूनां कोमलप्रकृतीनां मृद्गः (पुं०) मछली।
वल्लभः प्रिय इति मृदुवल्लभः। (जयो० १८/८१) मृद्पचः (पुं०) कुम्हार।
मृदुवाक् (नपुं०) मधुरवचन। (वीरो० १८/३५) मृद्पात्रं (नपुं०) मिट्टी का बर्तन।
मृदुवादित्रः (पुं०) ०कोमलवाद्य, ०मधुर स्वर वाले मृदङ्ग, मृपिण्डः (पुं०) मिट्टी का लौंदा।
मुरजादि वाद्य। (जयो० २२/६१) मृबुद्धिः (स्त्री०) आलसी, बुद्ध।
मृदुवेशा (स्त्री०) प्रसन्नवेशवती। (जयो० १२/८) मृद् लोष्टः (पुं०) मिट्टी का ढेला।
मृदुशः (पुं०) कोमल, शीतल। (जयो० २२/३) मृदशकटिका (स्त्री०) मिट्टी की गाड़ी।
मृदुशशिशिरः (पुं०) शीतल शिशिर ऋतु। मृद्वंतरा (वि०) मिट्टी के भीतर। (सम्य० १०७)
चन्द्र शिर (जयोवृ० २२/३) मृदित (भूलक०कृ०) [मृद्+क्त] ० भींचा हुआ, निचोड़ा हुआ। | मृदुशीतहस्तं (नपुं०) शीतल एवं कोमलता युक्त हस्त। कुचला हुआ, पीसा गया।
(जयो०१/७५)
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मृदुसम्भाषण
मृदुसम्भाषणं (नपुं०) मृदुलव्यञ्जन। (जयो० १२ / ११८) मृदुस्मित (वि०) प्रसन्नता युक्त हंसी। (जयो० १७/३२) मृदुहार : (पुं०) सुंदर हार, मनोहर हार । (जयो० ८ / ३० ) मृदुहारमणि: (स्त्री०) उज्ज्वल मणि युक्त हार। (जयो० २२/४२) मृदुहा - रमणी (स्त्री०) सुंदर रमणी । (जयो० २२/४२) मृदूदकः (पुं०) शीतल जल। (जयो० २२/१९) मृदूर: (पुं०) कोमल हृदय । (सम्य० ५० ) मृद्वंशकः (पुं०) शुभलग्न। (जयो० १० / २) मृद्वी / मृद्वीका ( स्त्री० ) [ मृदु + ङीष् ]
अंगूर की बेल, अंगूर का
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गुच्छा।
मृध् ( अक० ) गीला होना ।
मृधं (पुं० ) [ मृध्+क] संग्राम, युद्ध, लड़ाई। मृद्धी (स्त्री०) कोमलाङ्गी । ( सुद० २ / ५) ० मिष्ट (१/१) मृन्मय (वि० ) [ मृद् + मयट् ] मिट्टी का बना हुआ।
मृश् ( सक०) स्पर्श करना, मलना, मर्दन करना । मृष्ट्वा
(जयो० ६ / ६१ )
० गुदगुदाना ।
० सोचना, विचार विमर्श करना ।
० झपटा मारना, आक्रमण करना।
० दूषित करना, भ्रष्ट करना, बलात्कार करना ।
० ज्ञात करना।
० चिन्तन करना, सोचना, विचार करना ।
० पर्यवेक्षण करना, परीक्षा लेना ।
मृष् (सक०) छिड़कना, सहन करना, झेलना, भोगना, साथ
रहना ।
मृषा (स्त्री० ) [ मृषृ + का] ०मिथ्या (जयो० ६ / ३७ ) ० अनृत। दुग्धीकृतेऽस्य मुग्धे यशसा निखिले जले मृषास्ति सता । ० व्यर्थ, निष्प्रयोजन, निरर्थक ।
० अलीक, असत्य । (जयो० २ / १४४ ) ० झूठ- पाप का भेद-अव्रत |
मृषात्व (वि०) मिथ्यापना, असत्यपना । मृषानन्द (वि०) अनृतानन्द |
मृषानन्दः (पुं०) अनृतानन्द, रौद्रध्यान की प्रवृत्ति । मृषानन्दी (वि०) अनृतानन्दी, रौद्र रूप प्रवृत्ति। (मुनि० २२) मृषानुबन्धिन् (वि०) दूसरे के ठगने का विचार करने वाला । मृषापथः (पुं०) असत्यमार्ग ।
मृषाभाषा ( स्त्री० ) सत्य विराधक वचन, असत्यभाषा, मिथ्याभाषा । मृषामनयोगः (पुं०) असत्यमनोयोग, सत्य विरोधक मनोयोग ।
८५७
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मृषारौद्रध्यानं (नपुं०) कल्पित युक्तियों का ध्यान, मिथ्याध्यान। मृषावचनं (नपुं०) अलीकवचन।
मृषावादः (पुं०) असत्य कथन, अप्रशस्तवचन, मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और प्रमाद युक्त व्यवहार । मृषासाहसः (पुं०) दुस्साहस । (जयो० २ / १४४) मृषोक्ति (स्त्री०) मिथ्योक्ति, अलीककथन। (समु० ३/२९) मृषोक्तिकृति (स्त्री०) असत्य वचनावली । (मुनि० २१ ) मृषोद्यमं (नपुं०) मिथ्या, झूठ, अलीक ।
