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अधिकार ] मिथ्यात्वादिनिरोधसंवरोपदेशः [ ६१३ चक्रो सातवी नारकीमें रहता रहता भी " चारुदत्ता, चारुदत्वा" ऐसा पुकारा करता है, इसीके वशीभूत होकर रावनने अपने दश मस्तक और महा ऋद्धिको रणमें खोई, इसीके. वशीभूत हुमा जीव एक माबापले उत्पन्न हुए संग भाईके साथ क्लेश करता है, इसीके वशीभूत होकर विवेकहीन हो जाते हैं, अन्धे बन जाते हैं, अनेक पापोंको करते हैं और सारांशमें कहा जाय तो क्षणिक सुखके लिये मनुष्य जन्ममें जिस महालाभका उपार्जन कर अनन्त सुख प्राप्तकर सकते हैं उस सबको खो बैठते हैं ।
___ इस आवश्यक विषयपर रचे हुए अनेको विद्वानोंके अनेकों ग्रन्थ लभ्य हैं । सारांशमें जाननेवाले जिज्ञासुमोंको इन्द्रियपराजयशतक' · श्रृंगारवैराग्यतंरीगणी ' और 'शीलोपदेशमाला' इन तीनों ग्रन्थों का स्वाध्याय करें। यहां विस्तारके भयसे विशेष उल्लेख नहीं किया, परन्तु इतना तो पुनरुक्ति करके कहा जाता है कि हे बंधुओं ! तूमको कौनसा सुख है और वह कहां है ? इसके सच्चे स्वरूपको समझनेकी कोशिष करो। प्राकृत पुरुषोंकी अवगणनाके पात्र प्रवाहपर चले जानेकी अनादि पद्धतिको छोड दो । अनन्त गुण तुम्हारे पात्मामें ही भरे हुए हैं, उनको प्राप्त करनेके लिये दूसरों के पास जानेकी आवश्यकता नहीं है, केवल उनके प्रगट करनेकी आवश्यकता है। ब्रह्मचर्यका पालन किये बिना भौर ऐसा न हो सके तो स्पर्शेन्द्रियका भलीभाँति संयम रक्खे .बिना इन गुणोंका प्रगट होना कठिन है । अतः अपनेको (आत्माको ) पहचानने और पराया (पुद्गलका) छोडना इस सामान्य प्रतित होनेवाले सूत्रानुसार व्यवहार . करना योग्य है।
जैन सुबोधप्रकाश भाग २ ॥ २ प्रकरणरत्नाकर भाग २