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अधिकार ]
मिथ्यात्वादिनिरोधसंवरोपदेशः
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अनुष्टुप्.
" जीहा के संयममात्र से कौन रसोंको नहीं छोड़ता है ? हे भाई ! जो तू तपके फल मिलने की अभिलाषा रखता हो तो सुन्दर जान पड़नेवाले रसोंको छोड़दे । " • विवेचन व्यवहार में भी कहावत है कि "जिसकी दाढ दिली उसका प्रभु रुठा संसार में अनन्त भवपर्यंत भट - कानेवाली यह इन्द्रिय है । अच्छा खानेके बिचार में और योग्य साधन तैयार करनेमें, अच्छा खानेके पदार्थ एकत्र करने में और अन्तमें अच्छा खानेमें यह जीव धन्य समझता है | दुनिया में खा पीकर आनन्द माननेवाले धर्म भी प्रचलित हैं । खाने पीनेमें ही मोक्ष माननेवाले जीह्नाके लालचीं, जीव मनुष्य भवका सञ्चा साध्यबिन्दु क्या है उसे भूल जाता है । अपितु इस बाह्यरस पोषण से इन्द्रियतृप्ति नहीं होती है, अनन्त बार मेरु पर्वत के देर से भी अनन्तगुणा भोजन खानेपर भी जीवको तृप्ति नहीं होती हैं । इसलिये रसनेन्द्रियको वशमें करनेके लिये असाधारण प्रयास करनेकी आवश्यकता है । इसलिये शास्त्रकार कहते हैं कि " यदि तू संसारसे डरता हो और मोक्षप्राप्तिकी अभिलाषा रखता हो तो इन्द्रियोंको जीतने के लिये असाधारण पुरुषार्थ कर (श्रीमद्यशोविजयजी इन्द्रियजयाष्टक ).
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मच्छलियोंको पकडने के लिये मच्छलिमार लोहे का कांटा पानी में डालता है, परन्तु उसके साथ मिष्ट आटेकी पिंडीको बांधता है। रसनाके लालचसे मच्छलि उसे खाने को आती है उसे 'खाते खाते कांटे में छिद जाती है । इसीप्रकार अनेकों अन्य पक्षी भी खाने के लालचसे जाल में फँस जाते हैं । शास्त्रकार सब इन्द्रियोंसे रसनेन्द्रियको जीतना बहुत कठिन ' बतलाते है ।
अक्खाण रसणी कम्माण मोहणी वयाण तह चैव बंभवयं ।
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