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अध्यात्मकल्पद्रुम [प्रयोदश आदिमा च ददते भवं परा, __ मुक्तिमाश्रय तदिच्छयैकिकाम् ॥२९॥
" वस्त्र, पात्र, शरीर या पुस्तक आदिकी शोभा करनेसे संयमकी शोभा नहीं हो सकती है। प्रथम प्रकारकी शोभा भववृद्धि करती है और दूसरे प्रकारकी शोभा मोक्षप्राप्ति कराती है । अतएव इन दोनों मेंसे किसी एककीजिसकी की तुझे अभिलाषा हो उसकी-शोभा कर | अथवा उसके लिये तू वस्त्र, पुस्तक आदिकी शोभाका त्याग कर । हे यति ! मोक्ष प्राप्त करनेकी अभिलाषा रखनेवाला तू संयमकी शोभाके लिये यत्न क्यों नहीं करता है ?" उपजाति
विवेचन-शोभा दो प्रकारकी है। बाह्य शोभा और आन्तरिक शोभा । संसारवृद्धिके कारण बाह्य शोभाका परित्याग कर, परिग्रह, ममता आदिका त्याग कर, आन्तरिक शोभाके लिये प्रयास कर । सत्तर प्रकारकी शोभा अथवा चरणसित्तरी
और करणसित्तरीकी शोभा करना ही तेरा कर्तव्य है। इसके अतिरिक्त यह भी ध्यानमें रखना कि जहां बाह्य शोभा होती है वहाँ अन्तरंग शोभा नहीं होती है, अत: तुझे एकका आश्रय लेना ही युक्त है।
x x २४-२९ इन छ श्लोकोंमें बहुत उपयोगी विषयका समावेश किया गया है । कितने ही व्यवहारी जीवोंका कहना है कि ज्ञान, दर्शन, चारित्रके साधनको परिग्रह नहीं कहते हैं । सूरिमहाराजका कहना है कि उसका कहना ठीक है किन्तु उसमें कुछ थोड़ासा भेद है । अमुक संयोगों में उनको भी परिग्रह कह सकते हैं। यदि संयमके उपकरणोंपर मेरेपनकी
१ अन्तिम दो पद इसप्रकार हैं। ता तदत्र परिहाय संयमे, किं यते ! न यतसे शिवार्थ्यपि ? ।