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४६२ ] अध्यात्मकल्पद्रुम
[द्वादश साथै निरर्थमपि च प्रचिनोष्यघानि,
मूल्येन केन तदमुत्र समीहसे शम् ? ॥ १३ ॥
" हे माई ! तू भक्तिसे श्री जिनेश्वर भगवानकी पूजा नही करता है; वैसी हि उत्तम गुरुमहाराजकी भी सेवा नहीं करता है; सदैव धर्मका श्रवण नहीं करता है। विरति (पापसे पिछे हठना-व्रत पञ्चख्खाण करना ) को तो धारण भी नहीं करता है। अपितु प्रयोजन अथवा बिना प्रयोजनसे ही पापकी पुष्टि करता है तो फिर तू किस किमतसे भविष्य भवमें सुख प्राप्त करनेकी अभिलाषा रखता है ?" वसंततिलका.
विवेचन-हे भाई ! तू प्रभुकी पूजा नहीं करता है, तथा सुगुरुकी सेवा तथा उनसे धर्मको श्रवण नहीं करता है; तदुपरान्त एक दिन भी त्यागवृत्ति नहीं करता है; इन्द्रियों के विषयोंको भोगनेमें अहर्निश आसक्त रहता है; किसी भी प्रसंगके उपस्थित होनेपर पापकार्य करने लगता है; पुत्रके लग्न अथवा व्यवहारके किसी भी बहानेका अवसर मिलने पर हिंसा, क्रोध, अभिमान करने लग जाता है और वैसा आवश्यक प्रसंग आता है तब तुझे धर्मका लक्ष्य भी नहीं रहता है । अपितु प्रसंग विना ही अनर्थदंडसे दंडित होता है। नाटक देखने, सर्कस देखने, हवेलिये देखकर उनकी प्रशंसा करने, राजकथा तथा लड़ाइकी बातें किया करना प्रादिसे व्यर्थ पापराशिका संचय करता है।
___ इसप्रकार शुद्ध देव-गुरु-धर्मका अाराधन नही करता है, इन्द्रियदमन नहीं करता है और कारण अकारणसे महापापोंका संचय करता है । सर्व प्राणी सुखकी अभिलाषा रखते हैं और इसमें भी वर्तमानमें सुख हो या न हो परन्तु सुख प्राप्त करनेकी अभिलाषा तो सबको रहती ही है; परन्तु हे भाई ! सुख तो विक्रीकी वस्तु है जिससे खरीदने के लिये पुण्यधनकी आवश्यकता