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निगमानाभासः
५४९
निचुलक
निगमानाभासः (पुं०) साध्यधर्म का दृष्टान्तधर्मी में उपसंहार। ० पराजय, हार। निगरः (पुं०) [नि+गृ+अप्] निगलना, डकारना, गले उतारना। ० नष्ट करना, दूर करना। निगरणं (नपुं०) [नि++ ल्युट्] निगलना, गले उतारना।
० दण्ड। -स्वेच्छाप्रवृत्तिनिवर्तनम्। निगरणः (पुं०) गला, कण्ठ भाग।
- प्राकाम्याभावो निग्रहःनिगलः (पुं०) [निगरं, निगार-रलयोरभेद:] • निगलना, उतारना।
- स्वपक्षसिद्धिरेकस्य निग्रहोऽन्यवादिनः। सांकल। (दयो०६५) ० गला, कण्ठभाग तत्तदाप्य निगले
- निग्रहो वादि-प्रतिवादिनो। हि विभूनामर्पणीयमिति युक्तिरनूना। (जयो०४/३२) 'निगले
निग्रहकारिन् (वि०) निग्रह करने वाला। (मुनि० २) कण्ठभागेऽर्पणीयम्' (जयो०७० ४/३२) मालां जयस्य
निग्रहणं (नपुं०) परिहार। पराजययस्यासतां निग्रहणे च निष्ठा निगले वदति क्षेप्तुं किल स्मरः स्मर माम्। (जयो०
मतां सतां संग्रहणे घनिष्ठा। (जयो० १/१६) ६/११७) भुजपाशेन दृढन्तं वधान निगलेऽत्र विलसन्तम्।
निग्रहण (वि०) दबाने वाला। (जयो० १६/६०) निगालनं (नपुं०) धावन, ०धोना, प्रक्षालन अमिसिञ्चना।
निग्राहः (पुं०) [नि+ग्रह्+घञ्] दण्ड, सजा।
निग्रहबुद्धिः (स्त्री०) द्वेष से पीडित होना, व्यर्थ उपवासादि (जयो० १२/१३२) निगीयते दिलाना, (समु०)
करना। निगीर्ण (भू०क०कृ०) [नि+गृ+क्त] निगला हुआ, डकारा
निग्रहस्थानं (नपुं०) अपने पक्ष का निराकृत होना। हुआ, छिपा हुआ, गुप्त।
निघ (वि०) [नि+हन्] एक सा। निगूढ (वि०) [नि+गुह्+क्त] ० रहस्यपूर्ण, प्रच्छिन्न, ढका निघः (पुं०) गेंद, कन्दुक। हुआ। ० गुप्त, अदृश्य। (जयो० १२/५९)
निघंटुः (स्त्री०) [नि+घण्ट् कु] शब्दावली, एक ग्रन्थ विशेष। -अतिनिगूढपदं स पुनः कुतश्चतुरशीतिकलक्षभवेष्वतः' निघर्षः (पुं०) [नि+घृष्+घञ्] रगड़ना, घर्षण, घोटना। (समु० ७/८)
(जयो० ५/७८) निगृहनं (नपुं०) [नि+गुह्+ल्युट्] छिपाना, दुराना।
निघर्षकुण्डी (स्त्री०) घोटने का साधन। निगोदं (नपुं०) जीवों का आश्रय विशेष स्थान, जीवों का | निघर्षणं (नपुं०) रगड़ना, घर्षण करना।
नियत स्थान। 'नियतां गां भूमि क्षेत्रं निवासमनन्तानन्तजीवानां निघसः (पुं०) ० लाना, ० भोजन करना। ददातीति निगोदम्। (गो जी०टी० १९१)
निघातः (पुं०) [नि+हन्+घञ्] प्रहार, अभिघात, दमन, क्षय निगोदजीवः (पुं०) साधारण रूप में एक ही शरीर वाला
नाश, अभाव। जीव, जो निगोद भाव से जाते हैं। ‘णिगोदेसु जीवंतु,
निघातिः (स्त्री०) [नि+हन्+डूञ्] लोहे का गदा, मुद्गर। जिगोदभावेण वा जीवंति त्ति णिगोदजीवा' (धव० ७/६०६)
निघुष्टंक (नपुं०) [नि+घुष्+क्त] ध्वनि शब्द। निगोदशरीरं (नपुं०) निगोद का शरीर।
निघूर्णा (स्त्री०) चालन, संचालन। (जयो० ३/६१) निगोप (वि०) सुरक्षित, रक्षित, गुप्त। (वीरो० १८/४१)
निघ्न (वि०) [नि+हन्+क] ० आज्ञाकारी, अनुसेवी, आश्रित। _ 'सन्निधानमिवाऽऽभान्तं यत्नेनैवं निगोपय (सुद० १०४)
० संहारक, संकटहरण। (जयो० १०/१५) निगोपयन्-छिपना, ढकना, आच्छादित करना। (जयो० २४/३८)
निचयः (पुं०) [नि+चि+अच्] संग्रह, समूह, समुदाय, राशि, निग्गंथनाठपुत्तः (पुं०) महावीर। (वीरो० २०/२२)
ढेर, समुच्चय, ओघ। निग्रंथनं (नपुं०) [नि+ग्रन्थ्+ल्युट्] वध, हत्या। निग्रह (सक०) रोकना, ०वश में करना, आधीन करना आज्रय
निचायः (पुं०) [नि+चि+घञ्] समूह, ढेर, समुदाय। बनाना (सुद०१/२७)
निचित (भू०क०कृ०) [नि+चि+क्त] ० संचय, पूरित, ०भरा निग्रहः (पुं०) [नि+ग्रह+अप] एकाग्रता, स्थिरीभाव।
हुआ। (जयो० २३/५९) ० आच्छादित, फैला हुआ। ० निरोध, रोका
० उठाया हुआ। ० निराकृत, निराकरण।
निचुम्बनं (नपुं०) चुम्बन का समय। (जयो० १७/२८) नियन्त्रण, दमन।
निचुलः (पुं०) चोली, चादर, चुन्नी। ० दबाना, कुचलना, रोकना।
निचुलकं (नपुं०) चोली, वक्षत्राण, अंगिया।
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