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तृणजलायुक्ता
तृष्
तृणजलायुक्ता (स्त्री०) तिवली का लार्वा। तृणजलूका देखें ऊपर। तृणता (वि०) १. कामुकता। तृणता कामुकेऽपि च इति
विश्वलोचनः (जयो० ८/४७) २. तृणपनातृणत्व (वि०) तृण पना, तुच्छता। (वीरो० १८/३५) तृणद्रुमः (पुं०) ताडवृक्ष, खजूर तरु, नारियल का पेड़, सुपारी |
का पेड़। तृणधान्यं (नपुं०) जंगली धान्य। तृणपीडं (नपुं०) तुच्छ पीड़ा। तृणपूली (स्त्री०) चढ़ाई, सरकण्डी का बना मूढा। तृणप्राय (वि०) उद्यमहीन, कार्य करने को अक्षम। तृणमणिः (स्त्री०) एक रत्न विशेष। तृणमत्कुणः (पुं०) जमानत। तृणराजः (पुं०) नारिकेल तरु। बांस, ईख। तृणवणाली (स्त्री०) तिनके का ढेर, तृण समूह। (दयो० ३८) तृणसंस्तरः (पुं०) तृण का बिछौना। तृणसारा (स्त्री०) कदली, केला का पादप। तृणसिंहः (पुं०) कुल्हाड़ा। तृणस्पर्शपरीषहजयः (पुं०) तृण स्पर्श के परीषह का सहन। तृणहर्म्यः (पुं०) घास की कुटिया, घास-फूस का घर। तृणाग्निः (स्त्री०) तिनके की आग। तृणाज्जनः (पुं०) गिरगिट। तृणाटवी (स्त्री०) घास वाला जंगल। तृणायित (वि०) अंकुरभावजन्य। (जयो० ६/४५) तृणावर्तः (पुं०) हवा का वेग, भभूल। तृणासृज् (नपुं०) सुगन्धित द्रव्य। तृणोत्कर (वि०) भूसा। (जयो० २/३) तृणोकस् (नपुं०) घास की झोपड़ी। तृण्या (स्त्री०) [तृण+य+टाप्] घास का ढेर। तृतीय (वि.) [त्रि+तीय] तीसरा। तृतीयं (नपुं०) तीसरा भाग। (जयो० ) तृतीयक (वि०) [तृतीय कन्] तीसरे दिन होने वाला। तृतीयकाण्डं (नपुं०) तीसरा अध्याय। तृतीयकूटः (पुं०) तीसरा शिखर। तृतीयखण्डः (पुं०) तीसरा खण्ड। तृतीयग्रहं (नपुं०) तीसरा प्रवेश भाग, तीसरा स्थान। तृतीय-पदं (नपुं०) तीसरा चरण, तृतीय भाग, तीसरा हिस्सा। तृतीयपादः (पुं०) तीसरा चरण।
तृतीयपुरुषार्थः (पुं०) तीसरा पुरुषार्थ काम। (जयो० १/८) तृतीय प्रतिमा (स्त्री०) तीसरी प्रतिमा, सामायिक प्रतिमा,
जिसमें प्रमादरहित होकर दोनों कालों के पूर्व दो प्रतिमाओं के अनुष्ठानपूर्वक तीन मास तक सामायिक का प्रतिपालन
करना। तृतीयभागः (पुं०) तीसरा हिस्सा। तृतीयमूलगुणः (पुं०) अचौर्य मूलगुण, किंचित् भी वस्तु का
ग्रहण न करना। तृतीयसर्गः (पुं०) तीसरा सर्ग/अध्याय। (जयो०वृ० १९०) तृतीय सम्पौरुषः (०) तृतीय का पुरुषार्थ। तृतीयस्य सम्पौरुषस्य
कामपुरुषार्थस्य (जयो० १७/५३) तृतीया (स्त्री०) [तृतीय+टाप्] १. चन्द्र पक्ष का तृतीय दिवस,
तीसरा दिन। २. करण कारक-विभक्ति चिह्न। तृतीयाकृत (वि०) तीन बार जीता गया। तृतीया-तत्पुरुषः (पुं०) करण कारक समास। तृतीयाप्रकृतिः (स्त्री०) हीजड़ा। तृतीयिन् (वि०) [तृतीय इनि] तीसरे अंश का अधिकारी। तृद् (सक०) फाड़ना, खण्ड-खण्ड करना, विदीर्ण करना,
चीरना, नष्ट करना, संहार करना। तर्दति, तृणत्ति। तृप ( अक०) तृप्त होना, संतुष्ट होना, प्रसन्न होना, सुख होना। तृपा (वि०) [तृप्+क्त] संतुष्ट, प्रसन्न, परिसंतोष युक्त। तृप्तिः (स्त्री०) [तृप्क्तिन्] संतोष, परितोष, आत्म संतुष्टि,
परितुष्टि। (हित सं०६) कुरु तृप्ति प्रक्लृप्ति हर स्वामिन्
तव देवाधिसेवां सदा यामि। (सुद०७३) तृप्तिकर (वि०) संतोष करने वाला, प्रसन्न होने वाला।
किमपि तृप्तिकरं भगवन्नतः। तृप्तिकारणं (नपुं०) संतुष्टि कारक। (जयो० २४/४२, समु०
___७/३०) तृप्तिजन्य (वि०) संतुष्ट हुआ। तप्तिधर (वि०) परितोष धारक। तुप्तिभावः (वि०) संतोष भाव। तुप्तिभृत (वि०) संतुष्ट। तृप्तिसार्थ (वि०) सन्तर्पणकारक। ॐ सत्यजाताय
स्वाहा-इत्यादिमयः स तृप्तिसार्थः सन्तर्पणकारकः (जाये०
१२/७२) तृष (अक०) प्यासा होना, इच्छा करना, लालयित होना,
कामना करना, संतुष्ट होना, उत्कण्ठित होना, संयुक्त होना, अभिलषित होना।
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