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अधिकार ] . साम्यसर्वस्व
[ ६५५ समताके कारणरूप पदार्थों का सेवन कर. • तमेव सेवस्व गुरुं प्रयत्ना,
दधीष्व शास्त्रापयपि तानि विद्वन् !। तदेव तत्त्वं परिभावयात्मन् !,
येभ्यो भवेत्साम्यसुधोपभोगः ॥ ५ ॥ " उसी गुरुकी सेवा कर, उसी शास्त्रका अभ्यास कर और हे पात्मन् ! उसी तत्वका तू चिन्तवन कर कि जिससे तुझे समतारूप अमृतका स्वाद मिल सके । " उपजाति.
विवेचन-गुरुमहाराजकी सेवा करना ठीक है परन्तु उसका हेतु क्या है ? इसीप्रकार शास्त्राभ्यास करना भी उत्तम है और तत्त्वचिन्तवन करना भी उत्तम है; परन्तु ये सब कारण हैं, इनका कार्य समताकी प्राप्ति ही है। अन्यथा तो अभ्यास अभ्यासमें ही रहता है और सेवासे कुछ विशेष लाभ नहीं होता है । इसीलिये प्रशमरति प्रकरण में कहा गया है किदृढतामुपैति वैराग्यवासना येन येन भावेन । तस्मिन् तस्मिन्कार्य: कायमनोवारिभरभ्यासः ॥
जिन जिन भावोंसे वैराग्यवासना दृढ़ हो, वैराग्य भावोंका पोषण हो उन उन भावोंके लिये मन, वचन और कायासे अभ्यास करना चाहिये।
समता ही सर्वस्व है यह बतलाया गया और इस श्लोकमें उसे उत्पन्न करनेवाले और बनाये रखनेवाले भावोंको विशेष आमत करनेका और अभ्यास करनेका उपदेश करके समताभावको सदैव बनाये रखनेका उपदेश किया गया है।
उसी गुरुकी सेवा करनी चाहिये कि जिससे समताभाव-- का पोषण हो सके, इस शब्दसे यह ध्वनित हुआ कि जिस