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अधिकार ] शुभवृत्तिशिक्षोपदेशः [६३५ सबसे बड़ी हानि गृहस्थ के प्रतिबंधकी होती है। मेरे श्रावक, या मेराक्ष ऐसा हो जाता है और इस काल में चलते प्रवाहके समान यह अमुक साधुका उपाश्रय ऐसा भी हो जाता है। नगरमें रहने की आज्ञा प्रदान करनेवाले स्थविरकल्पका धीरे धीरे अत्यंत दुरुपयोग किया जाता है। विहार करनेसे उपदेशका लाभ सर्व प्रामोंके पुरुषोंको मिल सकता है, करने योग्य कार्य पूर्ण हो सकते हैं, और जीवन सफल हो जाता है । एक स्थानपर रोगादि कारणों के अतिरिक्त संयमनिर्वाह योग्य अन्य क्षेत्र होनेपर भी बहोत वक्त रहना शास्त्राज्ञासे विरुद्ध है, अनुचित है और परिणाममें प्रत्यक्षरूपसे संसारकी वृद्धि करानेवाला है।
इस श्लोकमें एक अत्यन्त अगत्यके प्रश्नको हल किया गया है । साधु जीवनमें निवृत्ति प्रधान है या प्रवृति प्रधान है। साधुको एकान्त पर बैठकर कुछ न करना ऐसा यह उद्देश नहीं है और ऐसी निवृत्तिकी स्थिति प्राप्त करनेसे पहिले अप्रमत्त प्रवृति करनी पड़ती है। अलबत, यह प्रशस्त प्रवृत्ति है और वास्तविक रीतिमें कहा जाय तो यह निवृत्ति ही है । उपदेश देना, सभायें भरना, कर्तव्य बतलाना, विहार करना, प्रन्थ रचना, अभ्यास करना, आवश्यक क्रियाये करना, योग धारण करना, आदि प्रशस्त प्रवृत्ति ही है और साधु जीवनको वर्णन करनेका हेतु बहुधा इस प्रशस्त प्रवृत्तिपर ही निर्भर है। कई बार प्रवृत्ति शब्दसे ही घबराकर लोग इसके विरुद्ध भावाज ऊठाते हैं, परन्तु बहुत विचार करनेके पश्चात् निर्णय होता है कि जैन शास्त्र में निवृत्तिहेतुक प्रशस्त प्रवृत्ति भी विशेष आदरणीय है । अधिकार विशेष प्राप्त हो जानेपर क्या कर्तव्य है यह अधिकारी स्वयं ढूंढ़ निकालते हैं।