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अध्यात्मकल्पद्रुम [ चतुर्दश झना चाहिये । इष्ट और अनिष्ट वस्तुपर समभाव रखना संवर है । जो इन्द्रिय भोगमें लिप्त नहीं रहते, गृद्धिभाव या आसक्ति नहीं रखते वे ही सच्चे संयभवान् हैं। इसलिये शास्त्रकार कहते हैं कि " गीला और सूखा ऐसे दो मिट्टीके गोले दिवार पर फेंके, वे दोनो गोले दीवार पर लगे । इन दोनों से जो गिला गोला था वह दीवार पर चिपक गया और सूखा गोला नहीं चिपका। इसीप्रकार इन्द्रियभोगमें लंपटी और दुर्बुद्धि पुरुष संसाररूप दीवार में चिपक जाते हैं और जो कामभोगसे विराम पा चुके हैं वे सूखे गोलेकी तरह संसाररुपी दीवार पर नहीं चिपक सकते हैं।” ( इन्द्रियपराजयशतक) यहां भाकर्षण रागद्वेषजन्य समझना चाहिये । दक्षिारतक पहुंचनेतक तो दोनोंकी गति एकसी होती है किन्तु फिर स्थित्यंतर हो जाती है।
कमलकी सुगन्धीसे आकर्षित होकर भ्रमर उसमें आसक्त हो जाता है और लहरमें आकर उसमें बैठा रहता है; जानता है कि सूर्यके अस्त होने पर कमल बन्द हो जायगा
और स्वयं बन्दी हो जायगा, फिर भी अभी उड़ता हूँ, अभी उड़ता हूँ ऐसे विचार ही विचारके और प्रासक्तपनमें पड़ा रहता है। अन्त में सायंको कमल बन्द हो जाता है और निर्दोष होनेपर भी इन्द्रियपरवश भ्रमर सुगंधके लोभसे उसमें बन्द हो जाता है। प्रभातमें निकलनेकी आशा रखता है किन्तु इतने में कोई हाथी आता है तो उस कमलको तोड़ कर खा जाता है । इसप्रकार वह अपने निजके प्राणोंको अर्पण करता है।
रसन्द्रियसंवर. जिह्वासंयममात्रेण, रसान् कान् के त्यजन्ति न । मनसा त्यज तानिष्टान् , यदीच्छसि तपःफलम् ॥१५॥