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६४० ] अध्यात्मकल्पद्रुम
[पंचदश मध्यस्थतां चानय साम्यमात्मन् ! । सद्भावनास्वात्मलयं प्रयत्नात्,
कृताविरामं रमयस्व चेतः ॥ ८॥
" हे प्रात्मन् ! मैत्री, प्रमोद, करुणा और मध्यस्थताकी उत्तम रीतिसे अभिलाषा रख, और ( उसके द्वारा ) समताभाव प्रगट कर । प्रयत्नद्वारा सद्भावना रख कर आत्मलयमें बिना किसी रुकावटके ( तेरे ) मनको क्रीड़ा करा ।"
विवेचन-१ भैत्रीभाव, प्रमोदभाव, करुणाभाव और माध्यस्थभावको सदैव तेरे हृदयमें स्थान दे । ये चार भावनाएं बहुत उपयोगी है, इस में आत्मरमण करनेसे परम साध्य पदार्थ अनुभवगोचर होता है और मनको परम शांति प्राप्त होती है। इसके सूक्ष्मस्वरूपको प्रथम अधिकारमें बतानेका प्रयास किया गया है । यह भावना शुभवृत्तिका मुख्य अंग है।
२-भावना करते करते शुद्ध समताका उदय होता है। यह समता आत्मिक गुण है और स्थिरता इसका पाया है। शनि, ध्यान, तप और शीलयुक्त मुनि भी, समतायुक्त मुनि जितना गुण निष्पादन नहीं कर सकते है। इसप्रकार जब वाचकवर्य उमास्वातिजी और श्री यशोविजयजी कहते हैं तब समताके लाभकी पराकाष्ठा समझमें आती है।
३-इसप्रकार शुभ प्रवृत्ति करते करते जब समता प्राप्त हो जाती है तब जीव भात्मजागृति करता है, उसको सांसारिक सर्व कार्य तुच्छ प्रतीत होते हैं, उसका मन प्रात्मपरिणतिमें दौड़ता है, उसको सर्व दिशा प्रफुल्लित जान पड़ती है ।
। १ सात्म्यमिति पाठान्तरं आत्मना सहेकीभावमित्यर्थः । २ स्वाप्तलय. मिति वा पाठः संप्राप्ततन्मयस्वभाव यथास्यात्तथेत्यर्थः । ३ प्रथम अधिकारके १३ से १६ श्लोक तक देखिये ।