Book Title: Adhyatma Kalpdrum
Author(s): Manvijay Gani
Publisher: Varddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala

View full book text
Previous | Next

Page 723
________________ ६०६ ] अध्यात्मकल्पद्रुम [चतुर्दश है, परन्तु एक ओर वायोलीन, हारमोनियम, पियाना अथवा बेण्ड, मृदंग, दिलरुबा आदि की कोमल ध्वनि चलती हो और एक ओर कुत्तेका भोंकना, बेसुर और भंसासूर जैसे आवाजसे चलता हुआ गायन, अथवा गधेका रेंगना चलता हो इन दोनों को सुनकर मननें कुछ भी प्रेम तथा खेद उत्पन्न न हों, समभाव रहे इसीमें सचमुच महत्त्व है, यह ही मुनिपन है और ऐसी समवृत्तिवाले प्रकृष्ट जीवको वृद्धि पाते देर नहीं लगती है । श्रोत्रेन्द्रियको वशमें न रखनेसे हिरन बहुत दुःखी होता है। शिकारी जब माल फैलाता है तब हिरनको उसमें फँसानेके लिये वासुरी बजाता है। सुन्दर स्वरसे आकर्षित होकर इन्द्रिय. परवश हिरन शिकारी के धोखेमें आ जाता है। सुननेकी लयमें उसे अपनी दूसरी अवस्थाका भान नहीं रहता है । इसलिये शास्त्रकार कहते हैं कि " जीवितव्यको अशाश्वत जान कर, मोक्षमार्गके सुखको शाश्वत जान कर और आयुष्यको परिमित जान कर इन्द्रियभोगसे विशेषतया निवृत रहना ।” ( इन्द्रिय पराजयशतक) चक्षुरिन्द्रियसंवर. चक्षुः संयममात्रात्के, रूपालोकांस्त्यजन्ति न। इष्टानिष्टेषु चैतेषु, रागद्वेषौ त्यजन्मुनिः ॥ १३ ॥ "एक मात्र चक्षुके संयमसे कौन रूपप्रेक्षण नहीं छोड़ता ? परन्तु इष्ट और अनिष्ट रूपों में जो रागद्वेष छोड़ देते हैं वे ही सच्चे मुनि है ।" अनुष्टुप् . विवेचन-तेइन्द्रिय तक सब जीव चतुरहित होते हैं, परन्तु पंचेन्द्रिय मनुष्य और तिर्यंचमें भी कितने ही अन्धे होते हैं, परन्तु इसप्रकारके संयमसे क्या ! इसीप्रकार प्रांखें मींच

Loading...

Page Navigation
1 ... 721 722 723 724 725 726 727 728 729 730 731 732 733 734 735 736 737 738 739 740 741 742 743 744 745 746 747 748 749 750 751 752 753 754 755 756 757 758 759 760 761 762 763 764 765 766 767 768 769 770 771 772 773 774 775 776 777 778 779 780