________________
६३३]
अध्यात्मकल्पद्रुम - [पंचदश बतानेवाला न होना चाहिये । सुननेवालेको मणि और पत्थरपर, लवंडर और बिष्टापर समभाव उत्पन्न हो ऐसा यह होना चाहिये । ये उपदेशके प्रधान गुण हैं। इनके अन्तर्गत अनेकों विषयोंका समावेश हो जाता है । दृष्टान्तरूपसे विषय सर्वसामान्य होना चाहिये, अंगित द्वेषबुद्धिसे अमुक व्यक्तिपर आक्षेपरूपसे कुछ भी न बोलना चाहिये, भाषा प्रौढ होनी चाहिये, वचनपद्धतिसर और विचार नियमसर एकके बाद एक कुदरती तौरसे अनुसरण करने योग्य होने चाहिये, विषयकी प्रौढताके साथ साथ शास्त्रोक्त दृष्टान्तोंसे संकलितभाव होना चाहिये, भाषा श्रोताओंको प्रिय हो परन्तु हितकारी होनी चाहिये, प्रसंग उपस्थित होनेपर दुर्गुणोंके कटु फल समझानेवाली होनेपर, भी निरन्तर सत्य होनी चाहिये, दलील न्यायसर और कदाग्रहका अभाव दर्शानेवाली होनी चाहिये इत्यादि ऐसे अनेकों गुण उपदेशमें होने चाहिये । सारांशमें कहा जाय तो श्रोताओंके मनपर ऐसी छाप पड़नी चाहिये कि मानो वे श्रवण करते समय किसी अपर व्यवहार में सम्मिलित हो गये हैं और उनका चालु व्यवहार विलीन हो गया है, ऐसा प्रभाविक उपदेश पत्थरको भी पीगला सकता है।
(२) साधुको नवकल्पी विहार करना चाहिये । कार्तिक पूर्णिमासे अषाढ शुद चौदश तक आठ महिनोमें आठ विहार और चोमासाका एक विहार, इसप्रकार नौ विहार तो अवश्य करने चाहिये । इनमें कभी प्रमाद न करें और संसारका हित दृष्टि सन्मुख रक्खे । यह सब साधुओं-यतियोंके लिये उपयोगी है । खास अभ्यास, रोग, वृद्धावस्था अथवा शास्त्रका अपूर्व लाम होनेवाले शास्त्रोक्त कारणके सिवाय एक स्थानपर साधुको नहीं रहना चाहिये । एक स्थानपर रहनेसे बहुत हानि होती है।