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अध्यात्म कल्पद्रुम
[ चतुर्दश
शुभगति के भागी हुए हैं । धनविजयगारी प्रसन्नचन्द्र राजर्षिके चरित्र का वर्णन करते हैं उसके अनुसार यहां सारांश में लिखा जाता है ।
क्षितिप्रतिष्ठित नामक एक नगर था । विचित्र प्रकारकी शोभासे सम्पूर्ण विश्वको वह अपनी ओर आकर्षण करता था। अनेक दुकानों, बाजारों आदिसे वह नगर बहुत शोभित था । प्रसन्नचन्द्र नामक राजा वहां राज्य करता था । विशाल भुजायलवाले ये महाराज शत्रुदमनमें कुशल और न्यायके नमूने थें । इनकी प्रजा हर प्रकारसे आनंदित थी । राज्यसुख भोगते थे उस समय श्रीवीरपरमात्मा एक समय उस नगर के बाहर समवसरे राजा यह समाचार सुन कर वन्दन करने निमित्त गया । संसारके अस्थिर भावके स्वरूपको सुन कर राजाको वैराग्य उत्पन्न हुआ, संसारवासना उड गई और अन्तरदृष्टि जाग्रत हुई । बाल्यावस्थाके पुत्रको राज्यपर स्थापन कर उसने दीक्षा ग्रहण की । अभ्यास करने पर गीतार्थ हुए और राजर्षिके नामसे प्रसिद्ध हुए । एक बार धर्मतत्त्वका चिन्तवन करते और शुभ भावना करते वे राजर्षि राजगृह नगर के बाहर कायोत्सर्ग ध्यान में रहे । उस समय वीरपरमात्मा समीपवर्ती भाग में समवसर्वे, उनको वन्दन करनेके लिये नगरनिवासियों के झुण्ड के झुण्ड जाने लगे | उन लोगों के समूह में चितिप्रतिष्टितपुर के दो बणिक थे । ये दोनों पुरुष बाते करते करते श्रीवीरप्रभुको बन्दना करने को जा रहे थे, इतनेमें उन्होंने अपने पहिले के राजाको देखा इस लिये वृद्ध वणिक बोला, " अहो ! राज्यलक्ष्मीका त्याग कर इस राजर्षिने तपलक्ष्मीको स्वीकार किया है इससे यह धन्यात्मा हैं, भाग्यशाली है । " दूसरा वणिक बोला " अरे जाने दे ! इस मुनिने धन्यवाद देने जैसा कौनसा कार्य किया है ? इसको
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