मृष्ट (भू०क० कृ० ) [ मृश्+क्त] स्वच्छ स्पष्ट, सुंदर । ● किया हुआ, निर्मल किया हुआ । ० प्रसाधित, प्रमार्जित ।
० मनोऽभिलषित। (जयो० २७/४३)
मृष्टगन्धः (पुं०) रोचक गन्ध ।
सृष्टिः (स्त्री० ) [ मृश्+ क्तिन्] स्वच्छ करना, साफ करना,
निर्मल करना ।
०पकाना, प्रसाधन करना।
० स्पर्श, संपर्क ।
मे ( अक० ) विनिमय करना, अदला-बदली। मेकः (पुं०) [मे+कै+क] बकरा । मेकलः (पुं०) बकरा ।
मेक-कन्यका (स्त्री०) नर्मदा नदी । मेकलकन्यकाभाला (पुं०) यमराज (जयो० ११ / ७० ) (दयो० ९० )
मेखला ( स्त्री०) करधनी, कमरबन्द, कटिबन्ध, काञ्ची । (जयो० २४ / ३५)
मेघं
० कूल्हा, उत्तुंग नितम्ब (जयो० २४ / ३५) काञ्च्यां शैलनितम्बे च खङ्गबन्धे च मेखला, इति विश्वलोचना (जयो०वृ० २४ / ३५)
मेखलापदम् (स्त्री०) कूल्हा |
मेखलाबन्धः (पुं०) कटिसूत्र धारण करना। मेखलिन् (पुं०) शिव ।
० ब्रह्मचारी |
मेघः (पुं० ) [ मेहति वर्षति जलम्, मिह्+घञ्] ०बादल । ० मुदिर। (जयो०वृ० ३ / ९२) (जयो० १२/४९) ०कंद। (जयो०वृ० ३/८७), वारिद। (जयो०वृ० ३ / ५ ) ० बलहिक । (जयो० ३ / ११ )
• अम्बुमुच । (समु० २/१२)
मेघं (नपुं०) सेलखड़ी।
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मेधकफ:
८५८
मेदसूज
मेघकफः (पुं०) ओला, हिम। मेघकलः (पुं०) वृष्टि, वर्षा ऋतु। मेघगर्जनं (नपुं०) मेघों की गर्जना। (जयो०७० ३/१११) मेघचिंतकः (पुं०) चातक पक्षी। मेघजालं (नपुं०) मेघ समूह। मेघजीवकः (पुं०) चातक पक्षी। मेघजीवनः (पुं०) चातक पक्षी। मेघज्योतिस् (पुं०/नपुं०) बिजली। मेघडम्बरः (पुं०) बादलों की गर्जना, वारिदगण। (जयो०वृ०
मेघसुहृदः (पुं०) मयूर, मोर। मेघस्तनित (नपुं०) मेघ गर्जना। मेघेश्वरः (पुं०) विद्याधर। (जयो० ७/८९) मेघेश्वरगुणः (पुं०) जयकुमार राजा। (जयो० ६/९९) मेघेश्वराभिधा (स्त्री०) मेघसमूह। (जयो० ७/२६) मेघ
गर्जना। मेघेश्वराभिधा लब्ध्वा गुरुणा गर्वितां गतः। मेचक (वि०) काला, गहरा नीला। मेचकः (पुं०) कालिमा, गहरा नीला, श्यामल, तम।
मोर की पूंछ। मेघ, बादल। मेचकः श्यामले बहिर्चन्दे। अन्धकार।
०धुआ।
मेघदीपः (पुं०) बिजली। मेघद्वारं (नपुं०) आकाश, अंतरिक्ष। मेघनादः (पुं०) बादलों की गर्जना।
रावण का पुत्र, इन्द्रजीत। मेघनायकः (पुं०) विद्याधर। (जयो० ७/८९) मेघनिर्घोषः (पुं०) बादलों की गर्जना। मेघपंक्तिः (स्त्री०) मेघ समूह। मेघपुष्पः (पुं०) पानी, ओला। मेघप्रभः (पुं०) विद्याधर (जयो० ७/८९) (जयो० ८/७२) मेघप्रसवः (पुं०) ०जल, नीर, वारि।
ओला।
हिम। मेघभूतिः (स्त्री०) वज्र। मेघमण्डलं (नपुं०) अंतरिक्ष, आकाश, गगन। मेघमानितः (पुं०) मेघ नामक देव। (जयो० ७/६३) मेधामानित (वि०) समाहत, वर्षा से सम्मानित (जयो० ७/६३) मेघमाल (वि०) बादलों से घिरा हुआ। मेघमाला (स्त्री०) मेघ समूह। मेघयोनिः (स्त्री०) धुंआ। मेघरवः (पुं०) मेघ गर्जना। मेघवर्णा (स्त्री०) नील का पौधा। मेघवर्मन् (नपुं०) आकाश, अंतरिक्ष। मेघवह्निः (स्त्री०) विद्युत, बिजली। मेघवाहनः (पुं०) इन्द्र। मेघवेश्मन् (नपुं०) आकाश, अंतरिक्ष। मेघसंघः (पुं०) मेघ समूह। (सुद० १/८) मेघसमूहः (पुं०) वारिदगण। (सुद० २/१३) मेघसारः (पुं०) कपूर, घनसार।
०चुचुका मेचकं (नपुं०) अंधकार, तम उग्रप्रकृति। ०श्यामलका (जयो०
२६/२३) मेचकिला (वि०) बहुवर्णा। (जो० २१/२६) मेठः (पुं०) मेष।
