________________
६५० ] अध्यात्मकल्पद्रुम
[ षोडश वाला और समझनेवाला भी तू ही है सुखके लिये भी तू ही अधिठाता और विवेकवान है। तेरी न्यूनाधिक समझके अनुसार तू अमूक लगनीको सुख मान बैठा है वह भी तू ही है और यदि प्रबल पुरुषार्थ करे तो सर्व सुखदुःखका अत्यंताभाव करके मोक्षमन्दिरमें चिरकाल तक आनंद भोगे वह भी तू ही है । अतएव वास्तविक रूपमें कहा जाय तो मोक्ष तेग है अर्थात् तू ही मोक्ष है। न्यायके एक नियमानुसार धर्म और धर्मीमें अभेद है। नमक खारी है । यहां खारापन धर्म हुआ और नमक धर्मी हुआ। यहां खाराश
और नमक ये भिन्न नहीं है इसलिये धर्म और धर्मीका अभेद हुआ; इसीप्रकार जीव अपने आप संवृत और असंवृत है, फीर भी पर्याय और पर्यायीमें उपरके नियमानुसार अभेद है।
इसी नियमानुसार कर्मका करनेवाला और मनको प्रेरनार भी तू ही होनेसे तू कर्म और मन भी तू ही है ।
जैन शास्त्रमें आत्मापर ही सब कुछ आधार है । इसकी . न तो कोइ सहायता करता है न इसे बाहरकी सहायताकी अपेक्षा ही रहती है । इसकी अखंड स्थितिमें यह शुद्ध, अक्षय, अविनाशी, नित्य है । कर्मके सम्बन्धसे इसकी शुद्ध दशापर तह जम गये हैं, इन तहोंको हटाने के लीये प्रबल पुरुषार्थ प्रगट करना चाहिये और इसके लिये असाधारण उद्योग करना चाहिये। यह प्रात्मा अनन्त शक्तिमान है । यह धारे तो पर्वतको भी तोड़ सकता है और वीर परमात्मा जितना ज्ञान और ऋद्धि प्राप्त कर सकता है इसके लीये हम पहले देख चुके हैं की " अप्पा नइ वेयरणी, अप्पा में कूडसामली । अप्पा कामदूधा घेणु, अप्पा मे नंदनं वनं ॥ १ ॥" यह सिद्धान्तका वाक्य है और शीघ्र समझमें आने योग्य है । इसमें कहा है कि आत्मा कामधेनु है, और आत्मा नन्दनवन है । इससे काम लेना ज़ारते हो