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अधिकार ] मिथ्यात्वादिनिरोधः १९५ नहीं करते है ? परन्तु हम तो जो वचनगुप्तिमाले प्राणी निरवद्य वचन बोलते हैं उनकी स्तवना करते हैं।" अनुष्टुप.
विवेचन-वचनसंवर-अनेक कारणोंसे वचन की प्रवृत्ति नहीं होती है। एकेन्द्रियपनमें स्वाभाविक बंधारण ही इससे विरुद्ध है, इसके उपरान्त दो इन्द्रियोंसे पचेन्द्रिय तक के तिर्यच स्पष्ट मनसे बोल नहीं सकते हैं, रोग, सभाक्षोभ अथवा गुंगेपनसे मनुष्य भी नहीं बोलते हैं। परन्तु इससे कुछ लाभ नहीं होता है। बोलनेकी शक्ति होने पर भी निरवद्य वचन बोलने में सच्ची खूबी है । वचनगुप्ति धारण की हो, भाषापर अंकुश हो और बोले तब सत्य, प्रिय, मित और पथ्य वचन ही बोले उसे निरवद्य वचन कहते हैं। मशक्तिमान् यदि साधु बन जाय तो उसमें कोई अनोखी बात नहीं है। शक्ति हो फिर भी बिना कारणके न बोले, गंभीरता रखे और बोले तब भी विचार करके बोले, प्रमाणोपेत और आवश्यकतानुसार ही बोले उसे संयमवान् कहते हैं।
निरवद्यवचन-वसुराजा. निरवयं वचो ब्रूहि, सावधवचनैर्यतः । प्रयाता नरकं घोरं, वसुराजादयो द्रुतम् ॥७॥
" तू निरवद्य ( निष्पाप ) वचन बोल, क्यों कि सावध वचन बोलनेसे वसुराजा आदि घोर नरकमें गयें हैं।"
अनुष्टुप् विवेचन-ऊपर लिखे अनुसार निरवद्य-पापरहित-वचन बोलनेकी आवश्यकता है। निरवद्य वचनों में सत्य, प्रिय और पथ्य इन तीनो गुणोंका समावेश होता है । वचन सत्य होनेपर भी यदि भप्रिय हो तो वे निरवद्य नहीं कहला सकते अपितु वचन बालते समय जिसको वे कहे जाय उसको वे हित करने