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अध्यात्मकल्पगुम . [प्रयोदश विस्तारसे संयमके सत्तर भेद और चरणकरणसित्तरीको पालना तेरा साध्यबिन्दु है।
हे श्रावक ! साधुमार्ग ऐसा कठिन नहीं है कि तू चाहे वो न बना सके । मनपर थोड़ा अंकुश रख, वस्तुस्थितिका जरा विचार कर, और तेरा क्या है और तुझे क्या करना चाहिये इसका बराबर विचार कर । फिर देख कि संयममें क्या कठिनता हे ? गुण प्राप्त करने के लिये गुणी पुरुषके चरणों की सेवा करना तेरा काम है । देशपिरति जीव सविरति गुणप्राप्त करनेकी इच्छा रखे तब ही उनका देशविरति गुण बना रह सकता है ऐसा शाखकारीका उल्लेख है । तू साधुपर प्रेम रख और बन सके तो पैसा जीवन बना । यह लेख साधुओंकी परीक्षा निमित्त लिखा हुआ होनेसे श्रावकोंको उतना उपयोगी नहीं है कि जितना साधुओंको ऊंची हदपर चढ़ने और आत्महित विचारनेके लिये उपयोगी हो; परन्तु श्रावक भी साधुके वेषके समान अपने श्रावकपमका व्रत उच्चारणादिके वेशकी कल्पनाका विचार करे तो उनको भी अपनी आत्माको ऊंची हदपर चढ़ाने निमित्त यह लेख अक्षरशः उपयोगी सिद्ध होगा । इसप्रकारका जीवका अनादि स्वभाव होनेसे जीव दूसरोंके सरसव जैसे दूषणको मेरुके समान देखनेको हजारों वाला हो जाता है, परन्तु अपने भेरु जैसे दूषणको सरसवके समान भी न देखनेवाला होनेसे इसके लिये उसको एक नेत्र भिला हो ऐसा भी मालम नहीं होता है । समकित, देशविरति या सर्वविरतिके गुण दिनपरदिन विशेष प्राप्त करने निमित्त सर्व भव्यजीवोंको उन सब गुणों के उत्सर्ग मार्गमें बहुधा यह ही विचार होता है कि हमारे हृदयकी स्थिति कैसी है ? दूसरे जीव समकितवंत, देशविरतिवंत या चरित्रवत है या नहीं इसकी परीक्षा उनके बाह्य आचरणोंपरसे ही, करनी