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अध्यात्मकल्पद्रुम [चतुर्दश मार डाला, परन्तु फिर एक प्रधानशत्रु बच रहा । इस समय सब शस्त्र नष्ट हो गये, हाथमें तरवार तक न रही. फिर भी क्षत्रियवीर न डरा । दृढ साहस रख कर सिरके टोपसे इसे मार डालूंगा ऐसा विचार किया । अब अपने सिरपरके टोपको उतारनेके लिये हाथ ऊपर की ओर बढ़ाया और सिरपर हाथ फेरा तो केश लुंचित सिर जान पड़ा । सुज्ञवीर सचेत हुआ, ज्ञानदृष्टि जाग्रत हुई, विपर्यासभाव नष्ट हुआ और संवेग प्राप्त हुआ । विचार किया कि ' भरे जीव ! तू यह क्या करता है ? किसका पुत्र और किसका राज्य ? विना सोचे बिचारे तूने प्रथम व्रतका भंग किया'। ऐसे शुद्ध अध्यवसायमें ध्यानारूढ़ होने पर भी स्व आचरणको निन्दा करने लगे और अतिचार आलोचने लगे। मनसे बांधे कर्मोंको मनसे ही नष्ट कर दिये और सातवी नरकके लिये जो सामग्री एकत्रित की थी उसे विखेर दी। अब वीरप्रभुको श्रेणिकने थोड़ेसे समय पश्चात् फिरसे प्रश्न किया कि " हे परमात्मन् ! वह राजर्षि यदि अब मृत्युको प्राप्त हो तो कहां जायगा ?" प्रभुने उत्तर दिया कि "अनुत्तर विमानमें देव हो" श्रेणिकको इस उत्तरसे अधिक आश्चर्य हुआ इससे इसका कारण पूछा । मनोराज्यका स्वरूप, उसकी शक्ति, उसको वशमें करनेसे होनेवाली अनन्त गुणोंकी प्राप्ति आदिको प्रभुने समझाया । उस समय देवदुंदुभिका नाद हुआ । श्रेणिकने पूछा कि " हे प्रभू ! यह दुंदुभि क्यों बजती है ?" प्रभुने कहा कि “ हे श्रेणिक राजा ! उस राजर्षिको केवलज्ञान प्राप्त हुआ है ।." श्रेणिकराजाने यह हकिकत देख कर मनका वेग कितना बलवान होता है इसको बराबर समझा।
इस दृष्टान्तसे मनोराज्यकी वेगवाली भावना समझाई गई है । इस अगत्यके विषयमें बारंबार पर्यालोचन करनेकी आवश्य