________________
६६२ ] अध्यात्मकल्पद्रुम
[ षोडश अन्तिम अधिकार पूर्ण हुआ । इसमें ग्रन्थके सर्व विषयोंका दोहन कर सार बतलाया गया है । जो हैं वे सब समतामें ही आकर समाते हैं । समताके सुखके आगे इन्द्र और चक्रवर्तीका सुख भी अल्प कहा गया है तो फिर इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है कि यह सुख उत्कृष्ट सुख है । इस समताके प्रभावसे मोक्ष सकका सुख अंगुलीके टोंपर नाचने लगता है। इससे भौर अधिक क्या कहें ? सर्व जीवोंपर समभाव रखना, सर्व वस्तुपर समभाव रखना, पौद्गलिक वस्तुपर राग द्वेष नहीं करना और यह समझना कि रागद्वेष पौद्गलिक ही हैं, दोषवान् प्राणीपर भी करुणा रखनी और गुणवन्तको देखकर अन्तःकरणमें प्रमोद लाना और स्वयं गुण प्राप्त करनेकी शुभ इच्छा रखना यह ही इस जीवनका मुख्य हेतु है, जीवनप्राप्तिका परम साध्यविन्दु है
और प्राप्त जोगवाइका सदुपयोग है। इसप्रकारका जीवन समतामय जीवन कहलाता है। इसकी अनुपस्थितिमें इस भवको एक चक्र के समान समझे । अनादी संसारकी घटनामें पचास, साठ या अस्सी वर्ष कुछ अधिक नहीं हैं । इतनेसे समयमें अनेक प्रकारके तोफान कर सम्पूर्ण संसारमें हलचल मचाना अथवा अप्रमाणिक आचरण करना, और पापकर्मोंसे भारी हो जाना यह वस्तुस्वरूपका अज्ञान, जड़ता और एकान्त मूर्खाइ है। अनन्त शक्तिवाला यह आत्मा शुभ प्रवृत्तिले यदि चाहे तो अभी भी इस जीवन के पश्चात् नो वर्षमें मोक्ष प्राप्त कर सकता है। यह जीव बिना कारण ही अनेकों दुःख सहन करता है, इस सबका हेतु और कारण समझ कर मल विषयपर आ जाना चाहिये और तीसरे श्लोकमें कहा है कि ममता सर्व दुःखोंका मूल है और समता सब सुखोंका मूल है । इसे अच्छी प्रकार समझ ले । इसके लीये क्रोधाग्निको शम जलसे शान्त करना,