Book Title: Adhyatma Kalpdrum
Author(s): Manvijay Gani
Publisher: Varddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala

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Page 759
________________ ६४२ ] अध्यात्मकल्पद्रुम [पंचदश नहीं है उनको तेरी मान कर उनमें क्यों तल्लीन रहता है ? तेरा भारमा मोहमदिरामें मस्त होकर सत्यासत्यका विवेक भुल जाता है, इसलिये उस स्थितिको तिलाञ्जली दे, ममत्वभावका त्याग कर दे। २-३ तू सुन्दर वस्तुको देखकर खुश मत हो और अप्रिय वस्तुको देखकर नाराज भी न हो। कोई भी वस्तु स्वयं खराब या अच्छी नहीं होती है, इसमें तेरी मान्यता ही झूठी है । इस झूठी मान्यतापर अवलंबित विचार तुझे हैरान करते हैं, अतएव रति अरतिका विचार ही छोड़ दे । फिर तुझे ऊपर आठवें श्लोकमें बताये अनुसार अपूर्व आनन्द प्राप्त होगा। ४-संसारमें भ्रमण करानेवाले कषायोंको तुझे छोड़ देना चाहिये, इनका स्वरूप हम सातवें अधिकारमें देख चुके हैं । ये सब मोहराजाके सुभट हैं, इन्होनें तेरे पर विजय प्राप्त करनेको आक्रमण किया है। इसलिये यदि तू इसको अपने पर. आक्रमण न करने देगा तो तुझे लाभ होगा और यदि तू उनको जीत लेगा और मारकर भगा देगा तो तुझे महान् सुखकी प्राप्ति होगी; क्यों कि यदि कषाय और ममत्व चले जायंगे तो तू निःस्पृह बन जायगा । कहा है कि परस्पृहा महादुःखं, निःस्पृहत्वं महासुखम् । एतदुक्तं समासेन, लक्षणं सुखदुःखयोः ॥ निःस्पृह वृत्ति बड़ेसे बड़ा सुख है। अनुत्तर विमानके देवोंको सबसे अधिक सुख है, क्यों कि न तो वहां स्वामि सेवक भाव ही है और न कामविकारसे होनेवाली शारीरिक तथा मानसिक विडंबना ही । वह सुख तुमे प्राप्त होगा । अरे ! हम तो कहते हैं कि तुझे उनसे भी और अधिक सुख प्राप्त होगा, कारण कि निःस्पृह जीवनपर दुःख असर नहीं करता है और दुख भी

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