Book Title: Adhyatma Kalpdrum
Author(s): Manvijay Gani
Publisher: Varddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala

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Page 745
________________ ६२८ ] अध्यात्मकल्पहुम [ पंचदश यहस्थिति प्राप्त न हो तब तक शुभ दशामें रहे; परन्तु सदोष क्रिया करनेसे क्रिया न करना ही उत्तम है-ऐसी विपरीत वृत्ति नहीं रखना चाहिये । इस श्लोकमें सर्वज्ञ भगवानका वैद्य के साथ, आवश्यक क्रियाका औषधीके साथ और व्याधिका भवपर्यटनके साथ उपमान उपमेय सम्बन्ध है। तपस्या करना. तपांसि तन्याद्विविधानि नित्यं, मुखे कटून्यायति सुन्दराणि । निघ्नन्ति तान्येव कुकर्मराशि, रसायनानीव दुरामयान् यत् ॥२॥ " शुरूमें कडवे लगनेवाले परन्तु परिणाममें सुन्दर दोनों प्रकारके तप सदैव करने चाहिये । वे कुकर्मके ढेरको शीघ्र नष्ट कर देते हैं, जिसप्रकार रसायण दुष्ट रोगोंको दूर कर देती है। " उपजाति. विवेचन-तप दो प्रकार के होते हैं-१ बाह्य, २ अभ्यंतर । न खाना ( अनशन ), कम खाना कम पदार्थों को खाना, रसका त्याग करना, कष्ट सहन करना और अंगोपांगको संकोच कर रखना यह बाह्य तप कहा जाता है। किये हुए पापोंके लिये प्रायश्चित करना, बडोंका विनय करना, बालवृद्धग्लान का वैयावृत्य करना, अभ्यासादि करना, ध्यान करना और कायाका उत्सर्ग करना यह आंतरतप है। इन सब तपोंको करते हुए कष्ट झेलने पड़ते हैं, कुछ आकरा भी लगता है परन्तु अनादिकालसे आत्माके साथ जो कर्मसमूह लगा हुआ है यदि उसको एकदम दूर करना हो, भोगे सिवा उसका त्याग करना हो, जैन परि

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