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दीधी
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दीपता
दीधी (अक०) चमकना, दिखाई देना, प्रतीत होना।
अम्भोजान्तरितोऽलिरेवमधुना दीपे पतङ्ग पतन्। (सुद० दीन (वि०) [दी+क्त तस्य न:] १. दरिद्र, गरीब, निर्धन। २. १२७) रवि प्रतीपश्च निशासु दीप:' (सुद० १२७)
निर्बल, बलहीन। (समु० ३/२०) ३. खिन्न, अनाथ ० पूजा के निमित्त बनाई गई सामग्री छटा दीप जिसके (सम्य० ७७) उदास, शोकग्रस्त, भीरु, डरा हुआ। ३. चढ़ाने पर पूजक यह भाव व्यक्त करता है कि 'शुद्धसर्पिषः रहित-'सदास्यहं सिद्धवदगी हीनः ज्ञानैकता नो न तु जातु कर्पूरस्याप्युत माणिक्य कलायाः। प्रज्ज्वालयेयमिह दीन:।। (भक्ति० २९) 'विभेति मरणाद्दीनो न दीपकमहमग्रे जिनमुद्रायाः हतिः स्याच्चितनिशाया' अर्थात् दीनोऽथामृतस्थितिः' (वीरो० १०/३०) उक्त पंक्ति में शुद्ध घृत, (सुद० ७२) कर्पूर एवं रत्नमय दीपक लाकर 'दीन' का अर्थ निर्बल, बलहीन है।
जिनमुद्रा के आगे जलाऊ, जिससे कि मेरे मन का बन्धु-बन्धुरमनो विनोदयन् दीन-हीन-जगमुन्नयन्नम्। (जयो० अन्धकार विनष्ट हो और ज्ञान का प्रकाश फैले। ३/६) शोकग्रस्त-खिन्न 'दीनाः पुनः 'दीङ् क्षये' इति दीपक (वि०) [दीप्+णिच्+ण्वुल] समुद्योतकर (जयो० वचनात् क्षीण-सकल, धमार्थकामाराधवशक्त्यः । ३३/३८) प्रज्ज्वलित करने वाला, प्रकाश करने वाला, (जै०ल.पृ० ५२२) कृत्वाऽत्रममाम्बुजसग्बिहीनां सरोवरी आभा फैलाने वाला। (सम्य० १५६) मङ्गज! किन्नु दीनाम्। (समु० ३/१३)
दीपकः (पुं०) दिया, दीवा, प्रकाश स्तम्भ। (सुद० ७२) ० दयनीय, शोचनीय, क्षुद्र।
नानुवर्तिनि रवौ प्रतियाते दीपके मतिरुदेति विभाते। (जयो० दीनः (पुं०) १. गरीब, दु:खी आदमी, निर्धन, २. भावजन्य।
५/२५) दीनजन (पुं०) कष्टजन्य लोग, अभावग्रस्त मनुष्या स्वयशांसि दीपकजीवः (पुं०) स्नेह, मैल। (जयो० २५/७४)
च तावदक्षिणोषि सततं दीनजनाय दक्षिणोऽसि। (जयो० दीपकल्लिका (वि०) दीपक की लौ। १२/९५)
दीपकल्पः (वि०) दीप सदृश, दीपक के समान। (सुद० दीनता (वि०) हीनता, खिन्नता, उदासीनता। (वीरो०२/४१) ७/१२) दीनदशा (स्त्री०) दैन्यभाव, (दयो० १/१९) हीन अवस्था, दीपक-श्लेषः (पुं०) दीपक श्लेष अलंकार। कलापकं जयस्वान्तं निर्बलदशा।
रूपमाला सुलोचनाम्। संवदामि यत: शोभां जगतः संस्कृतस्य दीनदानं (नपुं०) तुच्छ दान, खिन्न मन से वस्तुदान।
हि।। (जयो० २२/८६) उक्त श्लोक में एक ही शब्द के दीनधनं (नपुं०) तुच्छ धन।
दो अर्थ है, तथा एक ही क्रिया से आदि, मध्य एवं अन्त दीनबन्धु (नपुं०) दीन-दुःखियों का मित्र।
में सम्बन्ध है। दीनवत्सल (वि०) दीन दयालु, दीन/निर्धनों का हितैषी, निर्बलों | दीपकालङ्कारः (पुं०) दीपक अलंकार (जयो० २१/२, १६/४६) का सहभागी। बलहीनजनों का सेवक।
आदिमध्यान्तव]क-पदार्थनार्थसङ्गतिः। वाक्यस्य यत्र जायेत दीनस्वरः (पुं०) करुण स्वर, ध्वनि, कष्टमय स्वर। 'अथैकदा तदुक्तं दीपक यथा। (भट्टालंकार ४/९८) अर्थात् जिस
भूमिरुहोपरिष्टात्स्थितस्य दीनस्वर-सम्विशिष्टाम्।' (समु० स्थान पर आदि, मध्य और अन्त में रहने वाली एक क्रिया ३/३७)
से वाक्य का सम्बन्ध उत्पन्न होता है, वहां 'दीपक' दीनारः (पुं०) १. अशर्फी, २. एक सोने का सिक्का। ३. अलंकार होता है। दिक्षु शून्यतमतां वितरीतुं सत्तमैर्नृप सुतां आभूषण। (दयो० ८९)
तु वरीतुम्। दर्शकैरपि परैरपहर्तुं तानितं तदितरैः परिकर्तुम्।। दीनोद्धरणं (नपुं०) निर्धनों का उद्धार। दधार दीनोद्धरणं (जयो० ५/२) __स्वतन्वाऽर्हन्तं हृदा सत्यवचा भवन्वा। (समु०६/३७) दीपकिट्टिम् (नपुं०) दीपक का फूल। दीप् (अक०) ० चमकना, झलना, दहकना, प्रज्ज्वलित होना। दीपकिट्टिमा (स्त्री०) दीपक की कालिमा। ० बढ़ना, आग बबूला होना।
दीपकूपी (स्त्री०) दीपक की बत्ती। दीपः (पू) [दीप णिच्+अच] लौ, ज्वाला, प्रकाश, दीपक, दीपश्वरी (स्त्री०) दीपक की बत्ती।
दिया, दीवा। (सुद० १२७) दीप्यता स्नेहेन दीप्यतां तावत् दीपता (वि०) प्रकाशित होने वाला, सुशोभित, प्रज्वलित, का दशा स्यात्पुन:। (जयो० ७/३०) | अभिभासित।
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