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अधिकार ] मिथ्यात्वादिनिरोधः करना धर्मध्यानका तीसरा भेद है । आखीरी ' संस्थानविचयध्यान' है। इसमें लोकका स्वरूप विचारना है । चौदह राज. लोक, उत्पत्ति, स्थिति और लयवाले जीव अजीवादिक ६ द्रव्ययुक्त लोकाकृतिकी चिन्तवना करना । इसीप्रकार शुक्लध्यानके चार भेद हैं (प्रथक्त्ववितर्कसविचार, एकत्ववितर्कअविचार, सूक्ष्मक्रिय और उच्छिन्नक्रिय )। इस ध्यानकी हकीकत अधिक सूक्ष्म है । इस ध्यानका स्वरूप योगशास्त्रंसे जान लें। यहां कहनेका तात्पर्य यह है कि ऐसे धर्म और शुकल ध्यानमें मनको लगाकर स्थिरता प्राप्त करनेसे महालाभ होता है।
चित्त स्थिरता प्राप्त करने का उपाय यही है कि मनको सदैव शुद्ध ध्यानमें लगाये रखना । उक्त ध्यानसे प्राणीको इन्द्रियोसे अगोचर आत्मसंवेद्य सुख होता है। .
सुनियंत्रित मनवाले पवित्र महात्मा. सार्थं निरर्थकं वा यन्मनः सुध्यानयन्त्रितम् । विरतं दुर्विकल्पेभ्यः पारगांस्तान् स्तुवे यतीन् ॥५॥
" सार्थकतासे अथवा निष्फल परिणामवाले प्रयत्नोंसे भी जिनका मन सुध्यानकी ओर लगा रहता है और जो खराब विकल्पोंसे दूर रहते हैं ऐसे-संसारसे पार पाये हुए यतियोंकी हम स्तुति करते हैं।"
अनुष्टुप्. विवेचन-कोई भी प्राणी कार्यके परिणामके लिये उत्तरदायी नहीं है । उसे अच्छा परिणाम होगा यह विचारकर कार्य करना चाहिये । ऐसे शुभ ध्यानसे किये हुए कार्यका परिणाम खराब नहीं होता है, परन्तु कदाच खराब होवे तो भी
१ सद्ध्यान इति वा पाठः ।