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५८२] अध्यात्मकल्पाम
[ चतुर्दश दरणीय हैं ।" इसप्रकारकी बुद्धि रखना इसमें तो उक्त मिध्यात्वका अभाव है। गीतार्थपर निष्ठा रखना और गुणवान को परतंत्रपन रखना इसमें दोष नहीं है, क्योंकि सर्व जीवोंका बुद्धिवैभव विशाल नहीं होता है।
अनामिग्रहिक-सर्व देव वन्दना करने योग्य हैं, कोई भी निन्दा करने योग्य नहीं हैं। इसीप्रकार सर्व गुरु और सर्व धर्म अच्छे हैं । ऐसी सामान्य वाणी । आलस करके बैठ रहना
और सत्यकी परीक्षा न करनेकी वृत्ति दूसरा मिथ्यात्व है। इसमें स्वर्ण तथा पीतल, हीरा तथा काच दोनोंको जो समान समझा जाता है यह मिथ्याभाव है। . भाभिनिवेशिक-धर्मका स्वयं यथार्थ स्वरूप समझता हो, फिर भी किसी प्रकारके दुराग्रहसे प्ररूपना विपरीत करे । अहंकारसे नया मत स्थापित करने तथा चलाने निमित्त अथवा बन्दन नमस्कारादि प्राप्त करने निमित्त कई दुर्भवी जीव इसप्रकारके मिथ्यात्वका सेवन करते हैं।
सांशयिक-शुद्ध देव, गुरु और धर्म सच्चे हैं या झूठे ऐसी शंकाका होना । सूक्ष्म अर्थका संशय तो साधुको भी होता है, परन्तु वे तो तत्त्व केवलीगम्य इस अन्तके निर्णय पर रहते हैं, इससे यह मिथ्यात्वरूप नहीं परन्तु सच्चे समाधानको जाननेकी अभिलाषा है । १ देव आदि तत्त्वके लिये शंका सांशयिक मिथ्यात्व कहलाता है । २ उसके स्वरूपके लिये शंका होना शंका । ३ उसके जाननेकी इच्छा वह जिज्ञासा और उसके कार्यभूत होता प्रश्न वह आशंका ।
अनाभोगिक-विचारशून्य एकेन्द्रिय जीवको अथवा विशेष ज्ञानसे रहित जीवोंको होता है।
जो जो कर्मबन्ध होते हैं वे वे भोगने पड़ते हैं, ( उदय