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अध्यात्मकल्पद्रुम [ चतुर्दश विषयमें मै यह प्रतिज्ञा करता हूं कि इसमें जो हार जाय उसे अपनी जिह्वा कटा देनी चाहिये और इस शब्दका अर्थ हमारा सहपाठी वसुराजा जो कहेगा उसके अनुसार माना जायगा।" नारदने यह सब अंगीकार किया क्योंकि सत्यवादीको लोभ नहीं होता है।
अब पर्वतकी माताने एकान्तमें पर्वतको कहा कि 'यद्यपि मैं घरके कामकाजमें रत्त रहती थी फिर भी मुझे अच्छी प्रकार ध्यान है कि 'अज' शब्दका अर्थ तेरे पिताजीने तीन वर्षका पुराना धान्य (शाली ) कहा था, इसलिये तूने बिना सोचे-विचारे जिह्वा कटानेका पण किया है। " पर्वत ने कहा, " अब मैने तो जो कुछ कह दिया है वह नहीं कहा, नहीं कहा जा सकता, अतएव तुमको अच्छा जान पड़े इसप्रकार इसका निवारण कीजिये । माताको पुत्रका स्वभाविकतया प्रेम हुआ इसलिये वह हृदयमें दुःखी होती हुई वसु राजाके निकट गई। पुत्र के लिये माता क्या " हे माता ! आपके दर्शनसे आज वीरकदंबक गुरुके दर्शन नहीं करती है ? हुए । आपको में क्या भेट करूं तथा आपके लिये क्या करूं ? सो मुझे फरमाइये । ” इसप्रकार वसुराजाने उससे कहा । माता बोली, " वत्स ! मुझे पुत्रभिक्षा दो। हे पुत्र ! बिना पुत्रके धनधान्य किस कामके हैं ?" वसुराजाने कहा, 'माता ! यह क्या बोलती हो ! पर्वत तो मेरे पाल्य और पूज्य है, गुरुपुत्र को गुरुतुल्य मानना ऐसी श्रुतिकी आज्ञा है । आज यमराजने कौनसा पाना खोला है कि जो मेरे भाईको मारने के लिये तैयार हुआ है। इसलिये हे माता ! तुम जो बात हो शिघ्र कहो ।" फिर पर्वतकी माताने नारदका आगमन, ' अज' शब्दकी व्याख्याके लिये हुआ वादविवाद, पर्वत तथा नारदकी तकरार, जिह्वा छेदनका पण और राराजा