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अध्यात्मकल्पद्रुम [ चतुर्दश 'हठयोग ' जैनशास्त्रके मतानुसार कम लाभदायक है। काय.योगपर इससे जरा अंकुश लगता है, परन्तु मनके बन्धारणको समझ कर उसको सद्ध्यानमें जोड़ देनेकी रीति सर्वत्र अनुसरण करने योग्य है । मनको भाधीन करनेकी भी आवश्यकता है किन्तु वह अवस्था परत्वे है । ध्येय चार प्रकारके हैं । पिंडस्थ (जिसकी पार्थिव; आमेयी, मारुती, वारुणी और तत्रभू ऐसी पांच प्रकार धारणा होती है ), पदस्थ ( नवकारादि ), रूपस्थ (जिनेश्वर महाराजकी मूर्ति ) और रूपातीत (शुद्ध स्वरूप, अखण्ड आनन्द चिद्घनानंदरूप, परमात्मभाव प्रकाश ) । इस ध्येयमें मनको लगा देना ध्यान कहलाता है और ऐसा कर मनको स्थिर बनाना योगका मुख्य अंग है । इसीलिये जैनशास्त्रकार ध्यानका स्वरूप बतलाते हुए कहते हैं कि 'रागाइ विउट्टणसह झाणं' रागादिको दबाने में समर्थ हो उसे ध्यान कहते हैं। ध्यान चार प्रकारके हैं; उनमें आर्त और रौद्र ये दुर्ध्यान हैं। यहां धर्म भौर शुक्ल इन दो ध्यानों की व्याख्या प्रस्तुत है । इनका स्वरूप बहुत सूक्ष्म है । इनके हरेकके शास्त्रकार चार भाग करते हैं। धर्मध्यानके चार भेदोंमें प्रथम भेद 'मानाविचयध्यान'का है । सर्वज्ञके वचनोमें परस्पर विरोध नहीं है ऐसा समझ कर उनकी चिन्तवना करना-उनकी खूबी समझना यह प्रथम ध्यान है। इसके पश्चात् 'अपायविचयध्यान ' आता है। इसमें राग, द्वेष, कषाय किस किस प्रकारके दुःखको उत्पन्न करते हैं इसका विचार करना चाहिये, और पापकार्योंसे पिछा हठना यह धर्मध्यानका दूसरा भेद हैं । तीसरा भेद 'विपाकविचयध्यान ' है। कर्मका बन्ध और उदय विचारना; उनका साम्राज्य, तीर्थंकर, चक्रवर्ती जैसों पर भी उसकी चलनेवाली शक्ति, भौर जगतका व्यवहार कर्मविपाकसे ही चलता है इस सम्बन्धकः विचार