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पाशक:
६४४
पिंगल
पाशकः (पुं०) [पाश्यति पीडयति-पश्+णिच्+ण्वुल्] अक्ष, | पाषण्डिमूढता (स्त्री०) पाखण्डिमूढता, श्रमण होकर भी पांसा।
मंत्रादि शक्तियों की उपासना करना। पाशकला (स्त्री०) पाशक्षेपण, द्यूतक्रीड़ा, जुआ खेलना। (जयो० पाषाणः (पुं०) [पिनष्टि पिष् संचूर्णेन आनच्] प्रस्तर,
२०/७७) द्यूतक्रीडां पाशक्षेपणक्रियां करोति। (जयोवृ० पत्थर। (जयो०२/१२) (वीरो० २/१३) २०/७७)
पाषाण-कणं (नपुं०) पत्थर के टुकड़े, पत्थर के कण। पाशक्षेपणं (नपुं०) द्यूतक्रीड़ा। (जयो०७० २०/२७)
पाषाण दारकः (पुं०) छैनी, टॉकी। पाशनं (नपुं०) [पश्+णिच् ल्युट्] ०बंधन, जाल, फंदा, पत्थर काटने का औजार। पिंजरा।
पाषाणदारणः (पुं०) छैनी, टॉकी। डोरी, रज्जू, रस्सी।
पाषाण सन्धिः (स्त्री०) पत्थर की दरार। पाशपीशुं (नपुं०) जुआं का पाया, द्यूतक्रीडा का पाटा। पाषाणहृदय (वि०) कठोर हृदय, क्रूरहृदय, पत्थर की तरह पाशबंधः (पुं०) बन्धन, जाल।
कठोर हृदय। पाशबंधकः (पुं०) बन्धन, जाल।
पि (सक०) प्राप्त होना, परिभ्रमण करना, हिलना-जुलना। पाशबन्धनं (नपुं०) जाल।
पिकः (पुं०) [अपि कायति शब्दायते अपि+कै+क-अकारलोपः] पाशमुद्रा (स्त्री०) ध्यान की मुद्रा।
____ अलिपक। (जयो० २१/२६) (दयो० १२०) कोकिक, कोयला पाशवद्ध (वि०) जाल में फंसा हुआ। (जयो० ७/७७) पिकद्विजातिः (स्त्री०) कोयल पक्षियों का समूह। (वीरो० पाशरज्जु (स्त्री०) जाल, रस्सी, बेड़ी।
६/१९) कुहूः करोतीह पिकद्विजातिः स एष संखध्वपाशस्थ (वि०) बन्धन युक्त।
निराविभातिः। (वीरो० ६/१९) पाश हस्तः (पुं०) वरुण।
पिकबांधवः (पुं०) वसन्तऋतु। पाशविक (वि०) पशु सम्बंधी प्रवृत्ति वाला। (जयो० १२/१८९) पिकबन्धु (स्त्री०) कोयल की राग। पाशित (वि०) [पश्+णिच्+क्त] बेड़ियों से आबद्ध। पिकम कठिन् (वि०) मधुर कण्ठ वाली। पिष्कस्य कोकिलस्य पाशिन् (पुं०) [पाश इनि] वरुण, यम, बहेलिया।
मञ्जु मधुरं कण्ठ यस्याः सा। (जयो० १७/१८) पाशिन् (वि०) जाल में फंसाने वाला, पाशबद्ध। (जयो० पिकखः (पुं०) कोकिक कूक। (सुद० ८१)
२/७७) रज्जु बद्ध, पाश युक्त। (वीरो० १४/२२) पिकरागः (पुं०) कोयल की कूक। पाशुपत (वि०) [पशुपति+अण्] पाशुपत दर्शन से संबंधित। पिकस्वनः (पुं०) कोकिल शब्द। (वीरो०६/२२) जनीस्वनीतिः पाशपतं (नपुं०) पाशुपत सिद्धान्त।
स्मरमाणवेशः पिकस्वनः पञ्चम एष शेषः। (वीरो० ६/२२) पाशुपाल्यं (नपुं०) पशुपालक, ग्वाला की वृत्ति।
पिकवल्लभः (पुं०) आम्रवृक्षा पाश्चात्य (वि०) [पश्चात्+त्यक्] पश्चिमी संस्कृति वाला। पिकाङ्गना (पुं०) पिकी, कोकिला। (जयो० १०/११७) ०पश्चवर्ती।
पिकाननं (नपुं०) कोयलमुख। (जयो० ९/६९) पाश्चात्यं (नपुं०) पिछला भाग।
पिकानन्दः (पुं०) वसंत ऋतु। पाश्या (वि०) [पाश+य+टाप्] ०जाल, पिंजरा।
पिकी (स्त्री०) कोकिला। (दयो० २०) पाषण्डः (पुं०) [पात्रयोधर्मः, तं षंडयति-पा+षण्ड्+अच्] पिक्कः (पुं०) [पिकइत्यव्यक्तशब्देन कायति-पिक+कै+क] पाखण्ड।
हस्ति शवक। २० वर्ष का हस्तिशावक। पाषण्डकः (पुं०) [पाषण्ड+कन् पा+षड्+णिनि] धर्मभ्रष्ट | पिंगल (वि०) [पिंगं लाति ला+क] पीताभ, लालिमा। धर्मच्युता
पिंगल (पुं०) ०खाकी रंग, अग्नि, आग। पाषण्डस्थापना (स्त्री०) पाखण्ड की स्थापना। समणे य ०वानर, नेवला, उल्लू। पुंडुरंगे भिक्खू कावलिए अ तावसए। परिवायगे से तं
सर्प विशेष। पासंड णामे।। (जैन०ल. ७०८)
पिंगल नामक छन्दशास्त्र प्रणेता, प्राकृत-पैंगलं के पाषण्डिन् (वि.) पाखण्डता करने वाला। (सु० १०८)
रचनाकार।
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