________________
६२६ ] अध्यात्मकल्पद्रुम
[पंचदश करनेवाले आवश्यकोंको करनेका यत्न कर; क्योंकि वैद्यकी बतलाई औषधि न खाई हो अथवा (खानेपरभी यदि ) अशुद्ध हो तो वह रोगका नाश नहीं कर सकती है।" उपजाति.
विवेचन-आवश्यक अर्थात् अवश्य करने योग्य नित्यकर्म अथवा अधिक स्पष्ट शब्दोमें कहा जाय तो साधु और श्रावकका कर्त्तव्य नित्यक्रिया । ये ६ हैं । (१) सामायिक:-दो घडी तक स्थिर चित्तसे स्थिर आसनपर समता रखकर शांत स्थानपर आत्मिक जागृति करना । इसमें अभ्यास, तत्त्वचिन्तवन, ध्यान और जापमेंसे अपनी शक्तिअनुसार कर्तव्य है। यह श्रावकके लिये है और साधुके लिये इतना भेद है कि वे निरन्तर सामायिक दशामें ही रहते हैं। (२) चतुर्विंशतिजिन स्तवन-संसार पर महाउपकार करनेवाले, महाप्रभावक परमात्माकी नामादि रूपसे स्तुति । (३) वन्दन-गुरु भादि बड़े पुरुषोंको वन्दना करनी! (४) प्रतिक्रमण-सम्पूर्ण दिन या रात्रि सम्बन्धी, पन्दरह दिन, चार मास या वर्ष सम्बन्धी कार्य, उच्चार या चिन्तवनसे हुए दोष, फरमाये हुए कार्यका अनुमोदन, किये असद्वर्तनो सम्बन्धी दोषों के लिये अन्तःकरणसे पश्चात्ताप करना। न करने सम्बन्धी जो विचार करना चाहिये उसको न किया हो तो उसके सम्बन्धी विचार करना, ये सबसे अधिक उपयोगी आवश्यक है । इसके हेतुको बताते हुए श्रावक प्रतिक्रमणसूत्रमें कहते हैं कि 'निषेध किये हुए कार्योको किये हो, आदेश फिये कार्योंको न किया हो, जीवादिक पदार्थोंपर श्रद्धा न की हो, और धर्मविरुद्ध प्ररूपणा की हो इन सबके लिये क्षमा याचना करना प्रतिक्रमण है । (१) कायोत्सर्ग-देहका उत्सर्ग करना, त्याग करना अर्थात् उसके सम्बन्धी बाह्य व्यवसायको कम कर अंदरसे प्रात्मजागृति