०महावत। मेठिः (स्त्री०) खम्भा, स्थाणु, खूटा। मेढः (पुं०) [मिह+ष्ट्रन्] मेंढा, मेष। मेढं (नपुं०) जननेन्द्रिय, पुरुष लिंग। मेढ़कः (पुं०) ०भुजा।
लिंग। मेष्ठः (पुं०) महावत। मेतार्यः (पुं०) दसवें गणधर। (वीरो० १४/११) मेथ् (सक०) समझना, जानना।
घात करना। ०मारना।
मिलना। मेथिका (स्त्री०) [मेथ्+ण्वुल्+टाप्] ०मेथी।
घास विशेष। मेदः (पुं०) [मेदते स्निह्यति मिद्+अच्] ०चर्बी। मेदकः (पुं०) अर्क। मेदस् (नपुं०) चर्बी।
मांसलता, शरीर का मोटापा। मेदस्कृत (पुं०/नपुं०) मांस। मेदसुगन्धिः (स्त्री०) रसौली, मेंद का गांठ। मेदस्जं (नपुं०) हड्डी।
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मेदस्तेजस्
८५९
मेहः
मेनका (स्त्री०) अप्सरा। (जयो०वृ० ११/७७) लावण्य युक्त
।
मेदस्तेजस् (नपुं०) हड्डी, अस्थि। मेदस्पिण्डः (पुं०) चर्बी समूह। मेदस्वृद्धिः (स्त्री०) मोटापा। मेदस्विन् (वि०) मोटा, स्थूलकाय।
मजबूत, हृष्ट पुष्ट। मेदिनी (स्त्री०) [मेद+इनि ङीष] पृथ्वी, भूमि, महि। (दयो० ५३) (जयो० ३/११०)
भूमि, स्थान, स्थल। मेदिनीचक्रः (पुं०) महि-मण्डल (वीरो० ४/४१) मेदिनीपतिः (पुं०) भूपाल, राजा। (समु० २/१६) मेदिनीरमणः (पुं०) देखो ऊपर। मेदिनीशः (पुं०) राजा, भूपाल। (जयो० १८/११) मेदुर (वि०) [मिद्+उरच्] मोटा, पुष्ट। (जयो० २/३९)
(जयो० ३/९५) बहुल, ठोस, सघन। (जयो० १०/२२) चिकना, स्निग्ध।
०फूला हुआ, भरा हुआ। मेदुरित (वि०) [मेदुर+इतच्] ०मोटा, परिपुष्ट, फुलाया हुआ। मेद्य (वि०) [मेद+यत्] चर्बी युक्त।
०सघन मोटा। मेधः (पुं०) यज्ञ। मेधा (स्त्री०) [मेध ठञ्+टाप] जिसके द्वारा पदार्थ जाना
जाता है। ०बुद्धि, धारणात्मक शक्ति, पाठग्रहणशक्ति। (मेधा
०प्रज्ञा। (वीरो० १९/२२) मेधातिथिः (पुं०) मनुस्मृति के भाष्यकार। मेधारुद्रः (पुं०) कालिदास कवि। मेधावत् (वि०) बुद्धिमान्, प्रज्ञावन्त। मेधाविन् (वि०) स्मरण शक्ति वाला।
मेधा विद्यते येषां ते मेधाविनो ग्रहणधारणसामर्थः।
०बुद्धिमान्, प्रज्ञावंत। मेधाविन् (पुं०) विद्वान् पुरुष, विद्यासम्पन्न, मेधावी।
तोता।
०मादक पेय। मेध्य (वि.) [मेध्+ण्यत् मेधाय हितं यत् वा] यज्ञीय, यज्ञ
सम्बंधी। मेध्यः (पुं०) बकरा। ०खैरतरु।
जौ।
मेना (स्त्री०) नदी विशेष। मेनादः (पुं०) मोर।
बिलाव।
०बकरा। मेय (वि०) नापने योग्य, अनुमान लगाने योग्य। मेरकः (पुं०) मद्य, ताल वृक्ष से निकला आसव। मेरु (पुं०) सुमेरु पर्वत। (सुद० २/३९)
उन्नता (सुद० २/३४) मेरुकः (पुं०) धूप, धूनी। मेरुगिरि (पुं०) मंदरपर्वत, देवाचल। (जयो० २४/४) मेरुपर्वतः (पुं०) मंदर पर्वत। (भक्ति० ३४) मेलः (पुं०) [मिल्+घञ्] मिलाप, एकता, संलाप, समवाय।
०परस्परप्रेमभाव। (जयो० ६/१३०)
०सभा, सम्मेलन। मेलतुल्य (वि०) सम्मेलन की तरह। (सम्य० ५१) मेलनं (नपुं०) [मिल्+णिच् ल्युट्] संयोग, मैत्रीभाव, परस्पर
सहयोग। एकता समवाय। ०समाज।
मिश्रण। मेला (स्त्री०) [मिल+णिच्+ण्वुल्+टाप्] ०एकत्रित होने का
स्थान। मनोरंजन स्थल। समवाय, संयोग, समाज।
समूह, सभा, मिलना, समागम। मेलानन्दः (पुं०) कमलदान, दवात। मेलान्धुकः (पुं०) दवात, कमलदान। मेव (सक०) पूजा करना, सेवा करना। मेषः (पुं०) [मिषति अन्योऽन्यं स्पर्धते-मिष्+अच्] मेढ़ा,
भेड़, आविक। (जयो०वृ० २/७८) मेषकम्बलः (पुं०) ऊनी कम्बल, धुस्सा। मेषपाल (पुं०) गडरिया। मेषपालकः (पुं०) गडरिया। मेषिका (स्त्री०) भेड़। (मादा भेड़) मेषी (स्त्री०) भेड़ (मादा भेड़। मेहः (पुं०) [मिह+घञ्] मेंढा।
