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यतिशिक्षा
तदीयतप्त्या परितप्यमानः । अनिवृतान्तःकरणः सदा स्वै
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स्तेषां च पापैर्भ्रमिता भवेऽसि ॥ ४६ ॥ गृहस्थपर ममत्वबुद्धि रखनेसे और उनके सुखदुःखकी चिन्ता से दुःखी होनेसे तेरा अन्तःकरण सर्वदा व्याकुल रहेगा, और तेरे तथा उनके पापसे तू संसारमें भटकता रहेगा । उपजाति,
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विवेचन-यह मेरे श्रावक हैं, ये मेरे भक्त हैं ' यह ममत्वबुद्धि है, यह रागका कारण है, मोहको निष्पादन करता है और एक प्रकारका नया व्यापार कराता है । इससे और अधिकता होने पर भक्त - रागी श्रावकों के सुखदुःख से ऐसे यतिका मन प्रसन्न होता है अथवा दुःखी होता है। परिणाममें मनमें किसी भी प्रकारकी निवृत्ति नहीं रहती है, सस्रताका अन्त होता जाता है और अनेक प्रकारका सावध आदेश उपदेश करते समय और गृहस्थ के सलाहकारक होते समय साधुपनका नाश होता जाता है । हे यति ! ये तेरे रागी हैं और ये दूसरे साधुके रागी हैं ऐसी क्षुद्रबुद्धि रखना यह तेरे जैसे ऊँची श्रेणी के प्राणियोंको शोभा नहीं देता है । उपाध्यायजीका कहना है कि ' यदि तुझसे न रहा जा सके तो मुनिपर राग करना क्योंकि विषकी औषधी विष ही होती है।' इसीप्रकार रागकी औषधी भी मुनि पर राग रखना है । ' इसके आशयको समझ | श्रावकको जो मुनिपर राग करनेका कहा गया है वह इसलिये है कि निरागी मुनि प्रेमद्वारा भक्ति करते हुए श्रावकोंको शुद्ध मार्ग पर लायेगा । ऐसा ही राग गौतमस्वामीका श्रीवीरप्रभुके प्रति था, परन्तु गुरु१ अथवा सर्पके विषकी औषधी सर्पकी मणि ही है ।