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अध्यात्मकल्पद्रुम
[ षोडश गुरुके पास मोजमजे के लिये सांसारिक बातें होती हो, खटपट रहती हो, कषायकी वृद्धि होती हो उसके पास जानेका परिचय किश्चित्मात्र भी न रक्खे ।
शास्त्राभ्यासमें भी बहुत ध्यान रखनेकी आवश्यकता है । जो शास्त्र विषयकषायको बढ़ानेवाले हो, जिनमें इस संसारके सब प्रकारके पौद्गलिक सुखभोग लेनेका उपदेश हो, जिनमें पर जीवको कष्ट पहुंचाकर भी अपने लिये सुख प्राप्त करनेका कथन हो, इन शास्त्रोंको पढ़नेकी अभिलाषा भी नहीं करनी चाहिये । जिन शास्त्रोंके पढ़नेसे संसारका स्वरूप बराबर समझमें आ जाय
और मनको समता प्राप्त होसके उन्हीं शास्त्रोंका अभ्यास करना चाहिये । इसीप्रकार तत्त्वचिंतवन निमित्त भी समझ लेवें ।
यह ग्रन्थ समतारसकी वानगी. समग्रसच्छास्त्रमहार्णवेभ्यः,
समुध्धृतः साम्यसुधारसोऽयम् । निपीयतां हे विबुधा ! लभध्व
मिहापि मुक्तेः सुखवर्णिकां यत् ॥ ६ ॥
" इस समता अमृतका रस बड़े बड़े समग्र शास्त्रसमुद्रोंमेंसे उध्धुत किया गया है । हे पंडितो! तुम इस रसका पान करो और मोक्षसुखकी वानगी यहींपर चखों।"
इन्द्रवज्र.
विवेचन-समतासुखका स्वरूप बतलाते हुए।
श्रीमद् चिदानंदजी महाराज कहते है किजे. भरि मित्त बरावर जानत, पारस और पाषाण ज्यु होई कंचन किच समान अहे जस, नीच नरेश में भेद न कोई ।