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मेहंदी
८६०
मोक्षतरु
|
०बकरा।
मूत्र, लघुशंका करना। मेहंदी (स्त्री०) माञ्जिष्ठ, महिलाओं के हस्त-पाद शृंगार का
एक साधन। मेहनं (नपुं०) [मि ल्युट्] मूत्र।
लिंग।
मूत्रोत्सर्ग। __ . मैत्र (वि०) [मित्र+अण] मित्र सम्बंधी।
कृपापूर्ण, सौहार्दपूर्ण, कृपालु। मैत्रः (पुं०) ब्राह्मण।
गुदा। मैत्रकं (नपुं०) [मैत्र+कन्] मित्रता, दोस्ती। मैत्रावरुणः (पुं०) अगस्त्य ऋषि। मैत्रावरुणी (पुं०) बाल्मिकी, अगस्त्य ऋषि। मैत्री (वि०) मित्रता, दोस्ती।
०सौहृद। (जयो० २/२१) ०परस्पर प्रीतिभाव-द्वयोः परस्परं मैत्री मृग-जम्बुकयोरिव (दयो०६२)
सखी। (जयो०१० ३/५१)
०एकता, सहयोग, समवाय। (मुनि० २०) मैत्रीभावः (पुं०) मित्रताभाव। (जयो०वृ०६/७९) मैत्रीभावना (स्त्री०) प्राणीमात्र पद मित्रता का भाव। मैत्रेय (वि०) मित्र से सम्बन्ध रखने वाला। मैत्रेयकः (पुं०) एक जाति विशेष। मैत्रेयिका (स्त्री०) मित्रयुद्ध, मित्रराष्ट्रों में संघर्ष। मैत्रेयोपनिषद् (नपुं०) एक उपनिषद का नाम। (दयो० २५) मैत्र्यं (नपुं०) [मित्र+ष्यञ्] मैत्री, मित्रता। मैथिल् (पुं०) [मिथिलायां भव:-अण] मिथिला का राजा। मैथिली (स्त्री०) सीता। मैथुन (वि०) [मिथुनेन निर्वृत्तम्-अण्] ०युग्मय, जुड़ा हुआ।
विवाहसूत्र में आबद्ध।
सम्भोग से सम्बंध रखने वाला। मैथुनं (नपुं०) रतिक्रीड़ा, संभोग।
राग परिणाम, विषय व्यवहार। (सुद० १३२)
मिलाप, संयोग। मैथुनगत (वि०) रतिक्रीड़ा को प्राप्त हुआ। मैथुनज्वरः (पुं०) संभोग की उत्तेजना। मैथुनधर्मिन् (वि०) सहवासी, संभोगी।
मैथुनप्रसंगः (पुं०) संभोग का कारण। मैथुनम्लानं (नपुं०) मैथुन प्रसंग से शिथिल, संभोग से सुस्त।
(वीरो० २१/१४) मैथुनवैराग्यं (नपुं०) स्त्री खंभोग से विरक्त।
ब्रह्मचर्य। मैथुनसेवनं (नपुं०) काम सेवन, विषय सेवन। (जयो० २/६८) मैथुनिका (स्त्री०) [मैथुन+कन्+टाप्] वैवाहिक गठबन्धन। मैधावकं (नपुं०) प्रज्ञा, ज्ञान। मैनाकः (पुं०) मेना का पुत्र। मैनालः (पुं०) मछुवा, माहीगीर। मैन्दः (पुं०) एक राक्षस। मैरेयः (पुं०) मादय पेय मद्य। (जयो० १६/४८) मैरेयकः (पुं०) मद्य, शराब। मैलिन्दः (पुं०) भ्रमर, भौंरा, मधुमक्खी। मैसूरः (पुं०) मैसूर राज्य। (वीरो० १५/३४) मोकं (नपुं०) चर्म, खाल। मोक्षु (सक०) ०छोड़ना, त्यागना।
मुक्त करना, खोलना, ढीला करना। डालना, फेंकना, उछालना।
छीनना, लेना, ग्रहण करना। मोक्षः (पुं०) [मोक्ष+घञ्] निर्वाण, मुक्ति। (सम्य० ८२)
कृत्स्नकर्मक्षय। परमसुख। ०बन्ध वियोग।
कर्मनिक्षेप कर्म वियोग। जीवकम्माणं वियोगो मोक्खो णाम। (धव० १६/३३८) ० भवान्तर भाव। (जयो० १/९८) ०छूटना, मुक्त होना। मोक्ष नामक पुरुषार्थ। (जयो०वृ० १/३) स्वतंत्र होना।
परममुक्ति, परम पद प्राप्ति। मोक्षगत (वि०) मोक्ष को प्राप्त हुआ। मोक्षगतिः (स्त्री०) मुक्ति, अन्तिम गति।
सिद्धगति। मोक्षगेहं (नपुं०) मुक्तिभवन।
सिद्धस्थान। मोक्षतरु (पुं०) आचरण रूप वृक्ष।
चरित्र पादप।
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मोक्षधामः
८६१
मोदनिधि
मोक्षधामः (पुं०) मुक्ति स्थान।
०व्यजनशील। (जयो०वृ० २१/२७) सिद्धशिला।
०परममुक्ति, छुटकारा। मोक्षपथः (पुं०) मुक्तिमार्ग।
मोचन (वि०) छूटने वाला, स्वतंत्र होने वाला। मोक्षपुरः (पुं०) अमृत धाम। (जयोवृ० १९/३१)
