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अधिकार ] मिश्वात्वादिनिरोधः [५८५ किसी सूक्ष्म शंकाको दूर करने निमित्त केवली महाराजके पास भेजनेको जो शरीर तैयार करे ( जो केवल शुद्ध और शुभरूप ही होता है ) उसके समाप्त होनेके पहिले की दशा।
'७ आहारकः-ऊपरोक्त शरीरकी संपूर्ण अवस्था ।
ऊपर जो सात प्रकारके शरीर बतलाये गये हैं उनके सम्बन्धी जीवका जो जो प्रयत्न हो उस उस नामका योग समझना चाहिये । जिसप्रकार हम अभी औदारिक और तेजसकार्मणके लिये प्रयत्नवाले हैं। यह बात ध्यानमें रखे कि तैजस बिना कार्मण और कार्मण बिना तैजस नहीं होता है-इत्यादि कारणों के कारण तेजस कार्मणको शरीररूपसे भिन्न न गिन कर योगरूपसे इकट्ठे कर एक ही गिने गये हैं।
इन ५७ बंध हेतुओंका संवर किया हो तो कर्मबंधकी प्रणालिका बन्ध हो जाती है और पहलेके बंधे हुए कर्मोंका चय होनेसे जीव स्वतंत्र अनवधि सुखकी प्राप्ति करता है । इस अधिकारमें योगनिरोध और इन्द्रियदमनपर विशेषतया विवेचन किया जायगा । मिथ्यात्वविषे विवेचन इस अधिकारमें हो गया है, अपिरतिके सम्बन्धमें इन्द्रियदमन, मनोनिरोध और दयाके लिये पहले भलीभाति लिख देनेसे विशेष लिखनेकी आवश्यकता प्रतीत नहीं होती है। कषायके लिये विषयकषाय अधिकारमें लिख दिया गया है इसलिये यहांपर बंधहेतुओंमेसे योगपर खास विवेचन है जो बहुत मनन करने योग्य है ।
मनोनिग्रह-तंदुलमत्स्य. मनः संवृणु हे विद्वन्न... संवृतमना यतः।