Book Title: Adhyatma Kalpdrum
Author(s): Manvijay Gani
Publisher: Varddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala

View full book text
Previous | Next

Page 765
________________ ६४८ ] अध्यात्मकल्पद्रुम [ षोडश विवेचन-कुछ ममत्वभावको छोड़ कर, कुछ कषायको छोड़ कर, कुछ योगोंकी निर्मलता करके और कुछ स्वात्मलय करके शुभवृत्ति धारण करना यह हम पन्द्रहवें अधिकारमें पढ़ चुके हैं । इन सब प्रशस्त प्रवृत्तिका हेतु समताकी प्राप्ति करना ही है । इसलिये इस सम्पूर्ण ग्रन्थमें जो जो साधन बतलाये गये हैं उन सबका साध्य समताप्राप्ति ही है । यदि तुझे सम्पूर्ण ग्रन्थ पढ़ने पर कोई परमार्थ समझमें आया हो तो वह यह समता ही है । " प्रणिहन्ति क्षणार्धन, साम्यमालम्ब्य कर्म तत् । यन्न हन्यान्नरस्तीव्रतपसा जन्मकोटिभिः ॥ १ ॥" अर्थात् जो कर्म करोडों जन्म तक तत्रि तपस्या करनेपर भी नहीं तोड़े जा सकते हैं वे ही समताका अवलंबन करनेसे एक क्षणमात्रमें नष्ट हो जाते हैं । तेरा साध्य समता होनी चाहिये। उसका आत्माके साथ संयोग कराने के लिये निरन्तर अभ्यासकी आवश्यकता है यह भी हम सम्पूर्ण ग्रन्थ में येन केन प्रकारेण देख चुके हैं। अब समता प्राप्त करना निष्फल नहीं है, यह साध्य और साधन दोनों हैं । सुखका आदर और दुःखका त्याग यह सब प्रवृत्तियों का परम कार्य है । समतासे जो सुख मिलता है वह अवर्णनीय है, कारण कि अन्य सब सुख पिछेसे दुःख देते हैं, परन्तु सुखमय समतासे होनेवाला मोक्षसुख तो अनन्त है । इस परम साध्यबिन्दुको दृष्टिमें रख कर समता प्राप्त करने-समता धारण करनेका यहां उपदेश है । मोक्षसुख अनिर्वचनीय है । मोक्षमंदिर पर चढ़नेके लिये चौदह पगथिये (गुणस्थान) हैं, इनके उपर आरोहण करनेके लिये यहां दादर बतलाई जाती है । इस मन्दिरका घण्टा बजानेके लिये गुणस्थानपर आरोहण करनेका पुरुषार्थ उचित है । हे बन्धुओं ! एक बार तद्दन निरुपाधि, निजस्वरूपमें लीनता, अजरामरत्व, दोड़ादोडका प्रभाव और अखन्ड शान्ति

Loading...

Page Navigation
1 ... 763 764 765 766 767 768 769 770 771 772 773 774 775 776 777 778 779 780