मोचनं (नपुं०) समाप्त करना। (सुद० १०२) छोड़ना, मुक्त मोक्षपुरुषार्थत्व (वि०) मोक्ष पुरुषाधूता। (जयो० १/२४)
करना। मोक्षप्रदा (स्त्री०) मुक्तिदायिनी। (जयो० २/३८)
मोक्ष, मुक्ति । मोक्षप्रदायक (वि०) मोक्ष प्रदान करने वाला।
त्यागना, उत्सर्जन करना। चार पुरुषार्थों में अन्तिम मोक्ष पुरुषार्थ की प्रधानता। मोचनपट्टकः (पुं०) छन्ना, पानी छानने का छन्ना। मोक्षफलं (नपुं०) मुक्तिफल।
मोचयित (वि०) छुड़ाने वाला, स्वतंत्र करने वाला। मोक्षभावः (पुं०) मुक्ति की भावना।
मोचाटः (पुं०) गूदा, फल। सिद्धभाव।
मोटकः (पुं०) बटी, गोली। मोक्षमार्गः (पुं०) मुक्ति पथ, परम धाम। (जयो० २/६८)
मोट्य (सक०) मोटी बनाना, हस्ट-पुष्ट करना। स्वरोटिका दर्शन, ज्ञान और चारित्र का होना।।
__मोटयितुं हि शिक्षते। (वीरो० ९/९) सिद्धिपथ। श्रद्धानाधिगमोपेक्षाः शुद्धस्य स्वात्मनो हि याः।
मोटी (स्त्री०) अतिविशाल, विपुल, व्यापक, विस्तृत, अधिक
(सम्य० ४६) मां मानमटतीति मोटी। (जयो० ६/३) सम्यक्त्वज्ञानवृत्तात्मा मोक्षमार्गः स निश्चयः।। (सम्य०
मोतिया (स्त्री०) पुष्प विशेष। (वीरो० १३/४) ८३)
मोदः (पुं०) [मुद्+घञ्] हर्ष, आनन्द, खुशी। 'किमु संपज्जदि णिव्वाणं देवासुर-मणुय-राय--विहवेहिं।
सम्भवतान्मोदो मोदके परिभक्षिते' (वीरो०८/१) जीवस्स चरित्तादो दंसण-णाणप्पहाणादो।। (सम्य०८४)
०प्रमोद-भूयात्कस्य न मोदायेति वदन् श्रेष्टिसत्तमः। (सुद० मोक्षलणं (नपुं०) मोक्षस्वरूप। (जयो० १/९५)
३/४७) मोक्षसाधनं (नपुं०) मोक्षमार्ग, दर्शन, ज्ञान और चारित्र की
०लाडला, प्रिय। (सम्य० ६८) ___एकता।
०अनुपम उल्लास। जिनप परियामो मोदं तव मुखभासा। मोक्षमुखं (नपुं०) अतीन्द्रिय सुख, परमार्थ सुख, परमानन्द।
(सुद०७४) मोक्षाभिलाषी (वि०) मुमुक्षु। (भक्ति० ५)
मोककर (वि०) प्रियता को प्रदान करने वाले। परा तु तं मोक्षोपायः (पुं०) मोक्ष के साधन। दर्शन, ज्ञान और चारित्र
मोदकरं विचाया (सम्य० ६८) की एकता, रत्नत्रयात्मक साधन।
मोदकः (पुं०) लड्डू, मिष्ठान्न। (जयो० ३/६०, सुद० १२६) मोंगरा (स्त्री०) पुष्प। (वीरो०१३/४)
मोदकास्वादन (जयो० ४/५३) ०मोंगरा जाति के पुष्प।
मोदकं (नपुं०) देखो ऊपर। मोघ (वि०) [मुह+घ+अच्] व्यर्थ, निष्फल, लाभरहित,
मोदक (वि०) प्रिय; सुहावना। (समु० १/५) असफल।
मोदकास्वादनं (नपुं०) मिष्ठान्न का स्वाद। (जयो०१० ४/५१) निरुद्देश्य, निष्प्रयोजन।
मोदकोक्त (वि०) मोदक रूप में कथित, प्रसन्नत युक्त कहा ०परित्यक्त।
गया। (जयो० १२/११६) मोघः (पुं०) बाड़, घेरा, परिधि।
मोदनं (नपुं०) [मुद्+ल्युट्] हर्ष। मोघं (नपुं०) व्यर्थ, बिना प्रयोजन के।
०आनन्द, मोघोलिः (स्त्री०) बाड़, नाकाबन्दी।
कल्याण। मोचः (पुं०) [मुच्+अच्] कदली, केला। (जयो० ११/२०) ०प्रसन्नता। (जयो० १२/११५) मोचकः (पुं०) शिग्रवृक्ष, कदलीतरु। मोचकः कदलीतरो ०प्रहर्षण। (जयो० १०/९६)
तत्प्रसूनेऽपि शिग्र च निर्माचकविरागिणो इति विश्वलोचनः। | मोदनिधि (स्त्री०) हर्षातिरेक, प्रसन्नता का भण्डार। (समु० (जयो० २१/२७)
६/१५)
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मोदनोदयः
८६२
मौकलिः
मोदनोदयः (०) हर्षोदय। मोदनस्योदनिधिः (जयो० ५/५६) मोदपथः (पुं०) प्रसन्नता का मार्ग, हर्प मार्ग। (जयो० ६/११) मोदभावः (पुं०) हर्षभाव।
प्रियपथ, ०इष्ट स्थान।
प्रसन्नता युक्त परिणाम। मोदमंदिर (नपुं०) शर्म निवासस्थान। (जयो० २२/३९) मोदमह (वि०) प्रमोदमय। (सुद० २/३६)
