Book Title: Adhyatma Kalpdrum
Author(s): Manvijay Gani
Publisher: Varddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala

View full book text
Previous | Next

Page 753
________________ अध्यात्मकल्पद्रुम [पंचदश स्वात्मनिरीक्षण परिणाम. कृताकृतं स्वस्य तपोजपादि, __ शक्तीरशक्तीः सुकृतेतरे च। सदा समीक्षस्व हृदाथ साध्ये, यतस्व हेयं त्यज चाव्ययार्थी ॥६॥ " तप, जप आदि तूने किये हैं या नहीं, उत्तम कार्य और अनुत्तम कार्योंके करनेमें शक्ति प्रशक्ति कितनी है इन सब बातोंका सदैव तेरे हृदयमें विचार कर । तू मोक्षसुखका अभिलाषी है इसलिये करनेयोग्य ( हो सके ऐसे ) कार्यों के लिये प्रयत्न कर और त्यागने योग्य कार्योंका परित्याग कर ।" उपजाति. विवेचन-आत्मविचारणा करनेसे अनेकों लाभ होते हैं। स्वयं कौनसा कार्य करता है इसका ख्याल आता है और उनमेंसे कौनसे कार्यका त्याग करना, कौनसा ग्रहण करना आदिके सम्बन्धमें विचार होता है। परिणाममें कार्यरेखा अंकित करनेका निश्चय हो जाता है और शुद्ध वर्तन होनेका निमित्त प्राप्त हो जाता है। हे प्राणी ! तू तप, जप आदि अर्थात् पूजा, प्रभावना, स्वामिवात्सल्य ( एक ज्यौनार ही नहीं, परन्तु उससे स्वधर्मी लोगोंका उत्कर्ष हो ऐसे उपाय वत्सल भावसे विचारना और तदनुसार योजना करनी ) आदिमेंसे क्या क्या कर सकता है और क्या क्या नहीं कर सकता है इनका विचार कर । यह श्रावकके लिये कहा गया है। साधुके लिये उसने कितने लोगोंको उपदेश दिया, उसने स्वयं पठन-पाठन कितना किया, कब किया, उससे शासन उद्योत कितना हुआ, इसका

Loading...

Page Navigation
1 ... 751 752 753 754 755 756 757 758 759 760 761 762 763 764 765 766 767 768 769 770 771 772 773 774 775 776 777 778 779 780