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अध्यात्मकल्पद्रुम [ प्रयोदश अत्यन्त उपयोगी है । प्राज्ञ धीमान् संत ऐसे सावध कार्योसे दूर रहते हैं, उपदेश करते हैं तो भी पौद्गलिक अभिलाषा बिना श्रोताओंके एकान्त लाभकी अपेक्षासे करते हैं। ममत्व और महत्वताके लिये संघके लिये भी किया हुआ साक्द्य चिन्तवन आत्मजीवनरूप उदर में डालनेसे संयम प्राणको हर लेता है । छुरी लोहेकी ही है, परन्तु वह संघलोकके लिये प्रयोग की गयी है इससे सोनेकी मानी गई है । यहां ममत्व और महत्वताको शस्त्र-छुरी माना गया है, उदरको आत्मपरिणति और प्राणको चारित्रजीवन माना गया है।
निष्पुण्यककी चेष्टा, उद्धत वर्तन-अधम फल. रङ्कः कोऽपि जनाभिभूतिपदवीं त्यक्तवा प्रसादाद्गुरोवेषं प्राप्य यतेः कथंचन कियच्छास्त्रं पदं कोऽपि च । मौखर्यादिवशीकृतर्जुजनतादानार्चनैर्गभाग्आत्मानं गणेयन्नरेन्द्रमिव धिग्गन्ता द्रुतं दुर्गतौ ॥५०॥
कोई गरीब-रंक पुरुष लोगोंके अपमानयोग्य स्थानको छोड़कर गुरुमहाराजकी कृपासे मुनिका वेश धारण करता है, कुछ शास्त्रका अभ्यास करता है और किसी पदवीको उपार्जन करता है, तब अपने वाचालपनसे भद्रक लोगों को वशीभूत करके वे रागी लोग जो दान और पूजा करते हैं उससे स्वयं अभिमान करता है और अपने आपको बादशाह समझता है ऐसोंको बारम्बार धिक्कार है ! ये शिघ्र ही दुर्गतिमें जानेवाले हैं। (अनन्ते द्रव्यलिंग भी ऐसी दशामें व्यवहार करनेसे निष्फल हुए हैं। )" शार्दूलविक्रीडित.
विवेचन-संसारिक सर्व भाव अपमानके पात्र हैं। गरीबकुल, अन्यकी अपेक्षा दासपन, परतंत्रता आदि संसारके कारण होने