प्रमोदजन्य। (सुद० २/४१) मोदमेदुर (वि०) पुलकित। (जयो० २४/२२) मोदयन्ती (वर्तकृ०) हर्ष करने वाली। (वीरो० २१/२) मोदसिन्धु (पुं०) आनन्द रूपी समुद्र। (जयो० ५/३४) मोहः (पुं०) [मुह+घञ्] मूर्छा, आसक्ति। (सुद० ४/२)
मोहकर्म। बपुष्यहंकार उदेति मोह, माहात्मयतोऽतोऽरिसुहत्तयोहः (समु० ८२११)
मूर्च्छित होना, चेतनाशून्य, अचेत अवस्था। ०व्यामोह, घबराहट, आकुलता। उद्विग्नता, अव्यवस्था। ममेदं भाव, अहंकार भाव। मोहः पदार्थेष्यथावबोधः' मुह्यतेऽनेनेति मोहः। ०अज्ञानलक्षणो मोहः। ०सत्-असत् को विकल करने वाला गुण।
•हित-अहित का विकल भाव। मोहकर/मोहमी (वि०) मोह को उत्पन्न करने वाला। (समु०
६/१३) बुद्धिभंशकारिणी। (जयो० १८/१२) मोहकर्मन् (नपुं०) मूर्छा कर्म। (सम्य० ५९) उपशम, क्षय,
क्षमोक्षम। मोहकी (वि०) मो कारी-सुमनोहारा। (जयो०७० ६/४९) मोहकारी (वि०) अहंकार उत्पन्न करने वाला। मोहखण्डः (नपुं०) मोह भाग।
०मूर्छा स्थान। मोहगत (वि०) मूर्छा को प्राप्त हुआ, अचेत हुआ। मोहक्षति (स्त्री०) मोहशाप, मोहहानि, मोह का अभाव।
(वीरो० ५/२८) मोहजन्मन् (वि०) उद्विग्नता को जन्म देने वाला। मोहतमस् (नपुं०) मोहरूपी अहंकार। (सुद० ११०) मोहतिमिरं (नपुं०) मोह रूपी अहंकार। (सुद० ४/१३) मोहदात (वि०) मूर्छा उत्पन्न करने वाला।
मोहदोषः (पुं०) मादकता का दोष। मोहधामः (पुं०) मूर्छास्थान। मोहनं (नपुं०) [ मुह्+णिच्+ल्युट्]०विमोह, मूर्छा, आसक्ति।
जड़ता, मूर्खता, त्रस्त करना।
आकर्षक, रुचिकर। मोहनः (पुं०) मोहन, कृष्ण का नाम। मोहन (वि०) व्याकुल करने वाला, मच्छित करने वाला।
___ * वशीकरण। (जयो० २/६०) मोहनकः (पुं०) [मोहन्+कै+क] चैत्र का महिना। मोहनाश (वि०) मोह कर्म का नाश। (सम्य० १३५) दर्शनमोह
का नाश। अज्ञाननाशं प्रवदन्ति सन्तो दृङ्मोहनाशक्षण एव
जन्तोः । (सम्य० १३५) मोहनिगडः (पुं०) मोह शृंखला। (जयो० २/१५७) दृढ़बंधन,
प्रबल व्यामोह। मोहनीय (वि०) मूढ़ता को ले जाने वाला कर्म। जो प्राणियों
को मोहित करता है। जिससे कृत्य-अकृत्य भूल जाता। 'मोहयतीति मोहनीयं मिथ्यात्वादिरूपत्वात्' (जैन०ल.
९३९) मुह्यत इति मोहनीयम्। मोहपथः (पुं०) मूपिथ।
०मोहस्थान। मोहबन्धः (पुं०) अज्ञानता रूप बन्धन। मोहभागता (वि०) मोहका अंशपना। (सुद० १०१) मोहमल्लः (पुं०) मोह रूपी योद्धा। अहो जिनोऽप्यं जितवान्
मतल्लं केनाप्यजेयं भुवि मोहमल्लम्। (वीरो० १२/४५) मोहमाया (स्त्री०) मूर्छा जाल। (वीरो० १९/२७) मोहमहातम (नपुं०) मोह रूपी सघन अंधकार। (मुनि० १) मोहशापः (पुं०) मोहक्षति। (वीरो० ५/२८) मोहसंविप्लवः (पुं०) मोह उपद्रव। (सम्य० १११) मोहहानिः (स्त्री०) मोहक्षति, मोहविनाश। (वीरो० ५/२८) मोहाच्छन्न (वि०) मूढ, अज्ञानी। (जयो०वृ० २८/६०) मोहान्धकार (वि०) मोहरूपी अंधकार। मोहान्धमयी (वि०) अज्ञानान्धकार रूप। (जयो० १९/१४) मोहित (भूक०कृ०) मुग्ध, आकुलित, मूञ्छित। (सुद०
४/१०) मोहिनी (स्त्री०) मनोहारिणी स्त्री। (सुद० ११२) मोहिनी (वि०) मोह सम्बन्धिनी माया। महतीयं मोहिनी जनतायां
भो! माया। (जयो० २३/६५) मौकलिः (पुं०) काक, कौवा।
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मौका
८६३
मौर्यवंशी
पीपी।
मौका (स्त्री०) अवसर। तनुर्नरोक्तैव समस्ति मौका। (वीरो०
१८/३०) मौक्तिकं (नपुं०) ०मोती। (दयो० ५४)
कुसुम। (जयो० ३/७५) मुक्तफल। (जयो० ३/७५)
