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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धर्मकथा ५११ धर्मतीर्थंकर ० अधिकार, न्याय, औचित्य, निष्पक्षता। धर्मक्षेत्रं (नपुं०) धर्मभूमि। ० पवित्रता, शालीनता, अच्छा, सात्त्विक। (सुद० ४/१२) धर्मचरणं (नपुं०) उत्तमधर्मों का आचरण। ० नैतिकता। (समु० ४/२१) धर्मग्रहणं (नपुं०) धर्म स्वीकार करना। (समु० ४/२१) ० प्रकृति, स्वभाव, चरित्र गुण। (सुद० ) धर्मस्य तत्त्वं च | धर्मगृहैककेतु (स्त्री०) धर्म प्रसार की अद्वितीय ध्वजा। (वीरो० समीक्ष्य तावत्' (सुद० १०८) ११/६) प्रजासु आजीवनिकाभ्युपायमस्यादिषट्-कर्मविधि ० सत्संगति, समरूपता। विधाय। पुनः प्रवब्राज स मुक्तिहेतु-प्रयुक्तये धर्मगृहकैकेतुः। ० धर्म पुरुषार्थ (जयो०वृ० १/३) तत्रापि धर्मः प्रवरोऽस्ति (वीरो० ११/६) भूमौ न तं विना यद्भवतोऽर्थ-कामौ (दयो० २/२५) धर्मचक्रं (नपुं०) धर्म प्रवर्तन चक्र। दिशि यस्यामनुगमः 'किमु धर्म हि च नर्मशर्मणी वः' (जयो० १२/४८) धर्मः सम्भाव्योऽभूज्जिनेशिनः। तत्रैव धर्मचक्राख्यो वर्त्म वर्तयति खलु शर्महेतुरीष्यते जनानाम् (जयो० २३/४९) स्म सः।। (वीरो० १५/१३) हे धर्म चक्र तल संस्तव एष ० दया की प्रधानता-दयाविसुद्धो धम्मो। पातु पश्चात् भुवि क्व परचक्रकथास्तु जातु। दुष्कर्मचक्रमपि • आत्म-परिणाम-मोहक्खोह-विहीणो परिणामो अप्पणो यत्प्रलयं प्रायतु सिद्धिः समृद्धिसहिता स्वयमेव भातु।। (जयो० धम्मो। (भा०पा० ८१) १०/९८) ० सम्यक् दृष्टि वृषचक्र। वृषचक्रं धर्मचक्राख्यं रत्नं यत् किलापक्रमप्रभावस्य ० इष्ट स्थान को प्राप्त करने वाला-इष्ट स्थाने धत्ते इति दुर्मतप्रसारस्य प्रतियोगि प्रतिपक्षस्वरूपं यच्च योगिनं योगिनं धर्मः। (स०सि० ९/२) प्रति प्रभावद् भवति। (जयो०१२/४) ० अहिंसा आदिलक्षण धर्म। धर्मचर्या (स्त्री०) धार्मिक अनुष्ठान, धर्म आचरण। ० शुभ स्थान की प्राप्ति। (सम्य० ९८) धर्मचारिन् (वि०) भद्रव्यवहार करने वाला, धर्माचरणशील, ० अभ्युदय, निःश्रेयस सुख। सद्गुणी, सद्व्यवहारी। ० धर्म परिणाम, भाव, अवस्था, परिस्थिति, अन्त और | धर्मचारिन् (पुं०) श्रमण, साधु, मुनि, यति, साधक। तत्त्व ये एकार्थवाचक हैं। धर्मचारिणी (स्त्री०) पतिव्रता, नारी, पत्नी, भार्या। चारित्र धर्म, वस्तुस्वभाव धर्म। वत्थुसहावो धम्मो। धर्मचिंतनं (नपुं०) सद्गुणों का मनन, वस्तुस्वरूप का अध्ययन, ० धर्मद्रव्य-गमनशील जीव। (सम्य० १९) सात्त्विक विधिविधान का प्रतिपालन, नैतिक विचार, ० सम्यक्त्व-प्रभावेयेदेष सदा स्वधर्ममाप्नोति लोको यत आत्म-परिणाम पर विचार। एव शर्म (सम्य० ९६) धर्मचिंता (स्त्री०) आत्म-परिणाम का चिन्तन, वस्तुस्थिति ० धर्मात्मा विना धर्म नहीं-धर्मस्य संग्राहक एष यस्माद् ___ का मनन। धर्मात्मना नास्तु विना स तस्मात्। (सम्य० ९६) धर्मजः (पुं०) धर्म से उत्पन्न पुत्र। ० धर्म महापुरुष चरित्र चित्रण। (सम्य० ९७) धर्मजन्मन् (पुं) युधिष्ठिर।। ० वीतरागपने का नाम धर्म। (सम्य० ९८) धर्मजिज्ञासा (स्त्री०) सदाचरण की पृच्छा, उत्तम संस्कारों की ० भेद-विज्ञान। (सम्य० १०६) अभिलाषा। ० धर्म नाथ तीर्थंकर का नाम। (भक्ति० १९) धर्मजीवनं (नपुं०) धर्ममय जीविका, कर्तव्यनिष्ठ जीवन। धर्मकथा (स्त्री०) अनुयोग कथा, सदाचरण की कथा। धर्मज्ञ (वि०) धर्मज्ञाता, वस्तु स्वरूप का ज्ञाता, धार्मिक धर्मकर (वि०) धर्म करने वाला। विधिविज्ञ, पुण्यात्मा, धर्मपरायण, तत्त्वज्ञ, नीतिज्ञ। धर्मकर्मन् (नपुं०) धर्मपालन, सदाचरण का उपयोग, धार्मिक धर्मतरू (पुं०) कल्पवृक्ष। धर्मवृक्ष सर्वमेतच्च भव्यात्मन् विद्धि कर्त्तव्य, यज्ञानुष्ठान। (जयो० वृ० ३/१) धर्मतरोः फलम्। (सुद० ४/३९) 'मूलं धर्मतरोरबोहिमतिधर्म-कर्माध्यक्षः (पुं०) पुरोहित। (जयो०वृ० ३/१४) मन्यत्लादहिंसाव्रतम्' (मुनि० ५) धर्मकार्य (नपुं०) सदाचरण का कार्य। धर्मतीर्थं (नपुं०) धर्म प्रवर्तक। धर्मकोषः (पुं०) धर्मशास्त्र। धर्मतीर्थंकर (वि०) धर्म रूप तीर्थ के प्रवर्तन करने वाले। For Private and Personal Use Only
SR No.020130
Book TitleBruhad Sanskrit Hindi Shabda Kosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherNew Bharatiya Book Corporation
Publication Year2006
Total Pages450
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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