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६१८ ] अध्यात्मकल्पद्रुम
[चतुर्दश चावें, परन्तु जिन्होंने अत्यन्त कष्ट उठाकर तपस्यादिकको प्राप्त किया है वे इसके नाश हो जानेके भयसे योगका संवर क्यों नहीं करते हैं।"
इन्द्रवज्र. विवेचन-~अनन्तकालसे मिथ्यात्वके प्रवाहमें बहता हुआ प्राणी चाहे जो कुछ भी क्यों न बोले ? मन-वचन-कायाके अशुभ योगोंकी प्रवृत्तिद्वारा चाहे जिसको कष्ट क्यों न पहुँचावे, दुःख दें, पीड़ा पहुंचावे या चाहे सो भी क्यों न करे वह उसके लिये उचित ही है । उसको अधिक सुख प्राप्त नहीं हुआ है, प्राप्त करनेकी उसकी इच्छा भी नहीं है और प्रयास भी नहीं है; परन्तु जो घोर तपस्या करते हैं, महापञ्चख्खान करते हैं, और अन्य उसी प्रकारके असाधारण प्रयाससे विरति धारण करते हैं उनको तो योगका अवश्य संवर करना चाहिये; चाहे जितना पौद्गलिक भोग क्यों न देना पड़े तो भी वैसा करनेमें अपनी सर्व शक्तिका उपयोग करना चाहिये । ग्रन्थकर्ता आश्चर्य प्रगट करते हैं कि इसप्रकार तपस्यादिक करनेपर भी उसके नाश होनेका भय होतो योगका संयम करना चाहिये ऐसा जानते हुए भी इसके अधिकारी जीव योग संवर क्यों नहीं करते हैं ? अत्यन्त प्रयाससे प्राप्त किये पिरति गुणका नाश हो जायगा । परिश्रम निष्फल होगा और परिणाममें पश्चात्ताप होगा; अतएव योग संवर कर ।
मनयोगके संवरकी प्रधानता. भवेत्समग्रेष्वपि संवरेषु,
परं निदानं शिवसंपदां यः। त्यजन् कषायादिजदुर्विकल्पान्,
कुर्यान्मनः संवरमिद्धधीस्तम् ॥ २१॥