शौक्तिक। (जयोवृ० २।८२) मौक्तिकगुम्फिका (स्त्री०) मोती की माला गूंथने वाली स्त्री। मौक्तिकत्व (वि०) मोतीपना। (सुद० ४/३०) मौक्तिकदामन् (नपुं०) मोतियों की माला, मोतियों की लड़ी। मौक्तिकप्रसवा (स्त्री०) सीपी। मौक्तिकशक्तिः (स्त्री०) सीपी, मोतियों वाली सीपी। मौक्तिकसरः (पुं०) मोतियों का हार। मौक्तिकायते-मोतियों
की प्रतीति होती है। (दयो० २/१) शुक्तिकोदरसम्प्राप्तो
वार्विन्दुमौक्तिकायते (दयो० २/१) मौक्तिकावलिः (स्त्री०) मोतियों की माला। (जयो०५/३०)
मौक्तिकानामावलिः (जयो० ५/३०) मौक्तिकोत्पत्तिः (स्त्री०) मोती की उत्पत्ति। (समु० ६/१३) मौक्यं (नपुं०) [मुक्+ष्यञ्] गूंगापन, मौन, मूकता। मौखरिः (पुं०) एक कुल विशेष। मौखर्यं (नपुं०) बकवास। (भक्ति० ४६)
गाली, झूठा, अरोप। निरर्थक वचन, बहुप्रलाप, प्रजल्पन। ०बातूनीपन, मुकरीभाव।
०बाचाल, अधिक बोलने वाला। मौख्यं (वि०) [मुख्+ष्यञ्] वरिष्ठता, श्रेष्ठता, प्रधानता। मध्य (वि०) मुग्धता, मूढ़ता, मूर्खता। मौचं (नपुं०) केले का फल। मौज (वि०) [मुंज+अण] मुंह की घास से निर्मित। मोजः (पुं०) मूंज का पत्ता। मौञ्जी (स्त्री०) मूंग की गांठ, तगड़ी। मौढ्यं (नपुं०) अज्ञान, जड़ता, मूर्खता। अविचरिता।(जयो०
२।८७) ०जाड्य। (जयो० २८७)
०अज्ञानतावश। (सुद० १२४) - लड़कपन। प्रपाठोऽस्ति मौढ्यस्य कार्यम्। (वीरो० १६/१८) मौढ्यसत्व (वि०) मूर्खता। (सुद० १०८) मौत्रं (नपुं०) [मूत्रस्येदम्] मूत्र की मात्रा। मौदकिकः (पुं०) [मोदक ठक्] हलवाई, कान्दयिक, कन्दोई।
मौद्गलि: (स्त्री०) [मुद्गत+इञ्] काक, कौवा। मौद्गीन (वि०) मूंग बौने की उपयुक्तता। मौनं (नपुं०) [मुनेर्भाव:-अण्] मुद्रण, मूकभाव। (जयो०
१/५४) मुख मुद्रणात्मक। (जयो० ११/५०) ०चुप्पी, चुप होना, शांत रहना। (समु० ७/१६) निष्क्रिय। तयोरथैकाकिताऽन्वये तु, शक्तिः पुनः सा खलु मौनमेतु। (सम्य० २३)
एकाग्र होना, मग्न होना। मौना जानामि नानादरिणी' रतौ
ना मौनं सम्मतिलक्षणम्। (जयो० १७/२३) मौनगत (वि०) ध्यानगत, शांत हुआ। मौनजाति (स्त्री०) मुद्रणमुत। (जयो० १८/३०) मौनत्यजी (वि.) मौन तोड़ने वाला, चुप्पी खोलने वाला। मौनदानं (नपुं०) चुप होना, शांत होना। मौनपदं (नपुं०) मौन भाव। (सुद० ४/१४) मौनभावः (पुं०) ०मौनधारण करना। ०ध्यानमग्न होना।
०एकागता रखना। मौनमुद्राः (स्त्री०) मौन धारण की अभिरुचि, शान्तस्थिति,
एकाग्रता का भाव। मौनवृत्ति। (जयो०वृ० २४/४२) मौनवृत्तिः (स्त्री०) मौनस्थिति, मौनमुद्रा। (जयो० २४/४२) मौनिन् (वि०) चुप रहने वाला, शान्त रहने वाला। मौनिनी (वि०) मौन युक्त, एकाग्रता युक्त। (जयो० १८३८) मौनिमनस् (नपुं०) शान्तमन, एकाग्रमन। (भक्ति० ३२) मौनी (वि०) वाग्विरहित, वचन से रहित, चुप रहने वाला।
(वीरो० ४/८). मौरजिक (वि०) [मुरज+ठक्] मृदंग बजाने वाला। मौयं (नपुं०) [मुर्खकष्यञ्] मूर्खता, मूढता, जड़ता। मौर्यः (पुं०) मौर्यवंश, चन्द्रगुप्त का कुल।
०मौर्य नामक ग्राम। (वीरो० १४७)
सातवें गणधर का नाम। (वीरो० १४/८) मौर्यपुत्रः (पुं०) सातवें गणधर, मौर्य की संतान। असूत माता
विजयाऽथपुत्रम्मौर्येण नाम्ना स हि मौर्यपुत्रः। (वीरो०
१४/८) मौर्यवंशी (वि.) मौर्यवंश वाले।
०चन्द्रगुप्त शासक का वंश। जो आचार्य भद्रबाहु के चरणों का सेवक और सम्पूर्ण भारत का अद्वितीय शासक था। (वीरो० २२/११) मौर्यस्य पुत्रमथ पौत्रमुपेत्य हिन्दु, स्थानस्य संस्कृतिरभूदधुनैकबिन्दुः।
