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५७४ ] अध्यात्मकल्पद्रुम
[प्रयोदश यदि प्राकृत पुरुषके समान विषयांध अथवा इन्द्रियवश हो जाय तो उनका व्यवहार माफ करने योग्य न होगा, पौर ऐसे क्षुल्लक मनुष्योंको तो समुदाय शीघ्र ही दूर कर डालता है। फिर भी कितनी बार मनुष्य प्रगट हकीकत में भी सराग दृष्टिके कारण भूल करते हैं । डोरा चिट्ठी करनेवाले, छड़ी पुकरावनेवाले, रेलमें यात्रा करनेवाले, स्त्रो सम्बन्ध करनेवाले अथवा बाड़ो गाड़ी रख. नेवाले अथवा ऐसे यति गोरजी या साधु धर्मके नाम पर कालो टोको लगानेवाल होते हैं । उनको जो रागसे सन्मान मिलता है वह अनिष्ट है। ऐसा व्यवहार तो सामान्य पुरुषके लिये भी हास्यप्रद होता है अतः ऐसे व्यवहारवालेको दूर करने में विलम्ब न होना चाहिये । विशेषतया साधुओंको अपने वर्तनको उच्च बनानेकी चिन्ता रखनी चाहिये | उनका व्यवहार अन्य संसारी जीवोंके व्यवहारसे बहुत ऊँचा होना चाहिये । स्थूल बाबतोंमें हो नहीं परन्तु मानसिक विचारों और कषायादिककी मन्दतामें भी वे ऊँच भूमिका पर होने चाहिये । इस बात पर सम्पूर्ण अधिकार में बारंबार जोर दिया गया है । जमानेका रंग बदलता जाता है। इसलिये प्रपंच, अज्ञान और इन्द्रियवशताका त्याग कर नये जमानेके अनुसार शुद्ध उपदेश करनेकी बहुत आवश्यकता है।
साधुओंके व्यवहारको उत्तम शैली होनी चाहिये, फिर भी आजकल अभिमानसे हुआ समुदाय भेद और योग्यता न होने. पर भी पदवीके लिये लोभ कई स्थानों में देखा जाता है । मुनिसुन्दरसूरि इस स्थितिको पांचवे आशका भाव कहते हैं । इससे आधिक क्या कहें ? समयकी आवश्यकताको समझ कर, अन्दरका विक्षेप दूर कर धर्मप्रभावना करने निमित्त साधु मोंको उद्यत होना चाहिये । तिस पर भी काल महात्म्य कहो या ग्रह ऊलटे