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पिनद्ध
६४८
पिशाचकिन्
पिनद्ध (भू०क०कृ.) [अपि+न+क्त] प्रच्छन्न, आवृत्त, | पिपीलकः (पुं०) [पिपील+कन्] मकोड़ा, चींटी। ढका हुआ, आच्छादित।
पिपीलिकः (पुं०) चींटा। ०आवेष्टित, लपेटा हुआ।
पिपीलिकं (नपुं०) स्वर्ण विशेष। सुसज्जित, अलंकृत।
पिपीलिका (स्त्री०) चींटी, चींटा, मकोड़ा। (दयो०५०) ०चुभाया हुआ।
पिपीलिकाली (स्त्री०) चीटियों की पंक्ति। पिपीलिकालीक्रमकृत् पिनाकः (पुं०) [पा रक्षणे आकान् नुट् धातोरात इत्वस्] प्रशस्तिर्विनिर्गता नाभिबिलात्समस्ति। (जयो० ११/३३) शिवधनुष, त्रिशूल। ०छड़ी।
पिपीलिकानामाली सन्ततिपिपीलिकानिर्गममिति निसर्गः पिनाकं (नपुं०) शिवधनुष, त्रिशूल।
(जयो०वृ० ११/३३) पिनाकगोप्तृ (पुं०) शिव। महादेव।
पिप्पलः (पुं०) पीपल का पेड़। चुचूक (जयो० १२/१०६) पिनाकपाणिः (पुं०) शिव।
(हित०सं० ४७) पिनाकित् (पुं०) [पिनाक+इनि] शिव, महादेव। (जयो० १/८) | पिप्पलं (नपुं०) पीपल की बरबंटा। पिपतिषत् (पुं०) [पत्+सन्+शत] पक्षी, खग।
पिप्पलकुपलं (नपुं०) पीपल की कोपल। पिप्पलकुंपलकुलौ पिपतिषु (वि०) ०पतनशील, गिरने की इच्छा करने वाला। मृदुलाणी विलसत एतौ सुदृशः पाणी। (जयो० १२/१०६) पिपतिषुः (पुं०) खग, पक्षी।
पिप्पलिः (स्त्री०) पीपर, एक औषधि, काली पीपर, गांठ पिपासा (स्त्री०) [पा+सन्+अ+टाप्] प्यास, तृष्णा। | पीपर। __(जयो०१० २२/६६)
पिप्पिका (स्त्री०) दाँतों के ऊपर जमी हुई पपड़ी, दंत-मल। पिपासाकुलित (वि०) अभिलाषावान्, तृष्णावान्। (जयो० पिप्लुः (स्त्री०) निशान, तिल, मस्सा। ११/५९)
पियालः (पुं०) एक वृक्ष विशेष चारौली वृक्ष। पिपासापहारक (वि०) तृष्णा शान्त करने वाला, प्यास बुझाने पियालं (नपुं०) चारौली, चिरौंजी। वाला।
पिल् (सक०) भेजना, फेकना डालना। पिपासापरीषहजयः (पुं०) एक परीषह का भेद।
०चलना फिरना। पिपासित (वि). [पा+सन्+क्त] प्यासा, सतृष, सतृप, तृष्णा उत्तेजित करना, उकसाना।
(जयो०वृ० ११/५) 'सतृषः पिपातितस्य तव खलु पिल्ल (वि.) आंखों में अंधेरा छाना, चौंधयाने वाला। सर्वतोमुखमुदकञ्च' (जयो०वृ० ११२/१११)
पिल्लका (स्त्री०) [पिल्ल+कै+क+टाप्] हथिनी। पिपासिन् (वि०) [पिपासा+इनि] ०प्यासा, तृष्णावान्, पिश (अक०) ०रूप देना, ०बनाना, निर्माण करना। ०वाञ्छायुक्त।
०संगठित होना। पिपासु (वि०) [पि पा+सन्+3] ०पीने की इच्छा करने ०प्रकाश करना। वाला-पातुमिच्छु (जयो० २/१२८)
पिशंग (वि०) [पिश्+अंगच्+किच्च] खाकी रंग का, भूरे रंग ०आस्वादन के इच्छुक-आस्वादयितुमिच्छु (जयो०वृ० वाला। १२/११९) तव सम्मुखमसम्यहं पिपासुः सुदतीत्थं गदितापि पिशंगकः (पुं०) [पिशंग+कन्] विष्णु। मुग्धिकाशु। (जयो० १२/११९) गत्वा प्रतोली शिखरान पिशनिता (वि०) पीतता, पीलापन। 'मकरन्दरजः पिशङ्गिताः लग्नेदु-कान्तनिर्यज्जलमापिपासुः (वीरो० २/३४) 'सुधा स्मरधूमेन्द्रकणा उदिङ्गिताः। (जयो० १३/६२) मिवेत्थं सपिपासुरस्तु' (सम्य० ४३) 'जलपानेच्छा पिशाचः (पुं०) व्यन्तरदेव। पिशाचाः सुरूपाः सौम्यदर्शना पातुमिच्छति पिपासति पिपासतीति पिपासुः' (जयो० हस्तग्रीवासु मणिरत्नविभूषणाः कदम्बवृक्षध्वजाः' (त०भा० १३/९३)
४/१२) पिपिप्रिया (स्त्री०) अस्पष्ट वाणी। वध्वा ददेदेहि पिपिप्रियेति पिशाचः (पुं०) [पिशिताचमतिआ+चम्] भूत, बैताल, प्रेत, मदोक्तिरेषालि मुदे निरेतिः। (जयो० १६/५०)
दुष्टात्मा। (मुनि० ३) पिपीलः (पुं०) चिंटा, चींटी। (मुनि० १३)
पिशाचकिन् (पुं०) [पिशाच इनि कुक्] कुबेर।
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