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अधिकार ] मिथ्यात्वादिनिरोधः । [९८७ विचार करता है कि यदि मैं इस मगरमच्छके स्थान पर हूँ तो इसमेंसे एक भी मच्छलीको न निकलने दूं। ऐसे दुर्ध्यानमें ही नरकायु बांध कर मरकर तैतीश सागरोपमकी अवधिवाले सातवीं नरकमें उत्पन्न होता है। उक्त पाप तहन मानसिक है, फिर भी उसकी वृत्ति बहुत खराब होती है । मनपर अंकुश न होनेवालेकी यह ही दशा होती है । जो सम्पूर्ण दिन प्रामकी बाते करते हो, बुराई करते हों उनको इस छोटीसी घटनासे बहुत कुछ समझनेका है। स्त्रियोंको भी विकथा त्याग करनेका विशेषतया विचार करना चाहिये, ऐसा यह दृष्टान्त बताता है । अपितु जिस प्रकार मनसे महापापबंध होता है उसीप्रकार इसका संवर करनेसे महान लाभ होता है इसके लिये अब पढ़िये ।
मनोवेग-प्रसन्नचन्द्र. प्रसन्नचन्द्रराजर्षे-मनः प्रसरसंवरौ । नरकस्य शिवस्यापि, हेतुभूतौ क्षणादपि ॥३॥
" चणभरमें प्रसन्नचन्द्र राजर्षिके मनकी प्रवृत्ति मौर निवृत्ति अनुक्रमसे नरक और मोक्षका कारण हुई।" अनुष्टुप
विवेचन-मनका वेग अत्यन्त है । शुभ अध्यवसायकी धारा जब मानसिक राज्यद्वारा आत्मकुंजपर पड़ती है उस समय इस परका मेल एकदम गायब हो जाता है, दूर हो जाता है, हठ जाता है और जीव अल्प समयमें अपने शुद्ध स्वरूप में मा जाता है । प्रसन्नचन्द्र राजर्षिका चरित्र शास्त्रप्रसिद्ध है। उसको भी यही हुआ था । मेतार्यमुनि, धन्नाशालिभद्र, गजसुकु. माम आदि अनेक महापुरुष मनोराज्यपर अंकुश प्राप्त कर
१ तंदुलमत्स्य तथा प्रसन्न चन्द्र राजर्षिकी हकीकत कुछ नवमें अधिकारमें लिखी गई है, फिर भी खास कारणसे उसका यहां पुनरावर्तन किया गया है।