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सामान्य दोष क्षमा मागनेकी प्रस्तावनाकी प्रचलित रूढोके अनुसरण करनेके उपरान्त भी बारहवें और तेरहवें अधिकारके लिये विशेषतया ऐसा करनेकी आवश्यकता प्रतीत हुई है। सूरिमहाराजने जिस गंभीरता और लग्नीसे इस अधिकारको लिखा है उसके समझनेका प्रयत्न करनेके लिये विशेषतया निवेदन है।
चौदहवां अधिकार मिथ्यात्वादि संवरका है। पांच प्रकारके मिथ्यात्वका स्वरूप बतलाकर फिर मन, वचन और कायाके योगों
पर अंकुश लगानेका उपदेश किया गया है। मन. १४ संवर योगपर तन्दुलमत्स्य और प्रसन्नचन्द्रकी कथायें
विचारने योग्य हैं, वचनयोगपर वसुराजाका दष्टान्त मनन करने योग्य है, तथा काययोगपर कच्छयेकी कथा चिन्तन करने योग्य है। तत्पश्चात् इन्द्रियसंयमपर पुष्कल विवेचन कर कषाय संवर करनेका उपदेश करते हैं जिस पर कुरट और उत्कुरट मुनिको दृष्टान्त देकर अत्यन्त उपयोगी बोध किया गया है । अन्तमें निःसंगता प्राप्त करनेके लिये प्रेरणा की जाती है।
पन्द्रहवां अधिकार शुभवृत्तिशिक्षाका है । प्रतिदिन दोनों समय छ अावश्यक करने, तपस्या कर कर्म निर्जरा करना, शालांग
धारण करना, योगरंधन करना, उपसर्ग सहन १५ शुभप्रवृत्ति करना, स्वाध्याय ध्यान करना, उपदेश देना,
आत्म निरीक्षण करना आदि शुभप्रवृत्तिके अनेक शुभ प्रकार बतलाकर वैसा करनेवालेको भविष्यमे किस प्रकारके लाभ होते हैं उसकी ओर विशेषतया ध्यान खिचो गया है। इस अधिकारमें जो जो प्रचुनि (छटक) (misllaneous ) विषय बतलाये गये हैं वे भी अत्यन्त उपयोगी पार मनन करनेके योग्य हैं। __ सोलहवें और अन्तिम साम्यसर्वस्य अधिकारमें सम्पूर्ण ग्रन्थका साररूप समताको रखने का उपदेश किया गया है । समताके परिणाममें
किस प्रकार सुख मिलता है और वह सुख भी १६ साम्य. किस प्रकारका है यह सब अत्यन्त उत्तम रीतिसे
बतलाया गया है। मोक्षके स्वरूपको विवेचनमें बसलाकर यह सिद्ध किया गया है कि इसके प्राप्त करनेका. एक. मात्र साधन समता है। इस अधिकारमें समतारसकी वानकी