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अधिकार] .. धर्मशुद्धिः
[४२१ ही सामान्य पुरुष दोन मादि धर्म करते हैं, परन्तु ये धर्म मलीन हैं; इसलिये इनकी उपेक्षा कर शुद्ध सुकृत्य थोड़ा-सा एक एक मणुमात्र ही कर ।"
वंशस्थविन. विवेचन-मद, विषय, कषाय, विकथा और निद्रा ये पांच प्रमाद हैं । परऋद्धि अथवा गौरव तरफ ईर्षा, मत्सर और दृष्टिराग आदि मिथ्यात्व कहलाते हैं। इनके लिये जीव दान, शील, तप आदि करता है । मिथ्यात्वसे मानता करता है, दृष्टिरागसे हजारों रुपया भोगी भ्रमरके आगे समर्पण करदेता है, अज्ञानसे लंघन कर कायक्लेश करता है, अहंकारसे नामके लिये लाखों रुपये उड़ा देता है और वर्तमानपत्रमें नाम आनेके लिये बहुत बड़ी २ रकम. फँडमें दान करता है; परन्तु इस प्रकारसे किया हुमा धर्मकार्य कलंकित होता है, चन्द्रमें कलंकके समान है, सोनेकी थाली में लोहेकी मेख है, अनादरणीय है, इष्टफलको रोकनेवाला है और संसारजालमें फंसानेवाला है ।
यदि तुझे सचमुच अपना काम सिद्ध करना है तो अल्प समयभी शुद्ध धर्म कर । उपर कहे हुए किसी भी पौद्गलिक भावको परित्याग करदे, संसारबन्धनको काट डाल । फिर तू खूबी देखना । तुझे उस समय तेरे मनमें ऐसा अपूर्व आनंद होगा कि तूने अपने सम्पूर्ण जीवन में वैसे आनंदका कभी भी अनुभव नहीं किया होगा । शुद्ध चैतन्यशक्तिमें रमण करना आत्मिकदशा है और ऐसी दशा एक बार अवश्य प्राप्त कर । फिर क्या करना चाहिये यह तुझे अपने आप मालूम हो जायगा ।
___ इस श्लोकका गहरा रहस्य विचारने योग्य है । बड़ी बड़ी पुस्तके पढ़ने योग्य ज्ञानोपार्जन निमित्त उनके नियमोंको सिखनेकी आवश्यकता है, और सुन्दर मन्दिर बनने निमित्ते पाये खोदने जैसा काम करनेकी आवश्यकता है। नियम जाने बिना और