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६१२ ] अध्यात्मकल्पद्रुम [चतुर्दश उर्वशी पाकर खड़ी हो, प्रार्थना करती हो; अपने पास पैसे तथा शक्ति हो, स्थान एकान्त हो और अन्य सब बातोंकी अनुकूलता हो फिर भी यदि मनपर संयम रहे तब ही सचमुच मुनिपन प्राप्त हो सकता है। परस्वार्धानपन आदि कारणोंसे तो कई बार अश्वको भी ब्रह्मचारी रहना पडता है, परन्तु इससे अश्वकी इच्छा शान्त नहीं होती है । यही दशा इस जीवकी भी है।
स्त्रीके लिये शास्त्रकारोंने बहुत कुछ कह दिया है ( ऐसा ही स्त्रिये पुरुषके प्रति समझलें) इस विषय पर विचार करनेसे जीव शुद्ध स्वरूपको स्वयं समझ सकता है । इसी प्रन्थके स्त्रीममत्वमोचन अधिकार में बहुत विस्तारपूर्वक इसका स्वरूप समझाने का प्रयत्न किया गया है; अतः विद्वानोंको त्रीसंयोग करते समय विचार करना चाहिये । इस संयोगकी सत्ता कैसी प्रबल है और दृढ सत्त्ववंत महात्मा उस सत्ताको उसके पुष्कल प्रबल कारण होनेपर भी किसप्रकार जड़मूलसे नाश कर देते हैं यह सिंहगुफावासी मुनि और स्थूलभद्रजीके दृष्टान्तसे समझमें आ सकता है । चार मास तक स्वादिष्ट मिष्टान्न खाकर वैश्याके घर रहनेपर भी गुरुने उनके कार्यको महान दुष्कर बतलाया। और चार मासके उपवास करके प्राणांत भयमें रहकर आत्मजागृति रखनेवाले सिंहगुफावासीका कार्य मात्र दुष्कर बतलाया गुरुके इस निष्पक्षपातपनको जो पंडित समझ गये हैं वे मूत्र, मांस, रुधिर
और चमड़ेकी थेलीपर रागांध बन कर संसारकूपमें गिरनेसे बच गये हैं । इस स्पर्शनेन्द्रियके वशीभूत होकर इलायचीपुत्र नाटककार बना, इसीके वशीभूत होकर बेनातट नगरका राजा इलायपुत्रकी मृत्युकी वाट जोहने लगा, इसीके वशीभूत होकर ' भयवं जा सा सा ' वाली स्त्री पांचसौ पुरुषोंके साथ भोग करनेपर भी असंतोषी रहती थी, इसीके वशीभूत होकर ब्रह्मदत्त