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अधिकार ] शुभवृत्तिशिक्षोपदेशः परन्तु भात्मरमण ही कार्य जान पड़ता है। शुभध्यानधाराओंकी वर्षा होने लगती है तब भात्मनय होती है और उस समय जो आनन्द प्राप्त होता है वह वचनअगोचर है । आत्मरमण करनेके लिये प्रबल पुरुषार्थकी आवश्यकता है और मन जब उसकी ओर प्रवृत्त हो जाता है तब उसे बाह्य वस्तुओंका भान नहीं रहता है । ऐसे
आत्मरमणमें अन्यत्र कही अल्पमात्र भी रुके विना प्रवृत्ति कर अर्थात् निरन्तर आत्मरमणताके कार्यमें उद्युक्त बन ।
मोहके सुभटोंका पराजय, कुर्यान्नं कुत्रापि ममत्वभावं,
न च प्रभो रत्यरती कषायान् । इहापि सौख्यं लभसेऽप्यनीहो, ___ ह्यनुत्तरामर्त्यसुखाभमात्मन् ! ॥९॥
" हे समर्थ प्रात्मा ! किसी भी वस्तुपर ममत्वमाव न रख, इसीप्रकार रति भरति और कषाय मी न कर । जब तू वांछारहित हो जायगा उस समय तो अनुत्तर विमानमें रहनेवाले देवताओंका सुख भी तुझे यहां ही प्राप्त होगा।"
इन्द्रवज्र. विवेचन-शुभवृत्ति के साधनोंका विशेष दर्शन कराते हुए कहते हैं कि-१ हे चेतन ! तेरा जो हे उसे तेरे पास रख । देह तेरा नहीं, पुत्र तेरे नहीं, स्त्री तेरी नहीं और धन तेरा नहीं है। इन चारोंका ममत्व यहां महान् कष्टदायक ही है इतना ही नहीं परन्तु परभवमें भी महान् दुःख देनेवाली है । जो वस्तुएं तेरी
१ कुर्या न इति वा पाठोजमा विदध्या इत्यर्थः । २ विशेष हकीकतके लिये इस ग्रन्थके दूसरे, तीसरे, चोथे और पांचवें अधिकारको देखिये ।