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अधिकार ] यतिशिक्षा
[ ५७७ चाहिये । अन्यथा अल्प ज्ञानदशाके कारण अपने लिये अपवाद मार्ग से विचार करते सर्व अपने आत्माको गुणनिष्पन्न मानले
और दूसरों के लिये उत्सर्गमार्गानुसार परीक्षा करते दूसरोंका हृदय विशिष्ट ज्ञान सिवाय छद्मस्थको गम्य न होनेके कारण कोई भी दूसरे गुणी न जानपड़े, ऐसा होनेपर भी स्वयं अभिमानी हो सर्व गुणियोंको अवगुणी समझ, उनकी अवज्ञा कर बोधिवीज अनन्तकाल तक न मिल सके ऐसा परिणाम ला देते. हैं, इसीलिये अंतिम श्रुतकेवली भद्रबाहुस्वामी महाराजने वंदननियुक्तिमें रहनेका स्थान, विहार आदि बाह्य अनुष्ठानपर, दृष्टि डाल कर साधुपनकी परीक्षा करनेको लिखा है । वहांपर वे महात्मा इतना दावेके साथ कहते हैं कि कदाचित् अभव्यादिकके शुद्ध आचरणको देखकर उनको शुद्ध मान कर जो शुद्धिसे पाशी. भाव रहित वंदन किया जाय तो वन्दन करनेवालेको किसी प्रकारकी हानि न होकर विशेष लाभ ही होता है ।
इस जमानेमें इस उपरोक्त विचार निरन्तर ध्यान रखनेकी आवश्यकता होनेसे इतना अधिक विवेचन किया गया है । सदैव बाह्य आचरण कालानुसार प्राप्त हुई संघायण आदि सामप्राके अनुसार ही हो सकता है । यह अपने व्याक्तित्व पर अपनी हदका विचार करनेसे शीघ्र ही अनुभवमें आ सकता है। यदि शास्त्र के प्रत्येक वचन सुपरिणाममें अनुभव न किया जाय तो वह शास्त्र शस्त्ररूप बन कर, प्राणीको अपने में गुणीपनका अहंकार
१ इस हकिकतमें और गुरुशुद्धि अधिकारके दूसरे तीसरे चोकमें वर्णित हकिकतमें लेशमात्र भी विरोध नहीं है यह सुज्ञोंको अवश्य ज्यान में रखना चाहिये, क्योंकि वन्दन करनेवाला परीक्षामें प्रवृत हुआ हुआ है और वह साधुस्थान आदि यथार्थ साधुके रूपमें ही देखता है और ऐसा होनेसे वन्दन करनेवालेको शुद्ध फलकी प्राप्ति हो सकती है और होती है।