Book Title: Adhyatma Kalpdrum
Author(s): Manvijay Gani
Publisher: Varddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala

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Page 755
________________ ६३८ ] अध्यात्मकल्पद्रुम [ पंचदश परपीडावर्जन-योगनिर्मलता. परस्य पीडापरिवर्जनात्ते, त्रिधा त्रियोग्यप्यमला सदास्तु । साम्यैकलीनं गतदुर्विकल्पं, मनोवचश्चाप्यनघप्रवृत्तिः ॥ ७॥ " दूसरे जीवोंको तीनों प्रकारकी पीड़ा न पहुंचानेसे तेरे मन, वचन, कायाके योगोंकी त्रिपुटी निर्मल होती है, मन एक मात्र समतामें ही लीन हो जाता है, अपितु वह उसका दुर्विकल्प छोड़ देता है और वचन भी निरवद्य व्यापारमें ही प्रवृत रहता है।" उपजाति. विवेचन-मानसिक, वाचिक और कायिक हिंसाका यथाधिकार त्याग करनेके मूल सिद्धान्तपर ही जैनधर्मकी रचना है। 'अहिंसा परमो धर्मः' यह सूत्र सर्व संयोगोमें सत्य है और इन सिद्धान्तोपर बंधा हुआ धर्म ही इस नामके योग्य है यह जैनी वर्तनसे तथा दलीलसे सिद्ध कर सकते हैं। आत्मव्यतिरिक्त किसी भी प्राणीको कष्ट पहुंचाना, दूसरोंसे पहुंचवाना, अथवा पहुंचानेवालेको सहायता करना, या उस कार्यकी प्रशंसा करना या उसकी पुष्टि करना यह सर्व वयं है और इसके मना करनेसे मन, वचन और कायाके योग बहुत निर्मल हो जाते हैं । जैनाचार्य किसी भी कार्यकी तरतमता, शुभव अशुभत्व, उसके हिंसाके साथके संबन्धसे ही करते हैं। जिस कार्यमें जितनी अल्प हिंसा होती है वह कार्य उतने ही अंशोमें अधिक उत्तम होता है। हिंसाके सम्बन्धमें यह स्मरण रहे कि काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर आदि करना ये (भाव) भी हिंसा ही है, क्योंकि इनमें आत्मगुणका घात होता है। बाह्य हिंसा और, अन्तरंग

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