Book Title: Adhyatma Kalpdrum
Author(s): Manvijay Gani
Publisher: Varddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala

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Page 761
________________ ६४४] अध्यात्मकल्पद्रुम [ पंचदश करनेकी नि:स्पृहवृत्ति रखते थे, इसलिये इस जीवको शुभ मार्गानुसारी बनानेके लीये किसी विषयमें कहना बाकी नहीं रखा है । ऐसे परमोपकारी महात्माओंके शब्द लक्ष्यमें रखकर जो प्राणी चारित्र और क्रिया उद्यत हो जाता है वह प्रभुका प्राज्ञांकित सेवक कहलाता है । इस उपदेशसे साधुको अपने योग्य भौर श्रावकको अपने योग्य उपदेश ग्रहण करना चाहिये । इस नियमके अनुसार जो प्राणी चरणकरण गुणोंका अनुसरण करते हैं वे अल्प. कालमें ही संसारसमुद्रको लांघ जाते हैं और जिस मोक्षसुखका वर्णन करना भी अशक्य है उसका अपने आत्माके साथ ' अनंत' शब्दसे योग कराते हैं अर्थात् अनन्तकाल तकके लिये उस सुखको प्राप्त करते हैं । एक तो महासुख हो और वह भी फिर अनन्तकालतकके लिये हो तो फिर इसमें विचार करनेका भी कोइ अवकाश नहीं रहता है। इसको प्राप्त करनेके लिये भरसक प्रयास करना ही कर्त्तव्य कहलाता है। इसप्रकार शुभवृत्ति नामक पन्द्रहवां अधिकार समाप्त हुआ। इस अधिकारमें वृत्ति अर्थात् वर्तन अथवा प्रवृत्ति यह अर्थ समझनेका है । शुभ प्रवृत्तिके अनेक प्रसंग इसमें बतलाये गये हैं । उन सबका विषयके साथ सामान्य सम्बन्ध है, परन्तु एक दूसरेके साथ विशेष सम्बन्ध नहीं है । इस अधिकारमें मुख्यतया उपदेश साधुके लिये है, परन्तु कीतनी ही बातें श्रावकके लिये भी उपयोगी है। प्रवृत्तिके विषयोंका प्रथक्करण श्लोकोमें ही किया है अतएव यहां पुनरावर्तन करनेकी कोइ आवश्यकता प्रतीत नहीं होती है । शुभ प्रवृतिकी अनेक हकीकते हैं, वे सब यहां नहीं बतला सकते हैं इसलिये बहुत आवश्यक विषयोंका ही वर्णन किया गया है । इन सबपर विशेष ध्यान देनेकी भावश्यकता है।

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