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६१०] अध्यात्मकल्पद्रुम
[चतुर्दश गुत्तीण य मणगुत्ती, चउरो दुक्खेहि जिप्पंति ॥ १ ॥' इन्द्रियोंमें रसनेन्द्रिय, कर्ममें मोहनीयकर्म, व्रतोंमें ब्रह्मचर्य्यव्रत और गुप्तिमें मनोगुप्ति ये चार अधिक कठिनतासे जीती जा सकती है।
स्पर्शनेन्द्रियसंयम. त्वचः संयममात्रेण, स्पर्शान् कान् के त्यजन्ति न। मनसा त्यज तानिष्टान् , यदिच्छसि तपः फलम्॥१६॥
" चमड़ीको स्पर्श न करनेमात्रसे कौन स्पर्शका त्याग नहीं करता ? परन्तु यदि तुझे तपका फल पाना हो तो इष्ट स्पशोंका मनसे त्याग कर ।"
अनुष्टुप्. विवेचन-संसारमें सबसे अधिक भटकानेवाली यह इन्द्रिय है । इसका विशेष भाविर्भाव स्त्रीसंयोगमें होता है । इसको छोड़ने का खास महत्व बताने के लिये एक खास श्लोक दिया गया है । सुन्दर स्त्री तथा बालकके गालके स्पर्शसे मनमें राग न हो, जिसकी चमडीपर कुष्ट जैसी व्याधि हो अथवा दंस, मच्छर, ताप या शीतके अनिष्ट स्पर्शसे मनमें द्वेष न हो यह स्पर्शनेन्द्रियका संयम कहलाता है, अन्य सब व्यर्थकी बाते हैं।
स्पर्शनेन्द्रिय के परवश होकर हस्ति महादुःख उठाता है। हाथीको जब पकडना होता है तब एक गहरा गड्ढा खोदकर उसपर तृण बिछाकर मिट्टीसे ढक देते हैं। गड्ढे के सामने कागजकी सुन्दर हथिनीको रंगकर खडी कर देते हैं। इसपर भासक हुआ हाथी उसको भोगने के लिये शिघ्रतासे भगला जाता है उस समय उनके बीचमें तणसे ढके खड्डेम गिर जाता है । फिर कितने ही दिन उसे भूखा रक्खा जाता है, पिटा जाता है और सदेवक लिये बन्दी बना लिया जाता है, अर्थात् सदैवके लिये परवश हो जाता है । इस सब दुःखका कारण स्पर्शनेन्द्रिय परवशपन है ।