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अध्यात्मकल्पद्रुम - [पंचदश यह एक सामान्य बात गिनी जाय परन्तु यह तो अत्यन्त लाभ है।
शीलांग-योग-उपसर्ग-समिति-गुप्ति. . विशुद्धशीलाङ्गसहस्रधारी, __ भवानिशं निर्मितयोगसिद्धिः । सहोपसर्गास्तनुनिर्ममः सन् ,
भजस्व गुप्तीः समितीश्च सम्यक् ॥३॥
" तू ( अठारह हजार ) शुद्ध शीलांगोंको धारण करनेवाला बन, योगसिद्धि निष्पादित बन, शरीरपरकी ममता छोड़ कर उपसोको सहन कर, समिति और गुप्तिको भलिभांति धारण कर ।"
इन्द्रवज्र. विवेचन-(१) शीलांग अर्थात् चारित्रके अंग । इसके यतिधर्म सहित अठारह हजार भेद होते हैं जिसका इस ग्रन्थमें अन्यत्र सविस्तर वर्णन किया गया है। यहां साधुका क्या कार्य है यह बतलाते हुए उसका स्मरणमात्र कराया जाता है । (२) मन, वचन, कायाके योगोंको वशमें करले और इनके साधनरूप अष्टांग योगकी साधना कर । योगरूंधनका कितना माहात्म्य है यह चौदहवें और नवमें अधिकारमें सविस्तर देखलें । संसारसमुद्रमैसे ऊँचे आनेका परम साधन योगरुंधन ही है। ( ३ ) शरीरपरकी ममता छोड़ दे और परीषह तथा उपसर्गोंको यथाशक्ति सहन कर। शरीर क्या है ? कैसा है ? किसका है ? और इसका स्वभाव क्या है ? यह हम देहममत्वमोचन नामक इसी ग्रन्थ के पांचवें अधिकारमें देख चुके हैं । (४) समिति और गुप्ति धारण कर शुद्ध व्यवहार रखना ।
१ तेरवें अधिकारके २-३ श्लोकोंको देखिये । २ तेरहवे अधिकार के २-३ श्लोकोंके विवचनको देखिये ।