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भासुर-कपोल:
७८६
भिद
भासुर-कपोलः (पुं०) देदीप्यमान गण्डप्रदेश। (जयो०
१८/१०३) भास्करः (पुं०) [भा इव भाः प्रज्ञा तत्कारकः] जयो० १/९६)
सूर्य, रवि, दिनकर, (जयो० ११/७०) जगति भास्कर एष नरर्षभो भवति भव्यपयोरुहवल्लभः। (जयो० १/६९)
'भवभयहरजिनभास्करतः' (सुद० ५/१) भास्कराख्यसुरः (पुं०) भास्कर नामक देव, देवविमान।
(समु०५/१४) भास्मन् (वि०) [भस्मन्+अण] राख से निर्मित। भास्वत् (वि०) तेजस्विन्, चमकदार, देदीप्यमान। भास्वतः (पुं०) सूर्य, रवि। भास्वतः समुदयप्रकाशिनः
क्षौद्रलेशपरिमुग्विकाशिनः। (जयो० ३/१३)
प्रभाः कान्ति, आभा। (दयो० १/१३) भास्वदङ्गता (वि०) द्वादशांग वाणी से युक्त।
सुंदर अंगों से परिपूर्ण। देवदत्ता सुवाणीं सुवित् सेवय, चतुराख्यानेष्वभ्यनु यौकत्री भास्वदङ्गतामिह भावय।। (सुद०
१२२) भास्वन्तः (पुं०) रवि, सूर्य। भास्वन्तं भुवि वेशश्चायं ज्येष्ठो
जडतापकरणाय। (जयो० २२/१७) । भास्वर (वि०) [भास्+वरच्] देदीप्यमान, चमकदार, द्युतिवंत,
कान्तिमान, सुषमावान्। (जयो०वृ० १/५५) भास्वर (पुं०) दिनकर, रवि, सूर्य।
दिन। भास्वरत्व (वि०) सूर्यखण्डप्रवृति, देदीप्यमान होने वाला। भास्वान् (वि०) सुषमावान्। भास्वान् पवित्राणि रहःकृतानि
(जयो०वृ० १७/२) सूर्य, रवि, दिनकर। (जयो०वृ० १७/२) 'भास्वानासनमापाद्या
थोदयादिमिवोन्नतम्।' (सुद०७८) भिक्षु (सक०) ०पूंछना, प्रार्थना करना।
याचना करना, मांगना। भिक्षणं (नपुं०) [भिक्ष ल्युट्] भिक्षा मांगना, भिक्षावृत्ति,
याचनाभाव। भिक्षा (स्त्री०) [भिश्+अ+टाप] ०याचना, मांगना, प्रार्थना
करना। (सुद० ११७)
सेवा, पारश्रमिक। (दयो० ४२) भिक्षाकः (पुं०) [भिक्ष्क्षाकन्] भिक्षुक, भिखारी, साधु। भिक्षाटनं (नपुं०) भीख मांगते हुए घूमना। भिक्षा के लिए
घूमना। भिक्षानिमित्तं (नपुं०) भिक्षाचर्या के कारण। (दयो० ४५)
भिक्षान्न (वि०) भीख में मांगा गया अन्न। भिक्षायनं (नपुं०) भिक्षाटन। भिक्षार्थिन् (वि०) भीख मांगने वाला। भिक्षार्थिन् (पुं०) भिखारी, याचक, भिक्षुक। भिक्षार्ह (वि०) भिक्षा का पात्र, दान योग्य। भिक्षासाधन (नपुं०) भिक्षा का साधन। (समु० ९/१२१) भिक्षावृत्तिः (स्त्री०) भीख से आजीविका। व्याचक भाव। भिक्षासिद्वान्तं (नपुं०) भिक्षा चर्या का पालन। (जयो०७/३२) भिक्षित (भू०क०कृ०) [भिक्ष्+क्त] मांगा गया, याचित। भिक्षः (पुं०) भिखारी, याचक। (दयो० १६) ०, साधु, भिक्षणशीला, संयत, साधन, परित्यागी।
आरम्भपरित्यागधर्मी। ०संयम से उद्यत, संयम परिपालन में प्रवीण। ०अष्टप्रकार के क्षुधा कर्म को भेदने वाला। 'भिनत्ति
वाऽष्टप्रकारं कर्मेति भिक्षुः' (जैन०ल० ८६५) भिक्षुचर्या (स्त्री०) भिक्षा मांगना, साधक चर्या, श्रमण चर्या। भिक्षुनिमित्त (वि०) साधक के प्रयोजनार्थ। (जयो० १८) भिक्षुसङ्घः (पुं०) साधक समूह, श्रमण संघ। भिज्ञ (वि०) जानने वाला। (सम्य० ३२) ०प्रज्ञ, ज्ञ। भित्तं (नपुं०) [भिद्+क्त]०खण्ड, भाग, हिस्सा, अंश।
दीवार, विभाजक रेखा। भित्तिः (स्त्री०) दीवार, विभाजन रेखा। ०खण्ड, अंश, भाग,
हिस्सा।
०लव, दरार, तरड। भित्तिकर्मन् (नपुं०) दीवार पर की जाने वाली क्रिया, रंगक्रिया,
भित्तिचित्रक्रिया। भित्तिका (स्त्री०) [भिद्+क्तिन+टाप] ०दीवार, विभाजन।
(जयो० ३/४०) भिद् (सक०) बांटना, रेखांकित करना, विभाजित करना।
विदीर्ण करना। भिनत्ति-विदारमति (जयो० ९/३३)
भेदना (समु० १/५) समस्तु दुर्दैवभिदेकृपाणी। (समु० १/३)
तोड़ना, फाड़ना, छिद्र करना। (जयो० २४/१९) ०खोदना, उखाड़ना, टुकड़े करना। ०बांटना, पृथक्-पृथक् करना। जलेऽब्जिपत्रवदत्र भिन्नः इष्टेऽप्यनिष्टेऽपि न जातु खिन्नः। (वीरो० १४/४०) उल्लंघन करना, अतिक्रमण करना।
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