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मौर्यस्थलं
८६४
म्लेच्छित
पश्चादनेकनरपालतया विभिन्न,
विश्वासवाञ्जनगणः समभूत्तु खिन्नः।। (वीरो० २२/१२) मौर्यस्थलं (नपुं०) मौर्य नायक स्थान। (वीरो० २२/७) (वीरो
१४/७) मौरिः (स्त्री०) मौलि, मुकुट। (जयो० १२/९) मौर्वी (स्त्री०) मौलिक, मूलभूत।
प्राचीन, पुराना। गुजरात का प्रसिद्ध स्थान, जहां चीनी मिट्टी की टाइल्स एवं अन्य सेनेटरी समान का उत्पादन
होता है। मौलिः (स्त्री०) मुकुट, शिरोमणि। (जयो० ६/५२) ताज, किरीट, मौर। (जयो०१२/९) प्रधान। शिरमोर। किसी वस्तु का अग्रभाग।
० चोटी, शिखा, केशविन्यास। मौलि (वि०) प्रमुख, मुख्य, प्रधान। मौलि (स्त्री०) भूमि, पृथिवी। मौलिमणिः (स्त्री०) मुकुटमणि। मौलिमालः (पुं०) शिरोभूषण। (वीरो० ३/१) मौलिरत्नं (नपुं०) मुकुट रत्न। मौलिशोणमणिः (स्त्री०) शिरोमुकुटमणि। (जयो० ७/५७) मौल्यं (नपुं०) [मूल्य+अण] कीमत। मौष्टा (स्त्री०) मुट्ठी मुक्केबाजी। मौष्टिकः (पुं०) [मुष्टि ठक्] ठग, धूर्त। मौसल (वि०) मूसल के सदृश। मौहूर्तिकः (पुं०) ज्योतिर्विद, ज्योतिषी। (जयो० १०/२) उत्तमोच्च
सकलग्रहनिष्ठे समये मोहूर्तिकोपदिष्टे। (वीरो० ६/३८) म्ना (सक०) याद करना, स्मरण करना, दुहराना।
०सोचना, विचारना, बोलना।
उल्लेख करना, निर्धारित करना।
०अध्ययन करना, सीखना। म्नात (भू०क०कृ०) [म्ना+क्त] स्मरण किया गया, दुहराया
गया। म्रक्षु (सक०) रगड़ना, साफ करना, प्रमार्जन करना।
०संचय करना, इकट्ठा करना। मिलाना, मिश्रण करना।
०लेप करना, मालिश करना। प्रक्षः (पुं०) [म्रक्ष्+घञ्] पाखण्ड, कपटाचार। म्रक्षणं (नपुं०) [मृक्ष ल्युट्] मृदुलतम् (जयो० १७/१२२)
लेप करना, सामना। संचय करना, तेल लगाना।
०चुपड़ना।
०तेल, मल्हम। प्रक्षित (वि०) चिकने, दूषित। मद् (सक०) पीसना, चूर्ण करना, रौंदना, कुचलना। प्रदिमन् (पुं०) [मृदोर्भावः इमनिच्]०मादेक। मिष्ठान्न। (जयो०
११/९६) मृदता, कोमलता, दुर्बलता। प्रदिमलक्षणं (नपुं०) मार्दव रूप। (जयो० ११/९६) प्रदीयसी (वि०) अति कोमलता, अधिक मृदुता। (जयो०
१३/५७) म्रञ्च (अक०) जाना। म्लक्ष (सक०) काटना, विभक्त करना, खण्ड खण्ड करना। म्लात (भू०क०कृ०) [म्लै+क्त] मुझाया हुआ, कुम्हलाया
हुआ। म्लान (भू०क०कृ०) [म्लैक्त+क्त] मुझाया हुआ, कुम्हलाया
हुआ। मलिन। (जयो० ४/११) गन्दा ।
०क्षीणकाय, कृश। म्लानमनस् (वि०) उत्सहहीन, क्षीणतायुक्त, हताश। म्लानिः (स्त्री०) [म्लै+क्तिन्] मुझाया, कुम्हलाना।
०हास, क्लान्त, थका।
खिन्न, उदासीन, क्षैथिल्य। म्लायत् (वि०) [म्लै+शतृ] कुम्हलाया हुआ। म्लायन्तिमलिनी
भवन्ति। (जयो० ६/५३) म्लायिन् (वि०) [म्लै+स्नु] मुाया हुआ।
०पतला, कृश होने वाला। म्लिष्ट (वि०) [म्लेच्छ+ क्त] असम्भ, अस्पष्ट, असंस्कृत। म्लिष्ट (नपुं०) असंस्कृत भाषण। म्लेच्छ (अक०) अस्पष्ट बोलना, असम्भ कहना। म्लेच्छः (पुं०) [म्लेच्छ+घञ्] अव्यक्त भाषी।
अनार्य, असम्भ। (हित० २७, जयो०वृ० २/१३०) निम्न, जाति बहिष्कृत।
पापी, दुष्ट। म्लेच्छखण्डः (नपुं०) अनार्यदेश। (जयो० ३/५) म्लेच्छजातिः (स्त्री०) असम्भजाति। अनार्य क्षेत्रगत उत्पत्ति। म्लेच्छदेशः (पुं०) अनार्यदेश, असम्भदेश। म्लेच्छभाषा (स्त्री०) असम्भ व्यवहार, निम्न कथन। म्लेच्छित (भू०क०कृ०) असम्भव्यवहारित।
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