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अधिकार ] मिथ्यात्वादिनिरोध संवरोपदेशः [६१७ ___उत्करट-' यथा रात्री तथा दिवा.' जैसे दिनमें बरसे वैसे ही रातमें भी बरसे।
वर्षा शीघ्र प्रारम्भ हुई और मूसलाधार कुणालामें पन्द्रह दिन तक बरसा, बरसने लगी थोडीसी भी न ठहरी, जिससे सम्पूर्ण ग्राममें पानी ही पानी भर गया और इसलिये सब लोग बहने लगे । बड़ा भारी संहार हुआ। इस महापापका प्रायश्चित किये बिना, ही पापको काटे बिनाही, तीसरे वर्षमें वे दोनों साधु साके. तपुर नगरमें कालके ग्रास हुए और सातवी नरकमें काल नामक नरकावासमें बत्तीस सागरोपमके भाउखें उत्पन्न हुए ।
महाक्रोधका यह परिणाम हुआ ! क्षणिक क्रोधके लिये असंख्य वर्षांतक नरकके महान दुःखोंको सहना पड़ता है । इसीप्रकार सनत्कुमारको मानसे, मल्लिनाथजीको मायासे और धवल-मम्मण-सागरसेठ भादिको लोभसे महादुःख भोगने पड़े । इन सब दृष्टान्तोंपर विचारकर कषायका संवर करना चाहिये । बंध हेतुमें इसका मुख्य स्थान है इसको ध्यानमें रखनकी पावश्यकता है। क्रियावंतकी शुभयोगमें प्रवृत्ति होनी चाहिये
इसके कारण, यस्यास्ति किंचिन्न तपोयमादि,
ब्रूयात्स यत्तत्तुदतां परान्वा । यस्यास्ति कष्टाप्तमिदं तु किं न,
तदशभीः संवृणुते स योगान् ॥ २०॥
"जिसके पास तपस्या यम आदि कुछ भी नहीं है वे तो. यदि चाहे जैसा भाषण करे अथवा दूसरोंको कष्ट पहुं